पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-167

गतांश से आगे...अध्याय अठाइस,भाग-तीन

अब,अध्याय के प्रारम्भ में दिये गये अहिबलचक्र को इस भांति स्थापित करें कि चित्र में दृष्ट नाग का शिर स्थानद्वार पर पड़े। इसके लिए भवन (भूखण्ड) की लम्बाई-चौड़ाई को अहिचित्रानुसार ७×४=२८ कोष्ठकों में विभाजित करना चाहिए। भवन के आकार के अनुसार प्रत्येक कोष्ठक का भी अपना एक निश्चित आकार होगा।स्थान निश्चय के बाद उसी स्थान का सूक्ष्म परीक्षण करके कार्य करना है।
   यहाँ एक और बात का ध्यान रखना है कि ऊपर कहे गये तीनों प्रकार से परीक्षण करना चाहिए। उक्त तीन परीक्षणों में किन्ही दो का परिणाम समान हो तो,निश्चित ही परीक्षित भूमि-भवन में धनलाभ होगा। यदि तीनों का परिणाम बिलकुल भिन्न हो तो धनप्राप्ति की आशा नहीं है।
   चित्रांकित अहिचक्र को मूलश्लोक संख्या ४ से ८ तक स्पष्ट किया गया है। उक्त क्रम से नक्षत्रों का न्यास करने से सर्पाकृति प्रस्तार बनता है। इसे भवन के मुख्यद्वार पर स्थापित करने पर हम पाते हैं कि द्वार शाखा(दोनों चौखट) में क्रमशः मघा  और भरणी नक्षत्र पड़ते हैं,तथा द्वार मध्य में कृत्तिका नक्षत्र न्यस्त होता है। 
    अब,मूल श्लोकसंख्या ९ के अनुसार,आगे की परीक्षण-विधि की दूसरी कड़ी पर आते हैं। भूगत सम्पदा परीक्षण क्रम में २८नक्षत्रों (अभिजित सहित) को स्वामित्व के हिसाब से दो भागों में बांटा गया है- १४ नक्षत्र चन्द्रमा के स्वामित्व में और १४ नक्षत्र सूर्य के स्वामित्व में माने गये हैं। किन्तु इनका विभाजन क्रमिक नहीं है।
   जैसा कि मूलश्लोक संख्या १० में निर्दिष्ट है- अश्विनी से तीन(अश्विनी, भरणी, कृत्तिका),आर्द्रा से पांच(आर्द्रा, पुनर्वसु,पुष्य,अश्लेषा,मघा),पूर्वा से चार (पूर्वाषाढ़,उत्तराषाढ,अभिजित,श्रवण), तथा रेवती एवं पूर्वभाद्र- ये १४ नक्षत्र चन्द्रमा के स्वामित्व में हैं।शेष १४ नक्षत्र(रोहिणी,मृगशिरा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्ता,चित्रा,स्वाती,विशाखा,अनुराधा,ज्येष्ठा,मूल,धनिष्ठा, शतभिषा,उत्तराभाद्र) सूर्य के स्वामित्व में कहे गये हैं। ध्यातव्य है कि स्वामित्व के इस नियम का उपयोग धनसाधनादि में ही किया गया है, ज्योतिष में अन्य स्थानों पर नक्षत्रों का स्वामित्व भिन्न प्रकार से है। अतः इस स्वामित्व-व्यवस्था से भ्रमित नहीं होना चाहिए।  सुविधा के लिए,इसे आगे की सारणी में स्पष्ट किया जा रहा है-

संख्या
१०
११
१२
१३
१४
चन्द्र  नक्षत्र
अश्विनी

रणी

कृ
त्ति
का
आर्द्रा

पु
नर्वसु

पुष्य
अश्लेषा
मघा
पू
र्वाषा
ढ़
उत्तरा
षाढ
भिजि
श्रवण
रे
वती
पू
र्वभाद्र
सूर्य नक्षत्र
रोहिणी
मृगशिरा
पूर्वाफाल्गु
नी
उत्त
रा
फाल्गुनी
हस्ता
चित्रा
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल
धनिष्ठा
शतभिष
उत्तरभाद्र
उक्त सारिणी के अनुसार यह सुनिश्चित करलें कि प्रश्नकालिक चन्द्र नक्षत्र चन्द्रमा के स्वामित्व में है,अथवा सूर्य के स्वामित्व में,क्यों कि इससे आगे की क्रियायें प्रभावित होनी हैं। जैसे मान लिया कि सम्वत् २०७२, ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी सोमवार,दिनांक ११ मई २०१५ को प्रातः ८.३० बजे गया, बिहार में किसी भूमि परीक्षण का प्रश्न किया गया। तात्कालिक प्रश्नकुण्डली बनाने पर निम्नांकित बातें स्पष्ट हुयी- चन्द्र स्पष्टी- शतभिषा नक्षत्र,कुम्भ राशि १५ अंश,५९ कला,२ विकला,एवं स्पष्ट सूर्य रोहिणी नक्षत्र, वृष राशि-२० अश,८ कला,१० विकला है। इससे स्पष्ट हुआ कि सूर्य और चन्द्रमा दोनों ही सूर्य के स्वामित्व में हैं।
   मूलश्लोकसंख्या १३-१४ के अनुसार सूर्य और चन्द्रमा दोनों यदि सूर्य के स्वामित्व में हों तो विचारित भूमि में निश्चित ही शल्य दोष है। यदि दोनों अपने-अपने स्वामित्व में रहते तो कहा जाता कि शल्य और द्रव्य दोनों हैं इस भूमि में,तथा दोनों यदि चन्द्रमा के स्वामित्व में होते हैं तो अकूत सम्पदा का निश्चय होता। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि चन्द्रमा यदि पापग्रह से युत या दृष्ट हो तो धन होते भी उपलब्धि नहीं हो पाती। इसकी स्पष्टी हेतु यहाँ एक सारणी प्रस्तुत है-

सूर्य-चन्द्रमा अपने-अपने स्वामित्व में हों तो
धन और शल्य दोनों
सूर्य-चन्द्रमा सूर्य के स्वामित्व में हों तो
शल्य
सूर्य-चन्द्रमा दोनों चन्द्रमा के स्वामित्व में तो
धन
सूर्य-चन्द्रमा दोनों विपरीत स्वामित्व में
शून्य यानी कुछ नहीं
  
 श्लोक १४ से किंचित भिन्न श्लोक भी अन्य विद्वानों ने कहा है-
यत्रकोष्ठे स्थितश्चन्द्रस्तत्र कोष्ठे निधिं भवेत्।
यत्र कोष्ठे स्थितः सूर्यस्तत्र शल्यं विनिर्दिशेत्।।  
   यहाँ एक और बात का ध्यान रखना है— जैसे किसी बालक की जन्म-कुण्डली बनाने हेतु चन्द्रमा के नक्षत्र का भयात-भभोग निकाला जाता है,उससे ही आगे दशासाधन किया जाता है। यहाँ चन्द्रमा और सूर्य दोनों के नक्षत्रों का भयात्-भभोग निकालना आवश्यक होता है।

क्रमशः.... 

Comments

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  2. नमस्ते | मान्यवर दो शंकाएं हैं | कृपया समाधान करें |

    ११ मई २०१५ को ८:३० प्रातः , गया | इस समय चन्द्र श्रवण में व् सूर्य भरणी नक्षत्र में हैं | क्या आपने किसी और गणित इत्यादि का प्रयोग किया है |
    २- नरपतिजयचर्या, वास्तुरत्नाकर, प्रश्नआरुढ़, प्रज्ञानदीपिका इत्यादि में चन्द्र के भयात घटी को २७ से गुणाकर ६० का भाग देकर लब्धि में चन्द्र के गतनक्षत्र
    की संख्या जोड़कर तात्कालिक चंद्रनक्षत्र लिया गया है | क्या वो सही है |

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  3. ये बुक चाहिए मुझे

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