पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-159

गतांश से आगे....
            अध्याय २७ वास्तुदोष-निवारण-साधन- भाग एक               
    
पिछले अध्याय में चार प्रकार के वास्तुदोषों की चर्चा की गयी। प्रसंगवश तत्सम्बन्धी कुछ उपाय भी सुझाये गये।यहाँ, इस अध्याय में उन उपायों की चर्चा होगी,जो किसी न किसी तरह की साधना पर आधारित हैं। वास्तुदोषनिवारणयन्त्र की चर्चा की जा चुकी है,किन्तु उसे कैसे तैयार करेंगे- बतलाना शेष है। इसी तरह की कुछ और भी क्रियायें हैं,जो सीधे साधना सम्बन्धी हैं।
१.     वास्तुदोषनिवारक वर्छी(अंकुश) और त्रिशूल-साधना—
    भवन की अन्तःवाह्य सुरक्षा के लिए सुरक्षाकवच की चर्चा तेरहवें अध्याय में परिसर-प्रसंग में की जा चुकी है।इसकी निर्माण-विधि भी वहीं बतलायी जा चुकी है(द्रष्टव्य-अध्याय १३,परिसर-प्रसंग)। आवश्यकतानुसार इसका प्रयोग अवश्य करना चाहिए। किसी भी भवन के लिए यह एक अमोघ उपाय है। दोष और परेशानी न होते हुए भी इसका प्रयोग किया जा सकता है। दोष यदि हो तो पहले वास्तुशान्ति कर लें। (इस क्रिया के लिए गृहप्रवेशवास्तुशान्ति पद्धति,अध्याय-२३ का अवलोकन करना चाहिए)  उसी क्रम में वास्तु बन्धन की क्रिया भी की जाये,यानी घर की सफाई करके,कूड़ाकरकट बाहर फेंकने के बाद दरवाजा बन्द किया जाता है,ऐसा नहीं कि पहले दरवाजा ही बन्द करलें।ध्यातव्य है कि विधिवत साधित लोहे की दस बर्छियों में दस दिक्पालों को स्थापित करके,दशों दिशाओं में छत के ऊपरी भाग पर लगा दिया जाना चाहिए।
     वर्छी की भांति ही(किंचित भिन्न रुप से) त्रिशूल की स्थापना का भी विधान है।कलोहे की गोल,चिकने छड़ से गृहस्वामी के हाथ से कम से कम सवाहाथ,वा सताइस अंगुल नाप का त्रिशूल किसी शनिवार को ही बनवायें। त्रिशूल दण्ड में अठारह अंगुल के बाद ही तीनों शूल लगाये जायें।  दण्ड और शूल का आपसी संतुलन भी महत्त्वपूर्ण है- इसका ध्यान रखें।  



    विधिवत निर्मित त्रिशूल को लोहार के यहाँ से संध्या काल में घर लाकर पंचगव्य(गाय का गोबर,मूत्र,दूध,दही,घी) से शुद्ध करने के बाद गंगाजल एवं कुशोदक से भी शुद्ध करें। तत्पश्चात् नवीन लाल वस्त्र का आसन देकर पंचोपचार पूजन करें,पुनः ॐ शं शनैश्चराय नमः मन्त्र का तेइस माला जप करें। जप के बाद घी से तेइस आहुतियां भी उक्त मंत्र से डालें। यह क्रिया शनिवार की रात्रि में ही की जाय। पुनः सोमवार आने पर प्रातः या सुविधानुसार सायं काल में उस त्रिशूल में भूतभावन भोलेनाथ का आवाहन करके पंचोपचार पूजन करें। तत्पश्चात् ॐ नमः शिवाय मन्त्र का ग्यारह माला जप करें।जप के बाद उक्त मन्त्र से ही एकसौआठ आहुतियां भी प्रदान करें।इस प्रकार उपयोग के लिए त्रिशूल तैयार हो गया।जप की यह संख्या एक त्रिशूल के लिए है।अधिक के लिए जप की संख्या भी बढ़ानी होगी।पूजन आदि कार्य एकत्र रुप से
अधिकाधिक मात्रा में किया जा सकता है।
   आवश्यकतानुसार एकाधिक त्रिशूल का प्रयोग एक ही भवन के लिए किया जा सकता है।जैसे,मान लिया भवन के एक ओर मोबाइल टावर है, दूसरी ओर कोई मन्दिर,मस्जिद,मजार आदि,तीसरी ओर भी ऐसा ही कुछ अवांछित निर्माण है,जिससे ऋणात्मक ऊर्जा प्रवाहित हो रही है,तो ऐसी स्थिति में विभिन्न दिशाओं में इस साधित त्रिशूल का प्रयोग कर सुरक्षित हुआ जा सकता है।ईशानकोण से वायुकोण के बीच भवन से सटे(सातफीट के अन्दर)यदि विजली का ट्रान्सफर्मर है,तो ऐसी स्थिति में भी इस साधित त्रिशूल का प्रयोग करके निरापद हुआ जा सकता है।विभिन्न प्रकार के द्वारवेध में भी यह समानरुप से उपयोगी है।
     ध्यातव्य है दिक्पाल स्थापन-बन्धन वाली बर्छी त्रिशूल से बिलकुल भिन्न चीज है। इन दोनों का अलग-अलग कार्य है। हाँ,एक साथ इन दोनों अस्त्रों का प्रयोग किया जा सकता है। बाहर से आकर, भवन को प्रभावित करने वाली ऋणात्मक ऊर्जा प्रवाह को रोकने के लिए ये दोनों बड़े ही अद्भुत उपाय हैं।

क्रमशः.....

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