गतांश से आगे..
अध्याय तीस का छठा भाग
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पुण्यार्कवास्तुमंजूषा का अन्तिम किस्त- उपसंहार- अगले पोस्ट में।
अध्याय तीस का छठा भाग
अब आगे
मरुदेशीय जलस्रोत के लक्षण कहते हैं—
Ø मरुदेश में ऊंट की गर्दन की तरह ऊँची-नीची
शिरायें होती हैं,यहाँ सामान्य से काफी अधिक गहराई में जल मिलता है।ऐसे स्थान में
पीलु के वृक्ष से ईशानकोण में वल्मीक होतो, उससे साढ़ेचार पश्चिम,पांच पुरुष नीचे
उत्तरवाहिनी शिरा होती है।वहाँ खुदाई करने पर पहिले पुरुष में मेढ़क,फिर कपिल वा
हरित मिट्टी,थोड़े पत्थर मिले तो जल का संकेत जाने।
Ø उक्त स्थान में पीलु वृक्ष से पूरब,वल्मीक हो तो
वृक्ष से साढ़े चार हाथ दक्षिण,सात पुरुष नीचे जलस्रोत जाने।यहां दक्षिण शिरा होती
है।
Ø करीर वृक्ष से उत्तर वल्मीक होतो,उस स्थान से
साढ़ेचार हाथ दक्षिण,दश पुरुष खोदने पर मधुर जल मिलेगा।
Ø रोहितक वृक्ष के पश्चिम में वल्मीक होतो,तीन हाथ
दक्षिण, बारह पुरुष नीचे खारे जल वाली पश्चिमी शिरा मिलेगी।
Ø अर्जुन(कहुआ)के पेड़ के पूरब में दीमक की बॉबी हो
तो,उस वृक्ष से एक हाथ पश्चिम चौदह पुरुष खोदने पर जल मिलेगा।
Ø यदि धतूरा के पौधे के वाम भाग में वल्मीक हो तो
उससे दो हाथ दक्षिण,पन्द्रह पुरुष नीचे जल मिलेगा,जिसका स्वाद खारा होगा।आधा पुरुष
नीचे तांम्रवर्णी पत्थर,फिर लाल मिट्टी के पश्चात् दक्षिण शिरा वाला जलस्रोत
मिलेगा।
Ø बेर और रोहिड़ा के वृक्ष एकसाथ उगे हुए दीख पड़ें
तो,उनसे तीन हाथ पश्चिम,सोलह पुरुष नीचे,पहले दक्षिण शिरा,और फिर उत्तरशिरा के वहन का संकेत है।यहाँ प्रचुर जल
होता है।
Ø यदि करीर और बेर के वृक्ष साथ-साथ हों तो उससे
तीन हाथ पश्चिम,अठारह पुरुष नीचे ईशानशिरा होती है।
Ø पीलु और बेर का वृक्ष एकत्र हो तो उससे तीन हाथ
पूरब,बीस पुरुष नीचे खारा जल होता है,किन्तु कभी सूखता नहीं।
Ø कहुआ और करीर के वृक्ष जहाँ एकत्र हों,तो उनसे दो
हाथ पश्चिम ,पच्चीस पुरुष नीचे जल होता है।
Ø वल्मीक के ऊपर कुश उगा हुआ हो,वैसे स्थान पर
इक्कीस पुरुष नीचे जल होता है।
Ø जहाँ कदम्ब का पेड़ हो,और वल्मीक के ऊपर दूब उगा
हुआ हो,ऐसे स्थान से दो हाथ दक्षिण,पच्चीस पुरुष नीचे जल होता है।
Ø अलग-अलग तीन वल्मीकों के ढूह के बीच भिन्न-भिन्न
प्रकार के तीन वृक्ष उगे हों,साथ ही रोहिड़ा का वृक्ष भी यदि हो,तो ऐसे स्थान पर रोहिड़े
से चार हाथ,सोलह अंगुल उत्तर,चालीस पुरुष नीचे कठोर शिला को हटाने पर जल अवश्य
प्राप्त होगा।
Ø जहाँ
बहुगांठों वाला शमी का वृक्ष हो,और उसके उत्तर में दीमक की बॉमी भी हो,तो शमी से
पांच हाथ पश्चिम,पचास पुरुष नीचे जल होता है।
Ø एक ही स्थान पर अनेक वल्मीक हों,तो मध्य स्थान पर
पचपन पुरुष नीचे जल की शिरा का संकेत मिलता है।
Ø जहाँ पलाश और शमी के वृक्ष एकत्र हों,तो उससे
पांच हाथ पश्चिम में साठ पुरुष नीचे जल होता है।कुछ नीचे जाने पर सर्प भी मिल सकता
है,और फिर पीली मिट्टी मिलती है।
Ø जहाँ वल्मीक से घिरा हुआ श्वेत रोहिड़ावृक्ष
हो,उससे एक हाथ पूरब,सत्तर पुरुष खोदने पर जल मिलता है।
Ø जहाँ कांटेदार वृक्षों के बीच श्वेतशमी का पौधा
हो,तो उससे एक हाथ दक्षिण,पचहत्तर पुरुष नीचे जल होता है।
अब
अनूपदेश में जलस्रोत-लक्षण कहते हैं—
Ø अनूप देशों में प्रायः तीन पुरुष नीचे जलस्तर
होता है। कहीं-कहीं तो जलस्तर और भी ऊपर रहता है। जहाँ आसानी से अस्थायी कच्चे
कुंए की खुदाई कर सिंचाई कार्य किये जाते हैं।
Ø जहाँ की स्निग्ध भूमि बालु और रेतदार हो,पैर रखने
से ही शब्द हो,जहाँ के वृक्ष भी बहुत ही स्निग्ध हों,वहाँ जल की मात्रा भी और अधिक
कहनी चाहिए।
Ø बहुत से वृक्षों में कोई एक वृक्ष विकृत हो,तो
उससे चार पुरुष नीचे जल होगा।
Ø जहां भूमि पर विविध प्रकार के कीड़े दिखायी दें,
वहां मात्र एक वा डेढ़ पुरुष नीचे जल होता है।
Ø जहां आसपास की भूमि गरम हो,पर एक स्थान शीतल
हो,या इसके विपरीत- आसपास शीतल हो,और एक स्थान उष्ण हो,तो ऐसे स्थान पर तीन पुरुष
नीचे जल होगा।
Ø इन्द्रधनुषी मछली,और वल्मीक प्रचुर मात्रा में
हों तो मात्र चार हाथ नीचे जल होता है।
Ø अनूप वा जांगल देश में वल्मीकों की कतार
हो,जिसमें एक ढूह सबसे ऊंचा हो तो,वहां मात्र चार हाथ नीचे जलशिरा होगी।
Ø वट,पीपल,गूलर या पाकड़ यदि एकत्र हों तो मात्र
तीन हाथ नीचे जल होता है।ऐसे स्थानों में प्रायः उत्तर शिरा होती है।
पुनः ,जल सम्बन्धी कुछ और महत्त्वपूर्ण बातों
की चर्चा करते हुए आचार्य वराहमिहिर कहते हैं कि —
v गृह,ग्राम,नगर के अग्निकोण में कुआँ(लक्षणार्थ-अन्यजलस्रोत) हो तो सदा
अग्नि भय बना रहता है।
v नैर्ऋत्यकोण में कुआँ हो तो बालकों को
हानि(क्षय)होता है।
v वायव्य कोण में कुआँ हो तो स्त्रियों को परेशानी
होती है।
v उक्त तीन को छोड़कर,शेष पांच दिशाओं में कुआँ आदि
जलस्रोत शुभ कहे गये हैं।
v वृक्ष,गुल्म,वल्ली जिस भूमि में स्निग्ध हों,पत्तियां
छिद्रहीन हों (सुन्दर,विकार-रहित) ऐसे स्थान पर तीन पुरुष नीचे जल होता है।
v भूमिकमल,गोखरु,खस,कुश,काश,नलिकादि
तृण,खजूर,जामुन,अर्जुन, वेत,या दूधदार वृक्ष(महुआ,वट,पीपल,गूलर,पाकड़),तथा
नागकेशर, कदम्ब,नक्तमाल,सिंदुआर,बहेड़ा,मदयन्तिका आदि सुन्दर वृक्ष-पादप आदि हों ऐसे
स्थान में तीन पुरुष नीचे जल होता है-ऐसा मनु महाराज ने संकेत किया है।
v जहाँ एक पर्वत के ऊपर दूसरी पर्वत-श्रृंखला हो,तो
ऐसे पर्वत के मूल में तीन पुरुष नीचे जल प्राप्त हो सकता है।
v मूंज,काश,कुशादि युक्त कंकड़ीली,नीली मिट्टी
जलस्रोत का संकेत देती है। ऐसे वानस्पतिक लक्षणों से युक्त काली वा लाल मिट्टी भी
जलसंकेतक है।
v पत्थर के कणों से युक्त ताम्रवर्णी भूमि में
कसैले जल का स्रोत होता है। उक्त लक्षण वाली कपिल भूमि हो तो खारा जल मिलता है। पांडुरंग
भी लवण जल का संकेत है,परन्तु नीलवर्ण मधुर जलस्रोत का लक्षण बताता है।
v शाक,अश्वकर्ण,अर्जुन,बिल्व,सर्ज,श्रीपर्णी,अरिष्ठा,शीशम
इत्यादि वृक्ष, तथा लाता-गुल्मादि भी छिद्रयुक्त पत्तियों वाले हों,तो ऐसे स्थान
में जलस्तर काफी नीचे कहना चाहिए।
v यदि भूमि सूर्य,अग्नि,भस्म,ऊँट,गर्दभ आदि के
रंगों वाली हो तो उसे जलहीन जानें।
v लालरंग की भूमि में लालरंग के अंकुरवाले करीर
वृक्ष हों तो उन वृक्षों के आसपास जल की सम्भावना होती है।
v वैदूर्य मणि,मूंग,मेघ,पक्वउदुम्बर, आदि के वर्णों
वाली शिला के नीचे बहुत अधिक जल होता है।
v यदि शिला का रंग परावतपक्षी,सोमलता,शहत,घृत,अलसी
आदि की तरह हो तो अक्षय जल का संकेत समझें।
v ताम्र,नील,रक्तवर्णी शिला को निर्जल की सूचना
जानें।
v चन्द्रमा की
प्रभातुल्य,स्फटिक,मोती,सुवर्ण,इन्द्रनीलमणि,सिंगरफ आदि के रंगों वाली शिला को शुभ
समझना चाहिए।ऐसे शिलाओं को तोड़फोड़ कर नष्ट नहीं करना चाहिए। ऐसी शिलायें जिन
भूभागों(राज्यों) में होती हैं,वहाँ धन-धान्य-सुख-समृद्धि होती है।इन शिलाओं को
यक्षों और नागों से रक्षित जान कर, उनकी रक्षा करें।
v कूपादि खोदने के समय कठोर शिलाओं का अवरोध आजाने
पर उनके भंजन हेतु ढाक और तेन्द की लकड़ी को जलाकर,शिला को गरम करे,फिर कलीचूने के
घोल का छिड़काव करे- इस क्रिया से कठोर शिला भी आसानी से टूट जाती है।
v मरुवावृक्ष की भस्म मिला कर जल को औंटावे,पुनः
उसमें शर का खार मिलाकर,पूर्व विधि से तपायी गयी शिला पर छिड़काव करने से टूट जाती
है।
v छाछ,कांजी,मद्य,कुलथी,बेर के फल- इन सबको
मिलाकर,सात रात्रि तक किसी पात्र में रख छोड़े।फिर पूर्व रीति से तपायी गई शिला पर
इनका छिड़काव करने से शिला आसानी से टूट जाती है।
v नींम की पत्ती,नींम की छाल,तिल की
खल्ली,अपामार्ग,तेन्दु के फल, और गिलोय- इन सबका भस्म बनाकर,गोमूत्र में घोलकर
पूर्व रीति से तपायी गई शिला पर इनका छिड़काव करने से शिला आसानी से टूट जाती है।
v हुडुमेष की सींग को भस्म बनाकर,कबूतर और चूहे की
बीट के साथ पीस कर,अकवन के दूध में मिलाकर शस्त्र पर लगादे।वह शस्त्र इतना मजबूत हो
जाता है कि शिला का भी भेदन कर दे।
v कदली(केला)की पत्तियों का भस्म छाछ में मिलाकर,यदि
शस्त्र को धार दिया जाय,तो लोहे और पत्थर को भी काट दे।
किंचित
अन्य—
v पूर्व-पश्चिम की लम्बाई वाले वापी में जल अधिक
काल तक रहता है। इसके विपरीत उत्तर-दक्षिण का परिणाम जाने।
v यदि उत्तर-दक्षिण की लम्बाई वाला पुष्करणी बनाना
चाहे तो जल-ताड़न को रोकने के लिए किनारों को ईंट-पत्थर से पाट कर अधिक दृढ़ करना
पड़ेगा।
v पुष्करणी के किनारों पर
अर्जुन,वट,पीपल,कदम्ब,जामुन,निचुल, बेत नीम,ताल,अशोक,महुआ,मौलश्री आदि वृक्ष लगाने
चाहिए।
v कूपादि के गन्दले जल को शोधित करने हेतु
सुरमा,मोथा,खस, राजकोशातकी(बडी तोरई),आमला,निर्मली आदि का चूर्ण डालना चाहिए।इनके
प्रयोग से जल का स्वाद भी ठीक हो जाता है।
v हस्ता,मघा,अनुराधा,पुष्य,धनिष्ठा,तीनों
उत्तरा,रोहिणी और शतभिषा नक्षत्रों में कूपारम्भ करना चाहिए। आरम्भ करने से पूर्व
सामान्य रीति से गणपत्यादि पूजन के साथ वरुणादि पूजन ,और बलिकर्म भी करना चाहिए।
v सबसे अन्त में आचार्य ने उदकार्गल शब्द को स्पष्ट
किया है— हलायुधकोष के अनुसार नारं नीरं भुवनमुदकं जीवनीयं दकं च- उदक यानी
जल,और अर्गल यानी अवरोध।इस प्रकार जल के अवरोध को ईंगित करने वाला वचन- उदकार्गल
कहलाया।
आचार्यश्री ने उदकार्गल के लक्षणों को
मनु,सारस्वत आदि विभिन्न मनीषियों के अनुभव और ज्ञान से संग्रहित करके लोककल्याण
हेतु प्रकाशित किया है। इनके द्वारा दिये गये निर्देश(संकेत) वस्तुतः वैसे ही
हैं,जैसे किसी अनजान सड़क पर स्थान-सूचक मार्ग-दर्शिका,और दूरी का संकेतक-स्तम्भ
होते हैं। किन्तु जैसा कि हम प्रायः पाते हैं- उन स्तम्भों पर कोई जाहिल, स्वार्थी
अपना इस्तेहार चिपका देता है,या कोई असामाजिक तत्व रगड़ कर उस लिखावट को ही मिटा
देता है। आधुनिकता के दौर में कंकरीट के जंगल खड़े करने को आतुर मानव भी कुछ ऐसा
ही कर रहा है आज। प्रकृति के इन संकेताक्षरों(वृक्षों,पहाड़ों,लता, गुल्मों)को
बरबरता पूर्वक नष्ट करता जा रहा है। ऐसी स्थिति में जब संकेताक्षर ही न होंगे तो
दिशा-निर्देश भी कैसे होगा
? परिणामतः हम भटकने
और दुःख पाने को विवश होंगे,और आने वाली पीढ़ी हमसे पूछ सकती है कि आखिर हमने उसके
लिए छोड़ा क्या ? अस्तु।
पुण्यार्कवास्तुमंजूषा का अन्तिम किस्त- उपसंहार- अगले पोस्ट में।
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