पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-172

गतांश से आगे....अध्याय उनतीस भाग दो

अज्ञात कुल के, भूगत गुप्त-सम्पदा-परीक्षण हेतु प्रयोग करने से पूर्व ऋषि प्रणीत भूगोल को समझ लेना अत्यावश्यक है।क्यों कि आगे इस क्रिया में हमें इसी भूगोल से काम लेना है।       हमारा पौराणिक भूगोल आधुनिक भूगोल-खगोल से बिलकुल भिन्न,गहन और रहस्यमय है। सात द्वीपों में विभक्त ब्रह्माण्ड में एक है जम्बूद्वीप,और यह जम्बूद्वीप भी नौ खण्डों में विभक्त है।    इस जम्बूद्वीप के लगभग मध्य में सुमेरु पर्वत है। इससे विभाजित आधे भाग को देवलोक,और आधे भाग को दैत्यलोक कहा जाता है। भारत की ओर देवभाग है,और तत् विपरीत दैत्य भाग। सुमेरु के चारो तरफ क्रम से निषध,सुगन्ध, नील और माल्यवान नामक चार पर्वत और भी हैं। इन चारो पर्वतों से घिरे हुए इलावृत खण्ड को ही स्वर्ग कहा जाता है। निषध पर्वत से दक्षिण में, आगे हेमकूट पर्वत पर्यन्त हरिवर्ष कहलाता है ; तथा हेमकूट पर्वत से दक्षिण हिमालय पर्वत पर्यन्त किन्नरवर्ष है,जिसे आज चीन,तिब्बत,महाचीन आदि नाम से जाना जाता है। हिमालय से दक्षिण, आगे समुद्र पर्यन्त जम्बूद्वीप का जो भाग है,वही हमारा भारतवर्ष है। ये तीनों— हरि,किन्नर, और भारतवर्ष देवभाग में हैं,और इनके अधिपति हैं चन्द्रमा।
     मध्य स्थित सुमेरु पर्वत के उत्तर में क्रम से नील,शुक्ल, और श्रृंगवान नामक तीन पर्वत हैं,तथा उन पर्वतों के बीच में क्रमशः रम्यकवर्ष,हिरण्यकवर्ष और कुरुवर्ष नामक तीन भूखण्ड हैं,जो दैत्यभाग में हैं,और इनके अधिपति हैं सूर्य।
     इलावृत खण्ड के पूर्वभाग में माल्यवान पर्वत और पूर्व समुद्र के बीच भद्राश्व खण्ड है,तथा पश्चिम भाग में सुगन्ध पर्वत और पश्चिम समुद्र के बीच केतुमाल खण्ड है।इन तीनों (ईलावृत, भद्राश्व और केतुमाल) खण्डों पर सूर्य और चन्द्रमा दोनों का समानाधिकार है।
   इस प्रकार स्पष्ट है कि जम्बूद्वीप के नौखण्डों में तीन-तीन खण्ड सूर्य और चन्द्रमा के पूर्ण अधिकार में हैं, एवं शेष तीन खण्डों पर दोनों का सहआधिपत्य है। यही कारण है कि इन तीनों को मिश्रखण्ड भी कहा जाता है। इस विभाजन को आगे एक सारणी से स्पष्ट किया जारहा है—

वर्षाधीष
   देवभाग
    दैत्यभाग
चन्द्रवर्ष
हरिवर्ष,किन्नरवर्ष,भारतवर्ष
रम्यकवर्ष,हिरण्यवर्ष,कुरुवर्ष
सूर्यवर्ष
रम्यकवर्ष,हिरण्यवर्ष,कुरुवर्ष
हरिवर्ष,किन्नरवर्ष,भारतवर्ष
मिश्रवर्ष
भद्राश्ववर्ष,इलावृतवर्ष,केतुमालवर्ष
भद्राश्ववर्ष,इलावृतवर्ष,केतुमालवर्ष
     
   ऊपर की सारणी में भूखण्डों के विभाजन की विशेषता दीख रही है कि देवभागीय चन्द्रवर्ष दैत्यभाग में विपरीत स्थिति में हैं,और इसी प्रकार देवभागीय सूर्यवर्ष भी दैत्यभाग में विपरीत स्थिति में ही हैं। मिश्रवर्ष समानरुप से दोनों के आधिपत्य में है।                    
     महर्षि लोमश ने उक्त नौखण्डों को पुनः बारह-बारह उपखण्डों में विभाजित किया है। इस प्रकार कुल एक सौ आठ खण्ड हो गये। इन्हीं १०८ उपखण्डों को कोष्ठाकार चक्र में चित्रित कर, दिन-रात्रि के ४+४=८ प्रहर विभाग में, ४ दिशा + ४ विदिशा (४+४=८) का भिन्न-भिन्न मान कल्पित करके वृषादि तथा वृश्चिकादि से क्रमशः बारह राशियों के नवांश को स्थापित किया गया है। आगे धराचक्र के प्रयोगात्क कर्म में इन्हीं स्थापनाओं से विचार करना है। उदारणार्थ एक चक्र प्रस्तुत किया जा रहा है।
     
    आगे दिये गये चक्र-कोष्ठकों(१०८)में सुविधा के लिए संकेताक्षर का ही प्रयोग किया गया है,अतः, पहले यहाँ उन संकेतों का विस्तार दे दिया जा रहा है,ताकि समझने में कठिनाई न हो। यथाः- मे-मेरु, इ-इलावृत, ह-हरिवर्ष, किं-किन्नरवर्ष,  भा-भारतवर्ष, भ-भद्राश्ववर्ष, के-केतुमाल, र-रम्यक्, हि-हिरण्य, कु-कुरुवर्ष। नवग्रहों एवं द्वादशराशियों के भी प्रथमाक्षरसंकेत ही दिये हैं।
ईशान                      पूर्ब                       अग्नि
वृ.
मि.
क.
सिं
क.
तु.
वृ.
ध.
म.
कु.
मी.
मे.
वायव्य                    पश्चिम                       नैर्ऋत्य



क्रमशः....

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