पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-134

गतांश से आगे....अध्याय 23 भाग 8

(ख)पुण्याहवाचन(विस्तृत विधि)- विस्तृत रुप से पुण्याहवाचन करने के लिए सर्वप्रथम यथाशक्ति पीतल/तांबा/कांसा/मिट्टी का वरुण-कलश स्थापित करे,जिसका आकार कम से कम आधा लीटर जल ग्रहण-योग्य हो।कलश के दांये और बांये एक-एक कटोरी भी रखे, जिसमें पुण्याहवाचन के बीच जल गिराना होगा।दांयी कटोरी का आकार बांयीं की तुलना में कुछ बड़ा होना चाहिए।दांयी कटोरी में पुण्य-जल और वांयी कटोरी में पापजल को गिराना होता है। कलश और दोनों कटोरियों के नीचे कुशा रखनी चाहिए।अभाव में दुर्वा भी व्यवहृत हो सकता है।अब सर्वप्रथम कलश में जल,गंगाजल,चन्दन,पुष्प,दूर्वा,सुपारी,द्रव्य,आदि डाल कर हाथों में अक्षतपुष्पादि लेकर वरुण का आवाहन करें- बरुण प्रार्थना- ॐ पाशपाणे नमस्तुभ्यं पद्मिनीजीवनायक। पुण्याहवाचनं यावत् तावत् त्वं सुस्थिरो भव।।
अब यजमान अपनी दाहिनी ओर पुण्याहवाचक आचार्य/पुरोहित का सांगोपांग वरण (वस्त्र,द्रव्यादि से)करके आसन पर विठावे,जिसका मुंह उत्तर की ओर हो,और स्वयं सपत्निक पूर्वाभिमुख घुटने टेक कर(नीलडाउन),दोनों हाथों में अक्षत,पुष्प, द्रव्यादि लेकर अञ्जलिबद्ध होकर सिर से लगाकर तीन बार प्रणाम करे।

अब आचार्य अपने दाहिने हाथ से उक्त वरुण कलश को उठाकर यजमान की अञ्जलि में स्थापित कर दे।यजमान उस कलश को अपने सिर से लगावे।
अब आचार्य-यजमान में परस्पर निम्नांकित संवाद होंगे- 

यजमान- ॐ दीर्घा नागा नद्यो गिरयस्त्रीणि विष्णुपदानि च।तेनायुः प्रमाणेन पुण्यं पुण्याहं दीर्घमायुरस्तु।।
ब्राह्मण- अस्तु दीर्घमायुः।

यजमान- ॐ त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः।अतो धर्माणि धारयन्।। तेनायुःप्रमाणेन पुण्यं पुण्याहं दीर्घमायुरस्तु इति भवन्तो ब्रुवन्तु।

ब्राह्मण- पुण्यं पुण्याहं दीर्घमायुरस्तु।

नोटः- आचार्य-यजमान का यह संवाद इसी भांति दो बार और होना चाहिए।
यजमान- ॐ अपां मध्ये स्थिता देवाः सर्वमप्सु प्रतिष्ठितम्।ब्राह्मणानां करे न्यस्ताः शिवा आपो भवन्तु नः।।ॐ शिवा आपः सन्तु।।
(ऐसा कहकर यजमान आचार्च के हाथों में बारीबारी से जल,पुष्प,अक्षत,चन्दन,पान,सुपारी,द्रव्य आदि देता जाये और ब्राह्मण क्रमशः उसे स्वीकारते हुए, स्वीकारोक्ति वाक्य कहकर यजमान की मंगल कामना करता जाये,जैसा कि आगे दर्शाया गया है)-

ब्राह्मण-सन्तु शिवा आपः।

यजमान- लक्ष्मीर्वसति पुष्पेषु लक्ष्मीर्वसति पुष्करे।सा मे वसतु वै नित्यं सौमनस्यं सदास्तु मे।।सौमनस्यमस्तु।। (पुष्प दे)

ब्राह्मण- अस्तु सौमनस्यम्।
यजमान- अक्षतं चास्तु मे पुण्यं दीर्घमायुर्यशोबलम्।यद्यच्छ्रेयस्करं लोके 
तत्तदस्तु सदा मम।।अक्षतं चारिष्टं चास्तु।।  (अक्षत दे)

ब्राह्मण-अस्त्वक्षतमरिष्टं च।

यजमान- गन्धाःपान्तु।  (चन्दन दे)

ब्राह्मण- सौमङ्गल्यं चास्तु।

यजमान- अक्षताः पान्तु। (पुनःअक्षत दे)

ब्राह्मण- आयुष्यमस्तु।

यजमान- पुष्पाणि पान्तु। (पुष्प दे)

ब्राह्मण- सौश्रियमस्तु।

यजमान- सफलताम्बूलानि पान्तु। (पान-सुपारी दे)

ब्राह्मण- ऐश्वर्यमस्तु।

यजमान- दक्षिणाः पान्तु।(द्रव्य दक्षिणा दे)

ब्राह्मण- बहुदेयं चास्तु।

यजमान- आपः पान्तु। (पुनः जल दें)

ब्राह्मण- स्वर्चितमस्तु।

यजमान- (हाथ जोड़कर प्रार्थना करे)- दीर्घमायुः शान्तिः पुष्टिस्तुष्टिः श्रीर्यशो विद्या विनयो वित्तं बहुपुत्रं बहुधनं चायुष्यं चास्तु।

ब्राह्मण- तथास्तु। (कहते हुए आचार्य यजमान के सिर पर कलश का जल छिड़क कर आशीर्वचन बोले)-
ॐ दीर्घमायुः शान्तिः पुष्टिस्तुष्टिश्चास्तु।

यजमान- (पुनः अक्षत लेकर हाथ जोड़कर बोले)- यं कृत्वा सर्ववेदयज्ञक्रियाकरणकर्मारम्भाः शुभाःशोभनाः प्रवर्तन्ते,तमहमोङ्कारमादिं- कृत्वा यजुराशीर्वचनं बहुऋषिमतं समनुज्ञातं भवद्भिरनुज्ञातः पुण्यं पुण्याहं वाचयिष्ये।

ब्राह्मण- ‘वाच्यताम्’ – कहते हुए अग्र मन्त्रों का वाचन करे- ॐ द्रविणोदाः पिपीषति जुहोत प्र च तिष्ठत।नेष्ट्रादृतुभिरिष्यत।।सविता त्वा सवानाँ् सुवतामग्निर्गृहपतीनाँ् सोमो वनस्पतीनाम्।बृहस्पतिर्वाच इन्द्रो ज्यैष्ठ्याय रुद्रः पशुभ्यो मित्रः सत्यो वरुणो धर्मपतीनाम्।न तद्रक्षाँ् सि न पिशाचास्तरन्ति देवानामोजः प्रथमजँ् ह्येतत्।यो बिभर्ति दाक्षायणँ् हिरण्यँ् स देवेषु कृणुते दीर्घमायुः स मनुष्येषु कृणुते दीर्घमायुः।उच्चा ते जातमन्धसो दिवि सद्भूम्या ददे।उग्रँ् शर्म महि श्रवः।।उपास्मै गायता नरः पवमानायेन्दवे।अभि देवाँ देवाँ इयक्षते।

यजमान-व्रतजपनियमतपःस्वाध्यायक्रतुशमदमदयादानविशिष्टानांसर्वेषां- ब्राह्मणानां मनः समाधीयताम्।

ब्राह्मण- समाहितमनसः स्मः।

यजमान- प्रसीदन्तु भवन्तः।

ब्राह्मण- प्रसन्नाः स्मः।
(अब,पुण्याहवाचनकलश के दायें-बायें रखे दो जलपात्र(कटोरी)में से सिर्फ दाहिने पात्र में आम्र पल्लव या दूर्वा से, या सीधे कलश से ही,थोड़ा-थोड़ा जल डालता जाय- कलश से लेलेकर, और ब्राह्मण मन्त्र बोलते जायें।ध्यातव्य है कि बीच-बीच में थोड़ा जल बायें पात्र में भी डालना है।सुविधा के लिए दोनों पात्रों का संकेत दिया जा रहा है।जल डालने में बिलकुल सावधानी वरतें।दायें-बायें के भेद को समझें।दायें में शुद्ध-पवित्र कामना का जल डाल रहे हैं,और बायें में अशुद्ध-पापादि जनित जल क्षेपित किया जा रहा है।यहाँ ऋटि होने का अर्थ ये होगा कि आप कूड़े को तिजोरी में और सोने को कूड़े में स्थान दे रहे हैं।अतः सावधानीपूर्वक पुण्याहवाचन कर्म करें।सामान्यतौर पर अन्य प्रकार की परेशानियों की स्थिति में भी पुण्याहवाचन का कर्म किया जा सकता है।इसके अनेक लाभ हैं।)

दाहिने पात्र में- ॐ शान्तिरस्तु। ॐ पुष्टिरस्तु। ॐ तुष्टिरस्तु। ॐ वृद्धिरस्तु। ॐ अविघ्नमस्तु।ॐ आयुष्यमस्तु।ॐ आरोग्यमस्तु।ॐ शिवमस्तु।ॐ शिवं कर्मास्तु।  ॐ कर्मसमृद्धिरस्तु।ॐधनधान्यसमृद्धिरस्तु। ॐ पुत्रपौत्रसमृद्धि- रस्तु। ॐ इष्टसम्पदस्तु।

बायें पात्र में- ॐ अरिष्टनिरसनमस्तु। ॐ यत्पापंरोगोऽशुभकल्याणं तद् दूरे प्रतिहतमस्तु।

पुनः दाहिने पात्र में- ॐ यच्छ्रेयस्तदस्तु। ॐ उत्तरे कर्मणि निर्विघ्नमस्तु। ॐ उत्तरोत्तरमहरहरभिवद्धिरस्तु। ॐ उत्तरोत्तराः क्रियाः शुभाः शोभनाः सम्पद्यन्ताम्। ॐ तिथिकरणमुहूर्तनक्षत्रग्रहलग्नसम्पदस्तु।ॐ तिथिकरण -मुहूर्तनक्षत्रग्रहलग्नाधिदेवता प्रीयन्ताम्।ॐ तिथिकरणे सुमुहूर्ते सनक्षत्रे सग्रहे साधिदैवतै प्रीयेताम्। ॐ दुर्गापाञ्चाल्यौ प्रीयेताम्। ॐ अग्निपुरोगा विश्वेदेवाः प्रीयन्ताम्। ॐ इन्द्रपुरोगा मरुद्गणाःप्रीयन्ताम्। ॐवशिष्ठपुरोगा ऋषिगणाः प्रीयन्ताम्। ॐ माहेश्वरीपुरोगा उमामातरः प्रीयन्ताम्। ॐ अरुन्धतीपुरोगा एकपत्न्यः प्रीयन्ताम्। ॐ ब्रह्मपुरोगाः सर्वे वेदाः प्रीयन्ताम्। ॐ विष्णुपुरोगा सर्वे देवाः प्रीयन्ताम्। ॐ ऋषयश्छन्दांस्याचार्या वेदा देवा यज्ञाश्च प्रीयन्ताम्। ॐ ब्रह्म च ब्राह्मणाश्च प्रीयन्ताम्। ॐ श्रीसरस्वत्यौ प्रीयेताम्। ॐ श्रद्धामेधे प्रीयेताम्। ॐ भगवती कात्यायनी प्रीयताम्। ॐ भगवती माहेश्वरी प्रीयताम्। ॐ भगवती ऋद्धिकरी प्रीयताम्। ॐ भगवती वृद्धिकरी प्रीयताम्। ॐ भगवती पुष्टिकरी प्रीयताम्। ॐ भगवती तुष्टिकरी प्रीयेताम्। ॐ भगवन्तौ विघ्नविनायकौ प्रीयेताम्। ॐ सर्वाः कुलदेवताः प्रीयन्ताम्। ॐ सर्वा ग्रामदेवताः प्रीयन्ताम्। ॐ सर्वा इष्टदेवताः प्रीयन्ताम्।

अब बायें पात्र में-  ॐ हताश्च ब्रह्मद्विषः।ॐ हताश्च परिपन्थिनः। ॐ हताश्च कर्मणो विघ्नकर्तारः। ॐ शत्रवः पराभवं यान्तु। ॐ शाम्यन्तु घोराणि। ॐ शाम्यन्तु पापानि।ॐ शाम्यन्त्वीतयः।ॐशाम्यन्तूपद्रवाः।।
अब दाहिने पात्र में- ॐ शुभानि वर्धन्ताम्।ॐ शिवा आपःसन्तु। ॐ शिवा ऋतवः सन्तु। ॐ शिवा ओषधयः सन्तु। ॐ शिवा वनस्पतयः सन्तु। ॐ शिवा अतिथयः सन्तु। ॐ शिवा अग्नयः सन्तु। ॐ शिवा आहुतयः सन्तु। ॐ अहोरात्रे शिवे स्याताम्।
 ॐ निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम्।।
 ॐ शुक्राङ्गारकबुधबृहस्पतिशनैश्चरराहुकेतुसोमसहिता आदित्यपुरोगाः सर्वे ग्रहाः प्रीयन्ताम्। ॐ भगवान् नारायणः प्रीयताम्।ॐ भगवान् पर्जन्यः प्रीयताम्। ॐ भगवान् स्वामी महासेनः प्रीयताम्। ॐ पुरोऽनुवाक्यया यत्पुण्यं तदस्तु।ॐ याज्यया यत्पुण्यं तदस्तु। ॐ वषट्कारेण यत्पुण्यं तदस्तु। ॐ प्रातः सूर्योदये यत्पुण्यं तदस्तु।।
इसके बाद यजमान कलश को यथास्थान रखदे,और दाहिने पात्र में गिराये गए जल से मार्जन करे(अपने सिर पर आम्रपल्लव से छिड़के।आचार्य मन्त्रोच्चारण करें—ॐ पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः।पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा।।)इस कार्य को परिवार के अन्य सदस्यों को भी करना चाहिए।साथ ही पूरे भवन/भूमि पर भी छिड़काव किया जाना चाहिए।दूसरे,यानी बायें पात्र के जल को नापित वा किसी अन्य के द्वारा बाहर कहीं दूर जाकर एकान्त में रखवा देना चाहिए।लोकाचार में प्रायः देखा जाता है कि नापित ही इस कार्य को करता है,और जल बाहर फेंक कर उपयोगी पात्र रख लेता है।साथ ही कुछ विशेष नेग(उपहार)भी मांग करता है,जिसका कि उसे अधिकार है।जहाँ यह कार्य मिट्टी के पात्र से कर रहे हों तो नापित को तद् मूल्यस्वरुप विशेष द्रव्य अवश्य देना चाहिए।ध्यातव्य है कि अलग-अलग कार्यों के अलग-अलग अधिकारी होते हैं,और उनका पारिश्रमिक भी हुआ करता है,ऐसा नहीं कि सब कुछ ब्राह्मण ही ले लें।कर्मकाण्ड में आचार्य,पुरोहित,होता,नापित,कुम्भकार,मालाकार आदि का कार्य विभाजित है।तदनुसार सबका पारिश्रमिक भी शास्त्रकारों ने निर्धारित किया है।)अस्तु।
अब यजमान हाथ जोड़कर ब्राह्मण से प्रार्थना करे,और ब्राह्मण प्रतिवचन कहें-

यजमान- ॐ एतत्कल्याणयुक्तं पुण्यं पुण्याहं वाचयिष्ये।

ब्राह्मण- वाच्यताम्।

यजमान- ॐ ब्राह्यं पुण्यमहर्यच्च सृष्ट्युत्पादनकारकम्।वेदवृक्षोद्भवं नित्यं तत्पुण्याहं ब्रुवन्तु नः।भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य.....कर्मणः पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु।
 (रिक्तस्थानपर कार्योद्येश्य- भूमिपूजन/गृहप्रवेश/अन्यकार्य का उच्चारण करे।एक ही वाक्य तीन बार दोनों को बोलना चाहिए।अन्तिम यानि तीसरी बार में कुछ अतिरिक्त वाक्य भी संलग्न है- इसपर ध्यान दें)

ब्राह्मण- ॐ पुण्याहम्।

यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य ...../गृहप्रवेश-वास्तु -शान्तिकर्मणः पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ पुण्याहम्।
यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य ..../गृहप्रवेश-वास्तु -शान्तिकर्मणः पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु।

ब्राह्मण- ॐ पुण्याहम्। ॐ पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः।पुनन्तु विश्वा  भूतानि जातवेदः पुनीहि मा।

यजमान- पृथिव्यामुद्धृतायां तु यत्कल्याणं पुरा कृतम्।ऋषिभिः सिद्धगन्धर्वैस्तत्कल्याणं ब्रुवन्तु नः।। भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य गृहप्रवेश-वास्तु -शान्ति कर्मणः पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु।

ब्राह्मण- ॐ कल्याणम्।

यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य ...../ गृहप्रवेश-वास्तु -शान्तिकर्मणः पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु।

ब्राह्मण- ॐ कल्याणम्।

यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य ...../गृहप्रवेश-वास्तु -शान्तिकर्मणः पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु।

ब्राह्मण- ॐ कल्याणम्। (ध्यातव्य है कि उक्त संवाद की तीन आवृत्ति हुयी है,यानी एक ही वाक्य उभय पक्ष ने उच्चरित किया है।अब अन्तिम बार के ऊँ कल्याणम् के बाद आगे का मन्त्र भी आचार्य को बोलना चाहिए)- ॐ यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।ब्रह्मराजन्याँ् शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च।प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृद्ध्यता- मुपमादो नमतु।

यजमान- ॐ सागरस्य तु या ऋद्धिर्महालक्ष्म्यादिभिः कृता।सम्पूर्णा सुप्रभावा च तामृद्धिं प्रब्रुवन्तु नः।। भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य गृहप्रवेश-वास्तु -शान्तिकर्मणःऋद्धिं भवन्तो ब्रुवन्तु।

ब्राह्मण- ॐ ऋद्ध्यताम्।
यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य .....कर्मणःऋद्धिं भवन्तो ब्रुवन्तु।

ब्राह्मण- ॐ ऋद्ध्यताम्।

यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य .....कर्मणःऋद्धिं भवन्तो ब्रुवन्तु।

ब्राह्मण- ॐ ऋद्ध्यताम्। (पुनः ध्यातव्य है कि उक्त संवाद की तीन आवृत्ति हुयी है,यानी एक ही वाक्य उभय पक्ष ने उच्चरित किया है।अब अन्तिम बार के ऊँ ऋद्ध्यताम् के बाद आगे का मन्त्र भी आचार्य को बोलना चाहिए)- ॐ सत्रस्य ऋद्धिरस्यगन्म ज्योतिरमृता अभूम।दिवं पृथिव्या अध्याऽरुहामाविदाम देवान्त्स्वर्ज्योतिः।।

यजमान- ॐ स्वस्तिस्तु याऽविनाशाख्या पुण्यकल्याणवृद्धिदा।विनायकप्रिया नित्यं तां च स्वस्तिं ब्रुवन्तु नः।। भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य ...../ गृहप्रवेश-वास्तु-शान्तिकर्मणःस्वस्ति भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ॐ आयुष्मते स्वस्ति।

यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य ...../ गृहप्रवेश-वास्तु -शान्ति गृहप्रवेश-वास्तु -शान्ति/कर्मणः स्वस्ति भवन्तो ब्रुवन्तु।

ब्राह्मण- ॐ आयुष्मते स्वस्ति।
यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य ...../ गृहप्रवेश-वास्तु -शान्तिकर्मणः स्वस्ति भवन्तो ब्रुवन्तु।

ब्राह्मण- ॐ आयुष्मते स्वस्ति।(पुनः एक ही वाक्य की तीन आवृत्ति हुयी है।अन्तिम बार इस मन्त्र को भी आचार्य को बोलना चाहिए)- ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाःस्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।

यजमान- ॐ समुद्रमथनाज्जाता जगदानन्दकारिका।हरिप्रिया च माङ्गल्या तां श्रियं च ब्रुवन्तु नः। भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य ...../ गृहप्रवेश-वास्तु -शान्तिकर्मणः श्रीरस्तु इति भवन्तो ब्रुवन्तु।

ब्राह्मण- ॐ अस्तु श्रीः।

यजमान- भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य ...../ गृहप्रवेश-वास्तु -शान्तिकर्मणः श्रीरस्तु इति भवन्तो ब्रुवन्तु।

ब्राह्मण- ॐ अस्तु श्रीः।

भो ब्राह्मणाः ! मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गृहे करिष्यमाणस्य ...../ गृहप्रवेश-वास्तु -शान्तिकर्मणः श्रीरस्तु इति भवन्तो ब्रुवन्तु।

ब्राह्मण- ॐ अस्तु श्रीः।।(पुनः एक ही वाक्य की तीन आवृत्ति हुयी है।अन्तिम बार इस मन्त्र को भी आचार्य को बोलना चाहिए)-ॐ श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रुपमश्विनौ व्यात्तम्।इष्णन्निषाणामुम इषाण सर्वलोकम्म इषाण।।

यजमान- ॐ मृकण्डुसूनोरायुर्यद् ध्रुवलोमशयोस्तथा।आयुषा तेन संयुक्ता जीवेम शरदः शतम्।

ब्राह्मण- ॐ शतं जीवन्तु भवन्तः।ॐ शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्।पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः।।

यजमान- ॐ शिवगौरीविवाहे या या श्रीरामे नृपात्मजे।धनदस्य गृहे या 
श्रीरस्माकं सास्तु सद्मनि।।

ब्राह्मण- ॐ अस्तु श्रीः।ॐ मनसः कामनाकूतिं वाचः सत्यमशीय।पशूनाँरुपमन्नस्य
रसो यशः श्रीः श्रयतां मयि स्वाहा।।


यजमान- प्रजापतिर्लोकपालो धाता ब्रह्मा च देवराट्।भगवाञ्छाश्वतो नित्यं नो वै रक्षतु सर्वतः।। (‘नो वै रक्षतु’ के स्थान पर ‘स नो रक्षतु’ पाठ भेद भी मिलता है)

ब्राह्मण- ॐ भगवान् प्रजापतिः प्रीयताम्।ॐ प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रुपाणि परि ता बभूव।यत्कामास्ते जहुमस्तन्नो अस्तुवयँ् स्याम पतयो रयीणाम्।

यजमान-  आयुष्मते स्वस्तिमते यजमानाय दाशुषे।कृताः सर्वाशिषः सन्तु ऋत्विग्भिर्वेदपारगैः।।देवेन्द्रस्य यथा स्वस्तिस्तथा स्वस्तिर्गुरोर्गृहे।एकलिंगे यथा स्वस्तिस्तथा स्वस्तिः सदा मम।।

ब्राह्मण- ॐ आयुष्मते स्वस्ति।ॐ प्रति पन्थामपद्महि स्वस्तिगामनेहसम्।येन विश्वा परि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु।।ॐ पुण्याहवाचनसमृद्धिरस्तु।।

यजमान- अस्मिन पुण्याहवाचने न्यूनातिरिक्तोयो विधिरुपविष्टब्राह्मणानां वचनात् श्री महागणपतिप्रसादाच्च परिपूर्णोऽस्तु।
अब यजमान जलाक्षतपुष्पद्रव्यादि लेकर पुण्याहवाचन का विशेष दक्षिणासंकल्प करे—
ॐ अद्य कृतस्य पुण्याहवाचनकर्मणः समृद्ध्यर्थं पुण्याहवाचकेभ्यो ब्राह्मणेभ्य इमां दक्षिणां विभज्य अहं दास्ये।
ब्राह्मण- ॐ स्वस्ति।
(नोट-1.सामान्य कर्मों में पुण्याहवाचन किया जाये तो क्रिया के अन्त में अभिषेक का विधान है।ध्यातव्य है कि भूमिपूजन या गृहप्रवेश के प्रारम्भ में ही यह कार्य किया जाता है,अतः अभिषेक-कार्य क्रियान्त में ही करना व्यावहारिक होगा।
2.अभिषेक के समय पत्नी को बायें बैठ जाना चाहिए,जबकि अन्यान्य पूजाकार्य में दायें बैठना चाहिए।इस सम्बन्ध में शास्त्र वचन हैः- आशीर्वादेऽभिषेकेच पादप्रक्षालने तथा,शयने भोजने चैव पत्नी तूत्तरतो भवेत्।।)
3.इस पुस्तक में अभिषेक पूजनकार्य के अन्त में ही यथास्थान दिया गया है।
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क्रमशः...

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