गतांश से आगे...बारहवां भाग
क्रमशः....
बाबा
की बातों में रस लेती गायत्री ने सवाल किया- ‘ कृष्ण और रास की बात फिर आगयी, तो
इससे जुड़ा एक और सवाल भी मैं कर ही लूँ । राधा कृष्ण की प्रियतमा सखी
हैं,अर्धांगिनी भी कही गयीं हैं । भागवत तो थोड़ा बहुत पढ़ी हूँ,वहां कुछ ऐसा
प्रसंग मिला नहीं है । इस सम्बन्ध में मेरी शंका का समाधान करो न उपेन्दर भैया ! कि मामला क्या है- क्या राधा कृष्ण की पत्नी भी बनी हैं या सखी ही रह गयी
?’
गायत्री
के प्रश्न पर बाबा बड़े प्रसन्न हुए। मुस्कुराते हुए बोले- “ अर्धांगिनी का अर्थ तुम क्या समझती हो- पत्नी...भोग्या? वैसे लोक-प्रसिद्ध
अर्थ यही है,जो तुम समझती हो। सदा पूर्ण रहने वाले कृष्ण भी राधा के वगैर अपूर्ण
हैं, राधा के बिना आधा हैं। कहते हैं न राधा के बिना श्याम आधा...। राधा तो
अर्धांगिनी है ही कृष्ण की। पुराणों में राधा की उत्पत्ति श्रीकृष्ण के वामांग से कही
गयी है,और श्रीमद्भागवत इसका अपवाद है,जहां प्रत्यक्षतः राधा नदारथ हैं। किन्तु
कुछ और प्रसंगों को गुनो-बूझो तो और भी आनन्द आये। एक प्रसंग है— मेघैर्मेदुरमम्बरं
वनभुवः श्यामास्तमालद्रुमैर्नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे ! गृहं प्रापय। इत्थं नन्दनिदेशतश्चलितयोः प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमं
राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहः केलयः।। भक्तकवि जयदेव
के अहोभावमय इन ललित पंक्तियों का तनिक रसास्वादन करो—एक बार नन्दजी गौवों
को लेकर भाण्डीरवन में विचरण कर रहे थे। साथ में शिशु श्रीकृष्ण भी थे- बिलकुल
छोटे,अभी अपने पांवों से चलने में भी असमर्थ । तभी अचानक आकाश में मेघ
घुमड़-घुमड़कर गर्जन-तर्जन करने लगे। घोर गर्जना से भयभीत श्रीकृष्ण नन्दबाबा के
गले से चिपट गये,और जोर-जोर से रोने लगे। नन्दजी चिन्तित हो उठे कि गौवों को
सम्भालूं या रोते श्रीकृष्ण को। गोद में चिपकाये कृष्ण को पुचकारते हुए चुप कराने
का प्रयास करने लगे,और पराम्बा का ध्यान भी-
‘हे महाशक्ति ! तुम जरा थिर हो जाओ,मेरा बालक भयभीत
हो रहा है।’ तभी एकाएक राधा प्रकट हुयी। राधा का यह स्वरुप अतिशय दिव्य था। अपने
परममित्र वृषभानु की लाडिली राधा को तो नन्दजी कई बार देख चुके थे,किन्तु आज सामने
खड़ी मन्द स्मिता राधा का रुप-लावण्य विलक्षण था। कुछ पल अपलक उसे निहारते रहे,और
फिर जब ‘स्व’ का भान हुआ तो हर्षित होते हुए बोले- ‘तूने मेरी समस्या का निवारण कर
दिया राधे । जाओ कृष्ण को मैया यशोदा के पास पहुँचा दो। मैं भी गौवों को लेकर आता
हूँ।’
“...चुंकि वृषभानु
नन्दिनी के रुप में राधा, कृष्ण से काफी बड़ी हैं,अतः उन्हें चतुर जान,नन्दजी ने
राधा की गोद में कृष्ण को दे दिया। राधा तो चाहती ही थी, कुछ ऐसा अवसर मिले- कृष्ण
के एकान्त सेवन का। नन्दबाबा का आदेश मिलते ही राधा चल पड़ी कृष्ण को लेकर,उनके घर
पहुँचाने। कैसी विलक्षण लीला है कृष्ण की- महान भय को भी भयभीत करने वाले
त्रिलोकपति, मेघ-गर्जन से भयभीत हो रहे हैं...।
“...अब देखो जरा आगे की लीला- नन्द की गोद से निकल कर राधा की गोद में आरुढ़
कृष्ण चल दिये,सो चल दिये। इस सम्बन्ध में कृष्ण का हृदय कहा जाने वाला
श्रीमद्भागवत तो मौन है लगभग, राधा का स्पष्ट नामोच्चारण भी नहीं हुआ है वहां;
किन्तु ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड,अध्याय १५ में वर्णन है कि उसी
नन्द-गृह-यात्रा के बीच मार्ग में अनेक लीलायें हुयी। शिशु कृष्ण को गोद में
चिपकाये, चूमती, सहलाती राधा गजगामिनी सी चली जा रही हैं, तभी अचानक कृष्ण गायब हो
जाते हैं- राधा की गोद खाली हो जाती है। हिरणी सी चंचल राधा की आंखें वन में
इधर-उधर ढूढ़ने लगती हैं कृष्ण को। थोड़ी देर बाद किशोर कृष्ण नजर आते हैं,जिनके
हाथों में मुरली है,मोर मुकुट है माथे पर,और त्रिभंगलिलत मुद्रा में खड़े,मुस्कुरा
रहे हैं राधा की ओर देखकर। विरह-व्याकुल राधा दौड़ कर लिपट पड़ती है बांकेबिहारी
से। थोड़ी देर तक उलाहनों-शिकायतों का सिलसिला चलता है। उसी समय श्रीकृष्ण राधा को
गोलोकधाम का स्मरण दिलाते हैं,अपनी अन्तरंगा शक्ति राधा का भेद याद दिलाते हैं। अभेद
को भी भेद भान होता है क्षण भर के लिए,और फिर माया का डोर खिंच जाता है,सब कुछ
पूर्ववत हो जाता है। इसी अवसर पर, चतुरानन ब्रह्मा प्रकट होते हैं। राधा-कृष्ण की
आमग-विधि से स्तुति करते हैं, और आगे की लीलाओं के लिए निवेदन करते हैं। क्षण भर
में दृश्य परिवर्तित हो जाता है। रत्नमंडप सज जाता है। देव,यक्ष, गन्धर्व, किन्नर,
अप्सरायें सभी उपस्थित हो जाते हैं। एक साथ पिता और पुरोहित दोनों का कार्यभार
सम्भालते हुये ब्रह्माजी, राधा का कन्यादान करते हैं,और परम निर्बन्ध
श्रीकृष्ण-राधा को वैवाहिक बन्धन में बांध कर, पिता बन कर आशीष भी देते हैं,और
पुरोहित के रुप में ‘अक्षय भक्ति’ की दक्षिणा भी मांगते हैं..।
“...फिर मिलययामिनी की दिव्य शैय्या सजती है। कृष्ण पान खिलाते हैं अपनी
प्रियतमा को,राधा भी पान खिलाती हैं अपने प्रियतम को। दोनों आलिंगनवद्ध होते
हैं,और तभी पुनः छलिया छल कर जाता है। राधा स्वयं को बिलकुल अकेली, घोर वन में
खड़ी पाती हैं । गोद में रुदन करते शिशु कृष्ण की करुण चित्कार से जंगल गुंजायमान
हो जाता है। तेजी से पग बढ़ाती राधा नन्दगृह की ओर लपक पड़ती है। नन्दगृह में
पहुँच कर, मैया यशोदा की गोद में कृष्ण को सौंपती हुयी उदास राधा कहती हैं- आज तुम्हारे
लल्ला ने मुझे बहुत सताया– इस प्रकार राधा-कृष्ण की दिव्य लीलायें अनन्त हैं । जितना
ही डूबोगी,उतनी ही रसानुभूति लब्ध होगी।”
गायत्री
ने स्वीकारोक्ति-मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा- ‘ हां भैया,आपने गीतगोविन्द का वो
पहला श्लोक अभी सुनाया । राधा-कृष्ण की मधुर प्रेम-लीलाओं का बड़ा ही सुन्दर वर्णन
स्वामी जयदेव ने गीतगोविन्द में किया है। मुझे तो ये पूरा काव्य ही याद करा दिया
था पिताजी ने बचपन में ही। ब्राह्मणों के यहां शादी-विवाह में, खास कर भोजन के समय
गीतगोविन्द की मधुर रागिनी अवश्य छिड़ती थी। मेरी माँ तो भाष्य सहित गीतगोविन्द के
द्वितीय सर्ग का गायन हारमोनियम और घुंघरु के ताल पर इस तरह करती थी कि सुनने वाले
भावविभोर हो जाते। कोई-कोई रसिक विप्र वाराती तो फरमाइश कर उठते-प्रथमसमागम
लज्जितया पटुचाटुशतैरनुकूलम् । मृदुमधुरस्मितभाषितया शिथिलीकृतजघनदुकूलम् । सखि हे
केशिमदनमुदारम्...। किसलय शयननिवेशितया चिरमुरसि ममैव शयानम् । कृतपरिरम्भणचुम्बनया
परिरभ्य कृताधरपानम् ।। अलसनिमीलितलोचनया पुलकावलि ललितकपोलम् । श्रमजलसिक्त
कलेवरया वरमदन मदादतिलोलम् ।।(प्रथम समागम की लज्जा से वशीभूत,मन्दमृदुभाषिणी
गोपी कहती है अपनी सखि से कि बड़ी पटुता से अनेक प्रसंशनीय बातों को बोलने
वाले,मेरी जांघ पर की साड़ी हटाने वाले कृष्ण से मिला दो । कोमल पत्तों की शैय्या
रचने वाली,आलिंगन करके प्रिय को चूमनेवाली गोपी कहती है- मेरे वक्षस्थल पर देर तक
सिर रखकर शयन करने वाले, मेरा आलिंगन करके मेरे अधरोष्ठों का पान करने वाले
श्रीकृष्ण को मुझसे मिला दो...। रतिजनित आनन्द से उत्पन्न आलस्य से आंखों को
भींचने वाली,रति के परिश्रम से निकलते पसीने से भींगी देहवाली गोपी कहती है- मेरे
साथ रोमांच से गुलाबी गाल वाले,कामदेव के मद से भी अधिक चंचल मेरे कृष्ण का रमण
करा दो...) ऐसे ललित गीतगोविन्द और यदुकुलज्योनार के बिना ब्राह्मणों का भोजन ही
अधूरा माना जाता था,किन्तु दुर्भाग्य है कि आज की पीढ़ी इन सब चीजों को विसारती जा
रही है । आज तो डीजे के दिल धड़काने वाली १४०-६०डेसीबल की कर्कश आवाज,और फूहड़
फिल्मी गानों के सामने ये सब इतिहास के गर्त में दफ़न हो गये हैं ।कृष्ण को समझने
के लिए समय ही कहां रह गया है लोगों के
पास।’
बातें
हो ही रही थी कि नीचे तेज हॉर्न सुनाई पड़ा,और मेरी आँखे उठ गयी दीवार-घड़ी की ओर-
‘ अरे राम
! छः बज गये। ड्राइवर को बोला था,सुबह ही आ जाने को,वैन लेकर।’ और
फिर गायत्री की ओर देखते हुए बोला- ‘ तुम जल्दी से मुंह-हाथ धोकर तैयार हो जाओ ।
तब तक मैं कुछ सामान लदवा देता हूँ वैन में।’
‘ सामान
ही कितना है हमलोगों के पास,एक ट्रिप से ज्यादा थोड़े जो होगा । सारा सामान मैं
रात में ही पैक कर चुकी हूँ । वस उठाकर वैन में डाल देना है । स्नान-ध्यान अब नये
आवास में ही चल कर होगा ।’- कहा गायत्री ने और बाथरुम की ओर बढ़ चली।
‘और
मेरी चाय,वो भी नये वंगले में ही जाकर पीना होगा क्या ?’- मेरी बात पर भाई-बहन
दोनों हँस पड़े।
“बेड’ टी- अंग्रेजियत का दुम चिपक गया है हिन्दुस्तानियों में ।”- बाबा को कुछ कहने का अवसर मिल गया— “ इसके वगैर काम ही नहीं
चलता। मैं ये नहीं कहता कि चाय बुरी चीज है,पर ये अवश्य कहूँगा कि इसकी आदत बहुत
ही बुरी है, वो भी सुबह-सबेरे,बिलकुल खाली पेट में तो सीधे जहर पीने जैसी है। मुझे
याद है, पिताजी अपने युवावस्था का वाकया सुनाते थे– उन दिनों कलकत्ते
में रहते थे। ब्रुकब्रॉन्डइण्डिया डेगा-डेगी दे रही थी। भारतीय संस्कृति में उसका
प्रवेश आमजन क्या,खासजन तक भी न के बराबर था। सुबह-सुबह मुहल्ले के नुक्कड़ पर
बड़ी सी गाड़ी- पेट्रोल-डीजल ढोने वाले टैंकर की तरह आ लगती- कुछ विशेष प्रकार की
बनावट वाली - भीतर ही भट्ठा भी था,टैंकर में चाय बन रही होती,और लोगों को
पुकार-पुकार कर मुफ्त में चाय पिलायी जाती। साथ ही चलते समय चाय की छोटी दो
पुड़िया और दूध-चीनी का पैकेट भी थमाया जाता। एक पर्ची भी साथ में दी जाती,जिस पर
चाय-चालीसा होता- यह कह कर कि शाम को भी जरुर पीजियेगा,इसमें बतायी गयी विधि से,घर
में बनाकर,फिर अगली सुबह तो हम यहां पिलायेंगे ही- सोचो जरा,कैसा लाजवाब तरीका
है,हमारी आदत को प्रभावित करने का,हमारी संस्कृति को ध्वस्त करने का । कुछ दिनों
तक चाय-विज्ञापन का यह क्रम चला,और धीरे-धीरे लोग अंग्रेजों की गुलामी के साथ चाय
की गुलामी में भी जीना सीख गए। हम भारतीय, गाय का धारोष्ण दूध पीते थे,वो भी बिना
शक्कर,चीनी, गुड़ के। रात, सोते समय हल्की शक्कर डाल कर गरम दूध पीने का रिवाज था।
गर्मियों में सिकंजी,मट्ठा,लस्सी पीते थे। जीरा,गोलकी, सौंफ,गुलाब, केवड़ा, खस
मिश्रित मिश्राम्बुपान करते थे। अमीर लोग चिरौंजी-बादाम का शर्बत पीते थे। और अब
सुबह से रात तक चाय,कॉफी,कोला,पेप्सी,लिमका...पता नहीं क्या-क्या अनाप-सनाप जहर पीये
जा रहे हैं ।और ये व्यापारी मोटे होते जा रहे हैं । बहुत सी बेतुकी,वाहियात चीजें
हमारी आदतों में समा गयी हैं,और दिनों दिन समाती जा रही हैं । बड़े-बड़े
व्यापारियों ने हमें परवश कर रखा है,गुलाम बना लिया है- अपने विविध उत्पादों का ।
इतने आहिस्ते से,बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रवेश करते हैं,ये व्यापारी हमारे घरों
में कि पता भी नहीं चलता । खाने-पीने से लेकर दैनिक उपयोग की बहुत सी वस्तुओं पर
इनका ही वर्चस्व है । हम चाह कर भी इनसे पिंड छुड़ा नहीं पाते। दरअसल हमारी सोंच
ही बदल देते हैं ये कलाबाज़।”
पेस्ट
का झाग बेसिन के हवाले करती हुयी गायत्री ने कहा- ‘ और ये भी
अंग्रेजों का दुम ही है न
भैया? नीम-बबूल की ताजी दातुन को विसार कर, प्लास्टिक का झाड़न दांतों पर फेर रहे
हैं...एक झाड़न वर्षों घसीटेंगे दांतों पर।’- फिर मेरी ओर देखती हुयी बोली- ‘ तुम
निराश न होओ,तुम्हारी चाय अभी हाजिर करती हूँ । इसीलिए सबकुछ तो पैक कर दी थी,पर
चाय का सारा सामान अभी बाहर ही पड़ा है । तुम भी जल्दी से फ्रेश हो लो,और भैया तुम
भी। आज इस डेरे की अन्तिम चाय है हमलोगों
की । आज तुम्हें भी पिलाऊँगी-लौंग,अदरख,इलाइची वाली कड़क स्वास्थ्यवर्द्धक चाय ।’-– कहती हुयी गायत्री रसोई की ओर लपकी; और मैं बाहर बालकनी में
निकल गया,यह कहते हुए कि जरा बता दूँ ड्राईवर को- सामानों की व्यवस्था,जो दो लेबरों
के साथ अभी-तक नीचे ही खड़ा है।
अगले
दो घंटे बाद,गायत्री और बाबा को साथ लिए नये बंगले में दाखिल हुआ । बंगला- वाकई
खुशनुमा था। एक छोटे से कमरे और कीचन,तथा छःफुटी लॉबी में पिछले दस-बारह साल
गुजारने के बाद, चार बड़े कमरों के साथ बड़ा सा बैठकखाना,कीचन, स्टोर,दो-दो लैट्रिन-अमेरिकन
और इंडियन, बाथिंग टब वाला बाथरुम,बड़ा सा गार्डेन, आउट हाउस, टैरेश,और भी बहुत
कुछ– घूम-घूम कर
देखती हुयी गायत्री के खुशनुमा गाल और भी गुलाबी हो चले थे। दुर्भाग्य ! आजतक मैं बेचारी को कभी ढंग की साड़ी भी नहीं पहना पाया था। आधुनिक
श्रृंगार प्रसाधनों से तो इतनी दूर थी,जितनी उसके गांव से दिल्ली की दूरी है । आज
अचानक ये सबकुछ जो हुआ है,उसे वह सिर्फ और सिर्फ बाबा के चरणों का प्रताप मान रही
है । सुपरिचित मुंहबोले भाई तो हैं ही,पर अब मन ही मन उन्हें भगवान का दर्जा दे
बैठी है गायत्री। कल ही मुझसे कह रही थी- किसी तरह अनुनय-विनय करके उपेन्दर भैया
को अब यहीं साथ में ही रखूंगी। पहले तो जगह की कमी के लिहाज में वे भी बहानाबाजी
करके निकल जाया करते थे,किन्तु अब वो सब नहीं होने दूंगी। मैं भी इधर-उधर घूम कर
गायत्री की प्रसन्नता का आंशिक लाभ लिए
जा रहा था।
‘ ये
ऊपर में,टैरेश वाला कमरा बिलकुल एकान्त है,भैया का आसन इसी
में रहेगा। सामने से
यमुना-छवि का भी दर्शन होते रहेगा ।’- कहा गायत्री ने,जिसे सुनते ही बाबा चिहुंक
उठे,मानों बर्रे ने डंक मार दिया हो- ‘ क्या कहा तूने मेरा कमरा ? मैं यहाँ क्यों
रहने लगा ? मुझ फक्कड़-घुमक्कड़ को इस कैदखाने में क्यों बन्द करना चाहती हो? मैं
जहां हूँ,वस ठीक हूँ।’
लपक कर गायत्री ने उनके पैर पकड़ लिए । बाबा पीछे खिसकने का
प्रयास करते रहे,पर पैर तो गायत्री के गिरफ्त में थे।
‘ये क्या कर रही हो गायत्री ! बहन का
रिस्ता रखती हो ,और पैर छू कर पाप चढ़ा रही हो?’
‘ मैं पाप-पुण्य नहीं जानती । मैं एक ही बात जानती हूँ कि
मुझसे रिस्ता जोड़ा है, तो ठीक से निभाओ। यहाँ जगह की कोई कमी नहीं है। इतने बड़े
बंगले में क्या किसी में हाथ,किसी में पैर धर कर सोयेंगे हम दो जन? तुमको यहीं
रहना होगा वस,और कुछ नहीं जानती, मेरी कसम है तुम्हें । तुम्हारी साधना-क्रिया में
मैं किसी तरह का बाधक नहीं बनना चाहती,इसलिए तुम्हें एकान्त स्थान भी दे रही हूँ ।
बस कृपा करो,कहीं और जाने का विचार छोड़ दो। तुम्हें तो पता ही है कि बचपन से ही
कितनी जिद्दी हूँ मैं । जबतक स्वीकृति नहीं दोगे,मैं तुम्हारी पांव छोड़ने वाली
नहीं हूँ,चाहे जितना पाप-पुण्य चढ़ जाये तुम्हारे ऊपर।’
काफी ना-नुकुर के बाद अन्ततः गायत्री सफल हुयी बाबा की
स्वीकृति लेने में । मुझे भी अतिशय प्रसन्नता हुयी- चलो,अच्छा ही हुआ,बाबा अब
हमेशा हमलोगों के साथ रहेंगे।
मजदूरों
के सहयोग से ड्राईवर सारा सामान अपने स्तर से व्यवस्थित कर चुका था। रही-सही कसर
गायत्री अपने स्तर से दूर करने में जुट गयी । मैं भी कुछ हाथ बटाने लगा उसके काम
में। बंगले में आवश्यकता की लगभग सारी चीजें स्थायी रुप से पहले से ही मौजूद थी-
सोफा,पलंग,कुर्सी,मेज,ड्रेसिंग-टेबल,एसी, पंखे,यहां तक कि फ्रीज और वासिंग-मशीन भी
। एक बड़ा सा टीवी बैठकखाने की शोभा बढ़ा रहा था। एक मध्यम आकार का टीवी ब्रैकेट
पर शयनकक्ष में भी रखा हुआ था। बड़े से शयनकक्ष का एक हिस्सा केबिन के रुप में घेर
कर बनाया हुआ था, जिसमें कम्प्यूटर,प्रिंटर,फैक्स,लैंडलाइन आदि की आधुनिक
सुविधायें भी थी। इन सारी चीजों को देख-देख कर गायत्री कितना प्रफ्फुलित हो रही थी,इसका
अन्दाजा वही लगा सकता है,जिसने सिर्फ सपने देखे हों सुख-सुविधाओं का,और बारम्बार
जमींदोज़ भी हुए हों, सपनों के राजमहल जिसके । मुझे अच्छी तरह याद है, बिलकुल आज
की बात सी ताजी है,मेरे ज़ेहन में- शादी की पहली वर्षगांठ। मुझे इच्छा थी कि
बंगाली स्टाइल वाली शंख की चूड़ी भेंट करुं गायत्री को, किन्तु बाजार और जेब टटोला
तो वो मेरे औकाद से बाहर की निकली । मन मसोस कर, साधारण सी डिबिया वाली सिन्दूर और
एक मखमली हैंकी का गिफ्ट पैक कराकर उदास चेहरे पर जबरन हँसी थोपते हुए घर में घुसा
था । किसी और ने तो नहीं, किन्तु गायत्री ताड़ गयी मेरी मनःस्थिति पर। मेरी बाहों
में सिमटती हुयी कहा था उसने- ‘ अभिनय करना नहीं आता तो क्यों करते हो ? क्या
समझते हो अभिनय बहुत आसान काम है ? तुम्हारे बस की चीज नहीं है।’ उसके कपोलों को
आहिस्ते से छूते हुए मैंने पूछा था- ‘ क्या कह रही हो,मैं कुछ समझा नहीं।’
‘ मैं जानती हूँ,आज तुम कुछ मन-माफिक गिफ्ट देना चाहते
थे,जो नहीं ला पाये हो। इसमें शर्मिंदगी की क्या बात है ? मैं तुम्हारी प्रेमिका
बनने से पहले तुम्हारी पत्नी हूँ,अर्द्धांगिनी हूँ । मायूस क्यों होते हो।’- कहती
हुयी गायत्री, मेरे कुर्ते का जेब टटोलने लगी थी,जिसके एक कोने में आज का गिफ्ट
पड़ा,छिपा सा था- ‘ लाओ जल्दी से दे दो,जो लाये हो मेरे लिए।’
मेरे कांपते हाथ,खुद के कुर्तें की जेब में घुसे थे,मानों
किसी का पॉकेट मारने जा रहा हूँ । खुद की ही नजरों में गिरा हुआ मैं, झुकी आँखों
से गायत्री को देखते हुए,बांया हाथ उसकी आंखों पर धर दिया था और दाहिने हाथ ने, जल्दी
से जेब टटोल कर छोटा सा पैक निकालकर,गायत्री के दायें हाथ के हवाले कर दिया था। अपनी
आंखों पर से मेरी हथेली को झटके से हटाती हुयी गायत्री ने एक हाथ से पैकेट थामा,और
लिपट पड़ी थी मुझसे । देर तक लिपटी रही यूंही । दोनों में किसी के पास कोई शब्द न
थे । थी तो सिर्फ कुछ ध्वनियां, जो दो दिलों की धड़कनों के माध्यम से बाहर निकलने
को बेताब हो रही थी। सच में खास क्षणों में शब्द कितने निरीह हो जाते हैं...!
और फिर संघर्षमय वैवाहिक-जीवन का ‘सिलवरजुबली’ भी
यूँ ही गुजर चुका था,बिना कुछ टीम-टाम के।
गायत्री की पुकार पर मेरे विचारों की तन्द्रा टूटी ।
मॉर्डेन कीचन को अपने ढंग से अरेंज कर, मुझे पुकार रही थी- मुआयना करने को।
चाय का प्याला थमाती हुयी गायत्री ने
कहा- ‘ कैसा लगा मेरा अरेजमेंट? ’
प्याले को पूर्ववत ट्रे में रखते
हुए,दायें-बायें झांका। बाबा शायद बाथरुम में
थे । आगे बढ़कर गायत्री को आगोश
में लेते हुए बोला- ‘ लगना कैसा है,जैसी तुम हो, वैसा ही तुम्हारा रसोईघर भी....।’
‘ धत्त ! बड़े रोमांटिक हो रहे हो आज । दफ्तर नहीं
जाना है क्या ?’- बाहुपाश से मुक्त होती गायत्री ने कहा।
‘ कौन कहें कि मीलों जाना है,अब । इस कोठी से निकला,और उस
कोठी में घुसा...। मैं अभी तैयार होता हूँ, स्नान करके। अभी समय ही कितना हुआ है।’-
कहते हुए प्याला उठाकर,बाहर आ गया। बाबा का स्नान हो चुका था। उन्हें लिए गायत्री
ऊपर चली गयी, उनका कमरा दिखाने,और वहां की व्यवस्था देखने।
कमरे में पहले से पड़ी बड़ी सी चौकी,बाहर टैरेश पर निकाली
जा चुकी थी। कुर्सी वगैरह बाकी के सामान भी वहीं बाहर में ही पड़े थे। गायत्री के
कहे मुताबिक नौकर ने कमरे को धो-पोंछ कर नया कम्बल बिछा दिया था। कमरे में
गूगुल-देवदार की भीनी सुगन्ध फैली हुयी थी।
‘ यहां की व्यवस्था में और क्या चाहिए भैया,बता
दोगे,ताकि...।’- कमरे में घुसती हुयी गायत्री ने पूछा,जिसके बीच में ही टोकते हुये
बाबा बोले- ‘ चाहिए क्या मुझे,कुछ नहीं। कमरा,और कमरे में एक कम्बल। बाकी के मेरे
सौगात तो मेरी झोली में है ही।’
गायत्री मुस्कुरायी ।वह जानती थी कि उनकी झोली में क्या है-
एक जोड़ी झूल-लंगोटी,और लाल ‘बन्धने’ में बंधी हुयी कुछ...तस्वीर,या कुछ और...यही
थे उनके सौगात । ‘ तो ठीक है,तुम अपनी धर्म-साधना में लगो,और मैं अपनी कर्म-साधना
में । आज काम कुछ ज्यादा दीख रहा है,फिर कल से तो...।’-कहती गायत्री कमरे से बाहर
आगयी, तभी याद आयी- ‘ दिन में क्या लेते हो आदतन,मुझे निःसंकोच बताना।’
प्रश्न दिन के भोजन से था,जिसके उत्तर में बाबा ने स्पष्ट
कहा- ‘ किसी तरह की औपचारिकता की जरुरत नहीं है। तुम जानती ही हो कि चौबीस घंटे
में सिर्फ एक बार अन्नाहार लेना पसन्द करता हूँ। अब इसे दिन में दे दो,या कि रात
में- तुम्हारी सुविधा और मर्जी।’
‘मेरी सुविधा और मर्जी नहीं,तुम्हारी इच्छा और तुम्हारी
मर्जी।’
‘ तो
ठीक है,दिन में किसी समय दूध दे देना- गुड़ के साथ। भोजन तुमलोगों के साथ रात में
ही लूंगा। अभी कुछ नहीं चाहिए। तुम जाओ अपना काम देखो। दरवाजा भिड़काती जाना,और
ध्यान रखना- इधर कोई आये-जाये नहीं।’
आना-जाना किसे है,नौकरों को मैं हिदायत
कर दूंगी। हां, माली आयेगा,वो भी शाम को, गमलों में पानी देने।
नया दफ्तर,नयी व्यवस्था। सबकुछ नया-नया सा। कार्यभार भी
काफी
अधिक। कहने को दफ्तर और आवास
पास-पास थे,किन्तु बहुत कम ही समय ऐसा
मिलता कि आवास में चैन से रह सकूँ
। आवास में रहूँ भी तो आवासीय दफ्तर में काम निपटाने में ही ज्यादा वक्त गुजर जाता।
नतीजा ये हुआ कि सप्ताह भर करीब निकल गये बाबा के साथ बैठकी लगा न पाया। खाने-पीने
का समय भी तय जैसा नहीं, भागमभाग की जिन्दगी में खुद के लिए समय निकालना भी
मुश्किल सा हो गया । चाहता कि कम से कम रात का भोजन बाबा के साथ हो,पर वह भी वीते
सप्ताह में नसीब न हुआ। देर रात सारे काम निपटाकर थोड़ा निश्चिन्त सा होता,तो बाबा
को अपने कक्ष में ध्यान-चिन्तन में लगा देखता,और गायत्री...उस बेचारी का क्या, थकी-हारी
सी दुबकी रहती विस्तर में। सुख के साधन अपने साथ इतने जंजाल लेकर आयेंगे,शायद उसने
सोचा भी न होगा ।
रात का खाना परोसती गायत्री ने एक दिन
कहा - ‘भैया कल विन्ध्याचल जा रहे हैं। दस दिनों बाद सम्भवतः लौटें उधर से। मैंने बहुत
पहले ही मन्नत मांगी थी माँ विन्ध्यवासिनी से कि तुम्हें अच्छा काम मिल जाये, तो
उनकी सेवा में हाज़िर होऊँगी । काम तो सच में अच्छा मिल गया- उम्मीद से भी ज्यादा;
किन्तु तुम्हारी कार्यव्यस्तता देखते हुए सोचती हूँ- कैसे कब पूरा कर पाऊँगी माँ
का मन्नत !’
तभी मुझे ध्यान आया,अगले ही सप्ताह दो दिनों के लिए इलाहाबाद जाना है, दफ्तर
के काम से। अतः गायत्री को आश्वस्त किया- ‘ तुम चिन्ता न करो। भगवती की कृपा से
अच्छा पद और व्यवस्था मिली है,तो समय भी वही निकालेंगी। भैया को जाने दो अभी। सप्ताह
भर से अधिक करीब उन्हें रहना ही है उधर। तो वहीं मिलेंगे उनसे। उनका ठिकाना तो
बेठिकाना होता है,पर हमारा तो निश्चित है न। अगले रविवार हमदोनों निकल चलेंगे साथ
ही । दो दिनों में अपना काम निपटाकर,तुम्हें प्रयाग भी घुमा देंगे,फिर माँ का
दर्शन भी कर लेंगे।’
सुबह-सुबह नींद खुली बाबा की खड़ाऊँ की खटर-पटर से । वे
निकलने को तैयार थे। गायत्री ने रात वाली बात बतलायी,जिसे सुन कर बहुत ही प्रसन्न
हुए- ‘ ये तो अच्छा संयोग है। तुम अपना काम निपटा कर,जब भी विन्ध्याचल आओगे,तो
सीधे तारामाँ के मन्दिर में आजाना,जो कि विन्ध्यवासिनी से करीब आधमील सीधे उत्तर,
गंगा किनारे ही है। वहाँ बिलकुल सुनसान रहता है। आमलोगों से उपेक्षित सी है वह जगह;
किन्तु है बिलकुल शान्त,एकान्त,निरापद। ठहरने के लिए भी चाहोगे तो मैं वहीं व्यवस्था
करा दूंगा,या फिर किसी होटल,लॉज में ही रहना चाहो तो वहीं रहो,कोई बात नहीं।’
नहीं महाराज ! ऐसा नहीं कि मैं
सप्ताह भर में ही सच में इतना बड़ा हो गया कि आपकी दी हुयी व्यवस्था को छोड़कर
किसी बड़े होटल की तलाश करुँगा। आपका सानिध्य, वो भी विन्ध्यवासिनी के अंचल में
वसी माँतारा के प्रांगण में- ये तो हमदोनों के लिए सौभाग्य की बात होगी- क्यों
गायत्री ! ठीक कहा न मैंने?
‘ हाँ भैया!
यही बात पक्की रही। मंगलवार को सुबह ही हमलोग वहां पहुँच
जायेंगे। और फिर वहां न इनका दफ्तरी बोझ होगा,और न किसी तरह का किचकिच।’- खुश होकर
गायत्री ने कहा।
बाबा
चले गये । उनकी अनुपस्थिति में सप्ताह भर का समय कुछ मन्थर गति से गुजर रहा था। गायत्री
के लिए समय की गति और भी धीमी थी,क्यों कि उसके जीवन का ये पहला अवसर आने जा रहा
था,जब मेरे साथ कहीं घूमने जा रही हो । जरुरी यात्रा करना,और घूमने के लिए घूमने
में बहुत अन्तर होता है । भले ही ये मेरा ऑफिशियल टूर है,फिर भी गायत्री के साथ
होने से लुत्फ ही कुछ और होगा । मैं भी जल्दी से सप्ताह को गुजरने का आग्रह कर रहा
था।
रविवार आ ही गया। सुबह चार बजे ही हमलोग दिल्ली छोड़ दिये। इलाहाबाद
पहुंच कर गायत्री को एक होटल में विश्राम के लिए छोड़कर,रात की मीटिंग अटेंड किये।
अगले दिन का काम बहुत थोड़ा ही था- एक नये दफ्तर का विजिटिंग रिपोर्ट तैयार करना
था, जिसके लिए एक बजे का समय तय था, कुछ और भी छोटे-मोटे काम निपटाने थे। अतः भोर
होते ही त्रिवेणीस्नान के लिए निकल गये । उधर से ही अक्षयवट भ्रमण-दर्शन करते हुए
पुनः होटल में गायत्री को छोड़, अपने काम पर निकलने की बात तय हुयी। सवारी के लिए
तांगा ही सबसे अच्छा साधन लगा। दिन का भोजन इसी बीच सुविधानुसार कहीं ले लिया
जायेगा। गायत्री ने कहा कि समय मिले तो भारद्वाज आश्रम भी जरुर देख लेना चाहिए,क्यों
कि इसके लिए बाबा ने भी इशारा किया है । निश्चित ही कोई खास बात है।
अक्षयवट की वर्तमान स्थिति को देखकर बड़ा ही क्षोभ हुआ । भले
ही
आज वह राष्ट्रीय धरोहर के रुप
में सुरक्षित है; किन्तु अधिकांश
खण्ड आमजन-प्रवेश से वंचित होकर सैनिक-छावनी में तबदील है । मुझे याद है,बचपन में
पिताजी के साथ आया था यहाँ। चप्पे-चप्पे घूम-घूम कर सारा किला देखने का मौका मिला
था। ऊपर जितना दीख रहा है,उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है नीचे– भूगर्भ में । आर्यावर्त की रहस्यमय संस्कृति का उत्कृष्ट
नमूना कह सकते हैं इस किले को । अक्षयवट नामक सनातन वटवृक्ष है यहां, जिसके नाम पर
किले का नामकरण हुआ है । विविध शास्त्रों में इसका विस्तृत परिचय उपलब्ध है । मान्यता
है कि खण्ड प्रलय में भी इसका नाश नहीं होता। ये वही वट वृक्ष है,जिसके पत्ते पर
विराजमान भगवान वालमुकुन्द ने महर्षि मार्कण्डेय को दर्शन दिया था । वर्षों पहले
किसी विदेशी वैज्ञानिक ने इसकी एक छोटी टहनी का परीक्षण कर प्रमाणित किया था कि इस
नयी कोंपल की आयु अनुमानतः तीस-बत्तीसहजार वर्ष है । अब इसी से अनुमान लगाया जा
सकता है कि पूरे वृक्ष की आयु क्या हो सकती है। आमजन दर्शन के लिए वृक्ष का ऊपरी
भाग ही दृश्यमान है,शेष तो अतल दुर्ग-गह्वर में छिपा है। ऊपर की मंजिल पर चढ़कर,
नीचे झांकने पर स्पष्ट रुप से अन्तःसलिला सरस्वती के श्वेताभ प्रवाह को परखा जा
सकता था उन दिनों। कहते हैं कि किले के भीतर से सरस्वती छिप कर प्रवाहित होती हुयी
गंगा से आ मिली हैं,और उधर से कालिंदी की नीलधारा का आगमन हुआ है- नील,पीत,श्वेत
का अद्भुत मिलन होकर,त्रिवेणी की सार्थकता स्वतः सिद्ध होती है। मानों स्व-स्वशाप
भुक्ता तीनों देवियों ने यहां आकर गले मिल कर सन्धि कर ली हो। श्रीकृष्ण की तीनों
प्रियाओं का अद्भुत मिलन है प्रयाग का त्रिवेणी स्थल । वैसे तो नाव पर चढकर गंगा
की बीच धारा में जाने पर भी किंचित आभास होजाता है- नील-पीत संगम का,किन्तु
त्रिवेणी का असली दर्शन तभी हो पाता था। पिताजी कहा करते थे- यही है ‘मुक्तत्रिवेणी’,
इसमें अवगाहन करके ही पूर्णतः मुक्त हुआ जा सकता है,अन्यथा स्व ‘युक्तत्रिवेणी’ का
परिचय पाये बिना तो कितनों का इतिश्री हो जाता है संसार में। पिताजी के इस कथन का
अभिप्राय आज तक समझ न सका,हां सूत्र स्मरण में सुप्त है आज भी —मुक्तत्रिवेणी और
युक्तत्रिवेणी।
भारद्वाज
आश्रम की विलक्षणता अपने आप में अद्वितीय है। वेद-वेदांगों के विविध ज्ञान-विज्ञान,यहां
तक की विद्युत और विमानन अभियान्त्रिकी तक की शिक्षा की व्यवस्था थी महर्षि के
आश्रम में । मानव-कल्याणार्थ प्राचीन आयुर्विज्ञान को अष्टांग रूप में विभक्त कर
अपने शिष्यों को प्रदान करने का श्रेय भी इन्हीं को है । वायुपुराण,वाल्मीकि
रामायणम् आदि में इनके बारे में विशद वर्णन मिलता है । वनगमन के समय श्रीराम-जानकी
इनके आश्रम में पधारे थे। अयोध्या वापसी के समय भी इनका दर्शन किये थे।
गंगा
किनारे कोलोनगंज इलाके में स्थित भारद्वाज आश्रम के विशाल प्रांगण के बीचो-बीच बने
गोल गुम्बजाकार मन्दिर में शिवलिंग की स्थापना की गयी है,जो भारद्वाजेश्वर के नाम
से ख्यात है। चौड़ी-ऊँची पांच-छः सीढ़ियां चढ़ कर, तीन मेहराबी दरवाजों से बने
इसके विस्तृत सभामण्डप में पहुँचा जाता है । मुख्य मन्दिर के दांयें-वायें अन्य कई
छोटे-बडे मन्दिरनुमा स्थल हैं,जहां अनगिनत देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं,
उनमें श्रीराम-लक्ष्मण-जानकी,महिषासुर- मर्दिनी,सूर्य,शेषनाग,नरवाराह आदि अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। आश्रम की
प्राचीनता असंदिग्ध है, किन्तु कुछ लोग आशंका व्यक्त करते हैं कि प्राचीन भारद्वाज-आश्रम
यह नहीं है। वैसे यह ऐतिहासिक शोध का विषय हो सकता है ; किन्तु मुझे देखने-घूमने से ऐसा प्रतीत नहीं हुआ कि इसकी
प्राचीनता पर अंगुली उठा सकूँ। गायत्री को बारबार बाबा याद आ रहे थे । उसने कहा- ‘
उपेन्दर भैया साथ होते तो घूमने का मजा ही कुछ और होता । यहाँ के रहस्यों से पर्दा
उठाते।’ उनकी कमी तो मुझे भी खल ही रही थी। बहुत से प्रश्न अनुत्तरित थे ।
गर्भगृह
में थोड़ी देर के लिए ध्यान लगाने का प्रयास किया। क्षण भर के ध्यान ने ही मन को
शान्त और प्रफ्फुलित कर दिया । सच में ध्यान लगाने की चीज नहीं है,वह तो स्वतः
लगने वाली स्थिति है–आज
मुझे कुछ ऐसा ही प्रतीत हुआ। इसके पहले सैकड़ों बार ध्यान लगाने का प्रयास किया था
। वस्तुतः जो प्रयास , लोग किया करते हैं, वह तो धारणा की होती है,और इसे ही ध्यान
कहने की भूल कर बैठते हैं,जिन्हें योग का व्यावहारिक ज्ञान नहीं है। बाबा ने
प्रसंगवश एक दिन कहा था- धारणा तक जाओ,ध्यान की चिन्ता छोड़ो । आज का क्षणिक अनुभव
सच में विचित्र रहा । भारद्वाजेश्वर दिव्यस्थली का आभामंडल मन-प्राणों को शान्ति-रस
से आप्लावित कर गया। गायत्री की इच्छा थी अभी कुछ देर और यहीं विताने की, किन्तु
समय के हाथों बिका होने के कारण उसकी इच्छा के विपरीत, तुरत वहाँ से निकल जाना
पड़ा।
वहीं
के लोगों से पूछने पर पता चला कि आसपास ही और भी कई दर्शनीय स्थल हैं। सच पूछें तो
विविध तीर्थों का जमघट पूरा प्रयाग ही दर्शनीय है,जिनमें वासुकि नाग-मन्दिर,उर्वशीतीर्थ,
उर्वशीकुंड,गौघाट, इन्द्रेश्वर, तारकेश्वर, परशुरामतीर्थ, लक्ष्मीतीर्थ, कपिलतीर्थ,
शिशिरमोचन,आदित्यतीर्थ आदि कुछ विशिष्ट स्थल हैं । थोड़ा बाहर निकलने पर श्रृंगवेर
स्थल,लाक्षागृह, सोमेश्वर, अलोपी, ललिता,शीतला,तक्षकेश्वर,समुद्रकूप आदि भी कम
दर्शनीय नहीं हैं। फिर भी माधवमन्दिर और मनकामेश्वर मन्दिर जाने की इच्छा प्रवल
हुयी। माधव मन्दिर के नाम से ख्यात कोई एक स्थल नहीं है,बल्कि कुल बारह स्थल हैं,जो
अलग-अलग स्थानों में अवस्थित हैं। यथा- साहेब माधव,अद्वेनी माधव, मनोहरमाधव,चारामाधव,गदामाधव,आदममाधव,अनन्तमाधव,बिंदुमाधव,
अशीमाधव, संकटहरणमाधव, विष्णु आद्य माधव,वटमाधव । इन सबका भ्रमण दर्शन सप्ताह भर
का काम हो सकता है । वट-माधव का दर्शन तो अक्षयवट दर्शनक्रम में ही हो गया था। अतः
समयाभाव को देखते हुए बलवती इच्छा से समझौता करना पड़ा।
‘ अब
वापस लौटना चाहिए ’- मैंने कहा,तो गायत्री की चहक अचानक गायब हो गयी। उसने मायूस
होते हुए कहा- ‘ कम से कम मनकामेश्वर का दर्शन तो कर ही लो। जीवन का भागदौड़ तो
हमेशा लगा ही रहता है।’
‘ मनकामेश्वर?
’- मैं जरा चौंका- ‘ महादाता ने तो बहुत कुछ दे दिया, अनुमान से भी कहीं अधिक। अब
क्या मनोकामना लेकर मनकामेश्वर की लालसा रखे हुये हो ? अधिक लोभ अच्छी बात नहीं
है।’
उदास
होती हुयी गायत्री ने कहा- ‘ तो तुम्हें क्या लगता है- कुछ मांगने के लिए उतावली
हूँ ? नहीं,ऐसी बात नहीं है। कामनाओं का अन्त नहीं है जीवन में, एक की पूर्ति होती
है,तो अनेक की चाह बन जाती है। फिर भी मैं उन स्वार्थी औरतों में नहीं हूँ। वस यूँ
ही मन में लगा कि इतना घूम-देख चुकी तो कम से कम इस स्थल को भी देख ही लूँ।’
मैंने
घड़ी देखी- बारह बजने ही वाले थे । समय की गुलामी,नौकरी की नौ-कड़ियों वाला जंजीर
गले की फांस बनी हुयी थी । अपने इन्सपेक्शन प्वॉयन्ट पर पहुँचने के लिए भी कम से
कम आध घंटे का वक्त चाहिए । गायत्री को होटल तक पहुँचाना भी होगा- ये सब सोचते
हुये गायत्री को आश्वस्त किया- ‘ चलो ठीक है, मान लिया तुम्हारी बात को। कामनाओं
के वगैर ही किसी धर्मस्थल में जाने की आदत डालनी चाहिए,और यह आदत तुम्हें पहले ही
लग चुकी है, तो बड़े सौभाग्य की बात है । ऐसा करते हैं कि अभी तो तुम्हें होटल छोड
देते हैं। भूख भी लग रही है । कुछ खा-पी लेना भी जरुरी है । दो-ढाई घंटे से ज्यादा
का काम नहीं है मेरा। उधर से निबट कर मनकामेश्वर दर्शन किया जायेगा,और फिर ट्रेन
का इन्तज़ार करने से बेहतर है कि बस से ही निकल चला जाय । सत्तर मील की
सड़क-यात्रा का भी
लुत्फ
ले लिया जाय।’क्रमशः....
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