गतांश से आगे---अध्याय सताइस भाग चार
५.ताम्रवेष्ठन क्रिया — बाजार में अर्थिंगवायर के
नाम से उपलब्ध शुद्ध तांबे का तार आवश्यकतानुसार खरीद कर किसी रवि या मंगलवार को
ले आवें। ध्यान रहे कि जस्ता मिला हुआ,तार न लें। समान्य पंचांग शुद्धि विचार करके,लकड़ी की चौकी
या पीढें पर नवीन लाल वस्त्र विछा कर, जल से शुद्ध करके तार को स्थापित कर दें। सामान्य रुप से पंचोपचार पूजन करें, और ऊँ श्री वास्तोष्पतये नमः मन्त्र का कम से कम एक
हजार जप सम्पन्न करें।आगे ग्यारह दिनों तक इसी विधान से क्रिया करते रहें। विशेष परिस्थितियों में इसी विधान का
ताम्रवेष्ठन "कलौसंख्या चतुर्गुणा" न्याय से चौआलिस हजार जप करके,करना
चाहिए। अन्तिम दिन,यानी
ग्यारह/चौवालिश हजार जप पूरा हो जाने पर, तत्दशांश पंच शाकल्य होम
(कालातिल,अरवाचावल,जौ,गूड़ और घी-क्रमशः आधा-आधा) करें।इस प्रकार साधित तांबे के
तार का विविध वास्तु कार्यों में प्रयोग किया जा सकता है।यथा-
Ø किसी तरह का वास्तु दोष न होते भी,मात्र सुरक्षा के उद्देश्य से पूरे परिसर
का बन्धन इस तार से किया जा सकता है।इसकी चर्चा पूर्व में परिसर-बन्धन-प्रसंग में
की जा चुकी है।
Ø दिक्पाल बन्धन हेतु भी इस साधित तार का प्रयोग किया जाता है। इसकी चर्चा भी
गत प्रसंग में की जा चुकी है।
Ø किसी दोषपूर्ण हिस्से को मुख्य भूखण्ड से अलग करने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है।
Ø सूर्यवेध दोष को दूर करने हेतु भी इसका
प्रयोग कारगर है।
इसे आगे दिये गये चित्र
में स्पष्ट किया गया है। हम देख रहे हैं कि बड़ें से भूखण्ड में कई दिशायें
दोषपूर्ण हैं।इसे उक्त साधित तांम्रवेष्ठन क्रिया से पूर्णतः शुद्ध और सुरक्षित
किया जा सकता है।पड़ोस के अवांछित निर्माण से भी रक्षित हुआ जा सकता है।
जैसा
कि ऊपर के चित्र में दिखाया गया है-पीले रंग से दिखाये गये भूखण्ड के चारो ओर लाल
रंग की लाइन है-यही तांबें का साधित तार है, जिसे सतह पर(सुविधानुसार ग्रेडवीम पर)विछाया
गया है। मान लिया कि दाहिने क्रॉस वाले भाग में पड़ोसी का शौचालय है। ऐसी स्थिति
में यहाँ आवश्यक हो जाता है कि आप अपने भूखण्ड को शौचालय दोष से मुक्त करेँ। दो और
दिशायें भी प्रलम्बदोष पीड़ित हैं। उनसे भी मुक्ति दिलाने के लिए साधित
ताम्रवेष्ठन क्रिया कारगर है।
इसी
भांति ऐसे अनेक दोषों के मार्जन में ताम्रवेष्ठन क्रिया का प्रयोग किया जा सकता
है। दोष की स्थिति,और मात्रा की सघनता के अनुसार तार की मोटाई (८ से लेकर २०नं.तक)
का प्रयोग किया जाना चाहिए,साथ ही तदनुसार उस पर मन्त्र शक्ति प्रयोग भी निर्भर
है। २० नं. से ऊपर की संख्या भी वास्तु कार्य के योग्य नहीं है,क्यों कि उसमें
आवश्यक ऊर्जा संचरण नहीं हो पाता। यह ठीक वैसा ही है जैसे सामान्य घरेलू उपयोग
वाले ३-२० के विजली के तार पर हाई वेल्टेज प्रवाहित नहीं किया जा सकता।या कहें-
वल्ब जलाने के लिए उपयुक्त तार से हीटर जलाना उचित नहीं है।यहाँ भी ऊर्जा का
सिद्धान्त वही है।
समान्य स्थिति में तो सिर्फ ग्रेडवीम के स्तर
पर ही इस तार का प्रयोग करने से काम चल जाता है,किन्तु विशेष सुरक्षा के लिए ऊपर
छत के स्तर पर भी प्रयोग कर देना चाहिए।आवश्यकतानुसार बहुमंजिले भवन के विभिन्न
तलों पर भी उपयोग किया जाना चाहिए।हाँ,ऊपर क्रमशः तार की मोटाई कम होते जायेगी।
जैसे भूतल पर(ग्रडवीम में) ८,पहली मंजिल के छत में १०,उससे
ऊपर १२, उससे ऊपर
१४, उससे ऊपर १६,
उससे ऊपर १८ के क्रम से ही लगाना अच्छा है।हालाकि,अधिक मोटे
तार को लगाने से कोई हानि नहीं है।फिर भी पैसे की बरबादी तो है ही।अतः उचित
मोटाई(नं.)का ही चुनाव करना चाहिए।
मन्त्र की साधना(जप-संख्या)तार की मात्रा
पर भी निर्भर है।ऐसा नहीं कि हजारों फीट तार सामने रख कर थोड़े से मन्त्र जप कर
लें। साधक की व्यक्तिगत साधनाबल का ही यहाँ उपयोग हो रहा है। यानी जिसकी चेतना की
सघनता विरल है,उसके द्वारा साधित क्रिया भी व्यर्थ ही होगी।अतः इस क्रिया को महज
तमाशा न बनावें। सुदीर्घ अभ्यासी साधक ही इसका प्रयोग करेँ। अन्यथा किसी
कम्पाउन्डर से पेट का ऑपरेशन कराने जैसा हो जायेगा। जैसा कि प्राक्कथन में भी कहा
जा चुका है- वास्तु केवल वाह्य तल नापने का हिसाब नहीं है,प्रत्युत एक अति गहन और
संवेदनशीन विज्ञान है। क्रमशः...
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