पुण्यार्कवास्तुमंजूषा- 138

गतांश से आगे...अध्याय 23 भाग 12


नान्दीश्राद्धप्रयोगः  — नान्दीश्राद्ध के सम्बन्ध में कुछ अत्यावश्यक बातों की चर्चा प्रसंगवश यहाँ कर लेने योग्य है।इसके दो और भी नाम हैं- आभ्युदयिकश्राद्ध और वृद्धिश्राद्ध।आमलोग ‘‘श्राद्ध’’ शब्द से ही शंकित हो उठते हैं कि किसी शुभ कार्य में इसका क्या प्रयोजन है? तथा सामान्य ज्ञान वाले ब्राह्मण भी समुचित उत्तर के अभाव में इसे या तो छोड़ देते हैं,या अविधिक रुप से कुछ-के कुछ करके निश्चिन्त हो जाते हैं।वस्तुतः यह आभ्युदयिक(उत्थानहेतु)प्रयोग है।एक,अति शुभ और विशिष्ट कार्य है।दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि सुखसमृद्धि की कामना करते हुए,एक ओर अनेकानेक(कोटि-कोटि) देवी-देवताओं को आहूत कर,पूजित कर,उनका आशीष प्राप्त करते हैं;ऐसे शुभ अवसर पर अपने पूर्वजों को प्रसन्न कर,उनके आशीष से क्यों वंचित रहना चाहेंगे ? सच पूछें तो, देवताओं से भी कहीं अधिक आवश्यक है- माता-पितादि का आशीष प्राप्त करना — उन पूर्वजों के सामने श्रद्धावनत होना,जिनके कारण आज हमारा अस्तित्व है,और किसी कर्म के योग्य हुए हैं हम।अतः नान्दीश्राद्ध विशेष देवपूजा(शुभकार्य) का प्रधान अंग है।यह अशुभ कर्म कदापि नहीं है।यही कारण है कि शादी-विवाह,उपनयन,मुण्डन, आदि किसी भी प्रकार के संस्कार में देवपूजन के साथ-साथ इसे भी किया जाना अनिवार्य है। देवादि पूजन करना और पितृपूजन न करना—आशान्वित पितरों को निराश और अपमानित करने जैसा है।फलतः उन्हें कुपित करके नानाविध संकट और श्राप को आहूत करना भी है।चुंकि गृहप्रवेश भी मानवजीवन का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। जीवनोपलब्धि का एक बहुत बड़ा अंश गृहनिर्माण में व्यय होता है,इस कामना से कि सपरिवार सुखपूर्वक वास कर सके- सुदीर्घकाल तक।अतः नान्दीश्राद्ध जैसा विशिष्ट आभ्युदयिक कार्य भी गृहप्रवेश-वास्तुशान्ति का अनिवार्य अंग है।इसका पालन सावधानी पूर्वक अवश्य करना चाहिए।
 नान्दीश्राद्ध के विषय में अज्ञानता वश सर्वाधिक भूल होती है— पितृजीवी(जिसके माता-पिता जीवित हों)इसे करना कदापि उचित नहीं समझते।समाज में प्रायः देखा जाता है कि माता-पिता के जीवित रहते हुए,पुत्र यदि अपने पुत्र-पुत्री का विवाहादि संस्कार कर रहा होता है,तो अन्य कार्य तो वह स्वयं करता है,परन्तु नान्दीश्राद्ध का काम अपने पिता से करवाता है।स्वयं को इसका अधिकारी नहीं समझता। यह बहुत बड़ी नासमझी है।जबकि शास्त्र निर्देश है –                          इदं अपि जीवत्पितृकेणापिकार्यम्...तथा च येभ्य एव पिता दद्यात् तेभ्यो दद्यात् सुतः स्वयम्। नान्दीश्राद्ध की महत्ता और औचित्य के विषय में कहा गया है- वृद्धौ न तर्पिता ये वै पितरौ गृहमेधिनः। तत्सर्वमफलं ज्ञेयमासुरो विधिरेव सः।। यहाँ तक कि जिस व्यक्ति को किसी ज्ञाताज्ञात कारण से सन्तान-वाधा हो,विकास अवरुद्ध हो,अकारण उलझनें हों,या कुण्डली में पितृदोष हो, तो उसे एक नहीं,अनेक बार इस आभ्युदयिकश्राद्ध को करने का सुझाव दिया जाता है-‘कलौ संख्याचतुर्गुणः’- कम से कम चार बार।सन्तान-प्राप्ति हेतु अन्यान्य उपाय करने के पूर्व,सर्वप्रथम वंशवृद्धिनिमित्त नान्दीश्राद्ध करना चाहिए।‘वृद्धिश्राद्ध’ नाम की सार्थकता भी यही है।                                                        अब,किंचित आर्ष वचनों पर एक दृष्टि डाल लें-
१.अनस्मद् वृद्धशब्दानामरुपाणामगोत्रिणाम्।अनाममतिलाद्यैश्च नान्दीश्राद्धश्चसव्यवत्।।
२.कुशस्थाने च दूर्वाःस्युर्मङ्गलस्याभिवृद्धये।
३.पिण्डनिर्वपणं कुर्यान्न वा कुर्यान्नराधिप ! ।
वृद्धिश्राद्धे महाबाहो ! कुलधर्मानवेक्ष्य हि।। (भविष्यपुराण)
४.नान्दीश्राद्धं पिता कुर्यादाद्ये पाणिग्रहे पुनः।
अत ऊर्ध्वं प्रकुर्वीत स्वयमेव तु नान्दिकम्।। (स्मृतिनिर्देश)
५.पित्रोस्तु जीवितो कुर्यात् पुनः पाणिग्रहं यदा। पितुर्नान्दीमुखंश्राद्धं नोक्तं तस्य मनीषिणः।।
६.दक्षिणजानुभूलग्नो देवेभ्यः सेच्चयेज्जलम्.....तथा च....भूलग्नसव्यजानुश्च दक्षिणाग्रकुशेन च पितृन् संतर्पयेत् सुधी...(वृद्धपराशर)
७.नान्दीमुखे सत्यवसू संकीर्त्यौ वैश्वदैविकौ...(निर्णयसिन्धु में महर्षि शंखवचन)
८.अत्र सर्वे कर्म सव्येन कार्यम्...ऋजव एव कुशाः ग्राह्या...तिलार्थे यवा देया... नामगोत्रे नोच्चार्ये....स्वधास्थाने स्वाहाशब्दोच्चारः कार्यः...(गृहप्रवेशपद्धति- आचार्य विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी)
आगे, अन्यान्य श्राद्धों से नान्दीश्राद्ध के क्रियात्मक भेद,तथा किंचित तुलनात्मक विन्दुओं पर विचार करते हैं—
        नान्दीश्राद्ध            ----------                  अन्यान्यश्राद्ध
पूर्वाभिमुख क्रिया है।अतःपूरी किया में पूर्वाभिमुख की हस्त-पाद मुद्रायें,तीर्थ,अंजली,जानु आदि यहाँ व्यहृत होते हैं।
दक्षिणाभिमुख क्रिया है।अतःपूरी किया में दक्षिणाभिमुख की हस्त-पाद मुद्रायें,तीर्थ,अंजली,जानु आदि यहाँ व्यहृत होते हैं।
सव्य(वायें कंधे पर)जनेऊ और गमछा रखना है।
अपसव्य(दायें कंधे पर-जनेऊ,गमछा रखना है।
दूर्वा का प्रयोग अनिवार्य है।
कुश का प्रयोग अनिवार्य है।
छिन्नमूल कुशा प्रयोग किया जा सकता है।
मूल युक्त कुशा ही प्रयोग करना चाहिए,छिन्नमूल कदापि नहीं।
किसी प्रकार के तिल का प्रयोग वर्जित है।
काला तिल अत्यावश्यक है।
गणेशाम्बिका पूजन के बाद ही किया जाता है।
गणेशाम्बिकापूजन किया ही नहीं जाता।
दधि-चावल-हरिद्राचूर्ण का पिण्ड दिया जाता है।
दही और हल्दी का प्रयोग नहीं होता।
क्षौर(मुण्डन) नहीं कराना है।
क्षौर(मुण्डन)अनिवार्य है।
मातृपिण्ड से प्रारम्भ किया जाता है।


पितृपिण्ड से प्रारम्भ किया जाता है।

१०
मातृपक्ष का आसन सपत्निक होता है।
१०
मातृपक्ष का आसन सपत्निक नहीं,  होता,बल्कि पुरुष-स्त्री हेतु अलग-अलग होता है।
११

नौ दैवत-द्वादशदैवत दोनों प्रकार का होता है-यानी नौ या बारह पिण्ड दिये जाते हैं।

११

सिर्फ द्वादशदैवत ही होता है- यानी बारह पिण्ड दिये जाते हैं,तथा पार्वणादि में अनेक पिण्ड हो जाते हैं।


आगे क्रमशः संक्षिप्त और विस्तृत विधि का चक्र दिया जा रहा है।सुविधानुसार पद्धति में सामान्य अन्तर करके इनका उपयोग किया जा सकता है।वैसे एक अति विस्तृत विधि भी है,जो युगानुसार अव्यावहारिक हो चला है।

              
विस्तृत विधि                       


संक्षिप्त विधि


क्रमशः...


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