पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-153

गतांश से आगे...        

अध्याय २६— वास्तुदोष-निवारण
    
पिछले अध्यायों में वास्तु नियमों की विशद चर्चा हुयी है। उन नियमों का पालन न करने, या पालन करना सम्भव न होने की स्थिति में ही वास्तुदोष उत्पन्न होता है। इस अध्याय में उन्हीं बातों की चर्चा होगी। दोषों को समझने के पश्चात् ही उनका निवारण किया जा सकता है।
    वास्तुदोषों के कई प्रकार होते हैं।मुख्य रुप  से इन्हें चार भागों में रखा जा सकता है।यथा—1)अवस्थिति दोष, 2) आकृति दोष, 3) संरचना दोष, और 4) व्यवस्था दोष।
    यहाँ इन सब पर अलग-अलग चर्चा करते हुए, निवारण हेतु सुविधा जनक उपाय सुझाये जायेंगे। साथ ही ऐसी विधि की चर्चा करेंगे, ताकि वास्तुगत कोई दोष न होते भी वास्तु की सम्यक् सुरक्षा हो,यानी बाहरी किसी प्रकार के भौमान्तरिक्षीय प्रभावों से भवन की सुरक्षा हो सके।
1)    अवस्थिति दोष — अवस्थिति दोष मुख्यतः प्राकृतिक दोष है,जिसे सुधारना असम्भव सा है। जैसे कोई भूखण्ड भूस्खलन क्षेत्र में है,तो किसी प्रकार इसे सुधारा नहीं जा सकता। हाँ,तदनुसार निर्माण के समय सतर्कता रखनी होगी,और विशेषज्ञों की राय की अवहेलना कदापि नहीं होनी चाहिए। इसी तरह किसी भूखण्ड के पूरब में ऊँचे पहाड़ या ढूह हो, दक्षिण में नदी या अन्य जलस्रोत हो- ऐसी स्थिति को चाह कर भी बदला नहीं जा सकता। अतः भूमिचयन के समय ही इसका विचार करना चाहिए। ऐसी विपरीत वास्तुभूमि का चयन ही न किया जाय; किन्तु यदि पूर्वजों ने ऐसी दोषपूर्ण भूमि ले रखी है,या ऐसे स्थान में ही वास करना लाचारी है,ऐसी स्थिति में निर्माण के समय काफी सतर्कता वरतनी होगी। पांच तत्वों के संतुलन का विशेष ध्यान रखना होगा। क्यों कि छोटी से छोटी त्रुटि का भी बड़ा दुष्प्रभाव झेलना पड़ सकता है, जैसे-  किसी भूखंड के पूरब में पहाड़ है, और पूरब की तुलना में पश्चिम का निर्माण नीचा करते हैं,दक्षिण में प्राकृतिक जलस्रोत है, और भवन में ईशान के बजाय बोरिंग अन्य दिशा में कर देते हैं,ऐसी स्थिति में उस भवन पर सामान्य की अपेक्षा दोष कई गुना अधिक प्रभावी होगा। इसका सर्वोत्तम उदाहरण हमारा भारतवर्ष है,जिसके उत्तर में हिमालय और दक्षिण में हिन्द महासागर है। इन दोनों का दुष्परिणाम देश को भुगतना पड़ा है। पौराणिकभूगोल(आसमुद्रातु वा पूर्वा,वा समुद्रातु पश्चिमा, हिमयोर्विन्ध्योर्मध्ये आर्यावर्त विधुर्विधु...) वाली सीमा जैसे-जैसे सिमटी है,भारत का संकट बढ़ा है। हालांकि,पूर्व का समुद्री विस्तार और उत्तर की हरीतिमा तथा ग्लैसियर वास्तुगत रुप से हमारी रक्षा भी करते रहे हैं। गौर तलब है कि जंगलों की कटाई(हरीतिमा का हनन) हमें भारी नुकसान भी पहुँचाया है,क्यों कि जाने-अनजाने हमने अपने रक्षकों का हनन किया है। जो कुछ भी गौरव और सुरक्षा हमें प्राप्त है,उसके पीछे भारतवासियों का अपेक्षाकृत अधिक धर्मप्राण होना अहम कारण है। पश्चिमी सम्यता का अंधानुकरण हमारी तबाही के द्वार खोल रहा है- इसे नजरअन्दाज न किया जाय।
आकृतिदोष- सूर्यवेध,चन्द्रवेध,प्रलम्ब,संकोच,प्लवत्व,विविध प्रकार की आकृतियाँ- ये सब आकृतिदोष के अन्तर्गत आते हैं। इनका सर्वोत्तम उपाय है- निर्माण के समय ही काट-छांट कर,समतल कर, संस्कारित कर सर्वविध अनुकूल भूखण्ड तैयार कर लेना।जैसा कि दिये गये चित्र में स्पष्ट है- समूचा भूखण्ड पूरब-पश्चिम अधिक लम्बाई वाला है,जिसे सूर्यवेध दोष कहते हैं। इसमें से अनुकूल माप निकाल कर वास्तुमंडल को शुद्ध कर लिया गया। 

 
इसी भांति अगले चित्र में हम देख रहे हैं कि भूखण्ड का एक कोण प्रलम्बित है।यहाँ प्रलम्ब को लालरंग से दिखाया गया है।चाहे जो कोण प्रलम्बित हो, नियमतः उसे छांट कर अलग कर दिया जाना चाहिए।छांटा गया भाग उपयोग भर हो तो वहाँ स्वतन्त्र निर्माण कर लिया जा सकता है,जिसका मुख्य मंडल से सम्बन्ध न हो। निर्माण कार्य वास्तुसम्मत मंडल बांध कर ही किया जाना चाहिए। ध्यातव्य है कि किसी भाग(कोण,दिशा)का प्रलम्ब दोष- युक्त ही कहा जाता है,भले ही दोष की मात्रा न्यूनाधिक हो। कुछ लोग ईशान और पूरव के विस्तार को अच्छा मानते हैं,किन्तु यह सही नहीं है। सही यह है कि अन्य दिशा-विदिशा की तुलना में ईशान-पूर्व कम दोषी है,किन्तु दोष मुक्त नहीं है।द्रष्टव्य नीचे का चित्र-





क्रमशः...

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