गतांश से आगे...चौथा भाग
मेरी
उत्सुकता अपनी सीमा तोड़ छलांग लगा गयी। पूछ बैठा- आंखिर ये
है क्या चीज?
मेरे
प्रश्न पर बाबा झल्लाये,मगर क्रोध वाली झल्लाहट नहीं,स्नेह वाली-बिलकुल स्निग्ध - “ तुम अखबार वालों की
यही आदत है,बाल की खाल निकाल कर अन्दर और अन्दर झांकने का प्रयास,यहां तक की
तुमलोग कभी-कभी प्याज को भी छीलने लगते हो, अन्दर किसी फल (परिणाम) की तलाश में। प्याज
के अन्दर भी कोई फल होता है क्या,जिसमें उसका बीज(कारण) हासिल हो सके ?
कोई जरुरी नहीं कि फल के अन्दर बीज हो ही,और सिर्फ बीज से ही फल उत्पन्न हो- यह भी
जरुरी नहीं। जिज्ञासा अच्छी चीज है,किन्तु हर जगह अच्छी नहीं है।”
फिर
भी !
जो
वस्तु मुझे आप दे रहें है,उसका परिचय तो जानना ही चाहिए न ? ये
तो मेरा अधिकार बनता है?
इस
बार बाबा सच में झल्ला गये। - “ ये अधिकार वाली बातें सिर्फ नेताओं के लिए छोड़
दो । इसे वे हथियार की तरह इस्तेमाल करके,जनता को मूर्ख बनाते हैं- उसके अधिकारों
की गिनती गिना कर। काश ! कर्तव्यों की झोली में से एकाध भी समझा देते,तो
राष्ट्र और राष्ट्रवासियों का कल्याण हो जाता। खैर तुमने पूछा है,तो कुछ तो बताना
ही पड़ेगा।”
—गायत्री की आंचल में से वो गांठदार चीज निकाल कर मेरे हाथ में देते हुए बोले- “
इसे मोतीशंख कहते हैं,किन्तु यह बजाने वाला शंख नहीं है। इस ‘पर’ साधना की जाती है ; और ‘इससे’ साधना भी की जाती है- दधिशंखतुषाराभं
क्षीरोदार्णव सम्भवम्...चन्द्रमा का अति प्रिय पदार्थ है यह। सामान्य शंख की
तुलना में यह जरा दुर्लभ है,किन्तु बिलकुल अलभ्य नहीं। रामेश्वरम् आदि समुद्री तट
पर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो जाता है। वैसे बसरा की खाड़ी में सर्वोत्तम
गुण-आकृति वाला मोतीशंख पाया जाता है। मोती सीपी से जरा भिन्न आकृति है इसकी। और
सामान्य शंख से तो बहुत ही फर्क है इसमें- रंग,रुप, आकृति सब कुछ बिलकुल अलग। बस
नाम भर है शंख- मोती जैसा चमक होने के कारण मोतीशंख नाम चरितार्थ होता है।
मोतीसीपी में से मोती निकलता है, मोतीशंख में से मोती भी नहीं निकलता। तुम मानवी
भाषा में इसे यूँ समझो कि मोतीसीपी नारी है,और मोतीशंख नर। किन्तु नारियों की
तुलना में नर का अत्यन्त अभाव है। मोतीसीपी तो बहुत मिलते हैं,पर मोतीशंख
अपेक्षाकृत कम। प्रकृति अट्रासाउण्ड का प्रयोग करके स्त्रीभूण हत्या जैसा कुकृत्य
नहीं करती । ये तो सभ्य कहे जाने वाले मानव
वेषधारी दानवों का तथाकथित सुकृत्य है।...
“...इस
मोतीशंख का विविध प्रयोग है तन्त्रशास्त्र में, उसकी ही एक बानगी,
अभी देखा तुमलोगों ने; किन्तु इसका ये
अर्थ नहीं कि इसे साध कर, अकर्मण्यों की भांति पड़े-पड़े सुस्वादु भोजन का आनन्द
लेते रहा जाय। विशेष अवस्था में साधकों का ‘सहायक’ है ये, ‘सहारा’ नहीं; और उस अवस्था में ही इसका प्रयोग करना
चाहिए। हां,आमजनों के लिए इसकी महत्ता और उपयोगिता है- मात्र,इसका द्राव्यिक
गुण-प्रभाव। द्रव्य का अर्थ यहां रुपया-पैसा मत समझ लेना। तुम अखवारी लोग कुछ का
कुछ समझने में माहिर हो। कहने वाला कहता कुछ है, और उसे अपनी समझ से तोड़-जोड़ कर
अलग रुप दे देते हो। द्रव्य का यहां वस्तुगत अर्थ में प्रयोग हुआ है। ये विशेष रुप
से साधित मोतीशंख जहाँ कहीं भी रहेगा,जीवन की अपरिहार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के
साधन का कदापि अभाव नहीं होने देगा...
“…यहाँ
फिर मेरे शब्दों पर ध्यान देना- मैं एक-एक शब्द महात्मा विदुर की भांति तौल-तौल कर
बोलने का प्रयास करता हूँ। शब्दों के पर्याय पर मुझे आस्था नहीं है। यहां अपरिहार्य
आवश्यकता की पूर्ति के साधन की बात कर रहा हूँ। सभ्य कहे जाने वाले लोगों की उछृंखल,अकूत
आवश्यकता-पूर्ति की बात मैं नहीं कर रहा हूँ। तुम इसे यों समझो- मान लो कि तुम
बीमार हो,दवा के लिए विशेष रकम चाहिए,जो नहीं है तुम्हारे पास,तो ऐसी अवस्था में
यह साधित मोतीशंख तुम्हें पैसे के अभाव में मरने नहीं देगा। पैसे के आभाव में
तुम्हारी बेटी की शादी नहीं रुकेगी। किन्तु हवाई जहाज पर उड़ने के लिए ये मोतीशंख
पैसे नहीं जुटायेगा। महीने का घरखर्चा नहीं उठायेगा। गायत्री के क्रीम-पाउडर के
लिए तो तुम्हें कमाना ही होगा। ”- बाबा की बातों पर गायत्री मुस्कुरायी। बाबा कह
रहे थे- “…किन्तु
इस अपरिहार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन के लिए भी श्रद्धा और दृढ़ विश्वास
होना चाहिए। हमारे बहुत से काम बिगड़ जाते हैं, इसी के अभाव में । पारस को भी
पत्थर समझ लेते हैं,या कभी अन्धीश्रद्धा,अन्धविश्वास कंकड़ को भी तिजोरी में रखवा
देता है। वैसे, हम मनुष्य माहिर हैं- कंकड़ को बचाकर,हीरे को गंवाने में। हमसब
पूजा,अर्चना,प्रार्थना,दान, जप,योग, तीर्थ,व्रत,यज्ञ सब कुछ करते हैं,किन्तु संशय
सहित,
प्रयोग,और
आजमाइश के रुप में, या फिर बनिये की तरह- हानि-लाभ का हिसाब देखकर। भीतर में सच्ची
श्रद्धा नहीं होती, और ना ही विश्वास होता है। करना चाहिये- सुन-जान लिए और करने
में लग गये। फल(परिणाम)कुछ दीखा नहीं,तो बस शास्त्र को दोषी करार दे दिये चट-पट।
‘...
एक बार एक गांव में अकाल की स्थिति देख,इन्द्रप्रीत यज्ञ का आयोजन हुआ ताकि प्रचुर
वर्षा हो सके। इस यज्ञ का फल कहा गया है शास्त्रों में कि पूरी विधि से विश्वास
पूर्वक किया जाय तो पूर्णाहुति होते-होते घोर वर्षा होती ही है- इन्द्र का संकल्प
है यह। उस गांव में यज्ञ हुआ। पूर्णाहुति के दिन सारा गांव ही नहीं, बल्कि आस-पड़ोस
के गांव भी उमड़ पड़े—यज्ञ का प्रसाद पाने को- “प्रसाद”
वो कृपा-प्रसाद नहीं, जिसके लिए यज्ञ किया गया है,बल्कि लड्डू,पेड़ा,केला,अमरुद की
भीड़ इकट्ठी हो गयी। सभी खाली हाथ यज्ञ मंडप की ओर दौड़ लगा रहे थे, ताकि पिछुआ न
जायें। एक साधारण सा आदमी चुपचाप अपने दरवाजे पर बैठा, जाते हुए लोगों को देख रहा
था। किसी ने पूछ लिया- क्यों भाई तुम नहीं जाओगे यज्ञ देखने ? उसने
सहजता से कहा- “ मेरी तबियत ठीक नहीं रहती। जरा सा भींग जाने पर
बीमार हो जाता हूँ। मेरे पास छाता भी नहीं है,कैसे जाऊँ।”
पूछने वाला हँसा उसकी बेवकूफी भरी बातों पर- “ पागल हो क्या ? क्या
लगता हैं बारिश होने वाली है? मेघ कहीं नजर आ रहे हैं ? यज्ञ
करने से भी कहीं वर्षा होती है ?” अब जरा सोचो- भीड़ भागी जारही है यज्ञ देखने,और
आस्था-विश्वास का लेश मात्र भी नहीं। उस पूरे जमात में सच्चा विश्वासी अगर कोई है
तो वह आदमी,जो छाता न रहने के कारण यज्ञ का प्रसाद लेने नहीं जा पा रहा है। प्रसाद
का असली अधिकारी वही है। ईश्वर उसे ही कुछ मदद करता है,जिसे भरोसा है उस पर। श्रीकृष्ण
ने गीता में कहा है- अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां
नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। (९-२२)। बात यहां अटूट भरोसे की
है- जो सबकुछ भुला कर, छोड़कर, विसराकर,एकमात्र उस परमात्मा का यजन-भजन करता
है,उसके हानि-लाभ,सुख-दुःख का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा न उस भगवान को !
मोतीशंख बेचने वाले को तो बहुत अमीर हो जाना चाहिए था, किन्तु वह सिर्फ व्यापारी
ही रहता है। यहां इसका द्राव्यिकगुण काम नहीं आयेगा। ”
इतना कहकर,बाबा जरा रुके। मैं कुछ कहना ही चाहता
था कि गायत्री पूछ बैठी- “ और ये क्या है भैया !
इस डिबिया में?
”
बाबा
ने मेरे हाथ से मोतीशंख लेकर,पुनः गायत्री की आँचल में डाल दिया,और उसमें पड़ी
चांदी वाली डिबिया निकाल कर, उसे खोलकर दिखाया- छोटा सा,कोई ईंच भर घेरे की गोलाई
वाला, ठीक छोटे आलू जैसा,किन्तु उसमें दो-दो ईंच के रोयें का गुच्छा निकला हुआ, डिबिया
में रखे पीले सिन्दूर से लिपटा-सना सा। मैंने हाथ में लेकर देखा- अद्भुत सुगन्ध
नथुनों में बरबस घुसा जा रहा था। बाबा ने कहा-
“
इसे सियारसिंगी कहते हैं। संस्कृत नाम श्रृगालश्रृंगी है। जांगम द्रव्यों में
श्रृगालश्रृंगी एक अद्भुत और अलभ्य पदार्थ है।सियार के सभी पर्यायवाची शब्दों- जम्बुक,गीदड़
आदि से जोड़कर इसके भी पर्याय प्रचलित हैं;किन्तु सियारसिंगी सर्वाधिक प्रचलित नाम
है। आमलोग तो इसके होने पर ही संदेह व्यक्त करते हैं- कुत्ते-सियार के भी कहीं
सींग होते हैं? किन्तु तन्त्र शास्त्र का सामान्य ज्ञान रखने वाला भी जानता है कि
सियारसिंगी कितना महत्त्वपूर्ण तान्त्रिक वस्तु है। शहरी सभ्यता और पश्चिमीकरण ने
नयी पीढ़ी के लिए बहुत सी चीजें अलभ्य बना दी हैं।बहुत सी जानकारियां अब मात्र
किताबों तक ही सिमट कर रह गयी हैं,अपना अनुभव और प्रत्यक्ष ज्ञान अति संकीर्ण हो
गया है। चांद और मंगल की बातें भले कर लें,जमीनी अनुभव के लिए भी "विकीपीडिया"
तलाशना पड़ता है।
बहुत
लोगों ने तो सियार देखा भी नहीं होगा । चिड़ियाघर में शेर की तरह इन बेचारों को
स्थान भी शायद ही मिला हो,फिर शहरी बच्चे देखें तो कहां? सियार काफी हद तक कुत्ते
से मिलता-जुलता प्राणी है,किन्तु कुत्ते से स्वभाव में काफी भिन्न। एक कुत्ता
दूसरे कुत्ते को देखकर गुरगुरायेगा, क्यों कि उसमें थोड़ी वादशाहियत है,शेखी
है।कुत्ता बहुत समूह में रहना पसन्द नहीं करता,जब कि सियार बिना समूह के रह ही
नहीं सकता। उसकी पूरी जीवन-चर्या ही सामूहिक है। देहात से जुड़े लोगों को सियार का
समूहगान सुनने का अवसर अवश्य मिला होगा। वन्य-झाड़ियों में माँद(छोटा खोहनुमा) बनाकर
ये रहते हैं।दिन में प्रायः छिपे रहते हैं,और शाम होते ही बाहर निकल कर "हुआ ...
हुआ" का कर्कश कोलाहल शुरु कर देते हैं। सियारों के इस समूह में ही एक विशेष
प्रकार का नर सियार होता जो सामान्य सियारों से थोड़ा हट्ठा-कट्ठा होता है। अपने
समूह में इसकी पहचान मुखिया की तरह होती है,आहार-विहार-व्यवहार भी वैसा ही।फलतः
डील-डौल में विशिष्ट होना स्वाभाविक है।अन्य सियारों की तुलना में यह थोड़ा आलसी
भी होता है- बैठे भोजन मिल जाय तो आलसी होने में आश्चर्य ही क्या? खास कर रात्रि
के प्रथम प्रहर में यह अपने माँद से निकलता है। विशेष रुप से कर्कश संकेत-ध्वनि
करता है,जिसे सुनते ही आसपास के मांदों में छिपे अन्य सियार भी बाहर आ जाते हैं,और
थोड़ी देर तक सामूहिक गान करते हैं- वस्तुतः भोजन की तलाश में निकलने की उनकी
योजना, और आह्वानगीत है यह। सामूहिक गायन समाप्त होने के बाद सभी सियार अपने-अपने
गन्तव्य पर दो-चार की टोली में निकल पड़ते हैं,किन्तु यह महन्थ(मुखिया)यथास्थान
पूर्ववत हुँकार भरते ही रह जाता है। यहां तक कि प्रायः मूर्छित होकर गिर पड़ता है। ”
बाबा
सियार के बारे में कह रहे थे। मैं मन ही मन मुस्कुरा रहा था,कि ये मुझे और गायत्री
को भी पक्का महानागर ही मान लिये हैं।किन्तु कह न सका कि चन्द दिनों से दिल्ली में
रहकर मैं पक्का शहरी कब हो गया ! कितने सियार खदेड़े हैं बचपन में – कोई हिसाब है !
सियारसिंगी नाम भी सुना-जाना सा है,किन्तु देखने का मौका आज ही लगा है। अतः
उत्सुकता तो बनी ही हुयी थी।
बाबा
ने बतलाया- “...इसी
महन्थ के सिर पर (दोनों कानों के बीच) एक विशिष्ट जटा सी होती है,जिसे सियारसिंगी
कहते हैं। गोल गांठ को ठीक से टटोलने पर उसमें एक छोटी कील जैसी नोक मिलेगी,जो
असलियत की पहचान है। भेंड़-बकरे की नाभी भी कुछ-कुछ वैसी ही होती है,पर उसके अन्दर
यह नोकदार भाग नहीं होता। जानकार शिकारी वैसे समय में घात लगाये बैठे रहते हैं-
पास के झुरमुटों में कि कब वह मूर्छित हो। जैसे ही मौका मिलता है,झटके से उसकी जटा
उखाड़ लेते हैं। चारों ओर से रोयें से घिरा गहरे भूरे (कुछ छींटेदार) रंग का,करीब
एक ईंच व्यास का गोल गांठ – देखने में बड़ा ही सुन्दर लगता है। एक सींग का वजन
करीब पच्चीस से पचास ग्राम तक हो सकता है। तान्त्रिक सामग्री बेचने वाले मनमाने
कीमत में इसे बेचते हैं। वैसे पांच सौ रुपये तक भी असली सियारसिंगी मिल जाय तो
लेने में कोई हर्ज नहीं। ध्यातव्य है कि ठगी के बाजार में सौ-पचास रुपये में भी
नकली सियारसिंगी काफी मात्रा में मिल जायेगा। रोयें,रेशे,वजन, सब कुछ बिलकुल असली
जैसा होगा,असली वाला दुर्गन्ध भी होगा,सुगन्ध भी। वस्तुतः सियार की चमड़ी में लपेट
कर सुलेसन से गांठदार बनाया हुआ, मिट्टी-पत्थर भरा होगा। कस्तूरी और सियारसिंगी के
नाम से आसानी से बाजार में बिक जाता है। सच्चाई ये है कि कस्तूरी तो और भी दुर्लभ
वस्तु है,जो मूलतः, मृग की नाभि से प्राप्त होता है। अतः धोखे से सावधान ।
“...वैसे तो ये सब
तन्त्र की बातें बहुत ही गोपनीय है। हर कोई इसे जानने का अधिकारी भी नहीं है, पता
नहीं कौन कब किस वस्तु का दुरुपयोग कर बैठे। यही कारण है कि योग्य शिष्य को ही इसका
ज्ञान देने की बात कही जाती है ग्रन्थों में। किन्तु देखता हूँ कि इस गोपनीयता से
भी तन्त्र-विद्या की क्षति हो रही है। एक ओर तन्त्र-मन्त्र के नाम पर ठगी का बाजार
गरम है,तो दूसरी ओर तन्त्र का सही अर्थ भी खो सा गया है। आम आदमी जो थोड़ा भी
समझदार,पढ़ा-लिखा है,सीधे मान लेता है कि तन्त्र बहुत ही घटिया चीज है। इस विषय पर
हम कभी बाद में विस्तार से बातें करेंगे। अभी सिर्फ इस अद्भुत वस्तु की साधना की
संक्षिप्त चर्चा किये देता हूँ। तुम अखबारी लोग तो आसानी से इन बातों में विश्वास
करने वाले नहीं हो,किन्तु हम देख रहे हैं कि गायत्री को उत्सुकता अधिक हो रही है
जानने की, और दे भी रहे हैं इसे ही। इसकी साधना प्रक्रिया कोई जटिल और खतरनाक नहीं
है, इस कारण कह-बतला देने में भी कोई हर्ज नहीं है।
“...असली सियारसिगीं
जब कभी भी प्राप्त हो जाय,उसे सुरक्षित रखकर, शारदीय नवरात्र की प्रतीक्षा करे। वैसे
अन्य नवरात्रों में भी साधा जा सकता है। गंगाजल से सामान्य शोधन करने के पश्चात्
नवीन पीले वस्त्र का आसन देकर यथोपलब्ध पंचोपचार/ षोडशोपचार पूजन करें। तत्पश्चात्
श्रीशिवपंचाक्षर एवं देवी नवार्ण मन्त्रों का कम से कम एक-एक हजार जप कर लें। इतने
से ही सियारसिंगी प्रयोग-योग्य हो गया। प्रयोग के नाम पर तो "बहुत और व्यापक"
शब्द लगा हुआ है,किन्तु गिनने पर कुछ खास मिलता नहीं। बस एक ही मूल प्रयोग की
पुनरावृत्ति होती है। सियारसिंगी बहुत ही शक्ति और प्रभाव वाली वस्तु है। पूजन-साधन
के बाद इसे एक डिबिया में (चांदी की हो तो अति उत्तम) सुरक्षित रख देना चाहिये। जैसा
कि ये रखा हुआ है। रखने का सही तरीका यही है कि डिबिया में पीला कपड़ा बिछा दे। उसमें
सिन्दूर भर दे,और साधित सियारसिंगी को स्थापित करके,पुनः ऊपर से सिन्दूर भर दें। नित्य
पंचोपचार पूजन किया करें। पूजन में सिन्दूर अवश्य रहे। इस प्रकार सियारसिंगी सदा
जागृत रहेगा। यह जहां भी रहेगा, वास्तुदोष, ग्रहदोष आदि को स्वयमेव नष्ट करता
रहेगा। किसी प्रकार की विघ्न-वाधाओं से सदा रक्षा करता रहेगा। सियारसिंगी की उस
डिबिया से निकाल कर थोड़ा सा सिन्दुर अपेक्षित व्यक्ति को अपेक्षित उद्देश्य (तन्त्र
के षटकर्म) से दे दिया जाय तो अचूक निशाने की तरह कार्य सिद्ध करेगा- यही इसकी
सबसे बड़ी विशेषता है। प्रयोग करते समय चुटकी में उस खास सिन्दूर को लेकर बस पांच
बार पूर्व साधित दोनों मंत्रों का मानसिक उच्चारण भर कर लेना है- प्रयोग के
उद्देश्य और प्रयुक्त के नामोच्चारण के साथ-साथ। किन्तु ध्यान रहे- इस दुर्निवार
वस्तु का दुरुपयोग बिना सोचे समझे (नादानी और स्वार्थ वश) न कर दे,अन्यथा एक ओर तो
कार्य-सिद्धि नहीं होगी,और दूसरी ओर वह साधित सियारसिंगी सदा के लिए निर्बीज(शक्तिहीन)हो
जायेगी। शक्तिहीनता का पहचान है कि उसमें से अजीब सा दुर्गन्ध निकलने लगेगा- सड़े
मांस की तरह,जब कि पहले उस साधित सियारसिंगी में एक आकर्षक मदकारी-मोदकारी सुगन्ध
निकला करता था- देवी-मन्दिरों के गर्भगृह जैसा सुगन्ध। अतः सावधान- स्वार्थ के
वशीभूत न हो।
“...प्रसंगवश यहां एक
बात और स्पष्ट कर दूं कि सियारसिंगी की साधना में जो सिन्दूर प्रयोग किया जाय वह
असली सिन्दूर ही हो,क्यों कि आजकल कृत्रिम पदार्थों से तरह-तरह के सस्ते और महंगे
सिन्दूर बनने लगे हैं,जो शोभा की दृष्टि से भले ही महत्वपूर्ण हों,किन्तु
पूजा-साधना में उनका कोई महत्व नहीं है। नकली सिन्दूर के प्रयोग से साधना निष्फल
होगी- इसमें जरा भी संदेह नहीं। फिर कभी मौका मिलने पर मैं तुम्हें असली सिन्दूर
के बारे में भी बतलाउंगा,और हो सका तो सिन्दूर बनाने का तरीका भी। फिलहाल तो इसे डिबिया में बन्द
करदो,और ले जाकर पूजा-स्थान में रख दो; और मुझे इज़ाजत दो। रात बहुत बीत चुकी है।
तुमलोग अब आराम करो।”- इतना कह कर बाबा उठ खड़े हुए।
“ इतनी रात गये कहाँ
जाओगे भैया ?
क्या यहीं सो नहीं सकते ? किस बात के संकोच में हो ? मैं
उधर सोफे पर सो रहूँगी,और तुमदोनों यहाँ चौकी पर आराम करो । इतनी बड़ी चौकी
है,दोनों तो हवा पहलवान ही हो। ” – गायत्री ने हँस कर कहा।
“नहीं...नहीं गायत्री !
संकोच काहे का ! अपनों के बीच संकोच और औपचारिकता का कोई जगह नहीं
होना चाहिए। बात दरअसल कुछ और है। गृहत्यागी के लिए किसी गृहस्थ के यहाँ वास करना
भी उचित नहीं है। मिलना-जुलना और बात है। अब ये सिलसिला लगभग जारी रहेगा।जब भी अवसर
होगा,आकर तुमलोगों से मिला करुँगा। अभी तो रुकसत करो। ”
इतना कहकर बाबा निकल गये। नीचे गेट तक छोड़ने
के लिए हमदोनों भी गये। विदाई के प्रणामपाती-कृत्य में पीठ ठोंकते हुए बाबा ने
कहा- “अरे
इतनी देर हमलोग गपशप करते रहे। अभी तक तुम्हारा नाम भी नहीं पूछा,और
न तुम बतलाये ही।”- फिर अपने आप में बुदबुदाये- “
छोडो भी, नाम में क्या रखा है। काम से मतलब है। मुझे तुमसे बहुत काम लेना है।
करोगे न?”
मैंने
हाँ में सिर हिलाया। बाबा विदा हो गये। हमदोनों
ऊपर आकर सोने
का उपक्रम करने लगे,
किन्तु नींद और आँखों की संगति देर तक भी, बैठ न पायी। बाबा के विषय में ही बातें
करते-करते सबेरा हो गया।
दिन अपने अंदाज में गुजरता रहा- वही
घिसे-पिटे क्षण,मिनट और घंटे। दो सप्ताह गुजर गये। हमलोगों को बाबा का इन्तजार
रहा,पर बाबा नहीं आये। उनका दिया हुआ दोनों कृपा-प्रसाद— मोतीशंख और सियारसिंगी
गायत्री के नित्य उपासना में शामिल हो चुके थे। अपने भाग-दौड़ भरी जिन्दगी से समय
चुराकर, मैं भी कभी-कभार मिनट-दो मिनट गायत्री के साथ ही बैठ लिया करता था उपासना
में। उपासना क्या ! कुछ देर आँखें बन्द कर, खुली आंखों वाली हरकतें
ही करते रहना- ये क्या कोई उपासना है,साधना है,ध्यान है?—खुद
से ये सवाल करता,पर कोई जबाव तो था नहीं मेरे पास,अतः करते रहता,जो प्रायः दुनिया
के बहुत से लोग करते रहते हैं,और स्वयं ही साधक होने का सेहरा भी बांध देते हैं।
साधना क्या है,कैसे की जाती है- जानने के लिए मन हमेशा ललकता रहा है। किन्तु कोई
योग्य व्यक्ति मिला नहीं,जिससे कुछ जान-सीख सकूं। बाबा से मुलाकात के बाद, अचानक
लगा कि अब कुछ पते की बात होगी,पर बाबा हवा के झोंके की तरह आये,और उड़ गये।
एक दिन चिड़ियाघर के पास कुछ घटना हो गयी।
‘स्टोरी कवर’ करने के लिए मुझे ही जिम्मेवारी मिली। ड्यूटी बजाकर,थका शरीर,और
बोझिल मन लिए पैदल ही चल दिया डेरे की ओर। रास्ते में ही शनि मन्दिर पड़ता था। उस
दिन शनिवार भी था। काफी भीड़ होती थी शनि-मन्दिर में । कभी-कभी मुझे भी लगता कि
मन्दिर जाना चाहिये, देवी-देवताओं का दर्शन करना चाहिए। गायत्री भी उलाहने
के लहजे में उपदेश दे दिया करती- ‘ तुमको तो मन्दिर-वन्दिर से वास्ता नहीं रहता,किसी
पर विश्वास और भरोसा ही नहीं। दुनिया क्या पागल है,जो दौड़ लगा रही है?’
हालाकि
मैं कौन होता हूँ दुनिया को पागल कहने वाला;किन्तु औरों की तरह आस्तिकता ओढ़ लेना
भी नहीं भाता। क्या सच में लोग इतना आस्तिक हैं?
इतनी आस्था है ईश्वर पर ? तो फिर वो ईश्वर कहाँ है,जिसे हम मन्दिर, मस्जिद,गिरजाघरों
में ढूढते फिर रहे हैं? आज तक दीखा किसी को? क्या
चार हाथ,दश हाथ,अठारह हाथ वाला विविध स्वरुप ही ईश्वर है? किन्तु
भीतर से हमेशा यही आवाज आती- दुनिया सच में पागल नहीं फिर भी, मूर्ख और अज्ञानी तो
जरुर है। ईश्वर के ये सारे तथाकथित स्वरुप उसके कल्पना प्रसूत हैं। संसार की अलभ्य
वस्तुओं के लिए उसने स्वर्ग की कल्पना की। और स्वर्ग की कल्पना हो जाने के बाद,नरक
की कल्पना तो आसान हो जाती है- स्वर्ग के ठीक विपरीत नरक की मानसी सृष्टि सहज हो
जाता है। मुझे यही लगता है कि मनुष्य अपनी सांसारिक वासनाओं(इच्छाओं) की भूख लिये
भिखारियों की तरह झोली फैलाता है- किसी मूर्ति के सामने,और इसी को पूजा समझता है। सर्वव्यापी,सर्वशक्तिमान
ईश्वर तो अमूर्त है,फिर इस मूर्ति में हम क्या ढूढते हैं ?
जो सब कुछ जानता है,उसे हम क्या जनाने की कोशिश करते हैं?
पत्रंपुष्पंफलंतोयं तुभ्यमेव समर्पयेत् – उसकी ही तो सारी चीजें हैं,फिर
उसे ही अर्पण करने का क्या औचित्य ? तो क्या मैं भी उसी
का नहीं हूँ?
यदि
हूँ,तो खुद को ही क्यों नहीं अर्पित कर देता? सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।-
ये अद्भुत संदेश है कृष्ण का ! आह्वान है कृष्ण का !
सबकुछ त्याग कर अपनी शरण में आजाने की बात कर रहे हैं । फिर ये अक्षत,फूल,पत्र, पुष्प,
धूप,दीप,नैवेद्य- ये आलंकारिक पूजा? ये बड़े-बड़े यज्ञ ! यज्ञों
में दिये जाने वाले विविध बलि विधान भी ….क्या
है ये सब ? और तो और, बुद्ध,महावीर, पैगम्बर
मुहम्मद, ईशा सबने तो यही कहा –मूर्ति से बाहर आकर,मूर्ति को त्याग कर; स्वयं में भीतर घुसकर, उपासना का सही मार्ग
दर्शन कराया, और हम कितने मूर्ख हैं कि उन मार्गदर्शकों की ही मूर्ति बनाकर उपासना
करने बैठ गये। क्या कृष्ण ने कभी कहा कि मेरी मूर्ति बनाकर पूजो? उनके
उपदेशों का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ—वेद-शास्त्र,उपनिषदों का सारभूत गीता-सर्वोपनिषदो
गावो,दोग्धा गोपालनन्दनः। पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।—
में तो नहीं कहा गया ऐसा। और उससे भी मजे की बात है कि ये तुम्हारी मूर्ति...ये
मेरी मूर्ति...ये तुम्हारा ईश्वर...ये मेरा ईश्वर...अखिल ब्रह्माण्ड का रचयिता,
क्या अलग-अलग है मेरा... उसका...उसका ? कृष्ण और बुद्ध में अन्तर क्या है? रास्ते
का ही तो फर्क है ! मंजिल तो एक ही है सबका फिर ये झगड़ा किस बात का? चलो,जाओ
अपने रास्ते से- राह पकड़ तू एक चला चल,पा
जायेगा मधुशाला- कविवर बच्चन ने क्या शरावखाने का रास्ता दिखलाया
है ?
कहते हैं, जन्नत में शराब की दरिया है। पीओ जी भरकर,जितना पी सको। किसी ने कहा था
एक बार कि ये इशारा किसी दिव्य पेय का है,जिसका कोष कभी रिक्त नहीं होता। किन्तु
इसे पाया कैसे जाय- समझ नहीं आता।
ऐसे ही विविध द्वन्द्वों से मैं हमेशा जूझते रहा
हूँ। उस दिन भी यही कुछ उमड़-घुमड़ रहा था मन में,और पांव धीरे-धीरे शनि-मन्दिर की
ओर बढ़े जा रहे थे।
शनि-मन्दिर
में पहुँचने के लिए तेइस सीढ़ियां तय करनी होती थी। किसी जानकार ने बड़े ही
सोच-विचार कर इसका निर्माण कराया होगा। शनि के लिए जप की संख्या भी तेइस हजार ही
है न। इस तेइस का क्या चक्कर है- सोच रहा था, सीढियां भी चढ़े जा रहा था। तीन-चार
सीढी चढ़ा,तभी ध्यान गया-सीढियों से नीचे, बांयी ओर पंक्तिवद्ध भिखारियों की जमघट
पर।
अन्य
दिनों दान न देने वाले भी शनिवार को दान जरुर करते हैं। ज्योतिष के अनुसार शनि की
चाल और भावों पर पकड़ शतरंज के घोड़े जैसा खतरनाक है। बारह घरों में अधिकांश पर
इनका प्रभुत्व किसी न किसी पाद वा दृष्टि से बना ही रहता है। ये शनिदेव थोड़े
कुपित ‘से’ देव हैं न, ज्यादातर लोगों को
परेशान करते हैं।
शनिदेव
की कृपा से इस दिन भिखारियों की चांदी रहती है। खाने को दहीबड़े भी नसीब हो जाते
हैं,लगाने के लिए तेल भी मिल जाता है। कोई-कोई भक्त तो स्टील के कटोरे में भर कर
तिल का तेल,और दहीबड़ा भी दे जाता है। पंडित जन बताते हैं कि इस दिन भिखारियों को
दान देना ब्राह्मण से भी अधिक महत्वपूर्ण है। ऐसे में भिखारियों की भीड़ स्वाभाविक
है।
भीड़
को निहारते हुए मैं अचानक ठिठक गया। एक परिचित सा चेहरा लगा। उत्सुकता जगी। शनिदेव
के दर्शन से भी अधिक जरुरी लगा— उस चेहरे का दर्शन। तुरत उल्टे पांव सीढ़ियां उतर,
उसके करीब गया। भिखारियों को लगा कि कोई दान-दाता आ रहा है। सभी आवाज लगाने लगे, आतुर
होकर, ताकि कहीं वे चूक न जायें। मैं उनकी आवाज को अनसुना करते हुए आगे बढ़कर, उस
चेहरे को गौर से देखने लगा। यदि मेरी आँखें धोखा नहीं खा रही
हैं,तो निश्चित ही ये उपद्रवी बाबा ही हैं,जो अपने रूप को जरा और विकृत कर यहाँ
भिखारियों की जमात में विराज रहे हैं—विचारते हुए बिलकुल समीप जाकर टोका- ‘ उपेन्द्रबाबा ! आप
यहाँ
?’
पहले उन्होंने मुझ पर ध्यान नहीं दिया था। शायद, किसी और ही धुन में खोयें हों,अतः
मेरी आवाज सुनकर चौंक गये। मेरी ओर गौर से देखते हुए,क्षणभर को झिझके,या सिर्फ
मुझे ऐसा लगा कह नहीं सकता।
“अरे
अखबारी बाबू !
तुम
इधर,मन्दिर आये थे क्या? तुम तो कहते हो कि
मन्दिर वन्दिर जाता
नहीं। आज क्या बात है...?”- बात तो वे सोलह आना सही
कह रहे थे। मैं इतना
निश्चित तौर पर जानता हूँ कि ईश्वर मन्दिरों में कैद रहने वाला नहीं है,अतः उसे
यहाँ छोड़ कहीं और ही तलाशने की जरुरत है।
‘जी,औरों
की तरह नियमित मन्दिर सेवी मैं नहीं हूँ,मगर कोई कसम तो नहीं है कि जाऊँ ही नहीं।
आज ऑफिस के काम से इधर आना हुआ था। जी में आया कि जरा इधर भी होता चलूँ।’- मैंने
उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा- ‘पर,आप यहां क्या कर रहे हैं,भिखारियों के साथ?’
वे
उठ खड़े हुए। बिछाया हुआ चट उठाकर,मोड़-माड़ कर वहीं पेड़ की डाल पर रख दिये, जहाँ
पहले से ही एक बोरीनुमा झोला टंगा हुआ था। सामने रखा स्टील का गन्दा सा,बड़ा सा
भिक्षा-पात्र पड़ा हुआ था,जो आधे से अधिक भरा हुआ था,उसे भी उठा लिए। फिर बिना कुछ
बोले, थोड़ा-थोड़ा निकाल कर पंक्तिवद्ध बैठे भिखारियों में बांटने लगे। पात्र
रिक्त हो जाने पर,मेरी ओर मुखातिब हुए- “चलो,घर यानी डेरा जा
रहे हो या कहीं और भी जाना है? ”
‘नहीं
बाबा,और कहीं नहीं जाना है। शाम हो रही है। सीधे डेरा ही जाऊँगा। चलिए ना आप भी।’-
मेरे कहते ही,वे साथ हो लिए।
“मैं
भी सोच रहा था,बहुत दिन होगये,तुमलोगों से मिले हुए। आज रात से पहले वैसे भी मैं
आता ही वहाँ। अच्छा हुआ साथ मिल गये।”
‘एक बात पूछूं बुरा तो न मानेंगे ?’
– मैंने सवाल किया।
“एक क्या दस पूछो। बुरा
क्यों मानने लगा ?” – चलते हुए बाबा ने कहा।
‘यहाँ,आपको इन भिखारियों की पंक्ति में बैठा
देख मुझे बड़ा ही अजीब लगा। उस पर भी,जो कुछ भी भिक्षापात्र में था सब,आपने इन्हीं
में बांट दिया।’
मेरी बात पर बाबा मुस्कुराते हुए बोले- “
यह तो मेरा रोजदिन का काम है। हर मन्दिर में भीड़-भाड़ का एक समय होता है। कभी
किसी मन्दिर में,तो कभी किसी मन्दिर में। आज शनिवार को यहां भीड़ बहुत ज्यादा होती
है,जैसा कि तुमने देखा।”
सो
तो मैंने देखा ही,पर भिक्षा मांगना,और फिर भिखारियों में ही बांट भी
देना-
ये बात मुझे समझ नहीं आयी।
क्रमशः...
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