पुण्यार्कवास्तुमंजूषा- 176

गतांश से आगे...
अध्याय उनतीस,अन्तिम भाग

महर्षि आगे कहते हैं कि उक्त धराचक्र में न्यस्त मेरु तथा नवग्रहों का चालन करके स्थानादि का ज्ञान करना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले, पूर्व न्यस्त मेरु को उठाकर वहाँ ले जायें, जहाँ चन्द्रमा न्यस्त हैं। उदाहरण चक्र में तुला के चौथे नवांश में मेरु है,और मीन के दूसरे नवांश में चन्द्रमा हैं,यानी मेरु से चन्द्रमा ४४ नवांश(कोष्ठक) आगे हैं।
     अब,स्थानान्तरित मेरु ४४ कोष्ठक आगे आ जाता है,तो इसी भांति अन्यान्य सभी ग्रहों को भी चालित कर,४४कोष्ठक आगे लाकर पुनर्न्यस्त करना चाहिए।इसे नीचे के चक्र में दिखलाया गया है-
ईशान                      पूर्ब                                अग्नि
वृ.
मि.
क.
सिं
क.
तु.
वृ.
ध.
म.
कु.
मी.
मे.
१मं.
१श.
२शु.
२मेरु
३के.
३रा.
४बु.
५गु.
७सू.
९च.
वायव्य                    पश्चिम                                नैर्ऋत्य


उक्त नवन्यस्त चक्र में हम देख रहे हैं कि गुप्त धन के स्थान सूचक चन्द्रमा कर्क के नौंवे नवांश में आगये हैं। दिशा विचार से यह स्थान वायव्य कोण से तीसरे कोष्ठक में है।अब विचारित भूमि का सही नाप लेकर,वहाँ भी इसी भांति काल्पनिक कोष्ठक बनाकर निर्दिष्ट सही स्थान का ज्ञान करेंगे।
     उक्त धराचक्र में चन्द्रमा धन स्थान के सूचक हैं,सूर्य शल्यादि के सूचक हैं,शुक्र जल के सूचक हैं,और बृहस्पति देवत्व के सूचक हैं।ज्ञातव्य है कि चर,स्थिर और द्विस्वभाव तीन स्वभाव की राशियां होती हैं।चन्द्रादि ग्रह यदि स्थिर राशि(वृष,सिंह,वृश्चिक और कुम्भ)के नवांश में हो तो द्रव्यादि को भी स्थिर जाने,चर(मेष,कर्क,तुला,मकर) नवांश पर हो तो द्रव्यादि की स्थिति भी चलायमान समझें,तथा द्विस्वभाव(मिथुन,कन्या, धनु,मीन) राशि के नवांश के पूर्वार्ध में स्थिर और उत्तरार्ध में चलायमान जानना चाहिए।
     द्रव्यादि की गहराई आदि ज्ञान के लिए सम्बन्धित ग्रह के गत नवांश-प्रमाण से निश्चित करना चाहिए।यहाँ भी राशि के स्वभाव का प्रभाव पडेगा- चर में उसी नवांश तुल्य हाथ-अंगुलादि नीचे,स्थिर में गत नवांश की दुगनी और द्विस्वभाव में गत नवांश की तिगुनी गहराई पर द्रव्यादि का होना जानें।संयोग से मेरु और चन्द्रमा दोनों ही यदि चरराशि के नवांश में हों तो जल के आश्रय में गुप्तधन का वास समझना चाहिए।
     ऊपर के उदाहरण में चन्द्रमा कर्क के नौंवे नवांश में हैं।ज्ञातव्य है कि कर्क(चरराशि) का नौंवा नवांश मीनराशि का होता है। मीन द्विस्वभाव राशि है।यहाँ ध्यान देने योग्य है कि ग्रह का नवांश किस राशि का है,न कि किस राशि के किस नवांश में ग्रह है।
     अब,चन्द्रमा के नवांश से ही द्रव्य का पात्र निश्चय करना है।मेष में चन्द्रमा हो तो ताम्रपात्र,वृष में पत्थर का पात्र,मिथुन में मिश्र धातुपात्र, कर्कांश में मिट्टी का,सिहांश में लोहे का,कन्यांश में सोने का तुलांश में पत्थर का,वृश्चिकांश में तांबें का,धनुरांश में पीतल का,मकरांश में लोहे का कुम्भांश में मिट्टी का,और मीनांश में मिश्रद्रव्य का पात्र समझना चाहिए।
     महर्षि पुनः कहते हैं- स्पष्ट चन्द्रमा यदि परमोच्चस्थिति में(वृष के तीसरे अंश पर)हो तो द्रव्य पृथ्वी से ऊपर कहीं जंजीर आदि से बंधा हुआ होना चाहिए।
     अब,द्रव्य-रक्षण की बात करते हैं।धराचक्र  में चन्द्रमा के साथ सूर्य भी हों तो यक्ष-रक्षित,मंगल साथ में हों तो हनुमान रक्षित,बुध साथ हों तो पिशाच रक्षित,गुरु साथ में हों तो कुबेर रक्षित,शुक्र साथ में हों तो प्रेत रक्षित,शनि साथ में हों तो म्लेच्छ रक्षित,और राहु या केतु साथ में हों तो सर्प-विच्छु आदि से घिरा हुआ समझें। द्रव्य-शल्यादि जिस के अधीन हों,उनकी प्रसन्नता और शान्ति का उपाय पहले कर लेना चाहिए,इसके बाद ही खुदाई का काम प्रारम्भ करें,अन्यथा लाभ तो दूर,हानि की आशंका अधिक होगी।
     ध्यातव्य है कि भूगर्भ में तो धन का अम्बार है,किन्तु गुप्त धन हो
या शल्य,उसे निकालने के लिए सतत प्रयास की आवश्यकता है, और
किसी अति सौभाग्यवान को ही गुप्तधन प्राप्त हो सकता है।अस्तु।
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        क्रमशः....

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