पु्ण्यार्कवास्तुमंजूषा-163

गतांश से आगे....अध्याय सताइस,भाग पांच (27-5)

   ६.ताम्रपत्र निर्माण-प्रयोग — बाजार में विभिन्न मोटाई वाले ताम्रपत्र उपलब्ध हैं। अठारह या वीस गेज का ताम्रपत्र सामान्य रुप से वास्तु कार्य के लिए ऊपयुक्त है। इसकी साधना विधि भी ठीक ताम्रवेष्ठन जैसी ही है। अन्तर सिर्फ प्रयोग में है। इसका उपयोग खास कर तब किया जाता है,जब किसी वस्तु(वास्तुगत दोष) को जमीन के भीतर दबाकर (यानी दफनकर) छोड़ देना हो। इसके प्रयोग का दूसरा पहलु यह भी है कि जमीन में पड़ा वास्तुदोष जमीन के ऊपर प्रभावी न हो- ठीक वैसे ही जैसे कमरे में पड़े किसी दूषित पदार्थ पर कोई ढक्कन डाल देते हैं,ताकि उसका प्रभाव बाहर न आवे। ध्यातव्य है कि दोष हावी नहीं हो रहा है,किन्तु उसकी अवस्थिति ज्यों की त्यों बनी हुयी है। भले ही कालान्तर में वहीं पड़ा-पड़ा नष्ट हो जा सकता है। इस ताम्रदाबक क्रिया का प्रयोग खास कर अपरिहार्य स्थिति में सैफ्टीटैंक के दोष को दबाने हेतु किया जा सकता है। ध्यातव्य है कि ब्रह्मस्थान के दोष में इसका प्रयोग कदापि न करें। एक स्थान पर ताम्रपत्र के पांच टुकड़ों का प्रयोग करना आवश्यक होता है। प्रत्येक का आकार ग्यारह गुणे ग्यारह अंगुल से कम न हो।इसे आगे के चित्र में स्पष्ट किया जा रहा है। टैंक के ऊपर चारो कोनों और मध्य में इसे स्थापित कर ऊपर से सीमेन्ट लगा देंगे।


७.फिटकिरी,सेन्धानमक साधन —इसकी विधि बड़ी सरल है। सोमवार के दिन सवा किलो के करीब फिटकिरी या सेन्धानमक का ढेला लेलें।  ढेला एक ही हो तो अच्छा है, टुकड़े में न हो,और मात्रा(वजन)में बहुत फर्क भी न हो। स्वच्छ जल से शुद्धि करके, फिटकिरी को लाल कपड़े,और सेन्धानमक को दूधिया कपड़े में बांधकर सामने रख लें। सामान्य विधि से पंचोपचार पूजन करें। 
तत्पश्चात् ॐ श्री वास्तोष्पतये नमः मन्त्र का ग्यारह माला मात्र जप करें।बस,आपका सामान तैयार हो गया।सुविधानुसार दोनों में किसी एक या दोनों एक साथ प्रयोग किये जा सकते हैं। घर के जिस भाग में वास्तुदोष हो,वहाँ इसे सुरक्षित रख दें। किसी प्रकार के दोष न होने पर भी इसका प्रयोग किया जासकता है,क्यों कि इसके अन्यान्य लाभ भी हैं। आधुनिक घरों में शयन-कक्ष से संलग्न शौचालय रखने का चलन है। ऐसे शौचालय में इसका प्रयोग करना अति लाभदायक होता है।इसकी समय सीमा बहुत कम है।अतः साल में एक बार पुराने का विसर्जन कर,नया स्थापित कर लेना चाहिए।
     ८.विशिष्ट बलि विधान- वास्तुपदविन्यास प्रसंग में निर्दिष्ट पदों पर विचार करके,ज्ञात करें कि भवन में वास्तुदोष किन-किन पदों में हैं।जैसे मान लिया कि किसी भवन के ईशानक्षेत्र में सेफ्टीटैंक बना हुआ है। यानी शिखी,पर्जन्य,दिति,आप आदि पद पीड़ित हो रहे हैं।इसी तरह यदि नैर्ऋत्य क्षेत्र में कुछ अवांछित संरचना है,तो पितृ,दौवारिक,मृग आदि पद पीड़ित हो रहे हैं।इस तरह से निदान करके,पीड़ित पदेशों (स्थान के स्वामी) के निमित्त समय-समय पर(साल में एक-दो बार) उनके प्रिय पदार्थों से अथवा सिर्फ दही,उड़द,चावल आदि से बलि दे दिया करे। यही क्रिया भवन के अग्निकोण में सोये पड़े वास्तुदेवता के निमित्त भी किया जाना चाहिए। इसके लिए किसी विशेष मन्त्र या क्रिया विधान की आवश्यकता नहीं है,सिर्फ नाममन्त्र से काम चल सकता है।जैसे- ऊँ शिखिन्यै नमः दधि- माष-भक्त बलिं समर्पयामि...इत्यादि। बलि के साथ जल और दीपक भी अनिवार्य होता है- इसे न भूलें। बलि का यह विधान पीड़ित ग्रहों के लिए भी करना चाहिए। जांच की विधि पूर्ववत है।उपचार भी उसी ढंग से होना चाहिए।

क्रमशः.... 

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