पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-164

गतांश से आगे....अध्याय सताइस,भाग छः(अन्तिम भाग)

९.वास्तुयन्त्रसाधना— तांबे या पीतल के पत्र पर बने वास्तु-दोष निवारण-यन्त्र बाजार में आसानी से उपलब्ध हैं। इनमें मुख्य दो तरह के यन्त्र होते हैं- एक वास्तुपुरुष यन्त्र और दूसरा वास्तुपद यन्त्र। वास्तुपुरुष यन्त्र में पुरुषाकृति बनी होती है,जिसकी स्थापन-पूजन की विधि गृहप्रवेश- वास्तुशान्ति प्रसंग में की जा चुकी है।(इसे वहीं देखें)। दूसरा-  वास्तुपद यन्त्र और कुछ नहीं बस, चौंसठकोष्ठकों वाला वास्तुमंडल है,जिसमें सभी पदेशों के नाम भी अंकित हैं। इसे खरीद कर, गत अध्याय में बताये गये विधान से प्राणप्रतिष्ठा करके पंचोपचार पूजन करने के पश्चात् कम से कम ग्यारह माला ॐ वास्तोष्पतये नमः मन्त्र का जप भी कर लेना चाहिए। यह संख्या प्रतियन्त्र के लिए है। आवश्यकतानुसार एकाधिक यन्त्रों की प्रतिष्ठा एक साथ की जा सकती है।स्थापन-पूजन के बाद प्रत्येक मंजिल के चारो कोनों और मध्य में इसे फ्रेम में जड़कर लगा देना चाहिए। चारो कोनों में सभी यन्त्र का रुख भीतर की ओर होना चाहिए- यानी पूर्वी और पश्चिमी दीवार में। इस प्रकार किसी भी यन्त्र का मुख दक्षिण-उत्तर नहीं होगा। मध्य के यन्त्र का मुंह सुविधानुसार पूरब या उत्तर की ओर रखा जा सकता है। ठीक मध्य में अनुकूल स्थान यदि न हो तो मंडल का तृतीयांश निर्धारण करके(ब्रह्मस्थान)में कहीं भी रखा जा सकता है। ध्यातव्य है कि मूलकेन्द्र से जितने समीप होगा,उतना ही कारगर होगा।स्थापन की क्रिया साल के विशिष्ट अवसरों(नवरात्र आदि)में करने से अधिक लाभदायक होता है।
   अब तक विविध प्रकार के यन्त्रादि साधन की चर्चा की गयी। उक्त उपचारों के अतिरिक्त कुछ अन्य बातों का भी ध्यान रखना चाहिए,ताकि
किसी प्रकार के वास्तुदोष से रक्षा हो सके। यथा—
       I.            जिस घर में साफ-सफाई की अच्छी व्यवस्था होती है,वहाँ व्यवस्था जनित वास्तुदोष हावी नहीं होता।(अवस्थिति,आकृति और संरचना दोष इससे भिन्न है। इसकी चर्चा गत अध्याय में की जाचुकी है।)
     II.            जिस घर में नियमित रुप से शंखघंटादि ध्वनि,घृत दीप प्रज्ज्वलन, भजन-कीर्तन,होम-जपादि शुभ कार्य होते रहते हैं,वहाँ वास्तुदोष (अपेक्षाकृत न्यून) हावी नहीं होता।
  III.            साल में एक बार वास्तुहोम(द्रष्टव्य- गृहप्रवेश पद्धति)अवश्य कर लेना चाहिए। इसमें संक्षिप्त वास्तुदेवादि पूजन भी हो जाता है,जिसके परिणाम स्वरुप वास्तुदेव सदा जागृत-चैतन्य रहते हैं।
  IV.            जिस वास्तुपद में दोष हो(द्रष्टव्य- वास्तपदविन्यास)उस पद से सम्बन्धित देव को समय-समय पर बलि अवश्य देते रहें।इससे बहुत राहत मिलेगी।
    V.            ध्यातव्य है कि वास्तुदेव के मुख से सदा तथास्तु उद्घोष होते रहता है। अतः घर का वातावरण प्रेम-सौहार्द्र पूर्ण बनाये रखना चाहिए। इसके विपरीत, जिस घर में कलह का बाहुल्य होगा वहाँ अकारण वास्तुदोष हावी होगा ही, और घर में रहने वाले की आर्थिक मानसिक, शारीरिक स्थिति सदा प्रभावित होती रहेगी।
  VI.            भोजन नियत स्थान पर ही करना चाहिए। नित्य स्थान परिवर्तन, विस्तर पर बैठकर खाना आदि क्रियायें अदृष्य रुप से हावी होकर घर के सुख-शान्ति को नष्ट करती हैं।
VII.            घर में धड़विहीन मूर्तियाँ,व्यर्थ पुराने सामानों(इलेक्ट्रोनिक,विजली) का अम्बार न लगायें।इससे बहुत क्षति होती है।
VIII.            ब्रह्मस्थान की मर्यादा का हर सम्भव प्रयास करें। इसके बाद दूसरे नम्बर में हैं- चारोकोण और चारों दिशायें।
निष्कर्षः-  ऊपर बतलाये गये उपायों को उपयोगिता और प्रयोग की दृष्टि से निम्न श्रेणियों में रख सकते है—
v बाहर से आते हुए किसी प्रकोप-प्रभाव को भवन से दूर रखने हेतु-साधित त्रिशूल और वर्छी का प्रयोग किया जाना चाहिए।
v सामान्य और विशेष- दोनों प्रकार के बन्धन हेतु, किसी अवांक्षित खण्ड को अलग करने हेतु,तथा अन्य प्रकार के विभाजन हेतु ताम्रवेष्ठन का प्रयोग करना चाहिए।
v भूगर्भीय दोष को भीतर ही भीतर दफन करने के लिए दाबकताम्रपत्र का प्रयोग करना चाहिए।
v छोटे-मोटे वास्तुदोष(भवन का आन्तरिक वातावरण शोधन) के लिए फिटकिरी या सेन्धानमक का प्रयोग करना चाहिए।
v विविध वास्तु पद दोष निवारण एवं भवन पर ग्रहों का प्रकोप आदि की शान्ति हेतु बलि का विधान है।
v समय-समय पर वास्तुशान्ति पूजा-होम आदि की क्रिया भवन को सदा युवा बनाये रखने के लिए उपयोगी है।
v वास्तुयन्त्र की स्थापना बन्धन,शोधन,रक्षण तीनों काम एक साथ करता है।
v वास्तुवंशी का प्रयोग विशेष कर कमरे में लटकती वीम के दुष्प्रभाव को दूर करने हेतु किया जाता है। साथ ही भवन, कार्यालय,दुकान आदि किसी भी स्थान की आन्तरिक ऋणात्मक ऊर्जा को खींच कर बाहर करने,और धनात्मक ऊर्जा को भीतर लाने में वास्तुवंशी का योगदान है।अतः
इसका उपयोग प्रवेशद्वार
/मुख्यद्वार पर भी किया जा सकता है।भवन के अन्य निकास पर भी उतना ही उपयोगी है।
v हनुमत्ध्वज आस्था का प्रतीक है,और रक्षण कर्म तो होता ही है।
v स्वस्तिक का प्रयोग किसी भी स्थिति में किया जा सकता है। ठीक वैसे ही जैसे एक पूर्णतः स्वस्थ व्यक्ति को दूध-फल आदि खाना चाहिए, किन्तु एक बीमार व्यक्ति के लिए अत्यावश्यक हो जाता है।
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नोटः-  यह अध्याय पूरा हुआ। प्रसंग आगे जारी है...क्रमशः.....

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