गतांश से आगे....आठवां भाग
बाबा
उठ खड़े हुए। हमदोनों को भी खड़ा ही हो जाना पड़ा। उन्हें यहीं रात्रि विश्राम के लिए
बार−बार आग्रह करना फिज़ूल था। नीचे गेट तक चलने को बढ़ा,तभी टोका उन्होंने- “ ये व्यर्थ की औपचारिकता छोड़ो,जाओ विश्राम करो। आगे दो-तीन दिन तो आ नहीं
पाऊँगा। दिल्ली से बाहर निकलना है। ”
बाबा
निकल गये सो निकल ही गये। दो-तीन दिन के वजाय सात-आठ दिन गुजर गये। रोज दिन संध्या
समय दफ्तर से वापस आकर,उनकी प्रतीक्षा करता, किन्तु आये नहीं। गायत्री भी रोज सवाल
करती, ‘ क्या कुछ कहा था विशेष?’ लेकिन विशेष क्या कहा था, कुछ तो नहीं। जो
भी बात हुयी गायत्री के सामने ही हुई। फिर भी हमसे ज्यादा गायत्री ही चिन्तित थी।
मैं तो माने बैठा था- रमता जोगी, बहता पानी- का क्या ठिकाना, कहीं रम गये होंगे,कहीं
जम गये होंगे। मेरे ही जैसा कोई जिज्ञासु मिल गया होगा। किन्तु गायत्री जैसी
मुंहबोली बहन तो कहीं नहीं मिल सकती न- गायत्री यही सोच-सोच कर बेचैन हो रही थी।
इन थोड़े ही दिनों में बाबा ने ऐसा स्नेह-सूत्र जोड़ दिया था अपने साथ कि मन-प्राण तड़प रहे थे।
बाबा
तो नहीं आये पर,एक ऐसा चमत्कार सा हुआ,जो सतत प्रयास के बावजूद पिछले चार-पांच
वर्षों में भी नहीं हो पाया था,और अन्त में निराश होकर मैंने छोड़ दिया था कि मेरे
भाग्य में ही नहीं है। ज़र्नलिज़्म की अच्छी डिग्री,लम्बा अनुभव,बहुभाषीय
ज्ञान,अनुवाद की क्षमता,सम्पादन पर अच्छा-खासा पकड़ रखते हुए भी,एक छोटे से अखबार
में छोटी−सी कुर्सी तोड़ रहा हूँ पिछले दस वर्षों से। कभी विचार और सिद्धान्त आड़े
आ जाता,तो कभी जाति और धर्म। मुझे समझ नहीं आता कि भारतीय लोकतन्त्र का यह चौथा
पाया खुद के अधिकार और कर्तव्य की मीमांसा कब करेगा? करेगा, कर
पायेगा भी या नहीं ! पूर्णतया जाति,धर्म, मजहब,ऊँच,नीच,धनी,गरीब
आदि द्वन्द्वों के बजबजाते सोच वाले गड्ढे से बाहर निकल कर,निष्पक्षता के राजपथ पर
खड़ा नहीं होगा, तब तक अपने कर्तव्य का पालन क्या खाक करेगा पत्रकारिता ! और यही नहीं हो पा रहा है। दिनोंदिन पत्रकारिता का स्तर गिरता जा रहा है।
इसका निष्पक्षता धर्म तिरोहित होता जा रहा है। पत्रकारिता और न्याय के दो ‘डायगोनल’ स्तम्भ
यदि सुदृड़ हो जाय, फिर तो लोकतन्त्र का स्वरुप ही कुछ और हो जाय।
देश
के एक नामी-गिरामी अखवार में उच्च पद पर नियुक्ति के लिए मैं लम्बे समय से
प्रयत्नशील था; किन्तु सफलता न मिल रही थी,उक्त कारणों से ही। न्याय भी बिक चुका
था,धनासेठों के हाथ। सुप्रिमकोर्ट तक का दरवाजा खटखटाया,पर असफलता ही हाथ लगी। और
उसी असफलता का सूत्र पकड़े,आज अचानक एक कॉल आ गया,उसी अखबार की ओर से,जिसने कुछ
कटु सत्य उद्घाटित करने के दंड स्वरुप मुझे निष्कासित कर दिया था। पुराना मालिक
गुजर चुका था,और नयी पीढ़ी नये सोच-समझ वाली आयी थी। उसने बिना किसी अन्तर्वीक्षा
और छानबीन के,सीधे ज्वॉयनिंक-लेटर ही भेजवाया था, बड़े अनुनय और आग्रह पूर्वक अपने
दिवंगत पिता की ओर से क्षमा-याचना सहित, अपने निजी दूत से। हाथ में
नियुक्ति-पत्र लिए मुझे लगा कि कोई सपना तो नहीं देख रहा हूँ। सम्पादक-मंडल में मेज
की धूल झाड़ने के योग्य भी जिसके पिता ने न समझा था, आज उसी का पुत्र प्रधान
सम्पादक की ’कुर्सी‘ पहुँचाने घर तक आया है। क्षणभर के लिए स्वाभिमान ने ठोंकर
मारा- क्या वहीं जाओगे,जहां से अपमानित हुए थे !
गायत्री
ने जब उस पत्र को देखा,तो सीधी प्रतिक्रिया व्यक्त की - ‘ बाप का दंड बेटे को
क्यों
? तिस पर भी, बेचारा माफी मांग रहा है। इस पद को अस्वीकार करके
पत्रकारिता धर्म को तिरस्कृत न करो। आज राष्ट्र के एक सजग प्रहरी को सजग और ईमानदार
पत्रकार की आवश्यकता है। पुरानी बातों को भुला कर,राष्ठ्र की सच्ची सेवा में लग
जाओ।’
गायत्री
के कहने पर,उसी दिन नया पदभार ग्रहण कर लिया। अगले ही दिन कम्पनी के आलीशान नये
आवास में जाने की बात आयी। किन्तु इस कबूतर खाने को छोड़कर जाने में एक भय सताने
लगा- बाबा को कैसे सूचित करुँ ! कहाँ ढूढ़ूँ उन्हें,कोई अता-पता तो है नहीं। अखबार
के नये दफ्तर में बैठे पूरे दिन यही सवाल घूमता रहा दिमाग में। नया कार्य, पदभार
भी पहले से कई गुना अधिक। स्वाभाविक है कि फुर्सत भी जल्दी मिलने वाला नहीं है। मन
बहुत खिन्न−सा था। अचानक बड़ा पद पाने की खुशी,बाबा से बिछुड़ने के आशंका के कारण दब
गयी थी।
एकाएक
प्यून आया,और कहा कि एक भिखारी आपसे मिलने की बहुत
जिद कर रहा है। समझाने पर भी मानता
नहीं। आपका नाम तो नहीं बतलाता,पर कहता है कि अपने सबसे बड़े साहब से मिलवा दो।
मैं उछल पड़ा,हो न हो ये बाबा ही होंगे, और बिना कुछ
मीन-मेष के चल पड़ा उसके साथ। गार्ड ने मेन गेट के बाहर ही रोक रखा था। वहाँ पहुँच
कर देखा- सच में बाबा ही थे। गेट से बाहर निकल कर मैं सीधे उनके चरणों में गिर
गया। देखने वाले भौंचक्के थे।
ड्राईवर
गाड़ी ले आया। कल तक जिसके पास सायकिल का भी ठिकाना नहीं, आज गाड़ीवाला हो गया
है..बंगले-वाला वाला हो गया। आदर पूर्वक बाबा का हाथ पकड़ कर गाड़ी में बैठाया,और
थोड़ी ही देर में गायत्री के सामने उपस्थित हो गये दोनों।
गायत्री की खुशी का ठिकाना नहीं। झपट कर लिपट पड़ी अपने
मुंहबोले उपद्रवी भैया से- ‘ कहाँ उड़ जाते हो बाबा उपद्रवीनाथ !’
बाबा ने अपनी झोली से एक बड़ा−सा पैकेट निकाला,और उसे गायत्री को देते हुए
बोले- “ पहले मिठाई खाओ, खिलाओ हमलोगों को भी,फिर
शिकवे-शिकायत करती रहना रात भर बैठकर। आज रात मुझे कहीं जाना भी नहीं है। पूरी रात
तुमलोगों के लिए लेकर आया हूँ । ”
हाथ-मुंह धोकर हमलोग बैठ गये। गायत्री तश्तरी में मिठाई ले
आयी। मेज पर रखती हुयी बोली- ‘आज भी किसी मन्दिर में पकड़ा गये क्या ? और ये मिठाई किस बात की? मिठाई तो मैं खिलाती,
तुम्हें।’
मैं अभी तक बाबा से पूछा भी नहीं था कि अचानक कैसे पहुँच
गये नये दफ्तर में। बात कहां से शुरु करुँ,सोच ही रहा था कि बाबा खुद उचरने लगे – “ देखो गायत्री, किसी
को याद इतनी न किया करो कि उसे परेशानी होने लगे।”
‘मैं कुछ समझी नहीं।’- गायत्री उनका मुंह देख रही थी।
“ कल से ही तुम दोनों इतना पुकार रहे हो मुझे
कि बरबस ही आना पड़ा, अन्यथा स्वाभाविक रुप से अभी दो दिनों बाद आता। ”
इस बार
चौंकने की मेरी बारी थी। बाबा के सौम्य चेहरे पर एकटक देखते हुए पूछ बैठा - ‘ क्या
सच में मेरी पुकार पहुँच गयी आपके पास ? क्या मेरी पुकार के
सूत्र ने ही बांधकर सीधे मेरे नये दफ्तर तक पहुँचा दिया आपको ?’
बाबा
मुस्कुराते हुए बोले- “ यदि इस बात का सही जवाब दूँ तो तुम अखबारी
आदमी सौ नये सवाल करने लगोगे। फिर भी तुमने पूछा है,तो कुछ तो कहना ही पड़ेगा न।
तुम क्या सोचते हो, ‘ इथरिक-सायन्स ’ कोई नया पैदा हुआ है ?
ये जान लो कि सायन्स कुछ पैदा नहीं करता,खोजता है सिर्फ,और खोज उसकी ही हो सकती जो
पहले से मौजूद है कहीं न कहीं। ‘डिस्कवरी
’ और ‘इन्वेन्शन’
में मौलिक अन्तर है- इतना तो तुम जरुर समझते होवोगे? आज तरह-तरह के ‘बेतार’ के स्वरुप जो देख-सुन-व्यवहार कर रहे
हो,कोई नयी चीज नहीं है। इसका प्रयोग हमारे मनीषी बहुत पहले से करते आ रहे हैं ।
और ये जो संवाद-प्रेषण-शैली है,यह तो बहुत साधारण−सी बात है। व्यष्टि मन का समष्टि
मन से कितना गहरा ‘तार’ (लगाव) जुड़ पा रहा है, इस पर निर्भर है,यह क्रिया। बेटे
को कोई परेशानी होती है, तो माँ को तुरत सूचना हो जाती है, भले ही वह सही विश्लेषण
न कर पाये। दरअसल नाल कटने के बावजूद,बेटे का सम्बन्ध माँ से पूर्णतया विच्छेदित
नहीं हो पाता । हो भी कैसे सकता है ! एक
अदृश्य तन्तु जोड़े रहता है- माँ-बेटे को। कुछ ऐसा ही ‘बेतार का तार’ सृष्टि के
समस्त जड़-चेतन को जोड़े हुए है आपस में। आम आदमी इस सम्बन्ध को जान-समझ नहीं पाता; किन्तु प्रकृति तो अपना काम किसी से पूछ कर नहीं करती न ! कौन कितना सुस्पष्ट सम्प्रेषण-क्षमता रखता है,कितना ग्रहण-क्षमता रखता है-
इस पर एक दूसरे का आपस में जुड़ना-न-जुड़ना निर्भर करता है। जुड़ाव की ‘तीव्रता’
ध्यातव्य है । जुड़ाव की क्रिया महत्वपूर्ण है। मनुष्य से सम्बन्ध जोड़ना हो या कि
ईश्वर से,पत्थर से जोड़ना हो या कि पेड़-पौधे से, सिद्धान्त एक ही है; फर्क सिर्फ मात्रा और घनत्व का है। समष्टि का अंश है व्यष्टि।
व्यष्टि का अस्तित्व ही क्या है- समष्टि के बगैर ! तुमने कल से
इतना प्रखर संप्रेषण
किया कि मुझे मजबूर होकर आना
ही पड़ा..।”
बाबा
अभी कुछ और कहते,कि मैं बीच में ही टोक बैठा- ‘ किन्तु मैं तो इस विद्या या कला का
अभ्यासी हूँ नहीं, फिर ये चमत्कार कैसे हो गया?’
“….मैंने अभी कहा न,धनत्व और तीब्रता का महत्त्व है। लोग पूजा करते हैं, प्रार्थना
करते हैं,और फिर शिकायत भी करते हैं कि
कुछ हुआ नहीं,कुछ होता नहीं। व्यर्थ है ये सब...। एक बड़ा ही प्रसिद्ध वक्तव्य है-
एकोऽपि कृष्ण सकृत प्रणामौ, दशाश्वमेधावभृत्थैर्न तुल्यः । दशाश्वमेधि
पुनरेति जन्म,कृष्ण प्रणामि न पुनर्भवाय ।। कहते हैं न कि श्रीकृष्ण को एक
बार ‘ भी ’ प्रणाम करने का फल होता है- दश अश्वमेध यज्ञान्त अवभृत्थ स्नान के
तुल्य। पुनः इसकी महत्ता को दर्शाते हैं कि अवभृत्थ स्नान के पश्चात् भी पुनर्जन्म
की सम्भावना है,किन्तु श्रीकृष्ण को प्रणाम कर लेने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता—
अब भला सोचो,ये कहने वाला क्या कोई पागल है,या बढ़ा-चढ़ाकर श्रीकृष्ण की महिमा
गाया है ? नहीं,ऐसा कुछ नहीं है, क्यों कि ये वक्तव्य अक्षरसः सत्य है। अब तुम
कहोगे कि जीवन में कितनी बार तो कृष्ण को प्रणाम करते हैं,कृष्ण का भजन करते
हैं,फिर भी ऐसा क्यों नहीं होता? ऐसा इसलिए नहीं होता कि प्रणाम करने में,कृष्ण को
पुकारने में कोई त्रुटि रह जाती है। कुछ कसर रह जाता है । प्रार्थना में सम्यक्
सघनता नहीं होती। यहाँ एक और बात ध्यान में रखने की है कि अचानक,ऐसा होना भी सम्भव
नहीं है। बारम्बार के सतत् अभ्यास से सम्यक् घनत्व उत्पन्न होता है...।
“… इसे एक और उदाहरण से समझो- तुम किसी जंग लगे ताले को तोड़ने के लिए
हथौड़े से प्रहार कर रहे हो। सौ हथौड़े चलाकर,तुम थक कर या निराश होकर,छोड़ देते
हो प्रयास करना। तभी कोई और आता है,या खुद ही मन होता है- और एक हथौड़ा मार देते
हो। ताला टूट जाता है। तो क्या कहोगे- पहले किये गये सौ प्रहार व्यर्थ के थे? सच
कहो तो एक प्रहार भी व्यर्थ नहीं गया तुम्हारा। सभी प्रहारों का योगदान रहा ताले
को तोड़ने में...। नियम भी है- जपात् सिद्धि,जपात् सिद्धि,जपात् सिद्धि
वरानने । ध्यान दो कि यहाँ शब्द ‘जपेन् सिद्धि’ नहीं है,
‘ जपात् सिद्धि ’ है- यानी जप-से(करण
कारक) सिद्धि नहीं होती,जप-से(आपादान कारक)सिद्धि होती है। शास्त्रों के ऐसे ही
गूढ़ संकेतों को समझने में लोग चूक जाते हैं,और उल्टे शास्त्र को ही दोष देने लगते
हैं। शब्द वही है, स्थिति बदल गयी। ‘ क्रिया ’ वही है, ‘ कारक ’ बदल गया,जिससे
परिणाम भी बदल गया।
“...ईश भक्ति के सम्बन्ध में अनेक उदाहरण हैं,अनेक शर्तें भी है,अनेक
स्थितियाँ भी हैं। एक प्रसंग
है- विष्णु,नारद और एक भक्त का। एक बार नारदजी ने भगवान पर आरोप लगाया कि तुम बड़े
ही निष्ठुर हो। व्यर्थ ही तुम्हें लोग कृपालु, दयानिधान आदि नामों से अलंकृत कर
दिये हैं। विष्णु चौंके,नारद की इस टिप्पणी पर। आरोप का कारण जानना चाहा। पूछने पर
नारद ने बतलाया कि आपका एक भक्त पीपल के पेड़ के नीचे बैठा दीर्घ काल से तपस्या कर
रहा है। अब तो अन्तिम स्थिति है उसकी, फिर भी आपका कृपा-प्रसाद नहीं प्राप्त हो
रहा है उसे। भगवान ने कहा कि एक काम करो नारद, तुम उसे जाकर कह दो - ‘ जिस पेड़ के
नीचे बैठा है, उसमें जितनी पत्तियां हैं,उतने ही बर्षों बाद मैं दर्शन दूंगा।’ सदा
सर्वत्र विचरण करने वाले नारद,उस निराश हो रहे भक्त के पास जाकर भगवान का संदेश
सुनाये। नारद का संदेश सुनकर उसने कुछ कहा नहीं,बस नृत्य करने लगा,पागलों की तरह।
नारद को लगा कि यह निराशा में सच में ही मति-भ्रमित हो गया है। तभी गरुड़ के पंखों
की ध्वनि सुनाई पड़ी, उनके आगमन का संकेत मिला। आँखें उठा कर नारद ने देखा- भगवान
सामने हैं। अब तो नारद को थोड़ा क्रोध भी आ गया। उन्होंने कहा- ‘ पहले तो मैं तुम्हें निर्दयी और कठोर ही कहता
था,अब तो झूठा भी कहूँगा,क्यों कि अभी-अभी तुमने झूठ बोला है। मुझसे कहा कुछ, और
किया कुछ।’ भगवान मुस्कुराते हुए बोले- ‘ तुम जैसे मेरे भक्त भी भ्रमित होजाते हैं
यदि,फिर ये संसार तो अबोधों का है, उनका क्या कहना ? ना तो मैं
झूठा हूँ,और ना कठोर और निर्दयी। मुझे पाने की एक खास स्थिति है। वह जब, जैसे, जहाँ
बन जाय,फिर मैं विवश हूँ दर्शन देने को। अब तक जिस गति और गहराई से ये मुझे पुकार
रहा था,उसके हिसाब से मैंने वह लम्बा समय बतलाया था। इसे कामना पूर्ति होने की कोई
निश्चित समय-सीमा भी ज्ञात न थी। किन्तु जैसे ही कामना पूर्ति की समय-सीमा
निर्धारित कर दी तुमने, इसके स्मरण करने की तीव्रता इतनी बढ़ गयी कि वह काल की लम्बी सीमा
क्षण भर में समाप्त हो गयी,और मुझे विवश होकर आना पड़ा। मुझ तक पहुँचने की दूरी
वही है, वो कभी, किसी के लिए बदलती भी नहीं है। बदलता है सिर्फ यात्री की गति ।
पैदल चलने वाले और हवाईजहाज से चलने वाले की गति में ही तो अन्तर है, दूरी तो वही
रहती है...। नाम-जप करते रहो, करते रहो...एक ना एक दिन तुम्हारे कर्मों का खाता
शून्य हो जायेगा,और ईश्वर का दर्शन मिल जायेगा। और दर्शन मिलना क्या है- ईश्वर
कहीं तुमसे दूर और अलग थोड़े जो है। हीरे के टुकड़े पर तुम्हारे कर्म-संस्कारों की
मैल चढ़ी हुयी है,उसे धीरे-धीरे धोवो,या जल्दी से- ये तुम्हारी इच्छा पर है।”
बातें
हो रही थी। मिठाई का प्लेट भी खाली हो चुका था। गायत्री ने
टोका - “ अब मेरे सवाल का जवाब दो भैया, इनकी बातें और सवाल तो कभी खतम ही नहीं
होने वाले हैं। पहला सवाल ये है कि तुम्हारा अलोन व्रत अभी चल ही रहा है,या खतम
हुआ? रात का भोजन नमकीन होगा या मीठा-सादा ही? और दूसरी बात ये है कि मिठाई जो मुझे खिलानी चाहिए थी,पहले तुमने ही खिला
दी। तुमने ठीक ही कहा था- मोतीशंख और सियारसिंगी के प्रभाव से धीरे-धीरे सबकुछ ठीक
हो जायेगा। अभी महीने भर भी नहीं हुए कि एकदम चमत्कार हो गया। जो सपना दस वर्षों से
देख रही थी,तुम्हारी कृपा से महीने के अन्दर पूरा हो गया।”
बाबा
मुस्कुराते हुए बोले- “मेरी कृपा की बात नहीं है गायत्री। कोई मनुष्य
किसी पर क्या कृपा कर सकता है ! सब ‘ उनका ’ ही किया कराया है।”-ऊपर की ओर हाथ दिखाकर बाबा ने कहा- “ उनकी ही
प्रेरणा हुयी,तो तुमने इन्हें हवाखोरी को भेज दिया। वहां मैं मिल गया। मेरे पास ये
दोनों सामान भी अभी हाल में ही, एक संत की कृपा से आया था। मैं फकीर आदमी क्या
करता ऐसे सांसारिक चीजों का,अतः तुम्हें दे दिया।”
मैंने
दोनों हाथ जोड़कर बाबा को निवेदित किया- ‘ सो तो है,सब कुछ ऊपर वाले की मर्जी से
ही होता है। समय से पहले और भाग्य से ज्यादा भी कुछ नहीं होता। किन्तु प्रत्यक्षतः
तो हम इसे आपकी ही कृपा कहेंगे। ईश्वर ने मेरा दिन बदलने के लिए आपको ही निमित्त
बनाया।’
“हां, निमित्त मात्रं भव सव्यसाचिन — कृष्ण ने अर्जुन को
सिर्फ निमित्त बन जाने को कहा है, यानी अपने कर्तापन को त्यागने भर से ही परम
कल्याण हो जाता है,और कुछ करने की जरुरत नहीं। ‘ हम करते हैं ’ -
यह सोचना, समझना ही सबसे बड़ा खतरा है। सबसे बड़ी मूर्खता है। ”- बाबा ने स्पष्ट किया।
बाबा
के श्रीमुख से बारम्बार कृष्ण का उदाहरण सुन कर,मुझे उस दिन की बात याद आ गयी-
बाबा ने कृष्ण की राधा और काली में अभेदाभाव की ओर इशारा किया था। अभेद का यह
प्रश्न मेरा मन मथित किये हुए था। अतः पूछ बैठा- ‘ महाराज ! उस दिन आपने वैष्णव के भयभीत रहने, और शक्ति से मुंह चुराने की बात कही
थी। इसे स्पष्ट करने की कृपा करें।’
“हाँ, कहा था, और अब भी यही कहूँगा; किन्तु पहले गायत्री के सवाल का
जवाब तो दे लूँ। ”- उत्तर की प्रतीक्षा में सामने खड़ी गायत्री की ओर देखकर बाबा ने कहा- “
अब जरा तुम ही बतलाओ- कोई मुझे नये,सजे-धजे बड़े से दफ्तर में बैठ
कर लगातार पुकारे जा रहा हो,तो वैसी जगह खाली हाथ जाना क्या शोभा देता? और तुम्हारे दूसरे सवाल का जवाब ये है कि अलोन व्रत समय-समय पर सप्ताह-दस
दिनों के लिए ले लेता हूँ आवश्यकतानुसार। फिलहाल तो नमक खाऊँगा ही,अतः तुम्हें
रात्रि-भोजन में जो बनाना हो, बनाओ। और हाँ,मेरे नाम पर विशेष कुछ करने-धरने की
जरुरत नहीं।”
अपने
सवाल का जवाब पाकर,गायत्री चली गयी रसोई-घर की ओर यह
कहती हुयी- ‘ वैसे मेरा ध्यान
तो तुमलोगों की बातों में ही रहेगा,फिर भी ‘ बाबा की अपनी कहानी ’ शुरु नहीं होनी
चाहिए। वो भोजन के बाद ही होगी,ताकि इत्मिनान से मैं भी सुन सकूँ। तबतक तुमलोग कुछ
और ही विषय पर चर्चा करो।’
चर्चा
तो छेड़ ही दी है मैंने- कृष्ण-काली वाली।
“ काली को तन्त्र-मत वाले अपनी मिलकियत समझते हैं, और कृष्णतत्व को वैष्णव
अपना साम्राज्य; किन्तु यदि मैं कहूँ कि कृष्ण तो ‘ महातान्त्रिक ’ ठहरे, तथा
कृष्ण और काली में भेद नहीं है,तो तुम भी चौंकोगे।” – बाबा
ने मेरी ओर देखते हुए कहा- “ हाँ, साक्षात् तन्त्र-मूर्ति
कहो इन्हें। और इसे जांचने-देखने के लिए कहीं अन्यत्र जाने-खोजने की आवश्यकता भी
नहीं है। तुम तो परम वैष्णव परिवार से हो, अतः जानते ही होओगे- श्रीमद्भागवत को
लोग श्रीकृष्ण का हृदय मानते हैं।”
मैंने
हां में सिर हिलाते हुए कहा- ‘ सो तो है। श्रीकृष्ण का प्रधान ग्रन्थ महर्षि व्यास
रचित श्रीमद्भागवत ही तो है। सुनते हैं कि अपने एकमात्र पुत्र शुकदेवजी द्वारा गृहत्याग
कर देने से, पुत्रमोह में विकल, व्यासजी को नारदजी ने सुझाया था कि श्रीकृष्ण का
प्रधान लीलाग्रन्थ ग्रथित करो। इससे शान्ति-सुख-लाभ होगा।’
“हां,सही सुना है तुमने। मैं उस ‘श्री’ वाले भागवत की ही बात कहता हूँ। एक
ओर श्रीकृष्ण को महातान्त्रिक कहना चाहूँगा तो दूसरी ओर उनके इस हृदय-ग्रन्थ को तान्त्रिक
ग्रन्थ कहने में भी जरा भी संकोच नहीं है मुझे। श्रीकृष्णद्वैपायनव्यासजी के
चिंतन-वृक्ष का सर्वाधिक परिपक्व फल है श्रीमद्भागवत, जो वैदिक और तान्त्रिक
परम्पराओं का संगम-स्थल है। वैदिक के साथ-साथ तान्त्रिक उपासनाओं का विशद वर्णन
मिलेगा यहाँ। श्रीकृष्ण और सखा अर्जुन के संवाद में महाभारत का अंश,श्रीमद्भगवतगीता
तो सर्वोपनिषद-सार है ही, श्रीमद्भागवत का उद्धवगीता भी कम अवलोकनीय नहीं है। वैदिक,तान्त्रिक
और मिश्र साधना विधि की विस्तृत चर्चा है यहां। शीघ्र सिद्धि हेतु मिश्र विधि
अपनाने की भी बात कही गयी है—...वैदिकी तान्त्रिकी दीक्षा मदीय व्रत धारणम्(११-११-३७)
तथा इसी स्कन्ध में आगे कहते हैं-...उभाभ्यां वेदतन्त्राभ्यां मह्यं
तूभयसिद्धये। (११-२७-२६) श्रीमद्भागवत,
प्रथम स्कन्ध के पांचवे अध्याय में कहा गया है- कुर्वणा यत्र कर्माणि भगवच्छिक्षयासकृत्।
गृह्णन्ति गुणनामानि कृष्णस्यानुस्मरन्ति च ।। नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि ।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः सङ्कर्षणाय च ।। इति मूर्त्यभिधानेन मन्त्रमूर्तिममूर्तिकम् ।
यजते यज्ञपुरुषं स सम्यग्दर्शनः पुमान् ।।
इमं स्वनिगमं ब्रह्मन्नवेत्य मदनुष्ठितम् । अदान्मे
ज्ञानमैश्वर्यंस्वस्मिन् भावं च केशवः ।। (१-५-३६ से ३९) अभिप्राय ये है
कि उस भगवदर्थ कर्म के मार्ग में भगवान के आज्ञानुसार आचरण करते हुए लोग बार-बार
श्रीकृष्ण के नाम-गुण- कीर्तन करते हैं। प्रद्युम्न,अनिरुद्ध, संकर्षण और वासुदेव-
इस चतुर्व्यूह रुपी भगवन्मूर्तियों के नाम द्वारा,प्राकृतमूर्ति रहित,अप्राकृतमन्त्रमूर्ति
यज्ञपुरुष का यजन करता है जो,उसीका ज्ञान पूर्ण और यथार्थ है। श्रीकृष्ण की प्रेमाभक्ति
तभी प्राप्त हो सकती है —यहाँ भागवतकार ने बड़ी चतुराई से सिद्ध किया है कि
श्रीकृष्ण का सिर्फ लीला-चरित ही तान्त्रिक नहीं है,प्रत्युत उनका श्रीविग्रह भी तान्त्रिक
ही है- यानी वे साक्षात् तन्त्रमूर्ति हैं। तन्त्र ही कृष्ण हैं,और कृष्ण ही
तन्त्र है। इस विषय को और भी स्पष्ट किया गया है- इसी ग्रन्थ के बारहवें स्कन्ध का
कथन –विष्वक्सेनस्तंत्रमूर्तिर्विदितः पार्षदाधिपः । नन्दादयोऽष्टौ
द्वाःस्थाश्च तेऽणिमाद्या हरेर्गुणाः ।। (१२-११-२०) विचारणीय है—जिसके पार्षद-प्रधान
विश्वविश्रुत् विष्वक्सेन ही (पांचरात्रादि आगमरुप) तन्त्रमूर्ति हैं,उसके स्वामी
को ‘ परमतन्त्रमूर्ति ’ स्वीकारने में क्या आपत्ति हो सकती है ? श्रीकृष्ण का स्वाभाविक गुण—अष्टसिद्धियां(अणिमा,लघिमा,गरिमा,महिमा,प्राप्ति,प्राकाम्य,
ईशीत्व,वशीत्व) आदि तो तन्त्र मार्ग के यात्रियों को रास्ते में पड़े कंकड़ के
समान प्राप्त होते रहते हैं; किन्तु सच्चा साधक अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहता
है,न कि इन सिद्धियों के लिए व्याकुल । यह ठीक वैसा ही है,जैसे कोई पहाड़ चढ़ने का
लक्ष्य रखता हो,उसके लिए कंकड़ बटोरने का क्या औचित्य ? बड़ी
चतुराई से यहां इन अष्टसिद्धियों को कृष्ण का द्वारपाल कहा गया है । महल में
प्रवेश करोगे तो,पहले तो द्वारपालों का ही साक्षात्कार होगा न? और उनमें ही उलझे रह गये यदि,फिर भीतर प्रवेश कैसे
करोगे,राजा से भेट कैसे होगी? हमारे
मनीषियों की यही विशेषता रही है,कि गूढ़ बातों को भी कथाशैली में कहते हुए, इशारे-इशारे
में निकल जाते हैं। इन तथ्यों को न समझ पाने के कारण ही अल्पज्ञ भ्रमित होते हैं।”
इतना
कहकर,बाबा जरा ठहरे। और दिनों की अपेक्षा,आज वे अधिक प्रसन्न लग रहे थे। एक बार
झांक कर गायत्री की रसोई व्यवस्था का निरीक्षण किये,क्यों कि गायत्री की
अनुपस्थिति उन्हें कुछ खल रही थी। वे जानते थे कि इन सब विषयों में उसकी रुचि बहुत
है।
आवाज
न मिलता पा,उधर से गायत्री ने ही टोका- ‘ क्यों भैया ! थक गये
या कि भुखा गये ? ये न समझो कि मैं रसोई में हूँ। यहाँ तो सिर्फ मेरा शरीर है,मन-प्राण तो
तुम्हारे प्रवचन में ही बसा है। थोड़ा काम और रह गया है। बस निपटाकर उधर ही आती
हूँ।’
“ यही जांचने के लिए तो मैं रुका।”- कहते हुए बाबा ने
बात आगे बढ़ायी- “ कृष्ण पर चर्चा निकल पड़ी है,तो आज कुछ और
गुत्थियां भी खोल ही लो। क्यों कि कृष्ण के बारे में बहुत सी भ्रान्तियां भी हैं।
‘सम्भ्रान्त’ में से ‘सम’ को निकालकर देखने लगोगे तो क्या हाथ लगेगा- ‘भ्रान्त’ ही
तो। कृष्ण को समझने में कुछ लोगों ने ऐसी ही भूल की है। कृष्ण की राधा के मोह में
तो महर्षि व्यास उनके परमग्रन्थ श्रीमद्भागवत में सीधे-सीधे नाम लेने में भी चूक
गये,या भयभीत हो गये। कुछ लोगों ने तो यहां तक कह दिया कि ‘ राधा ’ कभी बाद की
कल्पना है। अब भला उन मतिभ्रमों को कैसे समझाया जाय कि राधा-कृष्ण में अभेद है।
राधा कृष्ण मयी हैं, कृष्ण राधा मय हैं। अब गाय के थनों में घी ढूढ़ने की मूर्खता
कोई करे तो क्या कहा जाय ? ऐसे ही कृष्ण की वांसुरी,कृष्ण की
लीला, कृष्ण की भंगिमा- ये सब के सब बड़े ही रहस्यमय हैं। जितनी ही गहरी डुबकी
लगाओगे, उतना ही मोती पाओगे...।”
‘अच्छा
तो तुमलोग अकेले-अकेले ही डुबकी मत मार लो,मेरा काम भी यहाँ खतम हो चुका है। विचार
हो तो खाना-पीना करके इत्मिनान से डूबा जाय कृष्ण-रस में।’- बाबा आगे कुछ कहने ही जा
रहे थे,तभी टपक पड़ी गायत्री यह कहते हुए।
मैंने
घड़ी की ओर देखा-अभी तो मात्र नौ बजे हैं। घंटे भर की बैठकी तो और लगायी ही जा
सकती है। अतः बोला- ‘ आओ बैठो गायत्री ! इस कृष्ण प्रसंग को
समेट ही लें,फिर भोजन किया जायेगा। ग्यारह बजे मुझे एक बार फिर दफ्तर जाना होगा-
फाइनल टच के लिए। ये तो अब रोज रात का बखेड़ा रहेगा ही। खैर,एक-दो दिनों की ही बात
है,फिर तो दफ्तर और आवास सब एक ही कम्पाउण्ड में होगा...बस गया और आया।’
“ तो तुम्हें फिर दफ्तर जाना है ग्यारह बजे रात में भी ? ”- बाबा और गायत्री दोनों ने एक साथ सवाल किये।
और
नहीं तो क्या। बड़ी कुर्सी का बोझ भी तो ज्यादा होता है। इसे तो सम्भालना ही होगा।
नौकर रहने और मालिक बनने में क्या फर्क है- एक ही दिन में समझ आ गया। खैर,आप
प्रसंग प्रारम्भ करें। हमने भी ठान ही लिया है- पूरा रतजग्गा होगा आज। वैसे भी इस
कुटिया में आज अन्तिम रात है हमलोगों की। जाग कर ही इसे विदाई दी जाय।
क्रमशः...
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