पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-144

गतांश से आगे...अध्याय 23 - भाग 18

वास्तुकलशस्थापन,वास्तुपीठस्थदेवादि आवाहन-पूजनः- अब,वास्तुशान्तिकर्म का अन्तिम पूजन-कार्य करेंगे। नैर्ऋत्यकोण पर चौंसठकोष्ठकों वाले वास्तुवेदी के मध्य(आठखानों)में वास्तुकलश की,पूर्व निर्दिष्ट कलशस्थापन विधि से स्थापन-पूजन करने के बाद,पुनः विविध(अलग-अलग) रंगों का अक्षत अथवा मात्र हरिद्रा-रंजित अक्षत लेकर अग्रलिखित मन्त्रों के उच्चारण पूर्वक सभी क्रमांकों में बारी-बारी से छोड़ते जायेंगे।सुविधा के लिए रंगयोजना और क्रमांकों के निर्देश हेतु दो अलग-अलग चित्र दिये गये है।ध्यातव्य है कि पदविन्यास वाले चित्र में दिखाये गये रंग सिर्फ सजावट के लिए हैं;और दूसरा चित्र रंगयोजना का है,जिसका पालन करना है।यथाः-







ऊपर के दूसरे चित्र में क्रमांकों और रंग का समायोजन देख रहे हैं। वस्तुतः वास्तुवेदी की संरचना ऐसी ही होगी।यहाँ एक और बात ध्यान देने योग्य है,कि पहले चित्र में हम देख रहे हैं कि १ से ४५ तक के अंकों के अतिरिक्त भी कुछ नाम  हैं।आन्तरिक वास्तुमंडल से बाहर, उन्हें भी यथास्थान स्थापित करना आवश्यक है।इस सम्बन्ध में विश्वकर्म प्रकाश में कहा गया हैः-
शिख्यादि पञ्चचत्वारिंशद्देवताः प्रतिपूजयेत्।                 
वेदमन्त्रैर्नाममन्त्रैः प्रणवव्याहृतिभिस्तथा।।       
आवाहन हेतु सबके नाम मन्त्र—

 १.          ॐ शिखिन्यै नमः।
२.         ॐ पर्जन्याय नमः।
३.         ॐ जयन्ताय नमः।
४.        ॐ इन्द्राय नमः।
५.        ॐ सूर्याय नमः।
६.         ॐ सत्याय नमः।
७.        ॐ भृशाय नमः।
८.         ॐ अंतरिक्षाय नमः।
९.         ॐ अनिलाय(वायवे) नमः।
१०.                       ॐ पूषाय नमः।
११.      ॐ वितथाय नमः।
१२.                       ॐ बृहत्क्षताय नमः।
१३.                      ॐ यमाय नमः।
१४.                 ॐ गन्धर्वाय नमः।
१५.                 ॐ भृंगराजाय नमः।
१६.                      ॐ मृगायै नमः।
१७.                 ॐ पितृभ्यो नमः।
१८.                      ॐ दौवारिकाय नमः।
१९.                      ॐ सुग्रीवाय नमः।
२०.                 ॐ पुष्पदन्ताय नमः।
२१.                      ॐ वरुणाय नमः।
२२.                ॐ असुराय नमः।
२३.                ॐ शोषाय नमः।
२४.                ॐ पापयक्ष्माय नमः।
२५.               ॐ रोगाय नमः।
२६.                 ॐ नागाय नमः।
२७.               ॐ मुख्याय नमः।
२८.                ॐ भल्लाटाय नमः।
२९.                 ॐ सोमाय नमः।
३०.                 ॐ भुजगाय नमः।
३१.                      ॐ अदित्यै नमः।
३२.                ॐ दित्यै नमः।
३३.                ॐ आपाय नमः।
३४.                ॐ सावित्राय नमः।
३५.               ॐ जयाय नमः।
३६.                 ॐ रुद्राय नमः।
३७.               ॐ अर्यम्णे नमः।
३८.                ॐ सवित्रे नमः।
३९.                 ॐ विवस्वते नमः।
४०.                ॐ इन्द्राय नमः।            
४१.                 ॐ मित्राय नमः।
४२.                ॐ राजयक्ष्मणे नमः।
४३.                ॐ पृथ्वीधराय नमः।
४४.               ॐ आपवत्साय नमः।
४५.               ॐ ब्रह्मणे नमः।
किंचित मतानुसार यहाँ ब्रह्मा के साथ पृथ्वी का आवाहन भी करना चाहिए- ॐ पृथिव्यै नमः।

यहाँ ब्रह्मा का आवाहन विशेष रुप से करने का विधान है।यथा- ॐ आवाहयामि देवेशमूर्धभागे व्यवस्थितम्। हंसयुक्तं रथारुढ़ं सूर्यकोटिसमप्रभम्।। चतुर्मुखं चतुर्बाहुं चतुर्वेदविदं विभुम्। पुस्तकं चाक्षसूत्रदिदधानं च कमण्डलुम्।। विश्वकर्मसुरेशादि देवतागणपूजितम्। आगच्छ भगवन् ब्रह्मन् क्षेत्रेऽस्मिन् सन्निधो भव।। ॐ भूर्भुवःस्वः ब्रह्मणे नमः।आवाहयामि,स्थापयामि, पूजयामि च।
अब,मुख्यमंडल से बाहर के देवों को आहूत करेंगे।इनमें चार-चार के दो समूह हैं,तथा दश दिक्पाल भी हैं।ध्यातव्य है कि दिक्पालों को नवग्रहमंडल में पूर्व में ही आवाहित कर,पूजित कर चुके हैं।यहाँ पुनः करेंगे।—
१.ॐ चरक्यै नमः(ईशानकोण में),२.ॐ विदार्यै  नमः(अग्निकोण में), ३.ॐ  पूतनायै नमः(नैर्ऋत्यकोण में),४. ॐ पापराक्षस्यै नमः(वायुकोणमें), तथाच
 १. ॐ स्कन्दाय नमः(पूरब में),२. ॐअर्यम्णे नमः(दक्षिण में), ३. ॐ
जृम्भकाय नमः(पश्चिम में), ४.ॐ पिलिपिच्छाय नमः(उत्तर में) तथाच

१.     ॐ इन्द्राय नमः(पूर्व में)
२.    ॐ अग्नये नमः(अग्निकोण में)
३.    ॐ यमाय नमः(दक्षिण में)
४.   ॐ नैर्ऋतये नमः(नैर्ऋत्य कोण में)
५.   ॐ वरुणाय नमः(पश्चिम में)
६.    ॐ वायवे नमः(वायुकोण में)
७.   ॐ कुबेराय नमः(उत्तर में)
८.    ॐ ईशानाय नमः(ईशान कोण में)
९.    ॐ ब्रह्मणे नमः(ईशान और पूर्व के मध्य)
१०.   ॐ अनन्ताय नमः(पश्चिम और नैर्ऋत्य के मध्य)
अब,वेदी के मध्य में(ब्रह्मपद क्रमांक ४५)जहाँ वास्तुकलश स्थापित किये हैं,उसी पर यानी पूर्णपात्र पर ही नारियल के सहारे वास्तुपुरुषमूर्ति की अग्न्युतारणादि क्रिया से शुद्धि करके स्थापना करे।आजकल इसका यन्त्राकार,तांबें के पत्तर पर बना हुआ बाजार में उपलब्ध है।न मिले तो पान या पीपल के पत्ते पर घृत-कुंमकुम से लेखन करके भी प्रयोग किया जा सकता है।ध्यान रहे कि लिखकर बनायी गयी आकृति का अग्न्युतारणादि संस्कार नहीं करना चाहिए। किंचित मत से वास्तुपुरुष की सर्पाकृति की स्थापना का भी विधान है।किन्तु मेरे विचार से सर्पाकृति की स्थापना हम भूमिपूजनकर्म में कर चुके हैं।यहाँ मानवाकृति की स्थापना ही होनी चाहिए। ध्यातव्य है कि वास्तुशान्ति यज्ञ की समाप्ति के पश्चात् सभी देवों का विसर्जन कर दिया जाता है;किन्तु वास्तुपुरुष का विसर्जन नहीं किया जाता,प्रत्युत इन्हें भवन के अग्नि कोण में प्रतिष्ठापूर्वक गर्तकर्मविधान से स्थापित कर दिया जाता है।पूरे कर्मकाणड का यही मूल कर्म है।इसमें जरा भी लापरवाही नहीं होनी चाहिए।गर्तकर्म की चर्चा आगे यथास्थान की जायेगी। सुविधा के लिए वास्तुपुरुष का चित्र यहाँ प्रस्तुत किया जारहा है—

क्रमशः.....

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