बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठाःतन्त्र-योग-साधना पर आधारित उपन्यास

     बाबाउपद्रवीनाथजी कोई महान चिट्ठाकार(Blog writer) हैं—इस भ्रम में न रहियेगा। जो आदमी बा-मुश्किल अपना नाम लिख पाता हो,वो महान आत्मा ‘ब्लॉगराइटरी’ क्या करेगा ! किन्तु हां,आरजू करके,दबाव डाल कर,या फिर न हो तो ‘लंठई’ करके भी,किसीको ब्लॉगराइटरी के लिए विवश कर सकने का हुनर है, बाबा उपद्रवी नाथ में,जैसा कि मुझे लगा।
        बाबा कोई साहित्यकार नहीं हैं,और न मेरे रिश्तेदार ही हैं,फिर भी एक गहरा रिस्ता जोड़ लिया है मुझसे इन्होंने,वो भी अपने ‘हुनर’ से। मुझे लगा कि ये किस्सा आपसे अवश्य साझा करने लायक है।  
           मेरे ‘गृह’मंत्रालय से रोज-रोज फरमान जारी होता था–– सुबह-सबेरे उठकर ‘मॉर्निंगवाक’ के लिए। अब भला आप ही बतायें डेढ़-दो बजे रात तक कम्प्यूटर पर खटरपटर करते रहने वाला आदमी ‘ब्रह्मबेला’ में जगकर हवाखोरी क्या खाक करेगा ?
गृहमंत्रिणी’ की हिटलरशाही, और भावी ‘वाकयुद्ध’ से त्राण पाने के लिए ‘वाक’ पर निकलना भी चाहूँ यदि, तो क्या कहीं अनुकूल जगह मिलेगी वाकिंग के लिए ! इसलिए मैं तो कहता हूँ - ब्रह्ममुहुर्त और मॉर्निंगवाक ये दोनों शब्द ‘बैक-टू-डेट’ हो चुके हैं।
मगर उस दिन वैसा कुछ हुआ नहीं । पहले झकझोर कर,और फिर ‘पूष की भोर’ में पानी का छींटा मार कर, मुझे वाकआउट कर दिया गया।वैसे आप हिन्दी साहित्य से प्रेम रखते होंगे तो मुंशी प्रेमचन्द की पूष की रात का अनुभव तो जरुर हुआ होगा। हालांकि ए.सी.वालों के लिए ये टॉपिक ही बेकार है।
          खैर, कहते हैं न-  ‘धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का’,वैसे अब इसके लिए कोई और शब्द ढूढ़ना पड़ेगा,अन्यथा सुप्रिमकोर्ट सोकॉज कर सकता है- मुहावरे में प्रयुक्त शब्द परतन्त्र भारत के हैं,जिनसे सामन्ती बू आ रही है। वैसे भी यह मुहावरा कुछ गलत ही लगता है- धोबी का सम्बन्ध कुत्ते से ज्यादा, गदहे से होता है। किन्तु मैं न धोबी हूँ,न मेरे पास कुत्ता है,और न गदहा। घाट का भी पता नहीं है। नतीजन, अकेले ही निकल जाना पड़ा धक्के खाकर,किधर जाऊँ...कहाँ जाऊँ- प्रश्न के साथ।
          विश्व-स्वास्थ्य-संगठन ने हमारी ‘महाराजधानी’ को विश्व के महाप्रदूषित
नगरों की सूची में गौरव के साथ शामिल कर लिया है यह जानकर अब भला राजधानी की प्रशस्त सड़कों पर चहल कदमी करने की हिम्मत होगी कभी ? डीजल-पेट्रोल के धुएँ भरे प्रदूषण में ‘लेड’ भी भारी मात्रा में घुस आया है। पर जाऊँ कहाँ ! हालाकि ये बात मेरी श्रीमती समझे तब न !
        सोच-विचार के बाद यमुना-तीर का ध्यान आया। सुन रखा था कि इसी नदी के तीर पर कदम्ब का कोई पेड़ था; किन्तु तभी याद आया कि वह पेड़ तो वृन्दावन में था, हस्तिनापुर में कहाँ ! फिर भी नदी तो वही है न। चलो उधर ही चला जाय। आज के पहले कभी जाना भी नहीं हुआ था,उस ओर। स्मृतियों के झरोखे में यमुना का वही पावन पुलिन हिलोरें ले रहा था।
        काफी दूर तक चलने के बाद, एक चौड़ा सा नाला नजर आया,जहाँ आदमी- आसपास क्या, दूर-दूर तक भी नदारथ। किससे पूछूँ- यमुना कितनी दूर है, सोच ही रहा था कि एक झाड़ी के पास उकड़ू बैठा- रात का अपना ‘वजन हल्का करता’ एक इन्सान नजर आया। तनिक इन्तजार के बाद जब वह अपना लंगोट बांध-बूंध कर निश्चिन्त हुआ, तो मैं उसके करीब जाकर, पूछ बैठा- ‘ भई यमुना किधर है? ’
         मेरे पूछने पर वह मुस्कुराया नहीं,बल्कि ‘रावण मार्का’ अट्टहास किया। मैं भयभीत हो उठा। उस रौद्र और वीभत्स हँसी वाले का आपादमस्तक मुआयना करने लगा— दुबली-पतली,छःफुटी काया- बिलकुल काली कलूटी। हाथ भर से अधिक लम्बी,बिना गांठों वाली, फहराती चुटिया। खिचड़ी,लम्बी दाढ़ी। घनी मूछों को भेद कर बाहर झांकते दो विशाल गजदन्त- विशुद्ध स्वर्णाभ,जिन्हें पता नहीं कब धोया-मांजा गया था। ये कॉलगेट-पेप्सोडेन्ट वालों के चमचमाते दांतों के विज्ञापन की खबर,लगता है उसतक अभीतक, कोई पहुँच नहीं पाया था, और न बाबा रामदेव के पतञ्जली दन्त-कान्ति का कोई एजेन्ट ही अभी तक मिल पाया था। पूरे मुंह में दांत तो सिर्फ दो ही थे,मगर दन्तकान्ति की आवश्यकता तो महसूस होनी ही चाहिए थी। नाक भी वैसी ही लम्बी- ‘वराह’ मार्का। डफली सा उदर प्रान्त। शरीर की हड्डियों को गिनने-देखने के लिए किसी एक्स-रे प्लेट की जरुरत नहीं। शरीर को ढांकने में असफल प्रयासरत झूलनुमा अंगरखे-धोती को चिथड़ा कहने में भी संकोच हो रहा था,जिसपर और मैल जमने की जगह भी नहीं बची थी।
        ‘लगता है दिल्ली में नये आये हो।’ – हँसी रुकने के बाद उसने कहा ‘दिल्ली वाले इसी को यमुना कहते हैं; और तुम जिस यमुना की तलाश कर रहे हो,वो तो मथुरा और प्रयाग में भी शायद ही मिले। ‘तरनी तनूजा तट तमाल तरुवर बहु
छाये’ वाला भारतेन्दु का जमाना थोड़े जो है। वैसे, तुम्हारा आना कहां से हुआ है ?
        मैंने कहा—‘मैं पिछले कई वर्षो से यहीं हूँ- दिल्ली में ही। जिन्दगी की चक्की
चलाने में इतना उलझा रहा कि इस ओर कभी ध्यान ही नहीं गया। पत्नी की प्रेरणा से आज हवाखोरी के लिए निकला, तो सोचा, यमुना किनारे ही हो लूं।’
        मेरी बात पर,वह फिर हँसा,लगभग वैसी ही हँसी। उसकी सांसों की दुर्गन्ध एक बार फिर समा गयी मेरे नथुनों में।
        ‘रहने वाले कहां के हो?’
        ‘बिहार का।’- मेरे छोटे से जबाव पर, उसकी आँखें विस्फारित हो आयी। आत्मीयता भी उमड़ पड़ी। दो पग आगे बढ़, मुझसे लिपट पड़ने की धृष्टता करना चाहा,जिसे भांप कर, मैं ही चार पग पीछे हो लिया।
       ‘मैं भी वहीं का था कभी।’- मायूसी से,उसने कहा।
       ‘कभी ? तो फिर अब कहां हो क्या यहीं ? दिल्ली में ही ?’—मैंने पूछा।
      ‘अभी कहाँ का कहूँ,मुझे खुद पता नहीं। नील गगन के तले...धरती का प्यार पले...वो गाना है न किसी सिनेमा का ! कहीं सांझ-कहीं सबेरा।’
            ‘तो क्या भिक्षाटन करते हो? देशाटन जैसा तो लग नहीं रहा है। तीर्थाटन की ये जगह नहीं है।’- मेरी जिज्ञासा पर,फीका सा मुस्कान बिखर गया उसकी घनेरी मूछों के बीच,जिसे लम्बें पीले दांत सम्भालने का अथक प्रयास करके भी पराजित हुए।
           ‘मेरी क्या पूछते हो,अपनी कहो- क्या करते हो? कहाँ रहते हो?
            ‘बस यहीं,पास में ही एकाध किलोमीटर....।’
            उसने प्रसन्नता जाहिर की- ‘तब क्या पूछना है,आज सबेरे-सबेरे अपने राज्य का कोई मिला है। बड़ी खुशी की बात है। शहर वालों ने तो शब्दकोष में से ‘अतिथि’ शब्द वाला पन्ना ही फाड़ दिया है। और हो भी कहाँ से ! जहाँ मां-बाप ही वृद्धाश्रम में कालक्षेप करते हों,फिर अतिथि का सवाल ही कहाँ रह जाता है !  पश्चिम वालों ने,इतना तो सिखला ही दिया कि हम दो हमारे दो से बाहर संसार
में कुछ भी नहीं है। वसुधैव कुटुम्बकम् कोई उपनिषद-महावाक्य थोड़े जो है !
और फिर एकोऽहं द्वितीयो नास्ति के सामने तो सब शेष है।’- मेरी ओर प्रश्नात्मक दृष्टि भेदते हुए उसने कहा- ‘ अपने घर ले चलोगे मुझे या....?
            पता नहीं क्यों,उसकी ये थोड़ी सी बातें ही मुझे बाँध गयी थी। उसके बारे में विशेष कुछ जानने को मन ललक रहा था। अतः मैं ‘ना’ न कर सका। भले ही अनजान है बिलकुल,किन्तु चलना तो चाहता है राज्यवासी की ललक लेकर। स्वीकृति मुद्रा में सिर हिला,हाथों से इशारा करते हुए मैंने कहा- ‘चलो भाई,दिक्कत क्या है। दो रोटी ही तो खाओगे....।’
            मेरा ‘वाक’ पूरा हो गया। उस अजनवी को लिए डेरे की ओर वापस चल पड़ा। रास्ते में कुछ बातें भी होती रही,जो मुझे अदृश्य  रुप से बांधे जा रही थी।
दरवाजा खोलने से पहले ही पत्नी ने सवाल दागे- ‘बड़ी जल्दी वापस लौट आये,कहीं नजदीक से ही फांकीमार....!
            द्वार खुला। एक अनजान,वो भी अजीबो-गरीब स्थिति में। नजर पड़ते ही आँखों ही आँखों में पूछी,मेरे ‘पूछने वाली’ ने- ‘ये किसे उठा लाये?’ क्यों कि वह मेरी आदत से परिचित थी- आये दिन,कब किसे लिए चला आऊँगा,कुछ कहा नहीं जा सकता।और फिर स्थिति चाहे जो भी हो,आवश्यकतानुसार आवभगत तो उसे ही करनी होती थी न।
            ‘हां,वहीं मिल गया यमुना किनारे। अपने ही राज्य का है।’- अबतक  प्राप्त
संक्षिप्त परिचय  में थे थोड़ा शेयर किया पत्नी को भी,और गुसलखाने की ओर लपक
पड़ा,क्यों कि पेट गुड़गुड़ कर रहा था,बहुत देर से।
उधर से फारिग होकर,आने पर देखा- सारा माजरा ही बदला-बदला सा था। मैं तो घबरा रहा था कि आज फिर कुछ पत्न्योपदेश लब्ध होगा,किन्तु हुआ उल्टा ही। सामने छोटी तिपाई पर चाय की प्याली के साथ बिस्कुट भी नजर आये,जिसका अधिकांश कुतर चुके थे आगन्तुक महोदय।
            बड़े गर्मजोशी से कहा उसने- ‘अजी जानते हो,ये तो मेरे मैके के बिलकुल करीब के निकले। इनके दादा जी मेरे दादाजी के गहरे दोस्त थे। बराबर मेरे यहाँ आना-जाना होता था। मैं भी बचपन में कई बार इनके घर गयी हूँ। उपेन्द्र नाथ भट्ट नाम है इनका।’
          ‘तो क्या महाप्रतापी गदाधर भट्ट के पौत्र हैं आप?तुम का ओछा सम्बोधन पल भर में ही ‘आप’ में बदल गया। महापरिचय पर सघन पहल,मेरी पत्नी ने किया,या कि उन्होंने-- निर्णय करना जरा कठिन है। अतः इस पचरे में पड़ने के वजाय मैं विषय वस्तु पर आ गया। उन्होंने सिर्फ सिर हिलाकर हामी भरी मेरे प्रश्न पर,क्यों कि हाथ और होठ दोनों व्यस्त थे- चाय-बिस्कुट-संघर्ष में।
            श्रीमतीजी दो कप चाय और ले आयीं- अपने और मेरे लिए। आज अनजाने में ही उन्हें प्रसन्नता लब्ध हुयी थी,इसलिए अच्छी चाय की एक प्याली तो बनती ही है न ! हमदोनों चाय की चुस्की लेने लगे। थोड़ी देर में भट्टजी चाय-विस्कुट पर विजय पा कर, कुछ कहने-बतियाने के मूड में आ गये।
बात श्रीमतीजी ने छेड़ी- ‘उपेन्द..ऽ..ऽ..र.. भैया ! आप अचानक गायब कहां हो गये थे ? अपने विवाह मंडप से जो भागे मामाजी से लड़-झगड़कर,सो आज अचानक नजर आरहे हैं,वो भी इस औघड़ वेश में !
            ‘तुम नहीं मानोगी गायत्री। इतने वर्षों में भी, तुम जरा भी नहीं बदली। बिलकुल वैसी की वैसी ही हो आज भी,बस कद और पद जरा बदल गया है।’- मूछों में मुस्कान को छिपाने का व्यर्थ प्रयास करते हुए बोले- ‘अच्छा पहले ये बतलाओ कि इतने दिनों बाद,वो भी इस रुप में,इतनी सहजता से तुम मुझे पहचान कैसे गयी?
            उनकी बात सुन गायत्री मुस्कुरायी- ‘वाह भैया उपद्रवीनाथ ! खूब कहा तुमने। तुम चाहे जिस वेश में रहो,मेरी ये पारखी आँखें तुम्हें पहचान ही लेंगी,वस मौका चाहिए। इन बड़ी-बड़ी आँखों के चलते ही तुम मुझे ‘डाइन’ कहकर चिढ़ाते थे न? अब भला ऊपर से नीचे तक चारों कर्मेन्द्रियों में ‘आकाश की वृद्धि’ क्या हर कोई के हाथ-पैर में दीखने वाले चिह्न हैं? तिस पर भी तुम्हारे पीठ पर बचपन में मेरे द्वारा दिये गये गहरे घाव वाला स्थायी मुहर–– क्या इसे भी विसराया जा सकता है? शक तो मुझे चाँदी की रुपल्ली सी खनखनाती तुम्हारी हँसी से ही हुयी थी, जिसमें ये चारो अंगूठे गवाह बने,और जब कुल्ला करने के लिए तुम नाली के पास जरा पीठ टेढ़ी किये,उस वक्त मैं पीछे खड़ी, इसी ताक में थी कि एक और साक्ष्य मिल जाय,फिर फैसले पर दस्तख़त कर दूँ।’

            गायत्री की बात पर मैंने गौर किया। कभी-कभी वह बहुत ही दार्शनिक अन्दाज में बोल जाया करती है। ज्यादा पढ़ी-लिखी तो नहीं है,पर ‘सुनी-गुनी’ जरुर है। साधककुल का संस्कार है शायद। बाबा के चार अतिरिक्त अंगूठे- कुछ खास संकेत जरुर दे रहे हैं- ऐसा उसकी बातों से लगा।
क्रमशः...

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