पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-169

गतांश से आगे...अध्याय अठाइस,भाग पांच


सुविधा के लिए आगे क्रमशः तीन  सारणियाँ प्रस्तुत है-
(क)  राशीश सारणीः-
राशि
मे.
वृ.
मि.
क.
सिं.
क.
तु.
वृ.
ध.
म.
कु.
मी.
स्वामी
मं.
शु.
बु.
च.
सू.
बु.
शु.
मं.
गु.
श.
श.
गु.
    
(ख)  ग्रह-दृष्टि सारणी- सूर्यादि ग्रहों की दृष्टि को पादीय माप में कहने का चलन है।जैसे –एक पादीया,द्विपादीया,त्रिपादीया,और पूर्ण। इसे ही यहाँ प्रतिशत में दर्शाया गया है। आचार्य श्री रामदैवज्ञजी ने कहा है-
त्र्यामं त्रिकोणं चतुरस्रमस्तं पश्यन्ति खेटाश्चरणाभिवृद्ध्या।     
मन्दो गुरुर्भूमिसुतः परे च क्रमेण सम्पूर्णदृशो भवन्ति।।
महर्षि पराशर ने इन्हीं बातों को यूँ कहा है-
पश्यन्ति सप्तमं सर्वे शनि जव कुजा पुनः।
विशेषतश्च त्रिदश त्रिकोण चतुरष्टमान्।।
  इसे नीचे की सारणी में स्पष्ट किया गया है-
ग्रह
सूर्य
चन्द्र
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
शनि
५%
,१०
,१०
,१०
,१०
,१०
,१०
५०%
५,९
५,९
५,९
५,९
 ०
५,९
५,९
७५%
४,८
४,८
४,८
४,८
४,८
४,८
१००%
७,४,८
७,५,९
७,,१०

ध्यातव्य है कि मंगल,गुरु और शनि क्रमशः ४-८,५-९,और ३-१० भावों पर पूर्ण दृष्टिपात करते हैं। सातवां घर तो पूर्ण दृष्टि वाला होता ही है। इसके साथ ही एक बात और स्पष्ट होती है कि शनि की एकपादीया,गुरु की द्विपादीया,और मंगल की त्रिपादीया दृष्टि नहीं होती किसी भाव पर। तथा विशेष बात है कि राहु-केतु को इस सूची में नहीं रखा गया है। बहुत से विद्वान इन्हें छाया ग्रह होने के कारण प्रधान सूची में नहीं लिए हैं,किन्तु अन्यत्र इनकी दृष्टि की भी चर्चा है,और यहाँ द्रव्यादि ज्ञान क्रम में इसकी आवश्यकता भी है।ज्ञातव्य है कि राहु शनिवत,और केतु कुजवत फलदायी हैं।इनकी दृष्टि के सम्बन्ध में  अन्य विद्वानों के मत को यहाँ संग्रहित किया जा रहा हैः-                                          सुत मदन नवान्ते पूर्ण दृष्टिं तमस्य,युगल दशम गेहे चार्ध दृष्टिं वदन्ति। सहज रिपु पश्यन् पाददृष्टिं मुनीन्द्राः, निज भुवन मुपेतो लोचनांधः प्रदिष्टः।। अर्थात् ५,७,९,१२वें भाव को राहु-केतु पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। २,१०वें भाव को आधी दृष्टि से, ३,६ को पाददृष्टि यानी चौथाई दृष्टि से देखते हैं। एक और विशेषता इनमें ये है कि कन्या के राहु और मीन के केतु दृष्टिहीन होते हैं।
(ग)   ग्रहों की उच्च-नीच अवस्था सारणी- मेष,वृष,मकर,कन्या,कर्क, मीन और तुला- ये क्रमशः सूर्यादि ग्रहों की उच्च राशियाँ हैं। उच्चभाव से सातवां भाव सबका क्रमशः नीयस्थान हो जाता है। इसे नीचे की सारणी से स्पष्ट किया गया है। सारणी में राशि के साथ अंश का भी संकेत है,जो परमोच्च का सूचक है। जैसे मेष राशि पर सूर्य दशवें अंश तक परमउच्च कहे जायेंगे। इसी भांति अन्य ग्रह भी। ध्यातव्य है कि यहाँ भी राहु-केतु को नहीं रखा गया हैं,किन्तु मतान्तर से राहु के लिए मिथुन और केतु के लिए धनु को उनकी उच्चराशि कही गयी है।

ग्रह
सूर्य
चन्द्र
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
शनि
उच्च
-१०
-
-२८
५−१
−५
११−२
६−२०
नीच
-१०
-
-२८
११−१
−५
५−२
०−२०

 अब,आगे श्लोकसंख्या २३ से २८ (अन्तिमश्लोक तक) द्रव्य   सम्बन्धी अन्य बातों का संकेत देते हैं-
v सर्वाधिक महत्वपूर्ण है द्रव्य का स्थान निश्चित करना। इस सम्बन्ध में महर्षि कहते हैं कि अहिचक्रानुसार जिस स्थान पर प्रश्नकालिक चन्द्रमा स्थित हो उसे (या उसके आसपास) ही द्रव्य की स्थिति जाने।(ध्यातव्य है कि चन्द्रमा का स्थान विचार सूक्ष्म रुप से करेंगे। मान लिया परीक्षित भूमि एक हजार वर्ग हाथ है। इसमें अहिचक्र को स्थापित करने पर वस्तुतः अठाइस खण्ड ही होंगे। अब इस खास एक खण्ड को, पुनः चन्द्रमा के व्ययीतांश-ज्ञान से भाजित कर खास स्थान का निश्चय करना वास्तु-ज्योतिष के साधक के लिए कोई कठिन कार्य नहीं होना चाहिए।)
v द्रव्य का स्थान,संख्या,पात्रस्थिति आदि का ज्ञान उक्त गणित से कर लेने के पश्चात् अब यह जानना आवश्यक हो जाता है कि परीक्षित भूमि का वह द्रव्य किसी से रक्षित तो नहीं है,और रक्षण की स्थिति क्या है। क्यों कि प्रायः ऐसा होता है कि धन किसी क्रूर-व्यस्था में रक्षित होता है। वैसी स्थिति में धन होते हुए भी उसे प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई होती है। जानजोखिम में डालने की बात हो जाती है। इसमें प्रयास करने वाला ब्राह्मण और भूस्वामी दोनों की क्षति की आशंका रहती है।
v रक्षण-विनिश्चय करने के लिए चन्द्रमा की युति का विचार किया जाना चाहिए।यानी तात्कालिक चन्द्रमा के साथ कौन ग्रह हैं या युति नहीं है।
v  यदि चन्द्रमा अकेले हैं,और शुभ स्थिति में हैं, तो इससे ज्ञात होता है कि धन किसी शक्ति विशेष से रक्षित नहीं है। यानी आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।
v चन्द्रमा अकेले हो अपने स्वामित्व वाले नक्षत्र में तो धन बिना किसी के कब्जे के है,यानी उसे पाना आसान है।  
v चन्द्रमा के साथ यदि सूर्य बैठें हों(श्लोकसंख्या २४) तो धन ग्रहों से रक्षित जानना चाहिए।(यहाँ एक बात समझ लेने की है- मानलिया कि प्रश्नकालिक चन्द्रमा और सूर्य पुष्य नक्षत्र के हैं।श्लोकसंख्या १४ के अनुसार सूर्य-चन्द्रमा दोनों यदि चन्द्रमा के स्वामित्व वाले नक्षत्र में हों तो धन लब्धता सिद्ध होती है।पुष्य नक्षत्र चन्द्रमा के स्वामित्व में ही है(श्लोकसंख्या १०)। इसे ही श्लोकसंख्या २४ स्पष्ट करता है कि धन तो है, लेकिन ग्रहों से रक्षित है। इसी भांति अन्यान्य विचार करना है।
v मंगल की युति हो चन्द्रमा के साथ तो धन क्षेत्रपाल के अधीन होता है,बुध की युति से मातृकाओं के अधीन,बृहस्पति की युति से दीपेश के अधीन,शुक्र की युति से भीषण यानी भैरव के अधीन,शनि की युति से रुद्र के अधीन,राहु की युति से यक्ष के अधीन और केतु की युति से नागों के अधीन धन रक्षित है- ऐसा जानना चाहिए। इसे अगली सारिणी से स्पष्ट किया जा रहा है-
चन्द्रयुति
 0
सूर्य
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
शनि
राहु
केतु
रक्षित
स्वतन्त्र
नवग्रह
क्षेत्रपाल
मातृका
दीपेश
भैरव
रुद्र
यक्ष
नाग







क्रमशः....

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