पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-174

गतांश से आगे...
अध्याय उनतीस,भाग चार
(गत प्रसंग में आपने धराचक्र के मूल पाठ का अवलोकन किया,अब आगे....)

उक्त धराचक्र विधान का सुबोध  भाषान्तर एवं क्रियात्मक प्रदर्शनः-
सुखासीन महर्षि लोमश से सुतजन्मा नामक विप्र ने भूगत द्रव्य,शल्यादि ज्ञान सम्बन्धी प्रश्न किया। तदुत्तर में महर्षि ने इस लोककल्याणकारी विद्या पर प्रकाश डाला। सर्वप्रथम महर्षि ने भूखण्ड के बाह्य(परिवेशीय) लक्षणों पर प्रकाश डालते हुए कहा(श्लोकसंख्या२२ पर्यन्त) कि जिस स्थान पर अकारण ही गीतवाद्यादि का शब्द सुनायी पड़े,तथा रात्रि के अन्त में स्वयं प्रकाश दीख पड़े,वैसे स्थान में निश्चित ही धन होता है। जिस स्थान में नित्य सर्प,नेवले, सरठ(गोह) आदि दिखें,तथा प्रात-सायं उत्तराभिमुख खञ्जन पक्षी देखा जाय,वैसे स्थान पर गड़े हुए धन की सम्भावना होती है। लाल रंग का सर्प, और लाल चीटियाँ आदि भी द्वव्य की सूचना देती हैं। ‘चहा’ नामक पक्षी का निवास भी गुप्तधनसूचक है।
     इसी प्रसंग में आगे कहते हैं- स्वाभाविक रुप से कुत्ता एक पैर उठाकर ही मूत्र त्याग करता है,किन्तु जिस स्थान पर वह चारो पैरों पर खड़े होकर मूत्र त्याग करे,ऐसे स्थान पर गुप्तधन की सम्भावना होती है। श्वेतपुष्प वाली वृहती(भटकटैया) जहाँ विशेष रुप से उदित हो,वहाँ गुप्तधन की सम्भावना होती है। जिस भूमि में कमल के समान सुगन्ध हो, वा जल प्रक्षेपण से पुष्पगन्ध निकले,जहाँ की मिट्टी चिकनी,श्वेत,मधुरस्वाद वाली हो तो वहाँ गुप्तधन की सम्भावना होती है। जिस स्थान पर शयन करने पर  भोर के स्वप्न में सुन्दरियाँ,सवत्सागौ,श्वेत गौ,श्वेत सर्प,मोती, हल्दी, कमल,मछली या अन्य जलीयजन्तु प्रायः दीख पड़ें,वैसे स्थान में गुप्तधन की सम्भावना होती है।
     धन की सम्भावना के बाद अब जल की सम्भावना पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं- जहाँ चिकनी,मधुर स्वाद वाली मिट्टी हो साथ ही आसपास ज्यादातर वृक्ष कंटीले हों,तथा चीटियों के अंडे बहुतायत से दीख पड़े,दूर्वा सघन रुप से पसरा हुआ हो,ऐसे स्थान पर पर्याप्त मात्रा में जल की प्राप्ति होती है।
     इसी प्रसंग में आगे देवादि वास की चर्चा करते हैं। महर्षि कहते हैं कि जिस स्थान पर शयन करने से स्वप्न में देवता,ब्राह्मण,अग्नि,दूध, दही,,घृतादि मांगलिक पदार्थ का दर्शन हो,जहाँ तुलसी,पीपल,निम्बादि वृक्ष स्वयमेव उत्पन्न होते हों ऐसे स्थान में देवों का वास होता है।
     अब,शल्यादि लक्षण कहते हैं- जहाँ की ऊषर भूमि श्रृगाल आदि युक्त हो,और वृक्ष अकारण ही सूख जायें- ऐसे स्थान में शल्य की आशंका रहती है।जिस स्थान में तेलपूर्ण दीपक अकारण बुझ जाये,या उसका तेज फीका लगे,थोड़ी देर तक भी वास करने पर उद्वेग होने लगे,अनेकानेक विघ्न-वाधायें अकारण ही आती रहें,ऐसे स्थान पर निश्चित ही शल्य होता है।स्वप्न में पुष्प-फलादि युक्त वृक्ष,वन्ध्या स्त्री,टूटे-फूटे वरतन, तैल और तारागण दीख पड़ें,ऐसे स्थान पर निश्चित ही शल्य की आशंका होती है।
     द्रव्य-शल्यादि-ज्ञान हेतु बाह्य परिवेश लक्षण के पश्चात्(श्लोक संख्या २३ से आगे तक) अब,तत्ज्ञानार्थ क्रियात्मक पक्ष पर प्रकाश डालते हें।
     धराचक्र द्वारा भूमिपरीक्षण का मूल आधार प्रश्नज्योतिष है। इष्ट स्थान पर वास्तुसाधक को सादर आमन्त्रित करके, पुष्पाक्षतद्रव्यादि लेकर भूस्वामी द्वारा प्रश्न किया जाय। उस प्रश्न कालिक इष्टकाल से  गणित करके लग्न सहित सूर्यादि ग्रहों को स्पष्ट करें,साथ ही मात्र नवांश चक्र चित्रित करे। जन्मकुण्डली निर्माण की तरह यहाँ और अधिक गणित की आवश्यकता नहीं है। जन्मकुण्डली की तुलना में धराचक्र-क्रिया के गणित में किंचित भिन्नता भी है- इसका ध्यान रखना आवश्यक है। इष्टकाल से नवांश तक की क्रिया जन्मपत्र की भांति ही होगी,किन्तु पुनः लग्न स्पष्टी की एक और क्रिया करनी होगी। इस प्रकार स्पष्ट लग्न दो तरह का प्राप्त होगा। इसे आगे के उदाहरण से स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है।यथा-मान लिया, १४ मई २०१५,संवत् २०७२,ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी, गुरुवार को पूर्वाह्न १०.३० बजे,बिहार प्रान्त के गया नगर में भूगर्भीय परीक्षण हेतु आमन्त्रित किया गया। ज्योतिषीय क्रिया करने पर निम्नांकित तथ्य सामने आये—
घट्यात्मक इष्टकाल- १३.५
स्पष्ट लग्न-कर्क-१३.५४.३१
स्पष्ट सूर्य- मेष-२९.२.३३
स्पष्ट चन्द्र- मीन-५.४७.११
स्पष्ट मंगल- वृष-७.२४.८
स्पष्ट बुध-  वृष- १८.७.१८
स्पष्ट गुरु-  कर्क-२०.२२.५०
स्पष्ट शुक्र-मिथुन-१२.४७.६
स्पष्ट शनि-वृश्चिक-८.१२.५१
स्पष्ट राहु-कन्या-१५.१९.१०
स्पष्ट केतु-मीन-१५.१९.१०
अब,मूल श्लोक संख्या २३के नियमानुसार,उक्त इष्टकाल को दो से गुणा करके पांच का भाग देकर,प्राप्त परिणाम को उक्त स्पष्टसूर्य में जोड़ देंगे।
इस प्रकार उक्त इ.का.- (घ.प.१३.०५ × २) ÷ ५ = ५.१४
अब,स्पष्टसूर्य- मेष यानी ०.२९.२.३३ + ५.१४ = ६.१३.२.३३की जो संख्या प्राप्त हुयी यही धराचक्रसाधनार्थ स्पष्टलग्न हुआ।हालाकि नवांशादि साधन क्रिया पूर्व साधित स्पष्टलग्न से ही करेंगे।इस दूसरे स्पष्टलग्न का उपयोग मेरु स्थापन हेतु करना है। इसकी संज्ञा- धराचक्रसाधनलग्न है।
अब,श्लो.सं.२४-२५(पूर्वार्ध)के अनुसार— यदि चरलग्न(मेष,कर्क,तुला,मकर) हो तो उसी राशि के नवांश तुल्य,स्थिरलग्न(वृष,सिंह,वृश्चिक,कुम्भ) हो तो उससे नवीं राशि के नवांश से,और द्विस्वभावलग्न(मिथुन,कन्या,धनु,मीन) हो तो उससे पांचवी राशि के नवांश में ‘मेरु’ की स्थापना करेंगे।
   उक्त उदाहरण में धराचक्रसाधनलग्न ६.१३.२.३३ यानी कन्या गत,तुला का १३ अंश,२ कला,३३विकला है। ज्ञातव्य है कि तुला चरलग्नों की सूची में है। अतः तुला के नवांश में ही मेरु की स्थापना करनी होगी।
     नवांश के नियमानुसार ३ अंश २० कला का एक नवांश होता है। अतः उक्त तुलालग्न का १३ अंश,२ कला,३३ विकला यानी चौथा नवांश हुआ। यही हमारा क्रियात्मक मेरु हुआ। यहीं से क्रमशः इलादि नौखण्डों को १२-१२अंश(प्रत्येक कोष्ठक का माप)पर स्थापित करना है;किन्तु इससे पहले एक और नियम को स्पष्ट कर लेना है- श्लोकसंख्या ३१ से ३३ तक स्पष्ट किया गया है कि किस भांति १२-१२ अंश के १०८ कोष्टकों में बारहों राशि और आठ दिशाओं को स्थापित करेंगे।

क्रमशः...

Comments