कुण्डली कुञ्जिकाःकुछ खास बातें भाग 2-
पिछले भाग में कुछ समस्यायें रह गयी थी पोस्टिंग में फॉन्ट सही नहीं दीख रहा था,अतः उसे सुधार कर पुनः पोस्ट किया जा रहा है,साथ ही कुछ नया भी है इस पोस्ट में...
पिछले भाग में कुछ समस्यायें रह गयी थी पोस्टिंग में फॉन्ट सही नहीं दीख रहा था,अतः उसे सुधार कर पुनः पोस्ट किया जा रहा है,साथ ही कुछ नया भी है इस पोस्ट में...
कुण्डली-कुञ्जिकाःकुछखास बातें
ज्योतिष शास्त्र में द्वादश भावों और द्वादश राशियों तथा नवग्रहों के
संचार के आधार पर ही सारा गणितीय और फलितीय खेल है।आधुनिक काल में गणित का सारा कार्य
तो प्रायः सॉफ्टवेयर कर देता है,मानवी क्रिया से भी कहीं अच्छे ढंग से और अत्यल्प
काल में ।
फास्ट लाइफ के जमाने में भला कौन उलझना चाहता है,ज्योतिषीय गणित सीखने
में,और जब सीखने वाले ही नहीं रहेंगे,तो सिखाने वाले बेचारे क्या करेंगे ?उनके मस्तिष्क में भी धीरे-धीरे जंग लगना शुरु हो
जायेगा। यहां तो सबकुछ रेडीमेड और फास्ट चाहिए,भले ही हाजमा खराब हो जाये,सेहत
बिगड़ जाय, कोई ‘घटना’
दुर्घटना बन जाये,पर लाइफ फास्ट ही होना चाहिए। पेट्रोल मंहगा है,इसलिए गाड़ी तेज
चलाने की लाचारी है- ऐसी बात नहीं है। सबसीडी पर भी मिलता,या मुआवजे में मुफ्त का
मिल जाता,तो भी तेज रफ्तार वाले तेज ही चलते,ऊपर से गर्दन टेढी किये, मोबाइल-कॉल
अटेन्ड करते। और जो अपने जान की ही परवाह नहीं करता, वो भला दूसरे की चिन्ता क्यों
करे ! सच पूछें तो फुरसत भी
कहां है, अपने से बाहर निकलने की ! हर आदमी बीजी है,यानी
व्यस्त है, किन्तु सच्चाई ये है कि वह व्यस्त नहीं बल्कि अस्तव्यस्त है-
अव्यवस्थित है।
" पानी केरा बुदबुदा,अस मानुष
की जात।देखत ही छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात " - शायद संत
कबीर ने कुछ दिखाने का प्रयास किया था –यह कह कर। सच में, क्षण का भरोसा नहीं और
सदियों का सामान हम बटोरने में सतत प्रयत्नशील हैं।भविष्य के लिए हम यथा सम्भव सभी
तरह के कर्म-कुकर्म करने में सदा तत्पर रहते हैं।धर्मराज युधिष्ठिर से यक्ष ने पूछा
था- ‘किमाश्चर्यम् ’ तदुत्तर में महाराज युधिष्ठिर ने कहा था-"अह्नि-अह्नि
भूतानि,गच्छन्ति यम मन्दिरम्। अपरे स्थातुमिच्छन्ति, किमाश्चर्यं अतः परम्।।"-
यथा -नित्यप्रति प्राणि यमलोक जा रहे हैं, इसे देखते हुए भी हम स्थायित्व की आश
लगाए हैं,इससे महत् आश्चर्य और क्या हो सकता है?
आजकल नये अंदाज में ज्योतिष के प्रति अभिरुचि जगी है,इसका ये अर्थ नहीं कि
लोग पहले से भी ज्यादा धार्मिक हो गये हैं।दरअसल, भविष्य के प्रति सदा सशंकित रहते हुए, आस्था ओढ़कर, अन्दर
से पूरे अनास्थावादी रहने की प्रवृति ने ही वर्तमान पीढी को ज्योतिष के प्रति अधिक
जिज्ञासु बना दिया है शायद। संचार माध्यमों ने इसमें आग में घी जैसा सहयोग किया
है। और उपलब्धि ? पहले आस्था, अन्धविश्वास, और बाद में
अविश्वास,अश्रद्धा—आये दिन इन सभी अनुभवों से रु-ब-रु होना पड़ रहा है- ...अरे कुछ
नहीं होता-जाता...सब कर-कराके हार चुके...ये सब ढोंग-ढकोसला है...रोजगार बना लिया
है...पंडिग लोग ठगते हैं केवल...।
सच्च तो ये है कि ज्योतिष कोई जादू नहीं है,छूमन्तर का सवाल भी नहीं है।गारन्टी
भी भला सच्चा
ज्योतिषी कैसे ले सकता है? ये बनिये की
भाषा और कला भले हो सकती है,क्योंकि गारन्टी-वारंटी से आकर्षण होता है,इसके बिना
सामान बिकना मुश्किल है।मतान्तर पहले भी बहुत था, अब तो और बढ़ गया है।पुरानी
चीजों का ही नया लेबलिंग हो गया है,वो भी तोड़-मरोड़कर। लालकिताब जैसी चमत्कारी
सिद्धान्तों की बाढ़ आगयी है।असली लालकिताब तो भाग्यवानों को ही नसीब होता है, और
मिल भी जाय, तो उसके रहस्यों को समझना सबके बस की बात नहीं है। पेन्सिल उल्टी ओर
से छीलकर लिखने से परीक्षा में ज्यादा नम्बर आयेगा- अब भला इससे न लालकिताब को
मतलब है, और न ज्योतिष की किसी और विधा को;किन्तु
सुझाव देने वाले दे देते हैं,और प्रयोग करने वाले कर भी लेते हैं।
भगवान ने सीमित अंगुलियां दी हैं,कुछ और रहती तो रत्नों
का व्यापार और अच्छा होता। सोचने वाली बात है- तुला लग्न की कुण्डली वाला मूंगा
पहनकर कितना लाभान्वित होगा,वो भी अगर मंगल कर्क राशि में बैठा हो? सप्तमेश-द्वितीयेश नीच मंगल बली होकर क्या करेंगे-
अच्छा या कि बुरा- ध्यान देने वाली बात है।इसी भांति द्वितीयस्थ,
सप्तमस्थ,अष्ठमस्थ,षष्ठस्थ, द्वादशस्थ आदि ग्रहों(विशेषकर नीच स्थिति में) के
रत्नों से क्या लाभ होगा या उल्टे हानी ही होगी- इसे भला कौन विचार करेगा- पहनने
वाला या कि पहनाने वाला? किस
रत्न को किस धातु में पहने,किस ग्रह की शान्ति हेतु कब क्या-कैसे-किसे
दान,जप,हवन,यन्त्र-पूजन करें-- ऐसी अनेक विचारणीय बातें हैं। एक और चलन है-
ग्रहस्थिति कुछ भी हो,समस्या-समाधान हेतु सीधे महामृत्युञ्य का जप-हवन करने की,अथवा
रुद्राभिषेक करने की परम्परा सी बन गयी है। ये कहां तक उचित है,या बिलकुल निरर्थक?
यहां इन पर संक्षिप्त रुप से कुछ विचार करते हैं-
१)
सभी
ग्रह महेश्वराधीन हैं- उनके ही अंग-प्रत्यंग,गणादि हैं।सब पर उनका नियन्त्रण है।
इसे स्पष्ट करने के लिए एक लौकिक उदाहरण लें- प्रधानमंत्री के अधीन सारा विभाग
है।सभी मंत्री-उपमंत्री, पदाधिकारी,कर्मचारी उनके अधीनस्थ हैं;किन्तु इसका यह अर्थ
नहीं कि बीडिओ से काम है, तो हम प्रधानमंत्री के पास दौड़ लगावें।इससे काम होने
में देर होने की अधिक सम्भावना है।अतः समुचित विभागीय प्रयास किया जाना चाहिए।हां,
विहित पदासीन पदाधिकारी द्वारा कार्य निष्पादन में विलम्ब हो,वाधा हो, तो क्रमशः
ऊपर बढें।इसी प्रकार ग्रहों को छोड़कर सीधे महामृत्यञ्य की आराधना
श्रमसाध्य,अर्थसाध्य,समयसाध्य और निष्फलता सूचक भी है।
२)
विहित
संख्या में ग्रहों का जप,और तद्दशांश तत्-तत् समिधाओं से हवन करना सर्वाधिक निरापद
उपाय है।जप-होमादि का (प्रत्यवाय)साइड-इफेक्ट भी नहीं है,जबकि रत्न-धारण, वस्तु-दान
आदि हानिकारक भी हो सकते हैं।इसी भांति ग्रहों की मूर्ति-उपासना,या यन्त्र पूजा भी
विचारणीय है। जप-हवन बिलकुल अलग बात है,और यन्त्र-पूजा अलग चीज। मूर्ति-पूजा का
अपना अलग महत्त्व और उपादेयता है।किन परिस्थितियों में किस ग्रह-मूर्ति की उपसना
की जाय,अथवा न की जाय- अपेक्षाकृत गहन विचार का विषय है।इन सबसे भिन्न कुछ और
उपचार भी सुझाये जाते हैं- जिन्हें लोकभाषा में टोने-टोटके कहते हैं।इसमें
व्यक्ति,वस्तु,क्रिया,स्थान और ‘मूलस्रोत’ के सामनजस्य तथा प्रभाव का लाभालाभ
विचार करना होता है।सही रुप से चयन करने पर ये टोने-टोटके कारगर तो अवश्य होते
हैं, परन्तु इनका दीर्घकालिक प्रभाव प्रायः नहीं होता।इतना ही नहीं,एक ही प्रयोग
को बार-बार एक ही व्यक्ति,स्थान,और वस्तु पर करने पर निष्फल भी होजाता है।कभी-कभी
विपरीत फल भी देता है।ध्यान देने की बात है कि टोने-टोटके का ‘मूलस्रोत’ सर्वाधिक महत्त्व
रखता है।तन्त्र की एक ही क्रिया, विधि-भेद से अलग-अलग प्रभाव डालती है।जैसे> साबर-तन्त्र की क्रिया डामर-तन्त्र-विधि
में विपरीत फल दे सकती है,और ठीक इसका विपरीत भी समझना चाहिए।किन्तु विडम्बना ये
है कि स्रोत का ज्ञान किये वगैर हम प्रयोग कर-करा बैठते हैं, केवल किसी किताब को
पढ़कर--- यह बहुत बडी भूल है।प्रायः सामान्य किताबों में इन गहन बातों की चर्चा भी
नहीं रहती है।विभिन्न तन्त्र ग्रन्थों से इकट्ठा करके एक नयी किताब परोस दी जाती
है-नया लेबल लगा कर।
३)
उक्त
विविध उपचार-विधियों का चयन करना भी बहुत आसान नहीं है,और कोरे शास्त्र-ज्ञान पर
निर्भर न होकर अनुभव पर आधारित है।उपचार-निर्देशक के निजी साधना-बल की भी अहम्
भूमिका है।अनुभव में प्रायः देखा गया है कि एक सामान्य सा उपचार एक साधक द्वारा
सुझा देने पर,तत्क्षण फलदायी हो जाता है- जैसे सिद्धपुरुष राख-भभूत उठाकर ही देदे
तो लाभ हो जाता है, और दूसरी ओर नाना प्रकार के बड़े उपचार भी लाभ नहीं करते।इसी
भांति समय और स्थान भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
४) यह भी विचारणीय है कि जिस भांति एक ही
दवा सब रोगियों के लिए नहीं हो सकती- ‘एडल्ट’ और ‘पेड्रियेटिक्स’ का भी ध्यान रखना होता है।रोगी की
स्थिति और अवस्था भेद का भी प्रभाव होता है- एक ही दवा किसी महिला को सामान्य
अवस्था में दी जा सकती है,पर वही दवा गर्भावस्था में हानिकारक भी हो सकती है-इसका
ज्ञान तो कोई महिला- रोग-विशेषज्ञा ही करेगी न, या कि कम्पाउण्डर निर्णय ले लेगा? उपचार/दवा का प्रारुप भी
ध्यान देने योग्य है। कैपसूल,सीरप,गोली,इन्जेक्शन, इन्फूजन अलग-अलग ‘फॉर्म’ बनाने के पीछे कुछ
खास वजह है; उसी भांति ज्योतिष का उपचार-खण्ड भी चिकित्सा की तरह उपचार
ही है। सही दवा का चुनाव करने के साथ-साथ दवा का फॉर्म(रुप) भी चुनना जरुरी
है,अन्यथा गलत चुनाव से उपयोग करने वाले का भला नहीं हो सकता,तथा अलाभ की स्थिति
में ज्योतिष-शास्त्र की भी बदनामी होती है- यह सोचना,जानना ज्योतिषी का धर्म है। और
इन सबके लिए गहन अध्ययन की आवश्यकता है।
५) अब,सर्वाधिक निरापद उपचार- ग्रहजप,होमादि पर जरा
विचार कर लें--- नवग्रहों की जप-संख्या और समिधा तो तय है।इसमें कोई उलट-फेर की
गुंजायश भी नहीं है।हां,आवश्यकता के अनुसार मात्रा का अन्तर(एक आवृत्ति या अधिक)
भले हो सकता है।मात्रा का यह अन्तर जपकर्ता, ग्रहस्थिति-अवस्था-बलादि के अनुसार तय
किया जाना चाहिए। अनुष्ठान करने वाला कौन है,कहां और किस विधि से कर रहा है-यह
बहुत महत्त्वपूर्ण है।
(इस विषय पर एक लघुलेख काफी पहले एक पाठक की मांग पर, पोस्ट
किया था, प्रसंगवश आज पुनः उसे यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ)
६)
जप
का अधिकारी कौन – आये दिन लोग सवाल करते हैं कि जप ब्राह्मण से ही कराना क्यों
जरुरी है,ग्रह से प्रभावित व्यक्ति स्वयं क्यों नहीं कर सकता ?
प्रश्न अपनी जगह पर
बिलकुल सही है। जिज्ञासा स्वाभाविक है।अतः इस सम्बन्ध में कुछ तथ्यों पर ध्यान दिलाना चाहता हूँ —
1.बीमार होने पर,रोगी का कर्तव्य है कि
वह योग्य चिकित्सक के पास जाय,उससे निदान कराकर,सही दवा,विश्वस्त निर्माता से लेकर
सेवन करे। लाभ न होने पर पुनः चिकित्सक से परामर्श ले। ऐसा नहीं कि बीमार होने पर
मेडिकल कॉलेज में नामाकन करावे, पढ़े, फिर दवा की कम्पनी खोले,दवा बनावे,और तब
खाये।ठीक वैसे ही ग्रह-विचार कराने के बाद उचित है कि योग्य ब्राह्मण(जो सिर्फ
जन्म का ब्राह्मण नहीं, वल्कि ज्ञान,कर्म और आचार से भी ब्राह्मण हो) से जप करावे।
जप के बाद नियमानुसार दशांश हवन कराये। हवन में हो सके तो स्वयं आहुति डाले,और
ब्राह्मण द्वारा मन्त्रोच्चार किया जाय। दूरस्थ, और लाचारी की स्थिति में यह
अधिकार भी ब्राह्मण को ही है।
2.कोई व्यक्ति जिसे
कभी किसी तरह की पूजा-जप आदि का अभ्यास नहीं है,वह यदि जप करना प्रारम्भ करेगा तो
उसका जप बिलकुल निष्फल तो नहीं होगा,किन्तु काफी अधिक संख्या में करने के बाद ही
लाभ मिलेगा। इसके कई कारण हैं –
(क) मकान बनाने के
लिए नींव खोदना होता है। नींव जितना मजबूत होगा,मकान भी उतना ही दीर्घायु होगा।
निर्माण का एक बहुत बड़ा भाग नींव में छिप जाता है।नींव के बाद ऊपर आने पर ही मकान
नजर आता है।वैसे ही प्रारम्भ में किया गया जप का बहुत बड़ा भाग नींव में चला
जायेगा।
(ख)किसी भी जप के
लिए सही अधिकारी उसे ही कहा जा सकता है,जो गायत्री, नवार्ण, शिवपंचाक्षर,
महामृत्युञ्जय आदि मन्त्रों का कम से कम सवालाख जप करके जप का अधिकार प्राप्त कर
लिया हो। विशेष स्थिति में और भी विशेष नियम पालन करने होते हैं।
(ग) जप कर्ता का
संस्कार बल भी बहुत मायने रखता है। यही कारण है कि संस्कारी का सिर्फ आशीष ही(उसके
हाथ का राख-मिट्टी भी)लाभ दायक हो जाता है।
(घ) जप और प्रार्थना
में बहुत अन्तर है। प्रार्थना सफल होने के लिए शुद्ध और शान्त मन चाहिए। मन को
शुद्ध और शान्त करने के लिए भी प्रार्थना ही सही उपाय है,अतः मन कैसा भी हो बस बैठ
जायें, प्रार्थना पर। धीरे-धीरे सही प्रार्थना होने लगेगी।
(ङ) प्रार्थना के लिए अधिकारी विचार की कोई
आवश्यकता नहीं। वैसे इस सम्बन्ध में और भी
बातें जानने योग्य है,विचारने योग्य हैं।
७) मन्त्र-चयन - जप के अधिकारी विचार के बाद,जप किस मन्त्र का किया जाय इस
पर विचार किया जाना आवश्यक है।शास्त्रों में एक ही ग्रह के लिए अनेक मन्त्र सुझाये
गये हैं। यह अनेकता मत-भिन्नता नहीं है,बल्कि व्यक्ति,काल,स्थान,स्थिति आदि को
ध्यान में रखकर निर्देशित किया गया है, और इसका ध्यान रखना भी अति आवश्यक है।बिना
विचार किये किसी मन्त्र का चुनाव कर लेना बेवकूफी है,साथ ही हानिकारक भी।मुख्य रुप
से वैदिक, पौराणिक और तान्त्रिक- ये तीन भेद कहे गये हैं-- ग्रह-मन्त्रों के।(पुनः
अनेकानेक भेद भी हैं,जो मन्त्र-विज्ञान का गहन विषय है।इस विज्ञान को समझने के लिए
वर्ण और मात्रिकाओं के रहस्य का ज्ञान अति आवश्यक है,जो मुख्यरुप से तन्त्र का
विषय है,जिसका वर्णन यहां अभीष्ट भी नहीं है।)
उक्त तीन प्रकार के मन्त्रों के चयन में
फिर वही अधिकारी-विचार वाली बात आयेगी। परिवेश का भी ध्यान रखना होगा।सर्वाधिक
निरापद रुप से यदि कहें तो सामान्य मन्त्र- किसी ग्रह के नाम के आगे ‘ऊँ ’कार और अन्त में ‘नमः’ युक्त करके,बीच में
चतुर्थी विभक्ति युक्त ‘पद’ का योजन कर,मन्त्र संरचना ही उपयुक्त कही जायेगी।जैसे सीधे
कहें-- ऊँ सूर्याय नमः...इसी भांति अन्य ग्रहों के लिए भी प्रयोग करना उचित है।इस
प्रकार चयनित चतुर्थ्यन्त ग्रह-पञ्चाक्षरी मन्त्र बिलकुल सहज ग्राह्य है- एकदम प्रार्थना
तुल्य,कोई झंझट नहीं,कोई दुष्परिमाम की आशंका नहीं। ठीक इसके विपरीत, विविध प्रकार
के ‘बीज’और ‘व्याहृति’ युक्त मन्त्रों को
बिना विचारे धड़ल्ले से प्रयोग करने का जो आधुनिक चलन है,वह बहुत ही गलत है- सीधे
कहें तो मन्त्र-विज्ञान के साथ खिलवाड़ है;और इसका दुष्परिणाम भी हो सकता है।अतः
सामान्य जन सरल और निरापद मार्ग (मन्त्र)का ही चयन करें तो अच्छा है।विशेष साधक
अपनी स्थिति के अनुसार स्व-विवेक से काम लें।
८)
जप-संख्या
और समिधा-सारणी -प्रसंगवश अब,यहां
क्रमशः ग्रहों की जप-संख्या और समिधा-सारणी पर एक नजर डाल लें-
क्रम
|
ग्रह
|
जपसंख्या
|
समिधा
|
१
|
सूर्य
|
७०००
|
अकवन
|
२
|
चन्द्रमा
|
११०००
|
पलाश
|
३
|
मंगल
|
१००००
|
खैर
|
४
|
बुध
|
९०००
|
चिड़चिड़ी
|
५
|
बृहस्पति
|
१९०००
|
पीपल
|
६
|
शुक्र
|
१६०००
|
गूलर
|
७
|
शनि
|
२३०००
|
शमी
|
८
|
राहु
|
१८०००
|
दूर्वा
|
९
|
केतु
|
१७०००
|
कुशा
|
९)
जप-संख्या
पर पुनर्विचार- ‘कलौसंख्याचतुर्गुणा’-
नियमानुसार विहित संख्या से चार गुणा जप होना चाहिए।इसके बाद उसका दशांश(१०%) हवन भी होना चाहिए।विहित संख्या में हवन न कर पाने की स्थिति में नियम है
कि २०% पुनः जप करे,और तब कम से कम १०८ आहुति उसकी समिधा से
अवश्य दे दें।जप के पश्चात् हवन बिलकुल न करना बहुत गलत है, इससे सच पूछें तो
क्रिया सर्वांग पूरी ही नहीं होती।नियमतः जप के अंग तो कुछ और भी हैं-
तर्पण,मार्जन,ब्राह्मण भोजन और दक्षिणा-दान, जो क्रमशः दशांश होते जाता
है।ध्यातव्य है कि उक्त क्रम में भोजन-दक्षिणा की बात कही गयी है,वह जप-दक्षिणा
नहीं है।जप का दक्षिणा तो यजमान और जप-कर्ता का व्यक्तिगत विषय है- किस मन्त्र के
लिए क्या तय करते हैं।हां, यदि स्वयं के लिए ही जप करते हैं,तो भी दक्षिणा-दान तो
यथाशक्ति करना ही चाहिए, अन्यथा एक अंग छिन्न माना जायेगा।उसके बिना जप सर्वांग
परिपूर्ण नहीं हुआ।इस प्रकार सर्वांग जप पूरा होता है।
१०)
जप
के सम्बन्ध में एक और बात ध्यान देने योग्य है कि महादशाओं का काल काफी
लम्बा होता है।उस पूरे अवधि के आदि और मध्य में जप-हवन होना अच्छा है।महादशापति के
लिए तो चतुर्गुणा जप हर हाल में होना ही चाहिए,अनर्दशापति के लिए दुगने से भी काम
चल सकता है। इसी प्रकार प्रत्यन्तर दशापति के लिए एक आवृत्ति से अधिक की आवश्यकता
नहीं है। हां,विशेष गड़बड़ स्थिति हो तो इनका जप भी दो या चारगुना ही होना चाहिए। इसके
अतिरिक्त सूक्ष्म और कभी कभी प्राणदशाओं पर भी विचार आवश्यक हो जाता है, खास कर
विशेष संकटापन्न स्थिति में।जैसे कोई व्यक्ति मरणासन्न है,तो उसकी पूर्वोक्त मात्र
दो दशाओं के विचार से काम नहीं चलेगा, बल्कि आगे के, या कहें तदन्तर्गत अन्य तीन
दशाओं का भी विचार करना आवश्यक होगा,और तदनुसार शान्ति का उपाय भी करना होगा। ध्यातव्य
है कि एक समय में सात प्रकार से ग्रहों का भोग चलते रहता है- प्रत्येक व्यक्ति के
साथ।गोचर जनित,और वर्षफल जनित ग्रहों के भोग को भी नजरअन्दाज नहीं किया जाना
चाहिए।उन पर भी एक नजर अवश्य डाल लेनी चाहिए। इसे जरा ठीक से समझें- सात ग्रहों
का नहीं बल्कि सात प्रकार से ग्रहों का।कभी कभी ऐसा होता है कि संयोग से सातों
प्रकारों में एक ही ग्रह का आधिपत्य हो जाता है,और यदि वह ग्रह प्रतिकूल स्थिति
में है,तो फिर महामृत्युञ्जय या कहें सीधे महाकाल को भी अधिकार नहीं है- उसकी
रक्षा करने का,क्यों कि वे भी अपने ही बनाये नियमों में बन्धें हुए हैं।
११)
जन्म-कुण्डली
की कुञ्जिका- ग्रहोपचार के लिए एक
गूढ़ बात है- प्रत्येक जन्म-कुण्डली की कुञ्जी का ज्ञान, यानी व्यक्ति के लिए उसका
कुञ्जिका ग्रह कौन है? जिस प्रकार वर्षकुण्डली में
मुंथा का महत्त्व होता है,वही सर्वोपरि हो जाता है,उसी भांति जन्मकुण्डली में
कुञ्जिका का महत्त्व है।भले ही इसका लोक प्रचलन बहुत कम है,किन्तु इससे इसकी अति
महत्ता को नकारा नहीं जा सकता; यह अनुभव सिद्ध है।दीर्घ अनुभव में
बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि केवल और केवल कुञ्जीग्रह को उपचारित कर देने मात्र से
ही कल्याण हो गया है। इसे समझना या ध्यान रखना बहुत ही आसान है।जिस प्रकार मेषादि
द्वादश राशियों पर सूर्यादि सप्त ग्रहों का आधिपत्य बताया गया है,उसी
प्रकार मेषादि द्वादश लग्नों का सूर्यादि सप्त ग्रहों के बीच अधिकार निर्धारण भी
हुआ है।ध्यातव्य है कि ‘राशिनामउदयोलग्नः’ अमरकोष
के वचनानुसार उदय-क्षितिज पर आने वाली राशि की ही तात्कालिक ‘लग्न’ संज्ञा है। ज्योतिष शास्त्र की
भी यही मान्यता है।सीधे शब्दों में यूं कहें कि जन्म काल में चन्द्रमा जिस राशि पर
रहते हैं, उसे जन्म-राशि कहा जाता है,और जन्म-काल में जो राशि उदय-क्षितिज पर
संक्रमण करती है,उसे ही जन्म-लग्न कहा जाता है।इस जन्म-लग्न के स्वामी ग्रह को ही
कुण्डली-कुञ्जिका कहते हैं।यहां विशेष ध्यान देने की बात है कि मेष राशि का स्वामी
मंगल है, जबकि मेष लग्न कुण्डली की कुञ्जिका सूर्य को माना गया है। अतः मेष
लग्न-जात किसी भी व्यक्ति के जीवन के उतार-चढ़ाव,सुख-दुःख,आदि का परिमाण और परिणाम
दोनों के सम्यक् ज्ञान के लिए जन्मकालिक सूर्य की स्थिति का गहन छानबीन करना उचित
होगा।सूर्य कैसे हैं,कहां बैठे हैं,किस भाव के स्वामी
हैं,द्रेष्काण,नवांश,सप्तमांश, द्वादशांश,त्रिशांश,यहां तक कि षष्ठ्यांश में उनकी
क्या स्थिति है।इस प्रकार उनके पूरे बलाबल का विचार करके उपचार का निर्णय
करेंगे,तो उपचार काफी सफल होगा।इस नियम के अनुसार ध्यान देने की बात है कि मेष
लग्न वाला व्यक्ति,यदि अपने खान-पान,रहन-सहन,आचार-विचार से सूर्य को प्रसन्न
रखेगा, तो उसकी सारी समस्यायें यूं ही छंटती रहेंगी,जैसे सूर्योदय के बाद अन्धकार
छंटता है।और ठीक इसके विपरीत भी समझना चाहिए।यानी कन्या और मकर लग्न वालों की
तुलना में मेषलग्न वाले को सूर्य-विरोधी कार्य अधिक हानि पहुंचायेंगे।ध्यातव्य है
कि बात यहां ग्रह-मैत्री के आधार पर नहीं,बल्कि ग्रह के स्वभाव के आधार पर की जा
रही है।सूर्य मदिरा-मांस विरोधी हैं,जबकि शुक्र उसके प्रेमी हैं,और वे ही कन्या और
मकर लग्न के कुञ्जी हैं।इसी भांति अन्य ग्रहों के विषय में भी उनकी भावगत स्थिति
के साथ-साथ स्वभाव का भी ध्यान रखना आवश्यक है।किसी व्यक्ति के सम्यक् कल्याण के
लिए सर्वप्रथम उसके जन्मकालिक लग्न के कुञ्जीग्रह की स्थिति का विचार करके,उनका ही
उपचार किया जाना सरल,और निरापद है,साथ ही सर्वाधिक लाभप्रद भी।किन्तु इसका ये अर्थ
भी न लगा लिया जाय कि महादशादि विविध विचार किये ही न जायें। कुञ्जीग्रह की जांच एक तरह से कहें
कि ‘एमआरआई टेस्ट’की तरह है, इसका ये
अर्थ नहीं कि डॉक्टर आला लगाये ही नहीं,वह तो अलग प्रकार की जांच है। प्रसंगवश,
यहां राशि और लग्न दोनों प्रकार से ग्रहों के स्वामित्त्व को एक सारणी में दर्शा
रहे हैं,ताकि दोनों में अन्तर समझने में सुविधा हो।यथा-
राश्यंक
|
राशि-स्वामी
|
कुञ्जिकाग्रह
|
१- मेष
|
मंगल
|
सूर्य
|
२- वृष
|
शुक्र
|
शनि
|
३- मिथुन
|
बुध
|
बुध
|
४- कर्क
|
चन्द्रमा
|
मंगल
|
५- सिंह
|
सूर्य
|
गुरु+मंगल
|
६- कन्या
|
बुध
|
शुक्र
|
७- तुला
|
शुक्र
|
शनि
|
८-वृश्चिक
|
मंगल
|
बृहस्पति
|
९- धनु
|
बृहस्पति
|
मंगल
|
१०-मकर
|
शनि
|
शुक्र
|
११-कुम्भ
|
शनि
|
शुक्र+बुध
|
१२-मीन
|
बृहस्पति
|
चन्द्रमा
|
ऊपर की सारणी में हम देख रहे हैं कि कुम्भ और
सिंह लग्नों की दो-दो कुञ्जिकायें हैं।यह करीब करीब वैसे ही है जैसे कि
सूर्य-चन्द्रमा को छोड़ कर, शेष ग्रहों को दो-दो राशियों का आधिपत्य मिला है।या
कहें एक ताले की दो चाभियों की तरह है,फिर भी ‘मास्टरकी’ जैसी प्राथमिकता जरुर मिली है क्रमशः सिंह
में गुरु को और कुम्भ में शुक्र को। इन कुञ्जिका ग्रहों की विशेषता ये भी
है कि ये अपने स्व-भाग का प्रभाव विशेष कर जातक पर छोड़ते हैं,तथा विपरीत स्थिति
में कुपित भी उसी अनुसार होते हैं।ज्योतिष का सामान्य नियम है कि जन्म लग्न का
प्रभाव जातक पर विशेष रुप से पड़ता है- उसकी वर्णाकृति आदि का आंकलन लग्न और
लग्नस्थ ग्रहों के अनुसार ही करते हैं। पंडित रुपचन्द्र जोशी जी द्वारा रचित मूल
लालकिताब(सन् १९३९) में तो कुण्डली विचार के लिए
लग्नांक के स्थान पर भावांक को ही
चयनित किया गया है।लग्नांक को तो बिलकुल अलग कर दिया गया है,विचार क्रम
में।उनके सिद्धान्त से तो ये सारी बातें ही निर्मूल प्रतीत होती हैं। किन्तु रहस्य
कुछ और ही है।पंडितजी का भावांक सिद्धान्त और यहां ये कुञ्जिका सिद्धान्त देखने
में भले ही एक दूसरे के विरोधी प्रतीत हो रहे हैं,किन्तु प्रहार एक ही केन्द्र पर
कर रहे हैं- यह विचारणीय है।अतः निर्द्वन्द्व और निशंक होकर कुञ्जिका ग्रह का
प्रयोग किया जा सकता है।
१२)
ग्रहरत्नों
पर एक नजर- पौराणिक
प्रसंगानुसार रत्नों की उत्पत्ति बलिदैत्य और महर्षि दधीचि की अस्थियों से हुयी है।समुद्र-मन्थन
क्रम में भी रत्नोंत्पत्ति की बात कही जाती है।रत्नों की मुख्य तीन कोटियां हैं-
स्वर्गीय,पातालीय,और भूलोकीय।भूलोकीय २१ रत्नों में सूर्यादि नवग्रहों के लिए
शास्त्रीय रुप से क्रमशः एक-एक रत्नों का निर्देश है,तथा उन रत्नों को किन-किन
धातुओं से संयुक्त करके ग्रहण(धारण)करना चाहिए, ये भी स्पष्ट किया गया है। किंचित
मत से सभी ग्रहों के लिए क्रमशः उपरत्नों के प्रयोग की भी चर्चा मिलती है।वर्तमान
समय में तो ‘उप’ के भी ‘उप’ बन गये हैं। यहां तक कि वनावटी रत्नों
की भरमार है बाजार में। परिणामतः सही रत्नों की पहचान आधुनिक प्रयोगशाला,या
फिर कुछ खास,अनुभवी लोग ही कर सकते हैं,जिनके पास तन्त्र,योग,वा आयुर्वेद का ज्ञान
है।आम आदमी तो दुकानदार के कहे मुताबिक मान लेने को विवश है।आये दिन रत्न
व्यापारियों का सामना होते रहता है,जो बाजार मूल्य से आधी और चौथाई कीमत पर रत्नों
का सौदा करने को प्रेरित करते हैं,जिसे स्वीकार नहीं करने पर बेवकूफ भी समझते हैं।सोचने
वाली बात है कि हजार रुपये की चीज को कोई पांच सौ में देने को क्यों राजी है! मुझे वह अमीर बनाने को इतना क्यों उत्सुक है!
रत्न-धारण के लिए मैं बहुत कम ही लोगों
को सुझाव देता हूँ।इसके अनेक कारण हैं।पहली बात यह है कि मूल्य की दृष्टि से सबके
बस की बात नहीं है,और सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से भी उचित नहीं है।मूल असली
रत्न बहुत ही कीमती होते हैं,और वैकल्पिक रत्न महत्त्वहीन। सोना भस्म के बदले
पीतल भस्म खिलाने से रोगी को कितना लाभ होगा,सोचने वाली बात है।
दूसरी बात है
कि रत्नों का प्रत्यवाय है- विपरीत प्रतिक्रिया भी है।दुर्भाग्य से यदि रत्न चयन
में त्रुटि हुयी तो धारक को भारी क्षति भी उठानी पड़ सकती है।यहां तक की जान भी जा
सकती है।ऐसे कई मामले मेरे अनुभव में आये हैं।
विधिवत संस्कारित शुद्ध रत्न बहुत ही कारगर
होते हैं।रत्नों का क्रय-विक्रय,उपहार स्वरुप आदान-प्रदान आदि भी ध्यान देने योग्य
है।मानलिया किसी व्यक्ति का नीचस्थ शनि है,वह नीलम का उपहार देकर किसी सबल को भी
निर्बल बना सकता है,उच्चमंगल वाला व्यक्ति मूंगा का उपहार देकर आपको पराजित कर
सकता है।अवशाद-ग्रस्त(डिप्रेशन)व्यक्ति द्वारा मोती दान/उपहार ग्रहण करने वाले के लिए नुकसानदेय हो
सकता है। ये सब रत्नों के तान्त्रिक खेल हैं। दुष्ट प्रवृति के तान्त्रिक तन्त्र-सिद्धान्तों
का ऐसा दुरुपयोग भी प्रायः करते रहते हैं। कायिक ऊर्जा-स्थानान्तरण के अच्छे स्रोत
हैं सभी रत्न। किसी दो विधर्मी रत्नों को तो भूल कर भी एक साथ धारण नहीं करना
चाहिए। इसके लिए भाव-स्थिति के अतिरिक्त ‘षडबल और पञ्चधाविचार’ भी अवश्य कर लेना
चाहिए।
हालांकि नवग्रहों के रत्न को यन्त्राकार
एकत्र रुप से धारण करने की भी सलाह दी जाती है,
किन्तु ध्यान रहे- वहां उनका स्थान नियत है,और टकराव की बात नहीं
आती,यह ठीक वैसे ही है जैसे कि सामूहिक रुप से नवग्रह यन्त्र की उपासना की जाती
है।यहां यह तर्क भी अमान्य है कि ग्रहों के लिए अंगुलियां भी नियत है,फिर टकराव
क्यों और कैसे ! एकत्र रुप से लॉकेट में रत्नों को कैसे जड़े, इसे आगे दिये
गये चित्रांकन से स्पष्ट किया जा रहा है-
जैसा कि पहले भी चर्चा की गयी है-
प्रत्येक व्यक्ति के लिए क्रमशः पांच भावेश,जिन्हें पूर्ण एवं आंशिक मारकेश भी
कहते हैं-द्वितीयेश,सप्तमेश,अष्टमेश,द्वादशेश और षष्ठेश के रत्नों को धारण नहीं
करना चाहिए।इनमें द्वितीयेश और सप्तमेश २००%
तथा शेष तीन ५०% तो हानिकारक होते ही
हैं।संयोग से यदि ये किसी और बुरे भाव के स्वामी हो गये तो प्रतिशत और भी बढ़
जायेगा।ठीक इसके विपरीत मात्रा घट भी सकती है।प्रायः लोग लग्नेश का रत्न धड़ल्ले
से धारण कर लेते हैं,किन्तु यहां यह भी विचार करना जरुरी है -- शनि लग्नेश हों तो
भी उनका रत्न नीलम कदापि धारण न करें,क्यों कि वे लग्नेश के साथ-साथ या तो
द्वितीयेश भी हैं या द्वादशेश।यह संयोग इस
कारण है क्यों कि इनकी दोनों राशियां आसपास ही हैं- कुम्भ और मकर। अन्य ग्रहों के
लिए भी विचार कर लें कि वे कहां बैठे हैं,किस स्थिति में हैं। नीच ग्रहों का
रत्न-धारण भी सर्वदा अनुचित है।तात्कालिक दशादि विचार से जिनका मुख्य शासन
व्यवस्था में योगदान नहीं है,उनका रत्न धारण भी व्यर्थ सा है- गैर सत्ताधारी सांसद
की तरह,जिसे महत्त्वहीन न होते हुए भी महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता।
रत्न धारण करना
अपरिहार्य हो यदि तो,सम्बन्धित ग्रहों का कालबल ,तथा अन्यान्य शुभ मुहूर्तादि का
विचार करते हुए ,विधिवत रत्न-संस्कार करके ही धारण किया जाना चाहिए। ताकि सही लाभ
मिल सके।बिना संस्कार और प्राणप्रतिष्ठा के रत्न तो बिना सिमकार्ड वाले मोबाइल की
तरह हैं,जिनसे केवल मनोरंजन/अलंकरण
हो सकता है,समुचित ज्योतिषीय लाभ नहीं।
शनि
का रत्न नीलम सर्वाधिक विचारणीय और परीक्षणीय है।इसके जांच की विशेष विधि भी है।तीन
प्रकार जांच-परख के बाद ही इसे धारण करना चाहिए।क्यों कि ऐसा भी हो सकता है कि
ग्रहस्थिति बिलकुल ठीक रहने पर भी किसी व्यक्ति को नीलम अनुकूल न पड़े,यह ठीक वैसे
ही है, जैसे कोई अच्छी दवा भी किसी को ‘रिऐक्शन’ कर जाता है,जिसके लिए त्वचान्तर्गत वेध
करके डॉक्टर पहले परीक्षा करता है,फिर सही होने पर नस में सूई लगाता है।इसी तरह
नीलम को खरीदने के बाद एक-दो रात तकिये के नीचे रखकर एकान्त शयन करना चाहिए।उससे
होने वाले अच्छे-बुरे अनुभव के आधार पर
अगली परीक्षा होती है- कपड़े में बांधकर बाहों में धारण करना।दो तीन दिनों तक इस
तरह भी परीक्षा के बाद, स्थिति अनुकूल रहने पर ही पूर्णरुप से धारण करना चाहिए।
रत्नों के साथ
एक बहुत बड़ा खतरा और भी है,जिस पर लोगों का ध्यान ही नहीं जाता। उपयोग किये गये
रत्नों की खरीद-बिक्री धड़ल्ले से होती है,इसे पुराना कहा या माना ही नहीं जाता, जब
कि यह बहुत घातक है।पुराने रत्न अपने साथ पुराने धारक के गुण-दोषादि संस्कारों को
जकड़े हुए रहता है,जिसे पूर्ण रुप से कदापि हटाया नहीं जा सकता।एक अपराधी द्वारा
प्रयोग किया गया रत्न एक सामान्य व्यक्ति में भी अपराध-प्रवृति भर दे सकता
है।ध्यान देने की बात ये है कि ये दोष धातुओं में भी है,किन्तु उनका अग्नि संस्कार
होता है।उनके रुप को पूर्णतः बदला जा सकता है, किन्तु रत्नों का अग्नि-संस्कार
नहीं होता,और स्वरुप को भी पूर्णतः बदला नहीं जा सकता।
रत्नधारण के
सम्बन्ध में एक और बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि ये औषधि- सेवन की तरह है,बीमारी
ठीक हो जाने(सम्बन्धित ग्रहदशा समाप्ति)के पश्चात् इसे तत्काल ही उतार देना
चाहिए,अन्यथा प्रत्यवाय-दोष भी लागू हो सकता है।रत्नों को धारण करके तज्जनित ऊर्जा
को अपने शरीर में आहूत करते हैं,अतः आवश्यकता नहीं रहने पर धारण किये रहना अनुचित
है। इसे हम ऐसे भी समझ सकते हैं कि समाचार देखने के लिए मनोरंजन-चैनल की क्या
उपयोगिता है?
रत्नों के
सम्बन्ध में और भी बहुत सी बातें,और सिद्धान्त हैं(विशेष जानकारी के लिए मेरी
पुस्तिका- पुण्यार्करत्नचन्द्रिका का अवलोकन कर सकते हैं)।एक अन्तिम बात
यहां स्पष्ट कर दूँ कि रत्न पर मतान्तर बहुत अधिक हैं,यहां जिन बातों की ओर ध्यान
दिलाना चाहता हूँ, उससे ठीक विपरीत बातें भी आपको मिल सकती है- अन्यान्य मतों
से।किन्तु मतान्तर के पचरे में अधिक पड़ने की आवश्यकता नहीं है। स्वविवेक से काम
लेने की जरुरत है।
किस रत्न को किस
अंगुली में धारण किया जाय- यह भी विचारणीय है,क्यों कि सभी ग्रहों का स्थान
निश्चित है हाथ में। हस्तरेखा के अनुसार हथेली में ग्रहों का स्थान निश्चित
है,किन्तु अंगुलियों की संख्या तदनुरुप नहीं है,अतः प्रायः उलझन होता है।मुख्य रुप
से चार ही अंगुलियां अंगूठी-धारण के योग्य हैं,जिनमें क्रमशः तर्जनी- बृहस्पति
को,मध्यमा-शनि,राहु,केतु को,अनामिका- सूर्य और मंगल को,तथा कनिष्टिका- चन्द्रमा और
बुध को मिल गया।इस विभाजन-क्रम में हस्तरेखा विज्ञान का सहारा लिया गया।तदनुसार
हथेली में शुक्र का पर्वत तो अंगूठे के समीप है,किन्तु उसमें रत्न धारण व्यावहारिक
नहीं प्रतीत होता।इस कारण समीपवर्ती अंगुली यानी तर्जनी में शुक्र को स्थान दे
दिया जाता है,परन्तु यह बहुत ही गलत है,क्यों कि ज्योतिष का ग्रहमैत्री सिद्धान्त कहता
है कि शुक्र को तो गुरु से विरोध नहीं है,बल्कि समता है,पर गुरु को शुक्र से
शत्रुता भाव है,ऐसी स्थिति में गुरु की
अंगुली में शुक्र का रत्न धारण करना क्या उचित होगा ? दूसरी बात यह है कि कुछ मत ऐसे भी हैं
कि जिसे कहीं स्थान नहीं मिलता,उसे नवग्रहाधीश होने के नाते सूर्य का सहयोग मिलता
है, यानी शुक्र का रत्न भी सूर्य की अनामिका में ही धारण करना चाहिए।किन्तु यह
तर्क भी उचित नहीं है,क्यों कि मैत्रीचक्र के अनुसार सूर्य-शुक्र में उभयपक्षीय
शत्रुता है,जो कि गुरु से भी अधिक हानिकारक है,क्यों कि वहां कम से कम एकपक्षीय
शत्रुता ही है,पर यहां उभय पक्षीय है। अतः मित्रता के नियम के आधार पर शुक्र को भी
शनि की अंगुली में ही स्थान मिलना चाहिए,क्यों कि शनि और शुक्र की उभयपक्षीय
मित्रता है।भले ही शुक्र का रत्न अंगूठे में धारण करले,किन्तु तर्जनी और अनामिका
में तो कदापि न करे।
आगे एक सारणी
प्रस्तुत है,जिसमें ग्रहरत्नों के प्रचलित नामों के साथ तत्सम्बन्धित धातुओं का भी
निर्देश है।यथा-
क्र.
|
नवग्रह
|
रत्न(संस्कृतनाम)
|
अंग्रेजीनाम
|
फारसीनाम
|
धातु
|
१
|
सूर्य
|
माणिक(पद्मराग)
|
Ruby
|
याकूत
|
सोना,तांबा
|
२
|
चन्द्रमा
|
मोती(मुक्ता)
|
Perl
|
मोतिया
|
चाँदी
|
३
|
मंगल
|
मूंगा(विद्रुम)
|
Coral
|
मिरज़ान
|
सोना,तांबा
|
४
|
बुध
|
पन्ना(मरकत)
|
Emerald
|
ज़मूरन
|
कांसा
|
५
|
बृहस्पति
|
पुखराज(पुष्पराग)
|
Topaz
|
ज़र्दयाकूत
|
सोना,पीतल
|
६
|
शुक्र
|
हीरा(वज्रमणि)
|
Diamond
|
अलिमास
|
चांदी
|
७
|
शनि
|
नीलम(नीलमणि)
|
Sapphire
|
निलाविलयाकूत
|
लोहा
|
८
|
राहु
|
गोमेद(गोमेदक)
|
Zircon
|
मेदक
|
मिश्रधातु,शीशा
|
९
|
केतु
|
लहसुनिया(वैदूर्य)
|
Cat’s
eye
|
फ़िरोज़ा
|
मिश्रधातु
|
१)
विविध दान- नवग्रहों
से सम्बन्धित विहित पदार्थों के दान की भी परम्परा है। ज्योतिष का कर्मकाण्डीय
पक्ष कहता है कि दान देने से भी ग्रहों की तुष्टि होती है।सूर्यादि सभी ग्रहों के
लिए अलग-अलग वस्तुओं के दान का नियम है।रत्नों की तरह दान के विषय में भी कुछ
मतान्तर है।रत्न-धारण की तरह दान के लिए भी उसी भांति सचेष्ट रहने की
आवश्यकता है- किसी भी मारकग्रह (मारकेश,नीच आदि)की प्रसन्नता हेतु दान करना उचित
नहीं है। हां,उनसे सम्बन्धित कुछ वस्तुओं को अऊँछकर बाहर फेंकने,नदी में प्रवाहित
करने आदि का काम भले किया जा सकता है।अऊंछने का मूल उद्देश्य है- अपने
विकृत(दूषित) आभामंडल(ओरा)को परिष्कृत करना।जिस भांति स्नानादि से शरीर शुद्ध और
स्वच्छ होता है,उसी भांति आगन्तुज दुष्प्रभावों का सम्मार्जन होता है- इस क्रिया
से,यानी जो दुष्प्रभाव पहले से हमारे भीतर उपस्थित नहीं थे,बल्कि किसी कारण से,और
किसी प्रकार से बाहर से आकर शरीर को प्रभावित कर दिये हों; दान से कर्मगत ( क्रियमाणों), संस्कारगत
दुष्प्रभावों का सम्यक् मार्जन होकर,अन्तः तेज और ऊर्जा की वृद्धि होती है।यही
कारण है कि दोनों स्थितियों में दान की महत्ता कही गयी है।शुभग्रहों का दान हमारी
तेजस्विता में वृद्धि करेगा,तो अशुभ ग्रहों का दान उसके कुपरिणामों से रक्षा
करेगा।इसे इस प्रकार समझा जा सकता है- मंगल तो स्वभाव से ही पाप ग्रह कहे गये
हैं,किन्तु इनका दान करेंगे;परन्तु यही मंगल यदि किसी के द्वितीयेश,
सप्तमेशादि मारकेश हो जायेंगे तो,वैसी स्थिति में दान करना उचित नहीं होगा।इसी
भांति यदि कर्क राशि पर होंगे,जो इनकी नीचराशि है,तो भी इनसे सम्बन्धित दान
अशुभकारी ही होगा। दान में इतनी शक्ति है कि प्रारब्ध को भी कुछ देर के लिए पीछे
ढकेल दे सकता है। वैसे,सिद्धान्त है – अवश्यमेव भोक्तव्यं कृते कर्म शुभाशुभम्
। शुभ या अशुभ जो भी कर्म किया गया है,वह अपना फल तो देगा ही,उसे भोग कर ही मिटाया
जा सकता है। हालाकि यह सामान्य नियम है,विशेष परिस्थिति में विशेष बातें भी होती
हैं,जो यहां का विषय नहीं है।अभी का विषय तो है- ग्रहदान।
ध्यान रहे- दान में दाता के साथ ग्रहीता
का होना भी आवश्यक है,जबकि त्याग में ग्रहीता की कोई भूमिका नहीं है।दान और
परित्याग के इसी अर्थ-भेद को न समझ पाने के कारण लोग परित्याग के स्थान पर दान ही
सुझा देते हैं।इसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से ग्रहीता का निज लोभ भी छिपा होता
है।दान का जो प्रतिफल (परिणाम) है,वो दाता के लिए भले ही कल्याणकारी हो,किन्तु
ग्रहीता के लिए महा अनिष्टकारी होता है,फिर भी लोभ या अज्ञान-ग्रस्त लोग दान लेने
के लिए हाथ पसारे चलते हैं।यह बड़ी दुखद बात है। व्राह्मणों को अपना तेजबल बचाने
का प्रयास करना चाहिए।
दान के विविध प्रकार हैं,किन्तु यहां
प्रसंगवश सिर्फ ग्रह-दान की चर्चा की जा रही है।आगे इनसे सम्बन्धित वस्तुओं की
सारणी प्रस्तुत है।(मात्रा का निर्धारण ग्रहों की प्रिय संख्याओं से करना चाहिए, जो
सूर्यादि ग्रहों के लिए क्रमशः ७,११,१०,९,१९,१६,२३,१८ और १७ कहे गये है।)
क्र.
|
नवग्रह
|
दान
हेतु विविध वस्तुयें
|
१
|
सूर्य
|
सवत्सागौ,सुवर्ण,ताम्र,माणिक,मूंगा,केशर,रक्तचन्दन,
गेहूं,
गुड़,कमलपुष्प,रक्तवस्त्र,नूतनभवन आदि
|
२
|
चन्द्रमा
|
धवलवृषभ(सफेदबैल),शंख,मोती,दही,घी,चांदी,चीनी,
चावल,श्वेतचन्दन,श्वेतवस्त्र,श्वेतपुष्प,कपूर,वांस
की टोकरी वगैरह
|
३
|
मंगल
|
मूंगा,केशर,सुवर्ण,ताम्र,भूमि,मसूर,गेहूं,रक्तवस्त्र,रक्तचन्दनरक्तपुष्प,गुड़,कस्तूरी,लालबैल,
आदि
|
४
|
बुध
|
सुवर्ण,पन्ना,कांस्यपात्र,गजदन्त
,विविधपुष्प,विविध फल,
मूंग, कपूर,हरितवस्त्र, षटरसभोज्यपदार्थ, आदि
|
५
|
बृहस्पति
|
सुवर्ण,पोखराज,पुस्तक,मधु,पीतवस्त्र,घी,पीतपुष्प,हरिद्रा,
सैन्धव,शर्करा,
भूमि,छत्र,पीले फल,चने की दाल आदि
|
६
|
शुक्र
|
हीरा,चावल,दही,श्वेतचन्दन,श्वेतवस्त्र,श्वेतपुष्प,गौ,भूमि,
चांदी,सफेद
घोड़ा, विविध सुगन्धित पदार्थ,आदि
|
७
|
शनि
|
नीलम,तिल,तिलतैल,उड़द,नीलावस्त्र,लोहा,जूता,कस्तूरी,सोना,कालीगाय,कालाफूल,भैंस,कुरथी(एक
प्रकार की दाल) आदि
|
८
|
राहु
|
तिल
सहित ताम्रपात्र,सातन्जा,उड़द,कालावस्त्र,लोहा,
कम्बल,बांस
का सूप,तिल का तेल,तलवार,गोमेद,सोना आदि
|
९
|
केतु
|
सप्तधान्य(सतन्जा-चावल,गेहूं,जौ,मूंग,उड़द,कुलथी,सांवा)
बकरा,विविध
शस्त्र,तिलतैल,वैदूर्य(लहसुनिया)रत्न,
कम्बल,कस्तूरी
आदि
|
सावधान-
दान
लेने में जरा भी अभिरुचि न रखें।और दान देने वाले महाशय ये समझने की भूल न करें कि
दान देकर किसी पर कृपा कर दी आपने। कृपा तो दान लेने वाले ने की है- आपके विकृत-दूषित
कर्मों का कूड़ा-कर्कट अपने सिर पर उठा ले गया है।ध्यातव्य है कि दान के बाद भी
दक्षिणा का प्रावधान है शास्त्रों में।वैसे ही जैसे कूडा उठाने वाले को बक्शीस
देते हैं। दक्षिणा के वगैर दान अधूरा है,व्यर्थ जैसा।राजा हरिश्चन्द्र को इसी
दानान्त दक्षिणा की असमर्थता के कारण सपरिवार बिकना पड़ा था,और रावणवद्ध के पश्चात
मर्यादापुरुषोत्तम राम को भटकना पड़ा था- प्रायश्चित्त दान लेने के लिए कोई
व्राह्मण नहीं मिल रहा था।जिसमें पात्रता थी,वो लेने को राजी नहीं था,और अपात्र को
दिया नहीं जा सकता था।
२) यन्त्र-धारण-पूजन--सभी ग्रहों के लिए विविध प्रकार के
धारण-यन्त्र विहित हैं,जिन्हें विधिवत सिद्ध करके धारण करने से भी पर्याप्त लाभ
मिलता है।विशेष कर निम्न आय-वर्गीय लोगों के लिए तो वरदान स्वरुप है,क्यों कि
रत्न-धारण और वस्तु-दान से भी सरल-सुविधाजनक है।ये यन्त्र मुख्यतः चार
प्रकार के होते हैं- अंकीय,रेखांकीय ,बीजीय और मिश्र।आवश्यकता और स्थिति के अनुसार
इनका चुनाव किया जाता है। इन्हीं यन्त्रों को किंचित स्थापना-विधिभेद से नियमित
पूजन करने का भी आदेश ज्योतिष-शास्त्रों में मिलता है।सामान्य तौर पर अन्यान्य
मूर्ति-पूजा की तरह नवग्रह यन्त्र की स्थापना कराकर,नित्य पूजा भी की जा सकती है।
यह कार्य बिना दशा-विचार के भी किया जा सकता है।यानी सभी ग्रहों की नियमित उपासना
होती रहेगी। आवश्यकतानुसार किसी एक-दो ग्रह की भी उपासना की जा सकती है। तांबें के
पत्तर पर बने हुए यन्त्र (अलग-अलग ग्रहों के या एकत्र नवग्रहों के) बाजार में
उपलब्ध होते हैं,जिन्हें प्राणप्रतिष्ठा करके, सिद्ध करना होता है,तभी कारगर होते
हैं। नित्य का पूजा-विधान बहुत ही सरल है,जिसमें मात्र पन्द्रह-बीस मिनट समय देना
होता है।
३) स्तोत्रादि पाठ-(नवग्रह,आदित्यहृदय,मंगल,शनि स्तोत्रादि चर्चा)-
नवग्रहों की शान्ति-प्रसन्नता
हेतु उनके स्तोत्रों का पाठ करने का भी विधान है।स्तोत्रों का मूल
उद्देश्य स्तुति यानी प्रार्थना है,और इसका अधिकार-विचार भी बहुत उलझन वाला नहीं
है।बिना किसी अधिकारी विचार के सामान्य नवग्रह स्तोत्र का पाठ किया जा सकता है।इसमें
प्रत्येक ग्रहों के लिए एक-एक श्लोक में प्रार्थना है।वस इतना ही करना है।एकाग्र
चित्त से,श्रद्धा-भक्ति पूर्वक की गयी प्रार्थना बहुत ही लाभदायी होती है। इसी भांति शनि,मंगल आदि सभी ग्रहों के लिए
अलग-अलग स्तोत्र भी हैं, जिनका नियमित पाठ कोई भी(संस्कृत का सामान्य जानकार)आसानी
से कर सकता है।हां,इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हिन्दी अनुवाद कारगर नहीं
होगा,क्यों कि मूल ध्वनि विज्ञान पर आधारित है यह स्तोत्र-पाठ,और मूल ध्वनि तो ‘संस्कृत’ वर्णमाला का ही है।यहां
सिर्फ भाव-शुद्धि की बात नहीं है,ध्वनि-तरंगों का अपना विज्ञान भी है।
ग्रहाधीश सूर्य की आराधना के लिए एक प्रचलित स्तोत्र
है- महर्षि वाल्मीकि कृत आदित्यहृदयस्तोत्रम् ,तथा एक और आदित्यहृदयस्तोत्रम् भी
है- भविष्योत्तरपुराणान्तर्गत।यह स्तोत्र पूर्व कथित स्तोत्र से काफी बड़ा है,और
अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भी,किन्तु ध्यान रहे- इसके अधिकारी सभी लोग नहीं हो सकते।
विशेष कर तामसीआहार लेने वाले यदि इसका पाठ करेंगे,तो उन्हें लाभ तो दूर,उल्टे
हानी ही होगी।तान्त्रिक विधि से करने पर, इस पाठ का इतना प्रभाव है कि कुष्ट व्याधि
तक ठीक हो सकती है।आरोग्यदाता सूर्य की आराधना से अन्याय संकट भी टाले जा सकते
हैं।विविध लौकिक कार्य भी सिद्ध होते हैं।
४) वनस्पति-स्नान- पूर्व प्रसंग में नवग्रहों की संविधा
की चर्चा की गयी है।उन्हीं नौ वनस्पतियों का चूर्ण बनाकर रख लेना चाहिए।नित्य
रात्रि में एक-दो चम्मच चूर्ण एक किलो जल में भिंगो दे, और प्रातः स्नान के समय
बाल्टी भर पानी में उस जल को मिला कर नित्य स्नान करने से भी नवग्रह जनित वाधायें
दूर होती हैं। किसी ग्रह विशेष की अकेली संविधा का भी इसी भांति स्नान प्रयोग किया
जा सकता है।
ध्यातव्य है कि
होमार्थ समिधाओं का ही यहां उपयोग किया जाना चाहिए। आगे के प्रसंग में नवग्रहों के
लिए धारणार्थ जिन वनस्पतियों की चर्चा की जा रही है,वे बिलकुल इससे भिन्न हैं।
५) वनस्पति-मूलादि-धारण-नवग्रहों की शान्ति हेतु विविध
वानस्पतिक मूलों का प्रयोग भी शास्त्र-सम्मत है,जिसकी सारणी यहां प्रस्तुत है।इन
वनस्पतियों का ग्रहण विधिवत किया जाना चाहिये,तभी कारगर होता है।ऐसा नहीं कि गये
और जड़ उखाड़ कर धारण कर लिए।(वनस्पतियों के सम्बन्ध में साधना विधान मेरी पुस्तक
पुण्यार्कवनस्पतितन्त्रम् में वर्णित है।विशेष इच्छुक लोग वहां देख सकते हैं,जो
मेरे ब्लॉग और साइट पर उपलब्ध है)सिद्ध वनस्पतिमूल को त्रिधातु/पंचधातु के ताबीज में भर कर ग्रहों के विहित दिनों
में ही धारण करना चाहिए।ताबीज का धागा ग्रहों के प्रिय रंगों के अनुकूल ही होना
चाहिए।बाजार में उपलब्ध खूबसूरत चमकदार सफेद ताबीज,जो चांदी के नाम से जाना जाता
है,वह ‘वाइटमेटल’ है,यह किसी काम का नहीं है।अतः इसका उपयोग
कदापि न करें।सर्वोत्तम होगा कि ऑडर देकर मनोनुकूल ताबीज बनवा लें।ताबीज के धातु
का निर्णय इसी प्रसंग में दिये गये धातु-सारणी के अनुसार करें ।
क्र.
|
नवग्रह
|
धारणार्थ
|
१
|
सूर्य
|
विल्वमूल
|
२
|
चन्द्रमा
|
खिरनीमूल
|
३
|
मंगल
|
अनन्तमूल
|
४
|
बुध
|
विधारामूल
|
५
|
बृहस्पति
|
भृंगराजमूल
|
६
|
शुक्र
|
मञ्जिष्ठमूल
|
७
|
शनि
|
शमीमूल
|
८
|
राहु
|
श्वेतचन्दन
|
९
|
केतु
|
असगन्धमूल
|
६) शनि हेतु हनुमानजी की आराधना- प्रायः हनुमानजी की आराधना से शनि को शान्त
करने का प्रचलन है। मान्यता है कि शनि डरते हैं उनसे,या कहें प्रतिज्ञावद्ध हैं; किन्तु
यह आंशिक सत्य है, न कि पूर्ण सत्य ।प्रत्येक व्यक्ति को इस उपाय से लाभ हो ही
जायेगा- आवश्यक नहीं है।कुण्डली की हर स्थिति में यह क्रिया उचित नहीं है।मान लिया
कि किसी की जन्म कुण्डली में तुलाराशि के यानी उच्च के शनि लग्न में बैठ कर उसके
पराक्रम,पत्नी,और भाग्य भाव को पीड़ित कर रहे है,वैसी स्थिति में हनुमानजी की
आराधना से विपरीत फल मिलेगा, यानी शनि प्रसन्न होने के वजाय कुपित होकर और परेशान
करेंगे। महाराज दशरथ और रामभक्त हनुमान से शनि बचन बद्ध हैं, उनसे भयभीत भी।
स्वाभाविक है कि किसी से भय दिखाकर कराया गया कार्य बिलकुल सही ही हो- कोई आवश्यक
नहीं। हनुमानजी की आराधना से शनि को दबाने की बात तब आती है जब नीच राशि(मेष)के
शनि किसी भाव फल को विकृत कर रहे हों।शनि स्वयं अच्छी स्थिति में हों (षडबल चक्रनुसार)
और प्रभाव बुरा दे रहे हों तो सीधे शनि जनित अन्य उपचार ही प्रयोग करे,न कि
हनुमानजी की आराधना।दूसरी बात यह कि बारह से पैंतालिस वर्ष उम्र वाली स्त्रियां(
यहां उद्देश्य रजोधर्म से है,यानी रजोधर्म जिन लड़कियों का शुरु हो गया है,और
रजोनिवृत्ति-मीनूपॉज अभी दूर है)हनुमान जी की आराधना न करें तो अच्छा है।तामसी
आहार वालों को भी हनुमानजी की आराधना कदापि नहीं करनी चाहिए।
७) अधिदेव-प्रत्यधिदेवोपासना का प्रावधान- विशेष परिस्थितियों में सीधे ग्रहों की
शान्ति से काम नहीं चलता,बल्कि उनके साथ अन्यान्य उपाय भी करने होते हैं।प्रत्येक
ग्रहों के एक-एक देवता और एक-एक प्रत्यधिदेवता का वर्णन है शास्त्रों में- शिवः
शिवा गुहो विष्णुर्ब्रह्मेन्द्र यमकालकाः। चित्रगुप्तोऽथ
भान्वादेर्दक्षिणे चाधिदेवताः।।(स्कन्दपुराण)
तथा च अग्निरापो धरा विष्णुः
शक्रेन्द्राणी पितामहाः। पन्नगाः कः क्रमाद्वामे ग्रहप्रत्यधिदेवताः।। उनकी ही
आराधना करनी पड़ती है।यहां एक सारणी में इनसे परिचय कराया जा रहा है।आवश्यकतानुसार
उनकी यथोपचार पूजन सहित विशेष या कम से कम नाममन्त्रों का जप करना चाहिए।
कुण्डली के कालसर्पदोष से प्रायः लोग
परिचित हैं- यह कोई नयी चीज नहीं है,प्रत्युत पुराने की ही नयी लेबलिंग है।कुण्डली
में राहु की पकड़ में जब अन्य सभी ग्रह आजाते हैं,तो इसे कालसर्पदोष के नाम से
जाना जाता है।इसकी शान्ति हेतु सीधे राहु-केतु की आराधना से काम नहीं
चलता,प्रत्युत इनके अधिदेवता और प्रत्यधिदेवता की भी आराधना करनी पड़ती है।इसी
भांति अन्य ग्रहों के लिए भी समझना चाहिए।
क्रम
|
ग्रह
|
अधिदेव
|
प्रत्यधिदेव
|
१
|
सूर्य
|
शिव
|
अग्नि
|
२
|
चन्द्रमा
|
पार्वती
|
जल
|
३
|
मंगल
|
स्कन्द
|
पृथ्वी
|
४
|
बुध
|
विष्णु
|
विष्णु
|
५
|
बृहस्पति
|
ब्रह्मा
|
इन्द्र
|
६
|
शुक्र
|
इन्द्र
|
इन्द्राणी
|
७
|
शनि
|
यम
|
प्रजापति
|
८
|
राहु
|
काल
|
सर्प
|
९
|
केतु
|
चित्रगुप्त
|
ब्रह्मा
|
८) क्षेमोपाय- सूर्यादि नवग्रहों के लिए क्षेमोपाय भी कहे गये हैं शास्त्रों
में।अन्य उपायों के साथ-साथ या अन्त में
इन्हें करना चाहिए।यथा- सूर्य की प्रसन्नता के लिए हरिवंश श्रवण करें,चन्द्रमा
हेतु शिवार्चन करें,मंगल हेतु रुद्राभिषेक करायें,बुध की प्रसन्नता हेतु कन्यादान
का विधान है(अपनी बेटी ना भी हो तो किसी अन्य की वेटी के विवाह में सहयोग करें),बृहस्पति
के लिए अमाङ्ग का विधान है,शुक्र के लिए गोप्रतिमा की उपासना करे,या सीधे गौ की
पूजा करे,शनि के लिए मृत्युञ्य की आराधना,और राहु के लिए भुजगदा,तथा केतु के लिए
ध्वजगदा- प्रतीक की पूजा करनी चाहिए।
९) सर्वोपरि उपासना-इष्टोपासना- लोग प्रायः यह कहते हुए पाये जाते हैं कि मैं तो
इन ग्रहों को कुछ नहीं मानता,ये सब झूठ-मूठ के बखेडे हैं....मैं तो बजरंगवली का
भक्त ठहरा.... भोलेनाथ की पूजा करता हूँ...कालीमां का उपासक हूँ....सब तो उन्हीं
का है...उनके सिवा और कोई है ही कहां...आदि...आदि।किन्तु उनका ये कथन आंशिक सत्य
है,इसलिए कि सिर्फ उनके होठ बोल रहे हैं ये घिसेपिटे शब्द...देखादेखी-सुनासुनी की
बात करते हैं,अनुभव और ज्ञान से कोसों दूर की बातें हैं ये।एक निष्टता अति महत्त्वपूर्ण
है,इससे बड़ी कोई चीज क्या होगी,किन्तु उसका एक स्तर होता है। इसे श्रीकृष्ण ने
गीता में तुल्यनिंदास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्...अद्वेष्टा
सर्वभूतानां...निर्ममो निरहंकारः...शुभाशुभपरित्यागी...समः शत्रौ च मित्रे च....आदि
विशेषणों या लक्षणों से स्पष्ट किया है,ये उस स्तर के भगवत्भक्त हैं,जिन्हें
ग्रहों क्या आसपास के ‘संसार’ की भी चिन्ता नहीं है। और जिस किसी की
भी वैसी स्थिति जब तक नहीं बन पाती है,यानी उपासना जगत में LKG का विद्यार्थी भी नहीं है, उसे तो ग्रहों
की आराधना करनी ही पड़ेगी,दूसरा कोई उपाय नहीं है।
कुल मिलाकर,कहा जाय तो ज्योतिष बहुत ही
गहन विषय है।भले ही सॉफ्टवेयर ने इसके गणितीय पक्ष को आमजन के लिए सुलभ बना दिया
है,महीनों के श्रम से किया जाने वाला गणित मिन्टों में हो जा रहा हो;परन्तु फलित-पक्ष के
लिए सन्तोषजनक और सर्वांग परिपूर्ण सॉफ्टवेयर कदापि नहीं हो सकता,वैसे हर कुण्डली-सॉफ्टवेयर कुछ न कुछ फलित भी जोड़े रहता है,पर वह बहुत विश्वास योग्य
नहीं है।उसमें केवल आधारभूत संकेत भर है,जिनका उपयोग और प्रयोग किया जा सकता है। अन्तिम
निर्णय के लिए तो ज्योतिषी की भूमिका शेष रह ही जाती है।विज्ञान और तकनीकि के
विकास के दौर में हो सकता है,आने वाले समय में हम वह सबकुछ प्राप्त करलें, किन्तु ‘प्रकृति और पुरुष’ पर विजय ???
अस्तु।
----000----
कुण्डली-कुञ्जिका का एक और प्रकार--पूर्व प्रसंग में कुण्डली-कुञ्जिका की
चर्चा की गयी,जो लग्नाधारित है।ऐसी ही एक कुञ्जिका और भी है, जो सताइस नक्षत्रों
के २७x४=१०८
चरणाक्षरों के आधार पर, ग्रहों के स्वामित्व को दर्शाती है। इन प्रत्येक
अक्षरों(चरणों)पर प्रथम,द्वितीय,तृतीय क्रम से, एक ही समय में तीन ग्रहों का शक्तिभेद
से प्रभुत्व रहता है । यानी प्रथम ग्रह का प्रभाव उस चरण-जात व्यक्ति पर सर्वाधिक
रहता है।उससे किञ्चित न्यून प्रभाव
द्वितीय क्रम के ग्रह का,और उससे भी न्यून प्रभाव तृतीय क्रम के ग्रह का होता
है।ध्यातव्य है कि यह प्रभाव आजीवन समान रुप से विचारणीय है।जैसे जन्म के साथ ही
जातक का लग्न,राशि,नक्षण,चरण और ग्रह-स्थिति निश्चित हो जाता है,उसी भांति यह
कुञ्जिका भी निश्चित हो गयी,क्यों कि इसका मूलाधार चरणाक्षर पर ग्रह-स्वामित्व से
सम्बन्धित है।आगे यहां इसकी सारणी दी जा रही है।सारणी से जातक के प्रभाशाली ग्रह
का विचार कर,फलादेश , और आवश्यकतानुसर तत्शान्ति भी करना चाहिए।इसे भी एक
महत्त्वपूर्ण कुञ्जी समझना चाहिए।यह सारणी निर्मित कैसे हुयी यह भी जरा समझने वाली
चीज है।
ध्यातव्य है कि वृत्ताकार नभ-मण्डल को
गणितज्ञों ने सुविधा के लिए ३६०अंशों(डिग्री) में विभाजित किया है।
पुनः इन प्रत्येक को ६०कलाओं में भी विभाजित
किया गया है।सताइस नक्षत्रों के प्रत्येक चरणों यानी २७x४=१०८
खंडों(चरणाक्षरों)के बीच व्योममंडल को बांटने पर प्रत्येक के हिस्से में ३ अंश और
२० कलायें आती हैं,अब,इसे ही-- ३.२०x१०८=३६०अंश के पूरे नभमंडल
को बारह राशियों में बांटने पर प्रत्येक
राशि को ३०-३०अंश मिलेंगे।इन्हीं बारह राशियों में सभी नक्षत्र हैं- बड़े
से परिभ्रमण-पथ को सुविधानुसार दर्शाने हेतु,जो इस मार्ग पर निरन्तर भ्रमण करते
हुये नवग्रहादि को स्थान की सूचना देते हैं,ठीक वैसे ही जैसे राजमार्गों पर
जगह-जगह मील के पत्थर लगे होते हैं,ताकि यात्रियों को जानकारी हो सके,अपने गन्तव्य
का।
स्वामित्व का निर्धारण राशीश और महादशा
क्रमादि के आधार पर किया गया है।इस प्रकार हम देखते हैं कि पूर्व कथित कुण्डली
कुञ्जिका में लग्नों के आधार पर स्वामित्व दिया गया था,और इस कुञ्जिका में राशिपति
को महत्त्व दिया गया है।
आगे की तालिका में सभी नक्षत्रों को चरण,अक्षर,अंश,के
साथ-साथ क्रमिक रुप से तीनों प्रभावी ग्रहों को स्पष्ट किया जा रहा है-
क्रम
|
नक्षत्र
|
चरण-
अक्षर
|
अंश
तक
|
स्वा-१
|
स्वा-२
|
स्वा-३
|
१.
|
अश्विनी
|
१.चू
|
०से३.२०
|
मं.
|
के.
|
के.
|
२.
|
अश्विनी
|
२.चे
|
६.४०
|
मं.
|
के.
|
सू.
|
३.
|
अश्विनी
|
३.चो
|
१०.००
|
मं.
|
के.
|
रा.
|
४.
|
अश्विनी
|
४.ला
|
१३.२०
|
मं.
|
के.
|
श.
|
५.
|
भरणी
|
१.ली
|
१६.४०
|
मं.
|
शु.
|
शु.
|
६.
|
भरणी
|
२.लू
|
२०.००
|
मं.
|
शु.
|
चं.
|
७.
|
भरणी
|
३.ले
|
२३.२०
|
मं.
|
शु.
|
रा.
|
८.
|
भरणी
|
४.लो
|
२६.४०
|
मं.
|
शु.
|
श.
|
९.
|
कृत्तिका
|
१.अ
|
३०.००
|
मं.
|
सू.
|
सू.
|
१०.
|
कृत्तिका
|
२.इ
|
३३.२०
|
शु.
|
सू.
|
रा.
|
११.
|
कृत्तिका
|
३.उ
|
३६.४०
|
शु.
|
सू.
|
श.
|
१२.
|
कृत्तिका
|
४.ए
|
४०.००
|
शु.
|
सू.
|
बृ.
|
१३.
|
रोहिणी
|
१.ओ
|
४३.२०
|
शु.
|
च.
|
च.
|
१४.
|
रोहिणी
|
२.वा
|
४६.४०
|
शु.
|
च.
|
रा.
|
१५.
|
रोहिणी
|
३.वी
|
५०.००
|
शु.
|
च.
|
श.
|
१६.
|
रोहिणी
|
४.वू
|
५३.२०
|
शु.
|
च.
|
के.
|
१७.
|
मृगशिरा
|
१.वे
|
५६.४०
|
शु.
|
मं.
|
मं.
|
१८.
|
मृगशिरा
|
२.वो
|
६०.००
|
शु.
|
मं.
|
बृ.
|
१९.
|
मृगशिरा
|
३.का
|
६३.२०
|
बु.
|
मं.
|
बु.
|
२०.
|
मृगशिरा
|
४.की
|
६६.४०
|
बु.
|
मं.
|
शु.
|
२१.
|
आर्द्रा
|
१.कु
|
७०.००
|
बु.
|
रा.
|
रा.
|
२२.
|
आर्द्रा
|
२.घ
|
७३.२०
|
बु.
|
रा.
|
बृ.
|
२३.
|
आर्द्रा
|
३.ङ
|
७६.४०
|
बु.
|
रा.
|
बु.
|
२४.
|
आर्द्रा
|
४.छ
|
८०.००
|
बु.
|
रा.
|
शु.
|
२५.
|
पुनर्वसु
|
१.के
|
८३.२०
|
बु.
|
गु.
|
बृ.
|
२६.
|
पुनर्वसु
|
२.को
|
८६.४०
|
बु.
|
गु.
|
श.
|
२७.
|
पुनर्वसु
|
३.हा
|
९०.००
|
बु.
|
गु.
|
शु.
|
२८.
|
पुनर्वसु
|
४.ही
|
९३.२०
|
चं.
|
गु.
|
च.
|
२९.
|
पुष्य
|
१.हू
|
९६.४०
|
चं.
|
श.
|
श.
|
३०.
|
पुष्य
|
२.हे
|
१००.००
|
चं.
|
श.
|
बु.
|
३१.
|
पुष्य
|
३.हो
|
१०३.२०
|
चं.
|
श.
|
शु.
|
३२.
|
पुष्य
|
४.डा
|
१०६.४०
|
चं.
|
श.
|
रा.
|
३३.
|
आश्लेषा
|
१.डी
|
११०.००
|
चं.
|
बु.
|
बु.
|
३४.
|
आश्लेषा
|
२.डू
|
११३.२०
|
चं.
|
बु.
|
शु.
|
३५.
|
आश्लेषा
|
३. डे
|
११६.४०
|
चं.
|
बु.
|
मं.
|
३६.
|
आश्लेषा
|
४.डो
|
१२०.००
|
चं.
|
बु.
|
बृ.
|
३७.
|
मघा
|
१.मा
|
१२३.२०
|
सू.
|
के.
|
के.
|
३८.
|
मघा
|
२.मी
|
१२६.४०
|
सू
|
के.
|
सू.
|
३९.
|
मघा
|
३.मू
|
१३०.००
|
सू
|
के.
|
रा.
|
४०.
|
मघा
|
४.मे
|
१३३.२०
|
सू
|
के.
|
श.
|
४१.
|
पू.फा.
|
१.मो
|
१३६.४०
|
सू
|
शु.
|
शु.
|
४२.
|
पू.फा.
|
२.टा
|
१४०.००
|
सू
|
शु.
|
च.
|
४३.
|
पू.फा.
|
३.टी
|
१४३.२०
|
सू
|
शु.
|
रा.
|
४४.
|
पू.फा.
|
४.टू
|
१४६.४०
|
सू
|
शु.
|
श.
|
४५.
|
उ.फा.
|
१.टे
|
१५०.००
|
सू
|
सू.
|
सू.
|
४६.
|
उ.फा.
|
२.टो
|
१५३.२०
|
बु.
|
सू.
|
रा.
|
४७.
|
उ.फा.
|
३.पा
|
१५६.४०
|
बु.
|
सू.
|
श.
|
४८.
|
उ.फा.
|
४.पी
|
१६०.००
|
बु.
|
सू.
|
बु.
|
४९.
|
हस्ता
|
१.पू
|
१६३.२०
|
बु.
|
च.
|
चं.
|
५०.
|
हस्ता
|
२.ष
|
१६६.४०
|
बु.
|
च.
|
रा.
|
५१.
|
हस्ता
|
३.ण
|
१७०.००
|
बु.
|
च.
|
श.
|
५२
|
हस्ता
|
४.ठ
|
१७३.२०
|
बु.
|
च.
|
के.
|
५३
|
चित्रा
|
१.पे
|
१७६.४०
|
बु.
|
मं.
|
मं.
|
५४
|
चित्रा
|
२.पो
|
१८०.००
|
बु.
|
मं.
|
बृ.
|
५५
|
चित्रा
|
३.रा
|
१८३.२०
|
शु.
|
मं.
|
बु.
|
५६
|
चित्रा
|
४.री
|
१८६.४०
|
शु.
|
मं.
|
शु.
|
५७
|
स्वाती
|
१.रू
|
१९०.००
|
शु.
|
रा.
|
रा.
|
५८
|
स्वाती
|
२.रे
|
१९३.२०
|
शु.
|
रा.
|
बृ.
|
५९
|
स्वाती
|
३.रो
|
१९६.४०
|
शु.
|
रा.
|
बु.
|
६०
|
स्वाती
|
४.ता
|
२००.००
|
शु.
|
रा.
|
शु.
|
६१
|
विशाखा
|
१.ती
|
२०३.२०
|
शु.
|
गु.
|
बृ.
|
६२
|
विशाखा
|
२.तू
|
२०६.४०
|
शु.
|
गु.
|
श.
|
६३
|
विशाखा
|
३.ते
|
२१०.००
|
शु.
|
गु.
|
शु.
|
६४
|
विशाखा
|
४.तो
|
२१३.२०
|
मं.
|
गु.
|
चं.
|
६५
|
अनुराधा
|
१.ना
|
२१६.४०
|
मं.
|
श.
|
श.
|
६६
|
अनुराधा
|
२.नी
|
२२०.००
|
मं.
|
श.
|
बु.
|
६७
|
अनुराधा
|
३.नू
|
२२३.२०
|
मं.
|
श.
|
शु.
|
६८
|
अनुराधा
|
४.ने
|
२२६.४०
|
मं.
|
श.
|
रा.
|
६९
|
ज्येष्ठा
|
१.नो
|
२३०.००
|
मं.
|
बु.
|
श.
|
७०
|
ज्येष्ठा
|
२.या
|
२३३.२०
|
मं.
|
बु.
|
के.
|
७१
|
ज्येष्ठा
|
३.यी
|
२३६.४०
|
मं.
|
बु.
|
शु.
|
७२
|
ज्येष्ठा
|
४.यू
|
२४०.००
|
मं.
|
बु.
|
रा.
|
७३
|
मूल
|
१.ये
|
२४३.२०
|
बृ.
|
के.
|
के.
|
७४
|
मूल
|
२.यो
|
२४६.४०
|
बृ.
|
के.
|
सू.
|
७५
|
मूल
|
३.भा
|
२५०.००
|
बृ.
|
के.
|
रा.
|
७६
|
मूल
|
४.भी
|
२५३.२०
|
बृ.
|
के.
|
श.
|
७७
|
पू.षा.
|
१.भू.
|
२५६.४०
|
बृ.
|
शु.
|
शु.
|
७८
|
पू.षा.
|
२.ध
|
२६०.००
|
बृ.
|
शु.
|
चं.
|
७९
|
पू.षा.
|
३.फ
|
२६३.२०
|
बृ.
|
शु.
|
रा.
|
८०
|
पू.षा.
|
४.ढ
|
२६६.४०
|
बृ.
|
शु.
|
श.
|
८१
|
उ.षा.
|
१.भे
|
२७०.००
|
बृ.
|
सू.
|
सू.
|
८२
|
उ.षा.
|
२.भो
|
२७३.२०
|
श.
|
सू.
|
रा.
|
८३
|
उ.षा.
|
३.जा
|
२७६.४०
|
श.
|
सू.
|
श.
|
८४
|
उ.षा.
|
४.जी
|
२८०.००
|
श.
|
सू.
|
बु.
|
८५
|
श्रवण
|
१.खी
|
२८३.२०
|
श.
|
च.
|
चं.
|
८६
|
श्रवण
|
२.खू
|
२८६.४०
|
श.
|
च.
|
रा.
|
८७
|
श्रवण
|
३.खे
|
२९०.००
|
श.
|
च.
|
श.
|
८८
|
श्रवण
|
४.खो
|
२९३.२०
|
श.
|
च.
|
के.
|
८९
|
धनिष्ठा
|
१.गा
|
२९६.४०
|
श.
|
मं.
|
मं.
|
९०
|
धनिष्ठा
|
२.गी
|
३००.००
|
श.
|
मं.
|
बृ.
|
९१
|
धनिष्ठा
|
३.गू
|
३०३.२०
|
श.
|
मं.
|
बु.
|
९२
|
धनिष्ठा
|
४.गे
|
३०६.४०
|
श.
|
मं.
|
शु.
|
९३
|
शतभिषा
|
१.गो
|
३१०.००
|
श.
|
रा.
|
रा.
|
९४
|
शतभिषा
|
२.सा
|
३१३.२०
|
श.
|
रा.
|
बृ.
|
९५
|
शतभिषा
|
३.सी
|
३१६.४०
|
श.
|
रा.
|
बु.
|
९६
|
शतभिषा
|
४.सू
|
३२०.००
|
श.
|
रा.
|
शु.
|
९७
|
पू.भाद्र
|
१.से
|
३२३.२०
|
श.
|
गु.
|
बृ.
|
९८
|
पू.भाद्र
|
२.सो
|
३२६.४०
|
श.
|
गु.
|
श.
|
९९
|
पू.भाद्र
|
३.दा
|
३३०.००
|
श.
|
गु.
|
शु.
|
१००
|
पू.भाद्र
|
४.दी
|
३३३.२०
|
बृ.
|
गु.
|
चं.
|
१०१.
|
उ.भाद्र
|
१.दू
|
३३६.४०
|
बृ.
|
श.
|
श.
|
१०२.
|
उ.भाद्र
|
२.थ
|
३४०.००
|
बृ.
|
श.
|
शु.
|
१०३.
|
उ.भाद्र
|
३.झ
|
३४३.२०
|
बृ.
|
श.
|
सू.
|
१०४.
|
उ.भाद्र
|
४.ञ
|
३४६.४०
|
बृ.
|
श.
|
रा.
|
१०५.
|
रेवती
|
१.दे
|
३५०.००
|
बृ.
|
बु.
|
बु.
|
१०६.
|
रेवती
|
२.दो
|
३५३.२०
|
बृ.
|
बु.
|
शु.
|
१०७.
|
रेवती
|
३.चा
|
३५६.४०
|
बृ.
|
बु.
|
मं.
|
१०८.
|
रेवती
|
४.ची
|
३६०.००
|
बृ.
|
बु.
|
बृ.
|
उपर्युक्त तालिका का उपयोग कैसे करें,इसे बहुत
सरलता से समझा जा सकता है। द्वादश राशियों पर संचरित होते सताइस नक्षत्रों के
चार-चार चरणों(कुल १०८)के अक्षर नियत किये गये हैं,ज्योतिष-शास्त्रों में,जिसे ऊपर
की तालिका में अंशादि के साथ ही स्पष्ट किया गया है । राशिनाम रखने की परम्परा का
यही उद्देश्य है,कि व्यक्ति की राशि,नक्षत्र और उसके चरण को सहज ही स्मरण में रखा
जा सके। इस सारिणी के आधार पर ग्रह-प्रभाव जानने हेतु उसी चरणाक्षर का उपयोग
करेंगे । जैसे किसी व्यक्ति का राशिनाम देवानन्द है । इसे जानते ही सहज ही समझा जा
सकता है कि वह मीन राशि,रेवती नक्षत्र,प्रथम चरण में जन्मा व्यक्ति है । यहां, इस
सारणी में हम देखते हैं कि रेवती नक्षत्र
का प्रथम चरण क्रमशः बृहस्पति, बुध, बुध से प्रभावित है।अतः उसके जीवन पर सर्वाधिक
प्रभाव बृहस्पति का रहेगा,उसके बाद दूसरे नम्बर पर बुध,और संयोग से तीसरे नम्बर पर
भी बुध ही हैं,इस कारण उसका जीवन इन दो ग्रहों के प्रभाव में रहेगा।उसके लिए
इन्हीं के बलाबल का विचार करते हुए,यथोचित उपचार करना श्रेयस्कर होगा।
ध्यातव्य है कि जन्मकालिक ग्रह-स्थिति
के आधार पर आगे की ग्रह-गणना करते हुए, शुभाशुभ फलादेश करने की परम्परा है। ये
फलाफल अधिक से अधिक सटीक(व्यावहारिक और उपयोगी)हों इसके लिए महादशादि पंचविध
सूक्ष्म गणना भी करते हैं,साथ ही संचरण की तात्कालिक स्थिति का भी आकलन करते
हुए,सर्वाष्टकादि चक्रों की परिकल्पना करते हैं । ग्रहों का विविध प्रकार से बल
विचार भी करते हैं। इन सारी प्रक्रियाओं के पश्चात् ही किसी ठोस परिणाम पर पहुंचते
हैं। तात्कालिक प्रभाव का और सटीक-सही आकलन करने हेतु वर्ष-कुण्डली भी बनाते
हैं,और उससे वर्षफल-विचार करते हैं।
यहां
एक और बात स्पष्ट कर दूं कि सामान्य व्यक्ति तो इन सारे नियम-सिद्धान्तों को देख
सुन कर और भी भ्रमित हो जा सकता है।उसे निर्णय लेने में कठिनाई हो सकती है। ये
वैसे ही है,जैसे एक ही बीमारी के लिए अनेक दवाइयां हों।किन्तु औषधि-शास्त्र का
ज्ञाता ही सही निर्णय करने में समर्थ है,उसी भांति विद्वान ज्योतिषी अपने विवेक से
इसका निर्धारण सहज ही कर लेगा,उसे जरा भी कठिनाई नहीं होगी।
इस नयी कुञ्जिका का उपयोग ग्रहों के
सूक्ष्म प्रभावों का आकलन करने हेतु करना और भी उपयोगी होगा,इसका ध्यान रखते हुए
इसे प्रस्तुत किया जा रहा है।आमतौर पर यह बहुत चलन में नहीं है। बहुत से
नियम-सिद्धान्त लुप्त-गुप्त होते रहे हैं,यह भी उन्हीं में एक है।कभी किसी साधक से
ये मुझे प्राप्त हुआ था,जिसे लोककल्याणार्थ यहां प्रस्तुत कर रहा
हूँ।ज्योतिष-प्रेमी बुन्धुओं को इस पर मनन करते हुए,प्रयोग करना चाहिए।अस्तु।
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