अधूरीपतिया(एक आंचलिक उपन्यास)भाग 2

गतांश से आगे भाग दो(25पेज तक)

वीरानवनस्थली में भटकने का अनुभव भी अजीब हुआ करता है। भादो की घनेरी रात में तारों की टिमटिमाहट की खोज शायद सफल हो जाय,पर दूर-दूर तक फैली सघन हरीतिमा के बीच कुछ खोज निकालना कहीं ज्यादा मुश्किल है। भीमकाय दैत्यों की तरह बांहें पसारे खड़े असन और साखू के दरख्त,डाकिनियों-सी खांव-खांव करती कटीली झाड़ियां,जंगली जानवरों के मृदु मांसल पैरों से चरमराते-कराहते सूखे पत्ते,बीच-बीच में दहाड़, चिग्घाड़,फुंफकार...और इतने के बावजूद रास्ता नजर न आये, वल्कि नजर आये सिर्फ मौत की मंजिल...।
कैसी खौफनाक अनुभूति होगी इस भटकन की ! किन्तु ऐसी भटकन में यदि अचानक कोई आवाज सुनाई पड़ जाय,जो हो तो मानुषी ही;किन्तु आँखें तरेर कर देखने पर भी,आवाज का स्रोत नजर न आये। कुत्ते की तरह कान खड़े करने पर,जिराफ की तरह गर्दन ऊँची करने पर,वुद्धिमानों की तरह विचार करने पर, स्वर यदि नारी-सा लगे,तब...?
तब क्या ? दिलो-दिमाग दुरुस्त है,मन आशावादी है,विचार प्रगतिवादी है,काया आधुनिकतावादी है, तब तो कोई बात ही नहीं, पर भगवान न करे- यदि परम्परावादी हुए, दकियानूसी विचारों वाले हुए तब...?
तब क्या ?  आँखें झपकी भूल जायेंगी। रोंगटे खड़े हो जायेंगे। पिण्डलियां कांपने लगेंगी। पसीने की वूंदे ललाट पर छलक आयेंगी। हो सकता है मल-मूत्र की हाजत भी महसूस होने लगे...कपड़े खराब होने की नौबत भी आ जाये।
किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ,जब कानों से टकरायी एक आवाज— रुक जा ओ! जाने वाले...रुक जा...।
पहली आवाज में तो इतनी ताकत न थी कि रोक पाती,क्यों कि वहम-सा लगा। ऐसे वन-प्रान्तर में कोई कैसे हो सकता है...यूँ ही भ्रम हो गया होगा।
किन्तु,दूसरी और फिर तीसरी बार— रुकोगे नहीं ? ”
और तब,रुक ही जाना पड़ा। लठैत की तरह कंधे पर रखी बन्दूक नीचे उतार कर लाठी की तरह खड़ी कर दी। दाहिने हाथ को कुर्ते की जेब में डाल कर रुमाल,जो वास्तव में किसी साड़ी का टुकड़ा मात्र था,निकालकर ललाट पर छलक आयी पसीने की बूंदों के साथ ही आंखों को भी पोंछा,और दौड़ा दिया नजरों को चारों ओर। पहाड़ की तलहटी से साखू की चोटी तक पल भर में ही नजरें चढ़-उतर कर,फिर स्थिर हो सामने की झुरमुट में आकर उलझ गयीं; किन्तु कहीं कुछ नजर न आया।
जमाना आकाशवाणी का रहता तो कोई बात नहीं। किन्तु न सतयुग है,न द्वापर; फिर  ये आकाशवाणी ? आकाशवाणी तो ‘ऑलइण्डियारेडियो’ को कहने की परम्परा चल पड़ी है। आज तो धरावाणी को ही आकाशवाणी कहने वाले धोखा और फरेब-वाणी का जमाना है—कुछ भी कहा जा सकता है इस वाणी में। फिर विश्वास कैसे किया जाय? कौन करे किस पर विश्वास? अखवार पर...पत्रिका पर...रेडियो और टी.वी.पर...माँ-बाप...यार-दोस्त...टोला-मुहल्ला...किस पर...क्या किसी पर नहीं ? एक है,जिस पर भरोसा किया जा सकता है— स्वयं की बुद्धि और विवेक;किन्तु अ-समय में बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है। ‘अभागे’ को विवेक भी साथ छोड़ देता है।
खैर,अभी न मतलब है बुद्धि से,और न विवेक से ही। मतलब है तो सिर्फ उस आवाज से,जो शायद कुछ मदद कर सके- इस वीरान वनस्थली में,दिखा सके- पथ,पकड़ा सके सहज सूत्र- गन्तव्य का,और पहुँचा सके मंजिल तक।
 समय है? ” — आवाज फिर सुनाई पड़ी। दिखा कुछ नहीं। भय था नहीं। साहस ने साथ छोड़ा नहीं था। संजोया स्वयं को,और पूछ बैठा—कौन हो भाई? सामने तो आओ।
इतना कहना था कि एक अजीब-सी खिलखिलाहट अगल-बगल के पत्तों पर गूंजने लगी,मानों उन्हीं में से आवाज आ रही हो।
  सामने ? तुम पुरुष के सामने,वह भी ऐसे पुरुष के सामने, जिसके हाथों में विनाशकारी शस्त्र हो ?”— स्वर में मासूमियत थी। पीड़ा थी। व्यंग्य भी था।
  पुरुष तो हूँ ही। नारी कैसे बन जाऊँ ? रही बात बन्दूक की,कहो तो उसे हाथ से हटाकर अलग किये देता हूँ।- कहते हुए बन्दूक को पास के दरख्त से टिका दी— अब तो आ जाओ सामने। जरा देख तो लूँ  कि कौन हो।
इतना कहना था कि सामने का झुरमुट हिलता हुआ नजर आया। थोड़ी देर में उधर से निकला एक भेड़,जिसके गले में बंधी बागडोर,बतला रही थी कि वह अभागा परवश है। उसके कुछ आगे आ जाने पर, फंदे का सूत्र पकड़े,आगे आयी एक युवती,जो अभी-अभी युवती बनी-सी लगी। वेशभूषा तो गंवार देहातन सी थी—चौड़े लाल पाड़ की सफेद साड़ी,जिसे गौर से देखकर ही सफेद कहा जा सकता था,इतनी मैली कि और मैल का गुजारा उसके जिस्म पर होना नामुमकिन,साथ ही छोटे-बड़े रंग-बदरंग पैबन्दों ने उस पर अपना साम्राज्य विस्तार कर रखा था- मानों इस्ट इण्डिया कम्पनी का तम्बू हो। जंगली लता से बंधे जूड़े पर एक दो जंगली फूल खुंसे हुए,ऐसा जान पड़ता था कि भौरों के समूह पर फूल स्वयं आ बैठा हो। यह सब तो था ही,किन्तु कद-काठी की तराश किसी अप्सरा की सगी बहन का परिचय दे रही थी, परन्तु मूढ़ दैव ने ऐसे सुन्दर-सलोने चेहरे पर चेचक के गहरे दाग देकर,अपनी मूढ़ता का दूसरा परिचय दे दिया था। मूर्खता का पहला परिचय तो गहरे रंग से ज्ञात ही था।
तुम कौन हो,कहां रहती हो?- सोच ही रहा था पूछने को,कि वह स्वयं बोल पड़ी— रास्ता भूल गये हो बाबू ?” फिर हां या ना का जवाब सुने वगैर ही दो पग आगे बढ़कर, ठिठक गयी, मैं तुम्हें रास्ता दिखा सकती हूँ बाबू ! जाना कहाँ है तुम्हें ? ”
प्रश्न सुन दिमाग पर कुछ जोर पड़ा। माथे पर सिलवटें उभरीं। जेब में हाथ डालकर, फिर से निकाला साड़ी का टुकड़ा। उलट-पलट कर गौर से देखा उसे,मानो टेलीवीजन के पर्दे पर अपनी मंजिल देख रहा हो। सूंघा एक बार मुट्ठी में भींच कर,मानों प्रिया के रेशमी गेसुओं का गुच्छा हो,और पोंछा एक बार चेहरे को काफी रगड़कर,मानों याददाश्त-पट पर जमी काई को पोंछ रहा हो। पर कुछ याद न आयी। मुंह बनाकर बोला-  ‘क्या बतलाऊँ कहाँ जाना है मुझे ? ऐसा करो न,तुम ही बतला दो कि जाना कहाँ है...।’
एक अजीब सी खिलखिलाहट,वीरान जंगल में ऊँचे-ऊँचे दरख्तों और पहाड़ियों से टकराकर गूंज गयी- ‘अजीब हो बाबू ! तुम्हें कहाँ जाना है,यह मैं कैसे बतला सकती हूँ ?’
 इसलिये कि तुमने कहा रास्ता बतला सकने की बात। - उटपटांग जवाब सुनकर युवती फिर खिलखिलाई,साथ ही जरा गम्भीर होकर युवक पर गौर करने लगी— चूड़ीदार पायजामा,ऊपर से ढीला-ढाला खलीता और उसके ऊपर बिना बांहों का कोट,जिसके नीचे के दो बटन मात्र लगे हुए,बाकी खुले, इसलिए नहीं कि गरमी लग रही थी,वरन इस कारण कि वहाँ कुछ था ही नहीं- न बटन,न हुक । सिर के केश काफी लम्बे-लम्बे- गर्दन तक या कहें कुछ उससे भी नीचे। मुलायम गालों ने भी वर्षों से उस्तरे की तेज धार का मृदुल स्पर्श नहीं पाया था। कमर में बंधा लम्बा सा दुपट्टा। पांवों में ऊँची ऐड़ी वाला कपड़े का जूता। बांयी ओर की छाती कुछ उभर कर उरोज का भ्रम पैदा कर रही थी,जब कि दायीं बगल बिलकुल सपाट थी, बीर पुरुष की चौड़ी छाती सी। गौर करने पर लगा कि भीतरी जेब में कुछ ठूंस-ठांस कर रखा गया है,जिसके कारण ही कोट का वह हिस्सा काफी उभरा हुआ है छातीपर। बड़ी-बड़ी भूरी आँखों में एक अजीब सा सूनापन है,और चेहरे पर दहशत भी...।
 मंजिल मालूम हो,तभी तो रास्ता बतलाया जा सकता है बाबू? —पल भर गौर से निहार कर युवती ने कहा,जिसके कथन का कुछ खास असर सामने खड़े युवक पर न पड़ा।
 मंजिल की बात तो मैं तुमसे ही पूछ रहा हूँ। बतलाने में दिक्कत क्या है?--साड़ी के टुकड़े को सूंघते हुए युवक ने कहा।
इस बार युवती न तो खिलखिलाई न मुस्कुराई। धीर गम्भीर बनी,युवक के चेहरे पर गौर करती हुयी बोली— किसी के मंजिल को कोई और कैसे जान सकता है बाबू ?”
 यही बात तो मैं सोच रहा हूँ- किसी के मंजिल को दूसरा कोई कैसे जान सकता है,पर लाख सोचने पर भी याद नहीं आ रही है कि मेरी मंजिल क्या है, कहाँ है।”—गगन गम्भीर स्वर में युवक ने कहा। उसके ललाट पर पसीने की बूंदें बार-बार छलक आ रही थीं, जिसे रुमाल कहे जाने वाले साड़ी के टुकड़े से पोंछता जा रहा था।
उसकी दयनीय स्थिति को देख,युवती को शायद दया आ गयी। अपनी गर्दन थोड़ी झुकाती हुयी बड़ी नजाकत से पूछी—खैर,पहुंचने की मंजिल भले न याद आ रही हो,चले हो जिस मंजिल से वह तो जरुर याद होनी चाहिए,क्यों बाबू? ”
  पहुँचने की मंजिल...नहीं..नहीं...चलने की मंजिल....। – बायीं तर्जनी से कनपट्टी में कठफोड़वा-सा ठोंकर मारते हुए युवक ने आँखें सिकोड़ कर कुछ सोचने की चेष्टा की,किन्तु ठीक-ठीक याद न आयी। फिर अचानक मुस्कुरा कर बोला- ओह ! याद आ रही है थोड़ी-थोड़ी...याद आरही है- चला हूँ वर्षों पहले जहाँ से,एक समय था जब कि मैं उसे अपना घर कह सकता था। वहाँ मेरी माँ थी,पिताजी थे,चाचा-चाची,दादा-दादी,यार-दोस्त,संगी-साथी... सब थे वहाँ,पर अब... – युवक बड़ी बेचैनी से सांस लेने लगा। पल भर रुक कर फिर बोला, क्या कहूँ, आगे कुछ समझ नहीं आता। तुम ही बतला दो ना- मुझे क्या कहना चाहिए...।
        युवक सामने खड़ी युवती की आंखों में कातर नजरों से झांकने लगा। युवक की हैरत-अंगेज बातें युवती को गुदगुदा-सी गयीं;किन्तु हर बार की तरह मुस्कुरायी नहीं, खिलखिलायई भी नहीं,वल्कि युवक की ओर गम्भीर होकर देखती हुयी बोली- फिर वैसी ही बात करते हो बाबू ! मैं क्या जानूँ,क्या है अब वहाँ,क्या नहीं है। क्या वे लोग अब नहीं रहे ?
 वे सबके सब अब भी हैं वहीं। जाना कहाँ है उन्हें ?- हाथ मटकाता युवक बोला— पर मैं न रहा। जन्नत मिली नहीं,जहन्नुम मिल नहीं रहा है।
इस बार युवती खिलखिला उठी- ओह,अब समझी। अभी समझ में आयी तुम्हारी बात...तो तुम जहन्नुम की खोज में भटक रहे है बाबू? मगर यह किसने कह दिया तुमसे कि जहन्नुम इस हरीभरी मनमोहक रंगीन दुनिया में है? ”—हाथ उठाकर,चारो ओर फैली हरीतिमा को ईँगित करती हुयी बोली।
युवक आश्चर्य से चारो ओर गर्दन घुमाकर अगल-बगल,ऊपर-नीचे देखने लगा।
  ठीक कहती हो,बिलकुल ठीक कह रही हो तुम। जहन्नुम ऐसी जगह क्यूं कर हो सकता है । लेकिन...क्या मैं इसे जन्नत कह सकता हूँ? वैसा भी तो नहीं लग रहा है...हरेभरे पेड़-पौधे,ऊँचे-ऊँचे पहाड़,लेकिन...।- पुनः दांतों से अपना होंठ दबाकर कुछ याद करने की चेष्टा करने लगा युवक।
 अच्छा बाबू ! क्या तुम बतला सकते हो, कि जन्नत या जहन्नुम क्यों जाना चाहते हो ? क्या कोई तुम्हारा ...- कहती हुयी युवती अचानक रुक गयी,कारण कि देर से एक ही जगह पर चरती हुयी भेंड़ शायद ऊब गयी थी। अतः रस्सी ढीली कर,उसे कुछ और आगे बढ़ने को छोड़ दिया।
 तुम कहती हो तो याद आ रही है- जहन्नुम तो अब जाना चाह रहा हूँ। पहले तो सो भी नहीं था; किन्तु अब वहाँ गये वगैर गुजारा भी नहीं है। आखिर, जिसे जन्नत मिल नहीं पाता,वह तो जहन्नुम ही जायेगा न?
 ऐसी भी क्या बात है? इतनी बड़ी ज़हाँ में कोई जगह नहीं उसके लिए?- युवती आश्चर्य से बोली।
होगी, जरुर होगी,क्यों कि दुनियाँ बहुत बड़ी है;किन्तु उसकी दुनियाँ बड़ी है,जिसके पास कुछ है।
  तो क्या नहीं है तुम्हारे पास ?
 कहने को तो सब कुछ है,पर क्या नहीं है,यही तो याद करना चाहता हूँ। तुम बतलाती ही नहीं हो...कुछ मदद करो ना...ओफ ! मेरा कुछ खो गया है। क्या खो गया है... पता नहीं चल रहा है।- युवक उदास मुंह किये धीरे-धीरे बुदबुदाता रहा,और हाथ में पकड़े साड़ी के टुकड़े को कसकर मुट्ठी में भींच लिया।
 खैर,घबराने की बात नहीं है बाबू ! धीरे-धीरे सब याद आ जायेगा। कभी-कभी चिन्तित मन से जानी हुयी बातें भी निकल जाया करती हैं।- थोड़ा ठहर कर युवती फिर बोली-अच्छा मेरा एक काम कर दोगे बाबू ? ”
  क्या काम है तुम्हारा ? कहो। करने लायक होगा तो जरुर कर दूंगा।- युवक ने रुमाल को फिर एक बार सूंघा,चेहरे को पोंछा,और तब उसे कोट की जेब में रख लिया।
  काम तो करने ही लायक है बाबू ! - अपनी बायीं हथेली पर दायें हाथ की ऊंगली नचाती हुयी युवती बोली- कोई ऐसा काम न कहूंगी बाबू,जिसे तुम कर ही न सको।
  क्या ? मैं कुछ समझा नहीं।- सिर हिलाते हुए युवक ने कहा।
  क्या नहीं समझे बाबू ? देखने में तो तुम समझदार लगते हो। पढे-लिखे भी जरुर होगे। लिखने का सामान...”—उभरे हुए जेब की ओर अंगुली से इशारा करती हुयी युवती बोली- कागज-कलम कुछ रखे हो पास में या नहीं,उस केकड़े सी फूली हुयी जेब में ?
युवती का इशारा पा,कोट का कल्फ हटा कुर्ते की जेब टटोलकर युवक आश्वस्त हुआ। कागज और कलम दोनों ही मौजूद थे। ढेर सारे कागजों में से छांट कर जेब से एक सादा पन्ना निकाला,और साथ ही कलम भी।
 हैं तो दोनों ही चीजें। बोलो क्या काम है तुम्हारा ? ”—युवक ने कागज-कलम युवती को दिखाते हुए कहा।
युवक के हाथ में कागज-कलम देखकर,थोड़ी शरमाती हुयी युवती बोली- तो समझ जाओ,क्या काम हो सकता है मेरा।
इस बार युवक के हंसने की बारी थी,किन्तु युवती की तरह खिलखिला न पाया। वश जरा सा मुस्कुरा भर दिया- वाह! खूब कहा तुमने। यह तो वैसी ही बात हुयी,जैसी के लिए अब तक तुम्हारी शिकायत थी मुझसे। यानी अपनी मंजिल मैं तुम्हें बतलाने को कह रहा था। वैसे ही,भला मैं क्या जान सकता हूँ,तुम्हारा काम?- आँखें मटकाते हुए युवक ने कहा,और अपनी दाढ़ी खुजलाने लगा।
            “   नहीं समझ रहे हो तो अब समझाये दे रही हूँ बाबू ! बस,एक छोटा सा काम है।”— अंगूठे को तर्जनी के पहले पोरुये पर रखती हुयी युवती ने कहा— ज्यादा तकलीफ नहीं दूंगी, लिख दो ना एक छोटी-सी ‘पतिया’। क्या लिखना है,मैं बोले दे रही हूँ।
युवक कुछ बोले बिना,सामने खड़ी युवती को निहारते रहा।
 देखते क्या हो बाबू? लिखो ना पतिया ।- अपने चेहरे पर चुभती,युवक की नजर का प्रतिरोध करती युवती बोली- मगर हां,पहले जरा बैठ तो जाओ बाबू। इतनी देर से...।
  तुम भी तो अबतक खड़ी ही रही। न खुद बैठी,और ना मुझे ही बैठने को कहा तुमने। अब तो बैठ जाओ।”—कहा युवक ने,और युवती के उत्तर की प्रतीक्षा किये वगैर ही एक चिकने ढोंके(शिलाखण्ड)पर बैठ गया। सामने ही दूसरे ढोंके पर युवती भी बैठ गयी। भेंड़ की बागडोर अभी भी उसके हाथ में थी।
बोलो न,क्या लिखवाना है?- कागज पसारते हुये युवक ने पूछा।
सामने के ढोंके पर बड़े इत्मीनान से बैठी युवती कहने लगी— सोसती सीरी जोग लिखी बाबू पलटलवाँ के...।
हाथ में कलम लिये, युवक बड़बड़ाया— पलटनवाँ....पलटनवाँ....यें..ऽ.यें...ऽ।
युवती आगे कह रही थी— ...हियां के हालचाल लिखी मतिया के मनवां के....।
लिखने को तो युवक ने लिख ली ये पंक्तियां,किन्तु अचानक उसके माथे को एक जोरदार झटका सा लगा। मालूम पड़ा कि कोई चक्करदार चीज एकाएक उसके दिमाग में घूम गयी हो। सांस जरा तेज हो गयी। थोड़ा दम लेकर,निचले होंठ को ऊपर के दो दांतों से दबाते हुए कुछ सोचने लगा। फिर अचकचा कर बोला— तुम्हारा नाम...मतलब कि क्या तुम्हारा नाम मतिया है? कौन है यह पलटनवाँ...तुम्हारा...क्या कोई अपना...?
युवक की बात सुन युवती तिलमिला सी गयी,मानों किसी दुखती रग पर पांव पड़
गये हों। इस प्रश्न से सही में उसे कुछ मानसिक आघात हुआ या जानबूझ कर ही उसने ऐसा किया, कहा नहीं जा सकता;किन्तु इतना तो निश्चित है कि हल्के क्रोध ने उसे आ घेरा था।
 छोड़ो बाबू ! जाने भी दो। तुम क्या लिखोगे पतिया-वतिया। अभी दो लकीरें बोली, और दो सवाल दाग दिये। इस तरह एक-एक बात पर सवाल करोगे,तो हो गयी मेरी छुट्टी। हटो जाओ,तुम ढूंढो अपनी मंजिल...जन्नत या जहन्नुम का रास्ता...मैं चली अपनी भेंड़ चराने।”—तमक कर खड़ी होती हुयी युवती ने कहा।
 अरे...ऽ..रे...ऽ..रे... ! ये क्या,तुम चल दी ? बैठो तो सही। जरा सी बात पर ऐसे कहीं नाराज हुआ जाता है? मैं यदि...”—गिड़गिड़ाता हुआ युवक,लपक कर हाथ बढ़ाकर उसे रोकना चाहा,किन्तु शिला तक हाथ न पहुँचा। उसका आग्रह और इशारा पाकर युवती पुनः उसी जगह पर बैठ गयी,मानों कुछ हुआ ही न हो। यहाँ तक कि मुस्कान की हल्की रेखा उसके चेहरे पर बन आई,जिसे छिपाने की कोशिश करती हुयी बोली, मैं जानती थी,तुम यही सवाल करोगे मुझसे...।
उसकी बात,बीच में ही काटते हुए युवक ने कहा— मैं ही क्यों,हर कोई ऐसी स्थिति में ऐसा ही सवाल करेगा। जानना चाहेगा।- कुछ ठहरकर चौंकता हुआ सा पुनः बोला- मैं तो पहले ही तुमसे पूछने वाला था,कि तुम्हारा नाम क्या है,रहती कहाँ हो,यहाँ अचानक बीच जंगल में कहाँ से आ टपकी ?
 हाँ..हाँ..कुछ और सवाल करो। तुम्हारे हर सवाल का जवाब देने को तो मैं यहाँ बैठी ही हूँ।- मुस्कुराहट को दबाने का प्रयास करती,खिसियानी-सी सूरत बनाकर,युवती ने कहा-   तुम तो मेरे बारे में सारा कुछ जान जाना चाहते हो,मगर अपने बारे में एक जरा सी बात बतलाने में इतनी पैंतराबाजी कर रहे हो। याद न आने का ढकोसला कर रहे हो।
   बात तो तुम बिलकुल सही कहती हो सोलहो आने सच। मैंने अभी तक अपना नाम नहीं बतलाया,परन्तु तुमने पूछा भी कहाँ,अब पूछ रही हो,तो बतला देना जरुरी हो गया। मगर
हाँ,एक बात है...।- युवक अचानक चुप होकर कुछ सोचने लगा।
क्या ? - मुस्कुराती हुयी युवती युवक की ओर देखती हुयी बोली।
 यही कि क्या नाम बतलाऊँ।- युवक ने बड़े भोलेपन से कहा।
 वाह! ”—हाथ मटकाती हुयी, युवती बोली -  “ अजीब हो बाबू ! तुम्हारी बकवास का कोई जवाब नहीं। क्यों नहीं कहते कि नाम भी मैं ही बतला दूं तुम्हारा l
 नहीं नहीं, सो बात नहीं।- सिर हिलाते हुए युवक ने कहा, बात दरअसल ये है कि मैं सोच रहा हूँ कि कौन सा नाम बतलाऊँ।
 कौन सा नाम? -युवती मुस्कुरा पड़ी, क्या देवताओं की तरह तुम्हारे नामों की भी हजारा माला है क्या ?
 नहीं भई,नहीं।- युवक गम्भीर मुस्कान सहित बोला, हजारा माला की बात नहीं। फिर भी इतना जरुर है कि मेरे कई नाम हैं।
 तो उन्हीं नामों में से किसी एक को कह डालो,जिसे कहने में आसानी हो।- युवती के स्वर में व्यंग्य था।
वह भी सोचने वाली बात है। पिताजी ने आजतक कभी नाम लेकर पुकारा ही नहीं,क्यों कि उनका बड़ा और छोड़ा बेटा इकलौता मैं ही हूँ। बेटी भी नहीं है। पंडित लोग कहते हैं कि बड़े बेटे का नाम लेकर पुकारने से उसकी आयु-क्षय होती है। माँ की नजर में चौबीस साल का हो जाने पर भी अभी मुन्ना ही हूँ। यार-दोस्त का कोई ठिकाना नहीं,कोई कुछ तो कोई कुछ नाम लेकर पुकार लेता है। हाँ, एक है लंगोटिया यार अजय,जो मुझे हमेशा ‘मित’ कहकर ही पुकारता है। हो सकता है मेरा नाम मित हो। वैसे हमारे प्रियजनों ने और भी एक-दो नाम रखे थे,पर उसे अब कहना ना कहना बराबर है।- लम्बी सांस छोडते हुए युवक ने कहा- मगर यह जो अभी-अभी तुमने पतिया में लिखवाई- पलटलनाँ बाबू,सो किसका नाम...?
 अच्छी बकवास है।- युवक के नाम की लम्बी दास्तान सुन,युवती खिलखिला कर हँस पड़ी। कुत्ते की दुम ! ”- होठों ही होठों में बुदबुदायी, और फिर बोली- तो तुम इतने भोले हो बाबू,या कि जानबूझकर मुझ गंवार-देहातन के सामने भोलापन का ढोंग रच रहे हो? क्या तुम्हें यह भी नहीं मालूम है बाबू कि एक तरह के नामों वाले दो यार-दोस्त एक दूसरे को नाम लेकर नहीं पुकारते,वल्कि मित कहा करते हैं? अजय जब तुम्हें मित कहता है,तो इसका मतलब है कि तुम्हारा नाम भी अजय ही है।
 हो सकता है। तुम कहती हो मान लेता हूँ।- सिर हिलाकर युवक ने अपना नाम अजय होना स्वीकार किया।
 हो सकता है नहीं, वल्कि है ही यही नाम तुम्हारा। तुम अजय ही हो। खैर,तुम जो भी हो,अजय रहो या विजय मुझे इससे क्या लेना-देना,वस,काम से काम है। कहो लिख दे रहे हो मेरी पतिया या कि मैं चलूँ?- फिर से उठकर चलने का भाव बनाती हुयी युवती बोली।
 अरे..ऽ..रे..रे..ऽ.. !  ऐसा न करो।- हाथ बढ़कर युवक यानी अजय ने कहा, मैंने कब कहा कि तुम्हारा काम मैं नहीं करुँगा। उसके लिए तो मैं बैठा ही हूँ- कागज-कलम लेकर, वस तुम्हारे आदेश की देर है। पर हाँ,यह तो अवश्य बतलाना होगा कि...
फिर वही बात।- यवती बीच में ही बोल पड़ी- कुत्ते की दुम-सी क्या बातें करते हो बाबू ! बार-बार एक ही रट। हालाकि,जब तुम इतना बेचैन हो तो मैं बतला ही दे रही हूँ। मगर जान लो कि पूरी तरह से यह जानने के बाद कि कौन है पलटनवां और कौन है मतिया, क्या सम्बन्ध है उन दोनों में,बात बहुत लम्बी करनी पड़ेगी। और फिर हो सकता है कि लम्बी बात के बाद तुम पतिया लिखना ही न चाहो या कि...।
  अजीब बात है तुम्हारी भी। यह तुम कैसे कह सकती हो कि पूरी बात जना देने पर तुम लिखवाओगी पतिया,और मैं लिखूंगा नहीं ? आँखिर इसी शर्त पर तो तुमने मेरा रास्ता बतलाना कबूल किया है। मुझे अपनी मंजिल तो ढूढ़नी है न,तो झक मारकर मुझे तुम्हारी पतिया लिखनी ही पड़ेगी। ना विश्वास हो तो कहो कसम खा लेता हूँ,तब तो मानोगी न?
  खैर,कसम-वसम की जरुरत नहीं है। सब कुछ जान लेने के बाद तुम मेरा काम करो ना करो,तुम जानों। मैं अपने वायदे से पीछे नहीं हटने वाली। पतिया ना भी लिखोगे, तो भी मैं तुम्हें तुम्हारी मंजिल तक पहुँचाने का जहाँ तक बन पड़ेगा,कोशिश तो करुंगी ही।
  वही तो मुझे भी लग रहा है,क्यों कि औरतें बहुत दयालु हुआ करती हैं। निश्चित ही तुम मुझे इस घनघोर जंगल से बाहर जरुर निकाल दोगी।
  हाँ बाबूइसके लिए तुम इत्मिनान रहो। बेवफा तो मर्द हुआ करते हैं,औरतें नहीं। मैं पूरी बात भी तुम्हें बताये देती हूँ,और बाद में पतिया लिखो न लिखो,तुम्हारा काम तो मैं कर दूंगी।- कहती हुयी युवती, पलथी मारकर पत्थर के ढोंके पर इत्मिनान से बैठ गयी।
सामने के ढोंके पर बैठा युवक,जिसका नाम अब स्पष्ट हो चुका है- अजय गौर से युवती के भोले मुखड़े को निहारने लगा,जिसमें कुरुपता के बावजूद अजीब-सा आकर्षण लग रहा था उसे। उसने देखा- बड़ी-बड़ी आँखें- कलमी आम की फांकों सी,शुभ्र धवल पपोटों के बीच भ्रमररानी-सी बैठी काली पुतली,जिसके बीच में गोल परदे पर अपना ही चित्र। इस दृश्य को युवक अजय कुछ देर तक ठगा सा देखता ही रह गया। ऐसा लगा मानों वह उन झील सी आँखों की गहराई में उतर कर डुबकी लगाना चाह रहा हो।
युवती कहने लगी। युवक सुनने लगा। हरी-हरी घांसों से पेट फुलाये भेंड़ वहीं पास ही सट कर वैठा पागुर करने लगा। मतिया और पलटनवां बाबू की कहानी चल पड़ी।
“  हाँ, तो सुनो बाबू ! ध्यान से सुनो। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक गांव है,जिसका नाम है गुजरिया। जंगली गवारों का गांव है बाबू। गांव कहने में भी थोड़ी हिचक होगी,कारण कि कुल मिलाकर वीस-पचीस परिवार ही बसते हैं गुजरिया में।
  सुनने में आता है कि वहाँ से कुछ दूर करीब दो-तीन मील पर फिरंगी साहब का एक बंगला था किसी जमाने में। दूर-दराज देहातों से वीस-पचीस मजदूर बुलाकर वह साहब अपने यहां काम पर हमेशा लगाये रहता था। फिर उन करिन्दों के लिए ही अपनी कोठी के आहाते में अमराइयों के बीच कुछ कोठरियां बनवा दी,और तब अपने बीबी-बच्चे सहित काम करने वाले मजदूर वहीं आ बसे,अपनी झुग्गी-झोपड़ी छोड़कर- बंगले के अहाते में ही।
मजदूरों का काम था- सारा दिन जंगलों की खाक छान, जंगली सामान- लाह,मधु, जड़ी-बूटियां आदि इकट्ठा करना,और शाम को साहब के आगे नजर कर देना। बदले में साहव उन्हें दो जून की रोटियां दे दिया करता, कभी कुछ कपड़े-वपड़े भी। इसी तरह उन वनवासी गरीबों का काम चलता रहा,और उधर फिरंगी साहब भी मोटा होता रहा।
 मजदूरों में ही एक की बेटी थी- नाम था जुगरिया। एक दफा जब वह बीमार थी, काम पर जाने से लाचार अपनी कोठरी में ही पड़ी रही। मां-बाप सभी चले गए काम पर। अकेली रह गई जुगरिया।
 और उस अकेलेपन का नाजायज फायदा उठाया बूढ़े फिरंगी ने। उस पर भूत सवार हो गया जवानी का। उस भूत ने क्या कुछ नहीं किया बीमार बेचारी जुगरिया के साथ। यहाँ तक कि वह अधमरी सी हो गई,तब कहीं जाकर साहब का नशा उतरा। साहव ने जेब से निकाली एक छोटी सी थैली,जो खन-खन कर रही थी।
““ ले जुगरिया इस थैली को। इससे तुम्हारा काम बहुत दिनों तक बड़े सुख-चैन से चलेगा।पर जुगरिया ने आव देखा ना ताव। साहब के हाथ से थैली झपटकर,उन्हीं के मुंह पर दे मारी, ले जाओ कुत्ते,हम गरीबों का खून चूस कर उसे ही चारा बनाते हो नई मछली फंसाने का?
 जुगरिया की नाराजगी पर फिरंगी नें बहुत समझाया-बुझाया,आरजू-मिन्नत भी किया- देख जुगरिया,बात जहाँ की तहाँ रहने दे। क्या समझती हो,शोर-शराबे से सिर्फ मेरा नुकसान होगा...हरगिज नहीं...असल बदनामी तो तुम्हारी होगी...
लेकिन जुगरिया ने एक न सुनी। साहब के हर प्रलोभन को ठुकराती गई।अन्त में क्रोध में आकर साहब ने कहा- थैली लेनी हो ले,या फेंक दे,मैं उसे उठाने भी नहीं जा रहा हूँ,और न अब अधिक खुशामद ही करुंगा। मगर एक बात कान खोल कर सुन ले- यदि किसी के कानों कान यह बात आगे बढ़ी,तो समझ लेना- न तेरी खैर है,और न तेरे माँ-बाप की। सबकी बोटी-बोटी काट कर अपने कुत्ते को खिला दूंगा। तुम जंगलियों की इतनी औकात हो गयी,जो...?
  इससे बुरा और क्या हो सकता है बाबू ?- आँखें मटकाती युवती बोली,- अपना नशा उतार,रुपल्लों का चुग्गा फेंक,गरज-तरज कर साहब अपनी हवेली में चला गया। सोचा होगा मामला ज्यों का त्यों रह जायेगा;किन्तु हुआ इसका ठीक उलटा ही..।
  होना ही चाहिए। दौलत के अन्धों ने गरीबों की जान और इज्जत को भी खिलौना समझ लिया है।- युवक अजय ने जुगरिया की कहानी में दिलचस्पी लेते हुए कहा।
  ठीक कहते हो बाबू ! मगर तुम भी तो दौलत वाले ही लगते हो,क्यों ,क्या मेरा अन्दाजा गलत है ?- युवती मुस्कुराई।
  सिर्फ दौलत वाला कह सकती हो,परन्तु दौलत से अन्धा नहीं हूँ,क्यों कि मेरी बाहर और भीतर की आँखें सही-सलामत हैं। खैर, फिर क्या हुआ आगे? जुगरिया के मां-वाप आए होंगे तो काफी हो-हंगामा हुआ होगा?- युवक ने पूछा।
  हंगामा तो मचेगा ही बाबू । काम पर से वापस आते ही सारी बात बतला दी जुगरिया ने अपने मां-बाप को। सुनते ही वनवासियों का खून खौल उठा।- युवती ने कहा- हमलोगों का वदन जरुर काला है बाबू, मगर जान रखो इसके भी रगों में लाल लहू की ही धार बहा करती है।
  सो तो है ही। हर इन्सान के भीतर लहू तो लाल ही होता है न,चाहे वो गोरा हो या काला,ऊँची जाति का हो या कि नीची जाति का,वैसे ये ऊँचा-नीचा सच पूछो तो कुछ होता जाता नहीं। ऊपर वाले ने तो सवको बराबर हाथ-पैर,आँख-नाक,कान,जीभ आदि दिये हैं। अब उनके इस्तेमाल में कोई कमी-बेसी हो तो बात और है। आदमी तो वस आदमी है। उस परमात्मा का ही हिस्सा,जो परमात्मा ही तो है? पत्थर का टुकड़ा मिट्टी तो हो नहीं सकता,कंकड़ भले कह लो।
युवक की बात पर युवती ने सिर हिलाकर हामी भरी,और जुगरिया की कहानी को आगे बढ़ाती हुयी बोली- रात थोड़ी और गहराई,और गहराया विकराल काल। विष में बुझाये गये तीर और कटार लेकर चार-पांच जन घुस गए फिरंगी साहब के बंगले में,और खटाखट खींचने लगे जवानी के भूत को बूढ़े साहव के शरीर से। आभागे को इतना मौका भी न मिला कि चिल-पों कर सके। थोड़ी देर में ही टें बोल गया। साहब को मार कर,वही बंगले में ही ठिकाने लगाकर, वापस आये लोग। मगर अफसोस, तब तक बेचारी जुगरिया भी दम तोड़ चुकी थी। पता नहीं, बीमारी के कारण या दानवी दुर्व्यवहार के कारण,या किसी अन्य कारण से। कारण जो भी रहा हो,सुबह होते ही जुगरिया का दाह संस्कार करके सबके सब चल पड़े उस बंगले को उजाड़-पुजाड़ कर,अपना बोरिया-विस्तर बाँध-बूंधकर।
  तब से यहां आ बसे। जुगरिया की याद में बस्ती बसाई। समय के साथ-साथ बदल कर वही बस्ती जुगरिया से गुजरिया हो गई।- इतना कहकर युवती पल भर को ठहर गयी।
  ओफ ! बड़ी ही दर्दनाक कहानी है इस गांव की। न जाने दुनियां में कैसे-कैसे लोग होते हैं। ठीक ही कहा गया है, धन से सबकुछ खरीदा जा सकता है,पर बुद्धि नहीं,और बुद्धि हो तभी आदमी मानव कहला सकता है,अन्यथा बिना पूंछ और सींग वाला जानवर ही तो है। सांढ़-भैंसों जैसा,जिस-तिस की लहलहाती खेत को बरबरता पूर्वक बरबाद करते चलना...।-युवक की बात को बीच में ही काटती हुयी युवती बोली, हाँ बाबू! ठीक ही कहते हो,मुये को जरा भी आदमियत से वास्ता नहीं था।
युवती के चेहरे पर अनेक तरह के भावों की रेखायें उभर और मिट रही थी। उसने आगे कहा- तुम तो बाबू इतना ही सुन कर घबराने लगे,और भी तो सुनो।
“   कहो,मैं तो बैठा ही सुनने को तुम्हारी सारी बातें। - अजय ने कहा।
  हां,तो मैं कह रही थी कि पास ही एक गांव है- गुजरिया। फिरंगी के बंगले को उजाड़ कर भागे लोगों की बस्ती। वहाँ से आए हुए परिवारों में अभी भी कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुयी है। शायद, पुराने लोगों ने एक-दो बच्चे ही जनमाये होंगे। वही वंश-वृक्ष अभी तक धीरे-धीरे फुनगता रहा है।
रोजी-रोटी के नाम पर आज भी गुजरिया वालों के लिए वही कुछ है- जंगलियों की रोजी भी जंगल ही तो होगा। कोई लकडी काटता है,कोई फल-फूल,कन्द-मूल ही बिटोरता है। कोई घास-पात को जड़ी-बूटी बतलाकर अपना धन्धा करता है। वैसे शहद बेंचना यहाँ वालों का मुख्य पेशा है।
पूरे गांव में एक ही घर है ऐसा,जो यह-वह नहीं करता। न हरे-भरे जंगली पेड़ों की हत्या करता है,और न निरीह मधु-मक्खियों की जमापूँजी छीनकर, हड़पता है। वह है कजुरी बुढ़िया का घर। बुढ़िया है तो बिलकुल गंवार सी,पर बात करती है पढ़ुओं का भी कान काटने वाली। कहती है- धन बिटोर-बिटोर कर क्या होना है? मुट्ठी भींच कर आये हैं,उसे भी खुली-खुली छोड़कर चले जाना है। तुम कहोगे बाबू कि आंखिर उसका गुजारा कैसे चलता होगा?
भगवान ने जनम दिया है तो करम भी बना ही दिया है बाबू। एक गड्ढा दिया है,तो उसे भरने का बहुत सारा उपाय भी सुझा दिया है किरपावान ने।- बुढ़िया दिन भर जंगल में इधर-उधर घूमती है। कुछ न कुछ दो-चार जंगली फल मिल ही जाते हैं। उसी से पेट भर जाता है। घास-फूस की झोपड़ी में घास-पत्ते के बिछावन पर चैन की नींद सो रहती है। परन्तु कुछ दिन बाद एक ऐसा समय आया,जब कि बुढ़िया की नींद अचानक हराम हो गयी।”— कुछ देर ठहर कर युवती बोली- उसकी एक नातिन है। बड़े प्यार से उसने उसका नाम रखा है- मतिया..।
 मतिया ? – इस नाम में न जाने कौन सा जादू था कि जब कभी भी उच्चरित होता,सामने बैठे युवक अजय को चौंका देता। इस बार भी चौंकते हुए कहा, तो तुम्हारा ही
नाम मतिया है ?
          अजय युवती के चेहरे पर गौर से देखने लगा,मानों किसी धुंधले चित्र को स्पष्ट रुप से देखने की कोशिश कर रहा हो,किन्तु उसके इस प्रश्न के साथ ही युवती झल्ला सी गयी।
           बीच में टोक-टाक करने की बड़ी बुरी लत है बाबू तुम्हारी। इसी टोक-टाक में मेरा काम अभी तक अटका हुआ है। जरा धीरज रखकर पहले सुन तो लो पूरी बात मेरी,जो मैं कह रही हूँ। फिर जी भर कर सवाल कर लेना।- मीठी झिड़की देती हुई युवती बोली।
“  अच्छा बाबा, कहो,जो भी कहना है। अब मैं आगे से हां-हूं भी नहीं करुंगा।- कहता हुआ अजय, अपनी बायीं हथेली पर गाल टिकाकर मौन हो निहारने लगा सामने बैठी शोख युवती के भोले मुखड़े को।
           हां-हां,तुम चुप ही रहो तो अच्छा है। बीच में टोक-टाक कर बात भी भुला देते हो,कि मैं क्या कह रही थी। मैं चाहती हूँ कि जल्दी से मतिया और पलटलवां बाबू की राम कहानी पूरी हो,और मैं अपनी पतिया लिखवा कर घर जाऊं,और तुम अपनी मंजिल। किसी तरह एक साथ हमदोनों का बेड़ा पार हो जाये।
          “  लो अब तो मैं बिलकुल ही चुप हो बैठ गया। कहो,जितनी जल्दी हो सके।-इसबार युवक को झिड़कने का मौका मिला।
          मुस्कुराती हुयी युवती बोली- हां तो मैं कह रही थी कजुरी बढ़िया की नातिन मतिया की बात। वह जो मतिया है न,अपनी नानी से भी दो पग आगे की बघारती है।
कहती है कि जीवन में रखा ही क्या है,वह तो बरसाती पानी में उठने वाले फफोले की तरह है। 
          
एक बार उसके गांव में भीख मांगते हुए साधुओं की टोली आयी। वे सभी सारंगी पर गाते थे- पानी केरा बुदबुदा असमानुस की जात,देखत ही छिप जायेगा,ज्यों तारा परभात... गीत की  भाषा बेचारी को उस दिन समझ आयी नहीं,किन्तु कुछ पढ़ुओं से पूछ-पाछ कर किसी तरह जान गयी थी गीत के भाव,और फिर तो ऐसा लगा कि कहने वाले ने खास इसी के लिए ही कहे हों वो बोल...अपने जीवन को पानी का बुदबुदा ही समझने लगी मतिया। एक तो अकल-ज्ञान की कमी,तिस पर भी बिल्कुल बेपरवाह थी वह वचपन से ही।
मतिया भेड़ पालती है। वह भी उसकी हजामत बनाने के लिए नहीं। रोंये का रोजगार करने के लिए नहीं। मतिया कहती है- सुन्दर बालों को मूंड़-माड़ कर देह से अलग कर देना कैसा लगेगा ? बनाने वाले ने कितना बढ़िया से सजाया-बनाया है। मुलायम बड़े-बड़े रोओं पर हाथ फेरती मतिया को बड़ा ही अजीब लगता है। कभी भेड़ को गोद में बिठा लेती,कभी कन्धे पर चढ़ा लेती। कुछ पूछ लेता कोई तो कहती- क्या हर्ज है,यह भी एक जीव ही है,फरक भर इतना ही है न कि हमारी तरह बोलता-चालता न हीं....य़े..
“  ...भेंड़ को लेकर मतिया दिनभर जंगल में घूमती। बीच-बीच में कभी-कभी सूखी पड़ी लकडियां मिल जाती तो उसे उठा लेती। हरी डाल को दातून के लिए भी तोड़ना गुनाह समझा उसने। कहती कि इसमें पाप लगता है। गिरे हुए तेन्द-पियार मिल जाते,तो उसे उठाकर आंचल में सहेज लेती। किसी दिन जरुरत से ज्यादा मिल जाता,तो उसे अगले दिन के लिए सहेजती नहीं,बल्कि अगल-बगल किसी को दे आती,बच्चों में बांट देती।
“  महुआ का मौसम आता। सारा गांव दिन फूटने से पहले ही बड़ी-बड़ी खंचिया लेकर चल पड़ता महुआ बाग की ओर महुआ बीनने। दो पहर होने तक,भर-भर खंचिया महुआ ले आते सभी। कच्चा खाते सो खाते ही,बाकी बचे सो सुखा कर रख छोड़ते आगे के लिए ; किन्तु मतिया ने कभी भी पाव-आध-सेर से ज्यादा महुआ नहीं बीना। सूखा महुआ तो उसके घर में एक दाना भी नहीं मिल सकता।
“  भेंड़ रखने का ढंग भी मतिया का निराला ही है। यह नहीं कि ढेर सारे भेंड़ पाले- गड़ेरियों की तरह। वस,सिर्फ एक भेंड़,वो भी मादा। भेंड़ का बच्चा होता,तो जब तक दूध पीता, मां-बच्चा दोनों साथ रहते मतिया के पास। इधर दूध बन्द हुआ,उधर दोनों में से एक की बिदाई- कभी मां की तो कभी बच्चे की। वह भी रकम के लोभ में बेचती नहीं थी। कहती -‘जीव का मोल अनमोल है,कोई क्या दाम देगा ? किसी जीव का?’ बस,दो में एक अपने पास रख लेती,और दूसरा किसी को दे डालती,यूं ही,जिस किस ने मांग दिया। बदले में कोई खुश होकर फटी-पुरानी धोती ही दे दी,कोई पाव भर भुजना ही...। उसी को पाकर मतिया फूली न समाती।
धीरे-धीरे मतिया बड़ी होती रही। उसकी मां तो दुनियां दिखाकर ही अपने धाम चली गयी थी। – आकाश की ओर उंगली उठा कर युवती ने कहा- मां का सुख नानी ही जो दे पायी सो दे पायी। बाप को बाघ खा गया था। उसका बाप बहुत ही हट्ठा-कट्ठा दवंग था- एक दम गबरु जवान...गज भर चौड़ी छाती,लगता कि खाट बिछाकर कोई सो जाये उस पर, काली घनी मूंछें,लम्बी-लम्बी दाढ़ी,सर के बाल और भी लम्बे,जिन्हें बांस की कंघी से करीने से सजाकर बड़ा-सा जूड़ा बना लेता मानो सेर भर का पत्थर बांध लिया हो सिर पर। कमर में मूंज की रस्सी,और उससे लिपटा बित्ते भर का भगवा,काला-कलूटा मुझसे भी थोड़ा ज्यादा ही रहा होगा। वैसे तो तुम देख ही रहे हो बाबू कि इधर के सभी लोग इसी रंग के हुआ करते हैं। कभी कभार कोई साफ रंग नजर भी आ जायेगा, पर हमलोग उसे अच्छा नहीं समझते। नानी ने ही मां और बाप दोनों का लाढ़ दिया मतिया को। भाई-बहन की कमी तो मानो खली ही नहीं। आस-पड़ोस में कितने ही बहिनापा जोड़ ली थी वह।
 क्या खलता उसे? जिसके मन में वसुधैवकुटुम्बकम् की भावना हो उसके लिए तो सारी धरती एक तरह की हो जाती है- क्या अपना क्या पराया...।- मतिया के चरित्र से प्रभावित युवक अजय ने कहा,जो कि देर से चुप बैठा कहानी सुनता जा रहा था,और साथ ही युवती की प्रत्येक भंगिमाओं का अपनी आंखों से रसपान करता जा रहा था।
अजय की बात को युवती समझ न सकी। अतः पूछना पड़ा- यह वसुधेवकुटुम्बक क्या होता है बाबू?
 कहने का मतलब यह है कि सारी वसुधा यानी पृथ्वी यानी धरती यानी जमीन अपने कुटुम्ब यानी सगे-सम्बन्धियों के समान मालूम पड़े, जिसे हर जीव के प्रति दया और  प्रेम की भावना हो हृदय में,उसके लिये क्या अपना और क्या पराया?- अजय ने बात को स्पष्ट करते हुए पूछा- क्या तुम कुछ पढ़ी-लिखी भी हो?
अजय द्वारा व्यक्तिगत प्रश्न पूछे जाने पर युवती फिर एक बार चिहुंकी।
“  मेरे बारे में क्या पूछते हो बाबू? मैं अपनी बात कहने लगूंगी तो फिर एक मुश्किल आ जायेगी,समय की बरबादी होगी,और हमारे-तुम्हारे काम में भी देर होगी। तुम्हें तो पहले मतिया की कहानी सुननी है। यह जानना है कि कौन है उसका पलटनवां बाबू,और फिर उसके बाद मुझे तुमसे पतिया लिखवानी है।-अपने बारे में कुछ स्पष्ट करने से मुकरती युवती ने कहा।
मतिया के साथ जुड़ा हुआ पलटनवांबाबू का सम्बन्ध,पल भर के लिए युवक को फिर झकझोर गया। कुछ विचारने की मुद्रा में आँखें संकुचित हो आयी। चेहरे पर कई सिकुड़न उभरे। याददाश्त की खुजली मिटाने का प्रयास किया। किन्तु कुछ काम न आया। कुछ भी ध्यान न आया- कहां सुना है,कब सुना है,किससे सुना है,यह प्यारा सा नाम- पलटनवांबाबू! सुना भी है,या यूं ही लग रहा है- कुछ समझ न आया।

क्रमशः..... 

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