गतांश से आगे...अधूरीपतिया का अन्तिम भाग
‘.....मेरिना
मुस्कुरा रही थी। उसके हर मुस्कान सैकड़ों बिच्छुओं के डंक की तरह चुभ रही थी,
मेरे रग-रग में । मैं पुनः चीख उठा- चुप करो मेरिना !
चुप करो...मेरे साथ-साथ मेरी पूरी मातृभूमि को मत घसीटो...मुझे
मूर्ख कहलो,सह लूंगा,क्यों कि तुम्हारी फरेबी चाल को मैं बूझ न पाया,और तुमसे
सच्चा प्यार कर बैठा,पर जान लो पूरा हिन्दुस्तान मेरे जैसा ही नहीं है।
हिन्दुस्तानी बुद्धि-विद्या और शौर्य के सामने सारा संसार नत मस्तक है...।’- कहता
हुआ बाबू सही में उफन पड़ा था क्रोध में। मानों उसके बगल में मतिया नही,मेरिना ही
बैठी हो। नानी के खुर्राटे अभी भी सुनाई पड़ रहे थे। उधर बाहर झनझनाती हुयी रात की
शान्ति कुत्तों के भों-भों से बीच-बीच में भंग हो रही थी।
जरा ठहर कर
लम्बी सांस छोड़ते हुए,बाबू फिर कहने लगे- ‘उस दिन की ठोकर के बाद मेरिना कभी मेरे
पास नहीं आयी,और न मैं ही गया उसके पास। हमदोनों के प्रेम सम्बन्ध का यहीं
पटाक्षेप हो गया,और जल्दी ही उसके मनहूस देश से ही सम्बन्ध विच्छेद की तैयारी करने
लगा।
‘...पिता
का प्रभाव यहां भी काम आया,कोरम पूरे होगये सब,मेरे स्वदेश वापसी के,और बिना किसी
पूर्व सूचना के ही उड़ चला पंख कटाकर,अपने पुराने घोसले की ओर। हवाई अड्डे तक नेलसन साथ आया था। उसने ही बतलाया कि मेरिना
परसों ही गुडफ्राइडे के दिन,डेविड से शादी कर ली। सुनकर एक बार सिर चकरा सा
गया,मगर सच पूछें तो उसपर मेरा अधिकार ही क्या था ? आखिर यही होना था,हुआ। रास्ते भर मेरिना के बारे में ही सोचता रहा। नेलसन
की सूचना ने जले पर नमक का काम किया था। पीड़ा को बारम्बार भुलाने की कोशिश करता
रहा,और यह संघर्ष तब तक जारी रहा, जब तक घर पहुँच न गया।
‘...घर
पहुँचा। देखते ही माँ की छाती खुशी और गर्व से ऊँची हो गयी। दौड़कर
लिपट पड़ी। देर तक लिपटी रही।
सुबकती रही। प्रेमाश्रुओं से भिंगोती रही मेरे वक्ष को; किन्तु पिता की तनती
निगाहों में आक्रोश था, साथ ही आशंका भी- कहीं माँ-बेटे का कोई गुप्त संवाद तो
नहीं हो गया !
‘…चरणस्पर्श
के जवाब में पिता ने पूछा- “हेंऽ..ऽ इतनी जल्दी कैसे चले आये?
अभी तो...।” पिता भीतर ही भीतर उबल रहे थे, “आना ही था तो कम से कम खबर कर देते।”-फिर बिना मेरे
उत्तर की प्रतीक्षा के ही,बरसने लगे- “मैं जानता था,मेरे कुल
में धूमकेतु पैदा हुये हो तुम। पढ़ाई-लिखाई से कोई वास्ता नहीं...सोचा तो था कि
बेटे को विदेश भेजकर अच्छी शिक्षा दिला दूँ , किन्तु नालायक के भाग्य में तो गधा
चराना लिखा है...खूब हुआ तो कहीं किरानी गिरी करोगे...पढना-लिखना साढ़े
बाईस...अप्सराओं के साथ रासलीला होने लगी...क्यों मेरिना नहीं आयी साथ में...वगैर
राधा के कृष्ण रहेंगे कैसे? ”-क्रोध भरी व्यंग्यात्मक हँसी
बिजली सी कौंध गयी पिता के चेहरे पर,जिसका एक ही झटका मुझे धराशायी करने को काफी
था। पिता बकते रहे- “ ...मैं जानता था,यही कुछ होगा वहाँ, इसीलिए
जोसेफ को कह रखा था,हर गतिविधियों से अवगत कराते रहने को...कल ही उसका ‘कैवेल’
आया....”
‘...पिता
बड़बड़ाते रहे काफी देर तक। दांत पीसता मैं वहाँ से अलग हट, मां के कमरे मे चला
गया। ओफ !
तो ये सारा कुचक्र जोसेफ का है,अब समझा। उसने ही पिता के कहने पर
मेरिना को भी भड़काया होगा,धमकाया होगा...किन्तु मेरिना को तो सोच लेना चाहिए
था...क्या ऐसा भी हो सकता है...उस पर भी विशेष जोर देकर शादी करायी गयी हो
जल्दवाजी में डेविड से ? जी में आया,एक बार फिर उड़ चलूँ
वापस,सच्चाई की छानबीन के लिए,किन्तु कुछ सोच कर ऐसा कर न पाया। छोड़ो जिसे त्याग
दिया,जिसने त्याग दिया- चाहे कारण जो भी रहा हो,अब थूक क्या चाटना! ’
‘…कमरे
से निकल कर पिता आँगन में आगये बड़बड़ाते हुए -
“छोकरा हाथ से बाहर निकला जा रहा है। इस पर जवानी का
जोश चढ़ गया है...मेम की खूबसूरती बस गयी है आँखों में...जितनी जल्दी हो सके,इसे
‘नाथ-गरौटी’ डाल देना चाहिए...।”
‘...बादल
जिस तरह गरज-तड़क दिखा कर शान्त हो जाते हैं,पिता भी शान्त हो गये। पर भीतर ही
भीतर किसी भारी षड़यन्त्र की भूमिका बनने लगी थी। इसकी थोड़ी बहुत आशंका मुझे इस
कारण होने लगी,क्यों कि घर के वातावरण में तूफान से पूर्व की खामोशी महसूस की
मैंने। महीने भर बाद पता चला जब एक दिन पिता ने कहा- “
मेरा विचार है कि तुम्हारी शादी कर दी जाय। तुम्हारी मां भी बराबर
कहा करती है। बीमार रहती है,कहीं कुछ हो जाय तो बहु का मुंह देखे बिना ही....।”
‘...माँ की
इच्छा-पूर्ति पर इतना ध्यान कब से पिता को होने लगा !
मुझे कुछ आश्चचर्य सा लगा,और इसमें भी पिता की कोई गहरी साजिश की बू
मिली। फलतः पिता की बात का सीधा विरोध किया। घर में फिर एकबार हो-हल्ला मचा,किन्तु
फिर मां भी कहने लगी- ‘क्या हर्ज है रे मुन्ना ! कर ले शादी।
मेरी जिन्दगी का क्या भरोसा,कब आँखें मुंद जायें...इस नरक का दरवाजा खुल
जाय...आत्मा को भाग निकलने का अवसर मिल जाय...बहु का मुंह देख लूंगी,तो चैन से मर
सकूंगी। तुझे भी एक सहारा चाहिए ही। मैं समझती हूँ,मेरे लाल,एक ने ठुकराया है
तुझे,दिल का ताजा जख्म बहुत पीर देता है रे मुन्ना। सन्तोष कर। कर ले शादी। भूल
जायेगा दुख-दर्द..। ’
‘...मां की
बातों पर मैंने गम्भीरता से विचार किया। पिता का कहा मानना कोई जरुरी नहीं,किन्तु
माँ कहे तो सिर काटकर उसके पैरों में अर्पित कर दूं...बहु लाना तो साधारण सी बात
है।
दूसरे दिन
ही शादी की स्वीकृति दे दी पिता को। सुनकर जितना प्रसन्न हुए,आज तक मैंने कभी इतना
प्रसन्न उन्हें कभी देखा नहीं था। शादी का दिन भी निश्चित कर दिया गया। लड़की तो
पहले से ही निश्चित थी ही, उनके षड़यन्त्रकारी जेहन में।
‘....अगले
दिन तिलक का रस्म होने वाला था। मेहमानों की आवाजाही,और घर में चहल-पहल जोरों पर
था। उसी दिन शाम को आया वुआ का लड़का मधुप। बातचीत होने लगी कुछ विशेष तौर पर
उससे,कारण की वह वहीं रहता था,जहाँ मेरी शादी तय हुयी थी। मैंने अपने होने वाले
स्वसुर की चर्चा की। सुनते ही चमक उठा- “क्या
कहा आपने भैया, शादी वहीं होने जा रही है,उस होजियारी वाले की बड़ी बेटी से?”
‘....क्यों तुझे अभी तक पता नहीं था क्या? पिताजी तो कई बार वहाँ हो आए हैं। तुमसे नहीं मिले क्या कभी ?’ - मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ।
“मामाजी
मेरे यहाँ तो एकबार भी नहीं गये भैया। वाह रे मामाजी,दरवाजे तक जाकर लौट आये,हमलोगों
से मिले वगैर। अच्छा सम्बन्ध है भांजे से।”
‘....हो
सकता है,जल्दी में हों। समय न मिला हो।’-पिता के बदले मैंने ही सफाई दी।
“सो
बात नहीं है भैया। मेरे यहाँ नहीं जाने का कारण अब समझ आरहा है।”-आँखें सिकोड़,होंठ काटते हुए मधुप ने कहा- “अच्छा
भैया दहेज कितना तय हुआ है?”
‘....ठीक
तो कह नहीं सकता,पर सुनता हूँ ,सब दो-तीन लाख का चक्कर जरुर है।’
“अब
समझा ”- अपनी वायीं हथेली पर दायें हाथ से मुक्का मारते हुए
उसने कहा- “जैसे भी हो,आप भैया शादी से इन्कार कर दे। लड़की
नहीं हैं आप कि कुंआरे रह जाने का भय है,यहां तो काने-कुवड़े लड़के की भी शादी हो
जाती है,आप तो...।”
‘....आखिर
बात क्या है,साफ साफ कहो।’- मेरे जोर देने पर अगल-बगल झांक कर वोला- “
तीन चक्के वाला हाथ रिक्सा देखे हो न भैया ! बस
समझ जाओ,यही बात है।”
‘....सुन
कर मुझे लगा कि पांव तले की धरती घिसक रही है। आसपास की दीवारें और खम्भे भी
कांपते हुए से लगे। माथे में झनझनाहट होने लगी। दीवार पकड़कर बैठ न जाता तो गश
खाकर,गिर पड़ता। मुझे लड़खड़ाता देख मधुप दौड़कर माँ के पास गया- “मामी...मामी,देखिये न भैया को क्या हो गया! ”
‘....मधुप
के शोर मचाने से पल भर में ही घर के सभी लोग मुझे आ घेरे। मैं चुप,
दीवार के सहारे टेका लगाये बैठा
रहा।किसी से कुछ बातचीत न की। माँ आकर झकझोरने
लगी। उनकी बातों का भी कुछ जवाब न
देकर,हाथ से इशारा भर किया चुप रहने का।
‘....कोई
आध घंटे बाद,तबियत कुछ ठिकाने आयी। बाहर गये पिता भी घर आचुके थे। पास आ मेरी
तवियत के बारे में पूछने लगे। पर उनके चेहरे ताकने की इच्छा न हो रही थी। मेरी
चुप्पी देख आदतन चीख पड़े- “बोलता क्यों
नहीं,क्या दिक्कत है?” फिर माँ की ओर मुड़कर चिल्लाये, “जब घंटे भर से तबियत गड़बड़ है,फिर अभी तक किसी ने डॉक्टर को क्यों नहीं
बुलाया? ”
‘....डरते-डरते
मां ने कहा कि इसने ही मना किया था। कहता था- कुछ हुआ नहीं, ठीक हो जायेगा यूं ही।“- मां का जवाब सुन पिता फिर चीखे- “कुछ हुआ ही नहीं
है,फिर ये मजमा क्यों लगा है घर में?”
‘....देर
से दबा मेरा क्रोध भड़क उठा। आँखे कुछ और सुर्ख हो आयी। जुबान खुल
गयी- मैं क्या नाटक कर रहा हूं,नाटक
तो आप कर रहे है आप...।
“मैं नाटक कर रहा हूँ ? क्या बकते हो ? यही सीख कर आये हो विलायत से क्या ?”
‘....ऐसी
घटिया बातें सीखने के लिए विलायत जाने की जरुरत नहीं पड़ती,ये सब तो दौलत के अंधों
की दैनिक-पाठशाला में मुफ्त में सिखायी जाती हैं।
“क्या मतलब,साफ क्यों नहीं कहते बात क्या है? ”- पिता
साफ सुनना चाहते थे,अतः मुझे भी साफ सुना देना उचित लगा- तीन लाख के लोभ में जिंदा
लाश मेरे गले लटकाया जा रहा है,यह मेरी शादी का नाटक नहीं तो क्या है?
‘....मेरे मुंह से इतना सुनना था कि वहां उपस्थित सभी कुटुम्बी एक बार
सन्नाटे में आ गये। पिता को भी कोई जवाब न सूझा। कुछ देर चुप्पी साधे,कभी मेरे तो
कभी औरों के चेहरे देखते-पढ़ते रहे। फिर एकाएक चीख पड़े- “किसने
कह दिया कि वह लंगड़ी है,लोथ है? ” उनके होंठ फड़क रहे थे।
माथे पर पसीने की बूंदे छलक आयी थी,जिसे अंगुलियों से पोंछते हुए दांत पीसकर चीख
उठे –“ समझ गया,समझ गया। यह सब मधुपवा की वदमाशी है। उसी
नालायक ने आते आते भड़काया है मेरे बेटे को...।”
‘…
दांत पीसते,पांव पटकते पिता कमरे में चहलकदमी करने लगे- “अब समय भी नहीं है,कल ही उनलोगों को आना है। इस सम्बन्ध में तुम्हें
अन्तिम रुप से क्या कहना है ?”
‘…दौलत की इतनी ही भूख है,तो उस लोथड़ी को खुद ही व्याह कर क्यों नहीं ले
आते ? मुझे नहीं जरुरत है ऐसे नापाक दौलत की।
‘…मेरा इतना कहना था कि क्रोधी पिता का क्रोध पेट्रोल बम की तरह फट पड़ा।
आगे बढ़कर,जोर का एक तमाचा जड़ दिया मेरी गाल पर- “नालायक,हरामी,कमीना...!
मैं व्याह लाऊँ उस लड़की को ? तो तू क्या
करेगा- मेम लायेगा ? यहां बैठे-बैठे हराम की मेरी कमाई खाता
रहेगा,कुल में कालिख पोतता रहेगा ? चल निकल मेरे घर से। ”- हाथ पकड़, घसीटते हुए पिता ने कमरे से बाहर कर दिया। वहा खड़े कुटुम्बी
जन हैं..ऽ..हैं...ऽ करते ही रहे,पर एक न सुनी किसी की,और न मैंने ही परवाह की किसी
के न सुनने की। माँ दरवाजे पर बिलखती खड़ी थी। आगे बढ़कर,उसके पैर छुये,और झपटकर
बाहर निकल गया ताकि माँ की ममता की लंबी मजबूत डोर कहीं बांध न ले।
‘…गली से आगे बढ़,मुख्य सड़क पर आया तो देखा- मेरा और अपना बैग लिये
पीछे-पीछे मधुप भी चला आरहा है। स्टेशन तक दोनों साथ आये। मधुप ने रुंधे गले से
पूछा- “कहां जाओगे भैया ? मेरी जरा सी
बात ने तो अनर्थ ही कर दिया।”
‘…कहाँ जाना है,मुझे खुद ही पता नहीं है। तुम जाओ वापस अपने घर। मेरी चिन्ता
छोड़ो।’- मेरे कहने पर मधुप रोने लगा। बहुत आग्रह किया साथ चलने को। लेकिन मेरे न
मानने पर, बेचारा उदास मुंह लिए चला गया।
‘…मैं यूं ही चक्कर मारता फिरा,और धीरे-धीरे उस चक्कर का दायरा बढ़ता गया।
दिन महीने और साल बन गये। शहर बदला,जिला बदला,और अब तो राज्य भी बदल गया है। आबादी
से ऊब कर जंगल मे आगया एक दिन...।’ कुछ देर ठहर कर,मुस्कुराता हुआ बाबू,मतिया की
पीठ पर हाथ फेरते हुए बोला- किन्तु अब तो उस बीरानगी से भी ऊबार लायी तुम
मुझे...।’ आपबीती सुनाते हुए बाबू ने पाया कि सिर झुकाये मतिया सुबक रही है। उसका
मुखड़ा ऊपर उठा, बाबू ने आश्चर्य से पूछ- अरे पगली ! तू
क्यों रो रही है ?’
‘ तुमने
ऐसी दर्दनाक कहानी ही सुनाई कि मैं चाह कर भी अपने आंखों को समझा न सकी,बरस ही
पड़े। ओफ ! कितना दुःख हुआ होगा बाबू ! एक तो मेरिना को शादी करने से
बहका-डरा दिया,दूजे, ऐसी लड़की को गले डाल रहे थे तुम्हारी जिन्दगी को गर्क करने
के लिए...ऊपर से मां का दुःख...तुम ही हो बाबू कि इतना सह लिए,मैं तो जान देती।’- जरा रुक कर मतिया ने कहा- ‘ बाबू ! असल में तुमको
तो शंकरदेव ने मेरे लिए इस दुनियां में भेजा था,फिर कैसे हो पाते किसी और के ?’- मतिया की बात सुन बाबू,ने खींचकर उसे बांहों में
भर लिया।
‘ अरे
तोंयमन रातभर गप्पे मारत रह गेलों की ?’-
भीतर से बुढ़िया की आवाज आयी,तब इन दोनों का ध्यान गया- समय की ओर- अरे सबेरा हो
गया ? सही में हमलोग रात भर बैठे ही रह गये।
नानी की
आवाज सुन मतिया भीतर चली गयी- झोपड़ी में,और रोजमर्रा के काम में लग गयी। बाबू उठ
कर झरने की ओर निकल पड़े।
उस दिन
मतिया भेड़ लेकर जंगल भी न गयी,न कहीं और ही। सारा दिन घर में ही रह गयी। खाना
बनायी,बाबू को खिलायी,खुद खायी,और बैठकर गप्प लड़ाती रही। आने वाले समय की
कल्पनाओं में ऊब-चुब होती रही। न जाने क्यों आज गोरखुआ भी आया नहीं। पता लगाने पर
मालूम चला कि किसी जरुरी काम से कस्बा गया हुआ है,यानी कि अब देर शाम में ही भेंट
हो सकेगी।
कुछ रात
गये गोरखुआ आया। कस्बे से लौटा तो सीधा मतिया के ढाबे पर ही चला आया। एक हाथ में
गठरी थी- कुछ सौदावारी,और दूसरे में था अखवार का एक टुकड़ा
मात्र।
‘क्यों
गोरखुभाई ! आज कहां उड़ गये थे सुबह से ही ?
दिन भर अकेले बैठे मन भी नहीं लग रहा था।’
‘और मतिया
कहां थी ?
क्या आज भी भेड़ चराने चली गयी थी ? ’-
हाथ की गठरी एक ओर रखकर,चटाई पर बैठते हुए गोरखुआ ने पूछा।
‘मतिया तो
थी ही। उससे ही बातचित करता रहा। सुबह का समय झरने की ओर टहल कर गुजारा। सोचा था
तुम रहते तो साथ में कस्बा चलता। जरा घूम आता मैं भी तुमलोगों का कस्बा।’
बाबू ने
कहा तो,अफसोस करते हुए गोरखुआ बोला- ‘ मैं जान ही नहीं पाया कि कस्बा चलने का मन
हैं ,नहीं तो सुबह में जाते समय ही साथ ले लेता।’- जरा ठहर कर अचानक बोला- ‘ अरे
हाँ बाबू ! याद आयी,आज कस्बे में सौदा खरीद
रहा था तो पुराने अखबार में एक फोटू देखा। ’- हाथ में लिये अखबार को बाबू के हाथ
में देते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘ फोटू तो आपसे एकदम मिलता है बाबू देखो न जरा किसका
है।’
‘ढिबरी जरा
नजदीक तो लाना मतिया।’- बाबू ने अखबार लेते हुए,मतिया को आवाज दी। मतिया भीतर से
दीया उठा ले आयी। बाबू ने अखबार देखा। काफी पुराना था। तारीख भी फटी हुयी। तस्वीर
देखते ही चौंक पड़ा- ‘अरे यह तो मेरी ही तस्वीर है।’ कहते हुए पढ़ने लगे आंख
गड़ाकर,उस फटे टुकड़े के बचे-खुचे अक्षरों को।
‘ क्या
लिखा है बाबू,जरा जोर से पढ़ो न,ताकि हम भी सुने। कहीं गान्ही बाबा ने तो तुम्हारा
फोटू नहीं छपवा दिया?’- थोड़ा आगे खिसक,अखवार पर आँखें गड़ा,गोरखुआ ने कहा, मानों महीन अक्षर
पढ़ने की कोशिश में हो।
‘तुम्हें
तो हर वक्त गान्ही बाबा की ही रट लगी रहती है गोरखुभाई।’- झल्लाकर बाबू ने कहा,और
अखवार पढ़ने लगे।
बड़ी सी
तसवीर के नीचे लिखा था- ‘प्रिय मेरा मुन्ना! तुम
जहाँ कहीं भी हो,जल्दी घर वापस आ जाओ। पिताजी ने काफी खोज करवायी। पर पता न चला।
मेरी हालत बिलकुल खराब है। लगता है- दोचार दिन की मेहमान हूँ। तुम जहां भी रहो,सुख
से रहो। बस अन्तिम बार तुम्हारा मुंह देख लेती,तो चैन से मरती। तुम्हारी माँ।’-
तस्वीर के नीचे लिखा था- अमरेश कुमार,और उसके नीचे थी ये सूचना,जिसकी चंद
पंक्तियां पढ़ते-पढ़ते ही बाबू की आँखें भर आयी। टप की आवाज हुयी और अखवार का कुछ
अंश गीला हो गया।
‘ओफ!
सूचना भी मिली तो इतनी देर से। पता नहीं माँ की क्या हालत होगी अब?’- कहते हुए बाबू ने अखवार एक ओर रख,गले में पड़ी जंजीर को कमीज से बाहर
निकाला। उसमें लटकती तसवीर को गौरसे देखा,और चटाक से चूमकर,माथे से लगा लिया।
गले मे
झूलती जंजीर का लोलक पकड़,तस्वीर को देखती हुई मतिया आश्चर्य से बोली- ‘ यह
तुम्हारी माँ की तसवीर थी,तुमने आज तक बतलाया नहीं कभी।’
‘सबकुछ
बतलाने का अवसर ही कहाँ मिला था कभी मतिया। अब मिला भी तो...।’- कहते हुए बाबू की
आँखें भर आयी। गला रुँध गया। ‘ वक्त काफी गुजर चुका है मतिया!
काफी वक्त। हाय मेरी माँ! ’ माँ की तसवीर को
निहारते हुए बार-बार चूमने लगा। आंसू की लड़ियां जारी थी लागातार।
बाबू को
रोता देख,मतिया भी रो पड़ी। कंधा थपथपाते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘रोओ मत बाबू। अब
क्या होना है इससे। जाओ,जल्दी जाकर माँ का पता लगाओ। ’
‘जाना तो
पड़ेगा ही गोरखुभाई! बिना गये कैसे पता
चलेगा। हाय मेरी माँ!...। ’- बाबू विलख उठा बच्चों की तरह।
बड़ी देर तक मतिया और गोरखुआ उसे समझाते रहे।
थोड़ी देर
बाद,गोरखुआ अपने घर चला गया- ‘सामान रखकर, फिर आऊँगा बाबू। ’-कहता हुआ। बाबू
उदास,बैठे रहे ढावे में ही। मतिया भी गुमसुम वहीं बैठी रही।
गोरखुआ
गया,तो पूरे गांव में खबर फैला दिया- आँधी की तरह- ‘बाबू कल जात
हे...। ’ इसका नतीजा हुआ कि एक-एक
कर लोग जुटने लगे मतिया के दरवाजे पर,और फिर जुटे तो जुटे ही रह गये-
सोहनकाका,भिरखुकाका,भेरखुदादू,होरिया,डोरमा,मंगरिया, सोमरुआ,गुजरुआ....सभी घेरे
रहे रात भर।
कुछ
गपशप,समझाना-बुझाना,कुछ रो-कलप में, किसी तरह रात गुजरी। सारी रात किसी की आँखों
में नींद न थी। भोर होते ही बाबू तैयार हो गये चलने को।
‘इसे रखलो
बाबू !
रास्ते का कलेवा है। ’- साड़ी के टुकड़े में बंधी एक पोटली बाबू के
हाथ में थमाती हुयी मतिया,आंचल के छोर से गाल पर ढलक आये आंसू पोंछती,कलपती हुयी
बोली- ‘मुझे भी लेते चलो न बाबू ! माँ से भेट हो जायेगी..। ’
‘ऐसे ही
कैसे लिये चलूँ मतिया ! बिन डोली,बिन
साज-बाज ? धीरज रखो,मैं बहुत जल्दी ही मां से मिलकर,वापस
आऊँगा,और साथ में अपना पुरोहित ले आऊँगा। बाबा शंकरदेव के मन्दिर में चल कर
बिधि-विधान से विवाह करूँगा, तब तुझे दुल्हन बना,डोली में बिठाकर ले
चलूँगा,गाजे-बाजे के साथ। वैसे समझो वचन से तो तुझे अपना ही लिया हूँ। तुम मेरी हो
चुकी हो मतिया ! अब जीते-जी कोई तुझे मुझसे अलग नहीं कर सकता...।’-
सुबकते हुए बाबू ने कहा,और गले मे पड़ी जंजीर निकाल कर मतिया के गले में पहना दी, ‘
इसे सम्हालकर रखना। मेरी माँ की निशानी है,जो अब तुम्हारी सासुमाँ भी हैँ...।’
बाबू का
गला भर आया था। आगे कुछ कह न पाया। झुककर नानी के पैर छुये। फिर बूढ़े दादू की ओर
लपके,किन्तु दादू ने हाथ पकड़ लिया- ‘ ये की करत हो बाबू !
’
‘ हां
दादू! क्यों नहीं,आप इस गांव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति हैं,और
जबकि आप सबने मुझे अपना बना लिया,फिर पैर छूकर आशीष लेने से मुझे क्यों वंचित कर
रहे हैं ?’- कहते हुये बाबू ने तपाक से उनका पैर छू लिया।
दादू ने बाबू को बाहों में भर लिया- ‘लम्बी उमर दे तुम्हें बाबू , वाबा शंकरदेव।’
फिर बाबू
ने वहां खड़े सोहनु और भिरखुकाका के भी पैर छुए,आशीष लिया। विदाई देने औरतें और
बच्चे भी आजुटे थे। सभी बड़ों का पैर छुआ बाबू ने,और बराबर वालों से गले मिलकर
सबको सम्मानित किया। बच्चे भी लपक-लपक कर,ललक-ललक कर बाबू के पैर छुए। सबकी आँखों
में गंगा-जमुना उमड़ी पड़ी थी। सबका चितचोर कन्हैया, मानों आज रोते-बिलखते गोकुल
को छोड़ मथुरा जा रहा था।
गोरखुआ,होरिया,और
डोरमा कस्बे तक पहुचाने गये। बाबू को गाड़ी में बैठाते समय, गोरुखुआ फफक कर रो
पड़ा। होरिया और डोरमा भी खुद को रोक न सके,रो ही पड़े। गाड़ी खुलने लगी तो हाथ
जोड़कर गोरखुआ ने कहा, ‘ जल्दी लौट आना बाबू । याद है न मंगरिया को साथ लेकर
गान्ही बाबा के पास चलना है।’
‘बाबू चला
गया सो चला ही गया। लम्बा अरसा गुजर गया। मतिया आँखें बिछाये बैठी रही बाबू की आश
में।’- मतिया की कहानी कहती युवती की आँखें भी डबडबा आयी। काफी देर से धीरज रखे,मतिया
और पलटनवां बाबू की कहनी सुनते युवक की मानों नींद खुली अचानक। पांव समेट,पलथी
मार,बैठते हुए बोला- “ घटना तो अच्छी
सुनाई,और बड़े मौके पर सुनाई तूने। पर मुझे आश्चर्य हो रहा है कि मतिया और पलटनवां
के बीच हुयी गुप्त बातों की जानकारी तुझे क्यों कर हुयी? ”
यवती कुछ
कहना चाहती थी,तभी उसने देखा- कहानी सुनते हुए युवक ने अपने जेब में हाथ डालकर
साड़ी के टुकड़े को निकाला,जिसे रुमाल की तरह पहले भी कईबार इस्तेमाल कर चुका था।
टुकड़े को सूंघा,बड़े प्यार से,और चूम लिया। फिर ऊपर सिर उठाकर कुछ गौर करने लगा-
सामने बैठी युवती के चेहरे पर। उसे पहचानने का प्रयास करने लगा,साथ ही अपने-आप में
बड़बड़ाने भी लगा- ‘ पलटनवां के जाने के बाद क्या मतिया,पागलों की तरह बक गयी सब
कुछ...सबसे...और बातों के साथ-साथ बाबू के जीवन की रहस्यमय गुत्थियां....उघाड़ गयी
सारी बखिया...बेनकाब कर दी...कर ही दी तो फिर आगे क्या हुआ यह भी तो मालूम होना
चाहिए...।’
एकाएक युवक
कड़क उठा। आवेश में बोल उठा- ‘ क्या मतिया और पलटनवां की
कहानी खत्म हो गयी यहीं...?’
एक जोरदार
मानसिक दौरे के प्रभाव की तरह युवक आवेशित हो उठा। चट्टान से उठ खड़ा हुआ,और अपना
सिर धुनने लगा,बालों को नोचने लगा...। बारबार आँखें तरेर कर सामने बैठी युवती को
देखने लगा। शायद उसका भुलक्कड़पन हवा हो गया था- मतिया और पलटनवां की कहानी सुनकर।
युवती ने
उसके सवाल का कोई जवाब न दिया,देना उसे शायद जरुरी भी न लगा। चुप बैठी मुस्कुराती
रही। उसका मौन मुस्कान तीर की तरह चुभता रहा युवक के कलेजे में। क्रोध में आंखे
लाल अंगारे सी चमकने लगी थी। झटके से आगे बढ़,सामने दरख्त के सहारे खड़ी की गयी
अपनी बन्दूक सम्हाल कर उसमें गोलियां भरने की कोशिश करने लगा- ‘दुष्टा,शैतान की
खाला !
तू मुस्कुरा रही है मेरी स्थिति पर ? तूने
मेरा इतना वक्त बरबाद किया,और अब पूछने पर बतलाती भी नहीं कि यह रहस्यमय कहानी
तुझे क्योंकर मालूम चली,और मालूम भी हुयी तो अब आगे की बातें बतलाने में क्यों
हिचक रही हो?’
गरजने को
तैयार युवक की बन्दूक का कुछ भी असर,युवती के निर्भय मुस्कान पर न हुआ,बल्कि और
ढीठ होकर, उसकी हँसी बाहर आने लगी- “
होश में आओ बाबू,होश में आओ। अब तक तो तुम्हें कुछ भी याद न आरही थी,अब पूछते हो
मैंने मतिया की कहनी कैसे जान ली। थोड़ी देर में कुछ और भी पूछोगे। क्यों...क्या
शर्त भी भूल गये- क्या कहा था मैंने?”
“कौन
सी शर्त ? ” - युवक आवेश में बोला । युवती की निर्भीकता,और
धृष्टता उसे पैने तीर सी चुभ रही थी।
“कहानी
सुनाने और पतिया लिखाने की बात, और फिर मंजिल बतलाने की बात।”- पूर्ववत मुस्कुराती हुयी युवती ने कहा।
“ओफ
मेरी मंजिल ! ”- युवक फिर बड़बड़ाने लगा।
बन्दूक नीचे गिर गयी,उसके हाथ से। कांपते हाथों से सिर के बालों को नोचते हुए बोला-
“ याद आगयी,याद आगयी,
मेरी मंजिल। खुद याद आगी। अब तम्हें
बतलाने की जरुरत नहीं है।”
“वाह
रे,खुद याद आगयी। तब तो लगता है,शर्त के मुताबिक मेरा काम भी नहीं कहोगे ? पतिया भी नहीं लिखोगे ?”
“क्या
बकती हो,मतिया और पलटनवां की पतिया लिखवाने वाली तुम होती कौन हो-जरा ये तो बताओ ?
”- युवक चीख उठा।
“
छोड़ो बाबू मैं कौन होती हूँ,कौन नहीं।”- युवती ने उदास सा
मुंह बनाकर कहा- “मैं जानती थी कि अन्त में तुम यही कहोगे।
खैर,मत लिखो पतिया। मुझे इसकी परवाह भी नहीं। खुशी है इस बात की कि तुम्हें अपनी
मंजिल याद तो आ गयी। यह भी जरुर याद आ गया होगा कि तुम कौन हो,क्या नाम है
तुम्हारा,क्या,कब,किससे,कुछ कहा था तुमने।”- कहती युवती
गम्भीर हो गयी,किन्तु उसके होंठों पर पूर्व मुस्कान की परछाई जो अभी भी मौजूद
थी,एकाएक फिर उभर आयी, “यूं ही अन्धेरे में तीर नहीं मारती
हूँ बाबू, तुम्हारी तरह।”
“क्या
मतलब ?”- उत्तेजित युवक ने कहा- “क्या
मैं अन्धेरे में तीर चलाता हूँ?”
“और
नहीं तो क्या। इसे अन्धेरे में ही तीर मारना कहते हैं बाबू !
बिना जाने-समझे मुझ बेकसूर औरत पर बन्दूक तान रहे हो। तुम्हें अपनी बन्दूक का घमंड
है ,तो मुझे भी अपनी परख का। क्या मैंने मतिया और पलटनवां बाबू की कहानी किसी ऐसे
आदमी को सुना डाली,जिसे सुनने का अधिकार नहीं था उसे ? यह
तुम्हारी नासमझी है बाबू,पूरी तरह नासमझी। ”
“बहुत
तेज है तुम्हारी परख।”- युवक मुंह बिचका कर बोला, “तो फिर कहती क्यों नहीं कि मैं कौन हूँ ? और जब
पलटनवां बाबू चला गया वापस,तब फिर क्या हुआ आगे ?”
“क्या
हुआ आगे,क्या किया पलटनवांबाबू ने,जाने के बाद क्यों नही आया,यह तो हम से ज्यादा
तुम ही बतला सकते हो। हां,यह मैं जरुर तुमसे ज्यादा अच्छी तरह बतला सकती
हूँ कि बाबू के जाने के बाद मतिया
का क्या हुआ। रही बात यह कहना कि तुम कौन हो,तो क्या इसे भी मैं ही बतलाऊँ ? ”- युवती पहले की तरह ही मुस्कुरा कर बोली। इस बार
के मुस्कान का और भी तीखा असर हुआ युवक पर।
दांत पीसता
हुआ नीचे झुका। चट्टान के नीचे गिर पड़े बन्दूक को उठाकर तान दिया फिर से युवती की
ओर,जिसमें गोलियां तो पहले ही भर चुका था। निशाना साधते हुये बोला- “ये सब पहेलियां मत बुझाओ मुझे। मेरा सही परिचय जानती हो तो साफ-साफ कहो, या
फिर मेरी बन्दूक का निशाना बनो। ”
इतने पर भी
युवती जरा भी डिगी नहीं,और न उसके होठों पर से मुस्कान ही गयी। बड़ी ढीठाई से
बोली- “तुम्हारी बन्दूक में इतनी ताकत नहीं है बाबू जो मेरी छाती में गोलियां दाग
सके,और न तुममें ही.... ।”
“मेरी
बन्दूक के साथ-साथ मुझे भी चुनौती देती है ढीठ-दगाबाज और ? जान
प्यारी हो तो मेरी बातों का साफ-साफ जवाब दे,वरना....।”
“ वरना
क्या होगा पलटनवांबाबू बतलाओ तो सही ? ”—युवती खिलखिला उठी।
“पलटनवां
बाबू नहीं हूँ मैं। इस संबोधन से कहीं तुम मुझे चिढ़ा तो नहीं रही हो न ?
”- युवती के मुंह से पलटनवां बाबू का सम्बोधन सुन,युवक एकाएक नरम
पड़ गया। बन्दूक नीची कर ली। क्रोध भी काफूर हो गया।
“तुझे
चिढ़ाकर,तड़पाकर, मुझे क्या मिलेगा बाबू ? ”-युवती इस बार
मुस्कुरायी नहीं, बल्कि गम्भीर होकर बोली- “सच कहना,क्या तुम
वही अमरेश नहीं हो जो मतिया के पास से वापस जाने के बाद फिर एक षड़यन्त्र के शिकार
हो गये,और भुला दिया अपने वायदे को,जो तुमने दिया था कभी... ? ”
“वही
अमरेश !”- युवती के मुंह से इस बार स्पष्ट नाम सुनकर युवक
चौंक उठा- “मैं अमरेश हूँ...पलटनवां बाबू हूँ...मतिया को वचन
दिया था...षड़यन्त्र का शिकार हुआ हूँ... मगर तुम कौन हो पहेली पर पहेली बुझाने
वाली? ”- युवती के चेहरे पर फिर से गौर
करते हुए युवक ने कहा।
“यह
भी जान जाओगे बाबू,यह भी जान जाओगे। सब कुछ जान ही गये। तुम्हारे भुलक्कड़पना का
भूत भाग ही गया,तो इसे जानने में भी परेशानी न होगी,किन्तु पहले यह तो कहो बाबू कि
मतिया के घर से विदा होने के बाद तुमने क्या-क्या किया?”
“क्या-क्या
किया ! ”- युवक शान्त स्वर में बोला- “कहने में तो कोई हर्ज
नहीं, किन्तु बिना परिचय जाने, अपना राज अपने मुंह से ही खोलना भी तो उचित नहीं,भले
ही कोई कुछ कहता-जानता रहे। ”- युवक थोड़ा ठहरा,कुछ सोचने
लगा। फिर बोला- “खैर,कोई हर्ज नहीं। यदि तुम किसी से कह भी
दोगी,तो मेरा कुछ बिगड़ने वाला नही है अब। रह ही क्या गया है अब बिगड़ना...और बनना
ही क्या...पर परिचय मिल जाता तुम्हारा तो थोड़ी तसल्ली होती। ”
“कह
जाओ,बाबू,सुना जाओ। परिचय की परवाह न करो। वह तो खुद-व-खुद मिल जायेगा। अपना राज
सुनाकर,मुझसे कुछ नुकसान का भी अंदेशा न करो। मैं ऐसी नहीं हूँ, जो ढ़िढोरा पीटती
फिरुंगी।”- युवती ने यकीन दिलाया,किन्तु परिचय न दे पाने के
कारण युवक की शंका का समाधान न हो सका।
लम्बी सांस
खींची,छोड़ी,फिर खींची उसने,शायद दम घुट रहा हो। सांस लेने छोड़ने में कठिनाई हो
रही हो। युवती के सिर से पैर तक कई बार उसकी नजरें चढ़ी-उतरी,गहराई भी,किन्तु
बाहरी छिछलापन का चक्कर ही लगा पायी,क्यों कि पहचान का कोई सूत्र हाथ न लगा। सिर्फ
लम्बाई पर,किसी के पहचान का पक्का मुहर तो नहीं ही लगाया जा सकता न!
न सही रंग न रुप,न सौन्दर्य कुछ भी तो कहीं मेल न खारहा था- उसकी
यादों की डायरी से। सब अनजान ही था। होंठों ही होंठों में बुदबुदाया, “ कैसे कहती है,ये लड़की कि परिचय खुद ब खुद मिल जायेगा ? ऐसी या इस तरह की कोई लड़की – कहीं तो नहीं दीखती यादों के झरोखे में।”
होंठ
सिकोड़,सांस छोडते हुए मायूस सा होकर युवक ने कहा - “ ठीक है,तो जान ही लो कि फिर क्या हुआ आगे। सुना ही डालता हूँ। ”
युवक,जिसने
अब खुद को अमरेश या मुन्ना,या पलटनवां होना स्वीकार कर लिया था,कहने लगा- “ उस बार मतिया के यहाँ से विदा होकर घर का रास्ता लिया। रास्ते भर मन
आगा-पीछा होता रहा। कभी माँ के बारे में तो कभी पीछे छोड़ आये मतिया के बारे में
सोचता रहा,उस मतिया के बारे में ,जिसकी कोई निशानी भी नहीं रख पाया था। रह गया बस
केवल एक...”- जेब में हाथ डाल,साड़ी का टुकड़ा निकाला,सूंघा
और होंठों पर रगड़ने लगा,मानों मतिया के होंठ पर अपने होंठ रखे हुए हो। चूमा उस
टुकड़े को एक बार,और कहने लगा- “ एक यही टुकड़ा मात्र...।”- टुकड़े को हवा में लहराते हुये,युवती को दिखाया- “
चलते समय अपनी साड़ी के टुकड़े में कुछ कलेवा बांध कर दी थी,रास्ते के लिए। पाथेय
तो हजम हो गया कब का,पर टुकड़ा अभी तक संजोकर रखे हुए हूँ।”-
टुकड़े को मुट्ठी में भींच कर बारबार चूमने लगा। सामने ढोंके पर बैठी,मुस्कुराती
युवती,देखती रही मतिया के प्यार की निशानी –उस टुकड़े का चूमा जाना।
युवक ने
आगे कहा- “ अखवार देखने के बाद से ही वदन
में चिनगारियां सी उठने लगी थी,जो तब तक चैन न लेने दी,जब तक कि घर पहुँच न गया।
“...घर
पहुँचा। आशा-निराशा के द्वन्द्व में बाहर का गेट खोला। सामने ही ,वरामदे में आराम
कुर्सी पर बैठी एक हमउम्र खूबसूरत युवती,जिसका पेट हंडिये सा निकला हुआ था, नवजात
शिशु के लिए जुराबें बुन रही थी। गेट खुलने की आहट से चौंक कर सामने देखी। उसकी
आँखों में जिज्ञासा भरे प्रश्न थे।”
“ जी,
आपका परिचय ?”
“ जी, मुझे लोग...जी अमरेश कहते हैं...और आप....?”
अपने ही
दरवाजे पर अनजान की तरह,ठमकता हुआ खड़ा होना,बड़ा अजीब लगा। परिचय बताना तो उससे
भी अजीब । मेरा नाम सुनते ही युवती बिना कुछ अपना परिचय दिये,हाथ में पकड़े ऊन की
लच्छी और कांटे सम्हालती,लगभग दौड़ती हुयी सी,अन्दर चली गयी- “ अजी सुनते हो ! अमरेश आ गया...अमरेश...।”
मैं अब तक
वरामदे की सीढियां भी नहीं चढा था। नीचे ही ठमका खड़ा था। घर से परायेपन की
दुर्गन्ध आरही थी। खूबसूरत युवती की आवाज सुनते ही भीतर बैठक से निकल कर पिता
महाशय बाहर आये।
“अहा
आ गये बेटे ! आओ..आओ,अन्दर आओ। बाहर क्यों खड़े हो अनजान की
तरह ?”- चरण-स्पर्श के जवाब में पिता ने कहा,और वापस मुड़
चले बैठक की ओर। उनके पीछे मैं भी हो लिया।
वैठक में आकर,पिता
पड़ रहे पलंग पर। शायद तबियत कुछ कमजोर रही हो। मैं वहीं सामने सोफे पर बैठ गया।
उधर वह युवती भीतर जा नौकरानी को आवाज लगा रही थी- “ अरे कहाँ मर गयी रे नगेसरी,देखो अमरेश आया है। जल्दी से कुछ
नास्ता-वास्ता ले आ इसके लिए।”
युवती के
मुंह से बारबार अपना नाम सुनकर,नाम घिसता हुआ सा लगने लगा। आज तक पिताजी ने कभी
नाम लेकर पुकारा नहीं। माँ हमेशा मुन्ना कहकर ही काम चला लेती है। कहती है- बेटे
का नाम लेने से उसकी आयु कम होती है। घर के और सदस्य मां के ही तर्ज पर मुन्ना
कहना पसंद करते हैं। दोस्तों और परिचितों में सिर्फ महज उपाधि से ही काम चल जाता
है। पूरा नाम कोई आजतक लिया नहीं। हां एक थी- पूरे नाम की उपयोग करने वाली,किन्तु
वो भी मिस्टर अमरेश कहा करती थी,वह भी खास जरुरत पड़ने पर ही।
नौकरानी को
नाश्ते की फरमाइश कर,युवती अपनी लच्छियां सम्भालती,अन्दर आ, सीधे पलंग पर जा
बैठी,जहां पिता पड़े हुए थे। मुझे यह देखकर आश्चर्य सा लगा। मेरे चेहरे से
मनोभावों को पढ़ने का प्रयत्न करते हुए पिता ने कहा- “
क्यों बेटे पहचाना नहीं न इन्हें? ये तुम्हारी
माँ है।”
मैं ऊंचे
आसमान से सीधे बबूल की झाड़ी पर गिर गया। पुराने समय में एक वृद्ध
ऋषि थे- च्यवन,जो नहाने के लिये
औषधियों से युक्त तालाब में घुसे,और निकले तो बिलकुल युवा बन कर,नतीजन उनकी युवती पत्नी
सुकन्या भी पहचानने से कतराने लगी थी। कुछ वैसे ही धर्मसंकट में मैं पड़ गया।
आश्चर्य चकित होकर बोला- ‘ माँ ! माँ है ये ?’ और बुदबुदाया- माँ कैसे हो सकती है ?
“हां
बेटे,मां ही है...नयी माँ। ”- मुस्कुरा कर, पिता ने अपनी ओर
से मानों खुशखबरी दी,और ऊन और कांटे की मदद से प्रेम का जाल बुनती युवती की ओर
देखने लगे। युवती ने भी कनखियों से उन्हें देखा,और मुस्कुरा पड़ी।
“और
माँ ? ” - बरबस निकल पड़ा मेरे मुंह
से। साथ ही याद आयी,आजतक माँ ने कभी नौकरानी के हाथ का बना खाना नहीं खाने दिया
था- न हमें न घर के किसी अन्य सदस्य को। कहती थी- “ मेरे हाथ
में क्या मेंहदी लगी है,जो मुन्ने को नौकरानी खाना बनाकर खिलायेगी ? ” नौकरानी तो सिर्फ ऊपरी कामों के लिए रखी जाती थी।
पिता उठकर
बैठ गये,तकिये का ढासना लगाकर,थोड़ा ऊँचा होकर। उदास सा मुंह बना कर कहने लगे- “ तुम्हारी मां को गुजरे आठ महीने हो गये बेटे,पूरे आठ महीने।”
पिता की
धीमी-दबी आवाज कानों में सनसनाहट के साथ घुसी,और गर्म शीशे के तरह अन्दर उतरती चली
गयी। पेट में नाभी के पास मानों एक गैस-गुब्बारा छूटा,और सन -सन करता हुआ ऊपर हृदय
और फेफड़ों को मड़ोरता हुआ गले में आकर फंस गया। पूरे वदन में खून का दौड़ना बंद
सा हो गया। आँखों तले छोटे-छोटे पीले-नीले तारे चमके,और फिर एकाएक अन्धकार....।
सामने की
मेज पर देर तक सिर टिकाये,उस घनघोर अन्धकार में भटकता रहा। खोजता रहा रास्ता...।
थोड़ी देर
बाद अन्धकार एकाएक गायब हो गया। सारी वस्तुयें पहले की भांति नजर आने लगी। टेबल से
सिर उठाया। एक बार सामने पलंग पर बैठे पिता को देखा,और फिर सिर टिकाकर हुचक-हुचक
कर रोने लगा। दिल बैठा जा रहा था। सांसे घुट रही थी।वदन में झुरझुरी हो रही थी।
चाहा था कुछ कहना,किन्तु कह न पा रहा था,कांपती सांसों के साथ सारा पिंजर हिल रहा
था।
बड़ी कोशिश
के बाद मुंह से आवाज निकली- “ आठ महीने,यानी
कि मेरे जाने के पांच महीने बाद...। हाय माँ ! तुम मुझे
छोड़कर चली गयी ! ओफ कितना अभागा हूँ मैं !”
मां कही
जाने वाली नयी युवती मेरे पास आयी। सिर पकड़कर चुप कराती हुयी बोली- “चुप रहो अमरेश,चुप रहो। रोओ मत। रोने से अब कुछ होने वाला नहीं है। वह तो
चली गयी,लौटकर थोड़े जो आ सकती है। वैसे भी अब तुम बच्चे नहीं हो...।”
यह सही है
कि माँ चली गयी। यह भी सही है कि जो चला जाता है,वो लौट कर वापस नहीं आता- रोने
वाले के पास। यह भी सही है कि मैं अब बच्चा नहीं हूँ; किन्तु माँ की ममता और प्यार
की जरुरत क्या सिर्फ दुधमुंहें बच्चे को ही होती है ?
बच्चा तो बूढा हो जाये फिर भी माँ के लिए बच्चा ही रहता है। और
बच्चे को तो मां की जरुरत हरदम होती ही है,होनी ही चाहिए। परन्तु क्या इस युवती को
ही माँ मान लूँ ,जो उम्र में मुझसे भी कुछ छोटी ही होगी !
देर तक सिर
झुकाये सोचता रहा। आँखों के आँसू धीरे-धीरे सूख गये,पर दिल में बहते आँसू को कैसे
रोका जाय,जो रुकना भूल गये थे !
मुझे चुप
देख युवती फिर जा बैठी पलंग पर ही। पिता कहने लगे- “ तुम्हारे जाने के बाद धीरे-धीरे सब कुछ टूटने लगा बेटे। बिगत तेरह महीनों
में ही बहुत कुछ टूटा...बहुत कुछ बिखरा..पहले तेरी दादी गयी..फिर तुम्हारी
माँ..मरते दम तक तेरा नाम लेती ही रही- मुन्ना से अब भेंट न हो सकेगी...। मैंने भी
काफी प्रयास किया...रेडियो,अखबार में कई बार प्रचारित करवाया...कुछ पता न
चला...मां तो चली ही गयी तुम्हें याद करती...मैं भी तुम्हारे जीवन से निराश होता
गया...सब बुरे सपने आते रहे...तन्त्र–ज्योतिष भी कुछ काम न आया...अन्त में भाग्य
के भरोसे छोड़कर बैठ जाना पड़ा...तुम चले ही गये त्याग कर...।”- लम्बी सांस छोड़ते हुए पिता फिर कहने लगे- “ मैं
निराधार और अनाथ हो गया...पागल से भी बदतर मेरी स्थिति हो गयी...पागल को तो कम से
कम उचित-अनुचित का ज्ञान भी नहीं रहता,इसलिए निश्चिन्त तो रहता है...पर मैं... दिल
के दौरे लागातार पड़ने लगे...मित्रों ने राय दी- देखभाल के लिए दूसरी शादी करने
की...सोचा- इस उम्र में शादी क्या शोभा देगी...घर की शोभा घरनी ही होती है
बेटे...चन्द महीनों में ही बिन घरनी घर भूत का डेरा बन गया...क्या करता,लाचार पड़
गया...आस-पड़ोस,इष्ट-मित्र का दबाव बढ़ने लगा...लाचार होकर शादी करनी पड़ी...अब से
तीन महीने पहले इसे व्याह लाया...बरबाद होते घर की देखभाल के लिए...बड़े गरीब घर
की बेटी है बेचारी...सोचा- चलो एक लड़की का उद्धार तो हुआ...।”
‘...मेरी
निगाह उस युवती के उभरे हुए पेट पर गयी,जो अपनी उपस्थिति कम से कम छः-सात माह से बतला
रहा था। तुम भी एक औरत हो। क्या तुम मान सकती हो कि तीन मास की व्याही औरत का पेट
हंडिये सा उभरा हो सकता है? ’- युवक ने युवती
की ओर देख कर पूछा,जिसे सुनकर युवती थोड़ा मुस्कुरायी,फिर बोली—
“ऐसा
होना तो नहीं चाहिये बाबू, पर मैं क्या कह सकती हूँ ? इसका मुझे अनुभव ही क्या है।”
“खैर
जो भी हो,तुम्हें अनुभव हो या न हो,मुझे तो ऐसा ही लगा।”-
युवक ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा- “पिता की बातें मुझे
झूठ,सरासर झूठ लगी। इष्ट-मित्रों का दबाव भी एक बहाना सा लगा। मेरे जन्म के समय का
इतिहास भी इस बात का गवाह है। वास्तविकता तो कुछ और ही समझ आयी,जिसे खोल कर कहने
में जुबान नहीं खुलती।
“मैं
चुप सुनता रहा,पिता कहते रहे- “...व्याह तो लाया इसे,यह सोच
कर कि थोड़ी शान्ति मिलेगी,घर फिर घर हो जायेगा,परन्तु एक नयी आफत सिर पर सवार
होगयी अगले ही दिन...तुम्हारे चाचा-चाची की चख-चख शुरु हो गयी..घर में महाभारत
छिड़ गया। उन्हें तो परेशानी होने लगी...सोचे
होंगे कि बेटा भाग ही गया...बच्चे और हैं नहीं..अकेले सम्पति के वारिस बनेंगे वे
ही सब मेरे बाद। नतीजा ये हुआ कि सप्ताह भर के किच-किच के बाद उनके हिस्से का
निपटारा कर देना पड़ा। घर बंटा,रोजी-रोजगार बंटा,जमा पूंजी बंटी...और लगता है
खानदान की मर्यादा और इज्जत-आबरु भी साथ में बंट ही गयी...सब कुछ बरबाद हो गया।
जिस फैक्ट्री को गोद के बच्चे की तरह सहेज-सहेज कर सहला-सहला कर इतना बड़ा किया
था,इतनी बड़ी प्रतिष्ठा दी थी...टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया सब कुछ...।”- कहते हुए पिता का गला भर आया। थोड़ा ठहर कर फिर कहने लगे- “ तुम विवाह का वचन देकर मुकर गये थे,उनसे पैसे लेकर व्यवसाय में खपा चुका
था पहले ही, दरवाजे पर आकर गाली-गलौज इतना किया अगले ही दिन की हफ्तों बाहर न निकल
सका मैं। ओफ ! मेरी सामाजिक प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी,जिसे
आँख उठा कर देखने की हिम्मत न थी,वो भी आँख मिलाने लगा,थू-थू करने लगा...। ”
पिताजी
तकिये के सहारे पड़े लम्बी-लम्बी सांस खींचते रहे। माँ कही जाने वाली युवती ने,उनकी
पीठ सहलाते हुए कहा- “ इधर दिल का दौरा भी
पड़ने लगा है अमरेश। न जाने कब क्या हो जाय...।”
मगर मैं
अच्छी तरह जानता हूँ कि यह दौरा अप्रतिष्ठा जनित है,या कि हाथ आयी मोटी रकम के
खोने का!
थोड़ी देर
में पिता सामान्य हो गये। नौकरानी नाश्ता ले आयी,जिसे देखकर मन भिन्ना उठा। जी चाहा,उठाकर
फेंक दूँ। मगर फेंकता भी किस अधिकार से ?
खाने की इच्छा जरा भी न थी,फिर भी थोड़ा उठा कर मुंह में धर,एक गिलास पानी उतार
लिया हलक से। गला सूखा जा रहा था फिर भी।
“क्यों
अमरेश खाया कुछ नहीं तुमने ?” – मां कही जाने वाली युवती का सवाल चुभ गया तीर की तरह।
“इच्छा
नहीं है। प्यास थी,पानी पी लिया। ”- कहते हुए सोफे पर ही पसर
गया।
“क्यों
तबियत ठीक नहीं है क्या बेटे ? ”- पूछा
पिता ने,जिसके जवाब में सिर्फ सिर
हिलाना ही जरुरी लगा।
वे फिर
बोले- “ तब,कैसे कहां रहे इतने दिनों तक ? आज अचानक कैसे
याद आ गयी घर की ...?”
‘संक्षेप
में कुछ कह गया। सांस रोके,चुप बैठे पिता सुनते रहे मेरी बातों को। तथाकथित मां भी
ध्यान लगाये रही। अंगुलियां उलझी रही ऊन-कांटों से,पर ध्यान मेरी बातों की ओर ही
था। सब कुछ कह गया मैं। बीच में किसी ने कुछ भी टोक-टाक न किया। हां-हूं भी नहीं।
‘अन्त में
मैंने कहा- उस लड़की को मैंने वचन दिया है। मां से मुलाकात कर लौट आने की बात कह
कर आया हूँ।’
जरा ठहर
कर, पिता के मनोभावों को पढ़ने का प्रयास करते हुए मैंने कहा- ‘अब माँ तो रही
नहीं,किन्तु आप तो हैं। विचार यदि हो,आदेश दें,तो उसे व्याह कर यहां ले आऊँ।’
पिता ने
इसबार भी कुछ नहीं कहा। तिरछी नजर से एक दफा उस शैय्याशायिनी युवती की ओर देखा ,और
आंखें नीची किये, चुप रहे।
मैंने फिर
गौर किया- उनके चेहरे पर बनते-बिगड़ते भावों,और शिकन को समझने का प्रयत्न किया,फिर
बोला- ‘यदि किसी तरह की परेशानी हो,प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा की बात हो तो, कृपया साफ
कहें,क्यों कि मेरिना की तरह इसे खोना नहीं चाहता,खोया भी नहीं जा सकता,क्यों कि
मेरिना उस देश की थी जहां प्रेम-प्यार सब ‘लव’ है,शारीरिक भूख की पूर्ति और
मनोरंजन का साधन भर है,किन्तु यह अपने देश की बात है,वह भी भोली-भाली वन्य-बाला
की,जिसके लिए प्यार ही जीवन है,तिरस्कार ही मृत्यु। आप यदि न चाहेंगे,उस स्थिति
में भी मैं उसे कतई छोड़ूंगा नहीं। गृहस्थी बसाने का दूसरा कोई उपाय सोचूंगा उसके
साथ। वैसे तो आपने पहले ही मुझे सम्पत्ति से बंचित कर दिया है, हरामी की उपाधि
देकर। मुझे तो आना ही नहीं चाहिए था वापस,किन्तु मां की ममता खींच लायी। सब कुछ
भूलाकर,कर आना पड़ा माँ के लिए।’
मेरा ठोस
निर्णय सुन, पिता कुछ पल के लिए जरा सा बिचलित हुए। चेहरे पर कई तरह की
भाव-रेखायें चहलकदमी कर गयीं।गर्दन घुमा,पलंग पर सटकर बैठी अपनी नयी ‘रायदेहिन्दे’
की आँखों में झांका। चार आँखों ने ही आपुस में कुछ वातें भी कर ली। उनके चेहरे की स्थिति
बता रही थी,कि मेरी बातें जरुरत से ज्यादा कड़वी लगी। शायद सोचा हो, लम्बी भटकन के
बाद बेटा सुधर कर आया हो,पर कुत्ते की टेढ़ी दुम ज्यों की त्यों नजर आयी।
कुछ
सोच-विचार कर बोले- “अभी तक तुम्हारा
बचपना गया नहीं। एकबार नादानी कर धोखा उठाये,दूसरी बार मुझे बदनाम किये,अब फिर
वैसा ही रास्ता अख्तियार करने को तुले हो..। खैर,जैसी इच्छा हो करो। कोई बच्चे तो
हो नहीं। अपना भला-बुरा खुद सोच सकते हो। अपने साथी-दोस्तों से भी हो सके तो सलाह
ले ले। शादी-व्याह का मामला कोई खिड़वाड़ नहीं है,जीवन भर का सौदा है,समझौता
है...।”
मैंने
स्पष्ट कहा- आपको जितना सोचना हो सोच लें,दिन,दो दिन,दस दिन....। मुझे कुछ और
सोचना नहीं है,और ना ही दोस्तों से मसविरा करना है,अपने जीवन के विषय में। मैं
समझता हूँ- अपने विवेक से बढ़कर,दूसरा कोई सच्चा रायदेहिन्दा नहीं हो सकता। और मैं
अपने विवेक की राय ले चुका हूँ,इस निर्णय के पहले ही।
इतना कह
कर,मैं वहां से उठ गया, पिता को इत्मिनान से सोचने को छोड़ कर। सारा दिन इधर-उधर
चक्कर मारता,देर रात गये घर आता। नौकरानी खाना लगा देती। दो-चार निवाले मुंह में जबरन
डाल,पेट की ज्वाला शान्त करता,दिल की ज्वाला जलती ही रहती। उसे शान्त करने का कोई
अन्य साधन न सूझ रहा था, और न किसी को किसी तरह की दिलचस्पी ही थी मुझ में। देर
रात तक, पिता के बन्द कमरे से बाहर निकलकर भुनभुनाहट और खिलखिलाहट मेरे कानों में जबरन
घुसती रहती। कभी मैं जीतता, कभी आवाज। इसी संघर्ष में करवटें बदलते कई रातें गुजर
गयी।
सूरज रोज एक
नया दिन लेकर आता,दुनियाँ के लिए,पर उसमें मेरा कुछ भी हिस्सा
नजर न आता। मेरे बाहर-भीतर अन्धकार
ही अन्धकार छाया रहा। और इस तरह पन्द्रह रातें गुजर गयी।
एक दिन
नौकरानी को भेजकर पिता ने अपने कमरे में बुलाया। वहां जाने पर उन दोनों को वैसे ही
बैठे देखा,जैसा पहले दिन देखा था। मेरे बैठ जाने पर पिता ने कहा — “तुम्हारे विषय में मैंने हर तरह से सोच-विचार किया। औरों से भी राय ली।
अन्त में इस निश्चय पर पहुँचा हूँ कि धूम-धाम से उसके दरवाजे पर बारात सजाकर ले
जाने में हमारी सामाजिक अप्रतिष्ठा है। मान लो तुम सिर्फ कुछ आदिवासियों को साथ
लेकर जाते हो,और वहीं शंकर देव के मन्दिर में विवाह करते हो,जैसा कि तुमने कहा,तो
यह भी मुझे असंगत लग रहा है।”
पिता की
बात पर मैं मन ही मन भन्नाया- सबसे बड़ी तो आपकी सामाजिक प्रतिष्ठा ही है....जो कब
की धूल-धूसरित हो चुकी है,पर उसकी गंधाती लाश ढोये जा रहे है...।
पिता कह
रहे थे- “ मैं यह नही कहता कि उसे छोड़ दो। मेरा विचार है कि दो आदमी भेज कर उस
लड़की को ही यहीं बुला लिया जाय। मैं समझता हूँ- इसमें किसी तरह की आपत्ति नहीं
होनी चाहिए तुम्हें। फिर यहीं लाकर,बिना आडम्बर के किसी मन्दिर में पुरोहित बुलाकर
विवाह करा दिया जाय। भगवान बंटे हुए थोड़े जो होते हैं,सब जगह एक ही हैं। विवाह की
विधि पूरी होनी चाहिए, उनके समक्ष।”
‘...पिता
की इस अनूठी राय पर,सोचने को मैं विवश हो गया। हर पहलु पर गौर किया, किन्तु राय
में किसी तरह की षड़यन्त्र की बूं न मिली। मैं भी नहीं चाहता था कि इस रुग्णावस्था
में बूढ़े से जवान हो रहे पिता को अधिक मानसिक क्लेश दूँ। अतः उनकी खुशी को ही
अपनी खुशी मान,स्वीकार कर लिया उनके प्रस्ताव को।
‘...दूसरे
ही दिन दो आदमी भेजे गये मतिया को लाने के लिए। जाते वक्त मैंने एक लम्बी चिट्ठी
लिखकर उन आदमियों को दे दी,यह समझाते हुए कि चिट्ठी पढ़कर सुनाना पड़ेगा तुम लोगों
को,क्यों कि वह पढ़ी-लिखी नहीं है।
‘...चिट्ठी
लेकर वे चले गये। पिता ने मोटी रकम उनके राह खर्च के लिए देदी। मतिया का बुलावा
चला गया। अब जल्दी ही वह आ जायेगी...अपनी बन जायेगी..पूरे तौर पर...जीवन की गाड़ी
उबड़-खाबड़ रास्ते से उठकर सही पटरी पर आजायेगी...सोच-सोचकर दिल की ज्वाला,सन्तोष
के मरहम से कुछ-कुछ शान्त होने लगी। हालांकि घर स्थिति पहल जैसी ही बनी रही। कोई बदलाव न था।
‘...आदमियों
को गये कई दिन हो गये। तीसरे दिन से ही पिता बारबार पूछने लगे- “ बहुत बीहड़ रास्ता है क्या...बहुत दिक्कत होगी उन लोगों को...कहीं रास्ता
न भूल जायें...जंगल में कोई खतरा न हो जाय...।”
‘...हर बार
पिता को समझाता रहा,किसी तरह की चिन्ता न करें। कोई ऐसी-वैसी बात नहीं होगी।
‘...समय सरकता गया...बीस दिन हो गये। मेरी
चिन्ता बढ़ने लगी। दस दिन तक पिता बेचैन थे,और उसके बाद मैं। बाइसवें दिन आये वे
लौट कर,मगर खाली हाथ,मुंह लटकाये हुए। पूछने पर जो भी जानकारी दी उनलोगों ने,सुनकर
पैरो तले की धरती कांप गयी।
“कैसी
बेवफ़ा से मुहब्बत की आपने मुन्ना बाबू ?”
“क्यों
क्या हुआ ? ”- मेरे पूछने पर दो टूक उत्तर दिया उनलोगों ने मुंह बिचकाकर- “ जंगली-गंवारन क्या जाने
प्यार मुहब्बत का मोल ! आपने उससे सच्ची मुहब्बत भले ही की
हो,पर उसे इसकी परवाह थोड़े जो थी।”
“क्या
बकते हो ? वैसा निश्छल प्रेम क्या कोई करेगा दुनियाँ में...।”- मेरे कहने पर बनावटी हँसी हँस कर कहा एक ने- “
निश्छल प्रेम आप कहें,क्यों कि आपने किया है,पर मुझे तो ऐसा नहीं लगता। वह वास्तव
में गरजमन्द थी। आपको फंसाने के लिए झूठी मुहब्बत का ढोंग रचायी थी;और आपने अपने
सूधेपन में उसे ही असली समझ लिया।”
‘...मेरा
क्रोध भड़क उठा। मतिया की बेवफायी मुझसे सुनी न गयी। सूरज पूरब के वजाय पश्चिम में
उग जाये,चांद गरम हो जाये,आग बरफ बन जाये...पर मतिया बेवफ़ा नहीं हो सकती,उसका
प्रेम झूठा नहीं हो सकता...मतिया की मुहब्बत की गहराई तुम नहीं थाह सकते...
अन्दाजा तुम्हें नहीं हो सकता... तुमलोग झूठ बोल रहे हो- मैं चीख उठा ।
“हर
प्रेमी यही कहता है मुन्ना बाबू । अपनी महबूवा के विषय में,उसे इतना ही य़कीन होता
है,क्यों कि वह प्रेम में अन्धा हुआ रहता है,किन्तु जब सच्चाई का सूरज निकलता
है,और दुनियाँ का भोड़ापन सामने आता है,बेवफ़ाई का पर्दाफास होता है,तब पता चलता
है। क्या आप हिम्मत करके उस सच्चाई का सामना कर सकते हैं?”
“तो
क्या है सच्चाई कहते क्यों नही ?”- मैं चीख उठा।
“मतिया
गर्भवती थी मुन्ना बाबू, इसी लिए आपको अपने जाल में फांस ली,अपना पाप आपके माथे
मढ़ने के लिए...।”- उसका जवाब सुन मैं सन्नाटे में आ गया।
सिर झन्ना उठा। उसका कहना अभी जारी ही था- “....संयोग वश इसी
बीच आप मिल गये,भूले-भटकते,दौलतदार,एक खूबसूरत नवजवान होनहार...फिर मौके से क्यों
चूकती ! प्यार का नाटक खेली,और आपने सच्चा प्यार समझ लिया।
वचन दे दिया शादी के लिए। उसकी तो मुराद पूरी हो जाती। किसी और की हरामी औलाद के
आप बाप कहलाते। उसे खोयी आब़रु मिलती,सिर उठाकर बड़े खानदान की बहु कहलाती। मगर
भगवान को शायद यह अन्याय मंजूर न था। संयोग से आपको पुराना अखवार मिल गया,और इज्ज़त
बचाने का मौका दे दिया ईश्वर ने...।”- आकाश की ओर हाथ उठाकर उसने
कहा।
“आखिर
वहां जाने पर मुलाकात भी हुयी या नहीं ? ” - मेरे पूछने पर कहा उसने- “ मुलाकात हो ही जाती तो
क्या उस हरामजादी चुड़ैल को घसीट कर लिए न आता!”
“आंखिर
वह है कहाँ- पता नहीं लगाया तुमलोगों ने ?”
“ लगाया,
बहुत लगाया मुन्नाजी। इसी में तो इतना वक्त लग गया। ”- सिर
हिलाकर कहा उसने- “ वहां पहुंचने पर पहले तो कुछ अतापता ही न
चल पाया। बहुत खोजबीन करने पर मालूम चला कि दस-बारह दिन इन्तजार करती रही थी वह
आपके आने का। फिर निराश होकर कहीं भाग गयी। आखिर पाप का कीड़ा कब तक छिपा रहता ? गांव वालों को भी कुछ सक-सुभा होगया था। काफी हो-हल्ला मचा। जान से मारने
की तैयारी होने लगी। इसी बीच मौका देख एक रात भाग खड़ी हुयी।”
“ तो
ऐसी कहानी गढ़ी उन चाण्डालों ने ?”- पलटनवां बाबू के मुंह से मतिया की बदनामी की कहानी सुन, ढोंके पर बैठी
युवती के नथुने क्रोध के मारे फड़कने लगे-“ ओफ! दुनियां में कैसे-कैसे नीच-कमीने लोग होते हैं बाबू ! ”
“क्यों
बात कुछ और है क्या ? क्या यह झूठी खबर दी गयी थी मुझे ?”- युवती के मुंह से मतिया और पलटनवां की कहानी सुनता युवक चौंकते हुए पूछ
बैठा।
“झूठ
और सच का निपटारा करने तो बैठी ही हूँ । ”-कहती हुयी युवती
जरा गम्भीर होकर बोली- “ पहले तुम कह जाओ बाबू ! अपनी बात पूरी करो- क्या हुआ आगे ? ”
युवती के
पूछने पर युवक तिलमिला सा गया। भूली यादें सामने आकर नाचने सी लगी। वापस आ,समाचार
सुनाने में आदमयों का भयभीत होना,हकलाना,आवाज कांपना, थमना, सबकुछ का वजह साफ
झलकने लगा। युवती की बातें नये संदेह को जन्म दे गयी। जरा ठहर कर कहा- “ तो सुन ही लो पूरी बात। आखिर कुछ होना रह नहीं गया था। पिता को फिर एकबार
मौका मिला,किन्तु इस बार फटकारा नहीं,डांटा नहीं,सिर्फ व्यंग्य किया,जो फटकार और
डांट से भी तीखा लगा। घनी मूंछों में मुस्कान छिपाये हुए बोले- “ कहता था न,अभी तक तुम्हारा बचपना गया नहीं है। प्यार करना और उसमें सफल
होना इतना आसान समझे हो ! ठेस लगने पर लोग जमीन ताक कर चलने
की आदत डालते हैं,पर तुम हो कि अभी आसमान ही झांक रहे हो।”
मैं मौन
खड़ा था, पिता का भाषण सुनता हुआ। दिमाग में बवण्डर सा उठ रहा था। कुछ समझ न आया
क्या करूँ,कहाँ जाऊँ। दिल के एक कांटे को निकालने के लिए दूसरे का सहारा लिया,वह
भी अटक गया। चुभन दोहरी हो गयी। मुंह से आह निकल पड़ी- हाय मतिया !
तुमने भी दगा दी...।
पिता
सपत्निक समझाने बैठे। एक बार,दो बार,चार बार नित्यप्रति कई दिनों तक यह क्रम चलता
रहा। मैं विवेक हीन हो रहा था। कौन क्या कह रहा है,इसका जरा भी असर दिमाग पर न हो
पा रहा था। आगे क्या करूँ,कहाँ जाऊँ,इस घर में ही इसी तरह पड़ा रहूँ, जिन्दगी
गुजार दूँ- तड़प-तड़पकर या फिर आत्महत्या कर लूँ- लाख सोचने पर भी कुछ पल्ले न पड़
रहा था।
धीरे-धीरे
मेरी मानसिक स्थिति बिगड़ती गयी,और बनती गयी घर की स्थिति। परिवार का स्नेह और वात्सल्य
काफी अधिक बढ़ गया मेरे प्रति। पिता व उनकी उस नयी पत्नी के पास अब समय ही समय था-
जब भी होता,दोनों मेरे सिरहाने बैठ,उपदेशों का पिटारा खोल देते। कुछ मेरे कानों
में पड़ता,कुछ नहीं भी। मेरी सुख-शान्ति और मनोरंजन का काफी ख्याल रखा जाने लगा।
मेरी सेवा के लिए अलग से नौकरानी बहाल कर ली गयी। बिन मांगे चाय के चार-चार प्याले
मेज पर आ टपकते,कब फल लेना है,कब दूध, कब नास्ता,कब भोजन,कब विश्राम...सब नियमबद्ध
होने लगे,जब कि ये नियम ही मेरे लिए सबसे बड़ा ‘अनियम’ हो रहा था।
कभी पिता
समझाते- “ स्वास्थ्य पर ध्यान दो बेटे। दूसरे दर्जे की दौलत यही है।” कभी कहते- “ घर है बेटे,माँ-बाप हैं,सम्पत्ति है।
सब कुछ है- जो है सो तुम्हारा ही है। बुढ़ापे में तुम ही तो एकमात्र सहारा हो बेटे...अब
मेरा क्या...।”
मुझे समझ न
आता,अपने को भी क्या अपना समझने की जरुरत होती है! वह तो अपना होता ही है। चन्द दिनों पहले नौशा बनने वाला बाप इतनी जल्दी
बूढ़ा कैसे हो गया ? और परिणाम होता- पिता की बातों का
,मोह-जाल का कोई भी तन्तु मुझे बांध न पाता, कुछ भी असर न होता उनकी सहानुभूति और
प्रेम-प्रदर्शन का।
माँ का
अधिकार मांगने के लिए युवती ने कई बार आँचल पसारे,किन्तु मेरी समझ
से बाहर की बात है कि यह मां है,हो
भी सकती है कभी। एक दिन तो क्रोध में यहां तक बक दिया मैंने- बाप की रखैल भी क्या
कभी माँ का पवित्र पद पा सकती है? उस दिन से वह
कभी सामने आयी भी नहीं। दो-चार दिनों तक पिता भी मुंह फुलाये रहे।
इसी तरह
दिन गुजरते रहे। एक रात बड़ी विचित्र घटना घटी। कमरे में आराम से सोया था,बिलकुल
गहरी नींद में। बहुत दिनों बाद उस रात आराम से सो पाया था, ऐसी गहरी नींद में।
अचानक कुछ आहट पा आँखे खुल गयीं। कमरे में मद्धिम रौशनी थी,कहीं कुछ नजर न आया।
किवाड़ ज्यों का त्यों भिड़काया हुआ था। सोचा यूं ही भ्रम हो गया है। फिर महसूस
किया कुछ अजीब सा। आंखे खोलने पर कुछ दीखा नहीं।
रौशनी तेज
कर दिया,उठ कर। मगर पांच मिनट भी न हुए होंगे कि एक साथ दोनों गुल। बिजली चली गयी
थी शायद। लाचार हो,अन्धेरे में ही सोने की कोशिश करने लगा।
आहट फिर
महसूस किया,साथ में फुसफुसाहट भी। संदेह हुआ चोर का,फिर ऐसा लगा मानों कमरे में ही
कोई चहल कदमी कर रहा हो। जरा गौर करने पर पतली सी आवाज आयी कानों में- ‘ तुम्हें
धोखा हुआ है...बहुत बड़ा धोखा...।’ आवाज विचित्र थी। लगाकि दूर किसी घाटियों में
टकरा कर आवाज लौट रही हो कानों तक।
कानों में
पड़ती आवाज के साथ ही वदन में फुर्ति आगयी। झट उठकर बैठ गया। बैठने पर मालूम पड़ा-
आवाज कमरे से बाहर बरामदे में हो रही है। समझ न पा रहा था कि हो क्या रहा है। यह
आवाज किसकी थी...कुछ पहचानी हुयी सी...फिर बाहर बरामदे में झांका...कहीं कुछ
नहीं..।
पता नहीं
अचानक क्या सूझा,अन्धेरे में टटोलकर,कपड़े बदला। खूँटी पर से बन्दूक उतारी,और
किवाड़ खोल बाहर आ गया।
बरामदे में
कोई चलता हुआ सा लगा। लम्बे डग मारते आगे बढ़ा। बाहर आने पर वह भी आगे-आगे बढ़ता
हुआ लगा। मैंने पीछा किया,और आगा-पाछी में घर से बाहर... गली से बाहर...शहर से
बाहर ...।
निकला सो निकला ही रहा...दिन-रात के बन्धन और बाधा से
ऊपर उठ, पीछा करता रहा...किसका पीछा करता रहा...पता नहीं। यह भी मालूम नहीं कि
कहां-कहां घूमा अब तक ,कितने दिन घूमा- यह कहना तो और भी मुश्किल है। बस एक ही धुन
रही, दिमाग में-मेरा कुछ खो गया है...पाना है उसे...ढूढना होगा जैसे भी हो...।
आज अचानक
इस बीराने में तुम्हारी आवाज ने मुझे चौंका दिया। किसी की आवाज सुनकर चौंकने का
अवसर बहुत दिन बाद आज मिला। खैर भेट हो गयी तुमसे तो अच्छा ही हुआ। मैं तो खो गया
था। तुमने मेरा रास्ता सुझा दिया। मेरा क्या खोया है,यह भी भूल गया था। अब याद
आगयी। ढूढने में आसानी होगी।
सबसे बड़ी
बात तो यह है कि जब तुम इतना कुछ कह गयी,सब जानती ही हो,तो यह भी निश्चित है कि
तुम मुझे मेरी मंजिल तक पहुँचा सकती हो,क्यों ! आखिर
वहां पहुँच कर ही तो पता चल पायेगा कि क्या सच में मेरे साथ धोखा हुआ है।’
“धोखा
तो हुआ ही है बाबू। बहुत बड़ा धोखा। अपना ही अपने को ऐसा धोखा दे सकता है, ओफ
जिसकी हद नहीं। ”- युवती कुचली नागिन सी फुफकार रही थी। बाबू
हक्का-बक्का, युवती का मुंह देखने लगा। उसे कुछ समझ न आ रहा था कि यह सब क्या
मामला है। गुजरे जमाने के सारे विम्ब उसके मानस के परदे पर एक-एक कर आते रहे, और
विराट पुरुष के भयंकर शरीर में खोये अर्जुन की भांति वह अपने सही अस्तित्व की तलाश
करता रहा। पर कुछ हासिल न हो सका। समझ न सका। आखिर यह रहस्यमयी युवती कौन है,जो
मेरे बारे में सब कुछ जानती है। इतने समय के बाद भी अपने को छिपाये हुए है। परिचय
देना नहीं चाहती। ओफ! क्या अब भी मेरी मंजिल मिल सकती है?
पा सकता हूँ अपने सुख के साम्राज्य को...?’-
सोचता हुआ युवक बिखरे बालों को और भी बिखेरने लगा। नोचने लगा। उठ कर पागलों की तरह
घूमने लगा। बड़बड़ाने लगा। अचानक उसके दिमाग में कुछ बात आयी...।
यदि मेरे
साथ सही में धोखा हुआ है,जैसा कि उस रात अन्धेरे में आहट मिली,
आवाज सुनायी पड़ी,और आज यह युवती भी
कह रही है- यह सब सही है तो निश्चित है कि मतिया कहीं भागी नहीं है। आज भी मेरी
प्रतीक्षा में आँखें बिछाये गुजरिया के जंगलों में भेड़ लिए घूमती होगी। हाय मेरी
मतिया तुझे कहाँ ढूढूँ ?- -उसके मुंह से
निकल पड़ा। फिर पलटकर युवती की ओर हाथ जोड़,गिडगिड़ाकर बोला- “कृपा करके मुझे गुजरिया जाने का रास्ता बतला दो...गुजरिया जाने का..यही है
मेरी मंजिल...मैं पता लगाऊँगा...हाय मेरी मतिया..हाय मेरी मतिया... हाय मेरी मंजिल....।”
“अधीर
मत होओ बाबू ! अधीर मत होओ। ”- युवती
समझाने लगी, “ गुजरिया जाने का समय अब गुजर चुका है बाबू ।
अब नहीं रही वहां तुम्हारी मतिया। नहीं रही बाबू... भूल जाओ,अब गुजरिया जाने की
बात...भुला दो उस बेगुनाह भोली लड़की को,जिसने तुम्हें प्यार किया...बेचारी नहीं
जानती थी कि पापी संसार में प्रेम जैसी पवित्र चीज की कीमत बस इतनी ही है...तड़पन
ही उसका उपहार है...मतिया तुम्हारी है बाबू ,तुम्हारी ही रहेगी... पर तुम उससे मिल
नहीं सकते...न वह तुम्हारी प्रतीक्षा ही गुजरिया में बैठी कर रही होगी अब...किन्तु
फिर भी वह तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही है मारी-मारी फिरती हुई...यहाँ-वहाँ.. सारे
ज़हां...।”
युवती की
हर बात नये रहस्य और आशंका को जन्म दे रही थी। युवक समझ न पा रहा था,आखिर यह कहना
क्या चाहती है- वह प्रतीक्षा नहीं कर रही है गुजरिया में और प्रतीक्षा कर भी रही
है मारी-मारी- क्या मतलब है इसका?— सोचता हुआ
युवक खीझ उठा। आवेश से भर कर फिर चीखा- “ फिर तुम बतलाती
क्यों नहीं ? पहेली पर पहेली बुझाये जा रही है सिर्फ । मतिया
मेरी है,और मेरी ही रहेगी सदा,फिर भटक क्यों रही है ? किसने
उसे मजबूर कर रखा है मुझसे मिलने में ? भटक रही है तो
कहाँ,क्यों,कैसे ? दुनियां भी कहीं भी हो तो उसे ढूढ़
निकालूँगा। तुमसे सिर्फ इतनी ही आरजू है मेरी कि यदि पता है तुझे तो मेरी मंजिल तक
तू पहुँचा दे,या पहुँचने का रास्ता दिखा दे। ”- युवक हाथ
जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा, युवती के सामने खड़ा होकर।
“मंजिल
तक मैं पहुँचा दूं बाबू तुम्हें ? वाह ! अच्छा रहा तुम्हारा वादा। तुम तो मेरे
लिए पतिया लिखने बैठे थे न । मैंने
कहा था न कि पतिया पूरी न कर पाओगे।”-
युवती मुस्कुरायी।
“क्या
पतिया-पतिया रट लगा रखी है ? किसकी पतिया ?”- युवक चीखा।
चट्टान पर
रखे कागज और कलम की ओर इशारा करती,युवती बोली- “क्या इसे भी बतलाने की जरुरतहै ? भूल गये मतिया की
पतिया...पलटनवां के नाम...क्यों ?”
“तुम
मुझे बेकार ही उलझन में डाल रही हो। मतिया की पतिया लिखने का सवाल ही कहाँ रह गया-
पलटनवां के नाम, जब कि पलटनवां तुम्हारे सामने बैठा तड़प रहा है मतिया के लिये, और
तुम अच्छी तरह जानती हो यदि उसे, फिर पतिया लिखाने की बात क्यों कर रही हो? मतिया को ही मुझसे मिला क्यों नहीं देती, या मुझे बता देती कि वह कहाँ है?”
“छोड़ो
बाबू ! फिजूल की बकने की तुम्हारी आदत है। उलझन मैं काहे को
पैदा करुंगी, पैदा तो तुम कर रहे हो। बुद्धि से काम नहीं लेते,और खुद को बुद्धिमान
भी कहते हो, और मुझपर दोष मढ़ रहे हो। रहने दो बाज आयी मैं तुमसे पतिया लिखाने में।
अब मझे पतिया-वतिया लिखानी भी नहीं है। तुम मिल ही गये। सारी बात कह डाली तुमसे।
मन हल्का हो गया मेरा..।”- युवती मुस्कुरा पड़ी। उसकी
मुस्कान तीर सा बेध गयी युवक को जो साबित हो चुका था कि वही पलटनवां है, जिसके नाम
अनजान युवती पतिया लिखवाना चाह रही थी।
युवक यानी
पलटनवां एकाएक तड़प सा उठा। झपटकर उठा ली अपनी बन्दूक,और सीधे युवती की ओर निशाना
साधते हुए रोष पूर्वक बोला- “सो सब बातें न
बनाओ। मैं कुछ और नहीं चाहता। बहुत कहानी सुना चुकी तुम,और सुन चुका। तुमने वादा
किया था मेरी मंजिल बतलाने का। तुमने कहानी में उलझाकर मेरा समय बरबाद किया। अब या
तो मतिया का पता बतलाओ कि वह इस समय कहाँ भटक रही है,या फिर मेरी गोली खाओ।”
युवक
पलटनवां का गुस्सा देख युवती फिर मुस्कुरायी। चट्टान से उठकर,खड़ी हो गयी। हड़बड़ी
में उठने के कारण,उसके सीने से आँचल सरक कर नीचे जा गिरा। ऐसा उसने जानबूझ कर किया
या गलती से हो गया,पर उसका परिणाम पलटनवां के लिए संदेह का नया दरवाजा खोल दिया।
निशाना साधे बन्दूक की पकड़ बिलकुल ढीली पड़ गयी। वह एकाएक चमक सा उठा।
“हेंऽऽऽ
यह क्या मामला है- यह जंजीर तुम्हारे गले में ? ”- युवक के लिए बड़े ही आश्चर्य
की बात हो गयी। जंजीर पहचाना हुआ सा लगा।
“क्यों,
नहीं होना चाहिए क्या?”- युवती फिर मुस्कुरायी। कुछ पल पूर्व
उसके चेहरे पर उठी वनावटी भय की रेखायें मिट चुकी थी अब।
“इस
जंजीर को तो मैंने विदा होते वक्त मतिया को पहनाया था...तुम...तुमने कहां से पाया
इसे...?”- युवक का क्रोध फिर भड़क उठा। बन्दूक पकड़ी मुट्ठी
फिर कस गयी। निशाना सीधा हो गया। घोड़ा दबने ही वाला था,कि उधर युवती कड़क उठी।
“शान्त
हो जाओ बाबू मेरे,शान्त हो जाओ। इस तरह बात-बात में क्रोध को क्यों खर्च करके
बरबाद कर रहे हो,इसे सम्भाल करके रखो,हो सकता है कभी जरुरत पड़ जाय। मैं पहले ही
कह चुकी हूँ,फिर दुहरा रही हूँ- बुद्धि पर भरोसा करो,उससे काम लो। क्रोध से बुद्धि
को ढको नहीं। तुम्हें अपनी ताकत या कहें अपनी इस बन्दूक कही जाने वाली लाठी पर
जितना भरोसा है,उतना अपनी सगी बुद्धि पर नहीं। ”— मुस्कुराती
हुयी युवती फिर से ढोंके पर बैठ गयी। उसका कहना अभी जारी था- “ शान्त होकर,बुद्धि लगाकर सोचोगे तो सारी बात समझ में आ जायेगी । यह भी मालूम चल जायेगा कि यह जंजीर मेरे गले
में कैसे आयी...सही आयी या गलत आयी। मगर तुम तो सिर्फ क्रोध में अन्धे हो रहे हो।”- जरा ठहर कर युवती ने पूछा- “मतिया को तुम उजाले
में भी सैंकड़ों बार देखे होओगे,या कि जंजीर पहनाते समय,ढिवरी की रौशनी में ही सिर्फ
देख पाये थे ?”
युवक फिर
भड़का- “क्या बकबक लगा रखी हो,तुम जान चुकी हो कि मतिया के
साथ जंगल-पहाड़,नदी-झरना सब
घूमा,महीनों साथ रहा,फिर सूरज की रौशनी और ढिबरी की बात करती हो जाहिलों की तरह।”
“जाहिल
तुम लग रहे हो बाबू । सच कहो, क्या तुम मतिया को ठीक से पहचानते हो ? यदि मतिया तुम्हें मिल जाय,जिससे बेइन्तहा मुहब्बत करते हो, इतनी बेसबरी
से ढूढ़ रहे हो,तो क्या सही में पहचान लोगे ? जरा ठण्ढें
दिमाग से सोंच कर बतलाओ बाबू । क्रोध थूक दो।”
“फिर
फालतू की बात। मैंने कहा न, और जैसे भी हो तुम भी जानती हो- मतिया मेरी जान
है,उसने ही मेरी जान बचायी है। उसके साथ,उसके गांव में महीनों गुजारा हूँ। नाच-गान
में साझीदार रहा हूँ। शंकरदेव को साक्षी मानकर अंगूठी पहनाया हूँ। जिसके वियोग ने
मुझे पागल से भी बदतर बना दिया,क्या उस मतिया को मैं पहचान नहीं पाऊँगा? जंजीर पहनाते समय भले ही रौशनी ढिबरी की रही हो,इससे क्या फर्क पड़ता है।”
“मैं
फिर दावे के साथ कह सकती हूँ कि तुम मतिया को नहीं पहचानते हो बाबू, बिलकुल नहीं
पहचानते हो।”- युवती ने आवेश में कहा- “तुम मतिया के रुप को पहचानते हो, उसके मांसल देह को पहचानते हो,परन्तु
मतिया को नहीं पहचानते। यदि मतिया को सही में पहचानते होते तो आज इस जंजीर को मेरे
गले में देख कर चौंकते नहीं,और न बन्दूक का निशाना साधते।”
“तो
क्या तुम मतिया ही हो ? ऐसा कैसे हो सकता है ? क्या मेरी आँखे फूट गयी हैं,या ‘माड़ा’ छा गया है ?
क्या मैं सही में पागल हो गया हूँ,जो अपनी प्राणप्यारी को भी नहीं पहचान पा रहा
हूँ ?”- युवती की ओर गौर से देखते हुये युवक ने कहा,और
धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगा।
“नहीं
बाबू नहीं। न तो तुम्हारी आँखें फूटी हैं,न इनमें माड़ा छाया है,और तुम पागल ही
हो। समय का फेर है बाबू ! बस समय का फेर है,जिसने बुद्धि वाली
आँखें छीन ली हैं तुम्हारी। मैंने कहा न कि तुम सिर्फ मतिया के मांसल देह को
पहचानते हो,रुप को पहचानते हो।”
जरा पास
आकर युवक ने गौर किया,फिर बोला- “ साफ कहती
क्यों नहीं,क्या तुम वही मतिया हो...वही मतिया...मेरी प्राणेश्वरी...नहीं..नहीं...यह
कैसे हो सकता है...मेरी आँखें इतना धोखा कैसे खा सकती हैं...मेरे कान इतने दगाबाज
कैसे हो सकते हैं,जो अपनी प्रिया के मधुर कोकिल स्वर को पहचान न पा रहे हों....?
आह! वह मधुर रागिनी...वह विरह गीत...वह...नृत्य...।” युवक की विचित्र हालत हो रही थी। कभी आगे बढ़ता,कभी पीछ मुड़ जाता,कभी उठ
कर खड़ा हो जाता,कभी बैठ जाता। कभी घुटने के बल ,कभी घुटनों पर हाथ रख कर,झुककर
युवती का मुंह निहारने लगता।
“मधुर
रागिनी,विरह गीत सब याद है,पर मतिया का असली चेहरा याद नहीं है,याद है सिर्फ उसका
खोल...बाहरी खोल...क्यों बाबू यही बात है न ?”-युवती व्यंग
में बोली,जिसे सुनकर युवक की उलझन और बढ़ गयी।
“मैं
कैसे कहूँ कि मुझे याद नहीं है मतिया ! मतिया तो मेरे रग-रग
मे समायी हुयी है। रोम-रोम में मतिया का प्यार बसा है। लहू की हर बूंद में,दिल की
हर धड़कन में, सांस के हर कण में मतिया ही मतिया है...।”
“ऐसा
यदि होता तो खोजने-पहचानने में इतनी दिक्कत न होती बाबू।”
“पूछ
तो रहा हूँ ,क्या तुम वही मतिया हो,जो रुप-श्रृंगार बनाने में माहिर है ? फिर कोई नया रुप बनाकर मुझे,मेरे प्यार की जांच करने तो नहीं आयी हो ?”-
कहता हुआ युवक थोड़ा और समीप गया। बुदबुदाते हुए- “ इस लड़की की हर बात बड़ी अजीब हो रही है,कुछ समझ नहीं आरहा है।”
इस बार
युवती मुस्कुरायी,पर गम्भीर भी बनी रही।अपने होंठों को कुछ खास अन्दाज में
सिकोड़ी,जो बाबू को जाना-पहचाना सा लगा,फिर बोली- “हाँ बाबू ! मैं वही मतिया हूँ, जिससे तुमने वादा
किया था,जिसे तुमने वचन दिया था,जिसे तुमने अंगूठी पहनायी थी, जिसे तुमने जंजीर
पहनायी थी,जो तुम्हारे इन्तजार में आँखे बिछाये रही। मगर वह मतिया हूँ जिसे तुमने
कभी देखा नहीं,जिसे अब पहचानने से इन्कार कर रहे हो। मैं वही मतिया हूँ,परन्तु अब
तुम्हारी रह कर भी तुम्हारी नहीं हूँ। मुझे तुमपर पूरा अधिकार है बाबू,पर तुम्हारा
मुझ पर कोई अधिकार न रहा अब...।”
युवती अपने
को मतिया कह रही है,मगर उसकी रहस्यमय बातें समझ से परे हैं। आखिर ऐसा कैसे हो सकता
है ! अधिकार-अनधिकार का सवाल क्यों? क्या इस पर किसी और
ने अधिकार कर लिया...क्या किसी और की हो गयी...फिर अपना अधिकार ज्यों का त्यों
क्यों कह रही है...?- अनिश्चय में उलझन स्वाभाविक था। युवक
फिर खीझ उठा।
“तुम्हारी
बातें सच में अजीब है। ऐसा कैसे हो सकता है- मुझे जरा भी विश्वास नहीं होता,कि तुम
वही मतिया हो। वह रुप..वह रंग...कुछ भी तो नहीं। तुम किसी तरह उस मतिया के गले से जंजीर
हड़पने में सफल हो गयी हो,वे सारी गुप्त बातें भी जान गयी हो,और अब खुद को मतिया
कहकर मेरा प्यार पाना चाह रही हो।”- क्रोध और झल्लाहट में
युवक ने कहा,जिसे सुनकर युवती का चेहरा कुछ बदरंग पड़ गया,क्षणभर के लिए। मानों इस
लांछना का बहुत दुःख हुआ हो उसे।
होंठ काटती
हुयी,नजरें घुमार,युवक की ओर देखी,फिर उदास,धीमी आवाज में बोली- “नहीं बाबू , नहीं। तुम्हारा इल्ज़ाम गलत है। न तो मैंने इस जंजीर को किसी
से छीना है,और न गुप्त बातें ही जानी-सुनी है किसी से,किन्तु तुम्हरा सच्चा प्यार
पाने की लालसा जरुर है मेरे मन में,परन्तु पा नहीं सकती— यह भी तय है। और यह भी
तुमने ठीक ही कहा बाबू कि न वह रुप है,न वह रंग...।”
युवती की
बातों से युवक की उलझन घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही थी। कुछ सोच-समझ न पाने के
कारण,सिर झुका कर,शिला पर पहले की भांति शान्त बैठ गया,और बांयी कनपटी में अंगुली
से ठोकर मारते हुए होंठ चबाने लगा।
“सोचते
क्या हो बाबू ! तुम्हारे लाख सोचने पर भी हल मिल न सकेगा। ”
“तो
फिर तुम्हीं क्यों नहीं सुलझा देती, कहो तो पैर भी पड़ लूँ।”-
युवक को शिला से उठकर अपनी ओर लपकेते देख,युवती सकपका गयी।
“अरेऽरेऽरेऽ...यह
क्या, बैठो बाबू ! पैर मेरा पकड़कर पाप न चढ़ाओ!”
हाथ के
इशारे से युवक को बैठे रहने का संकेत किया। युवक बैठ गया। युवती हँस कर बोली- “ कभी तो बाबू तुम इतने नरम हो जाते हो कि पैर पकड़ने लगते हो,और कभी इतने
गरम कि बन्दूक तानने लग जाते हो। सच में क्रोध के हाथों अपनी बुद्धि को बंधक रख
छोड़े हो। तुम्हें अपनी बन्दूक-गोली पर जितना भरोसा है,उसका हजारवां भाग भी मेरी
बातों पर नहीँ। सच पूछो तो तुमने अभी मतिया की पूरी कहानी सुने ही कहां हो। पूरी
बात अभी जाने ही कहां हो। यदि यह जान जाते कि तुम्हारे वापस जाने के बाद मतिया के
साथ क्या हुआ,कैसा हुआ,क्यों हुआ,तो इन सारे सवालों का जवाब,खुद-ब-खुद मिल जाता
बाबू ;और इतनी उलझन में पड़ने की जरुरत भी न होती।”
“तो
फिर जल्दी से सुनाती क्यों नहीं मेरी मतिया की पूरी कहानी,यदि तुम्हें मालूम ही है? आंखिर तुम्हें मिल क्या रहा है, मुझ अभागे को इतना
तड़पाने में?”- युवक ने हाथ जोड़कर निवेदन किया।
“बतलाने
का मौका दो तब न बाबू ! तुम तो दूसरा ही पचरा गाने लगते
हो,कभी बन्दूक तानते हो,कभी कुछ...।”-जरा ठहरकर युवती बोली- “ठीक है,अब जरा ध्यान से, धीरज रखकर सुनो मेरी बातें।”-युवती ने आगे कहा- “उस दिन तुम चले गये,सो चले गये,
मगर के दिल में,अरमानों के अनगिनत दीप जला गये,जिसकी रखवाली अपना आँचल पसार कर वह
करती रही। तुम्हारी याद में उसका सब कुछ भूल सा गया। ऐसा लगा,मानों मतिया का सिर्फ
शरीर ही पड़ा रह गया गुजरिया में,उसका मन-प्राण तो बाबू तुम्हारे साथ ही चला गाया।
जाते वक्त तुमने कहा था- घर पहुँचने में तीन-चार दिन लगते हैं। चार दूना आठ,और फिर
उसके दो-तीन दिन बाद से ही राह देखने लगी। बड़ी देर तक भेड़ लिए उस नाले पर बैठी
रहती,जिधर से रास्ता है कस्बे का। सूरज भाग जाता पहाड़ों में,तब घर लौटती। नानी
टोकती,क्यों इतनी देर लगा देती है आजकल,पर,बेचारी क्या कहती कि क्यों देर लगा रही
है रोजदिन। इसी तरह एक दिन इन्तजार करती,बुरी तरह भींग गयी वारिश में। गोंगो ले
जाना भूल गयी थी। भींगती रही और बैठी रही। इन्तजार करती रही। सोचती रही- बाबू भी
भींगता हुआ आयेगा,यदि रास्ते में होगा। उस दिन मतिया खूब भींगी, खूब, जिसका नतीजा
हुआ कि रास्ते में ही जोरों का बुखार चढ़ आया। किसी तरह कांपती-हांफती घर पहुंची।
“....दो
दिन बुखार में पड़ी रही। नानी कहती थी- तुम बुखार में भी हमेशा बड़बड़ाती रहती
थी,न जाने क्या-क्या। सिर्फ यही समझ पायी थी बाबू ! लौट आओगे
न ? तीसरे दिन सारे वदन में दाने निकल आये। फिर वे दाने भी
दाने न रहे,बढ़ते-बढ़ते फफोले जैसे हो गये। नानी भाग कर दादू को बुला लायी। देखते
ही दादू घबरा उठे- अरे यह तो माताजी हैं।”
“ऐंऽ..मतिया
को भयंकर चेचक हो गया था मेरे जाने के बाद? ”- युवक चौंक कर खड़ा हो गया। गौर से देखा युवती की ओर,जिसके पूरे वदन पर
चेचक के गहरे-गहरे दाग थे। ये दाग ही अबतक युवक के मन में आकर्षण के बावजूद
क्षोभ,घृणा और संदेश के कारण बन रहे थे। उसने अफसोस जाहिर करते हुये कहा- “ तो अब आयी बात समझ में। ओफ! इतनी देर से सही में
मेरी आँखें फूटी हुयी थी। अब जरा भी शक की गुंजायस नहीं। निश्चित ही तुम मतिया ही
हो...वही मतिया...मेरी मंजिल..मेरी...।”- चौंककर खड़ा,युवक
एकाएक लपका बाहें पसार कर,सामने बैठी युवती की ओर, “ मतिया!
मेरी रानी!...।”
युवती इस
स्थिति को शायद पहले से ही भांप चुकी थी। ज्यों ही युवक चौंका,उसी क्षण वह चट्टान
से उठ खड़ी हो गयी। युवक को आगे बढ़ता देख,दो-चार पग पीछे होकर, लगभग चीख उठी- “ होश में रहो बाबू होश में। मतिया को देखकर मदहोश मत होओ। पहले तुम मेरी
पूरी बात तो सुन लो,फिर आगे बढ़ना। अभी तो तुम बन्दूक तान रहे थे,मेरे सीने पर,और
अब लिपटने को आतुर हो रहे हो।”
युवक आगे
बढ़ा,युवती फिर कड़की- “ मैं कहती हूँ,वहीं
चुप खड़े रहो,आगे मत बढ़ो।”
आगे बढ़ता
युवक रुक गया। फैली बांहे पसरी ही रही। मतिया समा न सकी। युवक गिड़गिड़ा कर बोला, ” मुझे माफ कर दो मतिया,माफ कर दो। सच में मैंने तुम्हें इस दशा में पहचाना
नहीं। तुम ठीक कहती हो- मैं मतिया को नहीं, बाहरी खोल को पहचानता हूँ, मांसल देह
को पहचानता हूं,असली मतिया को नहीं...। आह मेरी मतिया...मेरी प्राणेश्वरी ...चेचक
ने तुम्हारे चेहरे ही नहीं,पूरे शरीर को इस कदर बदल दिया है कि मैं क्या,कोई भी
शायद ही पहचान सके। तुम्हारी आवाज भी तो पहले जैसी नहीं है...फिर मेरे पहचानने का
सवाल...मुझे दोष न दो मतिया...माफ कर दो....।”
“मैंने
कहा था न बाबू,तुमने उस रुपवती मतिया को पहचाना है,उसीसे प्रेम किया है,उस जवानी
से,उस खूबसूरती से,उस देह से,मतिया से नहीं....असली मतिया को पहचानते होते तो इस
कदर धोखा न खाते,जो घंटो से तुम्हारे सामने बैठी है,और उसे पहचानने से इनकार कर
रहे हो। ऊपर से झूठा इलज़ाम भी लगा रहे हो। मंजिल पर पहुँच कर भी मंजिल ढूढ़ रहे
हो।”- कहती हुयी युवती खड़ी ही रही। युवक अधीर,बच्चे की तरह
आगे बढ़ा। युवती फिर दो पग पीछे सरक गयी,और कड़क कर बोली- “मैं
फिर कहती हूँ,वहीं रुक जाओ,अभी मेरी बात पूरी नहीं हुयी है। सुन लो पहले,जान लो
सबकुछ,फिर आगे बढ़ने न बढ़ने की सोचना।”
“मुझे
और न तड़पाओ मतिया। पहले ही बहुत तड़प चुका हूँ। आजाओ मेरी बाहों में। कहानी तो
बाहों में समेटने के बाद भी सुनी जा सकती है,सोची जा सकती कि आगे क्या करना है। सच
में मैं बाहरी सौन्दर्य पर मंडराता रहा...।”
युवती
मुस्कुरायी- “जिस रुप को तुमने चाहा,प्यार
किया,वह तो अब रहा नहीं बाबू। फिर इतने अधीर क्यों हो रहे हो? और सच पूछो तो तुम अभी जान ही कहां पाये हो कि तुम्हारे साथ क्या धोखा
हुआ,किसने दिया धोखा...।”
“नहीं
मतिया नहीं। अब रुके रहना मेरे बस की बात नहीं। पहले मेरी बाहों में समा
जाओ,फिर आगे की बाते होंगी।
धड़कते,बेताब दिल को सुकून मिल जाय,फिर बाहों में पड़ी-पड़ी सुनाती रहना,जितना
सुनाना हो। फिर मैं कुछ न कहूँगा,टोकूंगा।”
“परन्तु
यह असम्भव है बाबू ! बिलकुल असम्भव। पहले तुम्हें मेरी बातें
सुननी ही होंगी।”- निराश हो युवक धब्ब से नीचे जमीन पर ही बैठ
गया,जो कि अबसे पहले ढोंके पर बैठा हुआ था।
“यही
जिद है तुम्हारी तो सुना डालो जल्दी,संक्षेप में ही।”
“थोड़ा
ही तो रह गया है।”-युवती बैठी नहीं। खड़ी-खड़ी ही कहने लगी- “हां,तो मैं चेचक की बात कह रही थी...सप्ताह भर तक उसी हालत में पड़ी रही।
गले से दूध भी जाना दूभर हो गया। किसी तरह दादू के उपचार,नानी की सेवा,और बाबा
शंकरदेव की दुआ से बारहवें दिन ठीक हुयी... कुछ-कुछ खाने-पीने लगी। घाव धीरे-धीरे
भरने लगे। मगर क्या भरे,समझो कुछ नहीं भरा,बस यही समझो कि घाव के छेद से रिसता हुआ
पानी सूख गया, और मक्खियों का भिनभिनाना कम हो गया। वदन को कपड़े से ढांप,बाहर ही
ढाबे में पड़ी रहती। गोरखुआ सुबह-शाम आकर घंटो बैठता। गान्ही बाबा और सुराज की
बातें सुनाकर जी बहलाता,मेरा और अपना भी। कभी तुम्हारी याद करके,आंसू की बूंदे
गिराता,और निराश होकर कहता- बाबू नहीं आयेगा क्या मतिया !
कहा था मां से भेंट कर,तुरत आजाने को। आज तीन सप्ताह हो गये। मैं जाऊँ क्या पता
लगाने ?
“नहीं
गोरखु अभी कुछ दिन और देख लो। बाबू अपनी बात का धनी है। वचन का पक्का है,मुझे
भरोसा है- वह जरुर आयेगा। भूलेगा नहीं हमलोगों को।– इसी तरह की बातें होती रहती।
कभी मन घबराने लगता तो रोने लगती। बेचारा गोरखु समझाता- ‘रोओ मत मतिया,रोने से
क्या होना है। बाबू ने कहा है तो जरुर आयेगा।’
नानी भी घबरा रही थी। गांव वाले कुछ का कुछ कह रहे थे,जिससे बेचैनी और बढ़
रही थी।
“...सोचते-विचारते
तेइस दिन हो गये। उसी दिन की बात है। दोपहर का समय था। नानी सुबह ही निकल गयी थी
जंगल की ओर। हमेशा की तरह गांव के बाकी लोग भी अपने-अपने काम पर निकल गये थे। मैं
अकेली ढाबे में चटाई पर पड़ी थी। बगल में खूंटे से बंधी भेड़ घास चर रही थी। जब से
मेरा बाहर निकलना बन्द हुआ था, उस अभागिन को भी खूंटे से ही बंधा रहना पड़ा।
“...खाना
तुरत खायी थी, वदन में सुस्ती लग रही थी। आंखें बन्द किये नींद के इन्तजार में
थी,तभी कानों में आवाज आयी, “कौन सोया है ?” आंखें खुली तो झट उठ बैठी। देखती हूँ कि दो बाबू ढाबे के बाहर खड़े हैं।
देखने में शहरी मालूम पड़े। पहरावा कोई खास अमीराना नहीं था। उम्र भी कोई ज्यादा
नहीं,यही कोई गोरखुआ के बराबर रहा होगा। उन्हें देख कर मन में उत्सुकता जगी।
“क्या
बात है,किसे खोज रहे हैं आपलोग ?”- मेरे पूछने पर एक ने कहा-
“ गुजरिया गांव यही है न? ”
“हां
बाबू यही तो है। क्यों, क्या बात है ?
किससे मिलना है? ”- पूछती हुयी मैं उठकर खड़ी
हो गयी।
“ओफ
मिला तो सही। लगता था...।” – कहता हुआ उनमें एक बाबू अचानक
सम्भल गया,दूसरे के इशारे पर। बात बदल कर बोला- “ यहीं एक
जरुरी काम है। यहां पर एक लड़की रहती है,जिसका नाम ....।”
फिर दूसरे के चेहरे पर देखा। बात दूसरे ने पूरी की-“लड़की का
नाम मतिया है।”
“मतिया
! क्यों बाबू मतिया से क्या काम है ?”-अपना नाम उनके
मुंह से सुन चौंक पड़ी मैं। हो न हो पलटनवांबाबू का ही कुछ संदेशा लाये होंगे ये
दोनों। चहकती हुयी बोली- “मतिया तो मेरा ही नाम है बाबू । आओ
भीतर आओ ढाबे में। कहो क्या बात है?”
मेरे मुंह
से मेरा नाम सुन,एक दूसरे को फिर देखा दोनों ने। एक ने कहा- “बड़ी खुशी हुयी तुमसे मिलकर। असल में हमलोग बाबू के साथ आये हैं।”
“तब...क्या
हुआ...कौन बाबू..कहां रह गया वह बाबू?”- मैं हड़बड़ा गयी।
“वही
बाबू,क्या कहती हो तुम उसे पलटनवां...याद आया नाम....।”- एक
ने कहा।
“तो
क्या हुआ मेरे पलटनवां बाबू को, जब साथ आ रहे थे...?”- मैंने
घबराकर पूछा।
“हुआ
कुछ नहीं। तुम इतना घबराओ मत। बाबू ठीक से हैं। उधर आकर नाले पर बैठे हैं,तुम्हारे
इन्तजार में। हमलोगों को तुम्हें लिवा लाने को भेजा है।”
मैं खुशी
से नाच उठी,किन्तु आश्चर्य हुआ कि इतनी दूर से आकर,बाबू यहां न आकर, उधर नाले पर
क्यों बैठा है !
मेरे चेहरे
के भाव को शायद समझ गये वे दोनों। बिना कुछ पूछे ही बोले- “तुमसे कुछ जरुरी मसविरा करनी है। हमलोगों के यहां रिवाज है कि शादी तय हो
जाने के बाद,बिना वारात लिये दुल्हा दुल्हन के गांव में नहीं जाता,और वारात लाने
से पहले तुमसे मिलना भी जरुरी है,इसीलिए आकर उधर नाले के पास इन्तजार कर रहा
है,गांव से बाहर ही।”
बारात लाने
की बात सुन कर मैं लाल पड़ गयी लाज के मारे। खुशी से पागल सी हो गयी। कुछ सूझा
नहीं। यह भी भान न रहा कि मेरे ससुराल से ये लोग पहली बार आये हैं,मेरे यहां। इनका
स्वागत-सत्कार करना चाहिए। ये भी भूल गयी कि मैं इतनी बीमार हूँ। चल-फिर नहीं
सकती। खुशी में इतनी बेसुध हो गयी कि चट खोली खूंटे से भेंड़ को,और चल दी उनके
साथ- ‘तो आपलोग जल्दी चलें,बाबू को बहुत इन्तजार नहीं कराना चाहिए।’
मेरे कहते
ही उन दोनों ने एक-दूसरे से आंखें मिलायी। शायद कुछ बातें भी हुयी आँखों ही आँखों
में,और चलते हुए कहा एक ने- “हां-हां,चलो,वहीं
ले चलने तो आया हूँ।”
दोनों बाबू
चल पड़े। मैं भी उनके साथ धीरे-धीरे चलने लगी,भेड़ की रस्सी थामें। मन में ऐसी
उमंग भर गयी थी मानों पैरों में पंख होते तो उड़कर चल दी होती। उनके साथ धीरे-धीरे
चलने में ऊब हो रही थी। लगता था जल्दी पहुंच जाऊँ बाबू के पास,लिपट पड़ू अपने
पलटनवां बाबू से,मगर नाले की दूरी लगता है कि बढ़ गयी थी उस दिन।
मन में
तरह-तरह की बातें सोचती लम्बे-लम्बे डग भरती चल रही थी। बीच-बीच में उन लोगों से
कुछ पूछ-जान भी लेती। कभी कुछ वे ही कह पूछ लेते। पहुँचने में देर जरुर हो रही
थी,पर मेरा मन तो पहले ही नाला पार होकर ढूढ रहा था अपने पलटनवां बाबू को।
अन्त में
नाला आया। उन दोनों बाबुओं के साथ भेड़ को लिए मैं भी नाले के पार आयी। थोड़ा आगे
बढ़ी तो उन लोगों ने कहा- “यहीं तो चट्टान के
पास बैठे रहने को कहा था,किधर निकल गये? ” फिर आवाज लगाने लगे- वो अमरेश बाबू ओ बाबू आ गयी तुम्हारी मतिया रानी।”
मैं भी
चिल्लाई- आगयी हूँ पलटनवां बाबू,आगयी मैं।
मेरा
चिल्लाना था कि चट्टान के उस पार से दो आदमी और निकल कर बाहर आये। लिबास उन दोनों
जैसा ही था। अन्तर सिर्फ यही कि वे जरा इनसे ज्यादा तगड़े थे। मूंछें भी बड़ी-बड़ी
ऐंठी हुयी थी। आंखें लाल-लाल अंगारों सी,सूरत कुछ काली,जिसे जान बूझ कर कुछ अधिक
काला बनाया गया था- ऐसा मुझे लगा।
“मैं
भी आगया हूँ।”- कहा उन दोनों नये आने वालों ने एक साथ,तौ मैं
चौंक पड़ी। खुशी भय में बदल गयी। गौर से देखते हुए बोली- तुमलोग कौन हो?
मेरा पूछना
था कि वे दोनों गरज उठे- तुम्हारा बाप !
इसके साथ
ही मैंने देखा- दोनों ने अपनी कमर से लम्बा-लम्बा नेजा निकाला, बिलकुल चमचमाता हुआ
नेजा,और एक साथ टूट पड़े मुझ पर। मैं डर कर चीख उठी। भागने लगी। तभी पहले आये में
से एक ने धर दबोचा। डर के मारे बेचारी भेड़ मिमियाने लगी थी। साथ आये दूसरे बाबू
ने क्रोध में आकर उसे भी धर दबोचा,और उठाकर पटक दिया झटके से सामने की चट्टान पर।
बेचारी भेड़ एक मार में छटपटाकर दम तोड़दी। मैंने देखा उसके मुंह और नाक के छेदों से
लहु का कतरा बाहर निकल कर फैल गया है। प्यारे भेड़ की यह दुर्दशा देख मेरा कलेजा कांप
उठा,लगा कि फट पड़ेगा। किन्तु क्या होना था- उसे तो फटना ही था।
भेंड़ को
पटक,छुट्टी पा वह खड़ा तमाशा देखने लगा। एक ने मुझे कस कर पकड़ लिया,छटपटा भी न
सकी। दूसरे ने अंधाधुंध गोदना शुरु किया मेरे जिस्म को उस नेजे से। फिर सबसे पहले
पैर काटे,फिर हाथ काटा,और अन्त में धीरे-धीरे रगड़ कर गर्दन...लगता था औजार भोथरा
गया हो...गर्दन पर नेजा फेरते हुए मेरे चेहरे पर थूक कर कहा था उसने, जो होश खोने
से पहले,जरा सी गयी आवाज कानों में- ‘हरामजादी प्रेम भी करने बैठी थी तो बाबू
से...अपना चेहरा तो देख लिया होता....।’
“ओफ
बन्द करो,बन्द करो इस कहानी को,मुझसे सुना नहीं जाता...।”-
अपने कानों को बन्द करता हुआ युवक चीख उठा।
“कहानी
तो खत्म ही हो गयी बाबू ! खत्म हो गयी मतिया और खत्म हो गयी उसकी कहानी भी। नेजे से जमीन खोदकर वहीं
गाड़ दिया शैतानों ने। मारते वक्त ही एक ने चमकती अंगूठी निकाल ली थी,किन्तु
कपड़ों के भीतर छिपा होने के कारण इस जंजीर पर शायद नजर न गयी उनकी,और मेरे साथ ही
दफन होगया यह लोलक भी।”- कहानी पूरी करती युवती का ध्यान
युवक की ओर गया। युवक लुढ़क पड़ा था एक ओर। शायद उसे गश आ गया था,किन्तु उसे गिरा
देखकर भी युवती आगे बढ़कर उठाने की कोशिश न की। चुप खड़ी देखती ही रही।
थोड़ी देर
में युवक को होश आया। हड़बड़ाकर उठ बैठा। हांफते हुए बोला- “तो क्या मतिया मर ही गयी ? मार ही डाला उन चाण्डालों
ने ?”- युवक की आवाज कांप रही थी। गला भर आया था। वदन में
थरथराहट हो रही थी। चट्टान पकड़ कर उठने की कोशिश की,पर उठ न सका।
“हां
बाबू मार ही डाला दुष्टों ने तुम्हारी मतिया को। इतने के बाद भी क्या तुम्हें
संदेह ही रह गया है ? ”- आंचल सम्भालती युवती बोली।
“मतिया
जब मर ही गयी तो तुम कौन हो ?”- युवक चीखा। युवती मुस्कुराती,खड़ी रही।
“मैं
कहती थी न बाबू ! पहले पूरी कहानी सुन लो,फिर लिपटने की बात
करना।”
युवक पत्थर
की मूर्ति की तरह जड़ बना,उसे देखता रहा,फिर उठने की कोशिश की। लगता था- युवती की
बातें उसके कानों में पड़ ही न रही हों।
एकाएक उठकर
खड़ा हो गया। दोनों हाथ फैला,युवती की ओर दौड़ा- “ नहीं...ऐसा नहीं होसकता...मतिया मर नहीं सकती..तुम यह झूठ कह रही
हो...मुझे सताने के लिए...क्यों कि मैंने आने में देर किया...मुझे और परेशान न करो
रानी...आ जाओ...समा जाओ मेरी बाहों में...।
युवक को
आगे बढता देख,युवती सम्भल गयी। जल्दी से पीछे खिसक गयी,युवक अधीर होकर और आगे बढ़ा
झपटकर- “माफ करदे मतिया माफ कर दे मुझे...।सही में मैंने पहचाना नहीं था तुझे...।”- वह बकता रहा,युवती ने जरा भी ध्यान न दिया उसके बकवास पर। देखी कि अब
नहीं मानेगा,झपट कर पकड़ ही लेगा,तब पीछे खिसकना छोड़,उसी ओर मुड़कर भागने लगी।
युवक भी पूरी रफ्तार से पीछा करने लगा। झाड़-झंखाड़ की परवाह किये वगैर युवती
भागती रही। युवक भी भागता रहा पीछे-पीछे- “मतिया...मेरी
मतिया...।”
युवती की
आवाज आयी- “ मेरे पीछे मत भागो पलटनवां बाबू
! मतिया अब तुम्हें नहीं मिल सकती कभी नहीं...।”
“नहीं
रह सकता तुम्हारे बगैर...नहीं रह सकता मतिया...नहीं रह सकता..रुक जाओ ...ठहर
जाओ...समा लेने दो अपनी प्यासी बाहों में...।”- अधीर होकर
चिल्लाता युवक पीछे भागता ही रहा। झाड़ियों में फंस कर कपड़े चिथड़े-चिथड़े हो
गये। वदन लहु-लुहान हो गया, पर इसकी परवाह किये वगैर उसका भागना जारी रहा मतिया के
पीछे। उसे दीख रही थी सिर्फ अपनी मंजिल जो पास रह कर भी दूर थी।
हाथ
हिलाती,अस्त-व्यस्त कपड़े सम्भालती युवती भी भागी जा रही थी।साथ में भेड़ भी उसी
रफ्तार से भाग रहा था। युवक की हालत पर उसे जरा भी रहम न था। आवाज गूंज रही थी
जंगल में पहाड़ों से टकरा-टकरा कर- “वापस
चले जाओ पलटनवां बाबू..वापस चले जाओ...मतिया अब नहीं मिलेगी तुम्हें...नहीं
मिलेगी...।”
युवती की
बातों का कुछ भी असर युवक पर न हो रहा था। हांफता,चिल्लाता,दौड़ता भागा जा रहा था,
पकड़ने को अपनी प्राणप्यारी मतिया को- “मतिया...मेरी
मतिया...मेरी रानी...आजाओ मेरी बांहों में...समा जाओ मेरी बांहों में...।”
युवती
भागती रही,युवक पीछा करता रहा।
सच कहा गया
है- इन्सान को अन्धा बनाने वाली बहुत सी चीजें हैं दुनियां में। भविष्य की रंगीन
कल्पना और प्यार की कसक-चसक भी एक उपादान है,और उसने युवक को इस कदर जकड़ रखा है
कि पथ का कोई भी अवरोध उसे दीख न रहा है,सूझ न रहा है। उसकी बेचैन अन्धी आँखें आगे
भागती चली जा रही युवती पर टिकी है। समीप में क्या है,यह दीख न पा रहा है। हृदय की
हर धड़कन, फेफड़े के प्रत्येक आकुंचन-प्रकुंचन से मात्र एक ही स्वर निकल रहा है-
मतिया...मतिया...।
आगे एक बड़े
से रोड़े से टकराया। भागते पांव उलझ गये एक जंगली लता से,मानों पांव पकड़कर लता
निवेदन कर रही हो- मत जाओ बाबू! आगे मत जाओ।
नहीं मिल सकती मतिया अब तुम्हें। नहीं मिल सकती तुम्हें तुम्हारी मतिया,क्यों कि
तुममें और उसके बीच एक अथाह दूरी बन गयी है...एक गहरी खाई बन गयी है,जिसे तुम अपने
प्यार की प्यास से पाट नहीं सकते। अशरीरी और शरीरी का फर्क आ गया है। इन दोनों का
आपस में मिलन कैसे हो सकता है...क्यों कर हो सकता है...वस्त्रहीन को वस्त्रवान
कैसे छू सकता है...मुक्त और बद्ध का साम्य कैसा...अबाध का बाध से मिलना कैसा...उसकी
गति अबाध है,तुम्हारी गति सीमित...।
किन्तु
इसका न ज्ञान युवक को है,और न विश्वास ही। उसे तो सिर्फ लग रहा है- मतिया उसकी
मंजिल है,जो भागी जारही है,नाराज होकर। उसे पकड़ना है,मनाना है,वांहों में भरलेना
है...दुनियां के हर बन्धन को तोड़कर, समेट लेना है,अपने आप में,परन्तु सबसे बड़ा
बन्धन- मोह और मोह का आधार यह पांच भूतों वाली काया, भूत-वद्ध कैसे पाये अशरीरी को
!
भागते युवक
को रोड़े की ठोकर लगी। मानों उसने भी दुत्कार कर कहा- मूर्ख!
अब भी चेत। समझ दुनियां को...इस क्षणभंगुर संसार को,जिसे तूने अपना
समझ रखा है! जिसकी एक क्षुद्र प्राणी को प्राणेश्वरी समझ
लिया है....किन्तु जानदार इन्सान की बातें जब इन्सान को समझ नहीं आती तो बेजान
रोड़े की क्या परवाह करता ?
नतीजा हुआ- धड़ाम की तेज आवाज,और इसके साथ ही
पैरों में उलझी लता में उलझ कर गिर पड़ा औंधे मुंह। प्यार में अन्धे इसी प्रकार
गिरा करते हैं। चट्टान से संघर्ष में खोपड़ा पराजित हुआ। खून का फब्बारा
छूटा...मुंह से आह निकली—मतिया!रुक जा...।
भागती
युवती सही में रुक गयी। लहु-लुहान लथपथ युवक अब भी संघर्ष करता रहा जीवन से। उठने की
कोशिश करता रहा,चट्टान का सहारा लेकर। अजीब है आदमी भी, जिसने धराशायी किया, उसी
का सहारा
उठने के
लिए भी
!
युवती कुछ
दूर खड़ी उसका तड़पना देखती रही- “कह
रही थी न बाबू ! पीछा मत करो। मुझे तुम नहीं पा सकते । मैं
जहां हूँ वहां पहुँचने की कोशिश बेकार है।”
युवती की
मधुर आवाज,कानों में पड़कर संजीवनी सा काम किया। तड़फड़ाता युवक चट उठ खड़ा हुआ।
कातर नजरें दूर खड़ी युवती पर गयी। सिर से बहता रक्त अब नीचे आकर रंगने लगा था
पूरे शरीर को,जिस पर प्यार का पक्का रंग पहले से ही चढ़ा हुआ था। एकबार देखा,गौर
से उस युवती को, और पैरों में फिर गति आगयी। युवक फिर भागने लगा। उसे आता
देख,युवती ने चीख कर कहा- “खबरदार,रुक जाओ
वहीं,अब आगे मत बढ़ो।” किन्तु युवक कब मानने वाला था उसकी
बात। आज दुनियां की हर ताकत ताकतहीन होरही है, उसे रोकने में।
युवक ने
देखा- युवती दो डग आगे बढ़,जरा ठहरकर एकाएक छलांग लगा गयी हवा में ऊपर उठकर...। वह
भी दौड़कर वहीं पहुँचा। पहुंचकर देखा- ऊँची चट्टान बिलकुल ढलवी,चिकनी,और उसके नीचे
चौड़ा,गहरा,भयानक बरसाती नाला,किन्तु पुरुष किस मामले में नारी से कम समझे खुद को...जब
वह छलांग लगा चुकी,तो यह भी क्यों नहीं...सोचा पल भर,और,नजरें घुमा इधर-उधर देखने
लगा। दीखा तो कुछ नहीं,पर आवाज आयी- “नहीं
मानोगे पलटनवां बाबू ! ”
और
उसके साथ ही युवक ने छलांग भरी। छलांग लम्बी जरुर थी,पर इतनी नहीं कि भारी-भरकम
मिट्टी के देह को भी नाले के उस पार पहुँचा सके,हवा वाली देह के देखा-देखी...।
छपाकऽऽऽ...की आवाज हुयी और गिर पड़ा मिट्टी का ढेला नीचे खड्ड में। गहरे नाले में
एक बार जोरों की खलबलाहट हुयी,मानों कोई दौड़ लगा रहा हो,और फिर गम्भीर मधुर आवाज
गूंज उठी- “ नहीं माने न पलटनवां बाबू
! आ ही गये...मतिया...! पलटनवां बाबू ! मतिया!...पलटनवां बाबू ! देर
तक नाले की कलकलाहट को भेदकर गूंजती रही खिलखिलाहट... मतिया...! पलटनवां बाबू ! मतिया!...पलटनवां! मतिया...! पलटनवां बाबू !
मतिया!...पलटनवां!...
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