गतांश से आगे...
अध्याय उनतीस,भाग पांच
क्रमशः....
अध्याय उनतीस,भाग पांच
सूत्र
कहता है कि इष्टकाल यदि दिन का हो तो राशि-गणना वृष से करेंगे,तथा रात्रि का हो तो
राशि-गणना तुला से करनी चाहिए। तथा दिशाओं की स्थापना का नियम है कि सूर्योदय से
दोपहर तक का इष्ट काल हो तो ईशानकोण से कोष्टक प्रारम्भ करेंगे,दोपहर के बाद का
प्रश्न काल हो तो अग्निकोण से कोष्टक की शुरुआत होगी,इसी भांति सूर्यास्त से रात्रि
बारह बजे तक के प्रश्नकाल की स्थिति में नैर्ऋत्यकोण से और अर्द्धरात्रि से
सूर्योदय पूर्व तक के प्रश्नकाल की स्थिति में कोष्ठक वायुकोण से प्रारम्भ होना
चाहिए। गौर तलब है कि द्रव्य-शल्यादि की स्थिति की दिशा का निर्धारण इसी प्रक्रिया
से होना है। हालांकि मध्यरात्रि और भोर का इष्टकाल व्यावहारिक रुप से सही नहीं कहा
जा सकता।
यहाँ हमारा वैचारिक
इष्टकाल पूर्वाह्न १०.३० का है,अतः कोष्टक का निर्माण ईशानकोण से करेंगे,एवं
इष्टकाल दिन का है,इस कारण राशियों की स्थापना वृषादि क्रम से की जायेगी (ध्यातव्य
है कि सामान्य नियम से राशिगणना मेषादिक्रम से की जाती है)।तथा उक्त धरालग्नस्पष्टी
के अनुसार मेरु की स्थापना तुला के चौथे नवांश में की जारही है।यहीं से बारह-बारह
कोष्ठकों में क्रमशः इलावृत्तादि जम्बूद्वीप के नौखण्डों को भी स्थापित करेंगे।
इस प्रकार तुला के चौथे
नवांश(स्थापित मेरुस्थान) से वृश्चिक के छठे नवांश पर्यन्त(बारह कोष्ठकों में)
इलावृतवर्ष का क्षेत्र होगा।इसी भांति आगे वृश्चिक के सातवें नवांश से धनु के
नौंवें नवांश पर्यन्त भद्राश्ववर्ष का क्षेत्र होगा।आगे,मकर के प्रथम नवांश से
लेकर कुम्भ के तृतीय नवांश पर्यन्त हरिवर्ष का क्षेत्र होगा।तदग्रे कुम्भ के चौथे
नवांश से मीन के छठे नवांश तक किन्नरवर्ष का क्षेत्र होगा।तदग्रे मीन के सातवें
नवांश से मेष के नौंवे नवांश पर्यन्त भारतवर्ष का क्षेत्र होगा।आगे वृष के प्रथम
नवांश से मिथुन के तृतीय नवांश पर्यन्त केतुमाल का क्षेत्र होगा।उसके आगे मिथुन के
चौथे नवांश से कर्क के छठे नवांश पर्यन्त रम्यकवर्ष का क्षेत्र होगा। तदग्रे कर्क
के सातवें नवांश से सिंह के नौंवें नवांश तक हिरण्यवर्ष का क्षेत्र होगा,और अन्त
में कन्या के प्रथम नवांश से तुला के तृतीय नवांश पर्यन्त कुरुवर्ष का क्षेत्र
स्थापित होगा। इस प्रकार बारह राशियों के १०८ कोष्ठकों में जम्बूद्वीप के सभी (नौ
वर्षों)की स्थापना कर दी गयी।
अब, एवं संस्थाप्य चक्रेतु ततः खेटान्
प्रविन्यसेत् (श्लो.सं.३३उत्तरार्ध)
के अनुसार अपने-अपने नवांश में सूर्यादि नवग्रहों को
भी न्यस्त किया जायेगा,जैसा कि नीचे के चक्र में स्पष्ट हैः—
ईशान पूर्व अग्नि
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वृ.
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मि.
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क.
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सिं
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क
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तु.
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वृ.
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ध.
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म.
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कु.
|
मी.
|
मे.
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१के.
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१के.
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१र.
|
१हि
|
१कु
|
१कु
|
१इ.
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१भ.
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१ह.
|
१ह.
|
१कि.
|
१भा.
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२के.
|
२के
|
२र.
|
२हि
|
२कु
|
२कु
|
२इ.
|
२भ.
|
२ह
|
२ह.
|
च.२कि
|
२भा
|
मं३के
|
३के
|
३र.
|
३हि
|
३कु
|
३कु
|
श३इ
|
३भ.
|
३ह
|
३ह.
|
३कि
|
३भा
|
४के.
|
शु४र
|
४र.
|
४हि
|
४कु
|
इ४
मेरु
|
४इ.
|
४भ.
|
४ह
|
४कि
|
४कि
|
४भा
|
५के.
|
५र.
|
५र.
|
५हि
|
रा५कु
|
५इ
|
५इ.
|
५भ.
|
५ह
|
५कि
|
के५कि
|
५भा
|
६के.
|
बु६र
|
६र.
|
६हि
|
६कु
|
६इ.
|
६इ.
|
६भ.
|
६ह
|
६कि
|
६कि
|
६भा.
|
७के
|
७र.
|
गु७हि
|
७हि
|
७कु
|
७इ
|
७भ
|
७भ
|
७ह
|
७कि
|
७भा.
|
७भा
|
८के.
|
८र.
|
८हि
|
८हि
|
८कु
|
८इ
|
८भ
|
८भ.
|
८ह
|
८कि
|
८भा.
|
८भा
|
९के.
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९र.
|
९हि
|
९हि
|
९कु
|
९इ
|
९भ
|
सू९भ
|
९ह
|
९कि
|
९भा.
|
९भा
|
वायव्य
पश्चिम नैर्ऋत्य
|
इस प्रकार प्रश्नकालिक
धराचक्र पूर्ण रुपेण नौवर्षों एवं नवग्रहों से न्यस्त हो गया।यहाँ हम देख रहे हैं
कि मेरु (आधार)तुला के चौथे नवांश में है,और सूर्य मेरु से दक्षिण धनु के नौंवें
नवांश में भद्राश्ववर्ष में हैं,तथा
चन्द्रमा भी मेरु से दक्षिण मीन के दूसरे नवांश में किन्नरवर्ष में हैं। किन्नरवर्ष
चन्द्रमा के देवभाग में है,और सूर्य के दैत्य भाग में। तथा भद्राश्ववर्ष
सूर्य-चन्द्रमा दोनों के आधिपत्य में है,यानी मिश्रवर्ष में है।
अब,श्लो.सं.३४ से ४१ तक
विचार करेंगे। नियम कहता है कि-
१. सूर्य और चन्द्रमा दोनों यदि चन्द्रमा के
वर्ष(हरि,किन्नर,भारत) में पड़ें तो निश्चित ही अभीष्ट भूमि में गुप्तधन है।
२. इसके विपरीत,यदि दोनों सूर्य के
वर्ष(रम्यक,हिरण्य,कुरु) में पड़े परीक्षित भूमि में शल्य की आशंका होती है।
३. दोनों यदि
मिश्रवर्ष(इलावृत,भद्राश्व,केतुमाल)में हों तो देववास है,यानी भूमि अच्छी
हैं,किन्तु गुप्त धनलाभ की आशा नहीं है।
४. सूर्य वर्ष में चन्द्रमा और चन्द्र वर्ष
में सूर्य पड़े तो इष्ट भूमि को द्रव्य व शल्य से हीन समझना चाहिए।
५. यदि सूर्य और चन्द्रमा अपने-अपने वर्ष में
हों तो द्रव्य और शल्य दोनों जाने।
६.यदि सूर्य अपने वर्ष में और चन्द्रमा
मिश्रवर्ष में हों तो फूटे बरतनों में अवांछित पदार्थों की सूचना मिलती है।
७. चन्द्रमा के वर्ष में सूर्य हो,और
मिश्रवर्ष में चन्द्रमा हो तो द्रव्य है,किन्तु राक्षसों के अधिकार में है,जिसे
प्राप्त करना असम्भव है।
८. चन्द्रमा अपने वर्ष में और सूर्य
मिश्रवर्ष में होतो धन रहते हुए भी दिखाई नहीं देता,अतः इसके लिए कुछ काल बाद पुनः
प्रयास करना चाहिए।
९.चन्द्रमा सूर्य के वर्ष में और सूर्य
मिश्रवर्ष में हों तो विविध प्रकार के धन तो है परीश्रित भूमि में,किन्तु उसकी
प्राप्ति असम्भव है।
इस प्रकार सूर्य-चन्द्रमा की विभिन्न स्थितियों से कई प्रकार की
सूचनायें मिलती हैं। इन सूचनाओं के आधार पर जब,द्रव्य-शल्यादि का निश्चय हो
जाये,तो उसके स्थानादि अन्य सूचनाओं का निश्चय करने के लिए श्लो.सं.४२ से ५२ का
सहयोग लेना चाहिए।क्रमशः....
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