पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-132

गतांश से आगे...अध्याय 23 भाग 6

उक्त मन्त्रोच्चारण के पश्चात् हाथ में लिए हुए पुष्पाक्षतादि को गणेशाम्बिका पर चढ़ादे।(ध्यातव्य है कि अभी देवावाहन नहीं किया गया है।पूजा की तैयारी क्रम में सामने पत्ते पर या दोने में मौली,सुपारी,अक्षतादि रखकर सजाया भर गया है।)
अब पुनः जलाक्षतपूगीफलपुष्पद्रव्यादि दाहिने हाथ में लेकर संकल्प बोले(बीच में जहां कहीं भी....या अमुक शब्द आया है वहां आचार्य निर्दिष्ट शब्दों का प्रयोग करना चाहिए-जैसे नगर,ग्राम, संवत्सर,मास,पक्ष,तिथि,दिन,गोत्र आदि।तथा अपने नाम के आगे ब्राह्मणों को शर्मा,क्षत्रियों को वर्मा,वैश्यों को गुप्त और शूद्रों को दास कहना चाहिए,न कि पाठक,मिश्र,चौबे,पांडे आदि।)(निर्णयसिन्धु एवं भविष्यपुराण में संकल्प की महत्ता और औचित्य पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि- संकल्पेन विना विप्र ! यत्किञ्चित् कुरुते नरः।फलं चाप्यल्पकं तस्य धर्मस्यार्धं क्षयो भवेत्।। तथा च शान्ति मयूख में कहा गया है – मासपक्षतिथीनां च निमित्तानां प्रपूर्वकः।उल्लेखनमकुर्वाणो न तस्य फलभाग्भवेत्।। अतः समुचित फल चाहने वालों को किसी धर्मकार्य में सचेष्ट होकर संकल्प अवश्य करना चाहिए।)
हरि ॐ तत्सत् ॐ विष्णुर्विष्णुविष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे द्वितीययामे तृतीयमुहूर्ते  श्रीश्वेतवारहकल्पे  सप्तमे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तरगते बौद्धावतारे प्रभवादि षष्टिसंवत्सराणां मध्ये,वैक्रमाब्दे...संवत्सरे श्रीमच्शालिवाहनशाके यथायने सूर्ये यथा ऋतौ च यथा नक्षत्रे यथा-यथा राशि स्थिते ग्रहेषु सत्सु यथा लग्न मुहूर्त योग करणान्वितायाम् एवं ग्रह गुण विशेषण विशिष्टायां शुभ पुण्य पर्वणि वर्तमाने.....नगरे/ग्रामे/क्षेत्रे.... मासे...पक्षे.... तिथौ...वासरे...गोत्रः ....शर्मा/वर्मा/ गुप्त/दास नामाऽहम् सपत्नीको मम सभार्यस्य पुत्रपौत्रादिसमस्तकुटुम्बसहितस्य सपरिजनस्य अस्मिन्न नूतने(क्रीते पुनरुद्धृते वा) गृहे निवसतो निवसिष्यतश्च समस्त जनस्य चिरकालसुखनिवास- सौमनस्यनैरुज्यदीर्घायुः सकलमनोरथसिध्यर्थं दैहिकदैविकभौतिकतापत्रयाधिव्याधि सर्वोपद्रवसुवर्णरजताद्यष्टविधशल्य- भूमिदोषआयवारांशव्ययादीन्यथाभवन-गृह  निर्माणार्थविहितभूमिखनन- वृच्छच्छेदनादिनानाविधहिंसादिदोषपरिहारद्वारा एतद् गृहक्षेत्रफलावच्छिन्न- भूम्यधिष्ठितदेवनोपरोपजनित समस्तदोषनिवृत्तिपूर्वकं वास्तोः समस्तशुभतासिद्धयर्थं श्रीपरमेश्वरप्रीतिद्वारा शिरव्यादिदेवानां प्रसन्नार्थं श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासोक्तसमस्तशुभताप्राप्त्यर्थं सग्रहयज्ञां वास्तुपूजन/ वास्तुशान्ति, गृहप्रवेशाख्यं कर्मं च करिष्ये, तङ्गत्वेन स्वस्तिपुण्याहवाचनं प्रधानकलश, रुद्रकलश,वास्तुकलशादि स्थापन-पूजनं,विविध मातृकादिपूजनं वसोर्धारापूजनमायुष्यमन्त्र जपं सांकल्पिकमाभ्युदयिकश्राद्धमाचार्यादिवरणं च करिष्ये,तत्रादौ तन्निर्विघ्नतासिध्यर्थं श्रीगणेशाम्बिकयो पूजनं च करिष्ये।
(नोट-1. इस चिह्न / का ध्यान रखते हुए आवश्यकतानुसार वाक्यान्तर प्रयोग करना चाहिए,सुविधा के लिए संकल्प एकत्र दिया गया है।
 2. ध्यातव्य है कि स्वस्तिवाचन पूर्व में ही कर चुके है,अतः संकल्पवाक्यानुसार पुनः करने का कोई औचित्य नहीं है।संक्षिप्तरुप से कर भी लिया जाय तो कोई हर्ज नहीं।व्यवहार में भी प्रायः यही देखते हैं कि स्वस्तिवाचन से ही कार्यारम्भ करते हैं।मांगलिक कार्यों में बारबार स्वस्ति कामना से इसका वाचन किया जाता है।हाँ, पुण्याहवाचन की क्रिया अभी शेष है।अतः उसकी विधि यथास्थान प्रस्तुत की जायेगी।
3. .....नान्दीश्राद्धं ततः कुर्यात् पुण्याहं वाचयेत्ततः – पुण्याहवाचन के क्रम की चर्चा इस अध्याय के पूर्व में ही की जाचुकी है।मत्स्यपुराण में इसे नान्दीश्राद्ध के पश्चात् करने का संकेत है।किंचित पूजा पद्यतियों में स्वस्तिवाचन के बाद ही करने की बात आती है,तो कहीं कलशस्थापन के बाद।ध्यातव्य है कि पुण्याहवाचन के लिए वरुण का आवाहन-पूजन अनिवार्य है,जिसके लिए अतिरिक्त कलशादि की आवश्यकता होती है।वित्तानुसार यह कलश धातु या मिट्टी का हो सकता है।साथ ही जल गिराने के लिए दो अलग-अलग पात्र भी तदभांति ही- धातु वा मिट्टी के- अनिवार्य है।यहां मेरा कथन सिर्फ इतना ही है कि सामान्य पूजा में तो नहीं, किन्तु विशेष पूजाकार्य में पुण्याहवाचन कर्म अवश्य किया जाना चाहिए। वास्तुकार्य (भूमिपूजन/गृहप्रवेश)एक विशेष कार्य ही है,अतः इसे अत्यावश्क ही समझें।

4.पुण्याहवाचन की दो प्रचलित विधियाँ हैं-एक विस्तार से और एक संक्षिप्त।यहाँ दोनों विधियाँ दी जा रही हैं।सुविधानुसार उपयोग किया जाना चाहिए। अस्तु।

क्रमशः...

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