गतांश से आगे...अध्याय 23 भाग 11
षोडशमात्रिकापूजनः- प्रधान कलश
पूजन के पश्चात् वास्तुपूजामंडप
के अग्निकोण में बने षोडशमात्रिकापीठ पर गौर्यादिषोडशमात्रिका का आवाहन-पूजन
करेंगे। ध्यातव्य है कि वेदी पर सोलह कोष्ठक बने हुए हैं,किन्तु संख्या सत्रह
है।प्रथम कोष्ठक में गौरी-गणेश दोनों हैं।गौरी-गणेश की पुनरावृति से भी संशय नहीं
करना चाहिए।कलशपूजन से पूर्व जो गौरी-गणेश पूजन हुआ है वह विघ्ननाशक आदि गौरी-गणेश
हैं,और यहाँ षोडशमात्रिका में भी वे शामिल हैं,इस कारण पूजा पुनः करनी है।शास्त्रवचन
है- गौरी पद्मा शची मेधा सावित्री विजया जया। देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो
लोकमातरः।।धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिरात्मनः कुलदेवताः।। गणेशेनाधिका ह्येता वृद्धौ
पूज्यास्तु षोडशः।। कर्मादिषु च सर्वेषु मातरः सगणाधिपाः। पूजनीयाः
प्रयत्नेन पूजिता पूजयन्ति ताः।। अतः बारीबारी से पुष्पाक्षत ले लेकर निम्नांकित
मन्त्रोच्चारण पूर्वक सबका आवाहन करे,और प्रत्येक कोष्ठकों में छोड़ता जाय।आवाहन
के बाद, एकतन्त्र से पूजा करे (या ॐ गौर्यादिषोडशमात्रिकेभ्यो नमः आवाहयामि,
प्रतिष्ठापयामि,पूजयामि च —मन्त्रोच्चारण पूर्वक संक्षिप्त पूजन भी कर सकते
हैं।)
१. ॐ आगच्छ भगवन्देव ! स्वस्थानात् परमेश्वर।
अहं त्वां पूजयिष्यामि सदा त्वं सम्मुखो भव।।
२. ॐ
हेमाद्रितनयां देवीं वरदां भैरवप्रियाम्। लम्बोदरस्य जननीं गौरीमावाहयाम्यहम्।।
३. ॐ
आवाहयाम्यहं पद्मां पद्मास्थां पद्ममालिकाम्। पद्मावासां जगद्वन्द्यां
पद्मनाभोरुसंस्थिताम्।।
४. ॐ
दिव्यरुपां दिव्यवस्त्रां दिव्यालङ्कारसंयुताम्। शतक्रतो महोरस्स्थां शचीमावाहयाम्यहम्।।
५. ॐ आवाहयाम्यहं मेधां मेधाशक्तिप्रवर्धिनीम्।
वरप्रदां सौम्यरुपां जरां निर्जरसेविताम्।।
६. ॐ
आवाहयाम्यहं देवीं धात्रीं प्रणवमातृकाम्। वेदगर्भां यज्ञमयीं सावित्रीं
लोकमातरम्।।
७. ॐ
आवाहयाम्यहं देवीं विजयां देवसंस्तुताम्। सर्वास्त्रधारिणीं वन्द्यां सर्वाभरणभूषिताम्।।
८. ॐ
आवाहयाम्यहं देवीं जयां त्रैलोक्यपूजिताम्। सुरारिमथिनीं वन्द्यां देवानामभयं
प्रदाम्।।
९. ॐ
आवाहयाम्यहं देवीं देवसेनां महाबलाम्। तारकासुरसंहारकारिणीं बर्हिवाहनाम्।।
१०. ॐ आवाहयाम्यहं देवीं
पितृणां तोषदायिनीम्। स्वधां देवाग्रजां देवैः कव्यार्थं या प्रतिष्ठिता।।
११. ॐ
आवाहयाम्यहं स्वाहां वरदां दिव्यरुपिणीम्। हविरादाय सततं देवेभ्यो या प्रयच्छति।।
१२. ॐ आवाहयाम्यहं मातृः
पूजिता या सुरासुरैः। सर्वकल्याणरुपिण्यः सर्वाभरणभूषिताः।।
१३. ॐ सर्वाभीष्टप्रदा
वन्द्याः सर्वलोकहिते रताः। जयन्तीप्रमुखाः लोकमातृरावाहयाम्यम्।।
१४.
ॐ
आवाहयाम्यहं देवीं धृतिं भक्ताऽभयप्रदाम्। हर्षोत्फुल्लास्यकमलां
सर्वसन्तोषदायिनीम्।।
१५.
ॐ आवाहयाम्यहं पुष्टिं पोषयन्तीं जगत्त्रयम्। स्वदेहजैः फलैः शाकैः
जलैः रत्नैर्मनोरमैः।।
१६.
ॐ आवाहयाम्यहं तुष्टिं
वन्दितामसुरारिभिः। सदा सन्तोषदां शान्तां प्रसन्नास्यां महाबलाम्।।
१७.
ॐ शे ग्रामे गृहे बाह्ये विपिने पर्वते रणे। आवाहयामि तां दुर्गां या पाति यातनार्णवात्।। ॐ
अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च। अस्यै देवत्वमर्चायै
मामहेति न कश्चन।। ॐ भूर्भुवः स्वः गणपितसहिताः गौर्यादि आत्मनः
कुलदेवतान्ताःषोडशमातरः सुप्रतिष्ठता वरदा भवन्तु।
इस
प्रकार सबका आवाहन करके,प्रतिष्ठापूर्वक एकतन्त्र से ही षोडशोपचार पूजन करे।पूजन
करने के बाद पुनः अक्षतपुष्पादि लेकर बोले- एभिरासनपाद्यार्घाचमनीय
जल-वस्त्रोपवस्त्र–गन्धाक्षत-पुष्प-धूप-दीप-नैवेद्य-आचमनीय जल-ताम्बूल-पूगीफल-
दक्षिणा-प्रदक्षिणा-पुष्पाञ्जलिभिः गणपतिसहिता आत्मनः कुलदेवतान्ताः षोडश मातरः
प्रीयन्तां न मम।।
(इति षोडशमात्रिकापूजनम्)
सप्तघृतमात्रिकापूजनम्
(वसोर्धारापूजनम्)— अब,उक्त मात्रिकावेदी के समीप ही-अग्निकोण में, अथवा सुविधानुसार
प्रधान कलश के समीप, काष्ठपट्टिका पर घृतमिश्रित सिन्दूर से (पूर्व में दिये गये
चित्रानुसार) ऊपर में ‘‘श्री’’ लिखकर,नीचे क्रमशः एक से सात पंक्तियों में एक-एक
विन्दु वृद्धिक्रम से चित्रित करे— इस प्रकार विन्दुसमूह एक ऊर्ध्व त्रिकोण बन
जायेगा।अब निम्न लिखित मन्त्रोच्चारण करते हुए घी की सात धारायें इस पर दें- ॐ
वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम्। देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः
पवित्रेण शतधारेण सुप्वा।। तथा गुड़ के टुकड़े से ‘‘ॐ कामधुक्षः’’-
इस मन्त्रखण्ड का उच्चारण करते हुए,दाहिनी ओर से प्रारम्भ कर बायीं ओर तक
की सभी विन्दुओं पर की घृतरेखाओं को
मिलावे।तदुपरान्त इसमें सात घृतमात्रिकाओं का क्रमशः आवाहन-पूजन एकतन्त्र से करे।यथा—
१.
ॐ सर्वसौभाग्यजननीं परमोल्लासदायिनीम्। भक्ताभीष्टप्रदां देवीं श्रियमावाहयाम्यहम्।।
२.
ॐ समुद्रतनयां देवीं विष्णोर्वक्षोविलासिनीम्। सर्वकल्याणजननीं
लक्ष्मीमावाहयाम्यहम्।।
३.
ॐ धैर्योत्साहप्रदां शान्तां भक्ताभीष्टफलप्रदाम्। सर्व श्रेयकरीं
देवीं धृतिमावाहयाम्यहम्।।
४.
ॐ आवाहयाम्यहं मेघां सिद्धिबुद्धिप्रदायिनीम्। सुरासुरनुतं दिव्यां
भक्तानामभयप्रदाम्।।
५.
ॐ आवाहयामहं देवीं स्वाहां दिव्यस्वरुपिणीम्। हविरादाय सततं या
देवेभ्यो प्रयच्छति।।
६.
ॐ आवाहयाम्यहं देवीं प्रज्ञां वाग्विभवप्रदाम्। विश्वाधारां
जगद्वन्द्यां महाघौघ विनासीनीम्।।
७.
ॐ आवाहयाम्यहं देवीं भारतीमभयप्रदाम्। सुरासुरार्चितपदां सर्वकामदुधां
वराम्।।
ॐ अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै
प्राणाः क्षरन्तु च। अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति न कश्चन।। ॐ भूर्भुवः स्वः
वसोर्धारादेवताः सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु।। —प्रतिष्ठापनमुद्रा का प्रदर्शन करके,
पुष्पाक्षत छोड़े।तदन्तर निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक एकतन्त्र से षोडशोपचार
पूजन करे—
ॐ भूर्भुवः स्वः सप्तघृतमात्रिकाभ्यो नमः ।।
तथा पुनः
पुष्पाक्षत लेकर मन्त्र बोले — एभिरासनपाद्यार्घाचमनीय
जल-वस्त्रोपवस्त्र–गन्धाक्षत-पुष्प-धूप-दीप-नैवेद्य-आचमनीय जल-ताम्बूल-पूगीफल-
दक्षिणा-प्रदक्षिणा-पुष्पाञ्जलिभिः सप्तघृमातरः प्रीयन्तां न मम।। एवं निम्नांकित
मन्त्रोच्चारण पूर्वक प्रार्थना करे— ॐ यदङ्गत्वेन भो देव्यः पूजिता
विधिमार्गतः। कुर्वन्तु कार्यमखिलं निर्विघ्नेन क्रतूद्भवम्।।
(इति वसोर्धारापूजनम्)
आयुष्यमन्त्रजप— पुनः पुष्पाक्षतजलादि लेकर लघुसंकल्प
वोले- ॐ अद्य करिष्यमाण गृहप्रवेशनिमित्तकसग्रहयागवास्तुशान्तिकर्माङ्गतयाऽमङ्गलशान्त्यर्थमायुष्यमन्त्रजपं
करिष्ये।—तदन्तर अञ्जलिवद्ध पुष्पाक्षत लेकर आचार्य की ओर देखे।आचार्य तथा
तदुपस्थित अन्य विप्र निम्नांकित मन्त्रोच्चारण करें— ॐ आयुष्यं वर्चस्य ँरायस्पोषमौद्भिदम्।
इद ँहिरण्यंवर्चस्व- ज्जैत्रायाविशतादु माम्। ॐ न तद्रक्षा ँसि न पिशाचास्तरन्ति
देवानामोजः प्रथमज ँह्येतत्। यो बिभर्ति दाक्षायण ँहिरण्य ँस देवेषु कृणुते
दीर्घमायुः स मनुष्येषु क्रीणुते दीर्घमायुः।। ॐ यदाबध्नन् दाक्षायणा हिरण्य ँ
शतानीकाय सुमनस्यमानाः।तन्म आ बध्नामि शतशारदायायुष्माञ्जरदष्टिर्यथासम्।। (शुक्लययुर्वेद३४/५०-५२)
यदायुष्यं चिरं देवाः सप्तकल्पान्तजीविषु। ददुस्तेनायुषा युक्ता जीवेम शरदः शतम्।।
दीर्घा नागा नगा नद्योऽनन्ताः सप्तार्णवा दिशः। अनन्तेनायुषा तेन जीवेम शरदःशतम्।।
सत्यानि पञ्भूतानि विनाशरहितानि च। अविनाश्यायुषा तद्वज्जीवेम शरदः शतम्।। शतं
जीवन्तु भवन्तः।।— हाथ में लिया हुआ पुष्पाक्षत सप्तघृतमात्रिकावेदी पर छोड़
दे,और पुनः सद्रव्यजलपुष्पाक्षतादि लेकर तदर्थ दक्षिणा संकल्प करे- ॐ अद्य करिष्यमाण
गृहप्रवेशनिमित्तकसग्रहयागवास्तुशान्ति कर्माङ्गतयाऽमङ्गलशान्त्यर्थं कृतैतदायुष्यमन्त्रवाचनकर्मणः
साङ्गतासिद्ध्यर्थं तत्सम्पूर्णफलप्राप्त्यर्थं चायुष्यवाचकेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो
यथाशक्ति मनसोद्दिष्टां दक्षिणां विभज्य दातुमहमुत्सृजे।
-इत्यायुष्यकर्मः-
क्रमशः....
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