गतांश से आगे ....भाग 2
क्रमशः...
बाबा जोर से हँसे। उनकी गहरी
हँसी नाभि-तल तक हिलोरे ले लिया। आजकल लोग ठीक से हँसना भी कहाँ जानते हैं ! हँसने के लिए भी खुशी कहीं से उधार लेने की जरुरत होती है,जब कि देगा कौन
भला ! होठों की हँसी और नाभी
की हँसी में बहुत अन्तर है।
नीचे से ऊपर अनायास, स्वतः आना,और ऊपर से नीचे सायास ले जाना- दोनों बिलकुल ही अलग
बात है। सांस छाती से लेंगे तो हँसी में भी सिर्फ होठों का ही इस्तेमाल हो सकेगा।
पेट से सांस लेने की कला तो सभ्य समाज का शत्रु बन बैठा है। ऐसे हँसो,ऐसे बोलो,ऐसे
चलो,ऐसे खाओ,ऐसे सोओ,ऐसे रहो....ये ऐसे-ऐसे का नियम सभ्यतायी चाबुक की मार है,हमारी
उन्मुक्तता का दमन है,स्वतन्त्रता का शोषण है। सभ्य होते ही हम सांस भी सभ्यता
वाली लेने लगते हैं। खैरियत है कि सांस कब कितना लेना है,यह जिम्मा प्रकृति ने
हमारे अधीन छोड़ा ही नहीं है, अन्यथा जीवन की आपाधापी में हम इसे भी समय पर लेना
भूल जाते। और टें बोल जाते। हममें बहुत कम लोग ही जानते हैं कि गिनती की सांसों के
साथ हमें भेजा गया है,कर्मभूमि में। २१,६०० प्रति अहोरात्र के हिसाब से,३६०दिनों
वाले सौ वर्षो का हिसाब है हमारे पास जीवन के खाते में। ‘कर्म’ ही गिनती का हिसाब लेता-देता
है। कर्म पर हमारा नियन्त्रण ही भावी भाग्य का लेखन करता है,और प्रारब्ध बनकर
भोगने को विवश करता है। सोने और जागने का सांस भिन्न होता है। ध्यान और मैथुन का
सांस भी भिन्न ही होगा,तय बात है। इस सांस की पूंजी को जितने हिसाब से व्यय
करेंगे,जीवन उतना ही दीर्घ होगा...।
मैं
गहरी सोच में डूब गया था। तभी,बाबा की हँसी थमी।
‘जानते हो ?’- झूलनुमा फटे अंगरखे के छेद को सरकाते हुए बाबा, अपनी पीठ दिखाने लगे- ‘ये
जो गहरा दाग देख रहे हो न,तुम्हारी पत्नी गायत्री के ही दिये हुए हैं। बात-बात में
मैं इसे बहुत चिढ़ाता था। एक बार ऐसा ही कुछ कह दिया,जिसका ये नतीजा है। पीछे से
आकर नंगी पीठ पर ऐसा हबकी कि दो अंगुल भर मांस ही निकाल ली। बहुत दिनों तक घाव बना
रहा था। अब निशान शेष है, जो शरीरान्त तक साथ देता रहेगा।’
‘मुझे
तुम्हारी आदत जो छुड़ानी थी, सो, छुड़ाने में सफल हुयी। फिर उसके बाद कभी तुमने
मुझे सताया भी नहीं।’- ढिठाई पूर्वक गायत्री ने कहा- ‘किन्तु क्या-क्या आदत छुड़ाती
मैं ! ये बात-बात में घर से भाग जाना कहाँ छुड़ा पायी ?’
‘अच्छा हुआ कि ये आदत छुड़ाने का मौका नहीं मिला तुम्हें, वरना....।’-
कहते हुए बाबा रुक गये अचानक।
शायद उनके मुंह से कुछ ऐसा निकला जा रहा था,जिसका अवसर शायद अभी न था।
मेरी ओर देखते हुये गायत्री ने कहा- ‘मैं अन्तिम बार इनके
घर,इनकी शादी में ही गयी थी,फिर तो मौका ही न मिला। बिना दुल्हा-दुल्हन के
बारात,बैरंग वापस आगयी थी। बहु नहीं आयी, कोई बात नहीं। जमींदारों के यहां वैसे भी
बहुओं की भीड़ रहती है। बस,बेटा होना चाहिए। बहुयें तो आती-जाती रहती हैं। इनके पिताजी
की ही पांच शादियां थी,और सबके सब मौजूद भी। फिर भी सन्तान सुख के अभाव में ‘छट्ठी’
भी करनी पड़ी, और तब जाकर ढेला-ईंटा पूजते-पुजाते उपेन्दर भैया का जनम हुआ।’- जरा
ठहर कर वह फिर कहने लगी- ‘ छूंछा बारात और पलायन कर गये इकलौते बेटे का गम बेचारी
चाची बरदास्त न कर सकीं। खबर सुनते ही जो धब्ब से गिरी सो गिरी ही रह गयी।’
‘हां सुना था मैंने भी बहुत बाद में, माँ की मार्मिक मौत की
खबर; किन्तु वापस आकर ही क्या करता ? एक मात्र,चाहने वाली
माँ ! रही नहीं, बाप के लिए तो उपद्रवीनाथ हूँ ही- कुलनाशक…कुलकलंक…
कुलडुबोरन...न जाने क्या-क्या। ’
‘तो ये उपनाम आपके पिता का ही दिया हुआ है ?’- मैंने मुस्कुराकर पूछा। वैसे भी अब,जब कि रिस्ता
साफ हो गया है- गायत्री ने भाई माना है, सो मुस्कुराने में कोई आपत्ति नहीं लगी
मुझे।
‘निकला तो पहली बार पिता के ही श्रीमुख से था, जिसे
घर,गांव,इलाका सबने मिलकर विज्ञापित कर दिया। अब तो मुझे भी कुछ बुरा नहीं लगता इस
सम्बोधन से । क्या रखा है- इन झूठे सम्बोधनों में जी ! कोई हमें कुछ भी कह ले,मेरे ‘होने’ में क्या फर्क पड़ने को है ! “ सोऽहं...सोऽहं...हंसः...सोऽहं....” ।’- कहते हुए
बाबा एकाएक काष्ठवत हो गये।
उनके कथन से मुझे भी थोड़ा झटका लगा। बाबा ठीक कह रहे हैं-
ये नाम-रूप-यश सब तो उधार का है। पता नहीं कब तगादा आ जाये,और इन सबको वापस लौटा
देना पड़े,उसे ही,जिसने दिया है ये सब...। मैं भी चिन्तन मुद्रा में आ गया,उनके
साहचर्य के किंचित प्रभाव वश।
बाबा उपद्रवीनाथ का चेहरा ही अनजान था सिर्फ मेरे लिए,क्यों
कि मिलने का सौभाग्य-संयोग न हो सका था कभी। बाकी,इनके बारे में कौन नहीं जानता
पूरे इलाके में। ऊतुंग टुनटुनवां पहाड़ की छाती पर विशाल किला बनवाया था इनके
दादाश्री गदाधर भट्टजी ने। ये वही टुनटुनवां पहाड़ी है,जिसके लिए अंग्रेजों के लार
टपकते रहे अन्त-अन्त तक ; किन्तु कोई रहस्य नहीं मिल सका- न उस टुनटुनाते ढोंके
का,और न एक के भीतर एक बने उस गुफा का ही;
जितने मुंह उतनी बातें- सात है,पांच है,नौ है....अन्दर-अन्दर ।
भट्टजी
कोरे सामन्तवादी जमींदार ही नहीं,प्रत्युत वेद-वेदांग, काव्य,
मीमांसा,तन्त्र, ज्योतिष, व्याकरण
आदि अनेक विषयों के उद्भट्ट विद्वान भी थे। उनके तन्त्र-ज्योतिष चमत्कारों से
नतमस्तक होकर मीनाक्षीगढ़ के राजा ने अपना आधा राज ही उनके श्रीचरणों में अर्पित
कर दिया था। तपती जमींदारी के जमाने में पवईराज के राजपुरोहित होने का सम्मान भी उन्हें
ही प्राप्त था। अंग,बंग, कलिंग,कौशल तक तूती बोलती थी। उनके यश का पताका पश्चिमोत्तर
भारत में शान से लहराता रहता था। अपने अन्तिम समय में, अर्जित सम्पदा का साढे
पन्द्रह आना भाग उन्होंने विभिन्न शिक्षण और स्वास्थ्य–रक्षण-संस्थानों को अनुदानित
कर दिया था। फिर भी ‘थऊसा हाथी,गदहे से ऊँचा ही’ था । निश्चित ही भविष्य दर्शन
किया होगा महानुभाव गदाधर भट्ट ने। उन्हें आभास हो गया होगा कि आगे उनके वंश का
पतन नहीं, नाश होने वाला है। वृद्ध भट्ट जी की भी चार शादियां थी। तीन से कोई
सन्तान लाभ नहीं। चौथी पत्नी से पांच पुत्र रत्न प्राप्त हुए,जिनमें क्रमशः चार
बड़े, घोंघे-सितुहे,कांच-कंकड़ से आगे न बढ़े । सिर्फ कनिष्ट पुत्र ही प्रतिभा
लब्ध कर पाया। राज्य-लक्ष्मी घुटने टेके बैठी थी,मगर विद्या की अधिष्ठात्री सरस्वती
सदर द्वार तो दूर,किसी खिडकी-गवाक्ष से भी अन्दर आने में संकुचित थी। बेचारे गदाधर
भट्ट तक ही सरस्वती की असली साधना रह पायी।
ऐसे
‘नीलरक्त’(blue
blood) भट्टकुल के उपेन्द्र को उपद्रवी नाम देने में पिता का शौक
नहीं, ‘शॉक’ ही रहा होगा। आँखिर कोई प्रबुद्ध
पिता अपने इकलौते पुत्र को इस प्रकार तिरष्कृत क्यों करेगा !
वातावरण
में विखरे मौन को पत्नी ने फिर तोड़ा। ‘उपेन्द्र भैया,आप पहले स्नान-ध्यान कर लें।
ये भी नहा-धोआ लें। तब तक मैं आपलोगों के लिए कुछ जलपान की व्यवस्था कर दूँ।’-
कहती हुयी गायत्री,उठकर रसोई घर की ओर चली गयी। मैं भी उसके पीछे हो लिया।
अन्दर
जाकर धीरे से कहा- ‘बाबा तो बिलकुल खाली हाथ हैं। झोला-झक्कड़ भी नहीं दीखता।
लंगोट और झूल तो एक ही है,जो वदन पर चढ़ा हुआ है।’
गायत्री
मेरा इशारा समझ गयी। बक्से में से नयी धोती,चादर,गमछा ले
आयी निकालकर । साबुन की बट्टी
भी। साबुन छोड़,शेष,वस्त्रों को सहर्ष स्वीकार
किया बाबा ने।
स्नान-ध्यान
के पश्चात् हमदोनों जलपान किये। मुझे दफ्तर की हड़बड़ी थी। अतः बाबा से क्षमायाचना
सहित दिन भर के लिए मोहलत ले,बाहर निकल गया; यह
कहते हुए कि अब क्या चिन्ता,जिसकी बहन अन्दर,उसका भाग सिकन्दर...। किसी प्रकार की
आवभगत में कोताही थोड़े जो होनी है। शाम को लौटूंगा,तो जमकर बातें होंगी । दिन भले
ही बिका होता है,रात तो अपनी है न !
‘बहुतों
की रातें भी बिकी होती है...सांसें भी बिकी होती हैं.....।’- बाबा ने ध्यान दिलाया।
“सांसें भी बिकी होती है.. ”- बाबा के गूढ़ वाक्य पर
विचार करता मैं, अखबार के दफ्तर की ओर कूच किया। पिछला पखवारा ‘नाइट-ड्यूटी’ किया
था, इस बार दिन वाली ड्यूटी चल रही थी। किसी तरह अपनी ड्यूटी बजाता रहा। न जाने
क्यों काम में आज जी न लग रहा था। सच में आदमी कितना बिका हुआ है। मन हो ना
हो,रोटी जुटाने के लिए काम तो करना ही है। नून-तेल-लकड़ी के जुगत में ही जिन्दगी
खप जाती है,और फिर चार साथियों के सहारे राम नाम सत्य की घोषणा सहित, श्मशान पहुँच
जाना पड़ता है। अब तो वो चार साथी भी नहीं,चार चक्के वाली म्युनिसपैल्टी की गाड़ी
होती है,और विजली की भट्ठी में क्षण भर में फू । कहाँ फुरसत है,किसी को...श्मशान
पहुँचाना भी कोई साधारण काम थोड़े जो है।
बे-मन
के काम में आदमी कुछ ज्यादा ही थक जाता है। देर शाम, कबूतरखाने को डेरा कहे जाने
वाले ‘घर’ पहुँचा। पत्नी इन्जार कर रही थी,चाय का समय बीता जा रहा था।
‘यहाँ
अकेली बैठी हो...और तुम्हारे नये भाई सा’ब ?’
‘आते
ही होंगे। तुम्हारे आने का समय पूछ-जान,सुबह ही निकल गये थे, तुम्हारे जाने के कुछ
ही देर बाद,यह कहकर कि समय पर आ जाऊँगा। और हाँ,रात का खाना बनाने को भी मना करते
गये हैं । कहा है उन्होंने कि रात की भोजन-व्यवस्था उन्हीं के द्वारा रहेगी।’
मैं
जरा चौंका- ये फक्कड़ आदमी क्या व्यवस्था लेकर आयेगा हम सबके लिए ! यकीन न आ रहा था जरा भी उनकी बातों का । फिर भी गायत्री,और उसके तथाकथित औघड़
भाई की बात पर भरोसा तो करना ही था। गायत्री चाय-नास्ते की तैयारी में जुट गयी ।
मैं वहीं,बालकनी में बेंत की कुर्सी पर बैठ ‘वासी’ अखबार के पन्ने पलटने लगा । दिन
भर अखबार के दफ्तर में ही गुजर जाता है, हजारों-हजार खबरों की छंटाई-कटाई-पिटाई
में,फिर भी खबरों के प्रति जिज्ञासा बनी ही रहती है- मेरे किये गये छटाई का भी
किसी सिनियर ने छंटाई तो नहीं कर दी...! कहते हैं न कि कहे जो झूठ-सच हरदम उसे अखवार कहते हैं,जहाँ
खाना मिले भरपूर उसे ससुरार कहते हैं,जो खाये औ’ न खाने दे उसे कंजूस कहते हैं,किरानी
से कलक्टर तक पिघल कर मोम बनता हो उसी को घूस कहते हैं...। आँखिर ये लोकतन्त्र का
चौथा खम्भा करता क्या है ! ये भी सिर्फ पैसा पहचानता है । ७५ % विज्ञापनों के बीच कुछ खबरें झांक भर लेती हैं- थोड़े से, बाकयी काम
की,बाकी अखबार-मालिक के काम की । खबर की परिभाषा किसी सिरफिरे ने सही ही की होगी-
जो संपादक की कलमियां धार से बंच जाये,और जिसके छपने से ऐतराज़ न हो मालिक को....वही
तो असली खबर है,जिसे हम-आप पढ़ने को मजबूर हैं। सुबह-सुबह अखबार उठायें,चाय के
प्याले के साथ तो ‘लिप्टन’ और ‘ताजमहल’ भी तीता-कड़वा लगने लगता है।
लूट,हत्या,बलात्कार की खबरें चूरन-चटनी की तरह चखी जाती हैं- ये सम्पादक को भी अच्छी
तरह पता होता है। आखिर उसे भी तो अपनी कुर्सी की रक्षा करनी है- जैसा कि भीष्म ने
हस्तिनापुर की रक्षा की । किन्तु नहीं, ऐसा कहना उचित नहीं । भीष्म लुट गये, मिट
गये,पिट गये- अपनी प्रतिज्ञा की डोर से बंधे-बंधे...पर सम्पादक ! वो तो कुर्सी के
पाये का बन्धुवा है।
पत्नी
चाय ले आयी कुछ नमकीन के साथ । प्याला उठाने ही वाला था कि सीढ़ियों पर आहट मिली, अगले
दो मिनट में बाबा सामने थे। हाथ खाली था सुबह की तरह ही। किन्तु हाँ, कंधे पर एक मैला-कुचैला
सोशलिस्टिक झोला लटक रहा था,परन्तु उसका कलेवर भी ‘इन्हीं’ की तरह दुर्बल दीख रहा
था। मेरी सवालिया निगाहें गायत्री से जा मिली। गायत्री भी समझ गयी- सवाल रात के
भोजन से है; किन्तु बिना कुछ कहे,वह अन्दर चली गयी,बाबा के लिए चाय लाने। बाबा भी
पीछे हो लिए।
‘मेरे लिए चाय-वाय मत लाना गायत्री। सुबह तुमलोगों का मन
रखने के लिए पी लिया था। जरा कुल्ला-उल्ला कर लूँ,फिर बातें होंगी। और हां,याद है
न- इस वक्त खाने की व्यवस्था मेरी ओर से है। बहन का अन्न कितना खाऊँगा ! हाजमा कमजोर है। एक शाम खा लिया,वो भी वस्त्र-दक्षिणा के साथ। इसका भी,
द्रौपदी की साड़ी के फाड़ की तरह हिसाब देना होगा। कृष्ण से जब नहीं पचा, तो मैं
भला क्या पचा पाऊँगा ?’
मुंह-हाथ धोकर,बाबा इत्मिनान से आकर बैठ गये। भाई द्वारा दुबारा
याद
दिला दिये जाने के कारण
गायत्री भी आश्वस्त हो,निश्चिन्त हो गयी कि अब तो इस समय कुछ काम-वाम है नहीं।
खाना बनाना नहीं है,चुप बैठ कर गप्पें मारी जायें। अतः वह भी आकर बैठ गयी। मेरे चित्ताकाश
में तैरते हुए सवालों के काले-सफेद घनेरे बादल बरसने को आतुर थे।
‘वो विल्ली की खाल,और काली स्याही वाली बात याद है न उपेन्द्र
भैया?’- गायत्री ने बात छेड़ी। बाबा मुस्कुराते हुए सिर हिलाये। गायत्री कहने
लगी- ‘एक मजेदार वाकया सुना रही हूँ। इनके एक चचेरे भाई थे सुशान्त भट्ट। इनसे
पांच साल बड़े। नौवीं में पड़ते थे। एक दिन विज्ञान की कक्षा में बताये गये बिजली
और चुम्बक के प्रयोग को उपेन्द्र भैया को समझाये। और समझो कि बन्दर के हाथ नारियल
लग गया,पता नहीं किसका सिर फोड़ दे। प्रयोग सीख-समझ कर,उपेन्द्र भैया वैठक में रखा
गुलदस्ता तोड़कर शीशे का रॉड निकाले। पालतु विल्ली घर में थी ही। सुशान्त भैया को
घर पर पढ़ाने के लिए लम्बी चुटिया वाले एक झाजी आते थे। वस उन्हीं पर प्रयोग कर
डाला। गोद में बिल्ली को दाबा,और उसके बदन पर शीशे के रॉड को तेजी से रगड़कर, झाजी
की चुटिया से चुपके से सटा दिया। चुटिया सीधी खड़ी हो गयी-लोहे के सलाखों की तरह।
फिर रॉड हटाया,चुटिया नीचे...। थोड़ी देर तक चुटिया का उठना-गिरना जारी रहा।
सुशान्त भैया का पेट फूलने लगा,हँसी रोके न रुक रही थी। उधर झाजी अचम्भे में कि
अचानक इसे हो क्या गया- पागलों की तरह हंसे जा रहा है। तभी अचानक चाचाजी आगये। उपेन्द्र
भैया की हरकत देख,आग-बबूला हो उठे। भेद खुला,और फिर दोनों भाइयों की जम कर पिटायी
हुयी।’
मुझे भी हंसी आगयी,बाबा की पुरानी हरकत सुन। मुस्कुराते हुए
बाबा ने कहा- ‘मैं तो छः-छः मांओं का दुलरुआ था शिव-नन्दन कार्तिकेय की तरह;किन्तु
पढ़ने-लिखने में मन कभी लगा नहीं। पांच वर्षो तक पहली जमात में ही गुजारता रहा,पर ‘ककहरा-मात्रा’
भी सीख न पाया। गुरुजी को हिदायत थी कि इस पर विशेष ध्यान रखा जाय। नतीजा ये कि
जरा भी देर होती कि विद्यालय से चार-चार विद्यार्थी आजाते, और यमदूत की तरह
हांथ-पांव बांध कर ले जाते। एक दिन खुराफात सूझा। मैं समय से काफी पहले विद्यालय पहुँच गया। स्याही की बोतली को दोनों
सिरे पर इस प्रकार बांधा कि आसानी से उसे दूर बैठ कर हिलाया-डुलाया जा सके,और
गुरुजी की कुर्सी के ठीक ऊपर,फूस के छप्पर में छिपाकर रख दिया। मोटे धागे का दूसरा
सिरा,अपने हाथ में लेकर पीछे की मेज पर जा बैठा,बिलकुल भोले स़रीफ़ बच्चे की तरह।
कक्षा जैसे ही प्रारम्भ हुयी, गुरुजी की पीठ अचानक सराबोर होगयी काली-काली स्याही
से। चौंक कर इधर-उधर देखने लगे। आसपास कोई होता तब न दिखता। किन्तु उनका सफेद
कुरता-धोती काला हो गया था। गुरुजी जोर से चीखे- “ ये किसकी
हरकत है? सामने आओ अभी मजा चखाता हूँ।” मैंने पीछे से कहा- “गुरुजी ये तो आपका पसीना है,मैं भी काला हूँ न आपही की तरह, ज्यादा गरमी
लगती है तो मुझे भी ऐसा ही काला-काला पसीना आता है।” सभी
बच्चे ठठाकर हँसने लगे। गुरुजी तो सुलग कर काफ़ूर। तुरत बुलावा भेजे पिताजी को। उस
दिन भी जम कर पिटायी हुई। इसी तरह पिटाई होती रही बात-बात में, और मेरी शैतानी भी घटने
के बजाय बढ़ती रही।’
बाबा के बचपन की लीला वाकई दिलचस्प थी। हमदोनों सत्यनारायण-कथा
की तरह तन्मय होकर भक्तिभाव से सुनते रहे। जरा ठहर कर बाबा ने कहा- ‘गुरुजी ने
स्कूल से नाम काट दिया,और हिदायत दी कि अब कल से तुम्हें नहीं आना है। खबर दादा जी
तक पहुँची। उनका फरमान जारी हुआ,जो पिछले सारे फरमानों से ज्यादा घातक था मेरे
लिए। गोमास्ताजी को बुलाया गया,और उन्हें आदेश हुआ कि यथाशीघ्र कोई बढ़िया,और
कड़ियल मास्टर खोज लाया जाय,जो घर पर रह कर ही उपेन्द्र को शिक्षा देगा। उसके
रहने-खाने की पूरी व्यवस्था महल की ओर से होगी...।
‘....अगले
दो दिनों बाद ही एक हट्ठे-कट्ठे पहलवान मार्का मास्टर साहब ढूढ़ लाये गये। उनके ऐशोआराम
की पूरी व्यवस्था हवेली की ओर से कर दी गयी। हवेली के ही एक खण्ड में कमरा मिल गया।
खाना-पीना,कपड़ा-लत्ता,ऊपर से साठ रुपये वेतन भी। मास्टर साहब को एक वर्ष में बोनस
का भी ऐलान कर दिया दादाजी ने उसी दिन— हितोपदेश-पञ्चतन्त्र,अमरकोश पूरा कर देंगे
तो एक शाही घोड़ा भी दिया जायेगा। और मुझे
आदेश हुआ- सुबह से दोपहर तक,और फिर शाम अन्धेरा होते ही,लालटेन में तेल खतम होने
तक नियमित रुप से पढ़ने की।
‘....शाही
घोड़े की पीठ पर बैठने का बादशाही सपना देखते,माटसा’ब बड़े लाड़-दुलार से मुझे
पढ़ाने लगे,जब कि खजूर की छड़ी उन्हें दी गयी थी- दिन भर में एक पहाड़ा न याद करने
पर पांच छड़ी का उपहार देने हेतु। मुझे अपने इस आपातस्थिति से निपटने का कोई
रास्ता नजर न आ रहा था। दिन तो दिन,रात में भी तीन-चार घंटे खड़िया-पट्टिका लेकर
लालटेन के सामने आँखें सुजाना बड़ा ही भारी पड़ रहा था।
‘....किसी
तरह दो-तीन दिन गुजरा। चौथे दिन कलुआ को देखा- सांझ का दीया-बाती उसीके जिम्मे
रहता था। कमरे से लालटेन लाकर,शीशा निकाला,और गोइठे की राख से मांजने लगा। वह शीशा
मांज रहा था,और मैं अपना दिमाग। थोड़े ही देर में दोनों चमकने लगे- शीशा भी और
मेरा दिमाग भी। लालटेन में जरुरत भर तेल भर, जलाकर, दीअट पर रख, कलुआ चला गया।
माटसा’ब सायं शौच से निवृत होने गये हुए थे। कंडे की राख वहीं पड़ी हुयी थी।
दो-तीन मुट्ठी उठाया और लालटेन का ढक्कन खोल, राख डाल,मनोहरपोथी लेकर कर- अ से
अनार,आ से आम करने लगा,खूब जोर-जोर से,ताकि दालान में बैठे दादा के कानों तक जा सके
होनहार पढ़ाकू पोते की तोते जैसी मीठी आवाज। उधर,तोतारट करते देख माटसा’ब भी खुश,खुद
को शाबासी देते हुए। किन्तु घड़ी भर बाद लालटेन टिमटिमाने लगी। उन्हें लगा कि कलुआ
ठीक से तेल भरा नहीं होगा। “ चलो कोई बात नहीं,कल याद कर लेना ”- कहते हुए मास्टर साहब खैनी ठोंकने लगे।
‘...और
फिर अगले दिन भी यही बात हुयी...और फिर अगले दिन भी । आखिर एक ही ऊख में रास्ता
रोज-रोज तो लगता नहीं ! अगले दिन कलुआ को डांट पड़ी। उसने अपने सफाई
में कहा कि तेल तो नियमित डालता है,किन्तु इधर तीन दिन से पता नहीं क्यों कम तेल
में ही लालटेन भर जा रहा है।
‘...लालटेन
विषय पर दादाजी के चौपाल में आकस्मिक बैठक हुयी,और जांच कमेटी बैठायी गयी,जिसके
चेयरमैन थे पिताजी। दिन के उजाले ने लालटेन की टंकी का पोल खोल दिया। कलुआ अपराधी
सिद्ध हुआ। अब उसे मार पड़ेगी, जान कर मुझे बड़ा दुःख हुआ,किन्तु आखिर करता क्या ! मगर कलुआ भी पक्का कांईआं निकला। मार खाने से पहले ही उगल दिया – “ जी मालिक,मैं रोज देखता हूँ, छोटे मालिक लालटेन में राख भर देते हैं, पर
डर से टोका नहीं।” कलुआ की गवाही पर मुझे जो सजा मिली वो शायद
कभी न भूलने वाली है- एक नहीं, सात-सात खजूर की कांटेदार छड़ी तोड़ी गयी,मेरी पीठ
पर,और मरहम पट्टी के वजाय बेरहमी पूर्वक बन्द कर दिया गया एक कमरे में, जहां अन्न
था न जल। कमरा हवेली के बाहरी हिस्से में था,जहाँ छः में से एक माता का भी करुण
क्रन्दन पहुँचना मुश्किल था। मेरी रुलाई तो कमरे की दीवारें ही हजम कर जा रही थी ।
छत्तीस से भी अधिक घंटों तक बन्द पड़ा रहा कालकोठरी में,जहाँ पिताजी के डर से
‘काल’ को भी प्रवेश करने में संकोच होरहा
था।
‘....योगी
लोग कहते हैं न कि अन्नमयकोश का जब सम्यक् शोधन हो जाता है,तब प्राणमयकोश का पट्ट
स्वतः खुल जाता है,और उत्तरोत्तर साधना यदि जारी रहे तो साधक एक-एक कोशों को भेदता
मनोमय,विज्ञानमय और आनन्दमय के प्रकाश-पुञ्ज का दर्शन कर लेता है। छतीसवां घंटा
आते-आते, मेरा कोई और कोश तो भेदित नहीं हुआ,परन्तु कुटिल बुद्धि का कोश प्रकाशमान
हो उठा। बिजली की तरह विचार कौंधा,और उसे अमल में लाने की योजना बनाने लगा। आंखिर
कब तक रखते हो बन्द अपने लाडले को,देखते हैं हम भी....।
‘...अगली
सुबह दादा जी आकर किवाड़ खोल दिये। गोद में लेकर पुचकारते हुए बोले- “क्यों इतनी शरारत करते हो कि मजबूर होकर तुम्हें दण्ड देना पड़ता है...। जाओ,अन्दर
जाकर जल्दी से नहा-धोआ कर,कुछ खा-पीलो। मेला चलना है। तुम्हें छोटा घोड़ा लेना है
न? लेकिन हाँ,हमें अमरकोश के पांच श्लोक रोज सुनाने होंगे। ” मैं बिना कुछ कहे,उनकी गोद से कूद पड़ा,और भागा सीधे बड़ी मां के पास।
मांये तो सब थी, परन्तु बड़ी मां मुझे सबसे ज्यादा लाढ़ करती थी। उनकी गोद में घुस
कर घंटो रोया, किन्तु अब लगता है कि वे आंसू पश्चाताप जनित नहीं थे। थे बिलकुल
विद्रोही ज्वाले की तरह।’
जरा
ठहर कर,बाबा फिर कहने लगे- ‘ तुम देखी होगी गायत्री ! कुम्हार को घड़े बनाते हुए- कितने नज़ाकत से निर्माण करता है। कोई मां अपने
बच्चे को क्या सहलायेगी इतने नाज़ुक हाथों से, जितना कि कुम्हार सहलाता है अपने
कच्चे घड़े को। चाक पर घुमाता है,सूत की धार से बड़े चतुराई पूर्वक चाक से अलग
करता है,मानों बच्चे का नाल-छेदन कर रहा हो,और फिर आहिस्ते से छांव में रखता है,
जैसे मां पालने में बच्चे को सुला रही हो। कपड़े की पोटली में गोइठे की राख
भरकर,मिट्टी और लकड़ी के कड़े ‘थपकन’ से, आहिस्ते-आहिस्ते थपथपा कर घड़े को सही
आकार देता है। दो दिन तक कड़ी धूप भी नहीं लगने देता,उसे फटने-बिफरने से बचाने
हेतु । और हम इन्सान ? अकसर इन्सान का सृजन तैयारी से नहीं ,बल्कि
इत्तफाक से हो जाता है । कामातुर जोड़े आपस में टकराते हैं, आतुरता पूर्वक, बरबरता
पूर्वक भी,और किसी कृत्रिम ‘अवरोधक की चूक’ वश सृष्टि रचा जाती है, रची नहीं जाती।
रचने और रचाने में बहुत फर्क होता है। आसमान और जमीन सा फर्क। और, जो तैयारी से,योजनावद्ध रुप से रची ही नहीं गयी,उसे पल्लवित करने में
सृजनहार की कितनी लालसा होगी ?
‘...सृष्टि
का इतना महत्त्वपूर्ण कार्य- सन्तानोत्पत्ति,और नियम-सिद्धान्त की ऐसी धज्जियां
उड़ती हैं कि पूछो मत । गर्भाधान पर ही विचार नहीं,फिर पुंसवन-सीमन्त की बात कौन
सोचे ! अब तो ये शब्द सिर्फ सिसक रहे हैं,कोशों में पड़े-पड़े। संस्कार चालीस से
सिमट कर सोलह हुए, और अब उनका भी ठीक पता नहीं। हाँ मोमबत्तियों से घिरा केक और
‘हैप्पीबर्थडे टू यू’ नहीं भूलता...।
‘....मेला
नहीं जाना था,सो नहीं गया। दादा जी कहते रहे। दुलारते रहे। मेरे दिमाग में तो रात
वाली योजना घूम रही थी। दालान पर आज कोई नहीं था,न पिताजी न दादाजी। सबके सब
मुड़ारीमेला गये हुए थे- हाथी खरीदने,और मुझे मनाने के लिए छोटा घोड़ा भी।
मास्टरसाहव भी साथ गये थे। मौका पाकर भुलना को बुलाया,क्यों कि कलुआ अब भरोसे का
नहीं रह गया था । उसकी बजह से ही मुझे इतनी सजा झेलनी पड़ी । अब तो उसे भी मजा
चखाना ही होगा ।
‘...बड़ी
मां से जिद्द करके चारआने मांगे,‘लकठो’ के लिए,और उसे भुलना को देकर भावी योजना का
साझेदार बनाने में सफल हुए। योजना की गोपनीयता के लिए उसे अपने सिर का कसम भी
दिलाये।
‘...शाम होते-होते भुलना के सहयोग से मेरी योजना साकार
होगयी । सारी तैयारी कर ली गयी । अब इन्तजार था कि जल्दी रात हो,सोने का वक्त हो।
आज शाम की पढ़ाई में भी खूब जोर लगाया। लालटेन भी देर तक जली । भोजन के बाद, सोने
के लिए बड़ी मां के पास चला गया,जबकि रोज दादाजी के साथ सोता था । बड़ी मां कुछ
उत्पाती बच्चों की दुखद कहानियां सुनाकर,उपदेश दे रही थी कि मुझे मन लगाकर पढ़ना
चाहिए, क्यों कि प्रतिष्ठित भट्ट कुल के बालक हैं हम । तभी अचानक शोर मजा- मास्टर
साहब को बिच्छु काट दिया । दालान में भीड़ लग चुकी थी । मास्टर साहव को टांग-टूग
कर अपने कमरे से दालान में ही लाया गया था । औरों की तरह हम भी बाहर आये,भीड़ का
हिस्सा बनने,माटसा’ब को सहानुभूति जताने । विच्छु का एक दंश ही जानलेवा कष्टकारी
होता है,तिस तो पीठ,जांघ,चूतड़,कमर...बीसियों दंश थे माटसा’ब के शरीर पर। ‘भीड़’
अपना-अपना तजुर्बा बता रही थी। किसी ने कहा कि ठीक से वहीं जाकर ढूढो,जहां बिच्छु
ने काटा था । यदि मिल जाय,तो उसे मार कर,लुग्दी बना,दंशस्थान पर लेप कर दो,तुरत
छूमन्तर होजायेगा।
‘...तजुर्बा सुन कर लगा कि मुझे ही विच्छु का डंक लग गया।
पर अब करता क्या । मन ही मन खुद को दुरुस्त करने लगा- भावी उपहार के लिए। टॉर्च की
रोशनी में विच्छु ढूढ़ा जाने लगा कमरे में । एक ने विस्तर से चादर सरकायी,और पूरे
मामले का पोस्टमार्टम रिपोर्ट हाजिर हो गया । विस्तर पर बिच्छु नहीं,बिच्छुओं की
जमात रेंग रही थी । सबकी पूंछ में धागा बंधा हुआ था ।
‘...लोग चौंके,अरे ये क्या माज़रा
है ! ढेर सारे बिच्छु, वो भी धागे से बन्धे
हुए...। अब,मास्टरसाहब को कौन
देखता,सभीलोग विच्छुओं की बरात देखने आजुटे। कलुआ
भी आंख मलते आया। उसे तो हरिश्चचन्द्र बनने की बीमारी थी न। देखते ही बोला- “छोटे मालिक ने भुलना को चार आने देकर,केवाल वाले ढूह से विच्छु ढूढ़कर
मंगवाया था। दोनों मिलकर,वांस की कमाची के सहारे,उसके पूंछ में धागा बाधे,और
गुरुजी के विस्तर में पिरो दिया । दीया-बाती के समय उधर गया तो चुपके से इनलोगों
की हरकत देखी मैंने। शोर मचाने की धमकी देने पर,भुलना ने अपनी चवन्नी में से आधा
हिस्सा मुझे भी भोर होते ही देने का वायदा भी किया है ।” - कलुहा
की गवाही, और नमकहरामी पर हम जलभुन गये । किन्तु करते ही क्या...।
‘...उस दिन भरी भीड़ के सामने ही पिताजी ने मुझे नंगा करके,घोड़े
वाले चाबुक से मारमार कर अधमुआ कर दिया- “ नालायक...हरामी...पता
नहीं किस अशुभ घड़ी में इसका नाम उपेन्द्रनाथ रखा गया...यह तो साक्षात उपद्रवीनाथ
है।” और उसी दिन से मैं उपद्रवीनाथ हो गया। गांव तो उस रात ही
जान चुका था,दो-चार दिन में ही इलाका भी जान गया...मेरा यह नया नाम।
‘...विच्छुओं
की पिष्टी बनाकर,माटसा‘ब के बदन में लेप लगाया गया । चंगे होने के बाद, अगले ही
दिन वो अपने मूल निवास को प्रस्थान किये,सो फिर कभी दर्शन न दिये। बेचारे का शाही
घोडे पर सवार होने का सपना धरा ही रह गया,और मुझे पढ़ा-लिखाकर विद्वान बनाने का
पिताजी का सपना भी ।
‘...अगले ही दिन नया फरमान जारी हुआ- “ अब इस हरामी को किसी गुरुकुल में छोड़ आते हैं। यहाँ रहकर छः-छः मांओं के
लाढ़-दुलार में बिगड़ गया है।” क्रमशः...
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