गगगगतांश से आगे.....अधूरीपतिया भाग 4(100 तक)
‘मुझे
बैठने का विचार थोडे जो है बाबू। मैं तो एक सांस में सारा जंगल घूम आऊँ। वो तो
फिकर सिर्फ तुम्हारे कारण हो रही है...।’- मुस्कुराती हुई मतिया बोली,और अपनी
समेटी हुयी धोती ठीक करने लगी।
‘मुझे भी
कोई खास जरुरत अब नहीं लग रही है,बैठने-सुस्ताने की। प्यास लगी थी, इस कारण सुस्ती-सी
लग रही थी। पानी पीने से अब बढ़िया लग रहा है। दर्द भी काफी कम हो गया है। तुमने
तो ऐसी बूटी पिलायी जो डाक्टरी दवा को भी मात दे गयी। अब तकलीफ बदन में चुभे
कांटों का सिर्फ है।’- पत्थर पर से उठकर,खड़ा होते हुए शिकारीबाबू ने कहा।
‘अरे
हां,याद आयी,बूटी फिर एक दफा पिलानी थी न। बातों में हम तो भूल ही गए।’-कहा बाबू
ने तो मतिया को भी ध्यान आया। ‘परन्तु साथ में तो रखी नहीं हो।’
‘बूटियां
तो एक से एक पड़ी हैं बाबू इन जंगलों में,मगर सवाल है सिर्फ पहचानने का इन नायाब
चीजों को,और उन पर भरोसा करके काम में लाने की बात है।’- इधर-उधर देख कर मतिया ने
एक बूटी उखाड़ी,और हाथों पर मसलकर,बाबू को पिलादी। फिर बोली- ‘तुम तो जानते होओगे
बाबू !
बड़ी-बड़ी लड़ाइयों में लोग
नेजे और खंजरों से घायल होते थे,और रात भर में ही जड़ी-बूटियों के बदौलत फिर से
चंगे होकर,सबेरा होते ही दहाडने लगते थे।’
‘बात
बिलकुल सही कह रही हो। इन बूटियों के गुण और प्रयोग से हमारे कई ग्रन्थ भरे पड़े
हैं। बूटियों का विज्ञान हमारे देश में काफी पुराना है। हमारे यहां के बुजुर्ग
जंगलों में रहकर बूटियों का प्रयोग भलीभांति जानते थे। अपने अनुभव और ज्ञान का
भारी भंडार पुस्तकों में रख छोड़ा है महर्षियों ने। मगर अफसोस कि आज इसे बूढ़ा
सिद्धान्त कहकर ठुकरा रहे हैं हम। जैसा कि हम देखते हैं,बूढ़ों की बातें कुछ अटपटी
जरुर लगती हैं,पर हमारी नासमझी के कारण। उनकी बातों-सिद्धान्तों में काफी दम होता है।
इस बूढ़े वैद्यक में कुछ कड़वापन जरुर है,पर परिणाम मीठा है,जिसकी तुलना अन्य कोई
क्या कर सकता है?’
मतिया की
जरा सी बात पर बाबू ने भाषण ही दे डाला।
‘ठीक कह
रहे हो बाबू! ये बूटियां बहुत ही कारगर
हैं,और मैं जहां तक समझती हूँ सस्ती भी हैं। सुनते हैं पहले के लोगों को ऐसी भी
बूटी मालूम थी,जो मरे हुए को जिन्दा कर सके।’- कहा मतिया ने,जिसकी बात का जवाब
बाबू ने मुस्कुराकर दिया, ‘तुमने सही सुना है। कई जगह इन बूटियों की कहानियां
मिलती हैं। राम-रावण की लड़ाई में मेघनाथ का मारा हुआ शक्ति बाण लगने के कारण जब
लक्ष्मण मूर्छित होकर गिर पड़े थे। जरा भी आश न थी उनके जीवन की,तब सुखेन वैद्य के
कहे पर,भक्त हनुमान ने संजीवनी बूटी लाकर पिलायी थी उन्हें,और एक तरह से कहें तो
लक्ष्मण का पुनर्जन्म ही हुआ था। कहते हैं- उस बूटी के गाछ तले प्रकाश होता रहता
था। यही उस बूटी की पहचान है। यही कारण था कि रावण ने उस पूरे पर्वत पर ही रौशनी
की व्यवस्था करवा दी थी,ताकि हनुमान को बूटी ढूढ़ने में देर लगे,और इधर लक्ष्मण के
प्राण-पखेरु उड़ जायें। परन्तु जानती हो, भक्तराज हनुमान तो बल-बुद्धि के खान
ठहरे। जोश में आकर पूरा पहाड़ ही उखाडकर हथेली पर उठा लाये।’
‘ऐं बाबू!
जब पूरा पहाड़ ही लंका के मैदान में पहुँच गया,तब तो हमारे देश में
रही न होगी यह बूटी?’- मतिया ने आँखें तरेर कर आश्चर्य पूर्वक पूछा।
‘ऐसी भी
क्या बात है,क्या एक ही पहाड़ पर यह नायाब बूटी उगती होगी? बूटियों का खान तो
हमारा हिमालय पर्वत है,और भी बहुत से पहाड हैं जहाँ तरह-तरह की जड़ी- बूटियां पायी
जाती हैं। हमें हर हाल में इन जंगलों और पहाड़ों की रक्षा करनी चाहिए। एक सच्चे
देशवासी का पावन कर्तव्य है यह। नदियां,जंगल,पहाड़- ये ही न रहेंगे तो फिर हमारा
क्या होगा,कैसे रह पायेगी सुख से ये मानव जाति या कहो कोई भी प्राणी!’
‘तुम
ठीक कहते हो बाबू ! मुझे भी याद आरही है,एक बार नानी अपने
भेड़ के लिए घास ले आयी थी। रात में उठा कर जब मैं उसे देने गयी तो देखती क्या हूँ
कि घास की दो-तीन जड़ें अजीब सी चमक रही है। मैं तो उसे कोई जहरीली घास समझकर बाहर
फेंक आयी। कहीं इसे खाकर मेरी प्यारी भेड़ मर न जाये...।’
‘मतिया की
बात सुन बाबू हँसने लगा- वाह रे घास,और वाह रे तेरी प्यारी भेड़।’-फिर जरा रुक कर
बाबू ने पूछा- ‘ क्या तुम अब भी उस घास को पहचान सकती हो?’
‘पहचानती
हूँ बाबू, अच्छी तरह पहचानती हूँ। उसके बाद जब भी घास लाती,उस घास को चुन-चुन कर
अलग फेक देती। ठहरो तुम्हें भी पहचनवा दूंगी।’
मतिया की
बात पर बाबू को थोड़ी उत्सुकता हुई,और अफसोस भी- ‘काश !
वह बूटी- संजीवनी बूटी फिर से मिल जाती। खैर, अभी तो कहीं से ढूढकर
दर्द मिटाने वाली बूटी ले आओ। एक बार और पी लूँ, फिर चला जाय।’- बाबू की बात पर
मतिया मुस्कुरा दी।
‘अभी लाती
हूँ बाबू!
बहुत है आसपास में भरी पड़ी है ये बूटी- दरद वाली।’- कहती मतिया
पगडंडी के बगल में एक गाछ की ओर चली गयी,जहाँ हल्का सा उजाला था। चाँद बिलकुल सिर
पर था,किन्तु थोड़ी-थोड़ी बदली होने के कारण चांदनी हो न पा रही थी।
गाछ के पास
मतिया ने दो-चार घासों को उलट-पुलट कर देखा,फिर एक छोटे से पौधे की कुछ ताजी
पत्तियां तोड़ लायी।
‘लो बाबू !
यह रही वही बूटी। लो,पीलो।’-हथेली पर मसलकर,रस निकालती हुयी मतिया
बोली। बाबू ने थोड़ा रस पीया,और तब कहा, ‘अब तो चला जाय न?’
‘चलो न
बाबू। चलना ही तो है।’-कहती हुई आगे बढ़कर बाबू का हाथ पकड़ने लगी।
‘छोड़ो अब।
तुम्हारी कृपा से सहारे की खास जरुरत नहीं रही अब। थोड़ी-बहुत कसर भी है,सो इस
लाठी से पूरी हो जारही है।’-नीचे पड़ी लाठी को उठाते हुए बाबू ने कहा, ‘अब तुम
इत्मिनान से बातें करते हुए चल सकती हो।’
बाबू की
बात सुन मतिया भी चल पड़ी,बिना सहारा दिये। बगल में ही बाबू भी चलने लगा धीरे-धीरे
लाठी टेकता हुआ।
कुछ देर
चुप चलने के बाद,एकाएक उसे याद आया। मतिया की ओर देख कर कहा शहरी बाबू ने- ‘अरे
हां,तुमने अपने गांव का नाम तो बतलाया,मगर अपना नाम...।’
‘बतलाऊँगी
बाबू !
बतलाऊँगी। अब तो तुम मेरे यहां चल ही रहे हो। सब कुछ जान जाओगे।’
‘चल तो रहा
ही हूँ। जानकारी भी होगी ही,किन्तु नाम बतलाने में हर्ज क्या है? आखिर तुम्हें
पुकारने के लिए कोई नाम तो चाहिए न?’- बाबू ने उसका नाम जानने पर जोर दिया।
‘इतनी
बेसबरी है,तो कहे दे रही हूँ। नाम तो आखिर कहने-पुकारने के लिए ही होता है न। मेरा
नाम मतिया है। नानी मुझे इसी नाम से पुकारती है। वैसे कोई-कोई मुझे सोनुआं भी कहते
हैं।’- मुस्कुराती हुयी मतिया बाबू का हाथ पकड़कर बोली, ‘कहो,कैसा लगा मेरा नाम ?
तुम मुझे मतिया कहोगे या सोनुआँ? ’
‘मैं तो
मतिया ही कहूँगा। ओह ! कितना प्यारा नाम
है यह- मतिया...मतिया!...’- दो-तीन बार भुनभुनाकर बाबू ने
कहा,और मतिया का हाथ आहिस्ते से दबाकर बोला, ‘मति यानी बुद्धि यानी दिमाग...मतिया
यानी बुद्धिमती...होशियार...चालाक...ओह ! नाम के मुताबिक तुम्हें
बुद्धिमान और चालाक होना ही चाहिए।’
‘छोड़ो भी
बाबू ।’- झटके से अपना हाथ छुड़ाती मतिया,बाबू की बात काटती हुयी बोली- ‘हम गंवार
जंगलियों के नाम का कोई अरथ-वरथ नहीं होता बाबू,जिसे जो मन आया कह कर पुकार लिया।
वैसे तुम्हारा नाम क्या है बाबू? तुम इधर...’
मतिया कह
ही रही थी कि तभी सामने से जलते मसाल की तेज रौशनी में कई लोग इधर ही आते हुए नजर
आए। शहरी बाबू उन्हें देखकर चौंकते हुए बोला- ‘अरे वो मतिया,वो देखो तो वे सब कौन
लोग चले आरहे हैं इधर? कोई चोर-डाकू तो...ओफ ! मेरी
बन्दूक भी...।’- बाबू अपनी कमर टटोलने लगा,जहाँ गोलियों का पट्टा बंधा था,परन्तु
कंधे पर बन्दूक तो नदारथ थी।
बाबू की
बात सुन मतिया खिलखिलाकर हँस पड़ी, ‘डर गये न ? चोर उच्चके तो शहरों में हुआ करते
हैं बाबू । हम वनवासियों में चोर-डाकू नहीं हुआ करते। है ही क्या हमलोगों के पास ?
और कौन किसकी क्या चोरी करेगा ?’
‘तो क्या
गांव वाले ही किसी काम से इधर चले आ रहे हैं?’- भयभीत शिकारी बाबू, आते हुए लोगों
की ओर देखता हुआ बोला।
‘गांव वाले
तो आ ही रहे हैं। और जहाँ तक मुझे उम्मीद है,हमारी ही खोज हो रही है। कह नहीं रही
थी मैं,जरा भी देर हुई कि नानी रो-रोकर सारा जंगल गुंजा देगी। इतनी देर क्या कभी
बाहर रही हूँ मैं अकेली कभी?’- मतिया कह ही रही थी कि मसाल की रौशनी और पास आगयी।
मसाल की रौशनी में आबनूसी चमकते चेहरों को बाबू ने भी देखा- चार-पांच आदमी चले
आरहे हैं। एक के हाथ में मसाल है,जिसकी लपटों की तेज रोशनी अगल-बगल के झाड़-झंखाड़-झुरमुटों
में भी घुस-घुस कर कुछ ढूढ़ना चाह रही थी,क्योंकि सब कुछ रौशन हो रहा था। बाकी
लोगों के हाथों में तीर-कमान और बरछे थे। मतिया के दिलाशा दिलाने पर भी बाबू के
पसीने छूट रहे थे। उसे यही लग रहा था कि तीर-धनुष सहित वनवासी आकर क्षण भरमें ही
उसे घेर लेंगे...बाबू अपने बचाव का उपाय सोच ही रहा था,तभी मतिया ने कहा- ‘ओ देखो
बाबू !
आगे-आगे जो मसाल लिए चला आ रहा है,वही मेरे गांव का सबसे काबिल दबंग
जवान गोरखुआ है। उसके बगल दायीं ओर सोहनु काका,और बायीं ओर भिरकू काका हैं। पीछे
आरहे दोनों- डोरमा और होरिया है।’
मतिया के
कहने पर बाबू को ढाढ़स हुआ। उसे विश्वास हो गया कि निश्चित ही उसकी खोज में ही चली
है यह टोली। मतिया कह रही थी और बाबू आने वाले लोगों के चेहरों को गौर से देख रहा
था।
थोड़ी ही
देर में सभी बिलकुल करीब आ गये। यहाँ तक कि उन लोगों ने भी पहचान लिया,जिस मतिया
की खोज में शाम से ही कजुरी नानी बेहाल थी,वह चली आरही है।आगे- आगे पीठ पर गोंगो लादे मतिया की भेड़ भी चली
आरही है। उसके पीछे मतिया भी नजर आयी उन लोगों को।मगर मतिया के साथ ये लाठी टेके
कौन है- कोई शहरी बाबू?-देखने वाले चकित हुए।
पास आते ही
मसाल ऊपर करके गोरखुआ ने पूछा- ‘ ये के हेके रे सोनुआँ तोंय संग?’
गोरखुआ की
बात सुन मतिया मुस्कुराकर बोली, ‘ तोंय पूछ नऽ के हेके। मोंय बूझलों आमर मन के
पाहन हेके।’
‘पाहन
हेके? ’- कहता हुआ गोरखुआ आगे बढ,सिर झुकाकर प्रणाम किया,फिर बहुत ही नम्र होकर
बोला- ‘ कहाँ से आना हो रहा है बाबू?’
गोरखुआ के
साथ-साथ बाकी लोगों ने भी सिर झकाया। बाबू ने भी हाथ जोड़कर नमस्ते कहा,फिर बोला,
‘ आया तो था इधर ही जंगल में शिकार खेलने। बनैले सूअर का पीछा करते रास्ता भटक
गया। इसी बीच भारी तूफान उठा और समेट लिया अपने चपेट में। उधर एक चट्टान पर से
पांव फिसला,और बोरियों की तरह नीचे लुढ़कता चला आया... भगवान की कृपा कहो कि,ये
बेचारी ...’- मतिया की ओर इशारा करते हुए कहा- ‘अचानक कैसे पहुँच गयी। इसके बदौलत
मेरी जान बची,नहीं तो पता नहीं आज क्या हाल होता...।’
‘होना क्या
था बाबू !
मौत के सिवा दूसरा क्या होता ऐसी हालत में?’-मसाल नीचे जमीन पर
टिकाते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘ इस बीहड़ जंगल में,वो भी इस खराब मौसम में तिस पर भी
अकेले शिकार के लिए घुसने का साहस ही दुःसाहस है बाबू। हमलोग यहां के रहने वाले
हैं,फिर भी उस पहाड़ी के उधर...’-दायीं ओर मसाल उठाकर इशारा करते हुए कहा- ‘अकेला
जाने की हिम्मत नहीं...।’
‘हुयी
थोड़ी नादानी जरुर है हमसे।’- गोरखुआ की ओर देखते हुए बाबू ने सिर हिलाकर कहा,
‘दरअसल मैं कल्पना भी नहीं पाया था कि आगे का जंगल इतना बीहड़ होगा। दूसरी बात यह
कि सुबह जब निकला था तो मौसम भी खराब नहीं था,सो निकल पड़ा। रही बात साथी-संगी
की,तो हर जगह साथी कहाँ ढूढ़ता फिरुँ? जीवन के लम्बे सफर में अच्छा साथी भी तो
बड़े भाग्य की बात है...।’
बाबू कह ही
रहा था कि मतिया बोल उठी- ‘ तो अब हमलोगों को चलना चाहिए। बातें तो रास्ते भर हो
सकती हैं। यहाँ खड़े होकर बातें करना और उधर नानी की बेचैनी बढ़ाना....।’
मतिया के
कहने पर सब एकसाथ बोल पड़े- ‘ हां-हां,चलना ही चाहिए।’
मसाल ऊपर
उठा,आगे बढ़ते हुए गोरखुआ ने मतिया की देखकर पूछा, ‘आखिर इतनी देर कहां लगा दी?
तूफान तो कब का थम चुका था।’
‘ देऽऽर?’-
शब्द पर जोर देते हुए बाबू ने कहा-‘यह कहें कि बहुत सबेरे हम यहां पहुँच गये।
मतिया की सेवा का फल कहें और बूटी का चमत्कार...ये न होती तो न जाने क्या
होता...मौत या फिर किसी दरिन्दे का भोजन...।’- मतिया की ओर देखकर नम्रता पूर्वक
कहा,और लाठी टेककर चलने को उत्सुक हुआ। बाकी लोग भी साथ-साथ बढ़ चले। साथ चलती,
मुस्कुराती हुयी मतिया बोली-‘ मेरी सेवा का क्या कहते हो बाबू !
हाँ, बूटी का भले ही बखान कर सकते हो,जिसकी बदौलत इतनी जल्दी दर्द
में राहत मिली।’
इतना कहकर
मतिया ने पूरी बातें गोरखुआ को बतला गयी- कैसे खुद तूफान में फंसी,कैसे भेड़ ने
यहां तक पहुँचाया,बाबू पर नजर पड़ी....आदि सारी बातें।
‘जैसा कि
सोनुआँ कह रही है बाबू ,मालूम चलता है कि चोट गम्भीर है। पेट में पत्थर चुभना,कोई
मामूली बात थोडे जो है।’- डोरमा ने कहा मतिया की बात पर गौर करते हुए।
‘ऐसा करते
हैं, बाबू को कंधे पर उठा लेते हैं। धीरे-धीरे चलने में देर भी हो रही है,और इनको
तकलीफ भी।’- होरिया ने कहा।
इन लोगों
की आपसी बातचित बाबू समझ न पाया,क्यों कि वे कोई जंगली-पहाड़ी
बोली बोल रहे थे। उसे तो पता तब कुछ
चला,जब अचानक अपने हाथ का मसाल डोरमा के हाथ में थमाकर,गोरखुआ बाबू के पास आया,और
बिना कुछ कहे-पूछे खटाक से उठा लिया बिलकुल बच्चों की तरह अपने कंधे पर।
‘अरे..ऽ..रे..ऽ..रे..ऽ..रे...!
ये क्या करते हो भाई ! मैं तो खुद ही चल रहा हूँ..।’-बाबू कहता ही
रहा,पर गोरखुआ माना नहीं,बाबू को कंधे पर लादे ही रहा।
‘ आराम से
बैठे रहो बाबू ! हर्ज क्या है इसमें,मैं तो पहले
जान ही न पाया कि तुम इतनी तकलीफ में हो...।’- हँसते हुए गोरखुआ ने कहा।
‘ चलो ठीक तो
है। जल्दी घर पहुँच जायेंगे हम सब। तुम्हारे साथ हमें भी धीरे-धीरे चलना पड़ता,और
तुम्हें दर्द भी सहना पड़ता,उधर मेरी नानी की घबराहट बढ़ती। वह तो मेरी लाचारी थी
कि तुम्हें इतनी दूर पैदल चलायी नहीं तो क्या मैं बाज आती...’- बाबू के भारी-भरकम
देह की ओर इशारा कर,मुस्कुराती हुयी मतिया ने कहा।
उसका इशारा
समझ सभी एकसाथ हँसने लगे। भारी कंधे को मटकाते हुए गोरखुआ बोला, ‘ इसे तुम भारी
कहती हो,मेरे लिए इतना वजन है ही क्या?’
‘ ऐसे-ऐसे
दो-चार बाबुओं को बगल में दबाकर सारा जंगल घुम आये गोरखुआ।’- कहा भिरखु ने,जिसे
सुनकर सभी एक बार फिर ठहठहा उठे।
‘ डोरमा और
होरया कह रहा है कि कल मांदर बजाकर,इसी तरह बाबू को कंधे पर बिठाये पूरा गांव घुमायेंगे।’-
हँसते हुई मतिया ने कहा,जिसे सुन बाबू भी हँसे बिना न रह सका,किन्तु रह-रह कर पसली
वाला दर्द उसे परेशान कर दे रहा था,खास कर हँसते समय।
‘ यह तो
खूब रही तुमलोगों की योजना।’- हँसी के हिचकोले खाते बाबू ने कहा,जिसे सिर्फ गोरखुआ
ही समझ पाया,कुछ-कुछ मतिया समझी,और दूने वेग से हँस पड़े दोनों।
‘ कल भी
तुम्हारी सवारी यही रहेगी बाबू! समझ लो।’-
मतिया ने चुहलबाजी की।
इसी तरह
हँसते-बोलते सभी चलते रहे। रास्ते में ही भिरखू काका ने बतलाया कि किस तरह कजुरी
नानी रो-रोकर बेहाल हो रही थी मतिया के लिए। सबने काफी समझाया- बुझाया,किन्तु मानी
नहीं,अन्त में लाचार होकर सबको,निकलना पड़ा मसाल लेकर मतिया की खोज में। पर खुशी
की बात है कि मतिया तो मिल ही गयी सही-सलामत, साथ ही एक बाबू भी मिल गया- शहरी
बाबू।
नानी का
रोना-धोना जानकर मतिया के गालों पर आँसुओं की दो-चार बूंदें टपक पड़ी,करेन्द के
गोटे की तरह। कहने लगी- ‘मैं खुद ही बेचैन थी,जानती थी कि नानी जरा सी देर होने पर
परेशान हो जाती है। पर क्या करती,लाचारी थी। नानी के आँसू का खयाल करती या बाबू की
जान का ? इस हाल में कैसे छोड़ देती बाबू को?’
‘यह कहो कि
किसी तरह समझा-बुझाकर हमलोगों ने उसे रोका,नहीं तो वह भी साथ आने को बेताब थी
तुम्हें ढूढ़ने के लिए। कहती थी कि आज मेरी नातिन को जरुर बाघ खा गया,जैसा कि एक
दिन उसके बापू को खा लिया था। हाय मेरी नातिन ! ’- गोरखुआ ने इस बात को इस तरह मुंह बना कर कहा कि सभी एक साथ हँसने लगे।
‘ तो क्या
इसके बापू को भी बाघ खा गया था ?’- मतिया की ओर हाथ का इशारा करके बाबू ने पूछा।
‘हाँ
बाबू ! बेचारी कजुरी नानी पर विपत-पर विपत पड़ते गये। जन्म
के साथ ही माँ मर गयी मतिया की,जो इकलौती बेटी थी कजुरी नानी की। कोई लड़का-वड़का
था ही नहीं बाबू,जो बुढ़ापे का सहारा बनता। मतिया जब सात साल की हुयी तो बाप भी चल
बसा- बाघ के मुंह में....बेचारी मतिया तो अनाथ होकर भी सनाथ सी रही,किन्तु अभागी
कजुरी तो बरबाद हो गयी...।’-कहते हुए गोरखुआ बहुत सी पुरानी बातें बतला गया,कंधे
पर बैठे शहरी शिकारी बाबू को। मतिया और कजुरी के साथ-साथ अपने गांव गुजरिया की
करुण कहानी भी सुना गया कि किस तरह जुगरिया की याद में बसती बसी गुजरिया। सबके बाद
नम्र होकर पूछा- ‘इधर की तो बहुत बातें सुना गया बाबू! अब आप
भी बतलाओ कुछ- आजकल गान्ही बाबा का क्या हाल है?’
गोरखुआ के
मुंह से गान्ही बाबा की बात सुनकर बाबू को बड़ी खुशी हुई,साथ ही आश्चर्य भी। कुछ
कहने के बजाय केवल मुस्कुरा भर दिया। अपनी बात का जवाब न मिलता देख, गोरखुआ से रहा
न गया। उसने फिर टोका- ‘क्यों बाबू! कुछ
कहो न गान्ही बाबा आजकल क्या कर रहे हैं...?’-जरा ठहर कर फिर बोला- ‘ क्यों समझे
नहीं क्या गान्ही बाबा...?’
‘समझा भाई
! बिलकुल समझा । तुम महात्मा गाँधी की बात कर रहे हो ना?’
‘हाँ बाबू!
बिलकुल सही कहा तुमने।’- गोरखुआ ने सिर हिलाकर खुशी जाहिर की।
बाबू कुछ
कहना ही चाहते थे कि थोड़ी दूर पर एक और रोशनी दीख पड़ी,जो इसी ओर चली आ रही थी।
कंधे पर होने के कारण पहले बाबू ने ही देखा और बोल उठे- ‘देखो तो भाई,वह कौन आ रहा
है हाथ में रोशनी लिए?’
बाबू की
बात सुन सब का ध्यान उस ओर गया। एड़ियां उठाकर,ऊँचा होकर, सभी ने देखने की कोशिश
की। गांव अब करीब आ गया था। मतिया ने कहा, ‘ अभी पहचान तो नहीं आ रहा है,किन्तु
लगता है कि हमलोगों की खोज में ही दूसरी टोली चल चुकी है।’
‘ हो सकता
है।’-सबने मतिया की बात पर हामी भरी। कुछ और बातें करते हुए लोग थोड़ा और आगे बढ़े,तब
तक दूसरी टोली भी कुछ करीब आ गयी। लोगों ने देखा- दो-तीन औरतें और मरछुआ को साथ
लिए कजुरी नानी चली आ रही है,लाठी टेकती,साथ में झरंगा भी है।
‘आखिर
बुढ़िया मानी नहीं।’- भिरखू ने कहा।
‘मानती
कैसे? नातिन का मोह क्या उसे चुप बैठने देता?’-कहते हुए गोरखुआ ने अपनी चाल कुछ
तेज कर दी। उसके साथ ही बाकी लोग भी झपट कर आगे बढ़ने लगे।
पास
पहुँचने पर मतिया लपक कर नानी से लिपट पड़ी,जिसकी रोते-रोते घिग्घी बंध गयी थी।
देखते ही बुढ़िया का रोना फिर जोर पकड़ लिया। लिपट पड़ी वह भी। ऐसा लगा मानो काफी
दिनों के बाद नानी-नातिन का मिलाप हो रहा हो। देर तक लिपटी रहने के बाद आंसू
पोंछती मीठी झिड़की सहित बोल पड़ी- ‘ तुमने इतनी देर कहां लगा दी? मैं तो
ना-उम्मीद ही हो गयी थी।’
‘देर क्या
लगा दी, देखो तो आज तुम्हारी नातिन कितनी बहादुरी का काम कर आयी है।’-हँसते हुए
होरिया ने जब कहा तब बुढ़िया का ध्यान गोरखुआ के कंधे पर बैठे बाबू पर गया।
‘ये के कोन
ठहर पाइस तोंयरे?’- बाबू की ओर देखती बुढ़िया ने पूछा। बाकी औरतें और मरछुआ भी
चकित होकर बाबू को देख रहे थे,मानों कोई अजूबा चीज देख रहे हों।
‘चलो,अब घर
पहुँचकर ही सुनायेंगे,क्यों कि बड़ी लम्बी कहानी है।’- गोरखुआ कह ही रहा था कि
बाबू ने उसके सिर पर धीरे से अपनी अंगुली का ठोंकर मारते हुए कहा- ‘अब तो कम-से-कम
मुझे नीचे उतारो गोरखू भाई।’
‘क्या ऊपर
बैठे-बैठे भी थक गये हो बाबू? अच्छा आओ,नीचे आ जाओ।’- गोरखुआ ने कहा,बाबू को नीचे
उतारते हुए।
नीचे उतर
कर बाबू ने नानी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। कुछ देर तक बूढ़ी आँखें निहारती
रही,उन जवान भूरी आँखों को,जो बिलकुल ही अनजान थी इस इलाके से।
थोड़ा
ठहरकर सभी चल पड़े गांव की ओर। आसमान साफ था। चाँद अपनी चांदनी बिखेर कर कजुरी की
खुशी का मजा ले रहा था। आज उसकी प्यारी नातिन मौत के मुंह से मानो वापस आयी है।
मतिया इसलिए खुश हो रही थी कि आज वह एक अनजान परदेशी की जान बचाने में सफल हुयी
है। गोरखुआ इसलिए खुश है कि आज एक शहरी बाबू उसके गांव का मेहमान बना है। जी भरकर
उससे गान्ही बाबा की बात सुनेगा,जानेगा।
सभी घर
पहुँचे। कजुरी बुढ़िया की झोंपड़ी के बाहर ही खाट बिछायी गयी,और उस पर एक कम्बल
डाल दिया गया,जिसपर बाबू को आदर सहित बैठाया गया। बाकी लोग भी अगल-बगल से घेर कर
वहीं जमीन में बैठ गये,कुछ खड़े हो गये।
आँधी की
तरह सभी घरों में बात फैल गयी- मतिया अपने साथ एक शहरी बाबू को ले आयी है...बाबू
कोट-पतलून पहने हुए है...उसके पास एक ऐसी चीज है,जिससे रात-दिन का पता चलता
है...लगता है कि खुश होकर सरनादेव ही पाहन का रुप धर कर गांव में आए हैं...अब गांव
और खुशहाल होगा...कल गोरखुआ पाहन को कंधे पर बिठाकर सारा गांव
घुमायेगा..ढोल-मजीरे-मान्दर बजेंगे...मोर-पंख लगाकर सोहनु काका,भिरखु काका
नाचेंगे...,जितने मुंह उतनी बातें..। थोड़ी देर में ही पूरे गांव ने टिड्डी-दल की तरह
उमड़ कर, कजुरी बुढ़िया की झोपड़ी को आ घेरा। कोई हाथ जोड़कर,कोई सिर झुकाकर,कोई
घुटने टेककर,कोई जमीन में कटे रुख की तरह गिर कर बाबू का अभिवादन किया। कोई अपने
घर से मोर पंख का जंवर लेकर दौड़ा,कोई महुए का भुजना,कोई ठर्रा,कोई हँड़िया(आदि
वासियों का प्रिय पेय पदार्थ,जिसे चावल आदि को संधान कर बनाया जाता है),कोई दोना
भर कर शहद,कोई कुछ,कोई कुछ,जिसे जो मिला चटपट लेकर बाबू के सामने लाकर,नजर भेंट
किया। भोले-भाले वनवासियों की आवभगत देखकर बाबू फूला न समाया।
‘ओह! कैसा
निःछल स्नेह है इन वनवासियों का। लगता है- इन लोगों के लिए भगवान ही उतर कर चले आए
हैं...।’-बाबू होठों ही होठों में बुदबुदाया।
‘बाबू के
वदन में झरबेरी के बहुत सारे कांटे चुभे हैं नानी। ’- कहा मतिया ने,तो चौंक उठी
बुढ़िया, ‘ओंय ! तोंय बोलले कायनी ? अभी इसका
उपाय करती हूँ।’
‘बुढ़िया
के कहने पर मरछुआ को दौड़ाया गया,‘जा,कोरीला बूटी लेआ दौड़ के।’
‘थोड़ी ही
देर में मरछुआ एक भूरी सी बूटी उखाड़ लाया। गोरखुआ की मां जल्दी-जल्दी उस घास को
पत्थर पर पीसने लगी। दो-तीन और भी बूटियां मिलायी गई उसमें- बुढ़िया के कहे
मुताबिक।’
‘सारे
कपड़े उतार दो बाबू! देखो,अभी तुम्हारा
सारा दर्द दूर हुआ जाता है।’- गोरखुआ के कहने पर बाबू ने एक-एक कर सभी कपड़े उतार
दिए। वदन पर सिर्फ लंगोट रह गयी। हालांकि इस वेश में बाबू को बड़ा बुरा लग रहा
था,पर उन वनवासियों के लिए इतना कम कपड़ा वदन पर रहना- कोई नयी बात थोड़े जो थी।
कजुरी
बुढ़िया ने अपने कांपते हाथों से बाबू के पूरे वदन पर लेप किया उस बूटी का। मतिया
एक दोने में दौने का खीर,महुए की लाई,और एक दोने में शहद ले आयी। डोरमा ने ताजा
पानी लाकर हाथ-पैर धुलाये। अपने अंगोछे से खुद आहिस्ते-आहिस्ते,सावधानी से पोंछा,
ताकि बाकी जगहों का लेप छूटने न पाये।
‘लो इसे
खालो बाबू! फिर दवा भी खानी होगी।’-दोने
सामने रखती हुई मतिया ने कहा।
‘क्या है
यह सब?’- बाबू ने गौर से दोनों को देखते हुए पूछा। उसके लिए ये सभी आश्चर्य जनक चीजें
थी। ऐसे-ऐसे सामान भी खाये जाते हैं- देखना और खाना तो दूर, बाबू ने कभी सुना-सोचा
भी नहीं था।
‘खाओ न
बाबू!
खाकर देखो,तब न पता चलेगा कि कैसा-क्या है।’- गोरखुआ ने कहा, और फिर
अपनी मां की ओर देखकर बोला-‘अपने घर में जाकर,वहां जो ताक पर दोने में दाने की मुठरी और धुस्का(चावल-उड़द का बना हुआ पकौड़े
जैसा एक खाद्य पदार्थ) रखा है,उसे भी ले आ। कस्बे से लाकर ही रख छोड़ा था।’
थोड़ी ही
देर में दोने और भी आ गये। किसी और घर से कुछ और भी आया। भूख तो काफी तेज लगी थी
बाबू को। थोड़ी-थोड़ी सब चीजें लेकर खायी बाबू ने। कुछ अच्छी लगीं,कुछ को खाकर
नाक-भौं सिकोड़ा;किन्तु वनवासियों के प्रेम और ममता के चलते सब चीजों में अजीब सा
रस भर आया था। फलतः बाबू को भोजन में सन्तोष और आनन्द मिला। मतिया ने पानी लाकर
हाथ धुलवाया। पीने को भी दिया। फिर एक और दोना ले आयी, ‘इसे भी पी लो बाबू!’
‘ये
क्या है ? अब जरा भी कुछ खाने-पीने की इच्छा नहीं हैं,पेट एकदम भर गया है।’-अपने पेट पर हाथ फेरते हुए,सामने के दोने में झांककर, बाबू ने देखा-कुछ
पनीला सा सामान है,जिससे अजीब सी बदबू आ रही है। जी में आया- नांक बन्द कर ले। तभी
गोरखुआ ने कहा- ‘ ये नहीं,ठहरो,मैं दूसरी चीज लाता हूँ बाबू के वास्ते।’- गोरखुआ
अपने घर की ओर भागा।
थोड़ी देर
में एक अधबोतली लिए आ पहुँचा। उसे बाबू को देते हुए बोला- ‘ इसे पी लो बाबू!
हरारत बिलकुल मिट जायेगी।’
बाबू ने
देखा- बोतल में कच्ची शराब- महुए वाली। ‘नहीं-नहीं,मैं शराब नहीं पीता। ये सब
पीना,हमलोग खराब मानते हैं।’
‘इसे बुरी
चीज कहते हो बाबू? इसके वगैर तो हमारे यहाँ पूजा भी नहीं होती।’- कहती हुयी मतिया
झट गोरखुआ के हाथ से बोतल लेकर,चट ढक्कन खोली,और बाबू के मुंह से लगा दी। ‘पीओ,तब
देखो इसका मजा।’ हां-हां करते भर में दो चुल्लु भर गया बाबू के मुंह में। गला जलने
लगा। उबकाई सी आने लगी,किन्तु उगले भी तो कैसे ! मुंह तो बन्द था बोतल के मुंह से,जिसे मतिया सावधानी से पकड़े हुए थी।
लाचार होकर घुटकना ही पड़ा। फिर लगभग चौथाई बोतल उढेल दी बाबू के गले में। किसी
तरह मतिया का हाथ पकड़ कर हटा पाया बोतल को अपने मुंह से।
‘ यह अच्छा
नहीं किया तुमने । ज्यादा नशा हो जायेगा तब?’- थूक फेंककर बाबू ने कहा।
‘ नशा-वसा
कुछ नहीं होगा बाबू! इतने से ही कहीं
बेसुध होता है कोई आदमी? सारी तकलीफ छू हो जायेगी। अब आराम से सो जाओ,उधर ढाबे में
चल कर।’-बगल के वरामदे की ओर इशारा करती मतिया ने कहा।
बाबू ने
देखा- झोपड़ी के बगल में घास-पत्तों की छावनी और दो तरफ दीवार से घिरा
एक वरामदा,दो खाटें बिछी हुयीं थी,
जिसमें एक पर कम्बल हुआ था मुलायम रोंये का, दूसरी खाट खाली थी।
‘चलो बाबू !
तुम्हें बिस्तर तक पहुँचा दूँ।’-बांह पकड़कर उठाती हुई मतिया ने
कहा।
‘अब क्या
तुम हमेशा हाथ का सहारा देकर उठाती ही रहोगी मझे? ’- कहता हुआ बाबू खुद ही उठ कर
चल दिया उस ओर। खाट पर बैठते हुए बाबू ने पुनः कहा- ‘अब आप लोग भी आराम कीजिये।
बहुत तकलीफ दिया मैंने आप सबको।’
‘तकलीफ किस
बात की बाबू ? यह तो हमारा फरज था।’-हाथ में लिए पत्थर की छोटी कटोरी,खाट के पास
रखते हुए गोरखुआ ने कहा,और बाबू की खाट पर ही पायताने बैठते हुए बोला- ‘लाओ बाबू
,तलवे में जरा मलिस कर दूँ,वदन तो बूटी की लेप से पटा है।’
‘नहीं-नहीं,इसकी
कोई जरुरत नहीं है। इतना ही जो कुछ आपलोगों ने किया, मेरे लिए वही क्या कम है? इस
स्नेह और सेवा से क्या मैं उऋण हो सकता हूँ कभी?’- बाबू ने संकोचपूर्वक कहा,और
गोरखुआ का हाथ पकड़ लिया।
‘आदमी आदमी
की सेवा नहीं करेगा,तो और कौन करेगा बाबू? आज हमारा अहो भाग्य कि आप जैसे बाबू की
सेवा का मौका मिला,वह भी मतिया की कृपा से।’-गोरखु ने मतिया की ओर देखकर कहा,और
बाबू का पैर पकड़ कर तलवा सहलाने लगा।
तलवे में
तेल की मालिस से काफी राहत मिली। बाबू की आँखें झपकने लगी। यहाँ तक कि गोरखुआ की
बातों का जवाब भी सही ढंग से न दे पा रहा था। जबान लड़खड़ा रही थी। यह देख मतिया
ने कहा-‘ अच्छा भैया, अब सोने दो बाबू को। सुबह में फिर ढेर सारी बातें होंगी।’
‘हां-हां,सो
जाओ बाबू!
अभी तो आपके बारे में कुछ नहीं जान सके हैं,हमलोग,और
फिर गान्ही बाबा और सुराज के बारे
में भी तो आपसे पूछना-जानना है।’-कहता हुआ
गोरखुआ उठ खड़ा हुआ।
‘हां-हां,सब
सुनाऊँगा आपको।’-मुस्कुराते हुए बाबू ने कहा।
गोरखुआ
उठकर बाहर आ गया। कजूरी नानी एक चादर लाकर,बाबू के बदन पर डाल गयी- ‘अब सुईतजा
बाबू।’
चादर से
मुंह ढांपे हल्के नशे में डूबा बाबू नींद की गहरायी में गोता खाने लगा। बाहर देर
तक बैठे सभी लोग बाबू और मतिया की बातें करते रहे। मतिया के साहस और ममता की
सराहना करते रहे। सबसे अधिक खुशी तो कजुरी नानी को - ‘ मेरी नातिन बाघ के मुंह से
वापिस आयी है...अब बाबू को भी जाने न दूंगी...रखूंगी बिटवा बनाके...।’-कहा बुढ़िया
ने तो सभी ठहाका लगाकर हंसने लगे। हँसी के इसी गुलजार के साथ रात का जमघट खत्म
हुआ। सभी अपने-अपने घर गये। कोई बाबू की बात करते,कोई मतिया की।
सवेरा होते
ही कई लोग कजुरी नानी की झोंपड़ी के पास आ इक्कठे हुए,बाबू को घेर कर। आज मतिया भी
भेड़ चराने नहीं गई,और न गोरखुआ ही कहीं गया।
सबसे पहले
मतिया ने कपड़ा गीला कर,बाबू के बदन पर सूखे लेप को आहिस्ते-आहिस्ते पोंछा। कांटे
जितने भी चुभे हुए थे बदन में,बूटी के लेप की वजह से सबके सब चमड़ी से ऊपर झांकने
लगे थे। गोरखुआ बांस की एक छोटी सी चिमटी ले आया,और खींच-खींच कर सारे कांटे निकाल
दिया; फिर अच्छी तरह धोया जख्मों को। नीम की पत्ती पानी में उबाल कर,उसी से नहलाया
गया बाबू को। फिर माथे और पसली के बड़े जख्मों पर किसी मरहम का लेप लगाया गया।
गोरखुआ ने बतलाया कि यह लेप मधुमक्खियों के मोम,और भेड़ के घी में चिड़चिड़ा,और
कुकरौंदा का रस मिलाकर बनाया गया है। किसी भी जख्म को भरने में बड़ा ही कारगर है
यह लेप।
बाबू ने भी
अनुभव किया कि जख्म रात भरमें ही काफी हद तक ठीक हो गया था। बदन की पीड़ा तो
करीब-करीब गायब ही थी। कांटों के कारण जो तकलीफ हो रही थी,वो भी गोरखुआ की जादुई
विधि से ठीक हो गयी।
नहाने के
बाद दाने की लाई और शहद का जलपान कराया गया बाबू को। फिर आराम करने की इच्छा जाहिर
की। कारण कि थोड़ी-थोड़ी ठंढक महसूस होने लगी थी। उधर आकाश भी बादलों से भर आया
था। लगता था कि तुरन्त ही जोरदार बारिश होगी। लोगों ने अनुमान किया- मौसम की
गड़बड़ी से ही बाबू को जाड़ा लग रहा है। जख्म और चोट का भी प्रभाव हो सकता है।
मैदानी भाग में रहने वालों का पहाड़ी भाग में अधिक ठंढक लगती है प्रायः, किन्तु
क्षण-क्षण जाड़े को जोर बढ़ता गया,यहाँ तक कि बाबू के दांत किटकिटाने लगे। बदन
कांपने लगा। तीन-चार कम्बल और मोटा सा गेंदड़ा लाकर बाबू के बदन पर डाल दिया गया,
किन्तु इतने से भी जाड़े का जोर कम न हुआ। घड़ी भर तक यही क्रम जारी रहा। फिर बहुत
ही तेज बुखार हो आया,तब जाकर ठंढक कम हुई।
तेज बुखार
में बाबू का बदन तवे की तरह गर्म हो गया। मतिया चिन्तित होगयी, कजुरी बेचैन।
गुजरिया
गांव में मरछुआ के दादू सबसे बूढ़े आदमी हैं। जड़ी-बूटियों के मामले में उनकी
जानकारी का सभी लोहा मानते हैं। दौड़कर मतिया उन्हें लिवा लायी।
भेरखु दादू
आये। तेल लगाकर,लम्बे समय तक धुएं में तपायी गयी लम्बी लाठी-सी काया। कमर में मूंज
की पतली-सी रस्सी,जिसमें लिपटा बित्तेभर चौड़ा भगौना,जो एकमात्र कपड़ा था बदन पर।
नीचे से ऊपर एक सा रंग। इस एकता से बैर था यदि तो सिर्फ दांतों को,जो जीवन के
लम्बें सफर के बावजूद,उनका साथ दिये जा रहे थे। सूखी,किन्तु चमकदार चमड़ी का खोल
सा चढ़ा था हड्डियों पर,किन्तु हड्डियां पूरे जोर की थी,जिसकी गवाही दे रही थी-
टेकुए सी सीधी कमर,और बगल में झूलती दो लम्बी-लम्बी बांहें,जिनमें अजीब सी चंचलता
थी। आते ही कभी नब्ज पर दौड़ी,कभी माथे पर। फिर बड़ी सी बुद्धि समेटे,छोटी सी
खोपड़ी हिली,जिसका साथ उनके काले मोटे होठों ने भी दिया- ‘घबराने की कोई बात नहीं
है। अमिरता बूटी लाई के देई दे,साम तक बाबू बिलकुल चंगा हो जायेगा....।’
दादू के
कहने पर गोरखुआ,भागकर अमिरता बूटी ले आया। बाबू ने देखा- लम्बी, अगुंलियों सी
मोटी, लत्तीदार कोई बूटी थी,जिसमें पान के पत्ते जैसे पत्ते भी थे। मतिया ने उसे
पत्थर पर कूटकर,काढ़ा बनाया। छानकर,उसमें शहद भी मिलाया गया,और तब बाबू को कटोरा
भरकर पिलाया गया। जख्मों पर भी दादू के कहे मुताबिक हेजना,गिजना,और लोधरा की छाल
का लेप लगाया गया।
दवा पीकर
बाबू सो गये। बाकी कुछ लोग वहीं बैठे,बातें करते रहे। गोरखुआ के मन में सुराज की
बातें जानने की ललक बनी हुयी थी। मतिया भी बाबू के बारे में जानने को बेचैन। अभी
तक बाबू के नाम का पता न था किसी को,यह भी अजीब सी बात थी। सबके सब बाबू के जल्दी
ठीक हो जाने की कामना कर रहे थे।
लगभग पूरा
दिन, बाबू सोये ही रहे। बुखार कुछ कम जरुर हो गया,किन्तु बेचैनी और दर्द कम न हुआ।
शाम को भेरखुदादू फिर आये। नब्ज देखी। अमिरता के काढ़े में ही एक और बूटी का रस
मिलाने को कहा, ‘ ये रे गोरखुआ, लाईननीं तोंय पिपरिया बूटी,साथ में कलपनाथ आय
चिरात भी डाईल दे।’
पिपरिया,कलपनाथ,चिरात
और अमिरता का काढ़ा शहद के साथ पीकर,बाबू फिर सो गये। मतिया और गोरखुआ काफी देर तक
वहीं खाट के पास ही बैठे रहे। चिन्ता और बेचैनी में ही वह रात गुजरी। गोरखुआ और
मतिया पूरी रात वहीं बैठे बाबू के सम्बन्ध में ही बातें करते, चिन्ता में गुजार
दिये थे- कभी माथे पर पट्टी देते,कभी पानी पिलाते।
गुजरिया
में शहरी बाबू की दूसरी रात भी गुजर गयी। सुबह का सूरज गुजरिया वालों के लिए सुख
का सन्देशा लेकर आया। भोर होते होते,बाबू की तबियत काफी ठीक हो गयी। भाग-भाग कर
मतिया ने सबको बतलाया- बाबू के ठीक होने का समाचार दिया। पूरा गांव फिर एक बार उमड़
पड़ा बरसाती नदी की तरह। सभी आए बाबू को देखने के लिए। भेरखु दादू भी आए। नब्ज देख
कर बोले, ‘ अबकी बार किरता-चिरता का छनका पिलाओ बाबू को,शहद थोड़ा ज्यादा ही
डालना।’ फिर गोरखुआ से बोले- ‘ तू चला जा कस्बा,और पुराना सांठी चावल ले आ। उसी का
भात बनाकर शाम को खिलाना बाबू को।’
‘दादू के
कहने पर गोरखुआ जल्दी ही कस्बा चला गया। मतिया आज भी भेड़ चराने जंगल नहीं गयी। कजुरी
नानी सुबह में ही शहद और छनका पिलाकर जंगल की ओर चल पड़ी थी,कुछ कन्दमूल लाने के
लिए। और लोग भी बाबू को देख-देखकर अपने अपने काम पर चले गये,इस खुशी में कि अब
बाबू ठीक हो गया। शाम में जल्दी वापस आकर,बाबू के पास बैठकर तरह-तरह की बातें सुनी
जायेंगी।’
‘सभी चले
गये। रह गई अकेली मतिया। धूप जब थोड़ा ऊपर आयी,पत्थर की छोटी कटोरी में करंज का
तेल लेकर बाबू के पास गयी, ‘लाओ न बाबू जरा मलिस कर दूँ। कल तक तो बूटी की लेप के
कारण...।’
‘कितना
तकलीफ उठाओगी तुम,मेरे लिए मतिया? क्या जरुरत है
अभी मालिस की? दर्द तो दवा से ही छूमन्तर हो गया है।’- कहते रहे
बाबू,किन्तु मतिया क्या सिर्फ ‘ना’ कहने से मान जाने वाली थी ! जबरन बैठ गयी बाबू के पैर पकड़कर। बाबू को भी हार माननी पड़ी।
पिण्डलियों
में मालिस करती हुई मतिया ने कहा, ‘तुमने तो बाबू मेरा नाम उसी दिन जान लिया था
रास्ते में ही। गांव-घर सब देख-जान लिया यहाँ आकर; परन्तु अभी तक अपने बारे में
कुछ कहा-बतलाया नहीं। दो दिन बीमार ही पड़े रहे। अब तक तुम्हारा नाम भी नहीं जान
पायी,जो कह कर पुकारुँ।’
‘ अब तो
मेरे बारे में जानना ही बाकी रह गया है न,जान ही लो,देर किस बात की। वैसे पुकारने
के लिए तो तुमलोगों ने कई नाम रख दिये मेरे अब तक। मगर नाम बता देने से ही छुट्टी
मिल जाये तब न।’- मुस्कुराते हुए बाबू ने कहा।
‘वाह बाबू!
खूब कहा तुमने भी। नाम नहीं बतलाए,फिर भी लोगों ने कई नाम दे डाले।
आखिर नाम तो सिर्फ पुकारने के लिए ही होता है न या और कोई मकसद है
उसका?’- मुस्कुराती हुई मतिया ने
कहा,बाबू की ओर देखकर,जिसके साथ ही बाबू भी हँस पड़ा।
‘वाह
!
नाम का काम तो ठीक समझी,किन्तु मेरे लिए तुम भी कुछ अलग नाम चुन रखी
हो क्या ?’
‘चुन क्या रखूँगी मैं अकेले ही ? ’- मतिया कह ही रही थी कि बाबू बीच में ही टोक कर,हँसते हुए बोल उठा- ‘अकेले
क्यों,मेरा नाम चुनने-रखने के लिए दो-चार नौकर रख लो।’
मतिया
खिलखिलाकर हँस पड़ी। ‘नहीं बाबू ,नौकर की क्या जरुरत। कल ही की तो बात है,दोपहर
में जब तुम सोये हुए थे,तुम्हें देखकर गोरखुआ कह रहा था कि बाबू एकदम पलटन माफिक
लगता है। कपड़े भी पलटन जैसा ही पिहिरता है। कड़ी-कड़ी तनी हुयी मूछें देखकर तो
कमजोर कलेजा कांप जाये। लगता है बरछी सी घुप से घुस जायेगी दुश्मन की छाती में।’
‘गोरखुआ तो स्वयं ही दबंग है। देखी नहीं- मुझे कंधे पर बिठाकर कितने आराम
से ले आया। दूसरा होता तो नानी मर जाती।’- पैर पसारते हुए
कहा बाबू ने।
दूसरे
पैर की मालिश करती हुई मतिया ने कहा- ‘ मैं तो यही सोचती हूँ बाबू!
कि तुम्हें पलटनवां बाबू ही
कहा करुँगी।’
मतिया
की बात पर बाबू को जोरों की हँसी आ गयी। हो-होकर बड़ी देर तक हँसते रहा। फिर बोला-
‘ वाह,मेरा नाम तो अच्छा चुना तुमने—पलटनवांबाबू ! क्या ही नाम पलटनवांबाबू ! चलो,मेरे नामों की
श्रृंखला में एक और कड़ी जुड़ गयी...।’
मालिश
खत्म कर,तेल की कटोरी वहीं ढाबे में ताकपर रखकर,मतिया वहीं खाट के नीचे,सारंगा की
चटाई बिछा कर बैठ गयी। बाबू अपना नया नाम याद कर-करके हँसता-मुस्कुराता रहा। कभी
कुछ सोचता भी रहा। मतिया भी किन्हीं ख्यालों में खोई सी रही। इसी बीच गोरखुआ कस्बे
से लौट कर वापस आया सांठी का चावल लेकर।
‘कैसी
तबियत है अब, बाबू ? ’-आते ही पूछा
गोरखुआ ने बाबू से,जिसके चेहरे पर खुशी चहलकदमी करती नजर आयी उसे। दर्द और चिन्ता
की रेखायें कहीं खो गयी सी जान पड़ी।
‘
बिकलुल स्वस्थ हूँ गोरखुभाई।’- कहते हुए बाबू ने नीचे चटाई पर बैठी मतिया की ओर
देखा,और मुस्कुरा कर बोला- ‘जानते हो गोरखुभाई,अब तो मेरा नया नाम भी रखा गया
है...।’
‘क्या?’- चौंक कर पूछा गोरखुआ ने।
‘
हाँ भाई,आज मेरा नामकरण हो गया यहाँ।’- बाबू ने बात दोहरायी।
‘
तो क्या पहले से नाम-वाम नहीं था क्या?’-
बाजार से लाए गये सामानों को मतिया के आगे रखते हुए पूछा गोरखुआ ने,
‘ तो क्या नाम रखाया बाबू का ? मुझे जानने लायक है या नहीं ?’
‘नाम
तो था,परन्तु अब उसका मोल ही क्या रह गया? रही
बात इसे जानने की,तो आप ही लोगों का दिया हुआ सम्बोधन,और आपलोग ही न जान पायें-यह
कैसे हो सकता है?’
‘हमलोगों का दिया सम्बोधन ?
मैं कुछ समझा नहीं।’- पुनः आश्चर्य करते हुए
गोरखु ने कहा,और बाबू के साथ ही खाट पर बैठ गया।
‘और
नहीं तो क्या। मतिया कहती है कि आज से मेरा नाम पलटनवांबाबू रहेगा।’
बाबू
की इस बात पर जोर का ठहाका,झोंपड़ी की दीवारों से टकराया,और बच्चे की तरह बाबू
को,एकाएक गोद में उठाकर नाच उठा गोरखुआ- ‘वाह-वाह रे पलटनवांबाबू !’
गोरखुआ
की इस हरकत से मतिया भी खिलखिला उठी।
‘बार-बार
पूछने पर भी जब तुमने नाम बतलाया ही नहीं,तो आंखिर हम क्या करते?
पुकारने के लिए कुछ तो नाम चाहिए न? किन्तु
हां,सिर्फ नाम ऱख देने से ही काम थोड़े ही चल जाना है। घर,परिवार,बीबी,बच्चे सबके
बारे में पूछना-जानना क्या कम जरुरी है बाबू?’- मतिया ने कहा।
‘जरुरी तो
है ही।’- जरा ठहर कर,फिर बाबू ने कहा- ‘या कह सकते हैं कि कोई खास हर्ज भी नहीं है,इन
सबके जाने बिना।’
‘हरज क्यों
नहीं है बाबू!’- भोली
मतिया,कुछ रुआँसी होकर बोली, ‘क्या हमलोग इतना भी जानने का हक नहीं रखते तुम्हारे
बारे में?’
‘हक
क्यों नहीं है। सच पूछो तो तुमने मेरी जान बचाकर,नया जन्म दिया है। अब तो
माँ-बाप,भाई-बहन सब छ तुम ही लोग हो मेरे लिए। पुरानी बातें बतलाकर,अनावश्यक
तुमलोगों को पीड़ा पहुँचाना उचित और अच्छा नहीं समझता।’-
बाबू ने गम्भीर होकर कहा।
‘पीड़ा
क्या पहुँचाना बाबू ? मान लो कोई दुःख की बात है,तो तुम्हारा
दुःख अपना दुःख है। किसी का दुःख-दर्द सुन-सुनाकर,थोड़ा चैन तो जरुर मिलता है- दिल
को।’-गोरखु ने कहा, ‘वैसे कोई खास बात हो तो,हर्ज हो तो न
कहो। हमलोग ज्यादा जिद न करेंगे। पर, कम से कम नाम तो बतलाना ही चाहिए बाबू।’
‘ये कौन सी
बड़ी बात है।’-पूर्ववत गम्भीर रहते हुए कहा बाबू ने- ‘किसी समय में मैं अमरेश
था,पर अब तो...।’
युवती के
मुंह से बाबू का कथन सुन कर युवक अजय,जो बडी देर से मौन साधे, शान्त बैठा युवती की
बातें सुन रहा था- मतिया और पलटनवांबाबू की कहानी, अचानक चौंक पड़ा,मानों गहरी
नींद में किसी ने झकझोर कर जगा दिया हो। दरख्त का ढासना छोड़,पलथी मारकर शिलाखण्ड
पर बैठते हुए बोला- “ क्या कहा
तुमने,युवक ने नाम अमरेश बतलाया?”
“हां
बाबू! अमरेश ही कहा था उसने अपना नाम।”-
युवती ने आश्चर्य से पूछा- “किन्तु तुम इस नाम पर इतना चौंक
क्यों पड़े?”
“चौंकने
की ही बात है। तुम्हारी हर बात मैं बड़े ध्यान से सुन रहा हूँ। सुनते-सुनते कभी
ऐसा लग रहा है,मानो मस्तिष्क में बिखरे चित्रों की कतार सजी है। हर चित्र बिलकुल
पहचाना हुआ सा मालूम पड़ा,वैसी ही तुम्हारी बातें भी ऐसी लग रही हैं,जैसे कभी
सुनी-जानी हुयी बातें हैं;किन्तु कैसे,क्यों कब- कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। ”- मटकती आँखें बन्द कर युवक अजय मौन हो गया। उसके चेहरे पर गम,परेशानी और
दर्द की रेखायें उभर और मिट रही थी। युवती बिना कुछ बोले,बड़े गौर से उसके चेहरे
को देखती रही।
कुछ देर के
मौन के बाद युवक अजय फिर अपने-आप में बड़बड़ाने लगा- “
ओफ! मुझे क्या हो रहा है...कहाँ हूँ
...मैं...क्या..अजय...नहीं..नहीं...अजय...नहीं...मुन्ना...मुन्ना... नहीं...अजय
ही...मेरा मित अजय...मैंने जाना...है...कहाँ...किसके पास...मेरी...मंजिल...।”
बड़हड़ाते
हुए युवक ने अपना सिर झुकाकर सामने की शिला पर पटकना चाहा। तभी सामने बैठी युवती
कड़क कर बोली, “खबरदार! ये
क्या पागलपन है ?क्या जान देने पर ही उतारु हो गये हो?”
युवती की
चेतावनी का जोरदार असर हुआ अजय पर। सिर उठाकर एकबार ध्यान से देखा युवती की मदकारी
आँखों को,जिनमें स्नेह और क्रोध की परछाई और कालिमा दोनों एकसाथ नजर आयी उसे। कुछ
देर तक देखता रहा,फिर कुछ बोले बिना चुप होकर बैठ गया। युवती भी उसे निहारती हुई
चुप बैठी रही।
“ठिकाने
आया दिमाग कुछ ? ”- मुस्कुरा कर युवती ने पूछा।
अजय ने फिर
गौर किया उसके चेहरे पर, “ क्यों क्या बात
है,कुछ कह रही हो क्या
मुझसे?”
“कहूंगी
क्या कोई नयी बात। मैं तो कितनी देर से कहती आ रही हूँ। बीच में तुम खुद ही ऊँघने
लग जा रहे हो।”- युवती होठों ही होठों में मुस्कुराई,मानों
उसे अपने प्रयास में सफलता मिली हो।
“नहीं-नहीं,
अब नहीं ऊँघूंगा।”- अजय ने ना में सिर हिलाते हुए कहा-
“ बिलकुल नहीं ऊँघूंगा। कहो न क्या कह रही थी तुम?”
“यह
भी भूल गये कि मैं क्या कह रही थी ?”- युवती ने व्यंग्यात्मक
मुस्कान बिखेर कर पूछा।
“भूल
कैसे जाऊँगा,बिलकुल याद है। तुम यही कह रही थी न कि शहरी बाबू ने अपना नाम अमरेश
बतलाया।”- जरा सोच कर युवक ने कहा।
“हां,
यही कह रही थी।”- युवती फिर कहने लगी- “ मतिया द्वारा काफी जोर देने पर उस बाबू ने कहा कि वह आदमी मर चुका
है,जिसका नाम कभी अमरेश हुआ करता था। अब तो हाड़-मांस का पुतला भर एक रह गया
है,चाहे जो भी नाम दिया जाय उसे।”
“अमरेश
का नानोनिशान मिटाने के पीछे कोई बहुत बड़ी बजह रही होगी बाबू ?”- उसकी बात सुनकर गोरखुआ ने कहा।
“कुछ
ऐसा ही समझो भाई।”- किन्हीं यादों में खोये हुए बाबू ने
कहा,जिसका नाम अब पलटनवांबाबू रख दिया गया था मतिया द्वारा।
“ समझ
तो रही ही हूँ। मैं भी समझ रही हूँ ,और गोरखुभाई भी समझ रहा है, किन्तु इच्छा है-
विस्तार से जानने की,वो भी तुम्हारे मुंह से। खैर, नहीं चाहते तो छोड़ों,जाने दो
बाबू ,इसके लिए ज्यादा तंग भी न करुँगी तुम्हें। तुम्हारे दिल को चोट पहुँचे- ऐसा
कोई काम हमलोग नहीं करेंगे।”- कहती हुई मतिया गोरखुआ द्वारा
लाये गये सामानों की गठरी उठाकर झोंपड़ी के भीतर चली गयी। उसे जाते देख गोरखुआ ने
कहा- ‘ दादू ने कहा था – बाबू को सांठी का भात बनाकर खिलाने को। तुम तब तक बना
क्यों नहीं दे रही हो? अब तो शाम भी होने को आयी।’
‘ जाती
हूँ, बनाये देती हूँ। बहुत भूख लगी होगी बाबू को। सुबह में थोड़ा शहद और छनका लिया
था केवल। पेट में तो यूं ही छनका मचा होगा अंतड़ियों का।’- भीतर जाती, मतिया ने
कहा।
गोरखुआ
वहीं सारंगा की बुनी हुयी चटाई पर बैठा, तमाखू बनाते हुए बोला- ‘ अब तो बिलकुल ठीक
हो न बाबू ! सुनाओ न कुछ बढ़िया बात। ओह,
किसी भी बाबूको देखता हूँ तो मन ललच जाता है। आज भी कस्बे गया था जब सांठी लेने,तो
एक दुकान पर खड़े दो बाबुओं की बातें सुना- वे सब गोरा पलटन की बात कर रहे थे। फिर
एक ने कहा कि चिन्ता न करो,गान्ही बाबा फूंक मारकर सबको उड़ाय मारेंगे।’
गोरखुआ की
बात पर बाबू को हँसी आगयी- ‘गोरा पलटन को उड़ाये मारेगा गान्ही बाबा...क्यों
गोरखुभाई?’
‘हां,बाबू
! सुनते तो यही हैं कि गान्ही बाबा बिना तीर-कमान के,केवल
बातों के बल पर इन गोरों को कायिल करके वापस अपने देश जाने को मजबूर कर देगा।’
‘ सो बात
नहीं है गोरखुभाई। सच पूछो तो स्वराज्य केवल तीर-कमान से मिलने वाली चीज नहीं है,तोप-बारुद
से भी नहीं,और न केवल बातों का पिटारा खोलने से ही मिल सकता है। और यह भी न सोचो
कि हाथ जोड़कर अपने अधिकार के लिए प्रार्थना करने से ही मिल जायेगा। और मान लो यदि
मिल जाये तो भीख की तरह मिली कोई चीज अच्छी नहीं होती। भीख और भिखमंगे की औकाद ही
क्या?
पायी गयी चीज को हिफाजत से रखना कोई मामूली बात नहीं है। सबसे पहले
जरुरी है,गोरखुभाई कि हम देशवासी एक मत हों। आप देख रहे हैं कि इतना बड़ा देश
छोटे-छोटे रजवाड़ों में बंटा हुआ है,जो आए दिन अपने निहित स्वार्थ के लिए एक दूसरे
का खून बहा रहे हैं,और इसे ही स्वाभिमान कहते हैं।तुमने शायद सुना हो,भारत में जब-जब
आपसी फूट का बोलबाला हुआ तो विदेशियों को अपने करतब दिखाने का अवसर मिल गया। कोई
वीर बना, कोई व्यापारी। एक कहावत है न- घर फूटे गंवार लूटे...।’- पलटनवांबाबू खाट
पर इत्मिनान से बैठ कर समझाने लगा गोरखुआ को।
‘इसका क्या
अर्थ हुआ बाबू?’- गोरखुआ ने गर्दन टेढ़ी करके
बाबू की ओर देखते हुए पूछा।
‘कहने का
मतलब है कि आपसी बैर- बड़े-छोटे,जात-पात,अमीर-गरीब का भेद ही विनाश की जड़ है। और
इस जड़-मूल से ही परतन्त्रता का विषवृक्ष पनपता-फुनगता है। इस तरह की स्थिति जब-जब
भी जहां कहीं भी होगी,बाहरी लोगों को मौका मिलेगा ही,और बड़ा से बड़ा साम्राज्य भी
छिन्न-भिन्न हो जायेगा,पराधीन हो जायेगा।’- जरा ठहरकर बाबू ने फिर कहा- ‘ यही बात
हमारे यहां भी हुई गोरखुभाई। राजा प्रजा की सुख-सुविधा भूल कर ऐयाशी और धन-मद में
चूर होकर,प्रजा का शोषण-दोहन करने लगा,और फिर अपने अहंकार का प्रदर्शन ही एकमात्र
कर्म रह गया। सिर्फ आपस में टकरा कर ही रह जाते तो भी कम नुकसान होता,हुआ ये कि एक
को नीचा दिखाने के लिए दूसरे ने तीसरे का सहारा लिया,और तीसरे ने मदद कम,अपना
उल्लू अधिक सीधा किया। लूटपाट कर ले गया हमारे सोने की चिड़िया को। उसी का परिणाम
है,जो आज हमारी ये दशा बन गयी है। कुछ ने लूटा,कुछ ने नष्ट-भ्रष्ट किया- हमारी
संस्कृति को। गोरों ने हमारे ही लोगों से हमारे ही लोगों पर अत्याचार कराया।
सदियों से जो हमारी मातृभूमि के पैरों में परतन्त्रता की बेड़ी पड़ी हुई है,इसके
लिए हमारे ही लोग मुख्य रुप से जिम्मेवार हैं। ये रायसाहब और रायबहादुर और तरह-तरह
के खिताब वाले दीख रहे हैं,सच पूछो तो गोरों के चाटुकार हैं। कुछ खास चाटुकारों को
कुछ खास अधिकार देकर देश को लूटा है इन गोरों ने। और ये न भूलो गोरखुभाई कि ये आज
जो रहनुमाई कर रहे हैं- हमारे सच्चे सेवक हैं,इस भ्रम में न रहो। ये भी अपना उल्लू
ही सीधा करने में लगे हैं। गान्ही-गान्ही तो कर रहो हो,एक और नाम भी तुमने सुना
होगा- नेताजी सुभाष का। इनके विचार गान्धी के विचार से बिलकुल ही भिन्न हैं। ये
गरम और नरम दो विचार धारायें हैं। ये नरम कहा जाने वाले का सतत प्रयास है- गरम को
दबाने का। जबकि कि इन दोनों को मिलकर काम करने की जरुरत है,किन्तु काश !
ऐसा हो पता। मुझे तो डर है
कि देश का कुछ बहुत बड़ा नुकसान न हो जाये।’- चिन्ता प्रकट
करते हुए बाबू ने कहा- ‘हमें जरुरत है गोरखुभाई सच्चे देशप्रेमी की, न कि
सत्ताप्रेमी की। जरुरत है कन्धे से कन्धा मिलाकर आगे बढ़ने की। सबको साथ लेकर चलने
की। गांधी का अपना व्यक्तित्व है,अपना स्थान है,तो सुभाष का अपना। और सबसे अधिक
जरुरत है- भविष्य में होने वाले टकराओं को रोकने की,मतभेदों को दूर करने की।
स्वराज्य मिलना बहुत बड़ी बात है,पर उससे भी बड़ी बात है- उसे सहेज कर रखने की।
नींव की ईंट कंगूरे को देखने नहीं आयेगी,किन्तु इतना तो अवश्य है कि सम्भलकर चलना
होगा,रहना होगा,ताकि किसी तरह के झोंके का सामना किया जा सके।’
‘हां बाबू!
’-सिर हिलाकर गोरखुआ ने कहा- ‘हाथी पाल लेना
आसान है,पर उसका चारा जुटाना थोड़ा कठिन है।’
‘तुमने
सुना होगा गोरखुभाई! ’-बाबू ने आगे कहा-
‘ आये दिन कितने ही लाल स्वराज की जलती आग में अपने प्राणों की आहुति देते आ हे
हैं। नींव की इन अनगिनत ईँटों के त्याग से ही स्वराज्य का भव्य-भवन खड़ा होना
है,किन्तु फिर भेद-भाव,और आपसी टकराव के चूहे इस नींव को खोद डालें,तब की बात भी
सोचने वाली है। तिस पर भी मैं एक बात और सोचता हूँ गोरखुभाई, हो सकता है मेरी बात
पसन्द न आये,पर बात है सही। जैसी हवा चल रही है,स्वराज्य तो शीघ्र ही मिल
जायेगा,किन्तु सोचो जरा- तुम्हारी बन्दिनी माँ की जान बक्श दी जाय,दायें-बायें
दोनों हाथ काट कर,तो क्या तुम चाहोगे ऐसा? किन्तु तथाकथित शुभचिन्तकों का एक बहुत बड़ा
वर्ग इस बात पर भी राजी हो सकता है,क्यों कि उस मूर्ख को तो हर कीमत पर
स्वतन्त्रता चाहिए,ताकि उसकी कुर्सी आबाद हो सके। पर जरा सोचो- लहुलुहान उस माँ को
तुम क्या कहकर सान्त्वना दोगे? ’
बाबू सुराज
की बात बतला रहे थे,गोरखुआ से तभी सोहनु काका और भेरखु दादू भी आगये। गोरखुआ ने
चटाई खींचकर,उन्हें भी बैठने का इशारा किया। बाबू ने अपनी खाट की ओर इशारा करते
हुए कहा- ‘ अच्छा नहीं लगता गोरखुभाई ! ये
बुजुर्ग लोग नीचे बैठें। तुम बैठे हो वही बुरा लग रहा है मुझे।’
गोरखुआ ने
बाबू की बात ठीक से समझायी,तो वे दोनों हँसने लगे।
‘ओय गोरखुआ
, पाहन संग मोंय बईठबों?’- कहते हुए दोनों ही,नीचे चटाई पर बैठ गये। बाबू उनके सरल व्यवहार और अतिथि
सेवा-भाव पर मुग्ध,एकटक निहारने लगा।
धीरे-धीरे
शाम हो गयी। रात भी अपना खेमा गाड़ गयी। काम से वापस आ,एक-एक करके गांव के लोग
मतिया के ढाबे में जमा होने लगे। कजुरी नानी भी कुछ कन्द-मूल-फल लेकर आ पहुँची
अपनी राम मडैया में। आते ही पहले बाबू का हाल पूछी,सिर पर हाथ रख कर, ‘बोखार तो नी
आहे नीं बाबू? ’ और ‘ना’ का जवाब पाकर,खुशी से
भीतर चली गयी कमर झुकाये। झुकी कमर पर रखी गठरी को देखता रहा,खाट पर बैठा बाबू,जब
तक कि वह झोपड़ी के अन्दर घुस न गयी।
थोड़ी देर
में मतिया खाना परोस कर लायी- गहरे,थालीनुमा पत्तल में। अपने हाथों बाबू का
हाथ-पैर धुलाया उसने,फिर सामने बैठ गयी पत्तल और दोने परोस कर। बाकी लोग उधर ढाबे
में ही बैठे,आपस में बातें करते रहे। गोरखुआ वहाँ बैठे लोगों को बाबू द्वारा बतायी
गयी सुराज की बातों को कह-समझा रहा था।
बाबू के
विचार जान कर सबको बड़ा अच्छा लगा। सोहनु काका ने गोरखुआ से कहा, ‘ये रे गोरखुआ !
बाबू को कह-सुनकर यहीं रखले अपने गांव में ही। बड़ा अच्छा है बाबू।
गांव में रहने से हमलोग बहुत बात सीख लेंगे।’
सोहनु की
बात पर भेरखुदादू ने भी हामी भरी,और लोगों ने भी सिर हिलाये। गोरखु ने कहा- ‘
इच्छा तो मेरी भी यही है,किन्तु बाबू को अपना कोई काम-धाम न होगा,जो यहां पड़े
रहेंगे?
ये तो कहो कि अभी पूरी तरह से ठीक नहीं हुए हैं,इस कारण हमलोग से
सेवा ले रहे हैं,थोड़ा बहुत।’
‘बाबू करते
क्या हैं रे गोरखुआ,कुछ बतलाया उन्होंने?’-
पूछा डोरमा ने।
‘अभी तक तो
नहीं बतलाया,और ना ही ज्यादा पूछपाछ ही किया हमने।’- डोरमा की बात का जवाब दिया
गोरखुआ ने। थोड़ा ठहर कर बोला, ‘ अरे हां,याद आयी एक बात- कल करमा है न। अच्छे
मौके पर बाबू आ गये हैं। कल हम लोगन का परब खूब जमेगा।’
बाहर बैठे
ये लोग बातें कर ही रहे थे,तभी बाबू आगये खाना खाकर। हाथ धोते हुए बाबू को मतिया
ने बतलाया, ‘ करमा हमलोगों का बहुत बड़ा परब है। भादो इन्जोरा के एकादशी को बड़े
धूम-धाम से हमलोग इसे मनाते हैं। कल ही तो है यह परब। हर साल कल के दिन भेरखुदादू
के चौपाल में इकट्ठे होकर नाच-गान करते हैं हमसब। अब तो तुम ठीक ही हो गये हो बाबू।
कलतक और ठीक हो जाओगे। फिर तुम भी नाचना हमलोगन के साथ।’
मतिया की
बात पर बाबू मुस्कुराने लगे। खाट पर बैठते हुए बोले, ‘ मैं क्या नाचूँगा?
तुमलोग नाचना,हम बैठे-बैठे तुमलोगों का नाच देखेंगे।’
फिर देर
रात तक इसी तरह की बातें होती रहीं। पहले यह तय किया गया कि करमा के लिए क्या-क्या
तैयारी की जायेगी। किसके यहाँ क्या बनेगा- खाने-पीने के लिए।
खाना खाने
के बाद बाबू को सुस्ती सी लगने लगी। इस कारण वहीं खाट पर पड़े रहे। मतिया चादर
लाकर ओढ़ाती हुयी पूछी, ‘पैर दाब दूँ बाबू दरद है क्या?’
‘अरे
नहीं, दर्द-वर्द नहीं है,यूँ ही खाने के बाद आलस लगने लगा।’-
बाबू ने कहा।
‘तो फिर आज
भी जरा सा...।’- बाबू ने मतिया का इशारा समझ लिया, ‘ अरे नहीं, उसकी आज जरुरत
नहीं। मैं तो उस दिन भी नहीं लेता,तुमने ही जबरन उढेल दिया मेरे मुंह में। आज कुछ
नहीं,बस चुप सोना चाहता हूँ।’
‘तो सो जाओ
बाबू आराम से सो जाओ। कोई काम आजाये तो बुला लेना। मैं यहीं हूँ बाहर ढाबे में।’-कहती
हुयी मतिया बाहर निकल कर जा बैठी।
कहने को तो
बाबू ने कह दिया कि नींद आरही है,पर सही में नींद आती तब न। आँखें बन्द कर,मुंह
चादर से ढक लिया,पर मन चारों ओर दौड़ता रहा। बाबू को अभी नींद नहीं आरही है,यह बात
मतिया भी अच्छी तरह समझ रही थी,कारण कि बाबू करवटें बदल कर ओफ...आह...की आवाज
निकाल रहा था। गौर करने पर मालूम किया जा सकता था कि यह ओफ और आह वदन के दर्द का नहीं,बल्कि मन की किसी पीड़ा का
है। आज दोपहर में मतिया ने बहुत कोशिश की,किन्तु सफल न हो सकी जान पाने में। बाबू
की चुप्पी और मौन,बात बदलने की लत ने मतिया को और उत्सुक कर दिया था। वह लागातार
बाबू के ही विषय में सोचे जा रही थी। परन्तु अपनी बुद्धि और सोच के सहारे वह कहाँ
तक पहुँच पाती- बाबू को किस तरह की तकलीफ है?
‘मतिया
बाहर बैठी रही। भीतर ढाबे में बाबू खाट पर लेटा,करवटें बदलता रहा। मतिया ने भी
जान-बूझकर टोक-टाक करना अच्छा न समझा।
न जाने
बाबू को कब नींद आगयी। मतिया भी भीतर जाकर पड़ रही,झोपड़ी में। एक और खाट पर बूढ़ी
नानी कजुरी खर्राटे भर रही थी।
गुजरिया
में एक और रात गुजर गयी। दूसरे दिन का सूरज खुशी का सन्देशा देने आया वनवासियों के
लिए। सुबह से ही गांव में तरह तरह की तैयारियां होने लगी। झाड़ू- बुहारु किया गया-
गली-कूचों का।
नींद खुलने
पर बाबू ने देखा- मतिया अपनी झोपड़ी की सफाई में जुटी है। पतेले की दीवार पर
मिट्टी का लेप चढ़ाकर बनाई गयी झोपड़ी को चूने की तरह की ही सफेद मिट्टी से लीपी
जा चुकी है। लीपने-पोतने का ढंग भी कुछ अजीब ही लगा बाबू को- पूरी दीवार पर लगता
था कोई चित्रकारी की गयी हो- गोल-गोल सी,पर वह चित्रकारी न थी,लीपने का खास तरीका
था। मिट्टी,पत्ते और घास की झोपड़ी भी इतना मोहक लग सकता है- शहरी बाबू ऐसा सोच भी
न सकता था। खाट पर बैठे-बैठे ही कुछ देर तक अलसायी नजरों से देखता रहा- कभी मतिया
को,कभी झोपड़ी की दीवार और छप्पर को...। मतिया अपने काम में मस्त,जान भी न पायी कि
बाबू जग चुका है,और उसे देखे जा रहा है।
‘क्यों
सारी रात काम में ही लगी रही क्या?’-
पीछे से बाबू की आवाज सुन,मतिया चौंकी।
चेहरे पर
झुक आयी उलटी लटों को सुलझाकर ऊपर करती हुयी मतिया ने पीछे मुड़ कर देखा- बाबू उसे
ही देखे जा रहा था। मुस्कुराती हुयी बोली, ‘ कौन कहें कि बड़ी सी हवेली है,जिसकी
साफ-सफाई में दो-चार दिन लगने हैं। अभी कोई घड़ी भर पहले नींद खुली। सोची जल्दी से
निबटा लूँ घर का काम,जब तक कि बाबू सोये हैं।’
‘काम पूरा
हो गया या अभी बाकी ही है?’-खाट से उठकर खड़े होते हुए बाबू ने पूछा।
‘कुछ हो
गया,कुछ बाकी भी है।आधी घड़ी भर तो और लगेगा ही कम से कम।’-बाबू की बात का जवाब
दिया मतिया ने।
‘ठीक
है,तुम अपना काम निपटाओ,तबतक मैं जरा टहल आता हूँ जंगल की तरफ।’-चादर समेटते हुए
कहा बाबू ने।
‘हां-हां,हो
आओ,परन्तु ज्यादा दूर इधर-उधर मत निकल जाना। अनजान है सब तुम्हारे लिए।’-बांयी हाथ
का इशारा करती हुयी बोली- ‘उधर पास में ही एक झरना है,उधर जाना ही अच्छा रहेगा।
तबतक मैं भी अपना काम निपटा कर उधर ही नहाने आऊँगी। आज सारा दिन हमलोग खाना-वाना
नहीं खाते। दोपहर तक तो गांव की सफाई में ही निकल जाता है,फिर सब मिलकर अपने-अपने
भेड़-बकरियों,गाय-बछरुओं को साथ लेकर झरने पर नहाने जाते हैं।’
‘तो क्या
और दिन नहाना नहीं होता है क्या?’- मुस्कुराकर बाबू ने पूछा।
‘अजीब बात
करते हो बाबू।’- पोतन चलाते मतिया के हाथ,अचानक थम गये-‘नहाना क्यों नहीं होता?
होता है,रोज,वहीं झरने पर ही;किन्तु आज का नहाना कुछ और ही मजेदार
होता है – सबलोग साथ मिलकर नहाते
हैं जो।’
‘अच्छा! मैं भी देखूँगा तुमलोगों का मजा।’-कहते हुए बाबू चल
दिया वहां से। उसे जाते देख मतिया ने टोक कर पूछा- ‘तुम्हारे लिए क्या बना दूँ
बाबू सुबह के जलखई में?’
‘कोई खास जरुरत नहीं। जब सारा गांव बिना खाये रह सकता है,फिर मैं क्या....?’- मुस्कुराते हुए बाबू ने कहा, ‘वैसे हमारे यहां भी
लोग एकादशी-त्रयोदशी बहुत तरह का व्रत- उपवास करते हैं। हालाकि मैंने कभी किया
नहीं ये सब। आज जी चाहता है कि तुमलोगों के साथ मैं भी इसका आनन्द लूँ।’- कहते हुए
बाबू बाहर निकल गया झरने की ओर।
बाबू
काफी देर तक उधर ही टहलता रहा। नये-नये अनजान पेड़-पौधों को गौर से देखता रहा,और
देखता रहा झरने का गिरना-बहना। फिर ध्यान आया,बहुत देर हो गयी, अब वापस चलना
चाहिए।
सोच
ही रहा था,तभी देखा,ढेर सारे मर्द-औरत,बच्चे-बूढे चले आ रहे हैं उसी ओर। किसी के
हाथ में मिट्टी की कलशी है,किसी के हाथ में भेड़ का पगहा,कोई अपनी गायों को लिये आ
रहा है,तो कोई बकरियों के झुंड को।
मतिया
भी एक हाथ से सिर पर रखी कलशी पकड़,दूसरी में कपड़ों का गट्ठर दबाये, चली आरही है।
भेड़-बकरियों,गाय-बछरुओं,औरत-मरद-बच्चों
की भीड़ आजुटी झरने के पास।
‘तुम्हारे
कपड़े भी लेती आयी हूँ बाबू,तुम भी नहा लो,तबतक मैं मैले कपड़े कचार लेती हूँ-
‘रेहड़ा’ से।’-सिर के कलशी,उतार नीचे रखती हुयी मतिया ने कहा।
‘नहाना
तो है ही।’-कहता हुआ बाबू बैठ गया वहीं पास के ढोंके पर। मतिया कपडों का गट्ठर
लेकर वहीं बैठ गयी एक चौड़ी चट्टान पर,जो आधा डूबा हुआ था पानी में। इस तरह की और
भी कई चट्टानें आसपास बिखरी पड़ी थी,जो नहाने, और कपडे धोने के लिए उपयोगी लग रही
थी।
थोड़ी
ही देर में सभी चट्टानें किसी न किसी के कब्जे में आगयी। कुछ लोग पानी में उतर गये
अपने गाय-बछरुँओं की पूंछ पकड़ कर- उन्हें नहलाने-सहलाने। नंग-धडंग काले-काले
बच्चे भी झरने के उछलते जल में उछल-कूद मचाने लगे। पिघली चांदी सी, झरने का झागदार
पानी,छपक-छपक करते बच्चे,तैरती गायें...बड़ा ही मनोरम लग रहा था- बाबू को। शहरी
बाबू के लिए ये सब कुछ बिलकुल ही अजूबा था।
कपड़े
धोने के बाद,मतिया काली मिट्टी लगाकर भेड़ को मलमल कर नहलायी,फिर नानी को भी
नहलाने के लिए पानी में उतार लायी। काली मिट्टी से ही उसका सिर मली, नहलायी,कपड़े
कचारे। सबके बाद,हाथ में मिट्टी का एक बड़ा सा टुकड़ा लेकर,चट्टान पर बैठे बाबू के
करीब आयी।
‘आओ न बाबू,तुम्हें भी नहला दूँ,मिट्टी लगा कर।’
‘
मिट्टी लगाकर? ’- बाबू हँसा- ‘मैं भी क्या भेड़ हूँ जो
मिट्टी लगाकर नहाऊँ ? ’
थोड़ी
ही दूर पर एक चट्टान पर बैठा गोरखुआ अपने कपड़े कचार रहा था। वहीं से हांक लगायी-
‘यहाँ तो हम सब इसी से नहाते हैं बाबू।’
मतिया
ने कहा- ‘देखे नहीं बाबू नानी किस तरह मूंड मल-मलकर नहायी। इससे धोने से बाल
बिलकुल मुलायम हो जाते हैं रेशम जैसे।’
पास
आकर गोरखुआ ने एक पोटली में से भूरी-सी चमकीली,मिट्टी की रोड़ियों जैसी कोई चीज
निकाल कर दिखाते हुए बोला- ‘ये देखो बाबू ! ये
रेहड़ा है। यह भी एक तरह की मिट्टी ही है,जिससे कपड़े धोये जाते हैं।’
बाबू
ने गोरखुआ के कपड़ों को देखा,जो वहीं झाड़ियों पर पसरे,सूख रहे थे- बिलकुल साफ-
लकदक,धुले कपड़े,मानों उमदा किस्म के किसी साबुन से ही धुले हों।
‘नहाने
के लिए काली मिट्टी,कपडे धोने के लिए ये रेहड़ा मिट्टी,जमीन लीपने के लिए लाल और
गोरी मिट्टी,दीवारों के लिए सफेद चुनवां मिट्टी...। ये तरह-तरह की मिट्टी है बाबू।
सुनते हैं कि गान्हीबाबा भी काली मिट्टी से ही नहाते हैं और रेहड़ा से कपड़े धोते
हैं।’-कहा गोरखुआ ने,जिस पर बाबू हँसने लगा।
‘नहाते
होंगे तुम्हारे गान्हीबाबा। मैंने तो कभी देखा नहीं।’- कहा बाबू ने,और मतिया के
हाथ से कालीमिट्टी का एक ढेला लेकर,पानी में उतर गये- ‘अरे वाह,वाकई मिट्टी तो
बिलकुल चिकनी है मक्खन जैसी। देखता हूँ लगाकर। मैं तो समझा था कि रुखड़ी-कंकड़ली
होगी।’
‘...और
मुलायम वदन छिल जायेगा...क्यों बाबू यही बात है न?’- गोरखुआ और मतिया दोनों एक साथ एक ही बात बोल
पड़े।
बाबू ने
मिट्टी लगाकर,झरने में खूब गोता लगाया। आज कई दिनों बाद आसमान बिलकुल साफ हुआ था।
दोपहर का सूरज,ऊँचे आकाश में चमक रहा था। जाड़े की धूप की तरह बरसाती सूरज भी बड़ा
ही प्यारा लग रहा था। वन-प्रान्तरों में,झरनों,पहाड़ों के घेरे के ऊपर कुलांचे
भरता सूरज वाकई बड़ा ही सुहावना लगता है। अभागे शहरियों को ये सब कहाँ नसीब
है,जिन्हें खुला आसमान भी कभी-कभार ही दीख पड़ता है- बाबू ने मन ही मन सोचा।
भर लम्बी,सामान्य बांसुरी से थोड़ी मोटी,किन्तु
अनगिनत-बेतरतीब छेदों वाली,देखने में कोई खास नहीं,सब एक जैसे ही। किन्तु उनसे बनी
अलग-अलग चित्रकारी बड़ी ही मनमोहक थी। किसी एक चित्र को सीधे हाथ से बनाने पर
घंटों लग सकते थे,जो कि इस फोंफी से बस मिनटों का काम था।
‘अपने घर
जाते वक्त,तम्हें भी नानी की बनायी इन फोंफियों में से कुछ दे दूंगी। वहां जाकर
लोगों को दिखाना- गुल-बूटे बनाने की कला।’- कहा मतिया ने,तो उसकी बात काटते हुए
गोरखुआ बोल उठा- ‘क्या कहती हो- बाबू जायेंगे यहाँ से?
हमलोग तो चाहते हैं कि बाबू कभी ना जायें यहां से हमलोग को छोड़कर।’
‘...ऐसा भी
कहीं होता है?’- मतिया धीरे से भुनभुनायी,जिसे
कोई सुन न पाया।
यह सब
करते-कराते दिन ढल गया।अब तैयारी होने लगी ‘करमडाढ़’ लाने की। मतिया ने बाबू को
बतलाया- ‘आज के दिन हमलोग करमडाढ़ की पूजा करते हैं।चलो बाबू!
तुम भी तैयार हो जाओ,चलने के लिए।’
‘कहां चलना
है?’- बाबू ने पूछा।
‘यहां से
थोड़ी ही दूर पर एक पहाड़ी है,वहीं चलना है। सभीलोग चलेंगे वहां।’-मतिया ने कहा।
ये लोग
बातें कर ही रहे थे कि होरिया कन्धे से मान्दर लटकाये आ पहुँचा। आगे आगे होरिया
चला- मान्दर बजाते हुए,और उसके पीछे मिट्टी की नयी कलशी में पानी भर कर सिर पर रख,डोरमा
की बहन मंगरिया चलने लगी। उसके पीछे सफेद कपड़े पहने,सिर पर मुड़ासा बांधे, गांव
के पाहन भी चलने लगे। उनके पीछे बाकी लोग।
गोरखुआ ने
बाबू को बतलाया-‘ ये पाहन ही किसी उत्सव-परब में हमलोगों के यहां पूजा करते हैं।’
‘यानी कि
पुरोहित।’- बाबू ने कहा- ‘हमलोगों के यहां पूजा-पाठ कराने का काम पंडितों का है।
पर्व-त्योहार हो,या शादी-विवाह,या कि जन्म-मरण- इन पंडितों को चूँगी दिये वगैर
गुजारा नहीं। तुम दुःखी रहो या सुखी ,इन्हें खुश पहले करो। और हाँ,कितना हूं दे दो,ये
खुश होते नहीं जल्दी।’
‘चुंगी
कहते हो बाबू? ये पाहन ही तो सब कुछ हैं। इनके
खुश रहने पर ही देवता भी खुश होते हैं। इनकी नाराजगी देवताओं की नाराजगी है। पाहन
चाह जाये तो बादल बरसात करना बन्द कर दें। खेतों में अनाज न उगें,पेड़ों में
फूल-फल भी ना लगे...।’
गोरखुआ की
सादगी और भोलेपन ने बाबू को लाजवाब कर दिया। वनवासियों के दृढ़ विश्वास और अटूट
श्रद्धा पर कीचड़ उछालना उचित न जान,चुप रहना ठीक लगा।अतः बिना कुछ बोले,चुपचाप
सबके साथ चलने लगा।
पाहन के पीछे-पीछे
औरतों का झुंड गीत-गौनई करते चला जा रहा था। उनके पीछे मर्द और बच्चे। लगभग सारा
गांव जा ही रहा था। घरों में सिर्फ बूढे-लाचार ही रह गये थे। कुछ बूढे जो चलने के
काविल न थे,किसी परिजन के कन्धे पर चल रहे थे। छोटे बच्चे तो अपनी मांओं की पीठ पर
‘बंकुचों’ में बंधे चल ही रहे थे।
गांव से
काफी दूर जाने पर,एक छोटी सी पहाड़ी पर करम का एक गाछ था। और पेड़ों की तुलना में
यहां,इस करम गाछ की तलहटी में झाड़-झंखाड़ों का अभाव नजर आया बाबू को। गोरखुआ ने
बाबू को बतलाया- ‘यहां आकर हमलोग वर्ष में कई बार झाड़ियों को काट-कूटकर साफ-सुथरा
कर दिया करते हैं। वैसे तो पूरे जंगल में और भी बहुत से करम गाछ हैं,किन्तु यह गाछ
बहुत ही पुराना है। हर बार इसी की डाल ले जाकर,करमा के दिन पूजा की जाती है। यह
गाछ यहाँ कब से खड़ा है- गांव के सबसे बुजुर्ग भेरखु दादू को भी ठीक से पता नहीं
है।’
पेड़ के
पास पहुँच कर सभी उसे घेरकर खड़े हो गये। मान्दर के मधुर धुन के साथ गीत-गवनई चलने
लगा। मंगरिया ने सिर पर से कलशी उतार कर करमगाछ के नीचे रख दी। उसमें से थोड़ा सा
पानी अंजुली में लेकर,कुछ बुदबुदाते हुए पाहन ने जड़ पर छिड़क दिया। सिर
झुका,दोनों हाथ जोड़कर नमन किया,फिर कमर के पीछे हाथ बांध,जमीन पर झुककर प्रणाम भी
किया। फिर कुछ मन्त्र सा बुदबुदाते हुए,तीन बार ठोंका गाछ के मोटे तने को।
‘यह क्या
हो रहा है? ’-बाबू ने
पूछना चाहा कि तभी देखा- बन्दरों की तरह उछलकर पाहन करम की मोटी डाल पर चढ़कर,जा बैठा।
नीचे खड़े बाकी लोग खुशी से गीत गा-गाकर नाचने लगे।
बड़ी देर
तक यही क्रम चलता रहा। अन्त में एक छोटी सी डाल तोड़कर,पाहन जिस फुर्ती से ऊपर
चढ़े थे,वैसी ही फुर्ती से नीचे उतर भी आए। बच्चों के शोर और किलकारी के साथ
मान्दर का थाप फिर एक बार तेज हो गया।
अब आगे-आगे
पाहन चले- करमडाढ़ लेकर।उनके पीछे मान्दर बजाता डोरमा चला। वहां से चलते समय
होरिया से लेकर, डोरमा ने अपने कंधे पर मान्दर लटका लिया था। पीछे से बाकी लोग चले
चल रहे थे। पानी से भरी कलशी वहीं करमगाछ को पास छोड़ दी गयी थी।
पूछने पर
बाबू को मालूम चला कि उस कलशी के पानी में थोड़ा सा गुड़ घोला हुआ है। वनवासियों
का विश्वास है कि करम देव आज रात गाछ से उतर कर कलसी का पानी पीते हैं,और
वनवासियों को आशीर्वाद देते हैं,जिसके कारण गांव में खुशहाली आती है।
खाली हाथ
मंगरिया भी मतिया का हाथ पकड़े चल रही थी। बाकी औरतें तो गीत-गवनई में मस्त,पर
मंगरिया और मतिया आपस में बातें करती चल रही थी। मंगरिया ने मतिया से पूछा- ‘ये
बाबू कोन हे रे मतिया?’
मंगरिया के
पूछने पर मतिया सारी बात बतला गयी- कैसे तूफान में पड़कर बाबू ने धोखा खाया,मतिया
वहां कैसे पहुँची,और कैसे यहां तक ले आयी...।
गोई-बहिनापा
के नाते मंगरिया ने चुटकी ली, ‘बढ़िया चिड़ा फांस लायीन तोय रे मतिया...अब एके
उड़न न दे...।’
‘धत्त...।’-
मतिया ने प्यार से एक चपत लगा दी मंगरिया के गाल पर। मंगरिया ने फिर छेड़खानी की-
‘नानी कहती थी,मतिया अब सयानी हो गई है। कोई अच्छा सा ‘भांटू’ आ जाता मतिया के लिए।
मगर कौन आयेगा गरीब की झोंपड़ी पर...?’
फिर हंसती हुयी मंगरिया कहने लगी- ‘अच्छा हुआ रे मतिया,तुझे बैठे-बिठाये ही इतना
बढ़िया भांटू मिल गया बाबू जैसा। मैं तो कहती हूं- इसे हरगिज जाने ना देना।’
मंगरिया की
बात पर मतिया कुछ बोली नहीं। लजानी सी सूरत बना दूसरी तरफ मुंह फिरा ली। मतिया को
लजाती देख मंगरिया फिर बोली- ‘ लजाती क्या है रे मेरी लाडो सोनुआं !
एक ना एक दिन पाहन तेरी भी गांठ बांध ही देगा,किसी छोरे से। अब क्या
चाहती हो हरदम यहीं रहना?’
शरमाती
हुयी मतिया के आँखों में आंसू छलक आये। ‘ रहना क्या चाहूंगी ?
कोई रहा है जनम भर आज तक ? किन्तु नानी के
बारे में सोचती हूँ तो कलेजा हिल जाता है।’
‘नानी क्या
अमरत पीकर आयी है ? मान लो आयी भी हो, तो
क्या उसी के कारण अपनी जवानी बरबाद कर दोगी ? ’- मतिया के
गुदगुदे गाल पर अपनी अंगुली से कोंचती हुयी मंगरिया बोली, ‘ देख न मुझे ही,अमियां
बूढ़ी हो गयी है। पर क्या इसी को देखती बैठी रह जाऊँगी ? एक
ना एक दिन मनमसोस कर,छोड़कर जाना तो होगा ही। कल ही डोरमा कह रहा था अमियां से, इस
बार सोहराय के बाद मंगरिया का बिआह कर देना है।’
‘हो ही रहा
है,तो कर ले बिआह। चली जा गलबहियां डालकर...।’-हंसती हुयी मतिया ने कहा।
इसी तरह
बातें करती दोनों घर पहुंच गयी। और लोग भी गीत-गान करते दादू के चौपाल में पहुंच
गये। बाबू के साथ गोरखुआ भी हाथ बांधे आही पहुंचा।
करमडाढ़
वहीं चौपाल में एक जगह पर रख दिया गया,गीली मिट्टी के लोंदिये के सहारे खड़ा करके।
कुछ मर्द वहीं रह गये। औरतें अपने-अपने घर चली गयीं। बाबू को साथ लेकर मतिया भी
अपने घर आ गयी। यहां बाहर ढावे में बैठी बूढ़ी कजुरी दोनों की राह देख रही थी।
सूरज
पहाड़ों में जा छिपा था। रात की इन्तजार सबको थी आज। ढाबे के बाहर ही खाट बिछा
बाबू को बैठा कर मतिया भीतर चली गयी,यह कहती हुई, ‘तुम बैठो बाबू,नानी से बातें
करो। मैं तबतक परसाद बना लूँ।’
मंगरिया
इसे घर छोड़ पहले ही जा चुकी थी। उसे भी परसाद बनाने की जल्दी थी।
मतिया भीतर
चली गयी। बाहर खाट पर बाबू बैठे रहे। नीचे चटाई पर नानी पहले से ही मौजूद थी। बाबू
के आ बैठने पर कुछ-कुछ कहने-पूछने लगी।
हांलाकि,गोरखुआ
गांव के बहुत से लोगों को शहरी बाबूओं की बोली थोड़ा-बहुत सिखला चुका था। वैसे भी
मर्द लोग,जिन्हें बारबार कस्बा जाने का मौका मिलता था,कुछ रहन–सहन तौर-तरीका सीख
गये थे। कुछ औरतें भी होशियार हो गयी थी। परन्तु पुरानी पीढ़ी अभी ज्यों के त्यों
पड़ी थी अनजान सी।
इधर दो-तीन
दिनों से साथ रहते,बाबू भी कुछ कुछ समझने के काबिल हो गया था- इन लोगों की
भाव-भाषा। परन्तु पूरी तरह से बोल-समझ पाना सम्भव न था। नानी कुछ न कुछ कहे जा रही
थी। नानी और बाबू के बीच भावों और इशारों के साथ कुछ टूटे-फूटे शब्दों के मेल से
संवाद चल रहा था। तभी अचानक होरिया और गोरखुआ आ पहुंचे।
‘क्या
बातें हो रही हैं नानी से? कुछ पल्ले पड़ रहा
है?’-आते ही गोरखुआ ने पूछा और नानी के
साथ चटाई पर बैठ गया। होरिया भीतर चला गया मतिया को पुकारते हुए।
‘अभी इतनी
जल्दी क्या पल्ले पड़ना है। अब धीरे-धीरे सीख रहे हैं।’-बाबू ने कहा।
‘अब तो
तबियत बिलकुल ठीक है न बाबू?’- भीतर से आकर होरिया ने पूछा ,और पास ही चटाई पर बैठ गया।
‘
हां-हां,अब बिलकुल ठीक हूँ। दर्द-बुखार सब भाग गया। बस सिर्फ दोनों बड़े घाव भरने
रह गये हैं। उसपर भी अब पट्टी बांधने की जरुरत नहीं रह गयी है। यूंही थोड़ी सी दवा
दोपहर में नहाने के बाद मतिया लगा दी थी। एक-दो दिनों में वह भी भर ही जायेगा। फिर
सोचता हूँ..।’- बाबू कह ही रहा था कि बीच में ही टोक दिया गोरखुआ ने, ‘सोचते क्या
हो बाबू? ’
‘यही कि कब
तक पड़ा रहूँगा यहां मेहमानबाजी करते?’-
आहिस्ते से कहा बाबू ने।
‘पड़ा क्या
रहना है बाबू! और फिर जाने की क्या जल्दी है?
अभी तो तुमसे जी भरकर बातें भी नहीं कर पाया हूँ। ठीक से तुम्हारा
हाल-चाल भी कहां जान पाया हूँ। इधर दो दिनों तक तुम बिलकुल बीमार ही रहे। आज का
सारा दिन परब के काम में लग गया। रात भी इसी में बीतनी है- पूरी रात जागना है। कल
का दिन सोकर आराम फरमाने का है। तब जाकर कहीं मौका मिलेगा तुमसे जी भर कर बातें
करने में। गान्ही बाबा की बहुत सी बातें तुमसे पूछनी है।’- गोरखुआ ने अपनी मुराद
जाहिर की।
‘पूछ लेना
भई,पूछ लेना,जितनी पूछनी हो,एक दिन..दस दिन..बीस दिन।’- सिर हिलाकर बाबू की ओर
देखते हुए होरिया ने कहा, ‘बाबू का तो काम ही है जाने की हड़बड़ी दिखाना,वो तो
हमलोगों का काम है कि बाबू को कितना दिन बाद छुट्टी देते हैं यहां से जाने की।’
होरिया की
बात पर दोनों हँस पड़े। होरिया की हां में हां मिलायी गोरखुआ ने सिर
हिलाकर, ‘ सो तो होगा ही होरीया
भाई,मेहमान लोग कब कहते हैं कि हम ठहरे रहेंगे... रोकना और बिदा करना तो हमलोगों
का काम है।’
जरा ठहर कर
मुस्कुराते हुए गोरखुआ ने पूछा, ‘अच्छा बाबू ! ये
तो बतलाये नहीं कि तुम्हारा काम-धाम,रोजी-रोजगार क्या है,कैसा है,कहां है? मैं तो कहूँगा कि कोई हरज ना हो तो यहीं रहो न कुछ दिन- महीना दो महीना।
तुम्हारे साथ रह कर हम लोग भी कुछ बढ़िया बात सीख-समझ लेंगे।’- घिघियाता हुआ-सा,हाथ
जोड़कर गोरुखुआ बैठ गया बाबू के पैरों के पास।
‘ अच्छा
देखा जायेगा। जैसी मर्जी होगी ऊपर वाले की।’- ऊपर की ओर अंगुली का इशारा करते हुए
बाबू ने कहा।
‘सब काम
ऊपर वाले की मरजी से ही नहीं होता बाबू। यहां तो जो भी होना है, तुम्हारी मरजी से
होना है। तुम चाहोगे तो रुकोगे...।’- गोरखुआ ने जोर देकर कहा।
‘अच्छा अब
चलना चाहिए यहाँ से। मतिया को भी तैयार होने को बोलता आया हूँ। बोली कि परसाद बना
कर तुरत चल रही हूँ।’- होरिया ने कहा- ‘ आप भी तैयार होजाओ न बाबू।’
होरिया के
कहने पर नानी उठ कर अन्दर गयी। बाबू के कपड़े ले आयी। बाबू जब अपनी पतलून-कमीज
पहनने लगा,तो गोरखुआ ने कहा, ‘ ठहरो बाबू ! ये
सब मत पहनो। आज परब का दिन है। जैसा हमलोग पहनते हैं,वैसा ही तुम्हें भी पहनना
होगा।’
बाबू कुछ
कहना ही चाहता था कि गोरखुआ बीच में ही बोल उठा, ‘ कल ही डोरमा को भेजकर कस्बे से
तुम्हारे लिए नयी धोती मंगवा दिया हूँ। उसे कह आया हूँ,लेकर आता ही होगा।’
बातें होही
रही थीं कि डोरमा एक पुलिन्दा लिए आ पहुँचा। गोरखुआ ने डोरमा के हाथ से लेकर,खोला
उस पुलिन्दे को- नयी धोती,रेशमी कुरता,सफेद मुड़ासा,मोर का पंख
सब निकाल कर बाबू के सामने खाट पर रख दिया।
बुढ़िया ने
देखकर खुश होते हुए कहा, ‘ ई का हेके रे गोरखुआ बाबू ले तोंय लाइन हेके की?’
‘हां
नानी। बाबू को आज पहनाऊँगा यह सब और साथ में नाचने के लिए ले चलूँगा।’- हँसते हुए गोरखुआ ने बाबू की बोली में ही कहा,ताकि बाबू समझे कि कपड़े
यूंही नहीं दिये जा रहे हैं,उसके बदले नाचना भी पड़ेगा। बुढ़िया खी-खी कर दांत
चिहारती रही।
‘इसकी क्या
जरुरत थी?
मेरे पास तो कपड़े थे ही। फिजूल खर्ज किया तुमने गोरखु भाई।’- बाबू
ने गरीब वनवासियों की स्थिति पर सोच कर कहा,जिनका दिल इतना बड़ा है।
‘फिजूल खरच
क्या है बाबू ? हम सब नया पहरेंगे आज परब के
दिन,और आप पुराना कपड़ा पीन्हकर करमपूजा करेंगे? जल्दी से
पिन्ह कर तैयार हो जाओ बाबू।’- कहता हुआ गोरखुआ अपने हाथ से कपड़े उठाकर,पहनाने
लगा बाबू को। होरिया पुराने कपड़ों को समेट कर भीतर चला गया मतिया के पास।
बाबू को
धोती-कुर्ता पहनाकर गोरखुआ ने अपने हाथ से मुड़ासा बांधा,और ऊपर से मोर का पंख भी
खोंस दिया। फिर हँसता हुआ, बाबू को तपाक से गोद में उठा,पूरे ढाबे में एक चक्कर
लगा,फिर खाट पर ला बिठाया।
‘देखे ना
बाबू! कितना बढ़िया लगा ये पहरावा?’- कहते हुए डोरमा हँसने लगा। हँसी में बुढ़िया ने
भी साथ दिया।
इतनी उम्र
में बाबू ने आज पहली बार ऐसा लिबास पहना था। ऊपर से नीचे तक एक बार खुद को निहारा,
‘ सच में अपने देश की पोशाक कितनी भली लगती है गोरखु भाई?
ओफ ! हम भारतीयों पर तो अंगरेजियत का भूत सवार
है- खान-पान,रहन-सहन,बोल-चाल सब पर अंग्रेजों का ठप्पा लग गया है। जितनी ताजगी आज
हम इस पहरावे में महसूस कर रहे हैं,सच पूछो तो आज से पहले कभी ऐसा नहीं लगा था। इस
ढीलेपन में ही एक अजीब सी चुस्ती महसूस हो रही है। जब कि पतलून की चुस्ती में भी
विचित्र तरह का कसाव और सुस्ती है...लगता है उन्मुक्त आत्मा बन्ध गयी हो शिकंजे
में...।’
‘ यह तो
बहुत बड़ी बात कह दी तुमने बाबू।’- कहता हुआ गोरखुआ फिर एकबार उठा लिया बाबू को
गोद में- ‘ गान्ही बाबा जिन्दाबाद....।’
जिन्दाबाद
के नारे के साथ हँसी का पटाखा एक बार फिर फूट पड़ा। भीतर से परात जैसे बड़े से
खोमचे में ढेर सारे पकवान लिए मतिया भी तैयार होकर आगयी होरिया के साथ। बाबू को
चक्कर घिन्नी खिलाया जाता देख खिलखिलाकर हँस पड़े वे दोनों भी।
‘वाह वाह
रे पलटनवां बाबू! कमाल कर दिया।’-
कहती मतिया सामने आ खडी हुई।
‘उतारो भाई
नीचे उतारो। तुम तो मुझे बिलकुल बच्चा समझ लिए।’- हँसते हुए बाबू ने कहा।
‘बच्चा कौन
कहता है?
तुम तो बहुत बड़े हो बाबू। बिलकुल गान्हीबाबा जैसे महान।’- खाट पर
बिठाते हुए गोरखुआ ने कहा।
हँसी का
दौर जब थमा,और बाबू निश्चिन्त हुए तब ध्यान गया मतिया की ओर। बाबू की आँखें बरबस
ही चिपक सी गयी मतिया पर। देखा,मतिया आज खूब सजी-संवरी है- धानी चौड़े पाड़ की
सफेद साड़ी,वैसी ही कुर्ती,आंचल का लम्बा छोर पीछे से फिराकर कंधे पर होता
हुआ,दोनों ऊँची छातियों को ढकते हुए कमर में आकर लिपट गया है। ढीला जूड़ा गर्दन पर
लटक रहा है,जिसमें खुंसे हैं गुलैची के पांच-छः फूल। उन फूलों के बीच बड़ा सा
उड़हल का भी फूल है। पीले रंग की एक पतली सी पट्टी सिर पर बंधी है,और उसमें आगे की
ओर लगे हैं- नीलकंठ के दो पंख,आँखों में गहरा सुरमा है,माथे पर हल्की बुन्दकी
गुलाबी रंग की,जिसके चारों ओर छोटी-छोटी सफेद बुन्दकियां है जो बड़ी बुन्दकी को
घेरे हुए दोनों ओर की कनपट्टियों तक उतर आयी हैं। गले में वनतगर के फूल की माला
है,जिसमें लोलक की तरह एक बड़ा सा गुच्छा लटका है- पुटुस के फूलों का। कमर में लाल
–सफेद-पीले फूलों की चौड़ी पट्टी सी करधनी है,कलाइयों पर सीपों की गूथी हुयी
चूड़ियां हैं- एक-एक। बाजू में भी फूलो का बाजूबन्द है.....।
कुल मिलाकर
मतिया का रुप अजीब निखरा हुआ है। काफी देर तक बाबू कि निगाहें उलझी ही रह गयीं
मतिया के अंगों से। अभी और देर तक अंटकी ही रह जाती यदि मतिया टोक न देती, ‘चलो न
बाबू, तैयार होकर आ गयी मैं तो।’
मतिया की
आवाज से बाबू चेत सा गया- अरे कहाँ खो गया था?- खुद
से सवाल किया,और जवाब भी खुद को ही दिया- ओह! ऐसा श्रृंगार...प्रकृति
का...प्रकृति से...प्रकृति के लिए....।
‘सभी तो
तैयार हो गये,परन्तु नानी? उन्हें चलना नहीं
है क्या? ये अभी यूँ ही बैठी हैं।’- मुखर रुप से कहा बाबू
ने,नानी की ओर देखकर।
होरिया ने
नानी को समझाया, ‘ बाबू कहत हें तोंय नी जावें?’
‘जाबो काले
नीं। तोंयमन चल न।’-बुढ़िया ने कहा।
‘वाह नानी!
तू क्या ऐसे ही चलेगी- इन्हीं कपड़ों में ?’-नानी की ओर देखकर बाबू ने कहा,और फिर मतिया की ओर देखकर बोला- ‘नानी को भी
कपड़े पहना दो न मतिया।’
‘मैं तो
पहले ही बोली थी,पर सुनती नहीं।’-कहती हुयी मतिया हाथ में लिये हुए खोमचे को नीचे
रखकर,नानी की बांह पकड़ कर उठाती हुयी बोली-‘चल पीन्ह ले धूती।’
उसके ना नुकूर
करते रहने पर भी,लगभग घसीटती हुयी सी मतिया,जबरन भीतर लेगयी।
थोड़ी देर
में नानी भी तैयार होकर आगयी। तब सभी एकसाथ चल पड़ें भेरखुदादू की चौपाल की ओर,जहाँ
करमपूजा का मंडप सजा हुआ था।
गांव के
बाकी लोग भी करीब-करीब पहुँच ही चुके थे,कुछ अभी भी आ-जारहे थे।
सबके सब सजे-संवरे- एक से बढ़कर एक
सादे और रंगीन लिबासों में। औरतों का सजावा लगभग एक किस्म का था;खासकर
उनका,जिन्हें आज के नाच में भागीदारी करनी थी-इनमें अधिकांश कम उम्र वाली छोरियां
ही थी-चौदह से बीस के बीच की। मर्द भी कम सजे-संवरे न थे- घुटने तक धोती,एक लम्बा
सा दुपट्टा- कंधे से होता हुआ,कमर में लिपट कर दोनों ओर झूलता हुआ,ऊपर के वदन में
कपड़े नदारथ,माथे में लाल-हरी-काली-पीली पट्टी,जिनमें खुसे थे- किसी न किसी चिड़ियां
के पंख—मोर,बुलबुल,तोता,कौआ,गौरैया,मैना, हारिल,नीलकंठ,पंडुक,बगुला,सारस,कबूतर।
कुछ ने मुर्गी के पंखों का गुच्छा बनाकर ही सजा लिया था अपने माथे को। ज्यादातर
लोग मोर या नीलकंठ के पंखों का ही इस्तेमाल किया था। शायद ये इनके प्रिय पक्षी रहे
हों। उमरदार और बूढ़ी औरतें भी जहां तक बन पड़ा था, साफ-सुथरे कपड़े ही पहने थी।
बच्चों का क्या कहना- उनके कपड़े बिलकुल नये ही थे। ऐसा कोई बच्चा नहीं दीखा जिसने
पुराने कपड़े पहने हो। वहाँ आने वाला हर परिवार,पत्तों से बने बड़े से खोमचे(परातनुमा)में
विभिन्न तरह के पकवान,के साथ एक बड़ी सी हांड़ी भी लिए हुए था। कुछ घड़ों में पानी
भी लाया गया था। सभी सामान मंडप में ही सजाकर एक ओर रखा जा रहा था।किसी को कुछ
कहने-फरमाने की जरुरत न थी। लगता था सभी मालिक हैं,सभी नौकर हैं। किसके द्वारा
क्या लाया गया- इसकी भी कोई छानबीन नहीं, जिससे जो बना लेकर हाजिर हुआ करमदेव के
जलसे में।
जब सभी लोग
आगये तब पाहन को भी बुलाया गया- मंडप के भीतर। पहले वो पास की ही एक झोपड़ी में
आराम फरमा रहे थे।
पाहन आये
मंडप में,जहां करम डाढ मिट्टी के लोंदे के सहारे खड़ा किया गया था। ऊन की गद्दीदार
आसनी पर पाठन को आदरपूर्वक बिठाया गया-करमडाढ के सामने उत्तर की ओर मुंह करके।
उन्हें घेरकर बाकी लोग भी आ बैठे। मंडप के बाहर खुली चांदनी में नवयुवक-युवतियों
का जमघट जो लगा हुआ था,वो भी धीरे-धीरे भीतर मंडप में आकर अपना स्थान लेने लगे।
पाहन ने
नयी कलशी के पवित्र जल से करम डाढ़ को स्नान कराया। चन्दन,फूल,
मालायें चढ़ाये। काफी मात्र में
धूना जलाया गया। फिर बारी-बारी से चार-चार आदमियों की टोली ने समीप जाकर पूजा की।
इस बीच मान्दर और नगाड़े बचते रहे। बच्चे उछल-कूद मचाते रहे।
पूजा खतम
होने पर सभी उठ खड़े हुए। लाये गये सभी खोमचों में से एक पत्तल पर थोड़ा-थोड़ा
पकवान निकालकर रखा गया। पाहन को पहले आदर पूर्वक जिमाया गया। खाने के बाद पाहन ने
छककर हड़िया भी पीया। इसके बाद बाकी लोग भी कतारों में बैठ गये। कुछ रह गये
खिलाने-परोसने के लिए।
अलग खड़े
बाबू के पास आकर मतिया ने कहा, ‘क्यो बाबू! तुम
इधर क्यों खड़े हो? साथ में बैठो न। अभी सब मिलकर खाना खायेंगे।
हड़िया पीयेंगे,फिर नाचेंगे जमकर पूरी रात।’
होरिया ने
बाबू का हाथ पकड़कर,बैठा दिया,जहां पहले से डोरमा बैठा हुआ था। साथ में गोरखुआ भी
आकर बैठ गया। खाना परोसने का काम शुरु हुआ। सबसे पहले सबके आगे,सघन बड़ा सा पत्तल
रखा गया,और साथ में दो-दो दोने भी रखे गये। दोने-पत्तलों की बनावट पर मुग्ध हो रहा
था बाबू- प्रकृति की गोद में बैठे बनवासियों की कला पर सोचता रहा कुछ देर तक।
चार जन ने
मिलकर परोसने का काम शुरु किया। एक-से-एक पकवान- पुए जैसे कुछ मीठे,कुछ नमकीन,कुछ
गोल-गोल बडियों जैसे। बाबू ने अनुमान लगाया- चावल और उड़द का व्यवहार ज्यादा किया
गया है। छानने-बघारने के लिए वादाम और तिल के तेलों के अलावे कोईन-डोरी के
तेल(महुए की फली का तेल) भी इस्तेमाल किया गया था। इसे ये लोग बहुत ही पौष्टिक
मानते हैं। एक-एक चीजों को पारखी निगाहों से देखता रहा शहरी बाबू। बहुत तरह के साग,तरकारियां,चटनी,जिसमें
तेंतुल और कैंथ का खास स्थान था,परोसा गया गया। बाबू ने अनुभव किया कि वनवासियों
की पाक-कला भी अजीब है- बहुत सराहनीय कहनी चाहिए।
सबकुछ
परोसे जाने के बाद खाने का दौर शुरु हुआ। शुरु हुआ,सो देर रात तक जारी रहा। मतिया
और मंगरिया भी परोसने में जुटी हुयी थी।खाते-खाते बच्चे,कभी-कभी जवान और बूढे भी
खाना छोड़कर उछलने कूदने लग जाते। अजीब मौज-मस्ती का वातावरण था। ऐसा लग रहा
था,मानों दुनियां से दुःख,भूख,अकाल,बैर,सब रफा-दफा हो गया है। रह गया है- सिर्फ
शेष तो खाना-पीना-मौज-मस्ती।
खाने के
बाद शुरु हुआ दौर पीने का। छोटी-बड़ी हड़ियों में एक तरह का पनीला,कुछ गाढ़ा सा
समान था,जिसे लोग चावल आदि अनाजों को उबाल-सड़ाकर,संघान करके तैयार करते हैं।
हड़िया यहां का प्रसिद्ध पेय है। यह एक बहुत ही तेज नशीला पदार्थ है,जिसका चलन
पूरे क्षेत्र में है। औरत,मर्द,बच्चे-बूढ़े सभी इसका व्यवहार करते हैं। पीने वाले
भी एक से एक- पूरी की पूरी हांड़ी पी जाने वाले। चुँकि चावल को उबालकर,संधान के
लिए मिट्टी की हांड़ी में रखते है,इसी कारण इसका नाम हंड़िया पड़ गया।
बाबू के
आगे भी एक हंड़िया रखी गयी। रखते के साथ ही एक बदबूदार भभाका बाबू के नथुनों में
समा गया। ना नुकुर के बावजूद दोने में ढ़ाल कर थोड़ा चखा ही तो दिया मतिया ने- ‘आज
के दिन इसे पीना बहुत जरुरी माना जाता है बाबू ! नहीं पीओगे तो करम देव नाराज हो जायेंगे।’
बाबू को
याद आया कि बहुत से क्षेत्रों में भादों मास की इसी एकादशी को करमा- एकादशी के नाम
से मनाया जाता है। दिन-रात उपवास रखा जाता है। रात में झूर(खस के पौधे)की पूजा
होती है। सुनते हैं कि इस दिन भगवान बिष्णु झूर के जड़ में ही वास करते हैं। इस
दिन व्रत रखकर,झूर की पूजा करने वालों को अक्षय लक्ष्मी की प्राप्ति के साथ-साथ
सारी मनोकामनायें पूरी होती है। कुछ लोग,जिनसे भूख सहन नहीं होती,रात में पूजा
करने के बाद फलाहार वगैरह ले लेते हैं। अगली सुबह उस पूजित झूर को आदर पूर्वक उठा
कर पास के जलाशय में प्रवाहित करते हैं,और पुनः घर आकर दही-भात और करमी(जल में
उगने वाली एक लता)का साग खाते हैँ। इस पारणा में नमक का व्यवहार भी वर्जित है। मान्यता है कि ऐसा नहीं करने वाले का करम पूरे
साल भर के लिए सो जाता है- यानी भाग्य साथ नहीं देता। अब भला अपने भाग्य को सुलाना
कौन चाहेगा? इस दिन एक और नियम का पालन
सख्ती से किया जाता है- कोई भूल से भी नालियों में गरम पानी नहीं गिराता।
किंवदन्ती है कि करमदेव नाली में ही छिपे रहते हैं।
बाबू सोचने
लगा- इन सब धार्मिक कृत्यों का पता नहीं क्या महत्व है!
समझ नहीं आता कौन सा विज्ञान छिपा है इसमें? है भी कुछ रहस्य या कि सामाजिक रुढ़ि और हठधर्मिता
मात्र है?
खाना-पीना समाप्त
होने पर, सब हाथ-मुंह धोकर चटपट तैयार होगये। चौपाल बुहार दिया गया। बचे हुए
हंड़िये और पकवान वहीं एक ओर कोने में रख दिये गये। मतिया ने बाबू को बतलाया- ‘ अब
तुरत ही नाच-गान शुरु होगा। उस समय भी लोग हंड़िया पीना, और कुछ लोग खाना भी पसन्द
करते हैं,इसी लिए ये बचे हुए सामान यहीं रखे गये हैं। नशे का जोर कम न पड़े,और नाच
का मजा किरकिरा ना हो इसीलिए ऐसा किया जाता है।’
बाबू ने
देखा- खाना खाने के बाद गोरखुआ,बिना कुछ कहे,एक ओर दौड़ता हुआ चला गया। उसे जाता
देख बाबू ने मतिया से पूछा- ‘क्यों गोरखुभाई कहां भाग गया, उसे नाचना नहीं है क्या?’
बाबू के
सवाल का जवाब बगल में खड़ी मंगरिया ने दिया- ‘वही तो हमलोग का मेठ है बाबू!
वही नहीं नाचेगा तो....।’
बीच में ही
बात काटती मतिया ने चुटकी ली- ‘देखना ना बाबू! तुरंत
आयेगा वह। जानते नहीं तुम,गोरखुआ नहीं नाचेगा तो हमारी मंगरिया बेचारी रोने लगेगी,हो
सकता है,गांव छोड़कर इस रात में ही भाग भी जाये..।’
ये लोग इधर
बात कर ही रहे थे,कि उधर मंडप में भीड़ फिर जमने लगी,जो थोड़ी देर पहले तितर-वितर
हो गयी थी।
एक खोमचे
में ढेर सारे जंगली फूल भी लाकर रख दिये गये। अब इन फूलों का क्या होगा?-
बाबू पूछ ही रहा था कि तभी
एक विचित्र सा आदमी वहां आया- लम्बा-चौड़ा,काफी मोटा सा दबंग जवान,घुटने तक
धोती,जिसे माड़ देकर खूब कड़ा किया गया था। कंधे पर से होता हुआ लम्बा सा गमछा
नीचे तक लटक रहा था। पूरे वदन पर मुर्गे तथा अन्य चिड़ियों के रंगबिरंगे पंख से
बना झूल सा चड़ा हुआ था,जो सुन्दरता के साथ भयंकरता में भी बढ़ोत्तरी कर रहा था।
झूल इस कदर वदन से मिला हुआ था मानों आदमी के शरीर में ही चिड़ियों के रंग-बिरंगे
पंख उग आये हों। सिर पर भी उसी तरह के पंखों की टोपी पड़ी थी। कमर में खासकर पीले
पंखों की पट्टी सी बंधी थी। उस वित्रित्र शक्ल के आते ही सभी एक साथ चिल्ला उठे-
‘सरदार आई गेलों...आई गेलों..।’
बाबू ने
मंगरिया के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा- ‘ये कौन है राक्षस जैसा?’
‘पहचानों
न बाबू। मैं क्या जानू कौन आ गया।’- मंगरिया ने अपना मुंह
घुमाकर कहा,ताकि उसकी मुस्कुराहट को बाबू भांप न सके।
‘ये बेचारी
क्या जाने किसी ऐरे-गैरे को? कोई अपना होता
तब न? ’- मतिया के व्यंग्य पर मंगरिया तिलमिला सी गयी- ‘बहुत
बनती हो। बात-बात पर अपना-अपना की रट्ट लगाने लगती हो। मैं क्या जबरन अपना रही हूँ
इसे? लोग चाहते ही है तो...।’
‘देखे न
बाबू !
चोर की दाढ़ी में तिनका...?’- मतिया हँस पड़ी।
बाबू इन लोगों की पहेली बूझ न पाया।
बाबू को
चुप देख मतिया फिर बोली- ‘क्यों बाबू ! अब
भी न समझे? ये वही है,जिस पर रात-दिन मरती है मंगरिया।’
‘जरा शरम
भी कर। लोग क्या कहेंगे? ’-मुंह बिचका कर मंगरिया
ने कहा।
दोनों
बहिनापाओं में मीठी झड़प होही रही थी कि वह विचित्र आसेब उछलता कूदता वहीं आपहुँचा।
‘चीन्हलौं
तोंय मोंके?’- आते ही
कहा उसने,तो बाबू को एकाएक हँसी छूट गयी, ‘नहीं, तुम्हें कौन पहचान पायेगा
गोरखुभाई ! वाह ! आज तो तुमने ऐसा रुप
बनाया है कि एकाएक पहुँच जाओ सामने,तो तुम्हारी मां भी शायद पहचान न पाये।अभी
तुम्हारे ही बारे में मतिया और मंगरिया बहस रही थी।’
‘बहस रही
थी,किस बात पर?’- गोरखुआ
ने मंगरिया की ओर देख कर पूछा।
‘बहस की तो
बात ही है।’- मतिया ने कहा- ‘ये गोरखुभाई ही हमारे गांव के नाज हैं। करमा हो या
सोहराय, या कि सरहुल, गोरखुभाई न रहे तो सब फीका-फीका लगे, और ये जो बछरुआ सी
भोली-भाली मुंह बनाये मंगरिया है न,सो मेरे भाई को ही चुराने की ताक में रहती है।
पूछने पर देखे नहीं कैसी ढिठाई से बोल गयी कि मैं क्या जानूं इसे।’
मतिया की
बात पर ठठाकर हँस पड़ा गोरखुआ, ‘ अच्छा तो ये बात है?’
‘तेरे
इतने मोटे-तगड़े भाई को ये पिद्दी सी मंगरिया चुरा लेगयी,तब तो ठीक ही कहा होगा
किसी ने कि सोने का ईँट तो चूहा खा गया....।’- बाबू ने
कहा,तो हँसी का एक और पटाखा फूट पड़ा।
‘तो क्या
नहीं जानते हो बाबू? ’-कहते हुए गोरखुआ
बाबू के समीप आ गया- ‘यही मेरी अपनी होने जा रही है,इसी साल सोहराय के बाद...।’-फिर
थोड़ा ठहरकर मंगरिया की ओर देखकर बोला- ‘देख जरा सम्हल के रहियो,हमारे बाबू बहुत
कमजोर हैं अभी। कहीं इन्हीं पर बिजुली न गिरा दिहौ।’
‘धत्त!
’ करती
मंगरिया लजाकर एक ओर हट गयी मतिया का हाथ पकड़कर खींचती हुई। बाबू और गोरखुआ दोनों
हँसने लगे।
हँसते-हँसते,सजी-संवरी
मंगरिया को देखते हुए बाबू ने गोरखुआ से पूछा- ‘तो क्या तुमलोगों में शादी एक गांव
में ही हो जाती है?’
‘नहीं बाबू
,ऐसी बात नहीं है। सच पूछो तो हम सभी यहां अलग-अलग जगहों से आकर बसे हैं। अलग-अलग
जातियाँ भी हैं हमलोगों की,अलग-अलग रिवाज भी हैं। क्या मतिया ने आपको बतलाया नहीं
गुजरिया गांव की कहानी? ’
‘हाँ-हाँ,कुछ
तो जरुर मालूम चल गया है,मतिया कह रही थी एक दिन,उधर कहीं साहब की कोठी से भागकर
लोग आ बसे हैं यहाँ।’
‘हाँ-हाँ,यही
बात है। अलग-अलग जगहों से लोग वहाँ आये थे,और फिर वहाँ से यहाँ आ गये;किन्तु इतने
दिनों से साथ रहते-रहते ऐसा प्रेम भाव बन गया है कि पता नहीं चलता कि कौन क्या
है।’
बातें हो
ही रही थी कि होरिया भी सज-धज कर,गले में मान्दर लटकाये आ पहुँचा।
‘बातें ही
करते रहोगे गोरखुभाई या कुछ और भी सोचे हो?’
‘चुप
रह साले। सारी रात तो नाचने के लिए है ही। जरा बतला रहा था बाबू को यहां का
रस्म-वो-रिवाज।’
‘सुन रहे
हो ना बाबू! गोरखुभाई की गाली?’- कहा होरिया ने,तो बाबू उसका मुंह देखने लगे।
मुस्कुराते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘साले को साला न कहूँ तो और क्या कहूँ बाबू?
अब ये भी कह दो कि मंगरिया तुम्हारे काका की छोरी नहीं है।’
‘चलो न
गोरखुभाई!
सभी वहाँ तुम्हारा इन्तजार कर रहे हैं।तुम भी यहाँ आये तो यहीं चिपक
गये।’- कहा डोरमा ने, उधर से दौड़ते हुये आकर।
‘चलो
भाई,चल ही रहा हूँ।’- बाबू का हाथ पकड़कर गोरखुआ बोला- ‘चलो बाबू ,अब चला ही जाय।’
और एक दूसरे का हाथ पकड़े सभी चल पड़े मंडप की ओर।
बच्चे
उछलने-कूदने लगे- अब नाच होगा..नाच...बाजा बजेगा।
मंडप के
भीतर आ इकट्ठे हो गये सभी। बीच में गोरखुआ को करके,डोरमा,होरिया,
मंगरु,लोलवा,मरछुआ,मोरना,झरंगा...सभी खड़े हो गये घेर कर। हर किसी के पास कोई न
कोई साज था- मान्दर,नगाड़ा,तुरही,किरटी,बांसुरी,तासा....। मर्दों के बाद दूसरा
घेरा पड़ गया औरतों का। औरतों का हाथ बिलकुल खाली था। किसी-किसी औरत का हाथ पकड़े
बच्चे भी घुस आये थे उसी झुण्ड में। दूधपीते बच्चे अपनी मांओं की पीठ पर बकुंचों
में बंधे पड़े थे। मतिया और मंगरिया भी घेरे के भीतर आ घुसी।
सबसे पहले
गोरखुआ अपने हाथ में पकड़े लाल और पीली झंडियों को किसी खास अंदाज में दो-तीन दफा
हवा में लहराया,और इसके साथ ही डोरमा ने मान्दर पर थाप भी मारा किसी खास अन्दाज
में ही,मानों सबके लिए इशारा था,और फिर शुरु हो गया गीत गोरखुआ का।
कुछ देर तक
गोरखु अकेला ही गाता रहा। मान्दर के साथ अन्य साज भी बजने लगे। गाते-गाते एकाएक
नाच उठा गोरखुआ। उसका नाचना था कि सबके पैरों में मानों बिजली लग गयी। आगे-पीछे कई
कतारों में होकर,एक मंजे-सधे नर्तक की भांति औरत-मर्द सभी नाचने लगे।
बाबू,दादू,सोहनु काका आदि पांच-छः लोग अलग खड़े नाच का मजा लेते रहे।
फिर शुरु
हुआ एकल गीत—एक-एक कर कोई औरत घेरे से बाहर निकल कर,बीच में आजाती,और नाच कर गाती।
मर्द बाजा बजाते रहते। अलग-अलग गीतों का अलग-अलग धुन,किसी में मान्दर की आवाज
ऊपर,तो किसी में बांसुरी की,किसी धुन में सभी साज एक साथ बज उठते...आरोह-अवरोह...अजीब
आनन्द का समा बंध गया। औरत-मर्द,बच्चे-बूढे सभी मस्त। नाच-गान के बीच में कोई भीड़
से बाहर निकल कर हंडिया भी पी लेते।
इसी क्रम
में मंगरिया की भी बारी आयी। ओह! मंगरिया का नाच ! दंग रह गये देखने वाले। भीड़ से बाहर आकर,गोरखुआ ने बाबू का हाथ पकड़ा,और
नजदीक ले गया,जहाँ मंगरिया नाच रही थी।
‘देखो बाबू!
मेरी मंगरिया कैसी नाचती है।’
मंगरिया सच
में माहिर थी नाच में। देखने वाले सभी वाह-वाह कर रहे थे। गोरखु के कंधे पर हाथ
रखकर बाबू ने कहा, ‘ वाह गोरखुभाई वाह! चीज
तो बड़ी अच्छी चुने हो।
ओह, ऐसा नाच तो आजतक मैंने कभी देखा ही नहीं था। हमारे यहां भी एक से एक नाचने वाले हैं,मगर मंगरिया की टक्कर का एक भी नहीं। गीत भी अजीब है। कमाल है गीतों का। हालांकि भाषा मैं जरा भी समझ नहीं पा रहा हूँ,फिर भी नाच में हाव-भाव ऐसे दे रही है मंगरिया कि भाषा का सवाल ही नहीं रह जाता।’
ओह, ऐसा नाच तो आजतक मैंने कभी देखा ही नहीं था। हमारे यहां भी एक से एक नाचने वाले हैं,मगर मंगरिया की टक्कर का एक भी नहीं। गीत भी अजीब है। कमाल है गीतों का। हालांकि भाषा मैं जरा भी समझ नहीं पा रहा हूँ,फिर भी नाच में हाव-भाव ऐसे दे रही है मंगरिया कि भाषा का सवाल ही नहीं रह जाता।’
भीड़ से
थोड़ा हटकर,एक टीले पर तीन-चार बूढ़ियां बैठी थी। उन्हीं में कजुरी नानी भी थी।
मंगरिया की नाच पर बाबू मुग्ध है- इसकी भनक शायद नानी को भी लग गयी थी। इशारे से
बाबू को पास बुला कर बोली- ‘ अभी क्या देखे हो बाबू! मेरी नातिन का नाच देखोगे तो दांतों तले उंगली दबा लोगे।’
नानी के
कहने का भाव बाबू को गोरखुआ ने बतलाया- ‘ एक पर एक सात कलशी रखेगी सिर पर। वदन ऐसा
मटकायेगी कि देखते ही बन पड़ेगा। मगर मजाल है कि एक भी कलशी सिर से हिले-डुले।’
मंगरिया का
नाच पूरा हुआ। लोगों का ध्यान टंग गया मतिया पर। अब उसकी ही बारी है। मतिया का
साजो-सिंगार पहले ही बाबूको अपनी ओर खींच चुका था। नाचने के लिए पैरों में घुंघरु
बांध,सिर पर सात कलशी रख,घेरे के बीच में आयी,तो पल भर के लिए सबकी आँखें फैल गयी।
बांसुरी पर
नयी धुन बजने लगी। मान्दर पर नया ताल,और नाच उठी मतिया।
बड़ी देर
तक मतिया का नाच चलता रहा। देखने वाले झूमते रहे,नाचने वाली तो झूम ही रही थी।
मतिया के नाच के समय गोरखुआ के हाथ में बांसुरी थी,डोरमा के कंधे पर मान्दर।
‘गाती नहीं
है क्या मतिया?’- देर तक
सिर्फ नाच ही चलता देखकर,बाबू ने होरिया से पूछा।
‘गाती है
बाबू!
खूब गाती है मतिया। मतिया की तरह गाने वाली,मेरे गांव क्या आसपास के
दस-बीस गांवों में भी न मिलेगी। पहले नाच तो देखो बाबू। फिर गीत सुनना।’- होरिया
ने बाबू से कहा।
बजाते-बजाते
डोरमा नीचे बैठ गया,मान्दर को जमीन पर रखकर। उधर से नाचती-बलखाती मतिया आयी,और
सीधे पड़ गयी, पेट के बल मान्दर पर ही। देखने वालों की सांसें रुक सी गयी। लगा कि
सिर पर रखी कलसियां अब गिर कर चकनाचूर हुयी। परन्तु खटाक से उठ खड़ी हुयी,और लोगों
ने देखा- सिर पर धरी एक-पर-एक सात कलसियां तीन और चार की संख्या में बंट कर दोनों
हथेलियों पर आगयी है। अचानक क्षण भर में ही कमर बलखायी सांपिन सी,और अगले ही पल
सारी कलसियां पहले की भांति सिर पर नजर आने लगी- छप्पर पर बैठे उकाब की तरह। बाबू
के मुंह से बरबस ही निकल पड़ा- ‘वाह-वाह ! कमाल
है ! ये मतिया है या कि जादू की पुतली?’
नाच थमा
नहीं,पर ताल बदल गया- एक ही इशारे पर। गति बदल गयी। धुन बदल गया। नाच के साथ-साथ
अब गान भी शुरु हो गया। स्वर धीरे-धीरे चढ़ने लगे- छिपकिली की तरह,और फिर अचानक
गिरगिट हो गया मतिया का स्वर। बाबू के कानों में अगनित जलतरंग बज उठे- कोकिल-कंठी
की गीत सुनकर। भाव विभोर हो सुनते रहे बाबू- मतिया का रसभरा गीत- सिंगार गीत।
होरिया ने
कहा- ‘सुन रहे हो न बाबू? कह रहे थे कि मतिया गाती नहीं है क्या।’
एक के बाद
एक मतिया ने लागातार तीन-चार गीत गाये- विरह,सिंगार,दर्द...से भरे गीतों का खूब
आनन्द लिया लोगों ने। देर तक मतिया गाती रही,लोग झूमते रहे। बाबू की इच्छा हो रही
थी कि मतिया इसी तरह सारी रात गाती रहे,और वह सुनता रहे। रात खतम न हो कभी। किन्तु
नाच खतम हुआ। गीत पूरे हुए। साजों ने शायद शरमा कर चुप्पी साध ली,तब कहीं
जाकर,लोगों का सपना टूटा। ‘वाह-वाह!’ करता
हुआ गोरखुआ लिपट पड़ा बाबू से।
अब बारी थी
जोड़ी नाच की। इसमें मर्द-औरत की जोड़ी का नाच होना था। इधर के नाच में इसका भी
खास स्थान हुआ करता है। नाच के लिए कोई निश्चित जोड़ी नहीं- कि कौन किसके साथ
नाचेगा। जिसे जिसके साथ जी आवे,नाच सकता है। न उम्र का सीमा-बन्धन,और न रिस्ते-नाते
की पाबंदी।
इस बार
बाजे बूढों के गले में पड़े। सोहनु काका ने मान्दर सम्हाला,भिरखु काका ने
नगाड़ा,दादू ने बांसुरी टेरी,धानुदादा ने सींघा फूंका। जोड़ी फटाफट तैयार हो गयी- डोरमा
ने सोनरिया को साझीदार बनाया,होरिया ने नेऊली को,मंगरु ने करीमनी को,गोरखुआ की
जोड़ीदार तो पहले से ही तय थी- मंगरिया।
‘क्यों
मतिया!
तू पीछे क्यों छिपी है? पकड़ ना बाबू पलटनवां को।’-
हँसती हुयी मंगरिया पास खड़े बाबू का हाथ खींच कर मतिया के हाथ में थमा दी।
‘मुझे
नाचना-वाचना नहीं आता।’- हाथ छुड़ाने की जोरदार कोशिश करता बाबू ने कहा। किन्तु
हाथ शायद चिपक से गये थे मतिया के हाथों में। इतने बड़े समूह में मंगरिया ने बाबू का
हाथ एक-ब-एक मतिया के हाथ में पकड़ा दिया था,जिसके कारण बाबू के वदन में एक अजीब
सी सिहरन दौड़ गयी। अब से पहले तो,मतिया ने कई दफा हाथ पकड़ा था बाबू का,किन्तु
अभी का छुअन कुछ और ही तरह का लगा बाबू को। आँखें कूद सी पड़ी, आंखों में,और उलझ
सी गयी क्षण भर के लिए।
‘चलो बाबू नाचो
न!’- बाबू की ठुड्डी छूकर मंगरिया ने कहा मुस्कुराते
हुए- ‘उसके वास्ते काहे को परिसान हो बाबू? नाचना नहीं आता तो मत आवे। मतिया तो तुमको ऐसा
नाच नचायेगी कि जिन्दगी भर याद रखोगे।’- एक साथ दोनों के हाथ पकड़कर मंगरिया ने
फिर कहा- ‘ देख मतिया,ठीक से पकड़े रहिहो। शहरी बाबू का हाथ है। कहीं भाग न जाये
पलटनवां बाबू हाथ झटक कर...।’
मंगरिया ने
इस तरह मुंह बनाकर,आँखें मटकाकर,हाथ नचा कर,कहा कि सुनकर सभी ठहाका लगाकर हँसने
लगे। बगल में बैठी गोरखुआ की अम्मां कजुरी नानी के कान में मुंह सटाकर धीरे से
बोली- ‘देखत हो माई पिस्सा! केतक बढ़िया लगत
हेके। नीक भांटू आहे वो। इके ही देई दे मतिया के।’
‘मोंय की
जानवों,करम जाने मतियार...।’-कजुरी ने अपना लिलार छूकर कहा।
उधर बाबू
का हाथ खींचते मतिया घुस पड़ी भीड़ में।
सोहनु काका
ने थाप मारा मान्दर पर,और एक साथ थिरक उठी सब जोड़ियां। बांसुरी भी बजने लगी।
भेरखुदादू की बांसुरी गोरखुआ से भी बेहतरीन बज रही थी। इस उम्र में भी जो सुर-तान
की पकड़ दादू में थी,गोरखुआ उसका पासंग भी नहीं।
‘नाचो न
बाबू। लजाते क्या हो छोरियों जैसा? साथ-साथ
नाचने में क्या रखा है,जैसा जैसा मैं कर रही हूँ,तुम भी करते जाओ। ज्यादा जोर वाला
नाच न नचाऊँगी।’- बाबू का हाथ पकड़े,मतिया ने धीरे से कहा।
जोड़ी-नाच
शुरु होगया,तो फिर शुरु ही हो गया।थमने का मानों नाम ही नहीं। सबके पैरों में
मानों बिजली लग गयी। झूमर,झमरे,पोड़ी,घेंगना...कई तरह के नाच होते रहे इन जोड़ियों
के। नशे में धुत्त...नाच में मस्त...गान में विभोर...रुकने का कोई नाम ही नहीं...
जोड़ी तो सब जोड़ी ही थी,परन्तु दो जोड़ियाँ ज्यादा खींच रहीं थी अपनी ओर सभी
देखने वालों को- एक थी गोरखुआ और मंगरिया की जोड़ी,और दूसरी बाबू और मतिया की।
कहने को तो बाबू ने कह दिया था- मुझे नाचना नहीं आता,किन्तु मतिया के साथ का असर
कहें या कि कुछ और,देखने वाला कह नहीं सकता कि बाबू को नाचना नहीं आता। खूब जमा
बाबू और मतिया भी नाच।
काफी देर
बाद,यहाँ तक कि पौ फटने की बारी आयी,तब जाकर यह नाच खतम हुआ। सभी थक कर चूर हो गये
थे। गोरखुआ ने कहा- ‘सब तो हुआ ही,पर थोड़ी सी कसर और रह गयी है।’
‘क्या?’-चौंक कर पूछा मतिया ने। बाकी लोग भी गोरखुआ की ओर
देखने लगे।
‘आज के
नाच-गान का पुरनाहुत बाबू के गीत से हो तो मजा आ जाये। आओ बाबू हो जाये एक गीत।’-
बाबू का हाथ पकड़,गोरखुआ ने कहा तो,मतिया और मंगरिया दोनों थिरक उठी- ‘हां-हां,जरुर
होना चाहिए। हमारे बहुत से गीत बाबू ने सुने,अब जरा अपनी भी तो कुछ सुनायें।’
‘मुझे तो
गीत गाना आता ही नहीं। आज तक कभी मैंने गाया भी नहीं।’- हाथ छुड़ाने की कोशिश करते
बाबू ने कहा।
‘रोना और
गाना किसे नहीं आता बाबू? यह भी कोई कहने की
बात है? दिल में दर्द हो तो रुलाई आ हीं जायेगी। उसी तरह मन
में उमंग हो,जवानी की तरंग हो,तो होठ खुद ब खुद थिरकने लगते हैं।’- गोरखुआ ने बाबू
को आगे की ओर खींचते हुए कहा।
‘गाओ न
बाबू। कुछ तो गाओ। तुम तो कहते थे- नाचना भी नहीं आता,और नाचे तो ऐसा नाचे कि
दिखते ही रह गये लोग।’- कहा मंगरिया ने,तो बड़े-बूढ़े भी हां में हां मिला दी-
‘गाना ही होगा बाबू को।’
लाचार
होकर,बाबू को आगे आना ही पड़ा। कुछ देर ठहर कर,जमीन को चीर कर बाहर निकलने को आतुर
लाल सूरज को बाबू ने गौर से निहारा,और फिर शुरु हो गया उसका गाना...। सूरज भी
बेताब ही था,रात भर तो मौका नहीं मिला,सोचा चलो,कम से कम अन्तिम गीत-गान तो सुन
लिया जाय।
वैसे तो
बाबू के गीत में कोई कसर न थी,थी भी यदि तो गोरखुआ की वांसुरी ने पूरी कर दी। उधर
होरिया मान्दर पर हल्के-हल्के थाप देता रहा। इधर मंगरिया घुंघरु झमकाती रही। गीत
के भाव सभी समझ न पा रहे थे,परन्तु मस्त हो गये सभी मस्ती के आलम में। बाबू का गीत
पूरा हुआ तो तालियां गड़गड़ा उठी।
बाबू के
गीत की बधाई देने को सूरज भी ललक उठा। तारिकायें तो पहले ही थक
कर सो चुकी थी। रात भर की जगी
बेचारी,कब तक टिकी रहतीं,जबकि सूरज का भय भी था- नाच देखते बच्चों के सामने एकाएक
उसके गुरुजी आजायें तो फिर कौन टिक सकता है वहां? यही हाल तारिकाओं का हुआ। ईर्ष्यालु चाँद तो और भी पहले भाग गया था। टिकता
भी कैसे- मतिया और मंगरिया के सामने?
दिन कुछ
ऊपर चढ़ आया। लोगों ने हाथ-मुंह धोया। रात के बचे-खुच पकवानों पर बच्चों की फौज
गोरा-पलटन सी टूट पड़ी। उनसे निपटारा होता न देख,बड़ों को भी मदद के लिए आगे बढ़ना
पड़ा।
इन सबसे
फुरसत मिलने पर तैयारी होने लगी करम डाढ़ बहाने की। जिस धूम-धाम से पहले दिने उसे
लाने की तैयारी हुयी थी,उसी उमंग से उसकी विदाई का भी इन्तजाम होने लगा। अन्तर
इतना ही था कि आये थे करमदेव पाहन के कंधे चढ़कर,जाने लगे मंगरुआ के कंधे पर।
मंगरुआ ने
करमडाढ़ को अपने कंधे पर रखा। उसके साथ ही कलशी में पानी,पूजा से बचे सामान-
फूल,रोली,अक्षत आदि और थोड़ा सा पकवान,जो पहले ही अलग रख दिया गया था विदाई के
लिए, एक छोटी सी हंड़िया सहित बांस की टोकरी में सजाकर,सोमरुआ ने अपने सिर पर ले
लिया। उसके पीछे-पीछे गांव के बाकी लोग चलने लगे।
बाजे आज भी
बज रहे थे,पर धुन कुछ और थी। सबके चेहरे पर गुजरे उमंग की परछाई थी। गीत भी गाये
जा रहे थे,पर वैसा उल्लास न था। बाजे भी बज ही रहे थे,पर थके-थके से। लोगों की चाल
भी कुछ धीमी ही थी।
सभी पहुँचे
झरने के किनारे,जहां पिछले दिन नहाने गये थे।एक चट्टान पर करमडाढ को रख दिया गया-
किसी देवता की सोयी हुयी मूर्ति की तरह। आखिर खड़ा होने की ताकत कहाँ थी अब उस देव
में ! पाहन नहीं आये थे। रात कुछ
ज्यादा पकवान और हंडिया चढ़ा लेने के कारण उनकी तबियत गड़बड़ा गयी थी। वैसे भी आज
उनकी खास जरुरत नहीं थी यहाँ आने की। गांव के बुजुर्ग भेरखु दादू ने हाथ जोड़कर
प्रणाम किया करमदेव को,और उठाकर उसी टोकरी में रख दिया,जिसमें साथ लाये बाकी सामन
रखे गये थे। सबने सिर झुकाकर प्रणाम किया एकबार,और तब सोमरुआ अपने सिर पर टोकरी
उठाकर, उतर गया गहरे पानी में। कुछ आगे बढ़कर टोकरी को कल-कल करती जलधार में छोड़
दी गयी। फिर लोगों ने नहाया-धोया,और हँसते कूदते चल पड़े गांव की ओर।
घर आकर रात
के बचे पकवानों को ही खा-पीकर,लोग आराम करने लगे। सबकी आँखें नींद से भारी हो रही
थी।
मतिया की
आवाज सुन बाबू की आँख खुली। ‘अरे शाम हो गयी? ओह,बहुत
सोया आज। असल में,आंखें जल रही थी।वदन में भी दर्द हो रहा था।’
‘बुखार तो
नहीं है न बाबू?’-बाबू के
सिर पर हाथ धरती मतिया ने कहा- ‘नहीं,बुखार-उखार तो बिलकुल नहीं है। मैं तो डर गयी
कि फिर बाबू को बुखार न हो गया हो।’
‘अब क्या
रोज-रोज बुखार ही होता रहेगा।’-उठकर बैठते हुए बाबू ने कहा।
‘जख्म कैसा
है बाबू देखे थे खोल कर? ’
‘देखना
क्या है,आज सुबह से पट्टी भी नहीं बांधा हूँ। सिर की पट्टी तो उसी दिन खोल फेकीं
थी। घाव बिलकुल भर गया है। देखो न..।’- बाबू ने माथे पर इशारा किया,फिर पेट पर से
कपड़ा हटाकर मतिया को दिखाया- ‘यह भी ठीक हो चला है। अब पट्टी की जरुरत नहीं
है,सिर्फ दवा लगा भर देना है।’
‘हां,बिलकुल
ठीक है अब।’-झुक कर जख्म को देखती हुयी मतिया बोली- ‘चलो उठो बाबू !
कुल्ला-उल्ला करो। भूख लगी है? कुछ खाओगे?’
‘नहीं,खाने
की जरा भी इच्छा नहीं है। प्यास लगी है सिर्फ।’- पेट पर हाथ फेरते हुए बाबू ने
कहा।
‘अभी
लायी।’- कहकर मतिया भीतर चली गयी। थोड़ी देर में लोटे में पानी,और एक दोनियां में
दाने की लाई लिये आ पहुँची, ‘लो बाबू,इसे खाकर पानी पीलो। ’
कुल्ला
करते हुए बाबू ने देखा,मतिया की निगाहें उसे घूरे जा रही हैं। जानबूझ कर बाबू देर
तक कुल्ला करता रहा। आंखों पर पानी के छींटे मारते रहे। फिर पानी पीते हुए भी
कनखियों से देखा,मतिया अभी भी देखे जा रही है।
‘कल का परब
कैसा लगा बाबू ? ’- मतिया पूछ ही रही थी कि
गोरखुआ आ पहुँचा।
‘आज खूब
सोया बाबू।’-आते ही गोरखुआ ने कहा- ‘बीच में भी नींद खुली थी,विचार हुआ कि चलूँ
बाबू के पास,किन्तु सोचा अभी और थोड़ा सो लेने दूँ बाबू को; और तब जो नींद लगी सो
अभी खुल रही है।’- फिर मतिया की ओर देखते हुए बोला, ‘क्या पूछ रही थी कल के परब के
बारे में? ’
‘हाँ वही
पूछ रही थी- कैसा लगा इधर का त्योहार? ’-
मतिया ने मुस्कुराकर बाबूकी ओर देखा,और चटाई बिछाने लगी,जो वहीं खाट के नीचे पड़ी
थी।
‘त्योहार का
क्या कहना,हमारे यहां भी बहुत से पर्व-त्योहार मनाये जाते हैं। एक है होली, जिसमें
इसी तरह खाना-पीना, नाचना-गाना होता है,पर जो आनन्द इस त्योहार में मिला वह वहां
कहाँ।’- बाबू ने कहा।
‘ऐसा क्यों
बाबू ?
त्योहार तो त्योहार है,होली हो या करमा।’- चटाई पर बैठते हुए गोरखुआ
ने कहा।
खाट पर जम
कर बैठते हुए बाबू ने कहा, ‘बात है गोरखुभाई कि त्योहार हँसी-खुशी के लिए है।
वास्तविक उल्लास स्वच्छ हृदय में ही जग सकता है। मन में यदि उमंग नहीं, फिर पर्व
का आनन्द कहाँ? हालांकि इसके कई कारण हैं। आपस
के बैर-भाव को लोग पर्व-त्योहार के दिनों में भी धो-पोंछ नहीं पाते,और जब दिल ही
नहीं धुला हो तो फिर पर्व क्या? हिन्दू दशहरे का जुलूस
निकालते हैं,तो मुसलमान भाई कटार पजाते हैं। उनका ईद-बकरीद होता है,तो इधर बर्छे-भाले
चमकते हैं। जाति-पाति,ऊँच-नीच,अमीर-गरीब...बहुत तरह का भेद भाव है समाज में भाई
मेरे,जो वास्तविक आनन्द में बाधक होता है। जब कि यहां मैंने देखा,इसका जरा भी भेद
नहीं। तुम कहते हो कि सभी अलग-अलग जगहों से आ बसे हो यहां, किन्तु साथ मिलकर
खाये-पीये,नाचे-गाये। किसके यहाँ से क्या और कितना आया- इसे भी देखने की जरुरत न
पड़ी। मगर हमारे यहां तो ऐसी बात नहीं,एक लड्डू के लिए कितने सिर फूट जाते हैं...।
’
‘खैर ये
भेद जल्दी ही मिट जायेगा बाबू। गान्हीबाबा कहते हैं- रामराज ला देंगे... सबको एक
समान कर देंगे...। ’
‘क्या कहते
हो गोरखुभाई? ’- बाबू
ने उदासी पूर्वक कहा- ‘सिर्फ राम से ही रामराज थोड़े जो था,उनके साथ ही पूरा साकेत
भी था- अयोध्या में साकेत ही अवतरित हुआ था। किन्तु यहां तो हम वही हैं,वही रहने
की कसम खाये बैठे हैं,फिर शासक और सत्ता बदलने भर से क्या फर्क होना है? देख लेना गोरखुभाई,गांधी के प्रयास से स्वराज्य मिल भी गया यदि जल्दी
ही,तो भी उनके चहेते उसे सही चलने नहीं देंगे। इधर तुम्हारे गांधी टें बोलेंगे, उधर
चहेतों की चांदी होगी। गांधी के नाम पर घड़ियाली आँसू बहायेंगे। गांधी को सबसे
ज्यादा खतरा गांधीवादियों से ही है। कहा भी जाता है- भगवान अपने भक्तों से ही
ज्यादा परेशान रहते हैं। तुम्हें क्या लग रहा है गोरखुभाई! -
ये गांधी के नाम की टोपियां सब देश भक्तों के सिर पर ही नजर आ रही है? नहीं,बिलकुल नहीं। चुने-गिने ही सच्चे देशभक्त हैं इसमें। बाकी सब शतरंज
के मोहरे हैं- प्यादा से फरजी भयो,टेढ़ो-टेढ़ो जाय....। इन्हें अपनी-अपनी कुर्सी
की चिन्ता रहेगी,उसे ही बचाने में सारा दिन गुजर जायेगा। भूखी-नंगी जनता वहीं की
वहीं रहेगी, जहां आज दीख रही है। सुराज मिलने पर पहले ये गांधीवादी अपनी अगली
दस-बीस पीढ़ियों के लिए सुख-सुविधा का साधन जुटायेंगे,फिर देखा जायेगा देश का
विकास, कभी फुरसत मिलने पर किया जायेगा...और फुरसत का वह क्षण कभी आने वाला नहीं
है।’
बाबू
बिलकुल भाषण के मूड में हो गया था,कि बीच में ही गोरखुआ ने कुछ उदास
होकर टोका- ‘तो क्या तुम चाहते
हो,बाबू कि सुराज अभी नहीं मिले? ’
‘यह मैं कब
कह रहा हूँ? ’-बाबू ने
हाथ मटका कर कहा- ‘स्वराज्य मिले,जल्दी मिले,जरुर मिले,वशर्ते कि हम उसके काबिल
हों,और सही तरीके से मिले,जिसे सही ढंग से सम्हाल कर हम रख भी सकें। स्वराज्य का
यह अर्थ तो नहीं कि जिसे जो जी में आये करने लगे,बोलने लगे,बकने लगे। देश अपना
है,देश की सम्पदा अपनी है,इसका ये मतलब तो नहीं कि जी में आया तो रेल-वस में आग लगा
दी,या बिना टिकट के ही सफर कर लिए,सार्वजनिक सम्पदा का दोहन करते रहे या ऑफिस का
पंखा उठा कर घर में ले आये? ये कैसा सुराज होगा? जरा सोचो तो गोरखुभाई। ’
‘बस-बस,आ गये
गान्हीबाबा के एक और चेले। शुरु हो गयी सुराज-चर्चा। ’- मतिया बीच में ही टोकी ।
‘ तो और
क्या चाहती हो?’- गोरखुआ
जरा झल्लाकर बोला- ‘ ओह,मैं अभी समझा। आपने तो मतिया के नाच के बारे में कुछ कहा
नहीं,और सुराज की चर्चा में मैं घसीट लिया आपको,इसीलिए मतिया नाराज हो गयी।’
‘ मैं काहे
को नाराज होने लगी? ये क्यों नहीं कहते
कि मंगरिया के बारे में बाबू कुछ कह नहीं रहे हैं,और दूसरी-दूसरी बात किये जा रहे
हैं। मुझे भी मंगरिया की बात सुननी थी।’
‘कहना क्या
है भई!
’- बाबू गम्भीर बने,धीरे से बोले- ‘सच पूछो तो नाच के बारे में मैं चुप
इस कारण हूँ कि सोच नहीं पा रहा हूँ कि किसको अधिक अच्छा कहूँ- मतिया को या कि
मंगरिया को। मतिया तो सामने है,अच्छा कहने पर कह सकती है कि सामने पाकर मुंहदेखी
बघार रहे हो,किन्तु मंगरिया तो समाने नहीं है न। सच मानों तो इन दोनों का नाच मुझे
इतना भाया कि अभी सपने में भी आँखें बन्द कर इनका नाच ही देख रहा था। साज-सिंगार
तो इन दोनों ने लगता है कि आपस में मसविरा करके ही किया था। ओफ काबिले तारीफ...। साधारण
साधन से इतना असाधारण सुन्दर श्रृंगार हो सकता है, मैं कल्पना भी नहीं कर पाता
हूँ।’- कहते हुए बाबू ने मतिया की ओर देखा,जो लजाकर,गर्दन झुकाये,पांव के अँगूठे
से जमीन कुरेद रही थी।
‘गोरखुभाई
का नाच क्या कम मजेदार था बाबू? ’-नजरें नीची किये,कनखी से देखती हुयी मतिया ने कहा।
‘ कौन कहता
है,कम था?
ये तो सबके सरदार ही ठहरे। उसपर भी इनकी पोशाक- चिड़ियों के पंख
वाली,सबसे अधिक मोहक लगी मुझे।’-बाबू ने कहा।
‘अब मेरे
को इतना न नजर लगा दो कि आगे से नाचना ही भूल जाऊँ। ’-हँसता हुआ गोरखुआ वोला- ‘अब
यहीं बैठे केवल गप ही होगी या कहीं घूमने-फिरने का भी विचार है? ’
‘चलो चला
जाय कहीं। ’-बाबू ने कहा तो गोरखुआ उठ खड़ा हुआ। उसके साथ ही बाबू भी उठ गये खाट
पर से।
दोनों चल
पड़े झरने की ओर। मतिया अपने काम में लग गयी- रात के लिए खाना बनाने में। आज दिन
में भी हल्का भोजन ही हो पाया था।
उधर रास्ते
भर गोरखुआ अलम-गलम ही बतियाता रहा। सुराज और गान्हीं बाबा ही उसकी बातों में छाये
रहे।
बाबू ने
कहा- ‘जब तुम्हें इतना ही लगाव है,तो गांधी बाबा का ही चेला क्यों नहीं बन जाते हो? देश को अभी भारी संख्या में स्वयंसेवकों की जरुरत भी है। ’
‘बनने को
तो मैं बन ही जाऊँ बाबू,मगर बना कैसे जाता है- बतला दोगे तब न।’- गोरखुआ ने खुश
होकर कहा- ‘अच्छा,इसबार मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा बाबू। तुम हमें गान्ही बाबा से
मिलवा देना। हम बहुत सा उपाय सोचे हैं मन में। गान्ही बाबा से भेट होती तो उनसे
कहता। सब मेरा कहा मुताबिक अगर मान गये तो फिर देखता हूँ बाबू कि सुराज अपनी
मुट्टी में...। ’
गोरखुआ की
बात सुन बाबू हंसने लगे, ‘ठीक है गोरखुभाई इस बार तुम्हें जरुर ले चलूंगा गांधी बाबा
के पास। तुम्हें देखकर वे बहुत ही खुश होंगे। ’
इसी तरह की
बातें करते दोनों काफी देर तक टहलते रहे,फिर अन्धेरा होते घर वापस आये। मतिया खाना
बनाकर बाहर ही नानी के साथ बैठी इन्तजार कर रही थी। और भी दो-चार लोग आकर बैठे थे
बाबू से मिलने के लिए।
‘बहुत देर
लगा दिये बाबू। ’-आते ही मतिया ने कहा।
‘यह कहो कि
इतनी जल्दी आ गया। विचार तो था, गान्ही बाबा से भेंट कराकर, गोरों के हाथ से सुराज
छीनकर ही वापस आने का।’- बाबू ने कहा तो वहां बैठे सबके सब हँसने लगे।
‘अच्छा
सुराज लाना बाद में,पहले चलो हाथ-मुंह धोओ,खाना खाओ। ’-चटाई पर से उठती हुयी मतिया
ने कहा, ‘तुम्हारा भी खाना निकाल रही हूँ गोरखु भाई,खा लो यहीं। ’
भीतर
आ,मतिया ने दोनों के लिए खाना परोसा। आज मतिया ने नये ढंग का खाना बनाया था- सब
कुछ बाबू के मन लायक- रोटी,दाल,सब्जी,चटनी...।
खाना खाते
हुए बाबू ने पूछा- ‘ये सब सामान बनाना तुमने कहां से सीखा मतिया?’- बाबू को आश्चर्य हो रहा था मतिया पर।
‘वाह बाबू! तुम क्या सोचते हो सिर्फ हंडिया बनाना ही जानती है मतिया? तुमलोगों के मुलुक का खाना ऐसा बना देगी कि अंगुली ही चाटते रह जाओगे।’-मतिया
की ओर देखते हुए गोरखुआ ने कहा।
मतिया ने कहा गोरखुआ की ओर अंगुली
दिखाकर- ‘ये सब इन्हीं की किरपा है बाबू। शहरी बाबू लोगन कैसे बोलते हैं,कैसे खाते
हैं,क्या खाते हैं,क्या पहनते हैं- सब कुछ सिखलाया है मुझे गोरखु भाई ने,सिर्फ
हमको ही नहीं मंगरिया को भी। ’
‘तभी तो
मंगरिया ने मुट्टी में कर रखा है।’- बाबू ने चुटकी ली।
‘सो तो ठीक
बाबू,परन्तु डर लग रहा है हमें,कि कहीं मतिया की मुट्टी में आप बन्द ना हो जाओ। ’-
हँसते हुए गोरखुआ ने कहा।
मतिया शरमा
कर सिर झुका ली।
खाना खाकर
दोनों जन बाहर आये। कई लोग वहां बैठे इन्तजार कर रहे थे। जब से बाबू आ गये
हैं,गांव में अजीब सी रौनक आगयी है। हर कोई चाहता है,काम-धाम से फुरसत पाकर
घड़ी-दो घड़ी बाबू के पास बैठकर,गपशप कर जी बहलाना,कुछ नयी बात सीखना,जानना।
क्रमशः......
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