अधूरीपतिया भाग- 5

गतांश से आगे
अधूरीपतिया का पाचवां भाग- पेज 101 से 150 तक



खाना खाते हुए बाबू ने पूछा- ‘ये सब सामान बनाना तुमने कहां से सीखा मतिया?- बाबू को आश्चर्य हो रहा था मतिया पर।
‘वाह बाबू! तुम क्या सोचते हो सिर्फ हंडिया बनाना ही जानती है मतिया? तुमलोगों के मुलुक का खाना ऐसा बना देगी कि अंगुली ही चाटते रह जाओगे।’-मतिया की ओर देखते हुए गोरखुआ ने कहा।
          मतिया ने कहा गोरखुआ की ओर अंगुली दिखाकर- ‘ये सब इन्हीं की किरपा है बाबू। शहरी बाबू लोगन कैसे बोलते हैं,कैसे खाते हैं,क्या खाते हैं,क्या पहनते हैं- सब कुछ सिखलाया है मुझे गोरखु भाई ने,सिर्फ हमको ही नहीं मंगरिया को भी। ’
‘तभी तो मंगरिया ने मुट्टी में कर रखा है।’- बाबू ने चुटकी ली।
‘सो तो ठीक बाबू,परन्तु डर लग रहा है हमें,कि कहीं मतिया की मुट्टी में आप बन्द ना हो जाओ। ’- हँसते हुए गोरखुआ ने कहा।
मतिया शरमा कर सिर झुका ली।
खाना खाकर दोनों जन बाहर आये। कई लोग वहां बैठे इन्तजार कर रहे थे। जब से बाबू आ गये हैं,गांव में अजीब सी रौनक आगयी है। हर कोई चाहता है,काम-धाम से फुरसत पाकर घड़ी-दो घड़ी बाबू के पास बैठकर,गपशप कर जी बहलाना,कुछ नयी बात सीखना,जानना।
पहले लोग भेरखु दादू के चौपाल में खाली समय में बैठकर गप्पें मारा करते थे। अब चार दिनों से कजुरी का ढाबा ही आबाद हो रहा है। सबकी इच्छा है कि बाबू यहीं रस-वस जाय।
उधर दो दिन बाबू बीमार ही रहे। कल का दिन-रात परब में ही गुजर गया। आज ही सबको मौका मिला है,जमकर गप-शप करने का। सबके मन में इच्छा बनी है,बाबू के बारे में जानने की। अनजाने में तरह-तरह के अटकल लगाये जा रहे हैं। कोई कहता- बाबू बहुत अमीर है...देखा नहीं अंगुलियों में कितनी अंगूठियां हैं चमचमाती हुई...गले में चमचम करती जंजीर भी है...कोट-पतलून है...बाबू बहुत पढ़ा-लिखा है...बीबी-बच्चे घर पर होंगे... इधर कहीं काम-वाम करते होंगे...कोई कहता- जंगल का मालिक है,कोई कहता- शिकार करने आये होंगे...मतिया फंसा लायी...नहीं चुटीले हो गये...लाचार होकर इधर आना पड़ा... जितने मुंह उतनी बातें। क्यों कि अभी तक लोग पूरी तरह जान भी नहीं पाये हैं कि कहां के रहने वाले हैं,क्या करते हैं,घर परिवार,रोजी-रोजगार कैसा क्या है? बाबू ने अपनी ओर से कोई खास जानकारी अभी तक दी नहीं किसी को। अब आज अटकलों का दौर खतम होगा। हथेली पर तमाखू मलते हुए गोरखुआ ने कहा, ‘तब बात तय रही न बाबू गान्ही बाबा से मिलवाओगे न?
‘ क्यों नहीं गोरखुभाई! जरुर मिलवाऊँगा। लेकिन हमारा विचार है कि तुम पहले शादी कर लेते,फिर मंगरिया को भी साथ लिए चलते। उसे भी चेलिन बनाना गांधी जी का,क्यों कि उनके साथ औरतें भी बहुत रहती हैं।’-मुस्कुराते हुए बाबू ने कहा।
‘ठीक कहते हो बाबू,इन दोनों को ले जाओ अपने साथ।’- सोहनुकाका ने बाबू की हां में हां मिलायी।
‘सो तो ठीक है बाबू। मैं भी चलूंगा,मंगरिया भी चलेगी,किन्तु उससे पहले एक बात कहना चाहता हूँ। मानोगे न बाबू?
‘कहो,क्या कहते हो? मानने लायक होगी तो जरुर मानेंगे। ’- बाबू ने जवाब दिया।
‘हम सबकी राय है कि तुम यहीं बस जाओ बाबू। घरनी-परिवार को भी यहीं ले आओ। गान्ही बाबा के नाम का डंका बजाओ,जल्दी से सुराज लाओ। मौज मनाओ साथ मिलकर। ’-तमाखू ठोंकते हुए गोरखुआ ने पूछा, ‘तुम भी लोगे बाबू?
‘मैं नहीं खाता खैनी। तुम ही खाओ।’- सिर हिलाकर बाबू ने खैनी लेने से इन्कार किया। गोरखुआ ने ताली ठोंकी,और सोहनु काका की ओर हाथ बढ़ा दिया। फिर अपने थुथने में खैनी सहेजकर वोला, ‘तब मंजूर है न बाबू मेरी...हमलोगों की बात?
‘आकर बस जाने की बात तो और है,पर कहते हो घरनी लाकर बसने को,तो किसकी घरनी को ले आऊँ गोरखुभाई?- बाबू मुस्कुराये।
‘क्या घरनी-वरनी नहीं है बाबू? अभी शादी-वादी नहीं हुयी है क्या?- सोहनु के बगल में बैठे भिरखु काका ने पूछा।
‘पहले घर,फिर न घरनी...मेरा तो...। ’-बाबू की बात पूरी भी न हुयी,कि उससे पहले ही उत्साहित होकर गोरखुआ बोल उठा- ‘तब तो और भी बढ़िया बात है बाबू,यहीं पर घर भी बनाओ,और घर भी बसाओ। घरनी बना लो। है कोई पसन्द? करोगे शादी? बोलो बाबू।’
भिरखू काका ने कहा- ‘इधर की छोरी पसन्द पड़ेगी बाबू को?
‘कहो न बाबू अपनी पसन्द।’- डोरमा बीच में ही टपक पड़ा।
‘अब तो व्याह करना ही पड़ेगा। बिना शादी किये,हमलोग छोड़ने वाले थोड़े जो हैं।’- खाट के पाये पर मुक्का मारकर गोरखुआ ने कहा।
‘अच्छा ही हुआ,बाबू बिन व्याहा है। मैं तो कहूँगा,यदि पसन्द हो तो मतिया से ही शादी करले।’- भेरखुदादू ने कहा तो चौंक उठे बाबू। गांव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति के मुंह से ये बात निकली है- इस बात पर गौर करने लगे।
‘ठीक कहा दादू ने,ठीक कहा- बाबू के लिए मतिया सबसे अच्छी रहेगी।’-एक साथ सभी लोग कह उठे। सबकी इच्छा देख बाबू आवाक रह गये। भीतर ढाबे में बैठी मतिया उठकर एक ओर चल दी। बाबू की आँखें उसकी पीठ पर चिपकी सी रही।
‘कल देख रहे थे न दादू ! बाबू और मतिया की जोड़ी कितनी अच्छी लग रही थी।’- होरिया ने कहा,जिस पर सबने हामी भरी।
हँसता हुआ गोरखुआ बोला, ‘ वैसे कहें तो मंगरिया को ही इनके गले में लटका दूँ मान्दर की तरह- बजाते रहेंगे।’
‘ऐसी भी क्या बात है,बाबू को इतना ‘अपसवारथी’ समझते हो?- भीड़ में पीछे से किसी ने चुटकी ली।
‘मतिया क्या कम खूबसूरत है?-डोरमा बोला- ‘अच्छा ही होगा,गोरखु से मंगरिया,और बाबू से मतिया की शादी हो जाए,इसी सोहराय के बाद,क्यों दादू?
‘बात तो बिलकुल ठीक है। कजुरी से भी राय कर ली जाय।’-दादू ने खों-खों करते हुए गला साफकर,खैनी थूकते हुए कहा।
‘किन्तु इससे पहले बाबू की राय तो साफ हो जाय,और फिर एक बार मतिया...।’-
सोहनुकाका कह ही रहे थे,कि बीच में ही बोल पड़ा गोरखुआ- ‘पूछने को तो पूछ लो मतिया से भी,पर क्या उसकी आँख फूटी है, जो बाबू जैसा आदमी पाकर भी ना-नुकूर करेगी ?  मैं तो कहता हूँ- भाग चमक जायेगा मतिया का,और हमारे गांव का भी।’
लोगों की बातें खाट पर बैठे बाबू,सिर झुकाये,मुस्कुराते हुए सुन रहे थे। उधर झोपड़ी के भीतर बैठी मतिया भी सुन ही रही थी,और सुन-सुन कर खुद ही शरम से लाल हुयी जा रही थी।
 ‘और परिवार के बाकी लोग- मां-बाप,रोजी-रोजगार क्या है बाबू का?- सोहनु काका ने फिर से सवाल किया।
‘सब है,सब है काका- रोजी-रोजगार,घर-परिवार,मां-बाप सबकुछ...पर यहां से बहुत दूर...।’
‘अच्छा है बाबू,अब यहां से शादी करके ही जाओ। हां,पहले मां-बाप से एकबार भेट कर आओ। बहु को दिखादो।’- गोरखुआ ने कहा,जिसपर औरों ने भी सिर हिलाया- हामी भरी।
इसी तरह बहुत देर तक और भी बातें होती रही। आज सबको जी भर कर बातें करने का मौका मिला। मतिया के पसन्द-नापसन्द की बात बाबू से पूछी गयी,पर अपनी कुछ भी साफ राय बाबू ने न दी। हां,बाबू के बारे में काफी कुछ पता चल गया लोगों को। अन्त में यह कहकर दादू ने बात खतम की, ‘हड़बड़ी क्या है,असथिर से बाबू सोच विचार कर कहेंगे। और लोगन की भी राय समझ-बूझ लेंगे बाबू । मन हो तो एकबार घर जाकर मां-बाप से भी बूझ आवें...।’ और इस तरह रात की ये बैठकी पूरी हुई।
काफी रात गये,सभी अपने-अपने घर गये। बाबू की खाट बाहर से उठाकर,भीतर ढाबे में कर दी गयी। बाबू पड़ रहे उसी पर।
कुछ देर बाद चादर लिए मतिया ढाबे में आयी। बाबू चुपचाप पड़े हुए थे। बाहर
चाँदनी छिटकी हुयी थी,क्यों कि इन्जोरा बारहवीं का चाँद था,और आसमान बिलकुल साफ।  मतिया सिरहाने चादर रखकर भीतर जाने को मुड़ी,तभी बाबू ने पूछा,‘कहाँ थी अब तक ?
‘यहीं तो थी,भीतर में पड़ी हुयी। तबियत कुछ भारी-भारी सी है।’- धीरे से कहा उसने।
‘ठीक है। जाओ,सो रहो। मुझे भी नींद आरही है।’- कहने को तो बाबू ने कह दिया, पर समझ रहे थे कि मतिया की तबियत को क्या हुआ है आज। बात भी सही ही है। मन भारी लगना लाजिमी है। भोली-भाली मतिया के दिल में गांव के लोगों ने आज भारी तूफान खड़ा कर दिया है। वह चाहती है- चुपचाप आँखें बन्द कर,पड़ी-पड़ी इस तूफान का सामना करना।
मतिया चली गयी। बाबू लम्बी तानकर पड़े रहे। किन्तु काफी देर तक,इधर ढाबे में बाबू और झोपड़ी में भीतर,मतिया दोनों ही उलझे रहे। दोनों के दिल-वो-दिमाग में अनजानी सी हलचल थी,जो कोशिश के बावजूद थम न रही थी। दोनों ही सोचे जा रहे थे अपने-अपने ढंग से। रात झनझनाती हुई गुजरती रही,यहाँ तक कि चाँद अपनी पसरी चादर समेटकर भागने की तैयारी में लग गया,तब जाकर दोनों को थोड़ी नींद आयी।
उस थोड़ी ही देर में,मतिया ने एक विचित्र सपना देखा- देखती क्या है कि वह खूब सजी-संवरी है...आज कई दिनों बाद अपनी भेड़ लेकर घने जंगल की ओर निकली है... जंगल में भयंकर तूफान उठा है...वह फंस गयी है...भेड़ को गोद में चिपकाये आगे बढ़ती रही है...एक गुफा मिली है...उसमें घुसने की कोशिश कर ही रही थी कि भीतर से गद्दावर शेर का एक जोड़ा दहाड़ उठा...वह भागने लगी..शेर ने पीछा किया...भागती रही मतिया... शेर खदेड़ता रहा..अचानक एक नीची डाल से सिर टकराया...गोद से छूटकर भेड़ दूर जा गिरी...लुढ़कती हुयी मतिया नीचे आगिरी...एक बरसाती नाले में उब-चुब होने लगी...तभी एक शहरी बाबू तैरता हुआ आया...कलाई पकड़ी...खींच कर बाहर निकाला...होश में लाया... उठा कर अपने घर ले चला...सारी बातें बतलायी...खुद को अनाथ कहा..शादी करने की जिद्द की...बात माननी पड़ी...शादी होगयी...मौज-मस्ती शुरु होगयी...एक रात दोनों सोये लिपट कर...एकाएक एक काली कलूटी भयंकर औरत आयी...बाबू का हाथ पकड़ कर खींचने लगी...खाट से नीचे पटक दी..हाथ में चमचमाती हुयी कटार थी...हाथ ऊपर उठा...चीखें-चिल्लाये,इससे पहले ही चमक कर कटार नीचे गिरी..पूरे वार से....बाबू की गरदन धड़ से अलग हो गयी...खून का फौव्वारा छूटा...चीख उठी जोरों से..बचाओ...बचाओ...।
नींद में गाफिल मतिया,सही में चीख उठी थी। बगल में सोयी नानी ने झकझोर कर जगाया उसे । गहरी नींद में सोये बाबू की भी नींद खुल गयी मतिया की चीख से। झपट कर वे भी भीतर आ गये झोंपड़ी में।
‘क्या हुआ मतिया क्या हुआ? कोई सपना देख रही थी क्या?
‘हाँ बाबू ! सपना ही देख रही थी। बहुत डर लगा। एकदम से चीख निकल गयी।’- उठकर बैठती हुयी मतिया बोली।
बाबू वहीं बैठते हुए बोले, ‘मुंह-हाथ धोकर सोओ,अभी तो बहुत रात है। चलूँ मैं भी थोड़ा सो लूँ।’-कहते पुनः बाहर आगये।
खाट पर पड़े तो रहे,किन्तु नींद उचट गयी थी। काफी देर तक टकटकी बंधी रही,यहाँ तक कि सबेरा होगया।
मतिया को भी नींद नहीं आयी। हालांकि अभी बाहर निकली न थी,पर,भीतर से आ रही भांडे-बरतन की आवाज से बाबू ने अनुमान लगाया कि वह कुछ काम में लगी है।
कुछ देर बाद मतिया बाहर आयी,तो बाबू को खाट पर न पाकर,सोची कि बाबू जल्दी ही जगकर झरने की ओर चला गया होगा। अतः वह भी अपने काम में लग गयी- झाड़ू-बुहारु करने लगी।
थोड़ी देर में बाबू भी आ गये। मतिया को काम में लगा देखकर पूछा-‘क्यों आज भी कुछ जल्दवाजी है क्या?
‘जल्दी क्या है,यह तो रोज का काम है,रोज का ढंग है- सुबह-सुबह तैयार होकर,कुछ खा-पीकर जंगल की ओर निकल पड़ना। सारा दिन जंगल में मंगल करना। शाम तक घर वापस आना। आज कई दिन हो गये,बेचारी भेड़ को भी घुमा-फिरा न सकी। जब से आप आये हैं,उधर जा न पायी हूँ। आज जरुर जाऊँगी। ’-बाबू से बातें करती मतिया ढाबे में रखी खाट उठाकर बाहर रखती हुयी बोली-‘अच्छा आप बताओ कि इतनी जल्दी उठ कर कहाँ चले गये थे?
‘यह तो मैं कहने ही वाला था कि रात में नींद ठीक से लगी नहीं। थोड़ी लगी भी तो तुम्हारी चीख से जो खुली सो खुली ही रह गयी,इसीलिए सुबह जल्दी उठकर चल दिया हवाखोरी को। उधर से ही मुंह-हाथ धो,निश्चिंत होकर चला आरहा हूँ।’- फिर जरा ठहर कर मतिया के चेहरे पर गौर से देखते हुए बाबू ने पूछा- ‘अच्छा यह तो बतलाओ कि रात भर में ही मैं इतना बदल कैसे गया?
‘बदल गये ? सो कैसे?’- मतिया ने आश्चर्य से पूछा बाबू की ओर देखते हुए,जो अभी भी उसकी ओर ही देखे जा रहा था।
‘क्यों तुम्हें नहीं लग रहा है क्या ?-बाबू गम्भीर बना, खड़ा ही रहा।
‘मुझे तो कुछ ऐसा नहीं लग रहा है।’-मतिया समझ न पा रही थी कि बाबू क्या कहना चाह रहा है।
‘तुम्हें भले न मालूम चल रहा हो,किन्तु मैं तो निश्चित तौर पर बदल चुका हूँ।’-बाबू मुस्कुराया- ‘कल रात सोने से पहले तक  ‘तुम’ था,और सुबह नींद खुली तो अचानक ही ‘आप’ हो गया,यह क्या मामूली बदलाव है?’
कुछ पल तक चुप्पी साधे मतिया,बाबू का मुंह ताकती रही,मानों बात समझ ही न पा रही हो,फिर जोरों से हँसती हुयी बोली- ‘धत्तेरे की ! इत्ती सी बात के लिए इतने देर तक उलझाये रहे बाबू? सच पूछो तो मैं गलत कर रही थी- बड़ों को खास कर आप जैसे लोगों को ‘आप’ ही कहना चाहिए। किन्तु शरु में तुम निकल गया मुंह से और लत लग गयी।’
‘किन्तु एकाएक यह ज्ञान कल रात कैसे हो आया ? कुछ सपना देखी क्या ?’- बाबू मुस्कुराया,मतिया को देखकर। फिर जरा ठहरकर बोला, ‘अच्छा,अब समझा,रात वाली बात...।’
‘रात वाली बात...’- मतिया शरमा कर सिर झुका ली- ‘बड़े शोख हो गये हो बाबू। कौन सा पहाड़ टूट पड़ा,यदि मैंने आप को आप कह दिया?
‘मगर मुझे यदि तुम कहलाना ही अच्छा लगता हो तब?- सिर हिलाते हुए बाबू वोले।
‘अच्छा बाबा, तुम तुम ही रहो,आप न कहूँगी कभी।’
‘ठीक,अब आयी रास्ते पर।’
बात बदलती हुयी मतिया ने कहा - ‘ मुंह-हाथ धो ही चुके हो बाबू,तो कुछ जलखयी कर लो,फिर जंगल जाना है।’
‘तुम तो जंगल चली जाओगी,गांव के और लोग भी इधर-उधर अपने-अपने काम-धन्धे में लग जायेंगे,और मैं क्या यहाँ बैठे मक्खी मारुँगा?
‘कौन कहता है मक्खी मारने को? जंगल जाकर तुम भी शेर मारो। शेर न मार सको तो गीदड़-हुंड़ार ही सही। वह भी न बने तो भेड़ चराओ। यहाँ काम की कोई कमी थोड़े जो है।’-हँसती हुयी मतिया ने कहा- ‘चलो जल्दी तैयार हो जाओ।’
‘वाह खूब कहा तुमने भी- शेर मारुँ,गीदड़ मारुँ,हुंड़ार मारुँ,भेड़ चराऊँ...अच्छा चलो जैसी तुम्हारी मर्जी।’- कहता हुआ बाबू खाट से उठ खड़ा हुआ।
जलपान करके,थोड़ी देर में तैयार हो गये दोनों- जंगल जाने के लिए। भीतर जाने पर भी कजुरी नानी नजर न आयी,सो बाबू ने पूछा- ‘क्यों नानी नजर नहीं आरही है,सुबह में भी दीखी नहीं।’
‘नानी को दो-चार सुबह तुम देख क्या लिए कि समझ गये नानी घर में ही रहती है।
सच पूछो तो नानी शायद ही कभी देखती है कि गुजरिया में सूरज किधर से उगता है,और डूबता किधर है।’- झोपड़ी की टाटी को बन्द करते हुए मतिया ने कहा।
‘ इसका मलतब कि वह हर रोज मुंह अन्धेरे ही निकल पड़ती है,और फिर अन्धेरा होने के बाद ही घर पहुँचती है? फिर खाती-पीती क्या है सारा दिन?’
‘अक्सर रात का बचा खाना ही खाकर या साथ लेकर निकल पड़ती है।’- कहती हुयी मतिया भेड़ की रस्सी खोल कर चल पड़ी। पीठ पर एक गठरी में नहाने के लिए कपड़े वगैरह और खाने का कुछ सामान रख ली थी। बाबू भी साथ हो लिया।
कुछ दूर चलने के बाद बाबू ने पूछा- ‘चलना किधर है कितनी दूर?
‘अभी से दूरी पूछने लगे बाबू ! ज्यादा दूर चलने का मन नहीं है क्या ? कम से कम उस नाले तक तो जरुर ही जाऊँगी,जिसके पार से तुम्हें ले आयी थी।’
‘दूर की बात नहीं है,असल में वह सब जगह देखी हुयी है। उधर का लगभग पूरा जंगल घूम चुका हूँ। अच्छा होता किसी दूसरी ओर चलती।’
‘यही सही। कहीं किसी ओर तो चलना ही है। चलो आज इधर चला जाय।’- बायीं ओर हाथ का इशारा करती मतिया ने कहा।
कुछ देर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। बातचित के नाम पर सिर्फ इतना ही हुआ कि कोई अनजान पेड़-पौधा देखकर बाबू पूछ लेता,उसके बारे में,और मतिया कुछ कह समझा देती। बात दरअसल ये थी कि बाबू जंगल की हरीतिमा को अपनी आँखों में समेट लेना चाहता था,और मतिया इस सूनेपन से कुछ चुरा लेना चाहती थी- थोड़ा सा शान्त समय, ताकि कुछ सोच-विचार सके खुद के बारे में,क्यों कि रात भी जब तक जगी रही थी,यही करती रही थी।
घने जंगल में पहुँचने पर एक ढोंके से भेड़ की रस्सी दाबकर,चरने को छोड़, खुद बैठ
गयी एक और ढोके पर। पास ही दूसरे ढोंके पर बाबू भी बैठ गया। बात मतिया ने छेड़ी-  ‘बुरा न मानों तो एक बात पूछूँ बाबू?
‘पूछो,बुरा क्यों मानने लगा ?’- मतिया की आँखों में छिपी लालसा और जिज्ञासा को भांपने की कोशिश करता बाबू ने कहा।
‘तुम्हें अपने बारे में कुछ कहने-बतलाने में इतनी हिचक क्यों है बाबू?
‘हिचक किस बात की? और क्यों ? बात कुछ रहे तब न बतलाऊँ। जो भी कुछ पूछा गया,बतला ही दिया।’- गम्भीर भाव से बाबू ने कहा- ‘कल ही मैंने कहा था,तुमने शायद सुना नहीं,रोजी-रोजगार,मां-बाप सब तो हैं- यहां से बहुत दूरी पर, एक बड़े से शहर में।’- हाथ का इशारा पश्चिम की ओर करते हुए बाबू ने कहा।
‘ सो तो सुनी ही थी,किन्तु इधर कैसे आगये? क्या किसी काम-वाम के सिलसिले में या कि...?
‘काम क्या,कुछ नहीं। यूँ ही समझो,घूमते-घामते चला आया। शिकार का शौक रखता हूँ,और शिकार तो जंगलों में ही हो सकता है न,शहर बाजार में हो नहीं सकता।’- बगल में झुकी एक डाल की टहनी तोड़ते हुए बाबू न कहा।
          ‘किन्तु इतनी दूर,वह भी बिलकुल अकेले,शिकार के लिए तो कोई आता नहीं।’- मतिया ने बात पकड़ी,क्यों कि बाबू की बात से कुछ छिपाने की बूं आरही थी।
          ‘बात तो सही कह रही हो,कि कोई अकेले आता नहीं इतनी दूर,पर कभी-कभी ऐसा होता है कि आना पडता है।’- तोड़ी गयी टहनी को हाथ में नचाते हुए बाबू ने कहा।
          ‘आना पड़ता है,क्या मतलब? किस कारण आना पड़ गया ? क्या मेरे जानने लायक है ?’                                                                    ‘क्यों आया,कैसे आया....।’- मुस्कुराता हुआ बाबू मतिया की ओर टहनी फेंक कर कहा- ‘ अरे आया इधर,तभी तो पहले तूफान में फंसा और फिर तुम्हारी चंगुल में...।’
          ‘छोड़ो भी बाबू ! बेकार की बातें बनाते हो। तुम क्या फंसोगे किसीके चंगुल में! - मुंह बिचका कर मतिया ने कहा,और अपनी जांघ पर गिरी,बाबू की फेंकी हुयी टहनी उठाकर, फिर उन्हीं की ओर फेंक दी। इस बार टहनी जाकर बाबू के पांव पर गिरी,जिसे बाबू ने उठाना जरुरी नहीं समझा।
          ‘अच्छा, ये तो बताओ कि रात में तुम इतना डरी क्यों? सपने में क्या देख रही थी?- बाबू ने बात बदलते हुए पूछा। सपने की बात याद आकर मतिया के गालों को पल भरके लिए लाल कर गया। उसके सुर्ख हो आये गालों को देखता रहा बाबू,कुछ देर तक। मतिया एकाएक उदास सी हो गयी।
          अपनी बात का जवाब न पाकर बाबू ने फिर टोका- ‘क्यों बतलायी नहीं कि क्या देख रही थी ?
          ‘देखा तो सपना ही,मगर क्या कहूँ बड़ा ही अजीब- बिलकुल सच जैसा और बहुत ही डरावना,जिसे याद करके अभी भी रोंगटे खड़े हो जा रहे हैं।’
          बाबू ने देखा कि सही में मतिया के वदन के सभी रोयें खड़े हो गये थे,मानों काफी ठंढ लग रही हो। धीरे-धीरे मतिया सपने की पूरी बात बतला गयी बाबू को। सुनकर बाबू पहले तो हँसा,  ‘वाह! खूब रहा तुम्हारा सपना...।’ किन्तु फिर गम्भीर होकर सोचने लगा।
          ‘क्यों बाबू क्या सोचने लगे? सपना सच में भयानक था न?’- मतिया ने बाबू को  चुप्पी साधे देख कर पूछा।
          ‘डरावना तो था ही,किन्तु अब उसे याद करके डरने की क्या जरुरत है?-बाबू ने मतिया को समझाया।
          ‘ डरने की बात तो नहीं है,पर सोचने वाली बात जरुर है बाबू।’-सिर झुकाये मतिया बोली।
          ‘सोचने वाली बात? ’-बाबू ने आश्चर्य किया।
          ‘गोरखुआ कहता है कि सपने आने वाली या गुजरी हुयी बातों की जानकारी देते हैं। उसीने कहा था कि महाभारत नाम की कोई बहुत बड़ी सी किताब है,जिसमें सपने की बहुत सी बातें लिखी होती हैं। एक बहुत बड़े राज्य की रानी ने अपने खानदान के नाश की बातें सालों पहले ही देख-जान ली थी सपने में ही। ’- मतिया ने कहा,तो बाबू मुस्कुरा दिये। सोचा- लगता है कि लड़की के दिमाग में बात बिलकुल घर कर गयी है। अतः जरा ठहर कर बोला- ‘ सोने से पहले तुम क्या सोच रही थी? असल में कभी-कभी ऐसा हुआ करता है कि सोने के पहले जो बात आदमी के दिमाग में घूमती रहती है,उसी से सम्बन्धित बातें ही सपने में भी दिखायी देती है। वास्तव में यह एक मानसिक घटना है।’- बाबू ने कहा मतिया की ओर देखते हुए। अपनी ओर बाबू को गौर से देखता पा,मतिया लजाकर सिर झुका ली। कुछ जवाब नहीं दी बाबू की बातों का।
          इसी तरह की बातें हँसी-चुहल काफी देर तक चलती रहीं- मतिया और बाबू के बीच। यहाँ तक कि दोपहर हो आयी। मतिया ने कहा- ‘ अब तो भूख लग रही है।’
          ‘भूख तो मुझे भी लग रही है। इसी लिए तुम्हारी गठरी पर ही नजर है मेरी।’- सामने रखी गठरी की ओर देखते हुए बाबू ने कहा- ‘ऐसा करो कि अब चट-पट नहा लिया जाय,फिर खाया-पीया जायेगा।’- फिर इधर-उधर देखकर बाबू ने पूछा- ‘मगर नहाओगी कहाँ? इधर नजदीक में कहीं...?
           ‘यहाँ क्या पानी की कमी है। चलो,उधर चलते हैं।’-सामने की ओर इशारा करती मतिया बोली, ‘वहाँ बहुत बढ़िया एक झरना है- बहुत सुन्दर। उसे ही दिखलाने के लिए तो इधर ले आयी हूँ तुम्हें। वैसे वहीं पर एक चुआँड़ भी है,दाडी भी पास में ही है। पता नहीं एक ही जगह तीन-तीन चीजें ऊपर वाले ने क्या सोच कर बना दिया है।’- मतिया ने कहा।
          ‘तुम क्या आयी,तुम तो नाले की ओर जा रही थी। मेरे कहने पर इधर का रास्ता बदली।’-उठ खड़े होते हुए बाबू ने कहा।
          ‘मैंने कहा या तुमने,बात तो एक ही हुयी न। आ तो गये हम उसी जगह जहाँ आना था।’- ढोंके से दबी भेड़ की रस्सी को बाहर निकाल कर,बाबू की ओर बढ़ाते हुए, मतिया ने कहा -‘पकड़ो तो जरा इसे।’- बाबू को रस्सी पकड़ा,खुद गठरी उठा चल पड़ी झरने की ओर। बाबू भी साथ हो लिया।
          झरना बिलकुल करीब था,क्यों कि दस-बीस कदम आगे जाते ही झरने का कलकल सुनायी पड़ने लगा।
          बाबू के हाथ से भेड़ की रस्सी पकड़ कर मतिया पानी में उतर पड़ी- ‘पहले इसे नहला दूँ।’
           ‘वो गान्हीबाबा वाला साबुन नहीं लगाओगी क्या इसे?- पानी में उतरते हुए बाबू ने पूछा। मतिया कुछ जवाब न देकर,सिर्फ मुस्कुरा भर दी।
          भेंड़ को नहलाने के बाद काफी देरतक,दोनों नहाते रहे,धुंए की तरह उड़ते झरने के फुहार का मजा लूटते रहे दोनों। तैराकी भी खूब हुयी। लौटती दफा मतिया शायद थक गयी थी,क्यों कि तैरने में बहुत पीछे हो गयी। बाबू अपनी धुन में आगे बढ़ता ही गया,तभी उसे अचानक चीख सुनाई पड़ी। चीख सुनकर पीछे पलटा तो सिर्फ ऊपर उठा हाथ दीखा। घबराकर जल्दी-जल्दी हाथ-पैर मारते उसके पास पहुँचा- हांफते हुए। किसी तरह खींच कर मतिया को अपनी पीठ पर लादा। तैरते हुए किनारे आया। मतिया थोड़ी बेसुध थी। उसे पेट के बल लिटाकर बाबू ने छाती और पेट पर दबाल डाला। बाबू के थोड़े ही प्रयास से उसने आँखें खोल दी। सांस लेने में कठिनाई हो रही थी।
          ‘जंगल और झरने की बेटी आज धोखा कैसे खागयी ?- मतिया के जरा शान्त होने पर बाबू ने पूछा।
          ‘पता नहीं कैसे हो गया आज धोखा। कितनी बार नहा चुकी हूँ इस झरने में । कोई खतरनाक भांवर भी नहीं है इसमें। तैरने के ख्याल से उस झरने से कहीं ज्यादा मुफीद है यह झरना।’- लम्बी सांस खींचती हुयी बोली- ‘कमर में लिपटा आँचल खुल गया था। एकाएक लगा कि आंचल पूरी ताकत से खिंचा जा रहा है,और उसके साथ ही मैं भी बहे जा रही हूँ बेसहारा होकर। वो तो कहो कि ऐन मौके पर चीख निकल गयी,जिसे सुन कर तुम वहाँ पहुँच गये.नहीं तो आज डूब ही गयी होती। ’
          ‘चलो यह भी एक बात हुयी- सपना कुछ तो कटा। तुम डूबी,मैंने निकाला,परन्तु...’ - थोड़ा ठहरकर बाबू ने कहा- ‘आगे क्या हुआ था सपने में? क्या कहा था उस बाबू ने घर चलने को ? घर जाने पर क्या हुआ था...ऐँ...ऐँ शादी...शादी हो गयी थी न उसी बाबू से...फिर तो खूब मजा आया होगा !
           ‘धत्त बाबू तुम तो मजाक बना रहे हो मेरे सपने का। मेरी जान पर आ बनी है,और तुम्हें दिल्लगी सूझ रही है।’- मुंह बिचका कर मतिया ने कहा।
          इस घटना के बाद मतिया का जी और भी घबराने लगा। रात सपना देखी,सुबह ही अनहोनी हो गयी- अब भला मछली पानी में डूब जाय,तैरना भूलकर,बन्दर पेड़ पर से गिर पड़े,तो इससे बड़ी अनहोनी और किसे कहेंगे? तलहथी पर रोंये ऊग आये ये तो। ओफ ! न जाने क्या होगा आगे? मतिया घबरा उठी।
          गठरी खोल,कपड़े बदली,फिर साथ लाये गये सामानों में से थोड़ा कुछ खा पायी। जी बहुत ही घबरा रहा था उसका। गीले कपड़े वहीं चट्टान पर पसार दिये सूखने के लिए। बाबू भी भांप रहे थे कि मतिया घबरा रही है। खाने के बाद उसका मन बदलने के लिए बाबू ने फिर चुहलबाजी शुरु कर दी - ‘अच्छा मतिया ये बतलाओ कि अभी यदि कोई शेर दहाड़ता हुआ यहाँ आ जाये तो क्या होगा?
           ‘होना क्या है,पहले तुम ये बताओ कि ऊँचे पेड़ पर चढ़ सकते हो या नहीं? मैं तो खट से उस सामने वाले दरख्त पर चढ़ जाऊँगी,भेड़ को पीठ पर लाद कर।’
          ‘तो ऐसा करना कि ऊपर चढ़ कर भेड़वाली रस्सी नीचे लटका देना,मैं उसके सहारे ऊपर आ जाऊँगा,या फिर भेड़ की तरह मुझे भी अपनी पीठ पर लाद लेना।’
          ‘मुझे क्या गोरखुआ समझ लिये हो जो तुम्हें पीठ पर लाद कर ऊपर चढ़ सकूँगी ? हाँ पहला वाला उपाय ही ठीक रहेगा। ’
          ‘और यदि शेर यहीं बैठ कर इन्तजार करने लगे हमलोगों के ऊतरने का तब क्या होगा?
          ‘हाँ ये तो बड़ी कठिनाई वाली बात हो जायेगी,फिर तबतक इन्तजार करना पड़ेगा,जब तक शेर को कोई दूसरा शिकार नजर न आ जाये।’
          कुछ ऐसी ही बेतुकी बातें चलती रही दोनों के बीच। आज पूरे दिन बाबू को मतिया के साथ एकान्त में गुजारने का मौका मिला। उधर-उधर की बातों में उलझाकर बाबू ने उसके मन की गहराई थाहने की कोशिश की,और काफी हद तक सफल भी हुआ। मतिया के सच्चे निश्छल प्रेम से सराबोर हो उठा।
          लौटते वक्त रास्ते भर दोनों करीब-करीब मौन ही रहे- अपने आप में ही खोये,उलझे से रहे। कभी-कभी बाबू पूछ बैठता- उस पहाड़ी के पार क्या है..कौन सा गांव है...ये कौन का पेड़ है...ये किस काम में आता है....?
          मतिया की चुप्पी का कारण उसकी भीतरी घबराहट थी। वह जल्दी से जल्दी घर पहुँचना चाहती थी,और गोरखुआ से मिलकर रात से लेकर अब तक की सारी घटनाओं को बता कर उसका कारण और परिणाम जानना चाहती थी।
          दोनों घर पहुँचे। नानी पहले से ही आ चुकी थी। भेड़ बांध,चल दी मतिया सीधे गोरखुआ के घर, ‘ मैं अभी आयी बाबू ,तब तक तुम नानी से बातें करो।’
          गोरखुआ से मिलकर,मतिया ने सारी बातें कही। उसने कहा- ‘कोई खास चिन्ता-फिकर की बात नहीं है मतिया,सपने के बारे में ज्यादा सोचना फिजूल है। कभी-कभी यूँ ही सपने आया करते हैं।’

     ‘वैसे सपने कुछ न कुछ तो अकसर देखा करती हूँ,परन्तु आज की अनहोनी बात से ज्यादा फिकर हो रही है।’
          गोरखुआ के बहुत समझाने-बुझाने पर मतिया को कुछ दम-दिलासा हुआ, पर बात खटकती ही रही मन में। इस थोड़े ही समय में गांव वालों ने मतिया के मन को एकाएक काफी सयाना कर दिया था। कल तक की मतिया जो ऐसी बातों की कल्पना भी न करती थी,आज सारा दिन इन्हीं विचारों में घुटती-घुलती-खोयी सी रही। कल तक की अल्हड़ छोरी आज अचानक लजाना-शर्माना,आँखें मटकाना सीख गयी। दिल तो रोज धड़का करता था,हर कोई का धड़कता ही है,पर आज की धड़कन...जो अचानक कल रात से शुरु हुयी है...है भी कोई उपाय इस नये तरह की धड़कन का...सुझा सकता है कोई कारण इसका...?
      बहुत सोच -विचार करने पर भी कुछ सूझ न पाया। याद आयी एक बात- मंगरिया कहती थी एक दिन- ‘अरे दैया,क्या कहूँ, आज अकेले में पकड़ लिया गोरखुआ...भींच लिया पकड़कर अपने सीने से सटा लिया...ओफ ! दिल कैसा धड़धड़ कर रहा है अभी भी...याद कर-करके...।’- यह कहते हुए मंगरिया के गाल सुर्ख हो आये थे टेसू के फूल की तरह, किन्तु इसे तो बाबू ने ऐसा कुछ- छू-छा,छीना-झपटी जैसा कभी कुछ नहीं किया,फिर क्यों लग रहा है ऐसा...। मतिया कुछ सोच न पायी,समझना तो बहुत दूर की बात थी। सोच पायी,समझ पायी तो सिर्फ इतना ही कि शहरी बाबू ऐसी जंगली-गंवार को चाहेगा कभी?
          समझाने के बाद भी,मतिया को उदास बैठे हुए देख,माथे पर हाथ फेरते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘एकदम बच्ची है तू। कहा न चिन्ता न कर। सपने सपने हैं...जा घर जा,मैं भी आता हूँ तुरन्त। ’
          मतिया उठ खड़ी हुयी। चलने लगी तो गोरखुआ ने कहा- ‘आज बाबू का खाना मत बनाना। उन्हें मेरे यहाँ खाना है- बोल देना।’
          दिल में उमड़ती तूफान को किसी तरह झेलती,मतिया घर आयी। बाबू से कुछ कही भी नहीं,सीधे अपने रसोई में जुट गयी।
          थोड़ी देर बाद गोरखुआ आया। आते ही कहने लगा- ‘हो गया न आज बदला पूरा?
           ‘आओ बैठो गोरखुभाई ! क्या कह रहे हो,कैसा बदला?  कुछ समझा नहीं मैं।’
           ‘मतिया ने तुम्हारी जान बचायी,तुमने मतिया की जान बचा दी।’- गोरखुआ हँसते हुये बैठ गया वहीं चटाई पर। बाबू भी अपनी खाट खींचकर,कुछ नजदीक ले आया,कारण कि खाट ढावे के दूसरी छोर पर बिछी हुयी थी।
           ‘मतिया की बात कुछ और है गोरखुभाई। मैंने तो उसे केवल पानी से बाहर निकाल भर दिया,पर उसने तो मेरे लिये बहुत जोखिम उठाया।’
            ‘जो भी हो,पानी से निकाला या कि मौत के मुंह से,बात तो एक ही है बाबू।’- कमर में खुसी खैनी की चुनौटी निकालते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘आज इतनी जल्दी चल क्यों दिये थे तुमलोग?  मैं सुबह-सुबह आया तो भेंट न हुयी। टाटी लगी हुयी थी,और तुम चारो जन में कोई नहीं था यहाँ।’
           ‘चारों में... ? चार कौन?-बाबू ने आश्चर्य किया।
           ‘हाँ तो...तुम,मतिया,नानी और मतिया का भेंड़- क्यों चार जन नहीं हुए?- गोरखुआ की बात पर बाबू हँसने लगा- ‘अच्छा तो मतिया का भेंड़ भी एक ‘जन’ हो गया।’
          बाबू का जवाब सुन गोरखुआ भी हँस दिया। बाबू ने कहा - ‘सुबह उठकर झरने की ओर चला गया था। उधर से आया तो मतिया की राय हुयी जंगल चलने की,और कोई खास बात तो न थी। ’
          ‘खैर कोई बात नहीं। हाँ,मतिया बतलायी है कि नहीं- आज रात का खाना मेरे यहाँ ही है। ’
          ‘नहीं तो,मतिया कुछ बोली नहीं है,पर इसमें क्या लगा है,मतिया के घर खाऊँ या कि तुम्हारे घर। ’-बाबू ने कहा।
            ‘तो चलो तैयार हो जाओ,चला जाय। कुछ देर बातचित भी होगी वहीं। ’- चटाई पर से उठते हुए गोरखुआ बोला। बाबू भी उठ खड़ा हुआ। और दोनों चल दिये।
          चलते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘आज सुबह नानी मेरे घर गयी थी। मैंने उससे मतिया के बारे में राय जाननी चाही। ’
            ‘फिर क्या कहा नानी ने?- -बाबू ने उत्सुकता जाहिर की।
           ‘नानी कहती है- मेरे भाग इतने जागे हैं,जो बाबू से मतिया की शादी हो सकेगी?
           ‘इसमें भाग्य जागने जैसी क्या बात है गोरखुभाई? शादी तो किसी मर्द की किसी औरत से ही होती है न?
           ‘तो फिर कह दूँ नानी से ? बात पक्की रही न ?- बिहँस पड़ा गोरखुआ।
           ‘इसके लिए अभी इतनी हड़बड़ी क्या है? सबकी राय-सलाह हो जाने दो। शादी-व्याह का मामला इतनी जल्जबाजी में तय होना अच्छा नहीं। मैं क्या कहीं भागे जा रहा हूँ?’- जरा ठहर कर बाबू ने कहा- ‘एक बात और है- मतिया की राय भी तो...। ’
          ‘यह कोई बड़ी बात नहीं है। जहाँ तक मुझे भरोसा है,उसके ना कहने का सवाल ही नहीं है। अगर इच्छा ही है साफ जानने की,तो कहो आज ही मंगरिया से कहकर दरियाफ्त कर लेता हूँ। हो सकता है मन की बात हमसे कहना न चाहे। ’
          बात करते,घर पहुँच गया गोरखुआ।
    आज बाबू के स्वागत के लिए काफी तैयारी की थी उसने। खूब पूछ-पूछ कर खिलाया। बाबू ने भी छक कर खाया क्यों कि लगता था हर सामान बाबू से पूछ कर ही बनाया गया हो मानों,सबकुछ पसन्द का था।
          ‘आज तो मथुरा के चौबे जैसा खा लिया गोरखुभाई ! अब तो मुझसे चला भी नहीं जायेगा। ’- हाथ धोते हुए बाबू ने कहा।
           ‘तो क्या यहाँ खाट-विस्तर नहीं है,सो जाओ यहीं। या कहो तो कंधे पर उठाकर, मतिया के दरवाजे पर धर आऊँ। ’
           ‘अब क्या बार-बार धरोगे? एक बार तो धर दिये ऐसा कि ‘डिहवार’ की तरह डिगने का नाम नहीं ले रहा हूँ। ’- हँसते हुये बाबू वहीं खाट पर पसर गये,जो पास ही ऊख की अंगेरी वाले ‘झाले’(ढाबा) में विछी हुयी थी।
बाबू को लेटते देख,गोरखुआ भी पास में बैठ गया। तमाखू मलते हुए गप शुरु होगया। बहुत देर तक बातें होती रही। उसके लिए तो सबसे जरुरी बात हुआ करती है- गान्हीं बाबा और सुराज।
गोरखुआ जब पहुँचाने आया मतिया के घर,उस समय वह खा-पीकर सोने की तैयारी में थी। कुछ देर यहाँ भी गप्पें होती रही। मतिया ने बताया कि नानी बहुत रोने लगी थी झरने में डूबने की बात सुन कर।
गोरखुआ ने बाबू को न्योता क्या दिया,मानों पूरे गांव में छूत की बीमारी-सी फैल गयी- अगले दिन से सोहनु काकाभेरखु दादू...भिरखु काका...डोरमा...होरिया...मंगरिया   सबके यहां एक के वजाय दोनों जून जीमने का सिलसिला शुरु होगया। सुबह का जलपान मतिया के घर,और दोनों बार का भोजन किसी और के घर। एक शाम बाबू के पसन्द का, तो दूसरे शाम वनवासियों के मन का खाना... किसको ना कहते बाबू ! सब तो अपने ही हो गये थे...गैर कोई कहाँ रह गया था...?
बातचीत के सिलसिले में बाबू ने एक दिन गोरखुआ को समझाया- ‘जानते हो गोरखुभाई ! दिलों की दीवारें जब ढह जाती है...फिर अपने पराये की संकीर्ण सीमा का नामोंनिशान भी कहीं रह जाता है ?  प्रेम की चादर जब पसरती है, तो सारे संसार को अपने में समेट लेती है...धरती और आकाश की दूरी भी रह नहीं जाती...धनी-गरीब...ऊँच-नीच... गोरा-काला.. हिन्दू-मुसलमान...सिया-सुन्नी..यवन-यहूदी...पंडित-मुल्ला-पादरी...ये सब तो कच्ची मिट्टी की बिलकुल कमजोर दीवारें हैं,जिन्हें चूने-गारे से पोतपात, चमका कर,हमने अपनी दुकानें बना रखी हैं....। लाख परेशानी झेलते हुए भी हम अपनी दुकानें बन्द करने को राजी नहीं हैं... इतना ही नहीं रोज नयी-नयी दुकानें भी खुलती जा रही हैं- किसी जमाने में सिर्फ शिव और बिष्णु की दुकान थी, फिर सनातन और गैर सनातनों की दुकानें खुली...और फिर तो सिलसिला शुरु हो गया...वौद्ध...जैन...पारसी...ईसाई...इस्लाम...सिख... साई...माओ...ताओ...गांधी...लोहिया...ये सबके सब महज दुकानें ही हैं गोरखुभाई ! और कुछ नहीं है इसके अलावे। किसकी दुकान कितनी चमकदार है,किसके यहाँ ग्राहकों की कितनी भीड़ है,कौन कितना मूड़ सकता है,कितना छल सकता है- धर्म,मजहब और सम्प्रदाय के नाम पर,पार्टी और विचार-धारा के नाम पर...ये सब अलग-अलग खूँटियाँ हैं गोरखुभाईकुरता तो तुम्हारे पास बस एक ही है- परमात्मा का दिया हुआ तुम्हारा ये सुन्दर शरीर,और उसमें हाथ-पैर,आँख-कान,आदि दस मजदूरों के साथ ‘मेठ’ मन । बस इसी को सम्भालो,इसी को समझाओ। ये समझ गया,शान्त हो गया,तो समझो सब कुछ हो गया- मिल गया असली सुराज। ये सारे झगड़े-फसाद का जड़ यही है। ये जनमना-मरना भी इसी के कारण होता है। अब तुम जहाँ चाहो,जिस खूँटी पर टांग दो अपने कुरते को,क्या फर्क पड़ता है? तुम वही हो,वही रहोगे। कुछ और हो नहीं सकते। कुछ और होना भी नहीं है...। कुर्ता उतार फेंकों,और नंगे चल दो किसी एक ओर- जिधर जी चाहे। पूछो भी मत किसी से,कारण कि कोई सही राह बतलाने वाला नहीं है,जिससे पूछोगे,वह केवल अपनी दुकान का रास्ता बता देगा- कहेगा वहीं सिर्फ अच्छा सामान मिलता है,बाकी सबतो खटिया है। एक कवि हैं वच्चन जी,उन्होंने कहा है- ‘‘राह पकड़ तू एक चला चल,पा जायेगा मधुशाला...लड़वाते हैं मन्दिर मस्जिद,मेल कराती मधुशाला.....।’’ तुम्हारे गान्हीं बाबा ने शुरु में कवि के इन बातों का विरोध किया था,पर बाद में बात पल्ले पड़ गयी तो बहुत खुश हुए।’
देर से सांसे रोके गोरखुआ सुनते जा रहा था बाबू की बातें। आज उसे जी भर कर कुछ सुनने को मिला है। कोई सुनाने वाला मिला है। पी जाना चाहता है- बाबू के मुंह से निकलती रसधार को।
‘तो हमें क्या करना चाहिए बाबू? ये खूँटियां,ये कुरते वाली बात मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ी। आप कह क्या रहे हो ?
‘कह कुछ नयी बात नहीं रहे हैं गोरखुभाई! संतों ने बस एक ही बात कही है, उसे ही केवल दुहरा रहा हूँ। दुनियाँ जो देख रहे हो- कुछ नहीं है- परमात्मा है और उसका ही खेल है। हम सभी उस खेल के हिस्से हैं- खिलौने नहीं। खिलौने और हिस्से में फर्क होता है। परमात्मा तो बस एक और सिर्फ एक ही हो सकता है न? मेरा और तेरा...आदमी और इस भेड़ का परमात्मा अलग-अलग कैसे हो जायेगा? जरा सोचो तो। बस सोचो...सोचो सिर्फ शान्त मन से,थिर दिमाग से। करो कुछ नहीं,बस प्रेम का फैलाव करो। वही करो जो तुम करते आरहे हो। तुम वनवासियों का निश्चल-निश्छल प्रेम देख कर लगता है,कि परमात्मा सही में इन जंगलों और पहाड़ों में ही है;परन्तु मूर्ख-नादान इन्सान पत्थर के बने देवी-देवताओं में इन्हें ढूढ़ता फिरता है। मिला है किसी को आज तक परमात्मा? किसी को नहीं।’
‘सुनते हैं बाबू कि बड़े-बड़े महात्माओं को भगवान दर्शन देते हैं।सो कैसे?
वे झूठ बोलते हैं,अपनी दुकान की भीड़ बढ़ाने के लिए,और जो कोई बिरले सच्चा संत होता है,वह तो चुप्पी साधे बैठा होता है- क्यों कि परमात्मा के बारे में कुछ बोला ही नहीं जा सकता।ज्यूं ही परमात्मा का अनुभव होता है,आदमी बिलकुल गूंगा-बहरा सा हो जाता है,फिर वह क्या कह सकेगा कुछ? ज्यादा से ज्यादा इशारा करेगा, वस इशारा। हिन्दुओं का सबसे बड़ा धर्मग्रन्थ वेद कभी कहा परमात्मा के बारे में कि कैसा है? कभी नहीं। परमात्मा को तुम मुट्ठी में कैद नहीं कर सकते। धूप और हवा को जब मुट्ठी में बाँध कर कहीं ले नहीं जा सकते,फिर परमात्मा को क्या ले जाओगे? एक बात जान लो- परमात्मा मन्दिरों,मस्जिदों,गिरजाघरों में कभी नहीं रहता। वहाँ तो नासमझी की बदबूदार सड़ांध है सिर्फ।
‘और बाबू ये सुराज?- गोरखुआ ने सवाल किया।
‘मैंने कहा न अभी-अभी,ये सुराज भी जमीन पर खींची गयी लकीरें हैं- पानी पर खींची गयी लकीरों जैसी। इसका कोई मायने-मतलब नहीं है। आज यहाँ खीच दो, कल वहाँ खींच लो। पांच फुटी कच्ची मिट्टी की काया में परमात्मा का जो ये अंश कैद है,उसे मुक्त करो,उसे सुराज दिलाओ। असली सुराज भी वही है। तुम जो हो,उसे वस जान भर लो। सुराज मिला हुआ है,लेना नहीं है। जानना सिर्फ है। परमात्मा और सुराज को ढूढ़ने निकलोगे तो छटपटाकर मर जाओगे,जैसे यदि सागर को ढूढ़ने की बेवकूफी में कोई मछली पड़ जाये।’

और इसी तरह की बातों में बाबू का दिन गुजरने लगा। बीसियों दिन यूँ ही निकल गये। बाबू ने सबका दिल चुरा लिया था। बाबू भी रम गये –रमता जोगी की तरह,यहाँ सांझ, वहाँ सबेरा। आसपास के गांवों तक भी बाबू की चर्चा पहुँच चुकी थी। दादू के चौपाल की भीड़ भी बढ़ने लगी। कोई नहीं चाहता था कि बाबू यहाँ से जाये। इसी बात पर एक दिन दादू ने कहा- ‘इसी लिए तो बाबू को अब यहीं का बना रहा हूँ- मतिया से ब्याह करके।’
इस बीच बाबू ने भी काफी टटोला अपने मन को,साथ ही बहुत मौका मिला जानने-समझने का मतिया और गांव वालों के बारे में। बाबू ने पाया कि मतिया के साथ विवाह की बात कोरी भावुकता नहीं,बल्कि ठोस नपा-तुला कदम है। मतिया के साथ-साथ प्यार के पग बढ़ाकर बाबू ने कोई गलती नहीं की है- ऐसा उन्हें लगने लगा।
किन्तु जहाँ तक अपनी बात थी,बाबू ने भरसक कोशिश की छिपा ही रहने की,अपने मन की बात को। शुरु-शुरु में डोरमा,होरिया,गोरखुआ आदि जवां टोली ने काफी जोर दिया कि बाबू साफ-साफ कह डाले अपनी बात,क्यों कि लोगों को बड़ी बेसब्री होने लगी थी। पर बात बनती न देख इस विषय पर चर्चा फिर कम होने लगी। हाँ,यह बात सबके मन में जगी रही कि मतिया और बाबू की शादी जल्दी हो जाती तो बढ़िया होता। मगर मन की मन में ही दबी रही। हर बार बाबू ने यह कह कर टाला कि समय आने पर सबकुछ हो जायेगा।
मंगरिया को कहकर गोरखुआ ने मतिया के मन की बात जान ली थी। पहले तो मतिया काफी छमक-छुमक की,किन्तु बाद में पूरी बात दिल खोल कर मंगरिया से कह डाली- ‘कौन लड़की नहीं चाहेगी मंगरिया कि उसे अच्छा सा आदमी मिले,और बाबू तो फिर बाबू है- हीरे की कन्नी को कौन नहीं चाहेगा अपनी अंगूठी में जड़ लेना? सबकी इच्छा है ही, नानी चाहती ही है,फिर मुझे क्यों एतराज होने लगा...परन्तु...।’
‘क्या बात है? तू साफ से कहती क्यों नहीं मुझसे? यदि कोई परेशानी वाली बात होगी तो जहाँ तक बन पड़ेगा, मैं और गोरखुआ मिलकर सलटाने की कोशिश करेंगे। आखिर तू मेरी प्यारी....।’
मंगरिया की बात पर मतिया का चेहरा थोड़ा मुरझा सा गया। लम्बी सांस भरकर बोली- ‘क्या सुलझाओगी बहिनपा! उस रात जो सपना देखी थी,अभी तक दिल से निकाल नहीं पायी हूँ- सपने के डर को।’
‘ सपना? ’चौंक कर बोली मंगरिया- ‘धत्ततेरे की! उस सपने की अभी तक माला जप रही है तू ?
‘सपना तो सपना था- मान ली तुम्हारी बात- आँखें खुली और गायब;परन्तु दूसरे दिन की वह अनहोनी घटना! उसे भी क्या सपना कह कर टाल दूँ? ओफ! उस दिन यदि बाबू न होता तो मेरी जान चली ही गयी होती। ’
‘और उस दिन तुम ना होती तो क्या बीच जंगल में पड़े चुटीले शहरी बाबू की जान न चली गयी होती?  दोनों ने एक दूसरे की जान बचायी है- यह भी तो एक बड़ा संयोग है। अब अच्छा यही होगा कि तुम दोनों जीवन भर के लिए एक-दूसरे की हो जाओ,और एक दूसरे की जान बचाती रहो।’- मंगरिया ने समझाया।
‘पर, क्या बाबू चाहेगा मुझे?-मतिया कह ही रही थी कि मंगरिया बीच में ही बोल पड़ी- ‘ क्या बात करती हो,बाबू तो जगे में भी तुम्हारे ही ख्वाब में रहता है। सामने पड़ने पर देखती नहीं हो,पलकें झपकना भूल जाती हैं। उनका बस चले तो तुम्हें उठाकर अपने कुरते की ऊपर वाली जेब में डाल ले,जो दिल के बिलकुल पास होती है..।’
 ‘धत्त! तुम तो ऐसा न कहती हो...’- मतिया लजाकर अपना सिर छिपा ली मंगरिया के कंधे पर।
‘कहती क्या हूँ झूठ-मूठ की ? बाबू सिरफ ऊपर से भोला-भाला बने रहते हैं,भीतर जरा झांक कर देखो तो पता चले कि कितनी हलचल है,कितनी बेताबी है तुम्हें पाने की।’
‘तो क्या तुमने देखा है,बाबू के दिल में झांककर?’- मतिया मुस्कुरायी।
‘देखी नहीं, तो क्या तुम्हारी तरह अन्धी हूँ ? किसी को किसी से प्यार हो जाये,यह छिपी रहने जैसी है ? प्यार का इजहार तो आँखें कर देती हैं। ’ – मुस्कुराती हुयी मंगरिया मतिया की आँखों पर अपनी अंगुली से इशारा करती हुयी बोली- ‘तो रही पक्की बात। आज ही मैं जाकर सबसे कहे देती हूँ कि मतिया और बाबू दोनों तैयार हैं व्याह करने को,और सोहराय के बाद ही यह शुभ काम कर लिया जाय।’
‘सबसे क्या कह दोगी, पगली हो गयी हो क्या? मुझे बदनाम करोगी?’- घबरानी सी सूरत बनाये मतिया चिपट गयी मंगरिया के सीने से।
‘बदनामी की कौन सी बात हो गयी रे ? असल में तुमसे जानने के लिए मुझे कहा था किसी ने।’- मंगरिया ठठाकर हँसती हुयी बोली- ‘और मैंने जान ली तुम्हारे मन की बात। अब घबराती क्यों हो सोनुआ रानी ! चोर तो पकड़ा गया...शोर तो मचेगा ही।’
‘खूब पकड़ा तुमने चोर। जानती हूँ- ये सब खुराफात किसकी है।’- मंगरिया के गाल पर प्यार से चपत लगाती हुयी मतिया ने कहा।
‘किसकी है बता तो सही। बड़ी लालबुझक्कड़ बनी है।’- दोनों हाथों से मतिया के दोनों गालों को दबोचती हुयी मंगरिया ने कहा।
‘खुराफाती तुम्हारा ही अपना है...।’- मतिया मुस्कुरायी- ‘ क्यों गलत है मेरा अंदाजा?  यह सब शैतानी गोरखुभाई के सिवा किसी और की हो ही नहीं सकती। मेरी बात तुमसे जानेगा,फिर पूरे गांव में ढिढोरा पीटेगा कि मतिया प्यार करती है पलटनवां बाबू से।’
‘प्यार करती ही है,तो कौन सा गुनाह करती है? उमर ही है प्यार करने की। क्या वही नहीं करता मुझसे?- मंगरिया लिपट गयी मतिया से,और चूम ली उसके होठों को।
मतिया के मन की बात खुलकर जान ली गयी। मतिया से मंगरिया,मंगरिया से गोरखुआ,और फिर वे सारे लोग,जो इच्छुक थे,किन्तु बाबू कुछ कहे तब न बात बने आगे, क्यों कि अपने मन की बात साफ होकर बाबू ने कभी नहीं कहा। इसी सोच विचार में गोरखुआ जाल बुनता रहा,किसी तरह बाबू और मतिया की शादी हो जाय। बाबू यहीं बस जाये गुजरिया में ही,ताकि गुजरिया वालों का भला हो सके।

गुजरिया में बाबू को आये हुए महीने भर गुजर गये। महीना भर का लम्बा समय कैसे उड़ गया पंख लगाकर,इसका पता न बाबू को चला,और न गांव वालों को। देश में सुराज भले न आया हो,पर गुजरिया में तो सुराज ही सुराज है। गोरखुआ के लिए तो सिर्फ दो ही चीजें रह गयी हैं दुनियां में- गान्हीं बाबा और पलटनवां बाबू।
एक दिन गोरखुआ ने कहा- ‘बहुत दिनों से सोच रहा हूँ बाबू कि कहीं घूमने-घामने चला जाय।’
‘वैसे तो रोज ही घूम रहे है,मगर यह घूमना कोई घूमना है? ’- मस्कुराकर बाबू ने कहा- ‘कहां चलने का विचार है गोरखुभाई ?
 ‘यहां रहते इतने दिन होगये। इधर के करीब-करीब पूरा जंगल,नदी,पहाड़,झरने सब तो देख ही लिये बाबू मगर सबसे जरुरी चीज अभी अछूती ही रह गयी है।’
‘सो क्या?-उत्सुकता पूर्वक बाबू ने पूछा।
‘गुजरिया का पुराना बंगला,जहां कभी रहती थी हमारी जुगरिया। वहीं साहब का बनवाया हुआ एक पुराना गिरजाघर भी है,और वहां से थोड़ा और आगे जाने पर एक मंदिर भी है- शंकर देव का।’- गोरखुआ ने बाबू को बतलाया।
 ‘शंकर देव यानी कि भगवान शिव का मन्दिर है ? तब तो जरुर चलेंगे। बंगला भी देख लेंगे,गिरजाघर और गिरजापति का मन्दिर भी।’
बाबू की बात पर हंस कर गोरखुआ बोला-‘गिरजाघर तो सही में है,पर गिरिजापति के  मन्दिर में भोलेबाबा नहीं हैं। शंकरदेव तो हमलोग जैसे ही एक वनवासी थे। बहुत पहले हुए थे,उन्हीं का स्थान है। बहुत-बहुत बढ़िया-बढ़िया बात जानने कहने वाले को हमलोग देव ही कहते हैं। अभी भी लोग जाते हैं,जब किसी का कोई काम अटकता है। वहां जाकर गंडा बांधते हैं,और मन्नत करते हैं,मुराद पूरी होने के लिए। ’
 ‘बात तो सही है गोरखुभाई! आदमी में अच्छे गुण हों,अच्छी बात करे,तो फिर उसमें और देवता में अन्तर ही क्या रह जाये? सच पूछो तो देवता कोई अलग नहीं,अच्छे गुण और व्यवहार का चिह्न है देवता,और बुरे व्यवहार का चिह्न है राक्षस।’
‘मेरा विचार है कि कल हमलोग वहीं चले बाबू।’- गोरखुआ ने कहा,तो बाबू ने सिर हिलाकर स्वीकार किया-‘हां,तो हर्ज ही क्या है,चला जाय कल ही।’
बाबू के पूछने पर कि और कौन-कौन साथ चलेगा,गोरखुआ ने बतलाया कि मंगरिया और मतिया तो पहले से ही तैयार है,क्यों कि उसने कई बार पहले भी कहा है चलने को। हो सकता है डोरमा और होरिया भी चले। और बात पक्की हो गयी अगले सुबह की।
अगले सुबह ही सभी चल पड़े सैर को। खाने-पीने का सामान साथ में लेलिया गया। मौज-मस्ती में जवानों की टोली चल पड़ी।
मतिया और मंगरिया दोनों हाथ जुड़ाये चल रही थी। गोरखुआ और बाबू आगे-आगे, उनके साथ ही डोरमा और होरिया भी। मतिया का भेड़ तो सबसे आगे चल रहा था,मानों सही रास्ता उसे ही मालूम हो।
पहर भर में सभी साहब के बंगले पर पहुँच गये। जुगरिया की बहुत कुछ बातें बाबू को मालूम हो ही गयी थी। साहब के बंगले में पहुँच कर बाबू को अजीब सा अनुभव हुआ।
कल और आज के बीच समय की लम्बी गहरी दरार थी,किन्तु समय के थपेड़े सहता, साहब का बंगला आज भी काफी हद तक ठीक-ठाक नजर आया। खण्हर के भीतर अभी भी कई कोठरियां बच रही थी,जो सिर उठाये,साहब के काले कारनामों की कहानी सुनाने को ललक रही थी।
          मतिया बचपन में एकाध दफा आयी थी इधर,मंगरिया भी। होरिया और डोरमा को आने का मौका न मिला था। गोरखुआ का तो चप्पा-चप्पा छाना-जाना था।
          ‘पहले नहा-धोआ लिया जाय। रास्ते की थकान मिट जायेगी। ’- बाबू ने कहा तो मतिया और मंगरिया एक साथ मुस्कुरा उठी एक दूसरे को देखती हुयी, ‘लगता है बाबू को भूख लग गयी है,आते ही आते नहाने की सूझने लगी। ’
           ‘नहा लेने से अच्छा ही होता। ’-कहते हुए गोरखुआ ने बतलाया-‘बंगले के पीछे से होकर एक रास्ता है,जिसमें बहुत करीब ही एक सुन्दर झरना है। जंगल,पहाड़ और झरने की मोहकता ने ही जंगल के ठेकेदार साहब को शायद यहाँ आबसने का न्योता दिया हो। उधर हमारे तरफ झरने तो कई हैं,चश्मे भी हैं, किन्तु उनका मजा केवल बरसातों में ही है। गर्मियों में चश्मा तो बिलकुल सूख ही जाता है,झरने में भी खास दम नहीं रहता,परन्तु यह झरना सालों भर एक सा मजा देता है। सुनते हैं कि साहब के समय गोरों का भारी जमघट यहाँ लगता रहता था।’
          बंगले के अहाते से बाहर आकर,पीछे की ओर चल पड़े सभी। थोड़ा आगे बढ़ते ही कानों में अजीब आवाज गूँजने लगी। ज्यों-ज्यों लोग आगे बढ़े,ऐसा लगने लगा कि बहुत से जंगली हाथी आपस में जूझ रहे हैं,जिनके चिघ्घाड़ से उस ओर का पूरा जंगल गूंज रहा था। आवाज पर गौर कराते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘घबराओ नहीं बाबू! ये हाथियों का चिघ्घाड़ नहीं है। ’
           ‘सो तो कुछ-कुछ मुझे भी लग रहा है। तो क्या ये आवाज झरने की ही है?
          ‘ हाँ बाबू झरना अब बिलकुल पास आगया है,बस उस झरमुट के पास पहुँचे कि झरना दीख गया।’- सामने की झुरमुट को दिखाते हुए गोरखुआ बोला।
          टोली थोड़ी और आगे बढ़ी। आवाज पल-पल तेज और स्पष्ट होती गयी- अब चिघ्घाड़ कल-कल में बदल गया। अन्त में आवाज इतनी तेज होगयी कि आपस में बातें करना भी मुश्किल होने लगा।
पास पहुँच कर,साथ लाये सामानों को एक डाल से लटकाकर,बैठ गये सभी। झरने पर निगाह पड़ते ही बाबू थिरक उठा, ‘ओह! इतना मोहक! सच में बड़ा ही रमणीक है। झरने तो कई देखे,किन्तु यह झरना तो अपने आप में बेमिसाल है। ’
ऊपर नजरें उठाकर बाबू ने उसकी ऊँचाई का अन्दाजा लगाया- कोई ढाई-तीन सौ फुट से कम नहीं रहा होगा। इतने ऊँचे से गिरते पानी का शोर इतना तेज न हो तो क्या हो। आसपास का बतावरण इतना पवित्र और मोहक था कि अनायास ही स्वर्ग की कल्पना की जा सकती थी।
बहुत देर तक देखते रहे बाबू,कभी बैठकर,कभी खड़े होकर,कभी चल कर,कभी झुक कर,कभी सीधे होकर। मानों झरने की हर कोण से तसवीरें कैद करना चाह रहे हों अपनी आँखों में। धुने हुए रुई की तरह वेग से गिरती उड़ती पानी की धार पर सूरज की किरणें पड़ती तो ऐसा लगता कि चांदी के चूर चमक रहे हों। पानी और पत्थर का विचित्र तमाशा- पागलों की तरह उछलना,कूदना,धूम मचाना।
अचानक कंधे पर हाथ रख,गोरखुआ ने कहा- ‘इतने ध्यान से क्या ढूढ़ रहे हो इस कलकलाहट में बाबू?
 ‘देख रहा हूँ इस नीचे वाले पत्थर को...। ’- हाथ के इशारे से बाबू ने कहा- ‘ओफ! कैसी सहनशीलता है उसमें। न जाने कितने युगों से पड़ रही है पानी की तीखी बौछार उस बेचारे पर,किन्तु जरा भी डिग नहीं रहा है। यह तो यह,जरा उस ऊपर वाले पत्थर को तो देखो...। ’- बाबू के इशारा करने पर गोरखुआ का ध्यान ऊपर वाले पत्थर पर गया,जहाँ पत्थर की दरारों से झर-झर कर पानी नीचे आ रहा था- ‘यह पानी नहीं,पत्थर का दिल है गोरखुभाई! कठोरता का प्रतीक पत्थर, किन्तु उसका भी दिल पिघल सकता है! पत्थर घिस रहे हैं,पानी के अनवरत रगड़ से,तो उससे चांदीकी वर्षा हो रही है। काश ! इन्सान भी ऐसा ही हो पाता। इतना ही सहनशील,इतना ही कठोर,इतना ही कोमल भी...। कठोरता है,पत्थर से भी अधिक,पर कोमलता ? ! जरा भी नहीं। छल-कपट,स्वार्थ ओह ! सब बह जाते भारी बहाव में वशर्ते कि इन्सान का दिल इस काबिल होता....। ’
‘क्या कह रहे हो बाबू ! मैं कुछ समझा नहीं। ’- बाबू का मुंह ताकता गोरखुआ बोला।
‘नहीं समझने जैसी कोई बात तो मैं नहीं कह रहा हूँ गोरखुभाई!
होरिया और डोरमा दूसरी ओर कहीं निकल गये थे। मतिया और मंगरिया वहीं बैठी गोटियां खेल रही थी- एक चट्टान की आड़ में।
‘वह देखो...। ’- अंगुली से बताते हुए बाबू ने कहा- ‘वह जो काला सा छोटा टुकड़ा नजर आरहा है,पानी के टकराव में ऊपर उठती लहर बारबार उसे ढक लेना चाहती है,मानों मां अपने आंचल में बच्चे को छिपाना चाह रही हो; किन्तु पीछे से धक्का लगता है,और लहर आगे गिरकर,पानी की धारा में बदल जाती है। बारबार यही हो रहा है- दोनों का प्रयास एक ही ढंग से हो रहा है,पर दोनों ही विफल भी हो रहे हैं। लगता है,गोरखुभाई कि यह झरना मेरे जीवन की कहानी कह रहा है।ओफ ! इन्सान पत्थर से भी कठोर...काश ! ….।’- बाबू उदास और मौन हो जाता है। कभी ऊपर नजरें उठाकर,झरने की ऊँचाई नापता है,तो कभी नीचे देखकर,गिरने वाले पानी की धार का वेग...कलकल...झरझर...का अनवरत स्वर चारों ओर गूंज रहा है। जंगल की हरियाली और पहाड़ों की सुन्दरता और उनके बीच चहल कदमी करते  जंगली जीव- एक साथ घुमक्कड़ों और शिकारियों के लिए मानों निमंत्रण- पत्र लिए खड़े हैं। बाबू खो सा गया इस मनोहर वातावरण में। गोरखुआ एकटक निहारे जा रहा है बाबू के चेहरे को,कि तभी अचानक उसे भी कुछ सूझ जाता है।
‘यह झरना ही तो हमारे लिए जीवन-संदेश है बाबू ! कठिन मेहनत करना,परेशानी से घबराना नहीं,जरा भी विचलित नहीं होना- इस झरने ने ही सिखाया है हमें। बड़ी से बड़ी रुकावट को भी अपनी मेहनत,लगन और कोशिश  तथा एकता से दूर किया जा सकता है।’
‘हाँ गोरखुभाई ! आज लगता है तुम्हें भी कुछ हो गया है। सच कहा गया है- प्रकृति अपने आप में विचित्र है- छोटी-छोटी वर्षा की बूंदें बादलों से अपने वियोग को याद कर यदि रोती-कलपती रह जायें तो शायद कुछ भी न हो पाता,किन्तु वही बूंदे एक साथ मिलकर, नदी की धारा बनती हैं,और तब उसमें चट्टान को भी तोड़ने की ताकत आजाती है। पहले धीरे-धीरे पतली धार होगी दरार में,जो धीरे-धीरे बढ़कर आज इस झरने का रुप ले लिया है-क्यों ऐसा ही तो कुछ हुआ होगा न?
‘ हाँ बाबू! हमारे गान्ही बाबा भी तो ऐसे ही हैं। धीरे-धीरे सबको इकट्ठा करके,बड़ी सी हस्ती का सामना करने को सोच रहे हैं। पहले जरा सा मौका तो मिले। फिर दिखा देंगे कि हम क्या हैं,कितनी ताकत है हमारे बाजुओं में। सही में यह पत्थर क्या कभी सोच पाया होगा बाबू कि मेरी छाती को चीर कर पानी की धार बह निकलेगी?
‘वाह गोरखुभाई कमाल की सूझ है तुम्हारी भी। ठीक कहा गया है,सोचने के लिए बातावरण चाहिए- प्रकृति की गोद में बैठ कर ही सही सोचा जा सकता है,प्रकृति की महानता के बारे में,न कि कंकरीट के जंगलों में,सरिया का छाता लगाकर। पहले के लोग प्रकृति के बिलकुल समीप थे,क्यों कि प्रकृति उन्हें प्यारी थी। आज ऐसा कहां होता है? बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में, बैठ कर गरीबी,और भूखमरी की चर्चा कितनी सार्थक हो सकती है? बिजली की चकाचौंध में बैठकर अन्धेरे पर क्या विचार किया जा सकता है-  सोचने वाली बात है। महानगरों में रहने वाले प्रकृति की इस लीला का रहस्य क्या जान पायेंगे?’
 ‘हाँ बाबू ! इसीलिए तो गान्ही बाबा गांव-गांव घूम-घूमकर गरीवों का दुख-दर्द समझ रहे हैं।’- थोड़ा ठहरकर गोरखुआ बोला- ‘मगर बाबू,अभी जो आपने कहा- यह झरना मेरे जीवन की कहानी कह रहा है....आपके जीवन में भी कुछ ऐसी-वैसी विचित्र बात हुयी है क्या ?
          ‘जीवन तो हर किसी का विचित्र होता ही है गोरखुभाई ! एक उसपर ध्यान देता है,और दूसरा बेपरवाह,होकर टाल जाता है। खुद को भुलाने की कोशिश करता है। सच पूछो तो मैं भी स्वयं को भुला ही तो रहा हूँ।’- उदासी पूर्वक बाबू ने कहा।
          ‘सो कैसे बाबू ? आज तुम्हें क्या हो गया है? बहुत उदास भी हो। कुछ पुरानी बातें याद आ रही है क्या?- प्रेम से, पीठ पर हाथ फेरता हुआ गोरखुआ ने पूछा।
          ‘किसे भूलू ,किसे याद करुँ गोरुखुभाई ! आज इस झरने ने बीते दिनों की बहुत-सी यादें ताजा कर दी।’- बाबू की आँखें डबडबा आयी- ‘छोड़ो जाने भी दो। होना क्या है उसे याद करके...।’
          ‘कुछ मैं भी तो सुनु यदि सुनने-जानने लायक मुझे समझते हो। क्या मैं तुम्हारी कुछ मदद नहीं कर सकता ? गम आँखिर किस बात के लिए है ? हर बार हम जानने की कोशिश करते है,परन्तु आप टाल जाते हैं। कभी कुछ बताना-कहना जरुरी नहीं समझते। ’
          बातें होही रही थी कि होरिया और डोरमा कंधे पर एक खरगोश टांगे आ पहुँचे। उन्हें आते देख मतिया और मंगरिया भी गोटी फेंक,उठ खड़ी हुयी।
          ‘वाह ! तो अभी तक आपलोग झरना ही देख रहे हैं बाबूमन ?’- होरिया ने खरगोश को नीचे पत्थर पर रखते हुए कहा- ‘नहाना-धोआना नहीं है क्या?
          ‘बाबू को तो कब से भूख लगी थी,पर झरना देखते ही भूख भाग गयी।’- मंगरिया ने
हँस कर कहा।
          ‘बाबू की भूख भाग गयी तो भागे,मैं तो नहीं जाऊँगा उसे पकड़ने,क्यों कि मुझे खुद ही भूख बड़ी जोर की लगी है। अभी इस खरगोश को भूनूंगा। मगर पहले आपलोग नहा लें,तबतक इधर मैं सब ठीक किये देता हूँ।’- डोरमा बोला।
          ‘चलो भाई नहा ही लिया जाय। भूख तो सही में भाग गयी थी झरना देखकर।’- खड़े होते हुए बाबू ने कहा,और गोरखुआ का हाथ पकड़कर बढ़ चले चट्टान से नीचे उतर कर झरने की कलकल करती धारा की ओर। मतिया और मंगरिया भी कपड़े उठाकर एक ओर चल दी नहाने।
          बहुत देर तक नहाते रहे सभी। झरने के ठंढे पानी का आनन्द लेते रहे। नहाने से बाबू का मिजाज भी तरोताजा हो गया। पहले जो ऊल-जुलूल बातें दिमाग में आ घुसी थी, झरने के बहाव में बह गयी शायद।
          ये सभी नहा कर ऊपर आये तो देखा- डोरमा खाने की तैयारी पूरी कर चुका है। कुछ पत्ते तोड़कर पत्तल भी बना लिया है। पत्तो से ही बुनकर एक झारी भी बना रखा है,जिसमें पानी लाकर वहीं रख छोड़ा है।
          ‘मैं अभी आया नहाकर।’-कहता हुआ डोरमा तुरन्त चल पड़ा वहां से। बाकी लोग कपड़े बदल,वहीं बैठ इन्तजार करने लगे,डोरमा जल्दी आये तब खाना-पीना हो।
          डोरमा के आने पर सबने मिलकर खाना खाया। थोड़ी देर तक वहीं ढोंके पर लेट कर तो,कोई हरी-हरी घास पर पसर कर आराम फरमाये। बाबू एक टक झरने को ही निहारता रहा- झरने का उछलना,उठना,गिरना।
          ‘अब चला जाय। अभी बहुत घूमना है।’- कहा गोरखुआ ने तो सभी चटपट उठ खड़े हुए। बाबू भी बेमन से धीरे-धीरे उठे। मानों कोई जबरदस्ती कर रहा हो।
          ‘मुझे तो जाने की इच्छा ही नहीं होरही है यहां से।’- कहा बाबू ने खड़े होते हुए,तो
गोरखुआ हंसते हुये बोला-‘ इसीलिए तो कहता हूँ बाबू कि मतिया से शादी कर,आ बसो यहीं। एक बंगला साहब ने बनाया था,एक तुम भी बनवा डालो...।’
          ‘और फिर साहब की तरह ही किसी मासूम का...।’- कहती हुयी मंगरिया हँस पड़ी मतिया के कंधे पर ठोंकती हुयी।
          ‘छी-छी ! क्या बकती हो ? बाबू को भी साहब समझ ली हो ?’- खिसियानी सी सूरत बना कर गोरखुआ ने कहा- ‘ इस शोख घोड़ी को बोलने का भी सऊर नहीं है।’
         
वहां से सभी वापस आये बंगले की सैर को। बाबू को बंगला पहली ही नजर में आकर्षक लगा था। गोरखुआ घूमघूम कर बतलाता जा रहाथा- ‘ये देखो बाबू, इसी में वह पापी साहब रहता था...इसमें उसका नौकर...खानसामा...इसमें माली...पहरेदार...ये उधर कतार में जो ढही हुयी कोठरियां मालूम पड़ रही है...ये वरामदे...इन्हीं में हमारे बुजुर्ग पुरखों का गुजर-वसर होता था...और यह जो कोठरी देख रहे हो न...अब एक दीवार बची है सिरफ...जुगरिया रहती थी इसी में अपने मां-बाप के साथ...मारने के बाद साहब की लाश यहां गाड़ी गयी थी...चलते समय पहरेदार ने देख लिया था...उसे तो नाले में बहा दिया गया था कामतमाम कर। यहां से भाग कर कई दिनों तक लोग परिवार सहित जंगलों में, कन्दराओं में छिप रहे...फिर धीरे-धीरे निकलकर इधर-उधर जा बसे...जुगरिया की याद में ....यह उजाड़ भूतहा बंगला....।’- गोरखुआ बहुत कुछ बतला गया। खण्डहर के ईंट-रोड़ों से उसे लगता है काफी परिचय था।
          बात तो बहुत पुरानी थी,पर गोरखुआ,जिसका पुश्त-दरपुश्त सुनते आया था,कुकर्म की कुरुण कहानी,कुछ ऐसे ढंग से सुना गया मानों आज की बात हो। सुनकर सबकी आँखें छलछला आयी। रुंधे गले से कांपती आवाज में बाबू ने कहा- ‘दुनियां बड़ी अजीब है गोरखु भाई । नाशवान शरीर के लिए इतना कुछ...अमर कीर्ति के लिए ...?
          बंगले की सैर के बाद उसके दाहिनी ओर का रास्ता पकड़ा लोगों ने- शंकरदेव के
स्थान तक जाने का। रास्ते में बातचीत होने लगी। बाबू के दिमाग में जुगरिया की कहानी घूमती रही। उन्हें लगा, अभी भी उसकी तड़पती रुह भटक रही होगी इस बंगले में,इन्हीं जंगलों में। जुगरिया की बात याद कर,साथ चल रही मतिया की याद आयी,और फिर खोते चले गये उसी में....।
           ‘तब बाबू कुछ सोचा आपने?- पूछा गोरखुआ ने तो चौंक उठे बाबू। मतिया का
ख्वाब अचानक टूट गया- ‘ क्या ? कौन सी बात सोचने की कह रहे हो गोरखुभाई ?’- बाबू ने फिर पूछा।
           ‘वही, मतिया के बारे में, और क्या सोचने को कहूंगा ? कहा था न अच्छी तरह सोच-विचार कर कहने की बात। ’
           ‘और लोग क्या कहते हैं?’- बाबू ने पूछा।
          ‘वाह-वाह ! अभी और लोगों की दुम अटकी ही हुयी है बाबू ? हम सब बेचैन हैं कि आप हरी झंडी दिखायें,और आप कहते हो कि....।’
          ‘मतिया क्या कहती है  ?-बाबू ने मुस्कुरा कर पूछा- ‘उस दिन जरा सी चर्चा भी चली तो फिर बात बदल गयी। नाटाटोली के लोग आगये।’
          ‘सो तो उसी दिन उसकी इच्छा जान ली मैंने। कहो तो फिर दुहरवा दूँ। मंगरिया तो है ही।’- कहते हुए आवाज दी- ‘मंगरिया ओ मंगरिया ! जरा इधर तो आ।’ मंगरिया और मतिया कुछ पीछे थी। गोरखुआ के हांक पारने पर मंगरिया झपटकर आगे बढ़ी। मतिया शायद समझ गयी थी कि उसकी ही कोई बात है,इस कारण पीछे ही रह गयी।
          गोरखुआ ने बाबू से फिर पूछा- ‘किन्तु क्या आपको इतने दिनों में कभी मौका ही नहीं मिला मतिया से पूछने-जानने की,या कि आपने इसका जरुरत ही नहीं समझा ?
          ‘समय और मौका तो बहुत मिला- महीने भर से ज्यादा। सारा दिने जंगलों में
भटकना-घूमना साथ-साथ ही तो होता रहा। जरुरत भी महसूस करता रहा पूछने की,किन्तु खुलकर कभी पूछ न पाया,और न उसने ही कभी उकसाया इस बात पर।’
          ‘ठीक है। तो आप जिस काम को महीने भर में पूरा न कर सके,उसे हम अभी,यहीं बस चुटकी बजाकर हल किये देते हैं।’- गोरखुआ ने हँस कर कहा। इसी बीच मंगरिया भी पास आगयी। आते ही बोली- ‘क्या बात है?
          ‘उस दिन मतिया से जो बातें हुयी,जरा सुना दो बाबू को,क्यों कि अभी तक मतिया की राय की खूंटी गाड़े बैठे हैं बाबू।’- गोरखुआ के कहने पर हंसती हुयी मंगरिया ने कहा- ‘इतनी सस्ती है मेरी मतिया की राय ?  सो सब नहीं चलने को है बाबू ! पहले वादा करो- मेरी बात मानोगे,तब तो मैं कुछ कहूंगी,नहीं तो चली।’- कहती हुयी मंगरिया दो पग आगे बढ़ गयी।
          ‘बड़ी शरारती छोरी है। कहेगी या वचन ही लेती रहेगी बाबू से ?- मीठी झिड़की दी गोरखुआ ने।
          ‘नहीं,पहले वादा,फिर कोई बात।’- फिर से साथ होकर मंगरिया ने कहा।
          ‘अच्छा बाबा। दिया वचन। किया वादा- जो कुछ कहोगी,मानूंगा। मंगरिया देवी की आज्ञा सिर-आँखों पर। अब तो कुछ बोलो-कहो।’- ऐसे भाव बनाकर बाबू ने कहा कि दोनों हँस पड़े। बातों में दिलचस्पी लेते,डग बढ़ाते होरिया और डोरमा भी नजदीक आगये,जो कि अब तक वे दोनों पेड़ों पर देखते चल रहे थे- कि किधर कौन सी चिड़िया बैठी है। डोरमा के हाथों में गुलेल था,जिसके बदौलत अब तक कई परिंदों की जान जा चुकी थी।
          लम्बी चौड़ी भूमिका के बाद मंगरिया ने उस दिन की पूरी बात सुनाई,वो भी कुछ नमक-मिर्च-मसाले के साथ। सुनकर बाबू के विचारों की गति और भी तेज हो गयी। वैसे भी महीने भर में मतिया के बारे में बहुत कुछ जान-समझ चुके थे बाबू। दिनोंदिन मतिया उनके करीब आती जारही थी। मन ही मन मतिया के निश्चल-निश्छल प्रेम और समर्पण की सराहना करने लगे थे बाबू।
उस दिन की पूरी बात सुना, मंगरिया बोली- ‘ तब बाबू ! अब क्या कसर है ? जल्दी बजाओ न बाजा।’
 ‘और तुम कब बजा रही हो? आओ तुमदोनों की गांठ आज ही बांध दूँ।’- हँसते हुये बाबू ने कहा,और हाथ बढ़ाकर दायें-बायें चल रहे गोरखुआ और मंगरिया के कपड़े पकड़, गांठ लगा दी। साथ चलते डोरमा और होरिया हँसने लगे बाबू की इस हरकत पर। पीछे सिर झुकाये चली आरही मतिया भी झपटकर आगे आगयी,और ताली बजाकर हंसती हुयी बोली- ‘वाहरे पलटनवांबाबू ! वाह-वाह ! ठीक किया आपने। बहुत उछलती थी मंगरिया। अच्छा किया- मजबूत खूँटे से बांध दिया इसे।’
मतिया के कहने पर सभी का ठहाका एक बार फिर गूंज उठा घने जंगल में,और गूंजता ही रहा कुछ देर तक- पहाड़ों से टकरा-टकराकर। गूंज और टक्कर का साझीदार शंकर देव का मन्दिर भी बना,कारण कि वह भी समीप ही था।
दूर से ही किलानुमा खण्डहर नजर आने लगा था। नवजवानों की मस्त टोली हँसी-चुहल करती वहां पहुँच गयी। देखा तो लम्बी-चौड़ी चहारदीवारी के अन्दर घने गुंजान में नजर आया एक इमारती खंडहर,जिसे समय ने ठोकर मार-मारकर काफी बूढ़ा बनाने की कोशिश की थी,पर बहुत कामयाब न होपाया था,क्यों कि समय-समय पर श्रद्धालुओं की सेवा ने जवानी का रस पिला-पिला कर मरने से बचा लिया था इस खंडहर को।
भारी-भरकम इमारत के बीचो-बीच एक बड़ा सा कमरा था,जिसके ऊपरी भाग में मन्दिर का आकार बना हुआ था। देखने से साफ जाहिर होता था कि इमारत काफी पुरानी है। वनवासियों की कई पीढियों का इतिहास याद है इसे,किन्तु ऊपर बना मन्दिरनुमा आकार कुछ पिछड़ा है इस मामले में- कक्षा में पिछले बेंच पर वैठने वाले विद्यार्थियों की तरह। शायद बहुत बाद के किसी भक्त ने इसे बनवाया हो।
‘हमारे ही पुरखों में किसी एक को सपना दिया था शंकरदेव ने। उन्होंने ही यहाँ आकर इस लम्बी-चौड़ी इमारत की मरम्मत करवायी थी। थे तो वे बहुत गरीब,किन्तु शंकरदेव ने सपने में जिस गड़े धन की जानकारी दी थी,उसी बूते पर आज तक हमलोग मौज करते आ रहे हैं। अभी भी साल में एक बार सोहराय के दिन यहां आकर झाड़-बुहार,साफ- सफाई,मरम्मत आदि कर जाते हैं हमलोग।’- कहता हुआ गोरखुआ इमारत की बाहरी दीवार से सटी सीढ़ी पर आगे-आगे चढने लगा,जिससे होकर ऊपर मन्दिर तक जाने का रास्ता था। उसके पीछे बाकी लोग भी चल पड़े। घुमावदार सीढ़ी से काफी ऊँचाई तक पहुँच गये लोग। ऊपर पहुँचने पर कोई पचीस हाथ लम्बी और उतनी ही चौड़ी साफ जगह नजर आयी,जिसके बीच में छोटी सी एक कोठरी बनी हुयी थी। ऊपर छत पर मंदिर का ऊँचा गुंबद सिर उठाये ,लोगों को बुला रहा था। कोठरी में लकड़ी की काफी मोटी किवाड़ लगी थी,जो पत्थरों के चौखटे के सहारे झूल रही थी। किवाड़ भिड़काया हुआ था।
सभी भीतर पहुँचे। भीतर में किसी देवी-देवता की मूर्ति नहीं बनी थी। पश्चिम की ओर दीवार में, मात्र एक आला था बड़ा सा,जिसके नीचे एक कुण्ड था फर्श पर। कुण्ड में धूप के जले-अधजले टुकड़े पड़े थे। दीवार में बहुत सारी खूँटियां गड़ी थी,जिसे गौर से देखने पर मालूम चलता था कि इन्हें बाद में गाड़ा नहीं गया है, बल्कि बनाते समय ही पत्थर को काट-कूट कर खूँटियों का आकार देदिया गया है। करीब-करीब हर खूंटी पर छोटी सी एक-एक पोटली टंगी हुयी भी नजर आयी।
‘ये इतनी सारी खूंटियां इस छोटी सी कोठरी में! - बाबू ने आश्चर्य किया- ‘क्या है इन पोटलियों में ?’
‘पोटलियां नहीं हैं बाबू , इन्हें मुकदमें का कागजात कहो। ’- गोरखुआ ने हँस कर कहा।
‘ मुकदमे के कागजात ? तो क्या शंकरदेव जज हैं,जो मुकदमा देखते हैं ?’ –बाबू ने आश्चर्य किया।
 ‘हाँ बाबू ! तुम्हारा मुकदमा भी आज मैं यहीं दायर करुँगी। ’- मंगरिया ने हँसते हुये कहा,और मतिया को धीरे से चिकोटी काट दी।
‘धत्त,बड़ी शोख है। ’-कहती हुयी मतिया दूर छिटक गयी मंगरिया से।
गोरखुआ ने बतलाया- ‘इन पोटलियों में धूप बंधे हैं बाबू। अपने किसी काम के पूरा होने के लिए लोग यहां आकर मन्नत कर जाते हैं। मन्नत का तरीका यही है यहां का कि पोटली में थोड़ा सा धूप बांध कर टांग देते हैं,और आरजू कर देते हैं। अपनी फरियाद या मुराद कह सुनाते हैं बाबा शंकरदेव को,और घर चले जाते हैं। काम पूरा होजाने पर फिर यहाँ आकर धूम-धाम से पूजा करते हैं,नाच गान करते हैं,हंड़िया चढ़ाते हैं,और धूप को उतार कर हुमाद करते हैं। ’
‘बड़ा ही लाजवाब तरीका है यहाँ मन्नत करने का। ’- बाबू ने चकित होकर कहा।
‘हाँ बाबू! सबसे बड़ी बात तो ये है कि आजतक ऐसा न हुआ कि शंकरदेव के दरवार में अर्जी लगी हो,और मन्जूर न हुयी हो। हां एक बात और है कि लाख चाहने पर भी,बड़े किस्मतदार लोग ही यहाँ पहुंचकर अर्जी लगा पाते हैं। कोई न कोई कारण आ पड़ता कि लोग पहुँच ही नहीं पाते। ’- गोरखआ ने कहा,तो बाबू को और भी आश्चर्य हुआ।
‘सो कैसे गोरखुभाई? दिक्कत आखिर क्या होती है लोगों को यहाँ पहुंचने में ?- बाबू ने सवाल किया।
‘समझो तो दिक्कत कुछ भी नहीं है बाबू । बात सिरफ संजोग और विसवास की है- सभी जानते हैं कि यहाँ आजाने पर मन की मुराद मिल ही जायेगी,किन्तु चाह कर भी लोग समय पर पहुँच नहीं पाते। कोई न कोई अड़चन आही जाता है,और चार पग पर मन्दिर चारसौ कोस दूर हो जाता है। अब तो इधर आने के रास्ते भी काफी साफ हो गये हैं,पहले तो इतनी खतरनाक थी ये जगह कि आना मुश्किल था। मतिया के बाप को इसी आहाते के बाहर बाघ खा लिया था। ढूढते-ढाढते दो दिनों बाद हमलोग इधर आये तो मालूम चला था। ’
‘यह तो तुमने बड़ी दिलचस्प बात बतलायी गोरखुभाई ! ऐसी बात थी तो तुम्हें पहले
ही कहना चाहिए था। और पहले ही आया होता मैं इनका दर्शन करने ’- कहते हुये
बाबू ने श्रद्धापूर्वक ताक के पास जाकर अपना माथा टेक दिया।
‘इसका भी आज ही संयोग समझो बाबू। मैंने कहा न कोई न कोई कारण आ पड़ता है। मैं तो करमा के दिन से ही सोच रहा था इधर आने को....।’
‘कुछ मन्नत-वन्नत मानना था क्या मंगरिया के लिए?-बाबू ने चुटकी ली।
‘मंगरिया के लिए मन्नत क्या मांगना है बाबू ,इसे तो शंकरदेव ने मेरे लिए ही भेजा है।’- हंस कर गोरखुआ ने कहा।
मौका पा मंगरिया कब चूकती। एक तीर मार ही दी- ‘क्यों मतिया धूप लायी हो मन्नत के लिए?
‘मैं अगली बार कभी आकर मन्नत कर जाऊँगी,अभी तो तुम अपना काम झटपट निपटाओ। ’- होठों ही होठों में मुस्कुराती मतिया ने कहा,तो सभी एक साथ हँसने लगे।
‘मेरी मन्नत तो बाबू ने पूरी कर दी। अब जो बाकी है,वह सिरफ बाजा बजाना,और तुमलोगों का मुंह मीठा करना। ’- मतिया की चुटकी का जवाब मंगरिया ने दिया,और मतिया का सिर पकड़कर,कुण्ड के सामने झुकाती हुयी बोली- ‘हे बाबा शंकरदेवजी! मतिया की मुराद पूरी हो गयी तो बाबू के साथ यहां आकर धूमधाम से तुम्हारी पूजा करेगी।’
‘और मैं तुम्हारा सिर झुका देरहा हूँ। ’- हँसते हुये बाबू ने मंगरिया का सिर पकड़कर कुंड पर झुका दिया। ‘बोल मतिया बोल,मन्नत तुम बोल दे मंगरिया के लिए। ’
मन्नत की बात मतिया ने सच मे दुहरा दी। मंडप में एक बार फिर सबकी खिलखिलाहट गूंज गयी।
गोरखुआ ने जरा गम्भीर होकर कहा- ‘ किन्तु इस तरह खिलवाड़ नहीं करना चाहिए शंकरदेव के सामने। माफी मांगो मंगरिया,और तुम भी मतिया।’
गोरखुआ के कहने पर दोनों ने सिर झुका कर माफी मांगा- ‘हे शंकरदेवजी! अगर हम लोगों से कोई गलती हुयी हो तो माफ कर दें। ’
कुछ देर और ठहर कर,मन्दिर से बाहर खुले चौक में आकर, घूमघाम कर लोग दूर-दूर तक फैली हरीतिमा का मजा लेने लगे।
मौका देख होरिया ने बाबू को टोका- ‘हँसी मजाक में बात वहीं की वहीं रह गयी
बाबू ,अभी तक आपने गोरखुआ की बात का जवाब नहीं दिया। ’
          ‘दूंगा,अवश्य दूंगा। अब तो उसका भी समय आही गया है। ’-कहते हुए बाबू ने मतिया का हाथ पकड़ा,और मंदिर के अन्दर लेजाने लगे-‘जरा इधर तो आ,तुमसे एक बात करनी है। ’
‘जाओ न शरम काहे की?- मतिया को बाबू के साथ जाने को ठेलती हुयी मंगरिया ने कहा।
मतिया का हाथ पकड़े बाबू फिर एक बार मन्दिर में घुस गये। कुंड के पास जाकर बोले- ‘तुमसे अकेले में कुछ पूछना चाह रहा हूँ। ’- मतिया की ठुड्डी अपने हाथ से ऊपर उठाते हुये कहा- ‘ सचपूछो तो जब से तुम्हें देखा है, मन में अजीब सिहरन सी होने लगी है। तरह-तरह की बातें सोचने लगा हूँ। न जाने किस जन्म का कैसा सम्बन्ध है तुमसे ! जहाँ तक मेरा विश्वास है- बिना पूर्व सम्बन्ध के कोई किसी के प्रति इतना खिंचता नहीं है। पुराने जमाने में राजा दुष्यन्त को भी कुछ ऐसा ही आभास हुआ होगा जंगल में महर्षि के आश्रम में कुमारी शकुन्तला को देखकर।’
दुष्यन्त और शकुन्तला के बारे में कुछ जानकारी न होने के कारण मतिया कुछ विशेष समझ न सकी,सिर्फ इतना ही समझी कि कभी कोई और मिली होगी हमारी ही तरह...। मतिया की भारी पलकें उठ गयीं बाबू के चेहरे की ओर। बाबू बहा जा रहा था भावनाओं के बहाव में- ‘तुम न होती तो आज शायद मैं भी न होता। तुमने मेरी जान बचाकर,सेवा करके,जो कृपा की है,उसका कुछ भी मोल आंक कर तुम्हारे स्नेह का अपमान करना और खिल्ली उड़ाना है। इधर महीने भर से अधिक तुम्हारे साथ गुजारने का मौका मिला। मैंने देखा,मैंने पाया- जिस निश्छल और निस्वार्थ प्रेम और स्नेह से तुमने मेरी सेवा की है,आज तक कोई ऐसा नहीं कर पाया है। मेरे साथ किसी ने आजतक ऐसा प्रेम नहीं जताया। बस केवल मां की ममता मिली है मुझे। कहीं और भी ऐसा पवित्र और निस्वार्थ प्रेम मिल सकता है- मैंने इसकी कल्पना भी नहीं की थी। सच्चे प्यार के लिए मेरा हृदय सदा तड़पता रहा। प्यार की खोज ने ही मुझे दीवानगी की हद तक पहुंचा दिया। सबकुछ त्यागा मैंने,सिर्फ प्यार के लिए,पर ...अब जब कि तुम मिल गयी...मेरे हृदय से यह अभाव जाता रहा....।’- बाबू कहते रहे,सिर झुकाये मतिया सुनती रही- ‘यह अच्छा हुआ कि गांव के बुजुर्गों ने स्वयं ही यह प्रस्ताव रख दिया,क्यों कि यदि मैं यही बात कहता तो शायद उदण्ड,स्वार्थी,उश्रृंखल,लम्पट कहा जाता। आज महीने भर से लड़ता आ रहा हूँ—अपने मन और बुद्धि से तौलता रहा हूँ विवेक की तराजू पर। अन्त में इस निश्चय पर पहुँचा हूँ कि निश्चित ही तुम्हारे साथ मेरा जीवन सुखमय हो सकता है। सोच-समझ में थोड़ी कसर थी, सो आज मंगरिया ने पूरी कर दी। उसकी बात से तुम्हारे बारे में विशेष रुप से समझने का मौका मिला आज,जिसका फल यह हुआ कि मेरे दिल के आइने में जो धुधली छवि बन रही थी महीने भर से,वह आज बिलकुल साफ नजर आने लगी। मेरी आँखों ने तुम्हारी आँखों के नूर को देख और पहचान लिया,पर दिल के नूर को पूरी तरह न पहचान पाया था,जो कि अभी पूरा हो गया। इस विषय में मुझे कुछ और कहना-जानना-पूछना भी नहीं है। कहना सिर्फ इतना ही है कि मैं तुम्हें जी-जान से चाहता हूँ। यदि तुम्हारी स्वीकृति हो जाय,तो इस चाह को, इस प्रेम को, इस श्रद्धा को, विवाह के अटूट बन्धन में बांध कर सदा-सदा के लिए अपना लूं, ताकि शाश्वत सम्बन्ध सार्थक हो जाय।’
इतना कहकर बाबू मौन हो गये। मतिया का दिल तेजी से धड़कने लगा। वदन में झरझुरी सी महसूस होने लगी। इस अपार खुशी को अपने छोटे से दिल में किस तरह समेट कर छिपा ले- समझ न पा रही थी मतिया।
‘ओफ बाबू कितना महान है!...सिर्फ इतना ही सोच पायी। होंठ खुल न पाये,सिर्फ फड़क कर रह गये। आँखों में आंसू छलक आये। सिर झुकाये चुप खड़ी रही।
‘क्यों कुछ जवाब नहीं दिया तूने मेरी बात का?- झुकी ठुड्डी ऊपर उठा,बाबू ने फिर सवाल किया। आँखों में छलछलाये आँसू देख चौंक पड़े- ‘हैं यह क्या,तुम्हरी आँखों में आँसू?
‘हाँ बाबू ! हैं तो ये आंसू ही,पर आंसू मत कहो इन्हें। ये तो बस प्यार के फूल हैं,जिन्हें अपने देवता के चरणों में अर्पित कर देना चाहती हूं। ’- कहती मतिया तपाक से नीचे झुककर बाबू के पैरों में अपना सिर टेक दी। आँखों से चूकर आँसू की कुछ बूंदें बाबू के पैरों पर गिर पड़ी। झट से झुक कर बाबू ने उठाया और सीने से लगा लिया। बाबू के चौड़े और सपाट सीने से चिपकी मतिया सुबकने लगी- ‘मुझे अब भी विश्वास नहीं होता बाबू ! कहीं यह सपना तो नहीं देख रही हूँ मैं?
‘सपना नहीं,हकीकत है प्यारी मतिया ! आज से तुम मेरे दिल की रानी हो गयी- सर्वेश्वरी...हृदयेश्वरी...प्राणेश्वरी...।’- बाबू के इन शब्दों का अर्थ क्या जाने बेचारी,किन्तु वह सिर्फ इतना ही जान पायी कि कोई बहुत ही अपना है जो,कस कर भींच लिया है सीने से लगाकर,और वह उस बाहु-बन्धन में सावन के झूले सा पेंगे ले रही है। कुछ देर तक यूँ ही सटी रही बाबू के सीने से,और सुनती रही मर्दानी धड़कनों को, जिनके संगीत का जादू उसके तन-मन को बेसुध किये जा रहा था।
जरा ठहर कर बाबू ने बाहुपाश को थोड़ा ढीला किया,और अपने दाहिने हाथ में पड़ी हीरे की जगमगाती अंगूठी निकाल कर मतिया की अंगुली में पहना दी। मतिया एक बार फिर लोटने को आतुर हो उठी बाबू के पैरों पर, किन्तु सावधान बाबू इस बार ऐसा होने न दिया,और बीच में ही सम्हाल लिया। बाहों का हार एक बार फिर जकड़ गया, मतिया पूरी तरह बाबू के आगोश में समा गयी।
कुछ देर बाद ,नीचे झुककर दोनों ने कुण्ड के पास माथा टेका,और प्रसन्न मन,मंदिर
से बाहर आगये। दोनों के चेहरे पर थिरकती खुशी से सवने समझ लिया कि बात बन गयी। मतिया की अंगुली में चमचमाती अंगूठी ने इस बात की गवाही भी दी। मंगरिया का ध्यान सबसे पहले मतिया की अंगुली पर गया।
‘अरे यह क्या ! बाबू ने तुम्हें दिया है यह उपहार ?- हाथ से मतिया की अंगुली पकड़,अगूठी देखती हुयी मंगरिया ने पूछा।
मतिया की आँखे झुकी रही। खुशी के मारे मंगरिया चिल्ला उठी- ‘वाह-वाह! ये देखो कमाल पलटनवां बाबू का- चुपके-चुपके मन्दिर में घुसकर मतिया के हाथ में अंगूठी पहरा दी ,कोई देखा भी नहीं....। ’
मंगरिया की बात सुन सभी हँसने लगे। बाबू ने मुस्कुराते हुए कहा- ‘चुपके-चुपके कैसे ? तुम सबको बाहर गवाही के लिए खड़ा जो कर रखा था। ’
‘ अरे वाह रे गवाह ! ये तो कहो कि हमलोग यहां खड़े थे,वरना,हमारी बहिनपा को चुपके से उड़ा ले जाते।’- मंगरिया ने हंसते हुये हाथ मटका कर कहा,और मतिया के होंठ चूम लिए।
‘मैं क्या उड़ाऊँगा तुम्हारी सखी को,वह तो खुद मुझे उड़ाकर ले आयी इतनी दूर।’- बाबू ने कहा तो एकबार फिर हँसी का पटाखा फूट पड़ा।
‘देखा न आपने बाबू ! शंकरदेव कितना जल्दी लोगों की मन्नत सुनते हैं ? बस यहां पहुँचने भर की देर है।’- गोरखुआ ने कहा,फिर ऊपर आसमान ताकते हुए बोला- ‘अच्छा तो अब हमलोगों को चलना भी चाहिए वापस। देर करना ठीक नहीं है। ’
‘इत्ती भी क्या हड़बड़ी है?’- मंगरिया बोली- ‘जरा शंकरदेव के सामने नाच-वाच हो जाता,तो मजा आता। ’
‘यूँ ही क्या छूछा-छूछा नाच करोगी? न बाजा ,न परसाद न हंड़िया।’- गोरखुआ की
ओर देखते हुए डोरमा ने कहा- ‘क्यों गोरखुभाई ! इसके लिए फिर एक दिन आया जायेगा, पूरी धूमधाम से सबको साथ लेकर। ’
‘जैसी मरजी तुमलोगन की।’- कहती हुयी मंगरिया बढ़ चली आगे सीढी की ओर।
‘तो अब चला ही जाय।’- कहा गोरखुआ ने,और सभी चल पड़े।
‘ गांव वापस जाने के लिए क्या फिर उसी बंगले से होकर जाना पड़ेगा,या कोई और भी रास्ता है?- सीढियाँ उतरते हुए बाबू ने पूछा।
‘नहीं कोई जरुरी नहीं वहां जाना। एक तिरछा रास्ता भी है,यहां से सीधे हमलोग के गांव तक जाता है। इसे हमारे बुजुर्गों ने बनवाया है,गांव वालों की सुविधा के लिए। इस रास्ते से चलने पर लगभग आधी दूरी की बचत हो जाती है।’- कहा गोरखुआ ने, और बांये के बजाय दांये मुड़ गया। उसके साथ ही और लोग भी चल दिये। बाबू जानबूझ कर टोली में पीछे चले। पीछे मुड़कर ऊपर से नीचे तक गौर से देखा एक बार पूरी इमारत को। श्रद्धा से सिर स्वतः झुक गया। ठीक ही कहा है ऋषियों ने- जहाँ सिर स्वतः झुकने को विवश हो जाय,वही श्रद्धेय होता है।
पल भर के लिए बाबू की आँखें भर आयी । कई छवियां घूम गयीं आंखों के सामने। जेब से रुमाल निकाल,लोगों की आँख बचा,पोंछा अपनी आँखों को,और चल पडे झपटकर।
शाम होने में थोड़ी ही कसर रह गयी थी। बूढे सूरज को भी आज जाने की इच्छा नहीं हो रही थी आकाश छोड़कर। वह भी देख लेना चाहता था,कि जब यह मस्तों की टोली गांव पहुंचेगी,लोगों को सुसमाचार मिलेगा,तो किसको कितनी खुशी होगी।
मगर अफसोस,इन लोगों ने रास्ते में इतना हँसी-मजाक किया कि चाल बहुत धीमी पड़ गयी। एक ओर गोरखुआ को हड़बड़ी थी जल्दी गांव पहुंचने की ताकि सबको संदेशा सुनाये,तो दूसरी ओर मंगरिया को मजाक करने का यही सवसे अच्छा मौका मिला था। उसने भांप लिया था कि बाबू देवी-देवताओं में बहुत विश्वास रखता है; जिसका नतीजा हुआ
कि रास्ते भर न जाने कितने ढेले-पत्थरों के आगे माथा झुकाना पड़ा बाबू को।
‘इन सबको माथा टेके वगैर रास्ते से चले जाओगे बाबू तो बहुत नाराज होंगे लोग। जंगलों में अपनी हिफाजत के लिए जगह-जगह हमारे बड़े-बूढ़ों ने उन्हें बिठा रखा है।’- इस तरह कोई न कोई बात बनाकर,मंगरिया हर दस-बीस कदम पर सिर झुकवाती,परिक्रमा करवाती रही किसी पत्थर की,तो किसी दरख्त की। एक जगह तो कान पकड़कर उठ-बैठ भी करवा दी मंगरिया- ‘देखो बाबू इस गाछ पर हमारे सबसे पुराने पाहन रहते हैं। इनके आगे कोई सिर नहीं झुकाता,बस केवल पांच दफा कान पकड़ कर उठना-बैठना पड़ता है,और एक बार तने पर सिर मारना...। ’
  ‘सिर्फ अपना ही या साथ में बतलाने वाले का भी?-बाबू ने हंसते हुए कहा,और कान पकड़कर जल्दी-जल्दी दण्ड-बैठक करने लगा। मंगरिया ताली बजाकर हँस पड़ी।मतिया आंचल से मुंह दबाये मुस्कुराती रही।
 ‘छोड़ो भी बाबू चलो। इतना करते फिरे तो सिर में गुम्बड़ निकल जायेगा।’- कहा गोरखुआ ने हँसकर- ‘तो फिर उसकी सिकाई भी मंगरिया को ही करनी होगी। ’
‘सो सब मैं काहे करुंगी ? अब तो दे ही दी हूं इन सब कामों के लिए मतिया को।’- तुनकती हुयी मंगरिया ने कहा।
हालाकि बाबू भी समझ रहे थे कि माजाक हो रहा है,पर सबको इसमें मजा मिल रहा है,इस कारण जान-बूझकर बेवकूफी करते रहे। सूरज घबराता रहा। देर होती रही। इसकी परवाह किसी को नहीं।
घबराहट से तंग आकर सूरज,चला गया पहाड़ों में,मगर बेचारी कजुरी कहां जाये? आश लगाये बैठी रही। बारबार रास्ते पर ताकती रही बाहर ढाबे में बैठी। इतनी देर हो गयी,अभी तक सब आये नहीं—सोचती हुयी। हालांकि पुनियां का चांद बार-बार समझाने की कोशिश करता रहा कजुरी को कि क्यों  घबरा रही है रे बुढ़िया ! मैं देख रहा हूँ उन्हें। तुरन्त ही आ जायेंगे सभी।
कजुरी के काफी इन्जार के बाद पहुंचे ये लोग। सबसे पहले गोरखुआ ने नानी को सुनाया-  ‘नानी ओय नानी ! मोंय आज सुराज छीन आनलों। ’
‘का बकत हैंरे तोंय सुराज..सुराज ?- -बुढ़िया बड़बडायी।
 ‘बकत नहीं नानी,बेसे बोलतही।’- कहते हुए गोरखुआ वहीं नानी के पास बैठ गया।
मतिया का हाथ पकड़,नजदीक खींच नानी के सामने ला खड़ी कर दी मंगरिया- ‘देख कोन सुराज मोरमन आनलों हे आझ। ’
मतिया की अंगुली में चमकती हुयी अंगुठी देख बुढ़िया चौंक उठी। अंगूठी पहचान रही थी। सिर उठाकर कभी बाबू ,कभी मतिया के चेहरे पर देखने लगी। मंगरिया ने हँस कर कहा- ‘देखत की आहे ? बाबू के हाथ की अंगूठी अब मतिया के हाथ में चली आयी, और इतना ही नहीं,बाबू भी अब मतिया के ही हाथ में आगया समझो। आज शंकरदेव के पास मन्नत मांगने गयी थी। तुरन्त सुन लिया शंकरदेव ने। ’
गोरखुआ ने बताया- ‘ बाबू ने मतिया से विआह करना कबूल कर लिया और उसी की निशानी है यह अंगूठी। देख ले ठीक से,हीरे की है हीरे की...।’
  ‘ऐं हीरे की है? सुनते हैं यह बड़ा मोल वाला होता है। ’- कजुरीनानी का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। हीरा क्या होता है,कैसा होता है,कभी जानने-देखने का सवाल ही कहां था,बस इतना भर सुन रखी थी कि बहुत मोल का होता है।
 ‘ मोल तो है नानी,पर हमारी मतिया की बराबरी क्या इससे हो सकती है?- मुस्कुरा कर मंगरिया बाबू की ओर देखने लगी।
  ‘और तुम्हारा अनमोल हीरा तो इधर खड़ा है।’- कहता हुआ गोरखुआ बाबू को खींच कर और समीप ला दिया। बाबू ने झुककर नानी के पैर छुए।
वहां से चल कर समुद्री तूफान की तरह गोरखुआ पूरे गांव में घूम गया। सबको
बतला गया- आज शंकरदेव के मन्दिर में बाबू ने मतिया का हाथ मांग लिया।
सारे गांव में खुशी की लहर दौड़ गयी। नाच-गान और हंडिया की तैयारी होने लगी। दादू ने कहा- ‘इस खुशी में आज मतिया की ड्योढ़ी पर ही नाच होना चाहिए।’
खा-पीकर,निश्चिन्त हो,उस दिन की तरह ही गोरखुआ सजने लगा,और सजने लगी साथ में मंगरिया भी। मतिया को भी सबने मिलकर सजाया,और जब सब सज ही रहे थे तो बाबू को कौन छोड़ता।
मस्त जवानों की टोली मतिया की झोपड़ी के सामने आजुटी,और गीत-नाच के साथ साथ हंडिया का दौर शुरु हो गया,जो आधी रात बाद तक चलता रहा। सबने खूब मजे लूटे।
मतिया और मंगरिया नाच में माहिर थी ही। आज दोनों का नाच उस दिन से भी ज्यादा जमा। नाच-गान खतम होने के बाद बाबू से गोरखुआ ने पूछा- ‘तब बाबू शादी-विआह का रस्म कब किया जाय ?
 ‘जब बाबू चाहें। वैसे मेरा तो विचार है कि सोहराय के बाद तुम्हारी भी शादी हो जाती और साथ में बाबू और मतिया की भी। ’- बाबू के बदले,दादू ने गोरखुआ से कहा।
 दादू की इस राय को सबने ताली बजाकर कबूल किया, ‘ठीक बिलकुल ठीक। अब  रह ही कितने दिन गये हैं सोहराय के।’ और इस निश्चय के साथ ही नाच-गान खतम किया गया। सभी अपने-अपने घर चले गये। गोरखुआ की इच्छा तो अभी और बैठने की थी,पर मंगरिया कुछ इशारा करती उसे साथ लिए चली गयी। सबके जाने के बाद ढाबे में बिछी खाट पर पड़े बाबू विचारों में उब-चुब होते रहे। रोज की तरह मतिया जब चादर और पानी लिये आयी तो बाबू को खाट पर उठंगे बैठे पायी।
‘ क्यों बाबू नींद नहीं आरही है क्या ? ’- शरमाती हुयी मतिया ने पूछा। वही मतिया जो अल्हड़ सी बैठ,रोज दिन बाबू से गप्पे लड़ाती रहती थी,सारा दिन जंगल में चक्कर मारा करती थी। रोज की तरह आज भी इच्छा थी,मन में सोच रही थी कि बाबू बहुत पैदल चले हैं। पांव दुख रहे होंगे,पर लाज की चादर को सरका न पा रही थी। तेल की कटोरी धीरे से ताक पर रख दी। लोटे का पानी नीचे रख,कंधे पर से चादर उतार,खाट पर,पायताने रख, खड़ी हो गयी।
 ‘न जाने आज नींद क्यों उचाट हो गयी। इतनी देर से सोने की कोशिश कर रहा हूँ,पर सो नहीं पा रहा हूँ।’- बाबू ने उठंगे बैठे हुये ही कहा। झोपड़ी के भीतर ‘दीअट’ पर दीया जल रहा था,जिसकी धीमी रौशनी बाहर ढाबे तक आकर फैली हुयी थी। बाबू ने अनुभव किया, मतिया शायद कुछ कहना चाहती है,पर मुंह पर लगा शर्म-वो-हया का ताला खुल नहीं रहा है,इस बात की गवाही उसका चेहरा दे रहा है। जरा ठहर कर बाबू ने पहल की-  ‘क्यों कुछ कहना चाह रही हो क्या ?
मतिया ने ‘ना’ में सिर हिलाया। थोड़ी देर चुप खड़ी रही,झांक कर भीकर देखी- नानी बेखबर सो रही थी,जिसके खुर्राटे बाहर भी मंडरा रहे थे। आज बाबू के पास आने में लाज लग रही थी मतिया को। साहस बटोर कर आगे बढ़ी। पैर पकड़ती हुयी बोली- ‘पांव दुख रहे होंगे,इसी से नींद नहीं आ रही है। आओ ना मालिश कर दूँ। ’
 ‘नहीं-नहीं। मालिश की जरुरत नहीं। तुम भी तो थकी ही होगी।’- कहते हुये बाबू ने हाथ खींच मतिया को बैठा लिया बगल में । लाज के कारण खुद में ही सिमटी जा रही थी मतिया। बिना कुछ बोले बैठ गयी चुपसे। अपने दोनों हाथों में मतिया का हाथ लिए बाबू एकटक देखते रहे उसके भोले मुखड़े को। आहिस्ते-आहिस्ते सहलाते रहे उसके हाथ को। मतिया के वदन में अजीब चुनचुनाहट सी महसूस होने लगी,मानों बहुत सी चीटियां रेंग रही हो भीतर चमड़ी के अन्दर घुस कर। चीटियां रेंगती रही,मतिया बैठी रही। बाबू भी बिना कुछ बोले चुप बैठे फेरते रहे अपने हाथ उसके हाथों पर ही सिर्फ।
 ‘आज इतने दिनों से लोग मेरे बारे में तरह-तरह की अटकलें लगाते रहे है।’- मतिया का हाथ सहलाते हुये बाबू ने चुप्पी तोड़ी- ‘ कोई कुछ कहता है,कोई कुछ,किन्तु मैं क्या कहूँ समझ नहीं पा रहा हूँ। जो जैसा कहता है,उसके सन्तोष के लिए सिर्फ हां-हूं कर दिया करता हूँ। आज तक मैंने स्वयं भी तुमसे कुछ कहा नहीं। कहना अच्छा भी नहीं लगा,जरुरी भी नहीं। इसका यह मतलब नहीं कि तुम्हें अधिकार नहीं था सुनने-जानने का। था,खूब था,पूरा अधिकार था। तुमने मुझे दुबारा जीवन दिया है,फिर एक जरा सी मामूली बात तुमसे न कहना भी तो भारी अपराध कहा जायेगा,और अब तो तुम मेरी सर्वस्व हो चुकी हो,फिर दुख कैसा ?’-बाबू ने भींच लिया मतिया को सीने से। नन्हीं बच्ची सी वह चिपकी रही बाबू की गोद में।
वह चिपकी रही। बाबू कहता रहा,  मेरा जीवन  विचित्र घटनाओं का कवाड़खाना रहा है। पतझड़ के मौसम में सारे के सारे पत्ते झड़ जाने के बाद जो स्थिति किसी दरख्त की होती है,उसी स्थिति में मैं भी हूँ। दूर छिटके पत्ते भूल जाते हैं पुराने पेड़ को। कुछ ऐसे भी पत्ते होते हैं,जो वहीं जड़ के पास पड़े अंकुरित हो उठते है- नये गाछ को पैदा कर देते हैं। ओफ ! कैसा लगता होगा ‘पत्थरचूर’ के उस पौधे को ....?’
 बाबू की आवाज कांप रही थी। गला भर आया था। जरा रुक कर खंखारा दो बार, फिर मतिया की पीठ सहलाते हुए कहने लगा- ‘....पतझड़ के बाद बसन्त आता है,किन्तु मेरे जीवन के इस पेड़ के लिए कभी कोमल फुनगियां निकल सकेंगी- सोचा भी न था। आज मेरा भ्रम दूर हो गया। तुझे पाकर मैं धन्य हो गया....।’ पागलों की तरह कस कर चूम लिया मतिया को। इतनी जोर से बांधा आलिंगन में कि लगा हड्डियां चरमरा जायेंगी। मतिया सिहर उठी,किन्तु गरम सांसो की फुहार भी अजीब सी तरावट पैदाकर रही थी भीतर-भीतर। कुछ कहने से ज्यादा अच्छा,कुछ सुनते रहना ही लग रहा था।
बाबू कहे जा रहा था- ‘....पता नहीं तुमने क्या-क्या सोचा होगा मेरे बारे में। कुछ सोचा भी होगा या नहीं,कह नहीं सकता। मगर तुम्हारे प्यार ने जरुर सोचा होगा। जरुर परखा होगा। तुमने अपना प्यार देकर सचमें मुझे उबार लिया। एक भटकते मुसाफिर को जीवन के सही रास्ते पर ला खड़ा कर दिया तूने...।’ बाबू भाउकता में बहे जा रहा था। आज वह सबकुछ उगल कर,अपने प्राणेश्वरी की आंचल में उढेल देना चाहता था।
दम भर ठहर कर फिर कहने लगा- ‘ ...मेरे छोटे से जीवन की कहानी बहुत बड़ी है। क्यों न बड़ी हो- बेटा जो ठहरा बड़े घर का- चार-चार कपड़ा मिलों के मालिक का बेटा, बहुत बड़े जमींदार का बेटा,वह भी इकलौता। किन्तु यह इकलौतापन ही,यह भारी सम्पत्ति ही मुझे फुफकारती नागिन सी काट खाने को दौड़ती है। ओफ मतिया ! मेरी रानी! …
बाबू की छाती लुहार की धौंकनी सी चलने लगी। लम्बी सांस छोड़,अपने सीने पर हाथ फेरते हुए उसने कहा- ‘मेरी पीड़ा की शुरुआत न जाने कब से हुयी। फोड़ा कब से शुरु हुआ,कह नहीं सकता। कुछ पता न चला। और पता जब चला,भीतर ही भीतर मवाद भर चुका था। टीस उठने लगी थी। फोड़ा मेरी मां के वदन में था,मवाद मेरे वदन में,और टीस हमदोनों के वदन में...।’- इस विचित्र फोड़े की बात मतिया के पल्ले कुछ पड़ी नहीं,सो चौंक कर सिर उठायी,बाबू के चेहरे को गौर से देखने लगी,जो दीये के मद्धिम रौशनी में भी साफ नजर आ रहा था।
  ‘...लग रही है न कुछ अजीब बात ?- दोनों हाथों से मतिया के मुखड़े को थाम कर बाबू ने कहा, ‘औरत पूरी तरह से औरत तभी कहलाती है,जब वह मां बन जाय,और यह मां बनना ही शायद अभिशाप बन गया मेरी मां के लिए। वास्तविक अभिशप्त तो पिता थे, बाप ! मगर ‘वपन’ की ताकत  जो न थी। ढेला ईंटा पूजने से,मौलवी-पंडित-औलियों के पास दौड़ लगाने से भी काम न बना,बड़े-बड़े डॉक्टर भी निराश कर चुके थे। एक दिन एक बूढ़े वैद्य ने दवा की सात पुड़िया दी,सिर्फ सात दिनों के लिए,और तीसरे महीने ही मां ने हरी झंडी दिखायी- गर्भवती होने की....।
‘...मगर हाय रे गर्भ ! जिस गर्भ के लिए रुपये पानी की तरह बहाये जा रहे थे, पिछले सात-आठ बर्षों से,अब उस गर्भ को ही बहाने के लिए नदी की गहराई नापी जाने लगी थी। ओफ !  कैसा लगा होगा उस दिन मां को जब पिता ने कहा होगा- ‘‘अरे कुलमुंही जा कहीं डूब मर नदी-नाले में...सात वर्षों से मैं नामर्द था,और आज मर्द बन गया- उन धूलभरी पुड़ियों से ? क्यों थोपना चाहती है दूसरे का पाप मेरे सिर पर ? ’’
‘.... मां के पैरों तले की धरती कांप उठी थी। जबान कट सी गयी थी। कोई शब्द भी न सूझ रहा था। और चुप्पी का फल मिला- लात-घूंसे,बेंत की छड़ी,और यहां तक की गर्म सलाखें भी। मार-मूर कर निकाल दिया गया घर से बाहर...।’
बाबू की मां की दुर्दशा सुन,मतिया कांप उठी, ‘ओफ ! ऐसे बेरहम थे बाबू के बाप ! बाप रे बाप !
बाबू कहे जा रहा था,मतिया सुने जा रही थी- ‘....अपनी डाल से टूटे पत्ते को दूसरी डाल भी शरण नहीं देती। कुलकलंकनी कहलायी बहन को सगे भाई ने भी पनाह न दी। लाचार बेचारी वहां से भी निराश हो चल दी,किन्तु भाई से बहन का दिल ज्यादा कोमल हुआ करता है। एक बहन ने अपने यहां शरण दे दी। समय पर जन्म हुआ एक बच्चे का,जिसका ‘बाप’ अपने को बाप मानने को राजी न था। पालन-पोषण होता रहा-मौसी के घर। इस बीच पिता के गुप्तचर भी चक्कर लगाते रहे,जमीन सूंघते रहे- दुर्योधन के गुप्तचरों की तरह,पांडवों की अज्ञातवास भंग का प्रयास होता रहा...।
‘....कहते हैं न कि भगवान के घर में देर है,पर अन्धेर नहीं...न्याय मिलता है... समय के ऊँट ने अजीब करवट ली। मौसी के घर बच्चे के जन्म के कुछ ही महीनों बाद की बात है, मुहल्ले में मुंहा-मुंही होने लगी। क्यों कि बगल की एक कुंआरी बेटी मां बनने वाली थी,जिसकी तोहमत नामर्द कहे जाने वाले ‘उस’ पिता पर लगी,और इसे बुरा कहने से अच्छा है, अच्छा कहना ही। क्यों कि इस तोहमत ने ही उनकी आंखें खोलीं। डॉक्टरी जांच ने भी साबित कर दिया कि वे निश्चित रुप से गुनाहगार हो सकते हैं,और तब पश्चाताप होने लगा पिता के साथ-साथ दादा-दादी को भी- अपनी पुरानी भूल का।
‘...कुछ शुभचिन्तकों ने राय दी- प्रायश्चित करने की- क्या करोगे,अनजाने में भूल तो कर ही चुके,अब जाकर किसी तरह मनौअल करके ले आओ बहु और बच्चे को,दुनियां तो नहीं कहेगी कि दूसरे का बच्चा है...कुल का डूवता सितारा तो बच जायेगा...’ पहले तो दादी की बातों पर जरा भी ध्यान न दिया गया था,किन्तु पड़ोसन वाली तोहमत के बाद, जब दूध और पानी का हिसाब साफ हो गया,तो दादी तो दादी,इष्ट-मित्र,टोले-मुहल्ले सभी कोसने लगे।
‘...और तब एक दिन लाचार होकर, अपराधी सा मुंह लटकाये पिता को मौसी के दरवाजे पर खड़ा देखा मां ने। आरजू-मिन्नत,और फिर दबाव भी पड़ा- ‘‘क्या चाहती हो तुम्हारी वजह से मेरी जगहंसायी हो रही है,इसकी जरा भी परवाह नहीं तुझे ? चलो,चुपचाप घर चलो,वहीं रहो,आंखिर तुम्हारा ही घर है...।’’ मां की इच्छा जरा भी न थी- पुरानी डाल पर जा बैठने की,जिसमें घुन लगा हुआ है,मगर अफसोस ! आखिर ठहरी तो आर्यावर्त की नारी ही न- आदर्श की प्रतिमूर्ति,धरती सी सहनशीलता वाली...थोड़े से मीठे बोल से पिघल गयी बहुत जल्दी ....। दूसरे ही दिन चली आयी बोरिया-विस्तर-बच्चे को लेकर अपने पुराने घोसले में जहाँ से एक दिन दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकी गयी थी।
‘...मां के आते ही घर में फिर एकबार रौनक वापस आगयी। एक ओर बांझ की कोख आवाद होने का सुख था,तो दूसरी ओर कुल-दीपक के चमकने का। यानी कि मेरा लालन-पालन होने लगा- बड़े बाप के इकलौते बेटे की तरह। दुनियां में दौलत के बदौलत जो कुछ भी हासिल किया जा सकता है,तथा कथित पिता ने जुटायी अपने पुत्र के लिए; किन्तु वास्तविक सुख तो तभी तक कायम रहा जब तक कि बालक अज्ञानी रहा। जैसे-जैसे होश सम्हालता गया,भीतर का छिपा फोड़ा मवाद से भरता गया,और धीरे-धीरे उसमें टीस उठती रही...।
‘...मौसी के यहां से उठाकर अपने घर में मां को डाल देने तक ही पिता अपना धर्म निभा पाये,उसके बाद मां का मोल कूड़ेदान में फेंके गये जूठे पत्तलों से अधिक न था। पिता को असली मतलब रहा तो सिर्फ बच्चे से। वैसे मतलब तो बहुतों से था- सेक्रेटरी लीना से, स्टेनो गीता से,पड़ोसन टीना से,घर में काम करने वाली बाई लछमिनिया से भी...कितनों का पता बताऊँ ! उधर दादी का पोपला मुंह खुला रहा- एक पोती के लिए,किन्तु बेचारी मां के सामर्थ्य से बाहर की मांग थी दादी की,जो कभी पूरी न हो पायी। क्या कहती कि इसके लिए अपने लाडले से पूछें…?
‘…इसी तरह समय गुजरता रहा,और मैं सात साल का हो गया। बांझी का नाम तो मिट गया,पर ‘एकौंझी’ का नाम मिटाने में मां असफल रही,और इसका फल हुआ कि धीरे-धीरे दादी के व्यवहार ने भी करवट लेना शुरु कर दिया। पिता तो हर तरह से कष्ट दे ही रहे थे- शारीरिक से मानसिक तक,दादी की बेमरौवती ने आग में घी का काम किया,और मां की दुर्दशा का दौर फिर से शुरु हो गया। गांव से लेकर घर तक के उलाहने और ताने से मां का जिस्म छलनी होने लगा। किसी औरत की, वो भी एक सन्तान के होते हुए,दूसरी सन्तान के लिए ऐसी दुर्दशा हो सकती है,कल्पना से परे की बात है, पर मैंने इन्हीं आँखों के सामने देखा है...इन्हीं आंखों के सामने...।’- कहते हुए बाबू की अंगुली अपनी आंख पर चली गयी,और सीना धौंकनी से बाजी मारने लगा।
‘...अबोध था तब तक डरता रहा,दबता रहा; पर जैसे-जैसे बड़ा होता गया,बोध होता गया,पास-पड़ोस से हवा-पानी का रुख समझने लगा,वर्तमान से बीते इतिहास तक का पाठ पढ़ लिया, तब फिर कहां सवाल रह जाता – पिता,दादी या किसी और से सहानुभूति और प्रेम का ? नतीजा ये हुआ कि आये दिन पिता से उलझने लगा। और फिर बहुत जल्दी ही, मामूली सा उलझाव भीषण टकराव में बदलने लगा...।
‘...समय सरकता रहा। मेरी उम्र बढती रही। मील के पत्थरों के तरह,एक-एक करके, किड्स गार्डेन से मॉर्डन हाई स्कूल में पहुँच गया। जैसे-जैसे बुद्धि बढ़ती गयी,ज्ञान-अनुभव बढ़ता गया,मां के प्रति ममता-प्रेम और श्रद्धा भी बढ़ती गयी; और साथ ही बढ़ता रहा परिवार के अन्य लोगों के प्रति क्षोभ,घृणा,नफरत...इसका परिणाम हुआ डांट-डपट,और फिर मार-पीट भी। कई बार तो ऐसा हुआ कि हाथ-पैर बांध कर कमरे में बन्द कर दिया जाता- भूखा-प्यासा ही,मां को भी और मुझे भी- अलग-अलग कमरों में। इधर मां तड़पती,उधर मैं। पिता के दिल में इकलौते के प्रति प्रेम की दरिया न जाने कहां सूख गयी थी,किन्तु इस नजरबन्दी का भी कुछ खास असर न हुआ...।
‘...समय ने डग भरे,हाई स्कूल का चौखट भी खट से पार हो गया। रिजल्ट लेकर घर आया तो पिता के आंखों में घडियाली आँसू दीखे- ‘‘बाह! आंखिर बेटा किसका है’’-कहते हुए पिता ने चूम लिया,पर पिता के चुम्बन में प्यार की मिठास नहीं, बदबूदार विदेशी सिगरेट और जर्दे का भभाका ही मिला। झट परे हट गया...।
‘...एक तीर से दो शिकार...पिता मशहूर शिकारी...। उनके शिकार की धूम बहुत दूर-दूर तक है। हमेशा कोई न कोई गोरा साहब आते ही रहते शिकार के आमन्त्रण पर,और फिर हफ्तों तक सभी मिलकर जंगलों की खाक छानते...अंग्रेजी बोतलें खुलती,नयी-नयी साकियों के हाथ से। पिता की नजरों में मैं भी एक शिकार भर ही तो था। उच्च शिक्षा के बहाने सुदूर सागर पार भेज दिया गया- एक तीर से दो शिकार एक साथ हो गये। व्यापारी हर बात में नफा-नुकसान की ही सोचता है। व्यापार में निपुण पिता ने भी यही सोचा- एक ओर बेटे को विदेशी डिग्री मिलेगी,और दूसरी ओर घर का रोज-रोज का टंटा भी कुछ दिनों के लिए मिट जायेगा। सयाना बच्चा कहीं ज्यादा उदण्डता न करे,इसलिए इसे इतनी दूर कर दो जहां मां के कोमल हृदय की धड़कनें और सिसकियां सुनायी न पड़ सके । लाभ ही लाभ मिला व्यापारी को...। ‘‘अब मेरा बेटा सीधे बैरिस्टर होकर ही आयेगा ’’- कहा पिता ने,और हफ्ते भर के अन्दर ही तैयारी पूरी हो गयी मेरे ‘कालापानी’ की। मां काफी रोयी-धोयी,चीखी-चिल्लाई,तड़पी;परन्तु नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता हैमैं भी कहता रहा- ‘मुझे नहीं चाहिए विलायती डिग्री। सबके सब हिन्दुस्तानी क्या विदेश जाकर ही पढ़ते हैं ?’ पर मेरी भी एक न सुनी गयी। इस मामले में पिता के सुहृद मित्रों ने भी अच्छी-खासी भूमिका निभायी,और नतीजा हुआ कि बड़े बाप का बड़ा बेटा बैरिस्टर बनने विलायत चल दिया...।
‘...विलायत में मेरे रहने,पढ़ने,खाने-पीने,मौज-मस्ती का राजसी प्रबन्ध पिता ने बहुत जल्दी ही जुटा दिया। दौलत जो न कराये...।
‘...सब कुछ तो जुटा दिया पिता के दौलत ने,किन्तु मेरे रेगिस्तानी दिल में सुख-शान्ति के फूल खिलाने की ताकत कहां थी पिता के दौलत में ? चांदी की कटार से पौधे की छंटाई भले की जा सकती है,फूल नहीं खिलाये जा सकते...।
‘...विलखती मां को तड़पता छोड़,बिना डैनों के ही ऊँचे आकाश में उड़ता चला जा रहा मेरा मन क्या कभी शान्त हो सकता था ? हुआ भी नहीं। ममतामयी मां की मूर्ति हर वक्त आंखों के सामने घूमती रही। घर से चलते वक्त गोद में चिपटाकर मां ने कहा था- अब तो तू जा रहा है रे मुन्ना,न जाने मेरी क्या दुर्दशा होगी तेरे पीछे ! कौन है मेरा यहां अपना ? जीती भी बचूंगी कि नहीं- राम जाने। खैर, तू जा,जहाँ भी रह मेरे लाल,सुख से रह। तेरी खुशी में ही मेरी खुशी है। तेरे सुख में ही मेरा सुख है। वहाँ जाकर भूल न जाना। कम से कम महीने में एक चिट्ठी तो जरुर दे देना...। – मां के सीने से चिपका,आँसू से उसके कलेजे को शीतल करते हुए पूछा था मैंने- ‘तुम भी चिट्ठी लिखोगी न माँ ? जरुर लिखना। तेरी चिट्ठी ही तो एक मात्र सहारा होगा,उस उजाड़ कारागार में....।’
‘...सही में महीने में एक चिट्ठी माँ को डाल दिया करता था। महीने में तो नहीं,पर दो- तीन महने पर यहाँ से माँ की भी चिट्ठी मिल जाया करती,पिता के नियमित पत्र के साथ। किन्तु पिता के सेन्सर से पास हुए भाव ही सिर्फ पहुँच पाते थे मुझ तक- क्यों कि कई चिट्ठियों में मैंने पाया कि बहुत सी पंक्तियों को बेरहमी पूर्वक रगड़ा गया है। सामान्य रुप से गलती लिखा जानेपर,काटने का यह तरीका माँ का कतई नहीं हो सकता। निश्चित यह काम क्रूर पिता का ही होता था,और इससे यह भी तय था कि मेरे पत्रों को भी बिना सेंसर के प्रवेश की अनुमति नहीं थी,फिर सोचने की बात है कि हमदोनों के सही हृदयोद्गार कहाँ पहुँच पाये एक-दूसरे के पास ! मां के दिल की कसक को मुझ तक पहुँचाने में मेरा बाप हमेशा ही बाधक बना रहा,इस स्थिति में दूर बैठे बेटे को पढ़ाई-लिखाई में मन क्या लगता खाक !
‘….समय के छोटे-छोटे टुकड़ों ने दिन-महीने-साल बनाये,किन्तु विलायत को कभी अपना न सका मैं ; और, वहां की पढ़ाई के कड़वे घूँट ही घुटक पाया। मन तो अशान्त था ही,किन्तु कभी-कभार ध्यान आता- आखिर पढ़ाई के लिए ही तो पिता ने भेजा है इतनी दूर...मां वहां तड़प रही है...माँ के आँसू के मोल से कम से कम विदेशी डिग्री तो हासिल कर ही लेना चाहिए...सोचकर मन को फुसलाने की कोशिश करता। भाग्यवादी प्रधान भारतवासी के मन में एक क्षीण सहारा जगा भाग्य का,जो होना होगा सो तो होकर ही रहेगा- इसे कौन टाल सकता है ! और मुझ तथाकथित भाग्यावलम्बी को भी ढाढस बंधने लगा। भले ही हरवक्त गुमसुम उदास बैठे रहता,किसी एकान्त में खोया सा। एक दिन इसी तरह खाली समय में कॉलेज के पार्क में बैठा था, माँ की याद में ही खोया हुआ कि अचानक कानों में आवाज पड़ी- ‘‘हेलो मिस्टर अमरेश! ’’  आवाज साथ में पढ़ने वाली मेरिना की थी। पास आकर,सट कर बैठ गयी। अपने विचारों में खोया मैं,उसके हाय-हेलो का जबाव भी न दिया। कोई और होती तो मेरी उदण्डता को शायद माफ न करती,घमंडी कह कर,मुंह मोड़ लेती, पर मैं जानता था कि मेरिना उनमें नहीं है। पिछले कुछ दिनों से मैं देख रहा था कि वह मेरे करीब खिसक रही है। यदि मेरा उच्चाटपन न रहता,तो काफी पहले ही करीब आचुकी रहती।
  मेरी बात सुनी नहीं तुमने ? – मेरिना ने फिर टोका,कंधे पर हाथ रखकर।
ओह ! आई ऐम भेरी सौरी , कहो क्या बात है ? ”   मैंने चौंकते हुए सवाल किया तो वह मुस्कुरा उठी।
यू क्यूट इंडियन ब्यॉय ! ”- मेरे चेहरे को अपनी हथेली में कैद करती हुयी बोली- एक बात पूछूं , मिस्टर अमरेश ! बुरा तो न मानोगे ? ”—टूटी-फूटी हिन्दी में उसने कहा।
बुरा क्यों मानने लगा। कहो क्या जानना चाहती हो ? ”  –  मेरे प्रतिप्रश्न पर उसने फिर सवाल किया।
तुम इसने मायूस क्यों रहते हो ?  शादी होगयी है क्या ? अकेले मन नहीं लगता ?”
उदास रहने और शादी होने में क्या सम्बन्ध है ?”- मैंने मुस्कुरा कर पूछा।
इसलिए की हिन्दुस्तानियों की शादी बहुत कम उम्र में हो जाया करती है,और पढ़ाई के लिए परदेश जाना पड़ता है,नयी बीबी को छोड़कर,तो उदासी तो रहेगी ही न ?”- क्यों क्या मैं गलत कह रही हूँ  ? ”
नहीं मेरिना,सो बात नहीं है,तुम गलत नहीं कह रही हो,फिर भी है गलत ही।
मतलब ?
 मतलब यह कि अभी मेरी उम्र ही क्या है,जो शादी हो जाय ? वैसे तुम्हारा कहना आंशिक रुप से सही है,कि हमारे देश में शादी तुम्हारे देश की तुलना में जल्दी हो जाती है,किन्तु खास कर देहातों में; और उसका भी मुख्य कारण है- बादशाही सल्तनत का सूखा जूठन,जिसे अभी तक अंग्रेजियत के पानी से पूरी तरह धोया नहीं जा सका है।
क्या बोल रहे हो ये  ?  मैं कुछ समझी नहीं।
पुराने समय में मुगलों और बादशाहों के भय से शादी जल्दी कर दी जाती थी,और फिर देशी रजवाड़े भी डोला काढ़ने लगे,उनका भय व्याप गया समाज में; और एक खास बात यह भी है कि तुम्हारे अपेक्षा मेरा मुल्क गरम है,वहाँ लड़के-लड़कियां जल्दी सयानी हो जाती हैं।
ठीक है,मान लिया तुम्हारी बात,किन्तु जब तुम्हारी शादी हुयी ही नहीं,फिर ये अकेलेपन वाली उदासी क्यों? ”- मेरिना ने फिर सवाल किया- ‘‘ तुम्हें यहाँ आये साल से ऊपर हो रहे हैं,पर उदासी ज्यों की त्यों। लगता है जैसे कल ही आये हो। इस तरह उदास,गुम-सुम बने रहोगे तो काम कैसे चलेगा ? मैं तो समझ रही थी बीबी को छोड़कर आये हो,उसकी  याद में खोये रहते हो।’’
‘क्या सिर्फ पत्नी को छोड़कर आने वाला ही उदास रहने का हकदार है ? पत्नी से भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण माँ होती है,और फिर मातृभूमि,और यहां न मेरी माँ है,और न मातृभूमि । यह ठीक है कि हम हिन्दुस्तानी ‘ वसुधैवकुटुम्बकम् ’के सोच वाले हैं। यानी पूरी पृथ्वी को ही अपनापन देने को राजी रहते हैं,फिर भी मातृभूमि तो मातृभूमि ही होती है।’
मेरिना मुस्कुरायी तुम हिन्दुस्तानियों की इसी सोच ने हिन्दुस्तान को हमेशा गुलामी के शिकंजे में जकड़ रखा है। अपनी मां ही सिर्फ मां नहीं होती मिस्टर अमरेश,और न सिर्फ जन्म स्थान को ही मातृभूमि कहकर आदर करते हैं। जिसके मन में दूसरे के मां के प्रति आदर नहीं,वह अपनी माँ की भी क्या कदर करेगा? ”
‘...मेरिना की बात मुझे कटु लगी। मैंने कहा- माफ करना मेरिना,मैं वैसे उदार दिल वाला नहीं हूँ,जो दूसरे की मां को जिलाने के लिए अपनी मां का लहु निकाल कर देता रहूँ। तम्हारी बात बिलकुल उल्टी है- जो अपना दर्द ही नहीं समझ सकता,सुन्न है जिसका चेतन, वह दूसरे के दर्द को क्या समझ सकता है?
‘….रूखी बात का रुखा जवाब,मेरिना को भी रुखा ही लगा। बिना कुछ कहे,उठकर चली गयी वहां से। मैं समझा चलो,एक बला टली; किन्तु वास्तव में वह बला टलने वाली नहीं थी मतिया ! नहीं थी टलने वाली। इतनी आसानी से यदि वह वला टल गयी होती तो, फिर परेशानी की बात ही क्या थी?
मतिया अभी भी चुप बैठी बाबू की बात सुनती जा रही थी। दम भर ठहर कर बाबू ने फिर कहना शुरु किया- ‘ दूसरे दिन खाली पीरियड में जब मैं उसी पार्क में बैठा था,वह फिर आयी। पहले दिन की तरह ही ‘हैलो’ कहती हुयी, साथ बैठ गयी, सट कर बगल में।
कल मेरी बात का बुरा मान गये थे मिस्टर अमरेश ? ”- मेरिना ने मुस्कुराकर कहा।
‘नहीं बुरा क्यों मानूँगा।’- मैंने भी सिर झुकाये हुए जवाब दिया।
लगता है अपनी माँ के प्रति काफी श्रद्धा है तुम्हें,क्यों ? ”- मेरे कंधे पर हाथ रखती हुयी बोली। इच्छा हुयी कि झटक दूँ परे उन हाथों को,किन्तु कुछ सोच कर ऐसा कर न पाया। आहिस्ते से बोला- होनी ही चाहिए मां के प्रति स्नेह-ममता-श्रद्धा और भक्ति भी। क्यों तुम्हें नहीं है क्या?
है क्यों नहीं, पर तुम्हारे जैसी नहीं कि मां से दूर रहने पर बच्चों जैसी रोती रहूँ।- मेरिना की बात ने फिर मुझे चोटिल किया। झल्ला कर बोला- ‘ मां की याद आजाने पर उदास होना...इसे रोना नहीं कहते मिस मेरिना।’
रोना नहीं तो और क्या है ?  यह कोई बात हुई कि हर वक्त माँ के ध्यान में ही डूबे रहो,और भूल जाओ बाकी कुछ कि आसपास और भी कोई है ?”- मेरिना ने कहा।
‘ हालाकि भगवान न करे,किन्तु काश ! तुम्हारी माँ भी इसी परिस्थिति में होती मिस मेरिना,तब पूछता।’- क्रोध को दबाते हुए भी कड़वी बात मुंह से निकल ही गयी।
किस परिस्थिति की बात कर रहे हो, क्या मैं जान सकती हूँ ?”- मेरिना का धृष्ट प्रश्न था।
जानने में कोई हर्ज नहीं है,किन्तु मैं बताना नहीं चाहता।- रुखेपन से मैंने कहा। मगर मेरे रुखेपन का कुछ भी असर मेरिना पर न हुआ,उल्टे उसकी जिद्द बढ़ती गयी। बढ़ती ही गयी। मैं जितना ही ना करता,वह उतनी ही उतावली होकर,कुरेदती रही। मेरे विषय में जानने के लिए उसका उतावलापन इतना बढ़ा कि मेरी झिड़कियों को भी प्रेम भरे बोल से उड़ा देती,और अन्त में लाचार होकर, मुझे कहना ही पड़ा सबकुछ - आर्थिकता के रौब से लेकर,माँ की दयनीयता तक,सबकुछ सुना डाला शोख,जिद्दी मेरिना को।
‘...मैंने तो सोचा था कि अब मेरी जान बची इस अल्हड़ लड़की से,किन्तु उसका अल्हड़पन और भी बढ़ता ही गया। मेरी कमजोरियों से लाभ उठाती रही। दिन ब दिन मुझसे करीब आती गयी- कुछ नये नये अंदाज लेकर। उस दिन से, मेरी वास्तविकता जान कर, मेरे प्रति उसका आकर्षण और स्नेह, और भी बढ़ने लगा। अब स्नेह और सहानुभूति जताने के लिए वह मेरे पास आने लगी। यहां तक कि कॉलेज के बाद,खाली समय का अधिकांश उसका ही हो गया। साथ घूमना-फिरना...और फिर पार्क से निकल कर सड़क... बाजार...होटल...रेस्तोराँ होते हुए उसके घर तक पहुँच गया।
‘...अब मेरी छोटी बड़ी छुट्टियां सीधे मेरिना के गांव में गुजरने लगी। उसका गांव लंदन से कोई तीस-बत्तीस मील दूर रहा होगा। संयोगवश पहली बार ही उसके गांव जाने में बुरी तरह भींग गया,क्योंकि मौसम भी अजीब है वहां का— वर्ष में आठ-नौ महीने जहां फुहार ही पड़ती हो,वहां कैसा लगेगा ? भीषण सर्दी,ऊपर से वर्षा,सूर्य नदारथ। कुल मिलाकर विचित्र वातावरण। चाहकर भी मैं उस परिवेश में स्वयं को ढाल न सका,किन्तु मेरिना के घर पहुँचकर लगा थोड़ी देर के लिए कि अपने ही घर में आगया हूँ। घर तो साधारण ही था— दोमंजिला,छावनी खपरैल की,जिसे खूबसूरत रंगों से रंगा गया था। बाहर दीवार से सटी रंग-बिरंगी फूलों की क्यारियों में खिलखिलाती डेजी और यूलिप ने सिर हिलाकर स्वागत किया। मुझे ऐसा लगा कि अभी हमें इनसे आतिथ्य सीखने की जरुरत है। साधारण खाता-पीता परिवार,सीमित सदस्य- मां,बाप,मेरिना और छोटा भाई। हम हिन्दुस्तानियों की तरह बच्चों की फौज नहीं। पहुँचते ही सबने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया। प्यार ममता और तीमारदारी का जवाब नहीं। भींगने की वजह से रास्ते में ही बुखार हो गया था। नतीजन, सप्ताह भर वहीं ठहरना पड़ गया। इस बीच काफी कुछ देखा,सीखा, अनुभव किया। उनके साथ रहकर, एकदम सा अपनापन मिला,उस छोटे से परिवार में। मेरे प्रति उसकी मां की ममता और प्यार देखकर लगा, मेरिना सच कहती थी- दूसरे की मां को मां समझो,तो मां जैसी ही ममता का आभास मिलेगा...।
‘...और इस तरह धीरे-धीरे मेरिना मेरी होती गयी,और मैं मेरिना का। घर से मां की चिट्ठियां हमेशा की तरह आती रही। हर पत्र में उसकी एक पंक्ति अवश्य रहती- तुम्हारे इन्जार में आँखें बिछाये हूँ। मां का पत्र पाकर फिर पुरानी दुनियां में लौट पड़ता,किन्तु अब मेरिना मुझे पहले की तरह गुमसुम न रहने देती। हर तरह प्यार-दुलार कर जी बहला देती।
‘...मेरिना और उसके परिवार ने मेरे अन्दर काफी बदलाव ला दिया। मेरी जिन्दगी में नयी बहार सी आती नजर आयी। धीरे-धीरे भविष्य की रंगीन बादियों में खोता चला गया। हालांकि इसका अहसास बहुत बाद में हुआ कि मेरिना मुझे एक प्रेमी की निगाह से देखती है,और मुझपर भी उसके प्रेम का पक्का रंग चढ़ता जा रहा है। सच कहा गया है- प्रेम कोई तैयारी से नहीं करता,वह तो चुपके से,अनजाने में घसीट कर गिरा लेता है अपने आगोश में। तो  क्या मैं भी मेरिना के प्यार में गिर गया हूँ- अपने आप से एक दिन सवाल किया...।
‘...काल अपना पंख फड़फड़ाता रहा। कहां पहले, दिन भी वर्ष की तरह लगते थे,जब कि अब, देखता हूँ कि वर्ष भी चुटकी बजाकर निकल गया। पढ़ाई पूरी होने में मात्र कुछ महीने शेष रह गये। इस लम्बे अन्तराल में काफी कुछ बदलाव आया मेरे अन्दर- बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक भी। छोटे से हृदय में,जहां सिर्फ और सिर्फ माँ की ममता और प्यार के लिए स्थान सुरक्षित था,मैंने अनुभव किया कि उसका एक कोना किसी दूसरे उद्देश्य की पूर्ति हेतु खाली होता जा रहा है। धीरे-धीरे उस खालीपन का दायरा बढ़ता गया,और एक दिन मैंने पाया कि उस रिक्त भाग में एक स्थायी प्रवासिनी का खेमा गड़ गया है- मेरिना का रंगीन तम्बू। मेरिना का प्रभुत्व मेरे मन के साम्राज्य  पर बढ़ता गया. बढ़ता ही गया,और एक दिन ऐसा आया कि मैंने स्पष्ट शब्दों में उसके सामने प्रस्ताव भी रख दिया- पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद,मेरे साथ हिन्दुस्तान चलोगी न मेरिना,शादी करके?
शादी करके तुम्हारे साथ हिन्दुस्तान जाऊँ मैं- यह कैसे सोंच लिया तुमने ? ”- चौंकती हुयी मेरिना ने आंखे तरेर कर कहा।
‘ क्यों कैसे सोचा जाता है? ’- मैं भी चौंक कर पूछा,उसके गोरे चेहरे पर गौर करते हुए- ‘अरसे से तुम मुझसे प्यार करती आ रही हो। मैं  भी तुम पर जान न्योछावर कर चुका हूँ। आखिर इस प्यार की परिणति तो शादी ही होगी न? और जब शादी हो जायेगी,तो क्या मेरी माँ के पास न चलोगी ? बहुत खुश होगी मेरिना तुझे देखकर मेरी माँ। ’
‘...मैं भावनाओं में बह गया,जिसे सुन मेरिना हँस पड़ी। बहुत देर तक हँसती रही- बनावटी विचित्र सी हंसी,फिर अजीब मुंह बिचकाकर बोली- सच में हिन्दुस्तानी लोग बहुत ही भोले होते हैं,इतने भोले कि उन्हें मूर्ख कहना चाहिए। किस डिक्सनरी में पढ़ लिया
है तूने कि प्यार का मतलब शादी होता है?”
‘…मेरिना के बोल मेरे दिल में तीर की तरह चुभ गये,जिसे निकालूं भी तो और जख्मी हो जाऊँ। नम्र ,किन्तु तेज आवाज में मैंने कहा— हिन्दुस्तानी शब्दकोश में तो युवक-युवती के प्रेम का एकमात्र अर्थ और परिणाम शादी ही हुआ करता है।
मेरिना व्यंग्यात्मक मुस्कान बिखेर कर बोली- होता होगा,जरुर होता होगा मूर्खों की डिक्सनरी में,मगर यह न तो तुम्हारा हिन्दुस्तान है और न मैं हिन्दुस्तानी।
‘...मेरिना की बात सुन,क्रोध में मेरे नथुने फड़कने लगे। फिर भी खुद को सम्हालते हुए कहा- अगर ऐसी बात थी,तो तुमने प्यार का यह नाटक क्यों रचा ? क्या जरुरत थी ये सब आडम्बर फैलाने की? हर वक्त मेरे लिए वेचैन रहना,मेरी सुख-सुविधा का इतना ध्यान रखना,मेरी ही नींद सोना-जागना,उठना-बैठना,आखिर ये सब क्या था...?
ये सब और कुछ नहीं था मिस्टर अमरेश हिन्दुस्तानी ! ये केवल आदमियत थी, इन्सानियत कहो। तुम यहां अकेले थे,अपने परिवार से इतनी दूर। हमेशा उदास और दुखी रहा करते थे। मैंने सिर्फ इतना ही किया कि तुम्हें सच्चा प्यार देकर आदमी बना दिया। मेरे प्यार का ही फल है कि अब तुम डिग्री लेने जा रहे हो,अन्यथा यहां से ऊबकर कबके भाग चुके होते...। — मेरिना कह रही थी,मेरा क्रोध भड़क रहा था। खुद पर से अधिकार जाता रहा। वदन कांपने लगा- जूड़ीताप बुखार के मरीज की तरह। आँखें लाल हो गयी, जलते अंगारे की तरह. क्रोध में आकर लगभग चीख उठा- यह सब झूठ है...बिलकुल झूठ...धोखा...फरेब...सच्चे प्यार के नाम पर...।

चिल्लाओ मत मिस्टर अमरेश ! ”- रुखेपन से मेरिना ने कहा- ये तुम्हारा हिन्दुस्तान नहीं है,जहां सिर्फ मुर्दावाद कहने से तख्ता पलट जाता है। शान्त होकर जरा अपनी बुद्धि से काम लो। तुम्हारी तरह ही मैं कईयों से प्यार करती हूँ- सभी क्लासमेट हैं मेरे- डेविड,जॉन्सन, चियंग,थाइमन...सबसे तो मैं इतना ही प्यार करती हूँ। फिर तुम ही सोचो क्या सबके साथ मैं शादी रचाती फिरुंगी?  सबकी दुल्हन बन सकूंगी ? पांच पतियों की पत्नी सिर्फ तुम्हारे हिन्दुस्तान में ही होती है,मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं कि.....।

क्रमशः...

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