गतांश से आगे...अध्याय 23 भाग 5
उक्त मन्त्रोच्चारण के पश्चात् हाथ में लिए हुए पुष्पाक्षतादि को गणेशाम्बिका पर चढ़ादे।(ध्यातव्य है कि अभी देवावाहन नहीं किया गया है।पूजा की तैयारी क्रम में सामने पत्ते पर या दोने में मौली,सुपारी,अक्षतादि रखकर सजाया भर गया है।)
क्रमशः...
अब,आचार्य और सपत्निक यजमान भी चित्र में दर्शाये
गये स्थान पर अपना आसन लगालें।हालाकि यजमान को आवश्यकतानुसार उठ-उठ कर विभिन्न
पूजा-स्थलों(वेदियों) पर
जाना पड़ता है।ध्यातव्य है कि पूजा मंडप के अन्दर आसन छोड़ कर बार-बार उठने/जाने
पर ‘आसन-त्याग’ का सामान्य दोष लागू नहीं होता। पूजन कार्य में पत्नी, पति के दांये
बैठे।इस सम्बन्ध में शास्त्रादेश है-
आशीर्वादेऽभिषेकेच पादप्रक्षालने तथा,शयने भोजने चैव पत्नी तूत्तरतो
भवेत्।।
अब,आचार्य द्वारा ग्रन्थि वन्धन क्रिया सम्पन्न
करायी जाय-ॐ मङ्गलं भगवान् विष्णुः मङ्गलं गरुड़ध्वजः।मङ्गलं पुण्डरीकाक्षः
मङ्गलाय तनोहरिः।।-के उच्चारण सहित अक्षत(अक्षत कहते हैं पांच बार
प्रक्षालित किया गया अरवा चावल,जो हरिद्राचूर्ण मिश्रित हो),फूल,सुपारी,और द्रव्य
लेकर यजमान-पत्नी की चुनरी में डाल कर,गांठ लगाकर,यजमान की चादर से संयुक्त कर
देना- ग्रन्थिबन्धन क्रिया कहलाती है। किसी भी सपत्निक कार्य में
ग्रन्थिबन्धनक्रिया अनिवार्य है। ग्रन्थि बन्धन की यह क्रिया पुराने घर से निकलते
समय ही किया जाना चाहिए था; किन्तु रास्ते की व्यावहारिक असुविधा को ध्यान में
रखकर,इसे यहाँ करने की बात की जा रही है।हाँ,भवन के द्वार पर आकर गोपूजन के पूर्व
कर लिया जा सकता है।(ग्रन्थिबन्धन से सम्बन्धित एक खास बात पर ध्यान दिलाना
चाहता हूँ— प्रायः लोगों को पूजन कार्य में देखा जाता है कि पति कोई कार्य कर रहा
होता है,तो पत्नी अपने हाथ से पति के हाथ को पकड़े रहती है,या फिर पुरुष हवन कर
रहा होता है, उस समय आहुति डालते वक्त वायें हाथ से अपने ही दायें हाथ को छूये
रहता है- ये दोनों ही कार्य अति मूर्खतापूर्ण है।ग्रन्थि बन्धन युक्त पत्नी का पति
के शरीर का स्पर्श किये रहने का कोई प्रयोजन या औचित्य नहीं है,इसी भांति दाहिने
हाथ से हवन कुण्ड में आहुति प्रदान करते समय,या कुछ अन्य कार्य करते समय वायें हाथ
से स्पर्शित किये रहना भी व्यर्थ और अविधिक, अविवेकपूर्ण ही है।पत्नी की भूमिका
पूजन कार्य में हर तरह का सहयोग करना है,जितना वह सहजता से कर सके।जीवनरथ के दो
चक्के मिल कर धर्मकार्य में संलग्न हैं। ग्रन्थि बन्धन के पश्चात् किसी एक के
द्वारा भी किया गया कार्य दूसरे के द्वारा किया गया ही माना जायेगा। इसमें जरा भी
संशय नहीं है।एक और बात का ध्यान रखना चाहिए—सपत्निक कर्म का विशेष महत्त्व है।जिसकी
पत्नी जीवित हो उस पुरुष को कोई भी ऐसा कार्य अकेले,नहीं करना चाहिए, और यही नियम
पत्नी के लिये भी मान्य है।हाँ,विधवा,विधुर,परित्यक्ता आदि के लिए बात अलग होगी।)
अब, पूजन कार्यार्थ जलपात्र (कर्मपात्र) स्थापित
करे।यथा—तांबे के जलपात्र में फूल,अक्षत,सुपारी,दूर्वा,द्रव्य और आम्रपल्लव वा
कुशा डाल कर निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक जल को आलोड़ित करे(चलावे)-
ऊँ गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती, नर्मदे सिन्धुकावेरी
जलेस्मिन्सन्नि- धौकुरु।।
अब,क्रमशः तीन कुशाओं की बंटी हुयी पवित्री
बायें हाथ की अनामिका अंगुली में और दो कुशाओं की बंटी हुयी पवित्री दायें हाथ की
अनामिका अंगुली में धारण करें निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक- ऊँ पवित्रे
स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसवः उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेँण सूर्यस्य
रश्मिभिः।तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम्।। अथवा मात्र
ऊँ भूर्भुवःस्वः कह कर पहन लें।(स्त्री को पवित्री धारण करने की
आवश्यकता नहीं है,उसे सोने की अंगूठी धारण करनी चाहिए)।पवित्री धारण करने
के पश्चात् एक या तीन बार प्राणायाम कर लेना उत्तम होता है।विशेष प्रकार से न कर
सके तो बाँयीं नाशापुट से स्वाँस लेकर दाँयीं नाशापुट से छोड़ दे,और पुनः दाँयीं
से लेकर वाँयीं से छोड़ दे।यह प्राणायाम की अति संक्षिप्त विधि है।विशेष क्षमता और
अभ्यास हो तो अधिक भी किया जा सकता है।
अब,दाहिने और सामने एक-एक दीप प्रज्जवलित कर,
जलाक्षतपुष्पद्रव्यादि लेकर विधिवत साक्षी दीप और रक्षा दीप को स्थापित करे- भो
दीप! देवरुपस्त्वं कर्म-साक्षी ह्यविघ्नकृत् ,यावत्कर्म समाप्तिःस्यात् तावत्त्वं
सुस्थिरो भव।प्रसन्नो भव।वरदा भव। (सामने या दायीं ओर साक्षीदीप घी का, और बायीं
और रक्षादीप तिलतैल का होना चाहिए।अज्ञानवश लोग तिल तैल के स्थान पर सरसो का तेल
प्रयोग कर लेते हैं,जो कि अनुचित है।तिलतेल के अभाव में घी का प्रयोग किया जा सकता
है,किन्तु सरसो तेल कदापि नहीं।)
अब,कर्मपात्र से थोड़ा-थोड़ा जल तीन बार ले लेकर ॐ
केशवाय नमः, ॐ माधवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः कहते हुए तीन आचमन करे,और पुनः चौथी
बार जल लेकर ॐ हृषीकेशाय नमः कहते हुए हाथ धोले।
पुनः जल लेकर विनियोग मन्त्र बोलें- अपसर्पन्त्विति
मन्त्रस्य वामदेव ऋषिः, शिवो देवता,अनुष्टुप छन्दः,भूतादिविघ्नोत्सादने विनियोगः।–
सामने जल गिरा दें।
अब,अक्षत वा पीला सरसो एवं मौली(एक लच्छी)दोने
में, बायें हाथ में लेकर दाहिने हाथ से ढक कर दिग् रक्षा व भूतोत्सादन मन्त्र
बोले-
ॐ गणाधिपं नमस्कृत्य नमस्कृत्य
पितामहम्।विष्णुं रुद्रं श्रियं देवीं वन्दे भक्त्या सरस्वतीम्।। स्थानाधिपं
नमस्कृत्य ग्रहनाथं निशाकरम्।धरणीगर्भसम्भूतं शशिपुत्रं बृहस्पतिम्।। दैत्याचार्यं
नमस्कृत्य सूर्यपुत्रं महाबलम्।राहुं केतुं नमस्कृत्य यज्ञारम्भे विशेषतः।। शक्राद्या
देवताः सर्वाः मुनीं चैव तपोधनान्।गर्गंमुनिं नमस्कृत्य नारदं मुनिसत्तमम्।। वशिष्ठं
मुनिशार्दूलं विश्वामित्रं च गोभिलम्। व्यासं मुनिं नमस्कृत्य
सर्वशास्त्रविशारदम्।। विद्याधिका ये मुनयः आचार्याश्च तपोधनाः। तान्
सर्वान् प्रणमाम्येवं यक्षरक्षाकरान् सदा।।
अब,इस अभिमन्त्रित अक्षत/सरसो को थोड़ा-थोड़ा
ले-लेकर आचार्य के निर्देशानुसार विभिन्न दिशाओं में छींटे—
पूर्वे रक्षतु वाराहः आग्नेयां
गरुड़ध्वजः।दक्षिणे पद्मनाभस्तु नैऋत्यां मधुसूदनः।।
पश्चिमे चैव गोविन्दो वायव्यां तु
जनार्दनः।उत्तरेश्रीपतिःरक्षेत् ईशाने तु महेश्वरः।।
ऊर्ध्वं रक्षतु धाता वोऽधोऽनन्तश्च रक्षतु।एवं
दशदिशो रक्षेद् वासुदेवो जनार्दनः।।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं रक्षत्वीशो
ममाद्रिधृक्।यदत्र संस्थितं भूतस्थानमाश्रित्यसर्वदा। स्थानं त्यक्त्वातु तत्सर्वं
यत्रस्थं तत्र गच्छतु।अपक्रामन्तु ते भूता ये भूता भूतले स्थिताः।।ये भूता
विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया।अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतो
दिशम्।।सर्वेषामविरोधेन पूजाकर्म समारभे।।-शेष बचे अक्षत और मौली को सामने रखकर, तीन
बार जोर से ताली बजावे।
अब,आचार्य अपने यजमान को कुमकुमादि तिलक
लगावे,तथा थोड़ा सा सिन्दूर ॐ गौर्यैः नमः से मन्त्राभिषिक्त
करके यजमान पत्नी के हाथों में दे दे,और उसे स्वयं लगा लेने का निर्देश दें।तिलक
की महत्ता के सम्बन्ध में शास्त्र-वचन हैं-
ऊर्ध्वपुण्ड्रं मृदा कुर्याद् भस्मना तु
त्रिपुण्ड्रकम्।
उभयं चन्दनेनैव अभ्यङ्गोत्सवरात्रिषु।।
ललाटे तिलकं कृत्वा संध्याकर्म समाचरेत्।
अकृत्वा भालतिलकं तस्य कर्म निरर्थकम्।। (तिलक के सम्बन्ध में भी एक अविवेक पूर्ण
चलन की ओर ध्यान दिलाना उचित प्रतीत हो रहा है—ब्राह्मण जब किसी यजमान को तिलक
लगाने के लिए अपना हाथ बढ़ाता है,तो उस समय यजमान अपना दाहिना हाथ अपने सिर के
पीछे कर लेता है- वस्तुतः यह भी एक प्रकार की अज्ञानता का ही सूचक है।योग के गहन
ज्ञान रखने वाले इस रहस्य(औचित्य-अनौचित्य) को सहज समझ सकते हैं।आम व्यक्ति के सिर्फ
इतना ही सुझाव है कि तिलक लगवाने हेतु दोनों हाथों को जोड़कर, नम्रता पूर्वक गर्दन
थोड़ा आगे झुका दे,वस।)
तिलक वन्दन के बाद,पवित्रीकरण हेतु विनियोग करे- ऊँ
अपवित्रःपवित्रोवेत्यस्य वामदेवऋषिः विष्णुर्देवता गायत्री छन्दः हृदि पवित्रकरणे
विनियोगः।।(कर्मपात्र से कुशा वा कलछी द्वारा जल लेकर भूमि पर गिरावे।)
पुनः जल लेकर मन्त्रोच्चारण करते हुए अपने चारो
ओर, और सभी पूजन सामग्रियों पर भी जल का छिड़काव करे- ॐ अपवित्रः
पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स वाह्याभ्यन्तरः
शुचिः।। ॐ पुण्डरीकाक्षःपुनातु, ऊँ पुण्डरीकाक्षःपुनातु, ॐ पुण्डरीकाक्षःपुनातु।। (पुष्प पर जल
न छिड़के,ध्यातव्य है कि सभी वस्तुयें जलसिंचन से पवित्र होती हैं,किन्तु पुष्प अपवित्र
हो जाता है।)
पुनः विनियोग- ॐ पृथ्वीति मन्त्रस्य
मेरुपृष्ठ ऋषिः सुतलं छन्दः कूर्मो देवता आसने विनियोगः।।-आसन के सामने
जलगिरा,कर पुनः जल ले ले और मन्त्रोच्चारण पूर्वक अपने आसन के चारो ओर जल-बन्धन
करे- ॐ पृथ्वी ! त्वया धृता लोका देवि ! त्वं विष्णुना धृता।त्वं च धारय मां
देवि ! पवित्रं कुरु चासनम्।।
तत्पश्चात् जलाक्षतपुष्पपूंगीफलद्रव्यादि लेकर
स्वतिवाचन मन्त्रोच्चारण करे।इस कार्य में वहाँ उपस्थित अन्य ब्राह्मण भी सहयोग
करें,यानी मन्त्रोच्चारण एक साथ करें।सामूहिक स्वस्तिवाचन का अधिक महत्त्व है।
(आगे विभिन्न मन्त्रों में वैदिकस्वर ह्रस्व एवं
दीर्घ ग्वं की कम्प्यूटरफॉन्ट उपलब्धि के अभाव में उसके स्थान पर ~ का ही
प्रयोग करना पड़ रहा है। इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ)
ॐ आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो
अपरीतास उद्भिदः। देवा नो यथा सदमिद् वृधे
असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे।। देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानाXरातिरभि नो निवर्तताम्। देवानाXसक्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु
जीवसे।। तान्पूर्वया निविदा हूमहे वयं
भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम्। अर्यमणं
वरुणàसोममश्विनासरस्वती नः सुभगा मयस्करत् ।। तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता
पृथिवी तत्पिता द्यौः। तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना श्रृणुतं धिष्ण्या युवम्।। तमाशानं जगतस्त्स्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे
हूमहे वयम्। पूषा नो यथा
वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये।।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाःस्वस्ति नः
पूषा विश्ववेदाः। स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो
अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो वृहस्पतिरधातु।। पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभं यावानो
विदथेषु जग्मयः। अग्निजिह्वा मनवः
सूरचश्रसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह।। भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाश्रभिर्यजत्राः। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाä सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।। शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा
नश्चक्रा जरसं तनूनाम्। पुत्रासो
यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः।। अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता
स पिता स पुत्रः।। विश्वे
देवा अदितिः पञ्चजना अदितिरजातमदितर्जनित्वम् ।। द्यौः शान्तिरन्तरिक्षäशान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः
शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वäशान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा
शान्तिरेधि।। यतो यतःसमीहसे ततो नो अभयं कुरु । शं नः कुरु
प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः।। सुशान्तिर्भवतु।।
ॐ गणानान्त्वा गणपतिàहवामहे प्रियाणान्त्वा प्रियपतिàहवामहे निधीनान्त्वा निधिपतिàहवामहे व्यसो मम। आहमाजानि गर्ब्भधमात्वमजासि
गर्ब्भधम्।। ॐ अम्बे अम्बिके अम्बालिके न
मा नयति कश्चन। ससस्त्यस्वकः सुभद्रिकाङ्काम्पीलवासिनीम्।। ॐ श्रीमन्महागणाधिपतये नमः। ॐ लक्ष्मीनारायणाय
नमः। ॐ उमामहेश्वराभ्यां नमः। ॐ
वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः। ॐ शचीपुरन्दराभ्यां नमः। ॐ मातृपितृचरणकमलेभ्यो नमः। ॐ
इष्टदेवताभ्यो नमः। ॐ कुलदेवताभ्यो नमः। ॐ ग्रामदेवताभ्यो नमः। ॐवास्तुदेवताभ्यो
नमः। ॐ स्थानदेवताभ्यो नमः। ॐसर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः। ॐ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो
नमः। ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय ॐ
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः।। ॐसुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।लम्बोदरश्च विकटो
विघ्ननाशो विनायकः।। धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः।द्वादशैतानि नामानि
यः पठेच्छृणुयादपि।। विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा।संग्रामे सकटे चैव
विघ्नस्तस्य न जायते।। शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम्।प्रसन्नवदनं
ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये।। अभीप्सितार्थसिद्ध्यर्थं पूजितो यः
सुरासुरैः।सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नमः।।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये ! शिवे !
सर्वार्थसाधिके।शरण्ये त्र्यम्बके ! गौरि नारायणि नमोऽस्तुते।।सर्वदा सर्वकार्येषु
नास्ति तेषाममंगलम्।येषां हृदिस्थो भगवान् मंगलायतनं हरिः।।तदेव लग्नं सुदिनं तदेव
ताराबलं चन्द्रबलं तदेव।विद्याबलं देवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेऽङ्घ्रियुगं
स्मरामि।।लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः।येषामिन्दवरश्यामो हृदयस्थो
जनार्दनः।।यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।तत्र श्रीर्विजयो
भूतिर्धुवा नीतिर्मतिर्मम।। अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।तेषां
नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। स्मृतेः सकलकल्याणं भाजते यत्र जायते। पुरुषं
तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरिम्।।सर्वेष्वारम्भकार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः। देवा
दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशानजनार्दनाः।। विश्वेशं माधवं ढुण्ढिं दण्डपाणिं च
भैरवम्। वन्दे काशीं गुहां गङ्गां भवानीं मणिकर्णिकाम्।। वक्रतुण्ड महाकाय
कोटिसूर्यसमप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।ॐ श्री
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः।।
उक्त मन्त्रोच्चारण के पश्चात् हाथ में लिए हुए पुष्पाक्षतादि को गणेशाम्बिका पर चढ़ादे।(ध्यातव्य है कि अभी देवावाहन नहीं किया गया है।पूजा की तैयारी क्रम में सामने पत्ते पर या दोने में मौली,सुपारी,अक्षतादि रखकर सजाया भर गया है।)
क्रमशः...
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