पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-136

गतांश से आगे...अध्याय 23 भाग 10


कलश-स्थापन 
(गौरीगणेश की पूजा के बाद प्रधान कलश की स्थापना करनी चाहिए। कलश-प्रमाण-लक्षण के सम्बन्ध में शास्त्रीय वचन हैं-सौवर्णं राजतं वापि ताम्रं मृन्मयजं तु वा।अकालमव्रणं चैव सर्व लक्षणसंयुतम्।। पञ्चाशाङ्गुलवैपुल्यमुत्सेधे षोडशाङ्गुलम्। द्वादशाङ्गुलकं मूलं मुखमष्टाङ्गुलं तथा।। अभिप्राय यह है कि कलश बहुत छोटे आकार का कदापि नहीं होना चाहिए।कम से कम सवा किलो जल ग्रहण-योग्य अवश्य हो।गृहप्रवेशादि विशेष कार्यों में कई कलश हुआ करते हैं,जिनमें प्रधान कलश का आकार अपेक्षाकृत काफि बड़ा होना चाहिए।कम से कम सात या नौ या ग्यारह किलो जलग्रहण योग्य अवश्य हो।श्रद्धा और आर्थिक स्थिति के अनुसार समस्त पूजन-पात्र धातु के ही उपयोग में लाये जायें।कम से कल प्रधान कलश और उसका पूर्णपात्र (ढक्कन)तो धातु निर्मित होही।अभाव में मिट्टी का उपयोग हो सकता है।शास्त्र वचन है- वित्तशाठ्यं न कारयेत- पूजन में धन की कंजूसी न करे। व्यावहारिक रुप में देखा जाता है कि मकान बनाने में तो लोग औकाद लगा देते हैं,किन्तु वास्तुपूजा या अन्य पूजा में घोर कंजूसी वरतते हैं।कलश तांबें या पीतल का हो तो अति उत्तम।कलश के आकार के सम्बन्ध एक और बात का ध्यान रखा जाना अनिवार्य है कि कलश की ग्रीवा उचित ऊँचाई वाला हो,उदर प्रान्त भी प्रसस्त हो।बेडौल,चपटे,कम गर्दन वाले, ठिगने काठी के कलश का उपयोग सर्वदा वर्जित है।मिट्टी के कलश में पकाते समय का काला धब्बा-दाग आदि कदापि नहीं होना चाहिए।इसे ढकने के लिए कुम्हार रंग-रोगन कर दिया करते हैं। कलश की ग्रीवा में तीन तन्तुओं का वेष्ठन अवश्य करे,साथ ही वक्ष-प्रान्त में स्वस्तिकादि मांगलिक चिह्नों का लेखन भी अनिवार्य है।प्रायः लोग गोबर से गौरी-गणेश की लम्बी पिड़िया बना कर कलश पर चिपका देते हैं। वस्तुतः यह प्रतीक भी मान्य है।आजकल नाना प्रकार के चिह्नों,चित्रकारियों से युक्त कलश भी  बाजार में उपलब्ध हैं,जिनका उपयोग किया जा सकता है।कलश स्थापन के स्थापन पर चौरेठ,हल्दी,कुमकुम,अबीर आदि से मांगलिक चिह्न- स्वस्तिक,अष्टदल आदि भी चित्रित कर देना चाहिए।और भी अलंकार पूर्वक करना हो तो प्रधान कलश के लिए सर्वतोभद्र,एवं रुद्रकलश के लिए एकलिंगतोभद्रवेदी का निर्माण किया जा सकता है)
अब, निम्नांकित मन्त्र का उच्चारण करते हुए भूमि का स्पर्श करें।
भूमि का स्पर्श- ॐ भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धर्त्री। पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृँ्ह पृथिवीं मा हि ँ् सीः।।
(कलश को सप्तधान्य अथवा सुविधानुसार किसी एक धान्य पर स्थापित किया जाना चाहिए। सप्तधान्य के सम्बन्ध में कई शास्त्रीय वचन हैं।यथा-
1.यवधान्यतिलाः कंगु मुद्गचणकश्यामकाः। एतानि सप्तधान्यानि सर्वकार्येषु योजयेत्।।
2.यवगोधूमधान्यानि तिलाः कङ्गुस्तथैव च। श्यामाकाश्चणकश्चैव सप्तधान्यानि संविदुः।।
3.श्यामाकयवगोधूममुद्गमाषप्रियङ्गवः।धान्यानि सप्तसङ्ख्याता व्रीहयः सप्त सूरिभिः।।      
(जौ,धान,तिल,कँगुनी,मूंग,चना और सांवा- ये सात अन्न कहे गये हैं।दूसरे और तीसरे श्लोक में क्रमशः गेहूँ और उड़द को भी ग्रहण किया गया है। उपलब्धि और सुविधानुसार इनमें किसी को ग्रहण किया जा सकता है। युगानुसार इनमें कंगुनी और सांवा सुलभ प्राप्त नहीं हैं।इसके स्थान पर दुकानदार कुछ-के कुछ अन्न डाल देते हैं।गलत धान्य के प्रयोग से कहीं अच्छा है कि सुलभ प्राप्त जौ अथवा धान का प्रयोग किया जाय।अभाव में गेहूँ या सिर्फ रंगीन चावल  का प्रयोग भी किया जा सकता है।निम्नांकित मन्त्रों में किसी एक का उच्चारण करते हुए भूमि पर सप्तधान्यादि विखेरे)
धान्यप्रक्षेप(विकिरण)- (क) ॐ धान्यमसि धिनुहि देवान् प्राणाय त्वो दानाय त्वा व्यानाय त्वा। दीर्घामनु प्रसितिमायुषे धां देवो वः सविता
हिरण्यपाणिः प्रति गृभ्णात्वच्छिद्रेण पाणिना चक्षुषे त्वा महीनां पयोऽसि।।
अथवा (ख) ॐ ओषधयः समवन्दत सोमेन सह राज्ञा।यस्मै कृणोति ब्राह्मणस्तँ् राजान्पारयामसि।।
कलश-स्थापन- ॐ आ जिघ्र कलशं मह्या त्वा विशन्त्विन्दवः।पुनरुर्जा नि वर्तस्व सा नः सहस्रं धुक्ष्वोरुधारा पयस्वती पुनर्मा विशताद्रयिः।। (इस मन्त्र के साथ कलश को स्थापित कर दें,और आगे क्रमशः कहे गये मन्त्रों के उच्चारण सहित एक-एक कर सभी वस्तुयें कलश में डालते जायें)
कलश में जल- ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनी स्थो वरुणस्य ऋतसदन्यसि वरुणस्य ऋतसदनमसि वरुणस्य ऋतसदनमा सीद।।
कलश में चन्दन- ॐ त्वां गन्धर्वा अखनँस्त्वामिन्द्रस्त्वां बृहस्पतिः।त्वामोषधे सोमो राजा विद्वान् यक्ष्मादमुच्चत।।
कलश में सर्वौषधि- ॐ या ओषधीः पूर्वाजातादेवेभ्यस्त्रियुगं पुरा।मनै नु बभ्रूणामह ँ्शतं धामानि सप्त च।। (सर्वौषधि के सम्बन्ध में कहा गया है- मुरा माँसी वचा कुष्ठं शैलेयं रजनीद्वयम् । सठी चम्पकमुस्ता च सर्वौषधिगणः स्मृतः।। अग्निपुराण १७७-१७ के अनुसार मुरामांसी,चम्पक जटामांसी,वच,कुठ,शिलाजीत,हल्दी,दारुहल्दी,सठी, और नागरमोथा-इन दस ओषधियों को ग्रहण किया गया है।अन्यत्र एक प्रमाण में कहा गया है-कुष्ठं मांसी हरिद्रे द्वे मुरा शैलेय चन्दनम्।वचा चम्पक मुस्ता च सर्व्वौषध्यो दश स्मृताः।।यानी कुठ,जटामांसी, हल्दी,दारुहल्दी,मुरामांसी,शिलाजीत,श्वेतचन्दन, वच,चम्पा,और नागरमोथा इन दस औषधियों को ही सर्वौषधि कहा गया है। एक अन्य सूची में ऊपरोक्त सभी द्रव्य तो यथावत हैं,किन्तु चम्पक के स्थान पर आंवला लिया गया है।जटामांसी के सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि कहीं-कहीं इसके नाम पर छड़ीला दे दिया जाता है,जबकि असली जटामांसी ठीक जटा की तरह,और अति तीक्ष्ण गंधी होता है।अतः उसे ही प्रयोग करना चाहिए। सर्वौषधीनां दुष्प्राप्तौ क्षिपेदेकां शतावरीम्  अथवा सर्वाभावे शतावरी- यानी सर्वौषधी के अभाव में सिर्फ शतावरी का प्रयोग किया जा सकता है।शतावरी जड़ी-बूटी की दुकानों में सुलभ प्राप्य है।)
कलश में दूर्वा- ॐ काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि।एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्रेण शतेन च।।
कलश में पञ्चपल्लव- ॐ अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता। गोभाज इत्किलासथ यत्सनवथ पूरुषम्।। (प़ञ्चपल्लव के सम्बन्ध में शास्त्र वचन है- न्योग्रोधोदुम्बरोऽश्वत्थः चूतप्लक्षस्तथैव च – अर्थात आम, बरगद,गूलर, पीपल,और पाकड़ इन  पांच प्रकार के पल्लवों को कलश में डालना चाहिए। सामान्य संक्षिप्त पूजा में तो सिर्फ आम के पल्लव से काम चल जाता है,किन्तु विशेष पूजा में पांचों अनिवार्य हैं।)
कलश में कुशा- ॐ पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः।तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम्।।
कलश में सप्तमृत्तिका- ॐ स्योना पृथिवि नो भवानृक्षरा निवेशनी।यच्छा नः शर्म सप्रथा।। अथवा  ॐउधृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना।मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम्।। (सप्तमृत्तिका के सम्बन्ध में शास्त्र वचन है- अश्वस्थानाद्गजस्थानाद्वल्मीकात्सङ्गमाद्ध्रदात्। राजद्वाराच्च गोष्ठाच्च मृदमानीय निक्षिपेत्।। अर्थात् घुड़साल,हाथीसाल,दीमक की बॉबी,नदियों के संगम,तालाब,राजद्वार, और गोशाला- इन सात स्थानों की मिट्टी को कलश में डालने का विधान है।युगानुसार ये अलभ्य या दुर्लभ नहीं हैं,फिर भी सुलभ भी नहीं कहे जा सकते।इनके स्थान पर दुकानदार जो सो दे दे, इससे अच्छा है- इनमें जो भी सुलभ प्राप्य हो,उसी का प्रयोग किया जाय। कहीं-कहीं वेश्यालय की मिट्टी को भी पूजाकार्य में पवित्र माना गया है। अपने आप में इसका भी विशिष्ट स्थान है।)
कलश में सुपारी- ॐ याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः।बृहस्पतिप्रसू-तास्ता नो मुञ्चन्त्वँ्हसः।।
कलश में पञ्चरत्न- ॐ परि वाजपतिः कविरग्निर्हव्यान्यक्रमीत्।दधद्रत्नानि दाशुषे।।
(पञ्चरत्न के सम्बन्ध में शास्त्र वचन है- 1.कनकं कुलिशं मुक्ता पद्मरागं च नीलकम्।एतानि पञ्चरत्नानि सर्वकार्येषु योजयेत्।। अर्थात् सोना,हीरा,मोती,पद्मराग, और नीलम- ये पंचरत्न कहे गये हैं।
2.वज्रमौक्तिकवैदूर्यं प्रवालं चन्द्रनीलकम्।अलाभे सर्वरत्नानां हेम सर्वत्र योजयेत्।। अर्थात् हीरा,मोती,वैदूर्य(विल्लौर),मूंगा,नीलम ये पांच रत्न हैं।इन सबके अभाव में सोने का प्रयोग करना चाहिए।
3.माणिक्यं मौक्तिकं हेमं प्रवालं रजतादिकम्।पञ्चरत्नाङ्गमित्येतत् सर्वं शान्तिकरं परम्।। अर्थात् माणिक्य,मोती,मूंगा,सोना,चाँदी ये पांच रत्न कहे गये हैं,जिनका उपयोग सभी प्रकार के शान्तिकर्मों में किया जाता है।विभिन्न पूजापाठ,यज्ञादि में इनका प्रयोग होता है।आजकल इनके नाम पर कृत्रिम रत्नों की पुड़िया दुकानदार थमा देता है,और अज्ञानता या मूढ़ता वस लोग ले लेते हैं।यदि श्रद्धा और औकाद हो तो रत्नों की दुकान से असली रत्न लें।नकली के प्रयोग का कोई औचित्य नहीं है।)
कलश में द्रव्य- ॐ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।
उपरोक्त पदार्थ का कलश में प्रक्षेपण करने के पश्चात् कलश को वस्त्रालंकृत करे,निम्नाकित मन्त्रोच्चारण करते हुए-
कलश पर वस्त्र-  ॐ सुजातो ज्योतिषा सह शर्म वरुथमाऽसदत्स्वः।वासो अग्ने विश्वरूपँ् सं व्ययस्व विभावसो।।
कलश पर पूर्णपात्र- ॐ पूर्णादर्वी परा पत सुपूर्णा पुनरा पत।वस्नेव विक्रीणावहा इषमूर्जँ्शतक्रतो।। (कलश के ऊपर ढक्कन में अक्षतादि भर कर रखे।ध्यातव्य है कि यह पात्र पूर्ण हो,ऐसा नहीं कि आधेकिलो चावल की क्षमता वाले ढक्कन में मुट्ठी भर चावल मात्र रख दिया जाय,जैसा कि प्रायः लोग अज्ञानता में किया करते हैं।)
अब, पूर्णपात्र रखने के पश्चात्, निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक उसके ऊपर वस्त्रवेष्ठित जलदार नारियल(अभाव में सूखा गड़ीगोला)रखे।मुख्य कलश के अतिरिक्त सहायक कलशों पर भी ऐसा ही किया जाता है,किन्तु अभाव में वहाँ सुपारी भी रख सकते हैं।पूर्णपात्र रिक्त नहीं रहना चाहिए।अज्ञनता में प्रायः कलश के ऊपर दीपक रख दिया जाता है।)
कलश पर नारियल-  ॐ याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः। बृहस्पतिप्रसू-तास्ता नो मुञ्चन्त्वँ्हसः।।(इस मन्त्र के उच्चारण पूर्वक कलश पर वस्त्र- वेष्ठित जलदार नारियल रखना चाहिए।जलदार नारियल के स्थान पर सूखा गडीगोला भी रखा जा सकता है।अभाव में या सामान्य पूजा में सुपारी भी रख दिया जाता है।कहीं-कहीं इस पर लोग दीपक रख दिया करते हैं,जो उचित नहीं प्रतीत होता।दीपक का अलग स्थान है।)
अब, अक्षत-पुष्पादि लेकर कलश में देवी-देवताओं का आवाहन करना चाहिए,जिसके लिए निम्नांकित मन्त्रों का उच्चारण करना चाहिए-
ॐ तत्त्वा यामि ब्राह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः।अडेहमानो वरुणेह बोध्वुरुशँ्स मा न आयुः प्रमोषी।।अस्मिन् कलशे वरुणं साङ्गं सपरिवारं सायुधं सशक्तिकमावाहयामि।ॐ भूर्भुवः स्वः भो वरुण ! इहागच्छ,इह तिष्ठ,स्थापयामि, पूजयामि,मम पूजां गृहाण।ॐ अपां पतये वरुणाय नमः। कहकर पूर्व ग्रहित अक्षत  पुष्पादि कलश के समीप छोड़ दे,और पुनः अक्षतपुष्पादि ग्रहण करके मन्त्र बोले-
ॐ कला कलाहि देवानां दानवानां कलाःकलाः।सङ्गृह्य निर्मितो यस्मात् कलशस्तेन कथ्यते।। कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः।मूले त्वस्य स्थिरो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः।।कुक्षौ तु सागराः सर्वे सप्तदीपा वसुन्धरा।अर्जुनी गोमती चैव चन्द्रभागा सरस्वती।। कावेरी कृष्णवेणा च गंगा चैव महानदी।तापी गोदावरी चैव माहेन्द्री नर्मदा तथा।।नदाश्र्च विविधा जाता नद्यः सर्वास्तथाऽपराः।पृथिव्यां यानि तीर्थानि कलशस्थानि तानि वै।।सर्व समुद्राः सरितस्तीर्थानि जलदा नदाः। आयान्तु मम शान्त्यर्थं दुरितक्षयकारकाः।।ऋग्वेदोऽथ ययुर्वेदः सामवेदो ह्यथर्वणः। अङ्गैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः।।गायत्री चात्र सावित्री शान्तिः पुष्टिकरी तथा।। आयान्तु मम शान्त्यर्थं दुरितक्षयकारकाः।। (अक्षतपुष्पादि को कलश के समीप छोड दें। ध्यातव्य है कि अब तक वस्त्र,चन्दन,पुष्प,पल्लवादि सामग्रियाँ पूजन-कलश तैयार करने के निमित्त व्यवहृत हुयी हैं,कलश की पूजा अभी शेष है।अतः कलश-प्राणप्रतिष्ठा हेतु पुनः अक्षतपुष्पादि ग्रहण करें,और निम्नांकित मन्त्रोच्चारण करके,अक्षतपुष्पादि को कलश के समीप रख दें।)-
मनोजूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञँ्समिमं दधातु। विश्वेदेवा स इह मादयन्तामो३म्प्रतिष्ठ।कलशे वरुणाद्यावाहितदेवताः सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु।ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः।
अथवा- ॐ अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च।अस्यै देवत्वमर्चायै मामेहति न कश्चन।। अस्मिन कलशे विष्ण्वाद्यावाहितदेवाः सुप्रतिष्ठता वरदा भवन्तु ॐ भूर्भुवः स्वः वरुणाद्यावाहितेभ्यो विष्ण्वाद्यावाहितेभ्यो देवेभ्यो नमः।।
अब षोडशोपचार पूजन करे-
ध्यान- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,ध्यानार्थे पुष्पं समर्पयामि।
आसन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,आसनार्थे अक्षतान् समर्पयामि।
पाद्य- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,पादयोः पाद्यं समर्पयामि।
अर्घ्य- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,हस्तयोर्घ्यं समर्पयामि।
स्नान- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,स्नानीयं जलं समर्पयामि।
स्नानाङ्ग आचमन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।    
पञ्चामृत-स्नान- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,पञ्चामृतस्नानं समर्पयामि।
गन्धोदक-स्नान- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,गन्धोदक स्नानं समर्पयामि। (चन्दन मिश्रित जल से स्नान करावे)
शुद्धोदक स्नान- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,स्नानान्ते शुद्धोदकस्नानं
               समर्पयामि। (शुद्धजल से स्नान करावे)
आचमन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,आचमनीयं जलं समर्पयामि।
वस्त्र-उपवस्त्र- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि। (ध्यातव्य है कि भूमिपूजन में एक ही कलश है,और विशिष्ट देवता इसी पर आवाहित हैं,अतः स्त्री-पुरुष  विशेष वस्त्र की व्यवस्था होनी चाहिए,न कि सिर्फ सूत चढ़ाकर काम चलालें।)
आचमन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,वस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
यज्ञोपवीत- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,यज्ञोपवीतं समर्पयामि।
आचमन-ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,यज्ञोपवीतान्ते आचमनीयं जलं
       समर्पयामि।
आचमन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,आचमनीयं जलं समर्पयामि।
चन्दन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,चन्दनं समर्पयामि।
रक्तचन्दन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,रक्तचन्दनं समर्पयामि।
हल्दीचूर्ण- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,हरिद्राचूर्णं समर्पयामि।
रोली- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,कुमकुमं समर्पयामि।
अबीर-गुलाल- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,अबीरंगुलालं च समर्पयामि।
सिन्दूर- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,सिन्दूरं समर्पयामि।(यहाँ ‘देवता’ और ‘सिन्दूर’ शब्द से भ्रमित न हों।ध्यातव्य है कि कलश पर सभी
उपस्थित हैं।अतः सिन्दूर चढ़ावें।)
अक्षत- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,अक्षतं समर्पयामि।
पुष्प-पुष्पमाला- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,पुष्पं-पुष्पमाल्यां च समर्पयामि।
तुलसी- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,तुलसीपत्रं समर्पयामि।
शमीपत्र- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,शमीपत्रं समर्पयामि।
विल्वपत्र- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,विल्वपत्रं समर्पयामि।
दूर्वा- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,दूर्वां समर्पयामि।
नानापरिमल द्रव्य,सौभाग्यद्रव्य - ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, नानापरिमल द्रव्याणि सौभाग्यद्रव्याणि च समर्पयामि।  (इत्र,सुगन्धित तेल,आलता,सिन्दूर,अन्य श्रृंगार प्रसाधन समर्पित करें)
धूप- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,धूपमाघ्रापयामि
दीप- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,धूपं दर्शयामि।(दीप दिखाकर हाथ धो लें)
नैवेद्य- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,नैवेद्यं निवेदयामि।
मध्यपानीय-ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,मध्यपानीयं समर्पयामि।
अखण्ड ऋतुफलं-ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,अखण्ड ऋतुफलं समर्पयामि। (विविधप्रकार के उपलब्ध मौसमी फल- केला,सेव,अमरुद आदि बिना काटे हुए चढ़ावें।इस सम्बन्ध में गणेशपूजन क्रम में बतलायी गयी बातों का ध्यान रखें)
आचमन- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,नैवेद्यान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
ताम्बूलपूगीफलएलालवंगकर्पूरादि-(मुखशुद्धि)- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,   मुखशुद्ध्यर्थं ताम्बूलंपूगीफलंएलालवंगकर्पूरादि समर्पयामि।
दक्षिणा- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,दक्षिणाद्रव्यं समर्पयामि।
आरती-ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,आरार्तिकं समर्पयामि।
पुष्पाञ्जलि- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,मन्त्रपुष्पाञ्जलिं समर्पयामि।
प्रदक्षिणा- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,प्रदक्षिणां समर्पयामि।
अब,हाथों में अक्षत-पुष्प लेकर प्रार्थना करें-
प्रार्थना- देवदानवसंवादे मथ्यमाने महोदधौ।उत्पन्नोऽसि तदा कुम्भ विधृतो विष्णुना स्वयम्।। त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्व त्वयि स्थिताः।त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः।। शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः। आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदवाः सपैतृकाः।। त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यतः कामफलप्रदाः। त्वत्प्रसादादिमां पूजां कर्तुमीहे जलोद्भव।। सानिध्यं कुरु मे देव प्रसन्नो भव सर्वदा।। नमो नमस्ते स्फटिकप्रभाय सुश्वेतहाराय सुमङ्गलाय।सुपाशहस्ताय झषासनाय जलाधिनाथाय नमो नमस्ते।।ॐ अपां पतये वरुणाय नमः।।
नमस्कार- ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः,प्रार्थनापूर्वकं नमस्कारान् समर्पयामि। (सादर नमस्कार पूर्वक,प्रार्थना-पूर्व हाथ में लिए गये अक्षत पुष्पादि को समर्पित करदें)

अब पुनः अक्षतपुष्पादि लेकर निम्नांकित वाक्योच्चारण पूर्वक अबतक किए गये पूजन कर्म को समर्पित करे- कृतेन अनेन पूजनेन कलशे वरुणाद्यावाहितदेवताः प्रीयन्तां न मम।

क्रमशः....

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