अधूरीपतिया भाग 3

गतांश से आगे..... अधूरीपतिया भाग 3 (पेज-50तक)

फलतः बोला- सुनाओ जो सुना रही हो। नहीं पूछूंगा तुम्हारे बारे में। मगर हां,तुम्हें क्या कुछ और काम-बाम नहीं है,जो यहां बैठी कहानी सुना रही हो?
मुस्कुराती हुयी युवती बोली- काम क्या है बाबू! मेरे पास भी यही एक भेड़ है। इसे लेकर निकल पड़ती हूँ, जंगल में घूमने-घुमाने,और यह भी तो एक काम ही है न? और हां, तुम्हें कहानी इसलिए सुना रही हूं,क्यों कि तुमसे पतिया जो लिखवानी है,और तुम हो कि बिना कहानी सुने लिखने को राजी नहीं हो।कितने दिनों से इन्तजार कर रही थी,कोई तुम जैसा पढ़ुआ आदमी मिले तो पतिया लिखवाऊँ। सनजोग से आज तुम मिले हो,तो लिखवावे बिना छोड़ूंगी थोड़े जो। पर तुम भी हो बड़े चतुर चालाक।’
रुठने सा मुंह बनाकर युवती देखने लगी युवक के चेहरे पर। कुछ गौर करने पर उसे महसूस हुआ कि युवक कुछ उदास है,हो सकता है उसे भूख लगी हो। ऊपर आसमान की ओर नजरें उठा कर देखा उसने एकबार,समय का अन्दाजा लगाने के लिए,फिर युवक की ओर देखती हुयी बोली, अच्छा बाबू, ये तो कहो अभी तक तुमने कुछ खाया-पीया या नहीं? दिन इतना चढ़ आया है।
          युवती की बात सुनकर युवक ने गहरी सांस ली। सिर और दाढ़ी पर हाथ फेरा। आँखें नचा,नाक सिकोड़,मुंह मिचका कर कुछ सोचता रहा थोड़ी देर तक,फिर बोला, मुझे ठीक से याद नहीं आ रही है,आज सबेरे से कुछ खाया भी हूँ या नहीं। दो दिन पहले की बात तो याद है,जब कि जंगल में भटकते हुए तुम्हारे ही तरह के एक आदमी से मुलाकात हुयी थी। मुझे भूखा-प्यासा जानकर वह अपनी झोंपड़ी में ले गया। वहां जाने पर मड़ुए की दो रोटियां दी थी,जिसे खाकर सोते का पानी पीया,जो उसकी झोंपड़ी के करीब ही था,और वापस आकर उसी झोंपड़ी में पसर गया। कारण कि बिलकुल लाचार हो गया था चलने-फिरने से। पिंडलियों में बहुत दर्द हो रहा था। रात गुजर गई। सुबह उठते ही वह कहीं चल दिया मुझे जगाकर। मुझे भी चल देना पड़ा लाचार होकर वहां से। उससे भी मैंने बहुत कोशिश की कुछ पूछपाछ करने की,किन्तु उसकी बात न मैं समझ पा रहा था और वह मेरी बात। मैं जब भी कुछ पूझता तो वह दांत निपोर कर खां-खीं कर देता। उसके पीले-पीले गन्दे दांतों से गुजर कर बाहर निकली बदबूदार हवा जब मेरे नथुनों में घुसी तो उबकाई आने लगी।
           तुम्हारी बातें कुछ समझ नहीं आती है बाबू. कभी तो तुम बड़े होशियार सी बातें करते हो। मतिया को बसुधेवकुटुम्बक कहते हो,और कभी पागल सी हरकत करने लगते हो। आज सुबह से कुछ खाये भी हो या नहीं- यह भी तुम्हें याद नहीं। —आश्चर्य की मुद्रा में हाथ हिलाती युवती सामने बैठे युवक के चेहरे पर गौर करती हुयी बोली,जहां दर्द भरी सिकन मौजूद थी, खाने न खाने की बात भले न याद आ रही हो,पर क्या तुम्हें यह भी समझ नहीं आरहा है कि तुम्हें भूख लगी है या नहीं ?
          युवती की बात सुनकर युवक थोड़ा मुस्कुराया। उसके साफ-सुथरे पंक्तिवद्ध दांत बड़े ही सुहावने लगे युवती को,जिसे देख कर वह भी कुछ सोचने की मुद्रा में हो गयी। युवक ने अपने कुरते को ऊपर उठाया। नंगे पेट पर हाथ फेरता हुआ बोला, यहां पर थोड़ा-थोड़ा गड़बड़ जरुर लग रहा है। लगता है भूख लगी है। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ,क्यों कि उस दिन भी ऐसा ही कुछ-कुछ गड़बड़ लग रहा था। जब मड़ुए की रोटी खाकर चार दोना पानी पीया,तब जाकर अच्छा लगा था।
          “  तो कुछ इन्तजाम करुं तुम्हारे खाने-पीने के लिए?- युवती ने प्रश्नवाचक दृष्टि युवक पर डाली,जो तेजी से हाथ फेरे जा रहा था अपने डफली से पिचके पेट पर।
            ठहरो-ठहरो! घबराने की बात नहीं।- पेट पर से हाथ हटा,कुरते की जेब टटोलते हुए युवक एकाएक बोल पड़ा,मानो अलाउदीन का चिराग मिल गया है,  “ ठहरो,मुझे याद आरही है...
          युवती सूनी निगाहों से उसे देखती रही। दांयी-बांयी जेबें टटोलकर युवक ने एक में से दो बिस्कुट,और दूसरी में से आधी सूखी रोटी निकाली। हाथ में मिठाई और खिलौने लिए हुए बच्चे की तरह थिरकते हुए बोला, ये देखो...ये देखो,मैं कह रहा था न कि मेरे पास कुछ न कुछ है खाने को जरुर। उस दिन एक और आधी रोटी ही खायी थी मैंने,नालायक पेट उतने में भर गया,बाकी बची आधी रोटी अभी तक पड़ी है। किसी सुन्दर दर्शनीय वस्तु की तरह उलट-पुलट कर दोनों बिस्कुटों को देखता हुआ पुनः बोला, और यह जो देख रही हो- दोनों बिस्कुट...आह कितना बढ़िया है...- युवती ने देखा- उस पर दो-चार चींटिंयां रेंग रहीं थी,जो बिस्कुट का काफी भाग हजम कर चुकी थी।
          ....जानती हो,इसे एक बाबू ने दिया था,बहुत दूर उधर...- एक ओर हाथ का इशारा बताते हुए अजय ने कहा,  .... जंगल में ही। वह जंगल का ठेकेदार था।
          युवती सूखी हँसी हँसकर युवक की आँखों में झांकती हुई कुछ बुदबुदाने लगी,जिस पर युवक ने जरा भी ध्यान न दिया। चुपचाप सूखी रोटी के टुकड़े को चबाने लगा। चबाने के क्रम में मुंह से दो बूंद लार टपककर सामने पड़े कागज पर फैल गयी।
          रोटी खाकर,बिस्कुट को जेब के हवाले किया,और होंठों पर लगी लार और अन्न के टुकड़ों को लम्बी जीभ निकाल कर चाटता हुआ बोला, अब मैं जरा पानी पी लेता...नजदीक में कहीं...?
          “  हां-हां,वस यहीं,इसी ढोके के बगल में ही एक पहाड़ी चश्मा है। पानी एकदम साफ है पीने लायक। चलो न मैं दिखा देती हूँ। – हाथ का इशारा करती हुई युवती उठ खड़ी हुई।
          “  नहीं..नहीं,तुम क्यों तकलीफ करती हो,बैठो,मैं अभी आया पानी पीकर।- कहता हुआ युवक शिला पर से उठ कर आगे बढ़ चला,जिधर के लिए युवती ने इशारा किया था। दो-तीन चलने के बाद,पीछे मुड़कर देखा- युवती वहीं खड़ी,उसे ही निहारे जा रही थी। युवक को कुछ सुभा हुआ। घबराकर वोला,    “ कहीं भाग न जाना। खड़ी क्यों हो ? बैठ जाओ। मैं अभी आया।
युवक की बात पर युवती मुस्कुराई- भागूंगी काहे को? - और बैठ गयी उसी ढोंके पर।
युवक आश्वस्त हो आगे बढ़ गया। युवती भेड़ के बदन पर हाथ फेरती रही। बीच-बीच में एक-दो बार उसका मुंह उठाकर चूम भी ली प्यार से।
          कोई दस मिनट बाद हाथ में एक दोना पकड़े,जिससे पानी की बूंदे टपक रही थी, उजय आया।
          “  लो तुम भी बिस्कुट खाकर पानी पी लो।- कहता हुआ दोना नीचे रखकर,जेब से बिस्कुट निकाल,युवती की ओर बढ़ा।
          युवक का हाथ अभी दूर ही था कि युवती छमक कर दूसरी ओर मुड़ गयी,मानों युवक के हाथ में बिस्कुट नहीं,बिजली का हण्टर हो,जिसके छुअन भर से ही वह बेहोश हो जायेगी।
          नहीं-नहीं,मुझे नहीं चाहिए यह सब। मैं खाती भी नहीं ये चीजें,रखलो,फिर कभी काम आयेगी।- हाथ हिलाकर मना करती हुयी युवती बोली।
          “  ठीक है,कोई बात नहीं। नहीं इच्छा है,तो मत खाओ,मेरे पास फालतू है भी नहीं,जो तुम्हें ज्यादा आग्रह करूँगा खाने के लिए।- कहते हुए युवक ने पुनः बिस्कुट अपनी जेब में डाल ली।
          युवती पूर्ववत सीधे घूम कर बैठ गयी। मुस्कुराती हुई बोली, वाह-वाह ! अच्छी खातिरदारी करते हो बाबू ! अच्छा अब तो गड़बड़ नहीं हो रहा है न तुम्हारे पेट में?
          नहीं। अब सब ठीक-ठाक है। अब सुनाओ,तुम क्या कुछ सुना रही हो।- कहता हुआ युवक पुनः उसी ढोंके पर इत्मीनान से बैठ गया पांव पसार कर,जहाँ पहले से बैठा था। पीछे एक सलई का पेड़ था। जरा पीछे की ओर पसर कर,उसी पेड़े से टेका लगा लिया,ताकि लम्बे समय तक आराम से बैठा जा सके। उसकी इस तरह बैठने की अदा ने सामने बैठी युवती को काफी आकृष्ट किया। थोड़ी देर तक भाव-विभोर सी हो,युवक के चेहरे पर एकटक देखती रही,फिर बोली, मैं कह रही थी कि मतिया को कजुरी बुढ़िया ने ही पाला-पोसा। गरीब निःसहाय नानी से भरपूर प्यार मिला। भेड़ के दूध पर पली मतिया तेंद-पियार और महुआ खाने लगी,और फिर एक दिन इस लायक हो गयी कि खुद ही जंगल में भेड़ चराने जा सके। नानी और नातिन का काम अलग-अलग चलने लगा। शोख चुलबुली मतिया धीरे- धीरे और फिर काफी तेजी से बड़ी होने लगी। इस बात का पता उसे एक दिन तब चला जब वह लकड़ी का बोझ सिर पर रखे,हांफती चली आरही नानी को आराम करने के लिए कह रही थी।
तुम अब जंगल-वंगल मत जाया करो नानी। कहीं गिर-पर जाओगी तो मुझे कौन देखेगा  ?  ”
मतिया की बात सुनकर सिर का गट्ठर ढ़ाबे में पटकती हुयी कजुरी नानी बोली-     वाह री नातिन मेरी,तो क्या मैं अमरत की घूँट पीकर आयी हूँ जो हर समय तुम्हें देखने को बैठी रहूँगी? अब देखती नहीं कि तू खुद सयानी हो गयी है। अपनी देखभाल तुझे खुद ही करना चाहिए। फिर एक दिन किसी और देखने वाले को हाथ पकड़ाकर मैं चैन की नींद सो जाऊँगी।
इधर कुछ दिनों से बुढ़िया ऐसी ही उल्टी-सीधी बातें कर रही थी,जो मतिया के गले नहीं उतर रही थी।
इसी तरह पहले भी एक दिन कहा था बुढ़िया नानी ने, सेरे छौआ पीन्धले सारी। अब ये भगौना-तगौना पीन्हें जंगल जाना ठीक नेईं आहे। फिर कहा था नानी ने कि कल ही गोरखुआ से कह कर कस्बे से मंगवाई है,नयी साड़ी मतिया के लिए। और फिर ढेर सारी बातें भी कह-समझा गयी थी मतिया को,जिसका मतलब था कि कैसे रहना चाहिए,कैसे बोलना चाहिए,कैसे चलना चाहिए...। किन्तु इतनी सारी बातों में मतिया सिर्फ इतना ही समझ पायी थी कि अब वह सयानी हो गई है। परन्तु सयानी कैसे हो गयी,क्यों हो गयी, किसने कर दिया उसे सयाना,क्यों कर दिया सयाना,कैसे मान लिया जाय कि वह सयानी हो ही गयी....बहुत सी बातें उसके दिमाग में घुमड़ती रही,बहुत से सवाल उटते रहे,परन्तु किसी का सही और सन्तोषजनक जबाब नहीं सूझा,और न किसी ने सुझाया ही उसे। अन्त में थक-हार कर मन मारे,भेड़ की रस्सी पकड़े सदा की भांति निकल पड़ी जंगल की ओर, उछलती कूदती भेड़ चराने।
आज तो नानी ने उससे भी दो डग आगे की बात कह दी थी- किसी देखने वाले को हाथ पकड़ा देने की बात।
किन्तु अब मतिया इतनी नादान भी नहीं थी,जो इतना भी नहीं समझ सकती कि नानी क्या कहना चाहती है,क्या सिखलाना चाहती है...। पिछले साल ही क्वार(आश्विन)में उसके उमर की ही एक छोरी का गौना हुआ था,और विदाई के समय गयी मतिया देर तक निहारती रही थी,उस छोरी के साथ सट कर बैठे छोरे को। आज जब नानी ने कहा था- हाथ पकड़ा देने की बात,तो मुंह में आंचल का कोर दबा,मुस्कुराती हुई भेड़ की पीठ सहलाने लगी थी मतिया।
युवती ने देखा, अजय बड़े मनोयोग पूर्वक मतिया की कहानी सुन रहा है। बीच-बीच में कभी अपनी लम्बी बेतरतीब दाढ़ी को सहला भी ले रहा है।
एक लम्बी सांस छोड़,युवती फिर सुनाने लगी, इसी तरह समय गुजरता गया। एक समय की बात है- मौसम बरसात का था। रोज की भांति उस दिन सुबह भी एक हाथ में भेड़ की बागडोर,और दूसरे बगल में गोंगो(जंगली पत्तियों से बना छतरी) दबाये,जिसे कल ही नानी ने ढेर सारे पत्ते लगाकर बनाया था, ले जा इसे,अब बरसात आने वाली है। हिफाजत से रखना,नहीं तो तोड़-ताड़ कर फेंक देना। देख तो मेरा गोंगो कई बरसात देख चुका,अभी ज्यों का त्यों है। –नानी की बात याद करती,मुस्कुराती हुई मतिया भेड़ चराने निकल पड़ी। हर रोज की भांति उस दिन भी दोपहर में खाने का सामान आंचल में बांध पीठ पर रख ली।
 अभी घर से थोड़ी ही दूर आगे निकली थी कि बूंदा-बांदी शुरु हो गयी। बगल में दबा गोंगो खोल कर सिर पर ओड़,आगे बढ़ती चली गयी घनघोर जंगल की ओर।
मतिया रुकी नहीं,और न रुका बादल और बरसात का जोर ही। हल्की बूंदा-बांदी के बाद मेघ का गर्जन-तर्जन और पानी की बौछार भयंकर झंझावात के साथ जारी रहा। तूफान के तेज झोंके में बड़े-बड़े दरख्त आपस में जूझ-जूझ कर थके-हारे लड़ाके की तरह जमीन पर सोने लगे थे। बेचारी लतायें सिर्फ किसी तरह अपनी जान बचा पायी थी। गोद में भेड़ को दबाये,सिर पर गोंगो ओढ़े,एक बड़े से ढोंके की आड़ में बेचारी मतिया दुबकी बैठी रही। इन्तजार करती रही तूफान थमने का।
          “  कोई घड़ी भर बाद बादल और बरसात का जोर थमा। लूटपाट मचाने वाले डाकू की तरह तूफान एक ओर से आया और दूसरी ओर चला गया। तब रस्सी पकड़े भेंड़ के पीछे-पीछे मतिया भी चल पड़ी, अपने रोजमर्रा के काम पर।
          काफी दूर जाने पर भेलवा के एक पेड़ के पास चट्टान पर बैठकर थोड़ा आराम करने को सोची। अभी वह बैठना ही चाह रही थी कि भेड़ रस्सी खींचने लगा। लोग कहते हैं कि जानवरों की नाक बड़ी तेज होती है,शेर-कुत्ते आदि में तो इस बात की प्रसिद्धि है ही, मगर दूसरे जानवरों में भी कमोवेश देखा जाता है यह गुर। मतिया का भेड़ भी इस गुन में माहिर है। पहले तो मतिया ने रस्सी खींच भेंड़ को रोकना चाही,किन्तु जब अधिक जोर लगाने लगी,और साथ ही मिमियाने भी लगी तो उसकी इच्छा जानने के लिए बागडोर ढीली छोड़,खुद भी उसके पीछे होली।
           कुछ दूर तक भेड़ यूं ही ऊंई-ऊँई करती हुयी,जमीन से नथुना सटाए चलती रही,पर आगे बढ़कर अचानक एक ढोंके की ओर मुड़कर दौड़ पड़ी। कारण जानने को इच्छुक मतिया भी पीछे-पीछे दौड़ पड़ी। छोटे-छोटे दो-चार ढोंके पार करने के बाद,एक झुरमुट मिला, और उसके बाद एक बड़े से ढोंके की आड़ में पहुंचकर भेड़  अचानक ठहर गयी। पीछा करती मतिया को भी वहीं रुक जाना पड़ा।
           वहाँ पहुँचकर जो कुछ भी उसने देखा,उससे उसकी हेकड़ी गुम हो गई, ‘ मां..गो..’ लम्बी चीख मार कर एकबारगी जड़ हो गयी मतिया...।
          युवती का इतना कहना था कि युवक अजय चौंक पड़ा,मानों मतिया के साथ-साथ उसने भी कुछ आश्चर्यजनक चीज देख ली हो। सिर खुजलाते हुए होंठ चबाने लगा।
 क्यों क्या हुआ,चौंक क्यों पड़े?- युवती ने अजय के चेहरे पर गौर से देखते हुए पूछा। उसने देखा, युवक का चेहरा बदरंग सा हो गया था,और तरह-तरह के भावों का उतार-चढ़ाव भी जारी था।
  कोई बात नहीं,कहती जाओ।- अजय ने गहरी सांस लेते हुए थोड़ा सम्हल कर बैठते हुए बोला- क्या कोई जंगली जानवर...?
  नहीं बाबू,नहीं। - युवती बोली- जंगली जानवर होता तब बात ही क्या थी। था तो जानवर ही,मगर दो पैरों वाला,बिना पूंछ और सींग वाला,वो भी कोट-पतलून पहने हुए।
आदमी को बिना पूंछ-सींग वाला जानवर कहने के कारण अजय मुस्कुरा दिया-     अच्छी परिभाषा दी तुमने इन्सान की।
 तो क्या गलत कह रही हूँ बाबू? आदमी और जानवर में बहुत थोड़ा-सा फर्क है- बस,एक को बुद्धि है,और दूसरे को नहीं है।- युवती गम्भीर होकर बोली।
 तो क्या उस आदमी को भी बुद्धि नहीं थी,जो तुम बिना पूंछ-सींग का जानवर कह रही हो?- अजय ने पूछा।
 फिर तुमने बीच में एक नया सवाल पैदा कर दिया बाबू। उस आदमी को बुद्धि थी या नहीं,यह तो आगे की बातों से खुद ही पता चल जायेगा। पहले सुनो तो शान्ति से हमारी बात- यानी कि मतिया की कहानी।- बनावटी क्रोध दिखलाती हुई युवती बोली।
 कहो भई,कहो। मैं नहीं पूछता कुछ।- युवक के कहने पर युवती पुनः कहानी आगे बढ़ायी।
 ….वहाँ पहुँचकर मतिया देखती क्या है कि चट्टान के नीचे झरबेरी की कंटीली झाड़ी में पड़ा है एक बाबू। लिवास बिल्कुल शहरी जैसा- कोट,पतलून,टोपी भी सिर पर,जो  कि बगल में गिरी पड़ी थी- सबके-सब बिलकुल सब्ज- पत्ते जैसी। हरे-हरे पत्तों के साथ यदि उन कपड़ों को रख दिया जाय बाबू,तो जरा भी पता न चले कि यहां कोई कपड़ा भी है,फिर उसे पहनने वाले का क्या पता चलेगा? किन्तु बरसात के वजह से सबके-सब सराबोर। दांये हाथ की दो अंगुलियों में चमचमाती हुयी अंगूठियां भी थी। एक और अंगूठी,कुछ कम चमकीली,बायें हाथ की बड़ी अंगुली में भी पड़ी थी। पीठ के नीचे तकिया की तरह एक थैली दबी थी,जिसमें कुछ सामान वगैरह मौजूद था। कमर में चमड़े की चौड़ी पट्टी बंधी हुयी थी,जिसमें छोटी-छोटी अंगुलियों जैसी कोई चीज खोंसी हुयी थी,देखने में लगता था कि पीतल या तांबें की बनी हुयी हैं।
मतिया ने गौर से देखा एक बार उस पट्टी को, और फिर उस थैली को भी,जिसका कपड़ा सामान्य से बिलकुल अलग किस्म का था। बाद में उस गंवारन को पता चला कि कपड़ा रौगनी था,और पट्टी में खुसी हुयी पीपल की चीज,वास्तव में बन्दूक की गोलियां थी।
 ऐं...बन्दूक की गोलियां?- अजय ने चौंक कर कहा- इसका मतलब कि वह आदमी कोई शिकारी रहा होगा?
इतना कहकर युवक मौन हो गया। उसके चेहरे पर रंजोगम की परछाइयां चहलकदमी करने लगी। कुछ सोचने सी मुद्रा में गाल पर हाथ धर कर युवती के चेहरे को गौर से देखने लगा। कभी-कभी लम्बी सांस लेता-छोड़ता,कभी सिर के बाल मुट्ठी में भरकर नोंचने लगता। जेब में पड़ा,साड़ी का टुकड़ा निकाल कर बार-बार अपने चेहरे को पोंछता।
कुछ देर तक बह इसी तरह की हरकतें करते रहा। युवती भी बिना कुछ टोक-टाक किए,चुप बैठी उसकी भाव-भंगिमाओं को देखती रही। अन्त में मुस्कुराती हुयी बोली- बाबू! तुम तो बहुत तेज दिमाग वाले हो। मेरे कहने के पहले ही तुम समझ गये कि वह आदमी कोई शिकारी था।
इसमें दिमाग की तेजी-मंदी की क्या बात है? जंगल में भटक रहा था। बन्दूक की गोलियों की पट्टी मौजूद थी कमर में,वेशभूषा भी शिकारियों जैसी ही थी,फिर शक ही क्या रह जाता है- उसके शिकारी न होने में?
हां बाबू ! –युवती बीच में ही बोली- मतिया को भी बाद में पता चला। वैसे उस समय उसके पास केवल गोलियों का पट्टा ही था,बन्दूक का कहीं अता-पता नहीं।
 हो सकता है,तूफान की चपेट में पड़कर बन्दूक कहीं गंवा बैठा हो।-युवक बोला।
ठीक कहते हो बाबू।-युवती ने उसकी हां में हां मिलाते हुये कहा- उस समय उसके पास पहुंचकर मतिया भौंचंकी खड़ी देखती रह गयी कुछ देर तक,एकाएक जंगल में उस बाबू को इस अवस्था में पाकर। उधर उसकी भेड़ भी कुईं-कुईं करती,सूंघती रही बाबू के सिर को।
 क्या ज्यादा चुटीला हो गया था वह शिकारी?-अजय में उत्सुकता प्रकट की।
हां बाबू! चुटीला तो हो ही गया था,बहुत चुटीला। कुछ देर के सोच-विचार के बाद मतिया ने किसी तरह उसे उठा कर कटीली झाड़ियों से अलग किया। पूरे बदन में झरबेरी के छोटे-छोटे कांटे चुभ गए थे। कपड़े जहां-तहां से काफी फट चुके थे। माथे पर गहरी दरार-सी थी,जहां से रिसरिस कर अभी भी लहू निकल रहा था। कुछ जमा हुआ लहू भी था। गौर से देखने पर मालूम हुआ- सांस धीमी-धीमी चल रही है।
युवती से कहानी सुनता युवक पुनः गम्भीर हो गया। ऊपर के दांतो से निचला होंठ काटते हुए कुछ देर तक आँखें सिकोड़कर,सोचता रहा,फिर युवती की ओर गहरी नजर डालते हुए पूछा- अच्छा...पर तुमने तो वताया नहीं कि उस शिकारी की उम्र क्या थी?”
युवक की बात पर युवती मुस्कुरायी। एकबार ऊपर से नीचे तक नजरें दौड़ाई अजय के चेहरे पर- सोचने सी भंगिमा में,जो बार-बार आस्तीन से ही पसीना पोंछे जा रहा था। फिर बोली- सो तो बता ही रही हूँ बाबू ! तुम इतना अधीर क्यों हो रहे हो? उस चुटीले शिकारी को युवक ही समझो। उमर तो तुम्हारे ही करीब होगी बाबू- यही कोई बरस-दो बरस छोटा होगा,जितना तुम अभी हो...क्यों ठीक कह रही हूँ न?-कुछ ठहर कर युवक के आंखों में झांकती हुयी बाली- ...पर कट-काठी से काफी दबंग था,तुमसे दूना नहीं तो ड्योढ़ा तो जरुर रहा होगा। मैं समझती हूं कि यदि वह कस कर फूंक मार दे,तो तुम जैसा आदमी तो पत्ते सा उड़ जाय।
युवती खिलखिला पड़ी,जब कि युवक का चेहरा न जाने क्यों रुंआसा हो रहा था। उसकी स्थिति देख युवती देर तक हंसती रही,जिससे चिढ़कर युवक को कहना पड़ा- इसमें हंसने की कौन सी बात है? तुम चुपचाप कहानी कहती जाओ मतिया की।
युवती कुछ देर और हंसती रही,फिर बोली- बेचारी मतिया थोड़ी देर तक खड़ी सोचती रही कि ऐसे नाजुक वक्त में उसे क्या करना चाहिए...क्या करे..क्या न करे...यह तो सही है कि बेचारा तूफान की चपेट में फंस गया है...छोड़ जाऊँ तो कोई जानवर चट कर जायेगा...या फिर दर्द में दम तोड़ दे...किन्तु करे तो क्या करे...अकेली औरत जात...अगल-बगल कोई सहारा भी नहीं...ऊपर से,सिर पर मडराते फिर से बरसने को बेताब काले घनेरे बादल...घनघोर जंगल...और फिर दिन भी तो....
इसी तरह सोच-विचार करती मतिया उस युवक के पास ही उकड़ू बैठते हुए, नब्ज टटोली,अपना सिर खुजाती हुयी,फिर कुछ सोचने लगी। अचानक कुछ विचार आया मन में,जिससे खुशी की लहरें दौड़ गयी उसके चेहरे पर,और झट उठ खड़ी हुयी। भेड़ को वहीं छोड़,बढ़ चली एक ओर।
जंगली रहन-सहन की वजह से कुछ जंगली जड़ी-बूटियों के बारे में जरुर जानती थी। कहीं से खोज-खाजकर एक बूटी उखाड़ लायी। हथेली पर मसल-मसल कर रस निचोड़ी,और युवक के खुले मुंह में दो-चार बूंदे टपका दी। बची हुयी सिट्ठी को माथे की फटी दरार में भर कर,अपनी धोती का किनारा फाड़कर,ऊपर से कसकर पट्टी बांध दी,और फिर वहीं पास में एक चट्टान पर इत्मिनान से बैठ गयी। बैठ गयी,सो बैठ गयी। घंटों बैठी रही। बीच-बीच में उसी बूटी को मसल-मसल कर रस टपकाती रही युवक के मुंह में।
 इसका मतलब है कि बड़ी साहसी थी मतिया,और होशियार भी।- अजय ने कहा।
 हां बाबू! - सिर हिलाती हुयी मतिया बोली- सिर्फ साहसी और होशियार ही नहीं,बल्कि दयालु भी कहो बाबू। कहाँ पाते हो आजकल के लोगों में दया-वया? कोई अनजान मुसाफिर पड़ा कराह रहा हो,तो उसे देखकर कितने लोगों के मन में दया उमड़ती है? तमाशायी की तरह एक नजर देख भर लेते हैं,और नांक-भौं सिकोड़कर अपने रास्ते चल देते हैं। सोचते हैं क्यों वखत बरबात करें किसी और के लिए। लोगों को समय का मोल केवल तभी समझ आता है,जब दया-ममता खरज करने की बारी आती है,बाकी समय तो...किन्तु हम जंगली लोगों को समय का यह मोल मालूम नहीं है। अपना हो या परया, जान हो या अनजान,आदमी हो या जानवर,दुःख-दर्द किसी का देखा नहीं जाता,और चट जुट जाते हैं मदद को। क्या ही अच्छा होता ऐसे ही सोच वाले सभी होते...।
 हां-हां,क्यों नहीं। मानव-धर्म तो यही है,किन्तु धर्म-अधर्म की बात सोचना-समझना और फिर उसे समय पर व्यवहार में लाना बहुत कम ही लोग जानते हैं। तुम ठीक ही कह रही हो,तमाशबीन भर होते हैं लोग। दूसरे की मदद करना तो दूर,ऊपर से चाव लेने में महिर। बहुत लोग तो ऐसे होते हैं,जो औरों की विपत्ति में भी आनन्द महसूस करते हैं। यह भूल जाते हैं कि कभी ऐसी आफत उन पर भी आसकती है। काश ! ऐसा होता, पराये दर्द की पीड़ा हरकोई को महसूस होता...।- युवक भाउकता वश बहुत सी बातें कह गया।
युवती चुप बैठी,उसे निहारते हुए सोचती रही- क्या कोई कह सकता है कि यह पागल या भुल्लक्कड़ इन्सान है? कुछ देर तक उसकी बातें सुनती रही, और सोचती रही उसीके बारे में ,फिर बोली- तुम भी तो गियान वाली बहुत सी बातें कर लेते हो बाबू,किन्तु अपने बारे में तुम्हारी अकल कहां चरने चली जाती है?
इसके उत्तर में अजय कुछ बोला नहीं। युवती का मुंह देखते हुए मुस्कुरा भर दिया।
तुम धरम-करम की बात करते हो बाबू । मैं पढ़ी-लिखी तो नहीं हूँ,ये धरम-वरम क्या होता है,मैं नहीं जानती,पर इतना जरुर जानती हूँ कि ये सब पढ़ुओं की पोथी की चीज नहीं है। धरम तो आदमी के अन्दर में होता है। आदमी के भीतर में भी एक आदमी होता है...- अपने हृदय पर हाथ रखती युवती बोली- आदमी को देख कर आदमी के मन में दया न उपजे,प्रेम न उमड़े, फिर क्या वह आदमी ही है? दो हाथ,दो पैर,आँख,नाक,कान,मुंह सब कुछ है,आदमी की तरह जिन्दा भी है- सांस ले रहा है,परन्तु भीतर का आदमी बिलकुल मर गया है...- थोड़ा ठहर कर युवती फिर बोली- खैर,छोड़ो बाबू! अभी हमलोग इसका निपटारा करने थोड़े जो बैठे हैं। हमें तो तुम्हें मतिया की कहानी सुना कर अपनी पतिया लिखवाली है।
 ठीक कह रही हो। उधर बेचारे चुटीले शिकारी बाबू की जान पर आ बनी है। बेचारी मतिया सुनसान जंगल में अकेली बैठी उसकी सेवा-सुश्रुषा करने में लगी है,और इधर हम दोनों धर्म-अधर्म की व्याख्या कर रहे हैं।छोड़ो ये सब,सुनाओ मतिया की कहनी,कि आगे क्या हुआ। - अजय जरा गम्भीर होकर बोला।
           हां,इस समय दूसरी बात नहीं होनी चाहिए। हमलोग अपनी ही बात करें तो अच्छा है।- भेड़ के बदन पर हाथ फेरती युवती ने कहा- हां,तो मैं कह रही थी कि मतिया को वहां बैठे-बैठे काफी देर हो गयी। सूरज सिर से नीचे उतरने लगा। घबराई सी मतिया फिर एक बार बूटी का रस निचोड़कर युवक को पिलाई,और लम्बी सांस खींच होंठों ही होठों में कुछ बुदबुदायी।
कांटों में उलझकर बाबू का कोट फट चुका था। भीतर कमीज भी थोड़ा फट ही गया था। कमीज के भीतर,काले घने रोंयेदार चौड़ी छाती पर चमकती पीली सी जंजीर में गोल सी कोई चीज बंधी लटक रही थी। गौर से देखने पर पता चला कि वह कोई तस्वीर है,जो सांस लेने-छोड़ने के साथ-साथ ऊपर-नीचे हो रही है; किन्तु काफी गौर करने पर भी उस तस्वीर को पहचान न सकी। शक्ल न हनुमान से मेल खा रही थी,और न रहमान से। एक बार जी में आया कि गोलक को उलट कर देखे,उस तरफ भी कुछ है क्या,किन्तु तुरन्त विचार बदल गया।
          काफी देर तक इसी उहापोह में सिर झुकाये चुप बैठी सोचती रही- अब भी होश न आया तो क्या करेगी...ढलते सूरज का कब तक भरोसा...थोड़ा और ढला नहीं कि गया पहाड़ी की आड़ में...चांद की रोशनी कितना मददगार होगी,जबकि सूरज ही भरपूर उजाला नहीं दे पाता घनघोर जंगल में...।
मतिया की बेचैनी का अन्दाजा लगाया जा सकता है। भेड़ को भी लगता है इसका अन्दाजा लग रहा था,क्यों कि अनबोलता जीव होते हुए भी बार-बार बाबू के सिर के पास अपना थुथुना छुलाती- पालतू कुत्ते की तरह कुईं-कुईं करते मतिया के पास आ बैठती।
देर से चिन्ता में बैठी मतिया का ध्यान अचानक टूटा,बाबू के हिलते होंठ देखकर। झट समीप में सट गयी। शिकारी बाबू के मुंह के पास अपना कान सटाकर सुनने की कोशिश की,किन्तु कुछ पता न चला। सिर्फ होंठ का फड़फड़ाना देखती रही,साथ ही देखा- बाबू के होंठ सूख रहे हैं...सांस भी पहले से कुछ तेज हो आयी है।
मन में विचार आया,हो सकता है गला सूख रहा हो। पानी का ध्यान मन में आते ही बिजली सी झट उठ खड़ी हुई। झरबेरी के बगल में ही सौगौन का पेड़ था। डाल झुकाकर दो-तीन पत्ते तोड़ी,और दोना बनाती चल पड़ी एक ओर। जंगल की रानी ठहरी। चप्पा-चप्पा छाना हुआ था। दौड़ कर गयी पास ही बहते बरसाती नाले के पास,और दोना भर लायी,साथ ही अपनी आंचल का छोर भी गीला कर ली।
 अब लगता है शिकारी बाबू की जान निश्चित ही बंच जायेगी,मतिया की कृपा से।-युवक अजय ने अपना सिर हिलाते हुए,सामने बैठी कहानी सुनाती हुयी युवती को देखते हुए कहा।
 जान तो बचनी ही है बाबू उस शिकारी बाबू की। मतिया सी दयावान के हाथों भी जान कैसे न बचेगी...?- कहती हुयी युवती मुस्कुरायी और हाथ उठाकर ढीले हो आये अपने जूड़े को ठीक करने लगी। अजय उसे एकटक निहारे जा रहा था।  न जाने कुछ घंटों के मिलन ने ही अजीब सा आकर्षण पैदा कर दिया था उसके दिल में युवती के प्रति। आकुल दग्ध हृदय में अजीब सी शीतल फुहार पड़ने लगी थी। मतिया की रोचक कहानी सुनाती युवती की ओर ललचायी नजरों से देखता रहा। बीच-बीच में कभी ध्यान आ जाता स्वयं का,तब जरा विकल होकर सोचने लगता- ‘ओफ,कहां भटक गया हूँ...मंजिल मिलेगी भी या नहीं...मंजिल है कहां...क्या...कैसा...कौन...?’
इस बार पहले की अपेक्षा गहरे सोच में देख,मुस्कुराती हुयी युवती ने पूछा, क्यों बाबू ! क्या सोचने लगे...कहींकुछ..?
कुछ नहीं,यूं ही...- अन्यमनस्क सा,अजय ने कहा, कभी-कभी कुछ याद आजाती है बीते हुए समय की,किन्तु काफी जोर देने पर भी समझ नहीं पाता हूँ कि क्या हो गया है मुझे। लगता है कुछ बहुत ही कीमती चीज मेरी खो गयी है...क्या खो गयी है...कैसे खो गयी है...कब खो गयी है...कह नहीं सकता।
अजय की स्थिति पर अफसोस जाहिर करती हुयी युवती बोली, तुम्हारी बातों से मुझे आश्चर्य भी होता है बाबू,और चिन्ता भी। तुम्हारी शकल-सूरत,वेशभूषा,उमर सब कुछ देखकर तुम पर दया आती है। क्या करूँ,औरत का दिल जो ठहरा,तुम मर्दों की तरह कड़ा तो हो नहीं सकता।
फिर थोड़ा समझाती हुयी बोली, तुम ठीक से याद करने की कोशिश करो बाबू। मन थिर करके विचारो,शायद कुछ काम की बात सूझ जाये। इस तरह पागलों सी हरकत करोगे,तो कैसे काम चलेगा? तुम्हें न तो ठीक से अपना नाम याद है,और न घर-वार ही। जाना कहाँ चाहते हो- यह भी बतला नहीं सकते। ऐसी स्थिति में कोई चाह कर भी तुम्हारी सहायता कैसे कर सकता है?
 छोड़ो मेरी चिन्ता।– झल्लाकर अजय बोला- जब सुधरना होगा,खुद ब-खुद सुधर जायेगा। हो सकता है इसी तरह ठोकर खाते-खाते कुछ याद आ जाए।- फिर संयत हो,युवती की आँखों में आँखें डाल कर झांकते हुए-से पूछा,जिसकी पुतलियों में उसका अपना ही बिम्ब बार-बार नजर आरहा था- खैर,मुझे तो मेरा अता-पता याद नहीं,तुम्हारा घर कहाँ है...क्या इधर ही कहीं आस-पास..? - इधर-उधर हाथ का इशारा करते हुए युवक ने पूछा।
 तुम भी क्या पूछते हो बाबू ! जंगलियों का कहीं घर-वार हुआ करता है? भेड़-बकरी चराना,लकड़ी काटना-तोड़ना,जंगली कन्द-मूल-फल से गड्ढा भर लेना,चलते-चलते थक जाने पर किसी पेड़ की डाल या किसी चट्टान पर ही पसर जाना...यही तो जिंदगी है हम सब की।- मुस्कुराती हुयी युवती ने कहा,जिसकी बातों का युवक को यकीन न आया। फलतः बोल पड़ा- क्या बात करती हो,जंगलों में रहने वाले लोग क्या घर नहीं बसाते, उनके बीबी-बच्चे,मां-बाप नहीं होते क्या?
 होते है। सब होते हैं बाबू ! घर भी,बीबी भी,बच्चे भी,मां-बाप भी,किन्तु...।
 किन्तु क्या? कहो न,चुप क्यों हो गयी ?- अजय ने आश्चर्य प्रकट किया।
 किन्तु-विन्तु कुछ नहीं बाबू ! बीबी होने का सवाल ही नहीं,क्यों कि मैं खुद ही औरत हूँ। बच्चे कोई जरुरी नहीं कि सब को हो ही। रहे मां-बाप,उनका भी कोई जरुरी नहीं कि हर समय मौजूद ही रहें। थे कभी। अब नहीं हैं। दोनों में कोई नहीं रहा।
युवती की बात पर युवक बोला- औरत का सबसे बड़ा सहारा तो होता है उसका मर्द। क्या तुम्हारी...?- युवक कह ही रहा था कि बीच में रोक दिया युवती ने अपने जोरदार शब्दों से- अब तुम बहुत बातें पूछने लगे हो बाबू! अपने बारे में तो कुछ कहते नहीं,और मेरी बातें सब जान लेने को बेताब हो रहे हो।
 अधिक नहीं पूछूंगा,बस इतना भर बतला दो,क्या तुम्हारी शादी हो गयी?
 कभी-कभी तुम्हारी अक्ल कहाँ चरने चली जाती है बाबू? क्या...- युवती कुछ और कहना चाह रही थी,किन्तु थोड़ा ठहर गयी,अचानक कुछ सोचकर। इस बीच युवक के चेहरे पर बनती भावनाओं के चित्रों को गौर से देखने की कोशिश करती रही। फिर बोली- मेरी निजी बातों में इतना दखल क्यों दे रहे हो बाबू? अपनी तो एक नहीं कहते,और मेरी सारी बातें मुझसे उगलवा लेना चाह रहे हो। मैं तुम्हारी किसी बात का जवाब देने को मजबूर थोड़े जो हूँ।
युवती ने देखा,उसकी बातों का जोरदार असर युवक पर हुआ है। इस तरह कोरे जवाब की आशा उसे जरा भी न थ। कुछ देर तो चुप रहा,उदास सा मुंह लटकाए हुए,फिर एकाएक जोश में आकर बोल उठा, अच्छा बाबा,लो मैं कान पकड़ता हूँ। गलती हो गयी । अब नहीं पूछूंगा कुछ तुम्हारे बारे में।- युवक ने अपना दोनों कान पकड़ते हुए कहा- जब मुझे मेरी सारी बातें याद आ जायेंगी,और तुम्हें बतला दूंगा,तब तुम भी बतलाना-सुनाना अपनी राम-कहानी। अभी तो जो सुना रही हो,सो ही सुनाओ। वह कोई कम जरुरी और मजेदार थोड़े जो है।
युवती मुस्कुराती हुयी बोली, मैं तो हर बार यही कहती हूँ बाबू कि पहले मतिया की दिलचस्प कहानी ही सुन लो। अपनी याददाश्त ठीक करलो,फिर जी भरके मेरी कहानी भी सुन लेना।
 अच्छा बाबा,कहो न,जो कहना चाहती हो।- इतना कहकर,अजय दोनों हथेलियों की अंजली सी बनाकर,उस पर अपनी ठुड्डी टेक कर,चुप बैठ गया।
युवती कहने लगी- हां,तो मैं कह रही थी कि नाले से पानी ले आयी दोना भरकर, तब उसे जमीन पर रख,पत्ते की चमची सी बना धीरे-धीरे बाबू के मुंह में डालने लगी। एक दो चमची पिलाने के बाद ध्यान आया कि कहीं कंठ में सरक न जाये,इस तरह सोये में पानी पिलाने से,अतः अपना बायां हाथ उसके गर्दन के नीचे धीरे-धीरे ले गयी,और बड़े ही आहिस्ते से सिर को थोड़ा ऊपर उठायी,और तब पानी पिलाने लगी। घुट-घुट की आवाज के साथ पानी गले से उतरने लगा। बीच-बीच में एक दो बार मुंह भी चलाया बाबू ने। यहां तक कि थोड़ी ही देर में पूरा दोना खाली हो गया।
 मतिया ने फिर से बाबू को पहले की तरह सुला दिया,और बिजना के पत्ते से मुंह पर हवा करने लगी,जो वहीं चट्टान के पास ही हवा के झोंके में टूट कर गिरा पड़ा था।
 हवा करती,पत्ता झलती रही,और आश लगाये बैठी रही कि कब बाबू की आँखें खुलती हैं...कब वह कुछ बोलेगा...पूछेगा...बतायेगा...। सोचती रही- किसका लाल है...कैसे इस बीराने में आकर चुटीला हो गया...खैर कहो कि समय पर पहुंच गयी...जान बंच गयी,नहीं तो पता नहीं क्या हाल होता...दर्द से छटपटा कर पानी के बिना दम तोड़ देता... किसी दरिन्दे की खुराक...।
मतिया अभी सोच ही रही थी कि शिकारी बाबू के होंठ फिर फड़फड़ाये। शायद फिर पानी मांग रहा है,सोचा मतिया ने। परन्तु इस दफा पानी देने के वजाय,पहले से लायी गयी बूटी का रस निचोड़कर दो-तीन बूंदें टपका दी बाबू के खुले मुंह में। बाबू ने जीभ चलाई, होठों को चाटा,और आँखें भी थोड़ी सी खुल गयी। झट मतिया ने अपने आंचल का छोर, जिसे पानी लाते समय नाले से भिगोती आयी थी,बाबू की आंखों पर आहिस्ते-आहिस्ते फेरने लगी। आँखें फिर बन्द होगयी,किन्तु अधिक देर तक बन्द न रही,तरंत ही खुल गयीं, और इस  बार अधूरी नहीं वरन,पूरी आंखें अच्छी तरह खुलीं। गर्दन तो न हिली। आँखें ही इधर-उधर घुमाकर चारों ओर का मुआयना किया। बगल में घुटने टेके चिन्तित बैठी एक अनजान औरत नजर आयी,और उसके बगल में दिखी एक भेड़।
आंखें फिर बन्द होगयीं,परन्तु मतिया के दिल में आशा की किरण रौशन कर गयी। खुशी का सोता बहा गयी। मतिया की खुशी का ठिकाना न रहा। मतिया की खुशी में उसके पालतू प्रिय भेड़ ने भी साथ दिया- अपने गले में बंधी घंटी टुनटुनाकर,साथ ही प्यार से सूंघने लगी कभी मतिया को कभी चोटिल पड़े शिकारी बाबू को। मतिया ने भेड़ को गोद में दबाकर,प्यार जताया,पुचकारा,और उसके कान में मुंह सटाकर कुछ बुदबुदायी भी,मानों वे एक दूसरे की भाव-भाषा समझ रहे हों। फिर मतिया सोचने लगी- अबकी दफा बाबू जब आँखे खोलेगा...पूछेगा कुछ जरुर...।
 सूरज काफी नीचे उतर आया था। पेड़ की फुनगियों पर सूरज की चमकती लाल किरणें चिड़ियों सी आकर बैठ गयी थी। दिन फूटते ही अपने घोसले छोड़,दाने-पानी के जुगाड़ में गयी चिड़ियों का झुण्ड अब धीरे-धीरे वापस आने लगा था अपने रैन बसेरे में।
 मतिया सोचने लगी- घने जंगल में अपने काम पर निकले इक्केदुक्के लोग भी धीरे- धीरे अपने बसेरे की ओर चले जा रहे होंगे। थोड़ी देर में पूरा जंगल खाली हो जायेगा आदमियों से...रह जायेंगं तो सिर्फ जंगली खूंखार जानवर,और उनके बीच एक चुटीले अनजान मुसाफिर के साथ...ओफ! क्या किया जाय अब....?
मतिया सोच ही रही थी कि शिकारी बाबू ने आँखें खोलीं,होंठ हिले,फड़फड़ाये। आवाज भी निकली,जिसे वह ठीक से समझ न पाया,कारण कि आवाज में थोड़ी घरघराहट थी। कम्पन था। उसने सोचा किसी भीतरी भाग की गडबड़ी के कारण ऐसा हो रहा है...।
आवाज फिर निकली। इस बार की आवाज पहले से थोड़ी तेज थी,फिर भी मतिया अपना कान उसके मुंह के पास सटा दी। कांपती सी आवाज सुनाई पड़ी- मैं कहां हूँ?
अजय चुप बैठा सुनता रहा। थोड़ा दम लेकर युवती फिर कहने लगी- मतिया के कानों में शिकारी बाबू की आवाज गयी तो जरुर,किन्तु ‘मैं कहां हूँ’का ठीक मतलब बेचारी समझ न पायी। हालांकि इतना जरुर समझ गयी कि यह शहरी बाबुओं की बोली बोल रहा है। आवाज बिलकुल साफ होती तो समझ भी जाती।
हां, यह भी एक विकट समस्या हो गयी,भाषा न समझ पाना- एक दूसरे की। खैर अब जान बच गयी तो भाषा की समस्या कोई बड़ी बात नहीं। - अजय ने कहा युवती की ओर देखते हुए,जो भेड़ की रस्सी को अपनी अंगुलियों में लपेटती हुयी,कहानी सुनाये जा रही थी।
हां, उसके लिए ज्यादा क्या परेशानी हो सकती है।- रस्सी ढीली करती हुयी युवती बोली- वैसे भी मतिया इतनी भोली न थी,जो कुछ जानती-बूझती ही न हो। उसकी भी एक बड़ी वजह थी।
क्या वह कुछ पढ़ी-लिखी भी थी ? – अजय ने मतिया के सम्बन्ध में कुछ विशेष जानने की उत्सुकता प्रकट की।
गंवार मतिया बेचारी पढ़ी-लिखी क्या रहेगी बाबू ?- युवती ने कहा- किन्तु एक होशियार का सहारा मिल गया था उसे। मतिया के गांव में गोरखुआ सबसे काबिल आदमी माना जाता था। वह अक्सर ही पास के कस्बे में जंगली सामान लेकर बेचने जाया करता था। धीरे-धीरे वह शहरी बाबुओं की बहुत सी बातें सीख लिया था। गांव आकर, वहां की बातें लोगों को समझाया बतलाया करता। कस्बे से वापस आने पर सभी- औरत,मर्द,बच्चे, बूढ़े उसे घेर कर सिहोर-गाछ तले बैठ जाते। दुनियां भर की बातें पूछते रहते। गोरखुआ उन्हें समझाने की भरपूर कोशिश करता। उसकी चाह थी कि उसका गांव तरक्की करे,हर कोई समझदार हो जाये।
मतिया उस बैठक में ज्यादा दिलचस्पी लिया करती। गोरखुआ ने ही एक दिन गान्ही बाबा की बात बतलायी लोगों को- बहुत दूर का रहने वाला एक आदमी है,जो हम लोगों की तरह ही भगौना पिहिनता है। हाथ में लाठी लिए सब जगह घूमता फिरता है। सुनते हैं कि वह सुराज लाने की तैयारी में जुटा है...।
मतिया ने आश्चर्य से उससे सुराज के बारे में पूछा था। गोरखुआ ने उसे समझाया था कि सुराज क्या होता है,कैसे आता है,और कैसे चला जाता है। सुराज नहीं रहने से क्या नुकसान होता है,और रहने से क्या फायदा...। इस तरह की बहुत सी बातें समय-समय पर बतलाया करता था गोरखुआ।
मतिया की बहुत पटती थी- गोरखुआ से, इस कारण वह भी उसे बहुत मानता था। जब भी कस्बे से आता,सबसे पहले मतिया के पास ही जाता,और ताजी-ताजी बातें सुनाया करता। इस प्रकार घोर जंगल में रह कर भी मतिया बहुत कुछ जान-सीख गयी थी बाहर की बातें। एक दो दफा गोरखुआ उसे कस्बा घुमाने भी ले गया था अपने साथ।
इधर कुछ दिनों से गोरखुआ उसे शहरी बाबुओं की बोली के बारे में बतला रहा था। आज वही सीख काम आयी मतिया को। थोड़ा बहुत जोड़-तोड़ कर मतिया अर्थ लगाने लगी,शिकारी बाबू के मुंह से निकली आवाज का।
बाबू के मुंह से आवाज फिर निकली- ‘मैं कहाँ हूँ...?’ इस बार की आवाज पहले से अधिक तेज और साफ थी,साथ ही इशारा भी किया उसने अपने हाथ उठाकर।
मैं का मतलब ‘मोंय’ तो समझ ही गयी,थोड़ा जोर देने पर कहां हूँ का मतलब भी समझ गयी। मतिया समझ गयी कि बाबू कह रहा है- ‘मोंय कोन ठहर आ ही?’ और फिर जोड़-जाड़ कर बाबू की बातों का जवाब भी दे डाली- ‘हो तो बाबू तुम बीच जंगल में, तबियत कैसी है तुम्हारी?’ जिसके जवाब में बाबू ने कहा था कि वह ठीक है,पर बोलने में थोड़ी दिक्कत हो रही है। उसकी बात को मतिया समझ गयी,और फिर उसका जवाब सोचने लगी। इसी तरह तोड़-जोड़कर,कुछ सही,कुछ गलत बातें चलने लगी।
मतिया ने पूछा- दर्द कहाँ है बाबू ? जिसके जवाब में शिकारीबाबू ने एकबार गौर से निहारा मतिया के चेहरे को। फिर अपने माथे पर हाथ फेरा और छाती सहलाते हुए बोला- ’वैसे तो पूरे बदन में दर्द है- सुई सी चुभ रही है,मगर माथे और सीने में दर्द ज्यादा है।’
सिर थोड़ा सा फट गया है बाबू —मतिया ने उसे बताया—पूरे बदन में झरबेरी के नुकीले छोटे-छोटे कांटे चुभे हुए हैं। सीने में भी कहीं कटा-फटा है क्या ?’- कहती हुयी मतिया शहरीबाबू की कमीज का निचला हिस्सा,जिस पर एक मात्र लगे बटन को खोल कर,ऊपर सरकायी,और देखने लगी। इस क्रम में गले की जंजीर का गोल लोलक उलट गया। मतिया ने देखा- लोलक के दूसरे तरफ भी एक तस्वीर है,जो किसी अधेड़ उम्र औरत की है। तस्वीर छोटी जरुर थी,पर मुसौवर की कारीगरी का अनमोल नमूना पेश कर रही थी। तस्वीर बहुत ही खूबसूरत और साफ बनी थी।
बाबू ने जंजीर को एक ओर सरकाते हुए नीचे की ओर इशारा किया, ‘यहां भी दर्द है।’ जिसे मतिया ने गौर से देखा,दायीं ओर पसली की हड्डी के पास पत्थर का एक टुकड़ा चुभा हुआ है,जिससे होकर खून अभी भी रिस रहा है। उसे देखते ही चट,चुटकी से पकड़ कर खट से खींच ली बाहर। पत्थर के टुकड़े का बाहर निकलना था कि खून का एक छोटा सा फौव्वारा सा छूटा,और ऊपर झुकी मतिया के सांवले-सलोने चेहरे को रंग गया।
आह ! बहुत दर्द...’- बाबू के मुंह से एक कराह निकली और आँखें बन्द हो गयी।
बूटी थोड़ी और पड़ी हुयी थी,उसे मसल कर मतिया ने झट से उस रिसाव वाले गड्ढे में ठूंस दिया,और ऊपर से अपनी धोती का टुकड़ा फाड़कर लपेट दी। मतिया का लगभग आधा आंचल फट कर शिकारीबाबू के बदन से लिपट चुका था। शेष से मतिया ने अपने चेहरे पर पड़े खून के धब्बों को मिटाया,और खाली दोना उठाकर,चल पड़ी फिर नाले की ओर।
थोड़ी देर में उधर से लौटी- पानी से भरा दोना, और एक और बूटी लिये हुए। बाबू अभी तक आँखें बन्द किये हुए ही पड़ा हुआ था। पहले मतिया ने पानी के दो-चार छींटे उसके चेहरे पर मारा,फिर बूटी का रस नचोड़कर मुंह में टपका दी।
पानी का छींटा और बूटी के रस ने इस बार, पहले की तुलना में जल्द और ज्यादा असर दिखाया। बाबू ने झट आँखें खोल दी।
अब कैसा है बाबू ?’- रुआंसी हो, घुटने के बल बगल में बैठी मतिया ने पूछा।
ठीक लग रहा है कुछ-कुछ। उस समय टुकड़ा निकालने के समय बहुत दर्द हुआ था। गश आ गया था लगता है,किन्तु अब तो ठीक लग रहा है। बोलने में सिर्फ तकलीफ हो रही है। सीने का दर्द भी कुछ कम लग रहा है,परन्तु बदन में सुई सी चुभन में जरा भी कमी नहीं आयी है ’- आहिस्ते-आहिस्ते,कुछ कह कर,कुछ इशारे में बाबू ने अपना हाल जताया।
धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा बाबू ! घबराने की कोई बात नहीं है जरा भी।’
ठीक तो हो ही जायेगा, पर तुम्हें देखने से लग रहा है कि तुम ज्यादा घबरायी हुई हो।’- बाबू ने मतिया के चेहरे पर देखते हुए कहा।
हां बाबू  ! घबरा तो जरुर रही हूँ,मगर इसलिए नहीं कि तुम्हारी तवियत ज्यादा खराब है,वल्कि इसलिए कि देख रही हूँ कि आप अभी उठकर चल सकने लायक नहीं हुए हैं।’-चिन्तित हो मतिया बोली।
पहले से तो काफी अच्छा महसूस कर रहा हूँ, पर उठ कर चल भी सकूंगा या नहीं- इसमें संदेह है।’- दोनों हाथों से जमीन का सहारा लेकर उठने की कोशिश करते हुए शिकारी बाबू ने कहा।
इसी बात की बैचैनी मुझे भी हो रही है बाबू। देखते नहीं, सूरज ढल रहा है- पहाड़ों के बीच जा छुपा है।’- बाबू की पीठ और गर्दन को अपने हाथ का सहारा देती मतिया ने कहा।
मतिया की बात सुन,सम्हल कर बैठते हुए बाबू ने हाथ उठाकर अपनी कलाई देखी,जिसपर घड़ी बंधी थी,किन्तु कांच टूटा हुआ था और सूइयां भी गायब थी। घड़ी बन्द पड़ी थी। ‘अच्छा फेरा है।’- लम्बी सांस छोडते हुए शिकारी बाबू ने कहा, ‘तुम कौन हो? कहाँ रहती हो? ये कौन सी जगह है?’
यहीं मेरा घर है बाबू,पास में ही- कोई दो घड़ी भर का रास्ता होगा। इधर जंगल में ही भेड़ चराने आया करती हूँ। आज बारिश में फंस गयी। बारिश खतम हुयी तो इधर आ निकली.संयोग से..।
दो घड़ीऽ.ऽ..का रास्ता है?’- बाबू ने घड़ी पर जोर देते हुए पूछा।
हाँ बाबू ! ज्यादा दूर नही है,किन्तु इस हालत में जब कि दो पग चलना मुश्किल है तुम्हारे लिए,मैं सोचती हूँ तो घबराहट होने लगती है कि कैसे जा पाओगे?’- चिन्तित हो, मतिया ने कहा।
बात तो चिन्ता की जरुर है। किसी तरह आज तुम्हारे...। -  बाबू कह ही रहा था कि मतिया बीच में ही बोल उठी- अच्छा तो होता बाबू कि किसी तरह आज मेरी झोपड़ी तक पहुंच जाते,वहां कुछ और दवा-दारु का इन्तजाम हो जाता,फिर बिलकुल ठीक हो जाने पर ....।- थोड़ा ठहर कर फिर बोली- मगर सवाल है कि...चलने का...चल कैसे पाओगे?
अपने माथे पर हाथ फेरते हुए शिकारी बाबू ने कहा- ‘ना भी चल पाऊं,फिर भी तो कुछ करना ही पड़ेगा। यहां पड़े-पड़े...। ओफ! घनघोर जंगल...चमकती बिजली...डूबता सूरज...कुछ तो सोचना ही होगा उपाय आखिर....’
सोचना तो पड़ेगा ही बाबू! ”- उसकी छाती पर डोलते लोलक को निहारती मतिया ने कहा- तो ऐसा करो ना बाबू!  तुम मेरा कंधा पकड़ लो,या मैं तुम्हारी बांह पकड़ लेती हूँ। किसी तरह धीरे-धीरे चलने की कोशिश करो। कम-से-कम यहां से थोड़ी दूर उस रास्ते तक...’-हाथ के इशारे से बतलाती हुयी मतिया ने कहा- ‘ होसकता है,उधर से कोई आता-जाता दीख जाय..।’
ठीक है, ऐसा ही करता हूँ।”- कहते हुए शिकारी बाबू ने अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाया। मतिया ने उसे पकड़ते हुए,दूसरे हाथ का सहारा उसकी पीठ में देते हुए बाबू को खड़ा कर दिया।
मगर एक बात और है बाबू , तुम्हारे सभी कपड़े तो भींगे हुए हैं। इस हालत में तो सरदी लग जायेगी। पहाड़ी इलाके में सरदी का असर ज्यादा होता है।’- बाबू की पीठ पर हाथ फेर,भींगे कपड़ों पर इशारा करती मतिया ने कहा।जिसके जवाब में शिकारी बाबू ने उसे यह कहकर निश्चिन्त किया कि इसकी कोई चिन्ता न करो। पीठ पर बंधी गठरीनुमा थैली की ओर इशारा करते हुए बाबू ने कहा- ‘इसमें कुछ कपड़े है,जो बरसात में भींगने पर भी गीले नहीं हुए होंगे।’
अपना हाथ पीछे की ओर ले जाकर थैली उतारने की कोशिश की,किन्तु सफल न हो सका। दर्द के कारण हाथ उठ ही न पाया। लाचार होकर बाबू को मतिया का सहारा लेना पड़ा। अफसोस करता हुआ बोला- ‘ओफ! मैं तो अपनी पीठ पर से बैग भी नहीं उतार पा रहा हूँ,तुम जरा तकलीफ करो ना।’
मुस्कुराकर मतिया ने कहा- ‘इसमें तकलीफ की क्या बात है बाबू,मैं उतारे देती हूँ।’ कह कर मतिया,बाबू की पीठ से गठरीनुमा सामान उतार कर बाबू के आगे रख दी।
ओफ ! अपने को सर्वशक्तिमान समझने वाला इन्सान वास्तव में कितना अशक्त है,जरा सी दुर्घटना ने इतना परवश बना दिया... ।’- शिकारीबाबू ने उदास होकर कहा।
तो इसे तुम जरा सी दुर्घटना कहते हो बाबू ? तुम तो भारी संकट में पड़ गये हो। इतने चुटीले हो गये हो। सारा वदन कांटों से भरा है,जख्म भी दो-दो...।’- कहती हुयी रुक गयी अचानक। उसे लगा- किसी घायल को उसके सही चोट का अहसास नहीं कराना चाहिए,इससे हिम्मत टूटती है...। – सोच आते ही बात बदल दी। थैली की ओर इशारा करते हुए बोली- “  तो खोलूं इसे?
बाबू ने सिर हिलाया- ‘हाँ,खोलो ना। इसमें रखे कपड़े सूखे होंगे। उन्हें पहन लूँ,फिर चलने की कोशिश करुंगा।’
बाबू के कहने पर मतिया ने बैग खोला,कपड़े निकाले,और उसे पहनने में मदद की।
कपड़े बदल,गीले कपड़ों को बैग में रखकर अपने पीठ पर डाल ली,फिर झुक कर नीचे पड़ा गोंगो उठाकर सिर पर रखा,और लम्बी रस्सी को भेड़ की गर्दन में लपेट, पुचकारती हुई इशारा की आगे चलने को। फिर बाबू की ओर देखती हुई बोली- अब तो कोई दिक्कत नहीं है न बाबू? सूखे कपड़े पहन लिए,अब तो ठण्ढ नहीं लग रही है न?’
नहीं। ठंढ-वंढ की तकलीफ नहीं है। तकलीफ है सिर्फ कांटों के चुभन की,जो जरा भी हिलने नहीं दे रही है। वैसे छाती में भी हल्की टीस सी हो रही है। मुंह भी सूख रहा है।’- चट्टान का सहारा लेकर,ठीक से खड़ा होते हुए शिकारीबाबू ने कहा।
पानी पीओगे बाबू ? रुको मैं अभी लाती हूँ। तुम जरा बैठ जाओ,इत्मिनान से।’- कह कर,बाबू का हाथ पकड़ पास ही चट्टान पर बैठा दी। और खुद दोना लिए दौड़ पड़ी नाले की ओर।
थोड़ी देर बाद फिर दोना भर लायी। दोना बाबू को पकड़ाकर,आंचल में बंधी गांठ खोलने लगी- ‘ठहरो बाबू,अभी मत पीना,इसे मुंह में डाल लो,फिर पानी पीना।’
बाबू ने देखा- मतिया के आंचल में कोई मुट्ठीभर भुने हुए महुए थे.जिसे गांठ गोल बाबू की हथेली पर रखती हुयी बोली- ‘लो,इसे खालो बाबू। बड़े ही अच्छी चीज है। पेट भी भरेगा,और ताकत भी होगी।’
काला-काला भुना हुआ महुआ देख,बाबू की लगी हुयी भूख-प्यास भी भाग गयी। पर, कुछ सोच कर दो-चार दाने मुंह में डाल लिया।
और लो न बाबू ! देखते क्या हो? उपर से खराब लगने वाली हर चीज अन्दर भी खराब नहीं होती,और अच्छी लगने वाली हर चीज का अच्छा होना भी जरुरी नहीं है...। पहले चखो तो सही...मुंह भर कर...’- कहती हुयी मतिया अपनी मुट्ठी भर कर शिकारीबाबू के मुंह में महुए भर दिये। ना-नुकुर करते हुए उसने भी चबाना शुरु किया,फिर पूरा खा कर,उपर से पानी पीया,और तब मुस्कुराते हुए बोला- ‘वाकई बढ़िया लगा तुम्हारा महुआ।’
इसीलिए तो कही कि पूरा खालो।’- मतिया ने पुनः कहा।
खा-पीकर,थोड़ा दुरुस्त हुए शिकारी बाबू,तब आगे की यात्रा शुरु हुयी। बाबू ने बताया कि अब बिना सहारे के भी उठ सकता हूँ,चल सकता हूँ। हालांकि दर्द अभी गया नहीं था, इतनी जल्दी जा भी कैसे सकता है,किन्तु पानी से नयी ताजगी मिली।
बाबू के हाथ से बाकी महुए वापस लेकर,मतिया फिर से अपने फटे-कटे आंचल में सहेज ली,और बोली, चलो,अब तो चला जाय।
हाँ,चलना ही चाहिए। बहुत देर हो रही है। किसी प्रकार धीरे-धीरे चलना भी है।- बाबू ने सिर हिलाकर हामी भरी,और मतिया की ओर अपना हाथ बढ़ाया।
चलो बाबू  ’- अपने ओर बढ़े हुए शिकारीबाबू के हाथ को थामती हुयी कहा मतिया ने,और दोनों चल पड़े। दो-चार कदम के बाद ही बाबू ने अपना हाथ मतिया के हाथ से छुड़ाकर,उसके कंधे पर रख दिया,जिससे अधिक सहारा मिलने लगा,और चलने में सुविधा होने लगी।
मतिया ने देखा,भेड़ पहले ही कुछ दूर रास्ते पर आगे बढ़,एक झुरमुट के पास खड़ा हो गया,जैसे कोई इन्सान,पीछे से आने वाले को मुड़ कर देखता हुआ इन्जार कर रहा हो।
कुछ दूर तक दोनों ही चुपचाप चलते रहे। किसी ने कुछ कहा-पूछा नहीं। क्यों कि लगता है दोनों के दिमाग में अपने-अपने ढंग की बातें चक्कर काट रहीं होंगी। आते हुए अन्धेरे को देखकर,जंगल सुनसान पड़ता जा रहा था। परिन्दे भी चुपचाप वापस अपने रैन- वसेरे की ओर कूच कर रहे थे। शायद सबको जल्दबाजी ही थी घर पहुँचने की। पर चांद को अभी जल्दबाजी नहीं लग रही थी।
कुछ रास्ता तय होने के बाद बाबू ने पूछा - ‘घने जंगल से निकलने के लिए अभी और कितना चलना पड़ेगा?’
जंगल तो सब करीब-करीब घना ही है बाबू,जो काफी दूर तक फैला हुआ है,ये कहो कि सही रास्ते पर पहुँचने के लिए कितना चलना पड़ेगा। फिर अपने हाथ से इशारा करती मतिया ने बतलाया- ‘ओ देखो बाबू! वो जो साखू का बड़ा-सा दरख्त दीख रहा है न,वहां से थोड़ी दूर पर भेलवा का पेड़ मिलेगा,उससे कुछ आगे जाने पर बिजना के तीन पेड़ एक साथ खड़े मिलेंगे,उससे जरा सा आगे जाने पर एक बरसाती नाला मिलेगा,जिसे पार करने पर ही चौड़ी पगडंडी मिलेगी,जो दायीं ओर मेरे गांव तक चली जाती है,और बायीं ओर कस्बे का रास्ता है।’
वहां से तुम्हारा गांव कितनी दूर है ? ’- पूछा बाबू ने। उसकी ललाट पर उभर आयी सिकुड़न उसकी भीतरी घबराहट को जता रही थी,जिसे भांपते हुए मतिया ने कहा, ‘उस नाले के पार जाने पर,मेरे गांव पहुँचने में कोई घड़ी भर समय और लगता है,पर इस चाल से नहीं,जो हम चल रहे हैं। खैर कोई बात नहीं,हिम्मत करो।यही समझो कि आधी से थोड़ी ही अधिक दूरी और चलना रह गया है हमलोगों को। घबराने की कोई बात नहीं है। इतनी दूर जब चले आये हैं,तो घर तक किसी तरह पहुँच ही जायेंगे।’
सो तो है ही। भगवान की कृपा कहो,अभी तक दर्द ज्यादा परेशान नहीं किया, फिर भी चिन्ता इस बात की है कि अब तो बिलकुल ही अन्धकार हो गया है। उस मोड़ तक पहुँचते-पहुँचते हाथ को हाथ सूझना भी कठिन हो जायेगा। तिस पर कहती हो कि उतना और आगे जाना है...।’
शिकारीबाबू की चिन्तातुर बात सुन मतिया मुस्कुराई,और बोली- ‘ इतना घबरा क्यों रहे हो बाबू! मरदजात ठहरे,घबराने से कैसे काम चलेगा? उस मोड़ तक ही चलने में ज्यादा परेशानी है। उसके आगे गाढ़े अन्धेरे में भी चलने में अधिक तकलीफ नहीं होगी। नाला पार होते ही पगडंडी पर चड़ जायेंगे,फिर देखना अन्धेरा है कि उजाला...।
मतिया की आशाभरी बात सुन,शिकारीबाबू मन ही मन बुदबुदाया- ‘लगता है,वहाँ कोई लालटेन लिए बैठा होगा...’
बाबू की बात को मतिया पूरी तरह सुन तो न सकी,किन्तु बोली- ‘यहाँ जंगल कुछ ज्यादा घना है बाबू । रास्ता भी ठीक से दिखायी नहीं देता। मगर वहाँ पगडंडी काफी चौड़ी है। गाछ भी कुछ दूर-दूर पर हैं,ऊंचाई भी है पगडंडी की,तिस पर भी आज लगता है आठम का चांद होगा,जिसे सीधे सिर पर ही होना चाहिए। अभी घने जंगल की वजह से पता नहीं चल रहा है।’
ऊपर सिर उठाकर, सघन डालियों के बीच से नीले साफ आसमान को देखने की कोशिश करती हुयी मतिया बोली, ‘लगता है बाबू कि आसमान में ज्यादा बादल भी नहीं है,नहीं तो अब तक और अन्धेरा हो जाता। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि घने बादल छाये रहने पर दिन-दोपहर-सांझ सब अमावश की रात की तरह ही नजर आता है।’
मतिया की बात से बाबू को कुछ आशा बंधी। बायां हाथ तो मतिया के कंधे पर था, दायां हाथ अपनी छाती पर फेरते हुए बोला, ‘ हां,हां,आसमान बिलकुल साफ है। आज अष्टमी का ही चांद है,आधे यौवन पर- यह खुशी की बात है। आधी रात तक तो रौशन रहना ही चारों ओर। रास्ता भी किसी प्रकार आधा तय किया ही जा चुका है;किन्तु कभी- कभी यहाँ दर्द,कुछ टीस सी हो जा रही है,खास कर जब ऊँचा-नीचा पैर पड़ रहा है। मुंह फिर सूखने लगा है। इतना ही चला हूँ,और थकान ऐसा लग रहा है कि दस-बीस कोस का सफर हुआ हो।’
घबराओ मत बाबू ! थोड़ी और हिम्मत बांधो। अब नाला अधिक दूर नहीं है। वहां पहुँच कर जी भर पानी पी लेना ।एक दफा और पिला दूंगी बूटी को भी। थोड़ी देर सुस्ता भी लोगे,तब चलेंगे आगे।’ – शिकारीबाबू को धीरज बंधाती मतिया ने कहा- ‘पगडंडी पर पहुँच जाने के बाद आधी रात को भी घर पहुँचेंगे तो कोई बात नहीं। किस तरह का कोई डर-भय नहीं है अब। मगर बेसी देर ठहरुंगी नहीं वहां,कारण कि हर रोज दिन रहते ही,घर पहुंच जाया करती थी। आज पहली बार है जो इतनी देर हो गयी है इधर ही। नानी बेचारी राह देखती होगी। जरा भी देर हुई कि रो-रोकर सारा जंगल सिर पर उठा लेगी...’
मतिया की बात पर,बीच में ही छेड़ते हुए बाबू ने पूछा, ‘तो यहां तुम्हारा ननिहाल है क्या? नाम क्या है गांव का ?’
ननिहाल समझो या ददिहाल,जो भी है यही है बाबू। इतनी उमर तो यहीं हो गई।’ मतिया अपने सिर पर से गोंगो उतार आगे-आगे चलती भेड़ की पीठ पर रखती हुयी बोली- चल,ले चल इसे भी। फिर बाबू की ओर देखकर मुस्कुरा दी- बेचारी भेड़ बहुत मदद करती है।
भेड़ तो मदद करती ही होगी,किन्तु तुमने अपने ननिहाल का नाम नहीं बताया।’- आगे दुलक-दुलक कर चलती भेड़ को देखते हुए बाबू ने फिर टोका।
ओ  ! गांव का नाम?’- मतिया फिर मुस्कुरा उठी-‘ मेरे ननिहार-ददिहाल का नाम है गुजरिया।’
गुजरिया...गुजरिया!...बड़ा ही प्यारा सा नाम है- नाम को दोहराते हुए बाबू ने कहा, ‘गुजरिया यानी सबका गुजारा हो सकता है यहां तेरे इस प्यारे से गांव में...क्यों?’- मतिया के गांव का बखान करते हुए कहा बाबू ने कुछ चौंकते हुए, ‘अरे हां,इतनी देर से चल रहा हूँ तुम्हारे साथ और तुम्हारा नाम भी नहीं पूछा और न स्वयं ही बतलाया अपना नाम।’
मतिया मुस्कुरायी। कंधे पर सरक आये ढीले जूड़े को जरा सम्हालने के बाद वोली- ‘ मौका ही कहां मिला बाबू, न तो तुमने पूछा और ना मैंने बतलाया। हमने भी तो अभी तक कुछ पूछ-पाछ नहीं किया तुमसे कि किस गांव या शहर से आये हो,क्या नाम है... खैर,चलो अब नाले पर पहुंच कर,पानी पी,इत्मीनान से थोड़ी बातें- पूछ-पाछ हो जायेंगी,और जरा आराम भी कर लोगे। मुझे भी तुम्हारे नाम-गाम की हड़बड़ी नहीं है। अब तो तुम चल ही रहे हो,हमारे घर,बतियाते रहना ना रात भर बैठकर।’
मतिया ने ऐसी लम्बी बांध दी कि बाबू चुप हो गया। किसी दूसरी ही धुन में खो गया। नाम पूछने का ध्यान ही न रहा। चुपचाप सिर झुकाए रास्ता नापता रहा।
कल-कल की मधुर आवाज कानों में पड़कर बतला रही थी कि नाला अब बिलकुल पास में ही है। आवाज सुन कर शिकारी बाबू ने कहा- ‘अरे, हमलोग बहुत जल्दी ही पहुंच गये नाले के पास। पानी कितना होगा इसमें?’
‘पानी ज्यादा नहीं है बाबू। यही कोई घुटने से थोड़ा ऊपर तक।’- थोड़ा झुकती हुयी, हाथ अपनी जांघ पर रखती मतिया ने नाले के पानी का अन्दाजा बताया,फिर जरा ठहर कर हाथ ऊपर उठा गीजिन की एक डाल तोड़ती हुई बोली, ‘नाले की दूरी तो उतनी ही है बाबू जितनी पहले थी,परन्तु बातों में मशगूल रहे इस कारण पता नहीं चला।’
‘पता चला या न चला,मैं तो चला ही।’-बाबू ने कहा,जिसे सुन मतिया हँस पड़ी,और गीजिन का डंडा बाबू के हाथ में पकड़ाती हुयी बोली- ‘इसे पकड़ लो बाबू! नाले में उतरने में सहारा होगा। रास्ता कुछ गड़बड़ है। पानी के भीतर छोटे-छोटे ढोंके हैं,पांव फिसलने का डर रहता है अनजान आदमी को। हम तो आदी हैं- रोज का काम है इसके आर-पार आना-जाना।’
मतिया के हाथ से डंडा लेते हुए बाबू ने कहा,‘ चलो यह भी हुआ,रोगी और चुटीला तो था ही,अब बूढा भी हो गया- तुमने हाथ में डंडा थमा दिया।’- बाबू के इस बात पर दोनों एक साथ हँसने लगे।मतिया अधिक खिलखिलाकर हंसी,किन्तु शिकारी बाबू सीने के दर्द के कारण जोर से हँस भी न पा रहा था। फिर भी हंसी में हरारत दूर हो गयी।
दोनों नाले में उतरने लगे। पानी के पास खड़े होकर,पहले बाबू ने अपनी पतलून ऊपर जांघों तक समेटी,फिर जूता उतार कर उठाने लगा,जिसे रोकती हुई मतिया ने कहा- ‘इसे छोड़ दो बाबू , तुम सिर्फ डंडा लेकर चलो। इसे मैं लिए लेती हूँ।’ और अपनी धोती थोड़ा ऊपर समेट,एक हाथ में बाबू का जूता उठा,दूसरे हाथ से बाबू को सहारा देती हुई,बढ़ चली पानी में। पीठ पर गोंगो लादे, भेड़ पहले ही उछलकर,उस पार जा,अपना बदन झटकारने लगी थी।
नाला पार किया बाबू ने डंडे और मतिया के सहारे। जब थोड़ा बाकी रहा,तो झुक कर चुल्लु भरना चाहा,जिसे रोकती हुयी मतिया,हाथ में पकड़ें जूते को ऊपर,पानी से बाहर फेंकती हुयी बोली, ‘जरा ठहर जाओ बाबू! तब पानी पीना।’
हाथ धोकर,आंचल में बंधी गांठ खोल महुआ निकालकर बाबू को देने लगी,जो कमर झुकाये चुल्लु में पानी भरने के लिए खड़ा था।
‘फिर दो-चार दाना खालो बाबू ! हरारत एकदम मिट जायेगी।’-मतिया के कहने पर बाबू ने कुछ दाने लिए,और अपने मुंह में धरकर,चुल्लु भरकर पानी पीने लगा। मतिया खड़ी देखती रही।

जी-भर कर पानी पीया बाबू ने,और पानी से बाहर आ,पतलून ठीक की,जूता पहना, और तब इत्मिनान से एक पत्थर पर बैठते हुए मतिया की ओर देखकर पूछा, ‘अब क्या इरादा है- बैठने का या चलने का?’

क्रमशः....

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