गतांश से आगे...तेरहवां भाग
ठीक
सवातीन बजे मैं अपना सारा काम निपटाकर,होटल पहुंच गया। दरवाजे पर दस्तक दो-तीन बार
देना पड़ा। प्रफ्फुल्लित गायत्री ने किवाड़ खोला- ‘ बड़ी जल्दी निपट लिये सारा काम
। घूमने की ललक में कहीं फांकीमार कर तो नहीं निकल गये? ’
गायत्री
के इस पुराने ज़ुमले से मैं वाकिफ़ था,अतः बिना कुछ प्रतिक्रिया व्यक्त किये
विस्तर पर धब्ब से लेट गया। बड़ी थकान लग रही थी। जी चाहता था- सो लूं घंटे भर,
किन्तु गायत्री की कामना- मनकामेश्वर दर्शन,और पुनः अगली यात्रा...। सिर टिकाने के
लिए तकिया खींचा,जिसके नीचे पड़ी औंधी-खुली डायरी देख चौंका।
‘ डायरी
लिख रही थी क्या? शायद इसी कारण दरवाजा खोलने में देर हुयी।’-कहते हुये विस्तर पर
पड़ी खुली डायरी उठा लिया । सादे पन्ने खुले हुए थे, उनके बीच में एक बड़ा सा सीट
मोड़ कर रखा हुआ था। डायरी गायत्री के हाथों में देते हुए, मुड़े हुए पन्ने को
खोला। कोई विचित्र सा चित्र बनाया हुआ था- अंग्रेजी के आठ को बड़ी आकृति में
लिखकर, लगातार कुछ कड़ियों के रुप में जोड़ने का प्रयास किया जाय,वैसी ही कुछ
आकृति बन रही थी । आठ के दोनों वृत इतने बड़े थे कि उनके अन्दर भी कुछ छोटी आकृति
दर्शाने का प्रयास किया गया था,जो स्पष्ट तो नहीं थे, किन्तु अपने अस्तित्व का
संकेत अवश्य कर रहे थे । आड़ी-तिरछी रेखाओं के माध्यम से उन्हें एकरंगे होने के
दोष से भी मुक्त करने का प्रयास किया गया था । कुछ देर तक मैं उसे गौर से देखते
रहा, किन्तु कुछ खास समझ न आया। फलतः पूछना पड़ा- ‘ ये क्या है,कैसा चित्र बना रही
थी?’
‘ये
क्या है,क्यों है,कहां है- आदि बातों का जवाब तो उपेन्दर भैया ही ठीक से दे सकते
हैं। मैंने तो जल्दबाजी में इस रेखाचित्र को खींच भर दी हूँ । पता नहीं फिर ज़ेहन
में रहे,या कि गायब हो जाये। मैं बहुत बार अनुभव की हूँ, कुछ ऐसे आश्चर्यजनक विम्ब
बनते हैं- मानस पटल पर क्षण भर के लिए, और लुप्त हो जाते हैं । बाद में ठीक से
स्मरण भी नहीं रहते कि उसके बारे में किसी से पूछ-जान सकूँ । हाँ, इतना जरुर लगता
है,कि किसी रहस्यमय बात का इशारा है । आज भारद्वाजेश्वर के सामने ज्यूं ही आसन
लगायी,बिना किसी प्रयास के ही ये बिम्ब सामने,वो भी बहुत ही प्रकाशमय होकर दीखने
लगा । लगता था,शीशे की बनी घुमावदार नालियों के बीच से सतरंगी प्रकाश-किरणें गुजर
रहीं हों,काफी तेजी से, और उनकी गत्यमान स्थिति में कुछ और नये विम्बों का सृजन भी
हो रहा हो,बीच-बीच में- त्रिभुजाकार,वृत्ताकार,पद्माकार,शंक्वाकार आदि-आदि । तुम
यदि बीच में ही मुझे छेड़ते नहीं,तो शायद मैं घंटो निहारती रहती इसे । क्या है,ये
तो पता नहीं, किन्तु अजीब सा सम्मोहन प्रतीत हुआ इस बिम्ब में । आंखें खोलने की जरा
भी इच्छा न हो रही थी हमें।’
गायत्री
के कहने पर मुझे भी ध्यान आया। उसके बनाये हुए रेखाचित्र पर फिर से गौर किया-
आड़ा-तिरछा-उलटा-सीधा करके देखने-बूझने का प्रयत्न किया। तभी चौंक उठा- अरे,मैं भी
तो कुछ ऐसा ही विम्ब-दर्शन किया उस वक्त। वस अन्तर इतना ही है कि तुम्हारे इस
रेखाचित्र को उल्टा करके रख देने की आवश्यकता है । और हां,ये जो गति और प्रकाशपुंज
की बात कर रही हो,ये तो मेरे विम्ब में भी कुछ ऐसे ही,किन्तु चमक बहुत ही धूमिल-सी
थी,जैसे गंदले शीशे की नाली को बाहर से झांक कर देखा जा रहा हो, या कहो अन्दर का
प्रकाश ही अपेक्षाकृत कम हो। आखिर क्या रहस्य हो सकता है- हमदोनों एक ही समय
में,एक ही स्थान पर एक ही विम्ब को देख रहे हैं,सीधे और उल्टे क्रम में?
‘ इस
रहस्य पर से पर्दा तो अब भैया ही उठा सकते हैं। इतना तो तय है कि चलते समय
भारद्वाज आश्रम अवश्य जाने का भैया का इशारा कुछ अन्य बातों का संकेत देता है,साथ
ही दोनों को एक ही विम्ब का दर्शन !’
चलो,जो
भी हो,ईश्वर-कृपा कुछ शुभ का ही संकेत कहें इसे ।अब उनसे मिलकर ही शंका-समाधान
होगा, फिलहाल तो मनकामेश्वर मन्दिर के दर्शन के लिए चलना है न । चलो जल्दी से
तैयार हो जाओ।
‘ तैयार
क्या होना है,मैं हमेशा तैयार ही रहती हूँ । वस छोटा बैग उठाओ और चल पड़ो। उधर से
घूम कर फिर इधर आना है न, या कि सीधे निकल जाना होगा?’
सामान
ढोने का बोझ सहन कर सकें हमलोग,तो समय की कुछ बचत होगी,और अधिक समय दे सकेंगे
मन्दिर में। वस यही समझो कि करीब चालीस-पचास किलोमीटर जाना-आना है—मिंटोपार्क के
पास यमुना नदी के किनारे ही किले के पश्चिमी भाग में । ऐसा करते हैं कि टैक्सी ले
लेते हैं। समय की बचत होगी, और थकान भी कम झेलना पड़ेगा। उधर से ही सीधे वसस्टैंड
निकल जायेंगे।
‘ क्या
ऐसा नहीं हो सकता कि उसी टैक्सी से फिर हमलोग विन्ध्याचल तक निकल जायें,कितनी दूरी
होगी- साठ-सत्तर कि.मी. से अधिक दूरी तो नहीं होना चाहिए।’ –गायत्री ने सुझाव
दिया।
ठीक
है,तुम्हारी राय है तो यही करता हूँ- कहते हुए बैग,और अटैची दोनों
उठा लिया। छोटा बैग गायत्री
ने लिया,और होटल से बाहर आ गये । रास्ता,और सुविधा की जानकारी लेने के क्रम में
होटल-मैनेजर ने ही एक टैक्सी तय कर दी, जिससे काफी सुविधा हो गयी हमलोगों को।
लगभग
पाँच बजे हमलोग मनकामेश्वर मन्दिर के प्रांगण में थे । मन्दिर बड़ा ही सुरम्य वातावरण
में अवस्थित है । सरस्वती घाट के पास यमुना नदी के तट
पर स्थित, इलाहाबाद के प्रसिद्ध शिव-मंदिरों में एक है यह। चारों ओर से १२०
डिग्री के मेहराबी द्वार,अष्टकोणीय आकृति में बने हुये । यानी गोलम्बर सीधे
वृत्ताकर न होकर, कोणीय बने हुए हैं,जिसके कारण बहुत ही आकर्षक लगता है। औंधे
गोलम्बर को भी विविध चित्रकारियों से सजाया गया था। मुख्य मन्दिर के साथ ही और भी
कई मन्दिर हैं,किन्तु वे इतने आकर्षक न लगे। प्रशस्त प्रांगण को पार करके,
प्रकाश-स्तम्भ के समीप खड़े होकर अगल-बगल का दृश्य निहारने लगे हमलोग । काफी देर
तक वास्तुकला और सौन्दर्य का आनन्द लेते रहे । फिर मन्दिर के भीतर प्रवेश किये ।
विशाल काले पत्थर को तराश कर अर्घ्यसहित शिवलिंग बना हुआ था- हाथ भर की ऊँचाई पर।
पास ही नन्दी और गणेश की भी सुन्दर प्रतिमा थी । संयोग से उस समय आगन्तुकों की
संख्या न के बराबर थी। शिवलिंग से बिलकुल सट कर ही हम दोनों ने आसन लगाया। आदतन
मैं वज्रासन में बैठकर,दोनों हाथ आगे बढ़ा, शिवलिंग का स्पर्श करने ही वाला था कि
गायत्री ने टोका- ‘ ऐसे क्यों,आराम से बैठिए न - पद्मासन में।’
मुझे
बैठने का सुझावादेश देकर गायत्री स्तोत्र पाठ करने लगी। रावणकृत शिवताण्डव स्तोत्र
का गायन वह बड़े ही भावमय होकर करती है । पहले भी कई बार उसका गायन सुन चुका हूँ ।
बिलकुल लगता है कि नाभिमंडल से स्वर फूट रहें हैं । पूरा स्तोत्र मुझे कण्ठस्थ तो
नहीं है,किन्तु गायत्री के स्वर में किंचित स्वर मिलाने का मैं भी प्रयास करता रहा।
करीब
बीस मिनट बाद जब स्तोत्रपाठ समाप्त कर,पीछे ध्यान गया तो देखता हूँ- गर्भगृह के
बाहर बीसियों लोग- पुरुष-स्त्री खड़े हैं । लगता है गायत्री के गायन ने सबको सम्मोहित
कर लिया था । एक महिला ने तो आगे बढ़कर गायत्री के चरण-स्पर्श करने का भी प्रयास
किया,जिसे गायत्री ने सहज ही रोक लिया अपने हाथ बढ़ाकर- ‘ये क्या रही हो बहन ! देव-प्रतिमा के सामने वैसे भी किसी को प्रणाम नहीं करना चाहिए,और मैं कोई
विशेष औरत तो हूँ नहीं।’
अब
तक गर्भगृह बिलकुल खाली था। हमदोनों के सिवा भीतर कोई था ही नहीं, किन्तु इस अनजानी
महिला के प्रवेश करने के साथ ही बाकी सभी लोग भी भीतर घुस आये,और प्रतिमा के चारों
ओर से घेर कर बैठ गये।
हमलोग
अभी कुछ देर और ठहरना चाहते थे,किन्तु आसन्न भीड़ ने इसकी इज़ाज़त न दी। चलने को
उठ खड़ा हुआ, तो वे लोग भी उठ खड़े हुए,मानों मेरे ही वास्ते बैठे हों। एक ने साहस
करके परिचय पूछा- ‘ कहां से आये हैं आपलोग?’
‘
जी, हूँ तो मैं बिहार की,किन्तु फिलहाल आयी हूँ दिल्ली से।’- गायत्री ने संक्षिप्त
परिचय देकर,बात समाप्त करनी चाही,किन्तु बात बनी नहीं।
‘
वहीं रहती हैं,या कि...? ’- एक और महिला ने सवाल किया।
‘
जी हां,वहीं हूँ काफी समय से। पति नौकरी में हैं।’-गायत्री का संक्षिप्त उत्तर था।
मैं
तबतक बाहर निकल आया था,सभामंडप में । किनारे पर खड़े होकर पीछे वाले मन्दिर के
बारे में उन्हीं में से एक से पूछा । जवाब समवेत स्वर में मिला- जी हाँ,बोत बढ़िया
है,देखने माफिक... जोरुर देखो...।
आगे
बढ़कर गायत्री का हाथ थाम ली उस महिला ने,अपने दोनों हाथों से- ‘ तोम बोउत अच्छा
गान किया,जी करता...ओर सुनना मांगता...।’ फिर आपस में ही बातें करने लगी,अपने
लोगों से। टोली बंगालियों की थी,कुछ उड़िया लोग भी थे । सबने हाथ जोड़कर अभिवादन
किया । प्रत्युत्तर में हमने भी हाथ जोड़े ।
अब
चलना चाहिए-कहते हुए मैं सभामंडप से बाहर निकलने लगा; किन्तु गायत्री ने इशारा
किया,अभी रुकने के लिए। अतः वहीं एक ओर कोने में बैठ गया। थोड़ी देर में पूरी जमात
वापस चली गयी- पास वाली तीसरी मन्दिर में। भीड़ विदा होने पर गायत्री पुनः उठकर
गर्भगृह में जा घुसी,और मुझे भी आने को कही।
पुनः
एकान्त पा, आसन जमाया हमदोनों ने । ‘ तुम्हें तो अटपटा लग रहा होगा कि फिर क्यों
अन्दर आयी, किन्तु जान लो कि ये सारा संकेत भैया का था। उन्होंने ही कहा था-
प्रयाग जाना तो मनकामेश्वर में कुछ लम्बा आसन जरुर मारना । स्तोत्रपाठ के बाद
ज्यों ही थिर होना चाही कि ये मंडली आ जुटी। चलो अब इत्मिनान है।’
आसन
लगा सो लग ही गया। आँखें खुलना नहीं चाह रही थी। एकाग्रता की ऐसी अद्भुत अनुभूति
आज से पहले कभी लब्ध नहीं हुयी थी,जब कि प्रयास हमेशा कुछ न कुछ अवश्य किया करता
था। स्थान का भी ऐसा प्रभाव होता है- सोच भी न सका था। गायत्री भी ध्यानस्थ थी।
काफी
देर बाद घंटे की जोरदार टनटनाहट से एकाग्रता भंग हुयी । बिलकुल समीप से सट कर किसी
भक्त ने मन्दिर का घंटा हिलाया था,और मुझे लगा, भीतर का तार-तार मानों झंकृत हो
उठा हो। घंटे की आवाज बड़ी तेज थी। बोझिल पलकें खुलने को विवश हो गयी । आँखें खुली
तो किसी स्वप्नलोक में तैरने लगा । जागृत और स्वप्न के बीच की दूरी स्पष्ट न हो पा
रही थी। अरे ये क्या
!
आत्मविश्वास
को बलवान करने के लिए आँखें मल कर देखा— बगल में बाबा खड़े हैं,और जोरजोर से घंटा
अभी भी हिलाये जा रहे हैं । मेरे मुंह से कोई आवाज निकल न पा रही थी । गायत्री ने
झकझोरा,तब कहीं तन्द्रा टूटी- ‘ क्यों क्या बात है,किसे ढूढ़ रहे हो ? क्या देख
रहे हो इतने सशंकित भाव से ?’
मैंने
गायत्री की ओर देखा,प्रश्नात्मक दृष्टि से। वह मुझे अभी भी पकड़े हुए, कंधे हिला
रही थी। गर्भगृह पूर्णतः रिक्त था। उपस्थिति थी,तो वस मेरी और गायत्री की। दिव्यरश्मि
के आलोक में अर्घ्यासीन शिवलिंग,था तो बिलकुल काला, किन्तु ज्योतित,प्रफ्फुलित सा।
सिर झुका,दोनों हाथ को पीछे बांध,अर्द्धदण्डवत प्रणाम किया,और गायत्री का हाथ
थामे, गर्भगृह से बाहर आगया।
लम्बे
इन्तजार से थका सा टैक्सी-ड्राईवर वहीं लाइटपोस्ट के पास चबूतरे पर बैठा,ऊँघ रहा
था। आहट पा उठ खड़ा हुआ- ‘ तब सा’ब ! चला जाय न ?
साढ़ेछः बजने को हैं।’
लगभग
पौने नौ बजे हमलोग विन्ध्याचल पहुँच गये, तारामन्दिर के पास।
सत्तर किलोमीटर का पूरा सफर मौन-मौन ही व्यतीत हुआ। लगता था कि पति-पत्नी में कुछ
अनबन हो गयी हो,या कि शब्द-पेटिका में डाका पड़ गया हो। किसी के पास कुछ था ही
नहीं शायद कुछ कहने-सुनने को। या कि इतना था कि कहां से शुरु की जाय बात—सोचने में
ही दो घंटे गुजर गये,और गन्तव्य आगया।
टैक्सी फर्लांग भर पहले ही छोड़ देनी पड़ी । आसपास
रौशनी की निहायत कमी थी। घरों खिड़कियों से छन कर आने वाली किरणें ही गली में
सहायक थी। रास्ते की सही जानकारी न होने के कारण आगे बढ़ते हुए सीधे गंगा की धार
तक पहुँच गए। बायीं ओर चिताभूमि थी, स्वर्गारोहण का सुगन्ध चारों ओर व्याप्त था। एक
मुसाफिर से पूछना पड़ा- मन्दिर तक जाने का रास्ता।
पीछे
मुड़कर दस कदम के बाद दायीं ओर पतली सी गली थी,जंगली कलमी-लता से घिरा हुआ,जिससे
टकराये वगैर आगे बढ़ना असम्भव । गायत्री अपने वैग से टॉर्च निकाली,तब कहीं रास्ता
साफ दीखा । आगे दस-पन्द्रह कदम जाने के बाद ही तेज रौशनी मिली-एक लाइट पोस्ट की,जो
तारा-मन्दिर के छोटे से प्रवेशद्वार पर लगी थी। निःशंक भीतर प्रवेश किया,मानों
बिलकुल जानी-पहचानी जगह हो । तगड़-मेंहदी की टट्टी और कुछ जंगली झाड़ियों के घेराबन्दी
में करीब दो-तीन बीघे क्षेत्र के ठीक बीचोबीच साधारण सा मन्दिर बना हुआ था। बिजली
की रौशनी थी तो चारो ओर,किन्तु एकदम मद्धिम-सी। सामने ही, क्षेत्र के पूर्वी भाग
में विशाल काय वरगद के नीचे चौकीनुमा आठ-दस शिलाखंड पड़े थे,थोड़ी-थोड़ी दूरी पर। उन्हीं
में एक पर आसन जमाये,बाबा बिराज रहे थे, पास की दूसरी शिला पर एक वयोवृद्ध भी,जिनके
रोयें-रोयें धवल थे। आपस में कुछ गहन बातें चल रही थी,फलतः हमलोगों के आगमन की भनक
जरा देर से मिली,जब बिलकुल समीप आगये।
अपना सामान नीचे रखकर,आगे बढ़,बाबाओं
का चरण-स्पर्श किया। बुजुर्गबाबा के चरण छूने के बाद,गायत्री जब इनकी ओर बढ़ी,तो
लपक कर बाबा ने हाथ थाम लिया- ‘ हैं,ये क्या कर रही है गायत्री !’-फिर उन बाबा को सम्बोधित करते हुए बोले- ‘ ये मेरी मुंहबोली बहन गायत्री
है,और साथ में इसके पति। इन्हीं लोगों के आने की प्रतीक्षा थी।’
बूढ़े बाबा ने आवाज लगायी । थोड़ी देर
में एक सेवक उपस्थित हुआ,जिसे निर्देश दिया उन्होंने कि दक्षिणी हाते में पूरब तरफ वाली कोठरी खोल
दो इनलोगों के लिए।
‘ तुमलोग पहले मुंह-हाथ धोकर,इत्मिनान
हो लो,फिर साथ में ही भोजन किया जायेगा। माँतारा की कृपा से यहाँ किसी तरह की कोई
दिक्कत नहीं है।’-बाबा ने वहां की व्यवस्था की जानकारी दी।
माँ तारामन्दिर बाहर से देखने में भले
ही उपेक्षित और साधारण लग रहा हो, किन्तु आन्तरिक साज-सज्जा और व्यवस्था
सुरुचिपूर्ण लगी। अहाते में दक्षिण की ओर, पूरब से पश्चिम कतारबद्ध छोटे-छोटे आठ-दस
कमरे बने हुए थे- काफी साफ-सुथरे,और व्यवस्थित भी। कमरों के आगे गोल-गोल खंभों पर
टिका छः फुटी बरामदा, जिसके प्रत्येक पाये के पास कोई न कोई फूल के पौधे लगे हुए
थे। कुछ हट कर चौड़ी क्यारियाँ भी बनी थी। वहाँ भी तरह-तरह के फूल लगे हुए थे। पश्चिम
की ओर झाड़ीदार घेरेबन्दी के भीतर आम,अमरुद,अनार,केला,नीम्बू,आदि उपयोगी फलों के
पौधे लगे थे। अहाते के ईशान कोण में एक बड़ा- सा ऊंची जगत वाला कुंआ था,जिससे पानी
निकालने के लिए लोहे की जंजीर और घड़ारी,पत्थर के खंभों पर टिकी थी। उत्तर के शेष
भाग में कुछ बड़ी-बड़ी क्यारियाँ थी। मद्धिम प्रकाश में भी प्रतीत हुआ कि उनमें
साग-सब्जियाँ लगी हुई हैं। पूरे अहाते में विजली के आठ-दस खंभे थे,जिन पर बल्ब
टिमटिमा रहे थे। पूर्वाभिमुख, मात्र दस-बारह हाथ का मन्दिर,परिक्रमा-पथ और छोटे से
सभामंडप से जरा हटकर,यज्ञस्थल भी बना हुआ था। उसके बाद,अग्नि कोण पर खपरैल की
छावनी वाला बड़ा सा कमरा और बरामदा भी नजर आया,जिसमें जरुरत पड़े तो सौ-दो सौ
लोगों का आसानी से गुजारा हो जाय। सेवक ने बतलाया कि वही मन्दिर का रसोई घर और
भोजनालय है। उधर पश्चिम में थोड़ा हटकर,दो शौचालय भी बना हुआ है,जहाँ तक जाने के
लिए ईंट का खड़ौंझा लगाया हुआ है। हालाँकि ज्यादातर लोग अगल-बगल की झाड़ियों का ही
प्रयोग करते हैं। आमतौर पर यहां आगन्तुकों का आना-जाना न के बराबर ही है। बंगाली
बाबा के कुछ खास शिष्य ही कभी-कभी आया करते हैं।
मेरे पूछने पर कि क्या बाबा बंगाली
हैं,उम्रदराज सेवक ने जानकारी दी- ‘ इस आश्रम के असली संस्थापक इनके गुरु महाराज
थे,जो करीब बीस साल पहले समाधि ले चुके हैं।’- मन्दिर से दक्षिण-पश्चिम की ओर हाथ
का इशारा करते हुए उसने कहा- ‘ उधर जावाकुसुम की जो झाड़ी नजर आ रही है,वहीं उनकी
समाधि है। जीवन काल में वे वहीं एक शिलाखण्ड पर व्याघ्रचर्म का आसन लगाये विराजते
रहते थे। जाड़ा-गर्मी-बरसात,कुछ भी हो,उनका स्थान वहीं रहता था—ऊपर से साधारण सी
छावनी,चार बांसों के सहारे टिकी हुई,चारों ओर से बिलकुल खुला हुआ। देर रात वहाँ से
उठकर नीचे गंगा किनारे श्मशान में चले जाते,और मुँह अन्धेरे ही,सूर्योदय से
पहले,उधर से वापस आकर यहीं विराज जाते। सुनते हैं कि वे पंचमुंडी साधना और शवसाधना
के सिद्धहस्त थे। करीब सवा सौ साल की अवस्था में, अब से बीस साल पहले उन्होंने
समाधि ली। उनके मूल स्थान के बारे में किसी को अता पता नहीं है। पता बस इतना ही है
कि किशोरावस्था में ही वाराणसी के किसी कापालिक से दीक्षित हो गये थे। जन्म स्थान
पश्चिमबंगाल का बांकुड़ा जिला है, गांव पता नहीं। समाधि लेने के महीने भर पहले बांकुड़ा
से ही अपने शिष्य को बुलाकर यहां का कार्यभार सौंपे। वर्तमान में ये वही बाबा हैं-
उनके शिष्य। इनकी अवस्था भी नब्बे के करीब हो ही गयी है। मैं भी इनके साथ ही आया
था,इनकी सेवा के लिए। तब से यहीं हूँ।’- फिर जरा रुक कर सेवक ने कहा- ‘ अरे, मैं
भी अजीब हूँ,मन्दिर का इतिहास-भूगोल पढ़ाने लगा आपलोगों को। आपलोग थके हुए होंगे।
मुँह-हाथ धोकर जरा इत्मिनान हो लें। मेरा नाम बाजू गोस्वामी है। कोई काम हो तो बुलालेंगे।
वस आपके बगल वाले कमरे में ही रहता हूँ। आपके दाहिने वाले कमरे में बंगालीबाबा
रहते हैं,परन्तु उनका कोई ठिकाना नहीं रहता,कब कमरे में रहेंगे,कब कहीं फुर्र हो
जायेंगे- आजतक मुझे पता नहीं चला,तो आप क्या जान पायेंगे।’
कमरा खोल कर बाजू गोस्वामी चले गये। कमरे
में प्रवेश करती हुई गायत्री ने कहा- ‘ बड़ा ही बातूनी और दिलचश्प आदमी लगता है।
बिना पूछे ही सबकुछ बतला गया।’
कमरे
में रौशनी अच्छी थी। मोटा- सा गद्दा प्रवेश की ओर से दो-तीन फुट छोड़ कर पूरे कमरे
में बिछाया हुआ था। आले पर एक छोटी बाल्टी के साथ लोटा और गिलास भी रखा हुआ था,साथ
ही मोड-चमोड़ कर दो कम्बल और चादर भी। कमरा बड़ा ही हवादार था,क्यों कि दोनों ओर
से खिड़कियाँ थी। पीछे वाली खिड़की से झाँक कर देखा- थोड़ा तिरछा देखने पर गंगा की
लहरों पर कृष्ण पंचमी का चाँद अठखेलियाँ करता नजर आया। दृश्य बड़ा ही मनोरम लगा।
दिन भर का थका न होता,तो गंगा की मृदुल रेती का आनन्द लेने अवश्य निकल पड़ता। अभी
उधर झाँक ही रहा था कि बाजू की आवाज पुनः सुनाई पडी। पीछे मुड़ा तो एक दोना लिए
कमरे के द्वार पर खड़ा पाया- ‘ दादा ! ये रहा तारामाँ का
प्रोऽसाद। इसे खाकर जऽलखाओ। थोड़ा आराम कोरें,तोब तक गिरधारी भोजोन का बोलावा लेकर
आ जावेगा। ’
दोने
में आठ बड़े-बड़े पेड़े थे,साथ ही कुछ चिरौंजी के दाने भी। ‘इतना कष्ट करने का
क्या काम था दादा ?’- उसके हाथ से प्रसाद वाला दोना लेती हुई गायत्री ने कहा।
‘कष्टऽ
बोलता इसको? ये तो मेरा कोरतब हैऽ।’- कहते हुए आले पर से बाल्टी उठाकर बाहर निकल
गया।
थोड़ी
देर में उधर से आकर पानी रख गया,और पिछली बात का टेप बजा गया- ‘ इसे खाकर जऽलखाओ।
थोड़ा आराम कोरें,तोब तक गिरधारी भोजोन का बोलावा लेकर आ जावेगा। कोई बात हो तो
आवाज देना ना भूलना। मेरा नाम बाजू गोस्वामी होऽ।’
‘हां,हां
ठीक है दादू
! तब तक आप भी आराम करें।’
बाजू
चला गया। बाल्टी के पानी से हमलोगों ने हाथ-पैर धोये,तारामाँ का प्रसाद ग्रहण करके,जलपान
किये। आराम क्या करना था,बाहर निकल कर बरामदे में ही टहलने लगे। अचानक गायत्री ने
सवाल किया - ‘ उस समय मनकामेश्वर मन्दिर में ध्यान के समय तुम इतनी बेचैनी से क्या
ढूंढ़ रहे थे? ’
गायत्री
के सवाल के बदले मैंने भी सवाल कर दिया- ‘ ज्यादा चतुराई न दिखाओ। पहले तुम बताओ
तुमने क्या अनुभव किया? कैसा लगा मनकामेश्वर का स्थान ? मुझे तो लगता है कि तुम
इतना ध्यानस्थ हुई कि सत्तर किलोमीटर के सफर में एक शब्द भी न निकला मुंह से।’
‘
हां,सच में शब्दहीन होगयी थी,शब्द-निरुद्ध कहना ज्यादा सटीक होगा। अनुभूति कोई
विशेष नहीं,पर गहन अवश्य कह सकती हूँ। भारद्वाज आश्रम वाला दृश्य ही जरा और साफ
होकर सामने आया । कड़ियों के बीच की कड़ियाँ और स्पष्ट हुई। दृश्य को दृश्य नहीं
प्रत्यक्ष दर्शन कहना अधिक उपयुक्त होगा । इस विषय पर भैया से जमकर बातें
कहने-पूछने की हैं। भोजन के बाद अगर मौका मिला तो आज की वार्ता का विषय यही रखूँगी।
अब कहो,तुमने क्या अनुभव किया?’
‘
मेरी अनुभूति भी कुछ-कुछ तुम्हारी जैसी ही थी- पुराने दृश्य का परिमार्जन कह सकता
हूँ। किन्तु सबसे आश्चर्यजनक रहा –घंटे की आवाज से आन्तरिक झंकृति,और बाबा का
प्रत्यक्ष दर्शन । सुनते हैं कि कायव्यूहसाधक की ऐसी स्थिति होती है । चाहने पर वो
स्वयं को कई स्थानों पर एकत्र प्रदर्शित कर सकता है। मुझे तो लगता है बाबा इस कला
में सिद्धहस्त हैं ।’
‘
तो इसमें संदेह ही क्या है? उपेन्दर भैया कोई साधारण मनुष्य नहीं लग
रहे हैं, जैसा
कि इन थोड़े ही दिनों में हमलोगों ने देखा-अनुभव किया।’
‘
ये बड़ा ही अच्छा हुआ कि हमलोगों को बाबा को साथ रखने का सौभाग्य मिल गया,और
तुम्हारी विनती उन्होंने स्वीकार कर ली।’
‘
स्वीकारते क्यों नहीं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि मैं कितनी जिद्दी हूँ । मेरे
जिद्द से उन्हें कई बार वास्ता पड़ चुका है बचपन में ही । अब मौका देखकर उनके जीवन
की रहस्यमय कथा कुछ सुनूँ-जानूँ,इसी की तलाश है।’
‘
अब मौके की क्या बात है,मौका ही मौका है। मेरा सारा दिन तो दफ्तर में या कि दफ्तरी
काम से इधर-उधर बीतता है,और बीतेगा भी। मेरे पास तो देर रात वाला समय ही है,और ये
भी उचित नहीं कि रोज रात को एक बजे के बाद बैठकी लगायी जाए।’
बातें हो
ही रही थी कि एक युवक आता हुआ दिखायी पड़ा। समीप आकर,हाथ जोड़, अभिवादन किया- ‘ जी मैं गिरिधारी...आश्रम का रसोईया।
दोनों बाबा आपलोगों की प्रतीक्षा कर रहे हैं,भोजनालय में।’
गिरधारी
के साथ हमलोग भोजनकक्ष में उपस्थित हुए। पूर्वाभिमुख बैठने के लिए आठ-दस पट्टे
बिछे हुए थे जमीन पर,जिनमें दो पट्टों पर दोनों बाबा बिराज रहे थे। प्रत्येक पट्टे
के सामने की जमीन थोड़ी ऊँची- दो-ढ़ाई ईंच बनायी हुई थी। बगल में जलपात्र और गिलास
भी रखा हुआ था। बाबा के इशारे पर हमदोनों भी उनके बगल वाले पट्टे पर बैठ गये।
थोड़ी देर में चार आदमी और प्रवेश किये कक्ष में और उसी भाँति अपना आसन ग्रहण
किये,जिनमें एक तो बाजू गोस्वामी थे,बाकी अनजान। उनलोगों ने भी हमदोनों का अभिवादन किया
हाथ जोड़कर। बाजू ने ही बताया- ‘ ये तीन जोन भी इधर में ही रहता...आश्रम और बारी
का काम-धाम देखने वास्ते।’
सबके
सामने पत्तल और दोना लगाया गया।भोजन परोसने में गोस्वामी भी मदद करने लगा गिरधारी
को। कुल नौ पत्तल लगाये गये थे। सब पर यथेष्ठ मात्रा में भोजन परोस कर,अन्त में
बाजू और गिरधारी भी साथ में ही बैठ गये। हाथ में जल लेकर दोनों बाबाओं ने भोजन
पात्र का दक्षिणावर्त घेरा लगाया,और प्रार्थना किये- ऊँ अस्माकं नित्य मस्त्वेतत्।
पुनः ऋतं त्वा सत्येन परिषिञ्चामि- कहते हुए जल प्रोक्षण किये। इसके बाद पात्र
से थोड़ा हटकर दाहिनी ओर जमीन पर थोड़ा जल गिराकर, थोड़ा-थोड़ा अन्नादि ग्रास तीन
जगहों पर रखे- ऊँ भूपतये स्वाहा,ऊँ भुवनपतये स्वाहा,ऊँ भूतानां पतये स्वाहा।
तत्पश्चात् पुनः जल लेकर आचमन किये- ऊँ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा। फिर भोजन
मन्त्रोच्चार प्रारम्भ किये- ऊँ अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः। प्र प्रदातारं
तारिषं ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चुतुष्पदे।। (यजुर्वेद११−८३) इसके बाद बहुत
छोटे-छोटे पांच ग्रास क्रमशः ले-लेकर ऊँ प्राणाय स्वाहा,ऊँ अपानाय स्वाहा,ऊँ व्यानाय
स्वाहा, ऊँ उदानाय स्वाहा ऊँ समानाय स्वाहा मन्त्रों के उच्चारण सहित ग्रहण
किये।
तत्पश्चात्
ही वृद्धबाबा के संकेत पर सबने भोजन प्रारम्भ किया- मौन भोजन...परिवेष्ठन रहित
भोजन,असामूहिक तुल्य सामूहिक भोजन....।
अतिशय
सुस्वादु भोजन करके चित्त प्रसन्न हो गया। मन गदगद हो गया। अबतक के जीवन में
हजारों बार भोजन का अवसर आया था- घर से बाहर तक, होटल से लेकर आश्रमों और मन्दिरों
तक; किन्तु आज के इस आश्रम-भोजन में जो आनन्द और परितृप्ति मिली इसे अद्वितीय कहने
में जरा भी हिचक नहीं। कोई अनुकूल शब्द नहीं मिल रहा है, जिससे व्याख्या करुँ इस भोजन
व्यवस्था की। दुबारा परोसन लेने की भी बात नहीं,एक बार में जो मिल गया यथेष्ठ ... मनोनुकूल...सन्तोषप्रद।
शास्त्रों में कहीं-कहीं सामूहिक भोजन का निषेध भी किया गया है- कुछ खास अर्थों
में,कुछ खास कारण से। कहते हैं- भोजन-शयन,सम्भाषण आदि लोकव्यवहार हम जिनके साथ
करते हैं,उनके दो-प्रतिशत गुण-दोषों का हकदार हम भी बन जाते हैं। यानी सामूहिक भोजनादि
से गुण-दोषों का सद्यः आदान-प्रदान होता है। समस्या ये है कि सहभोजी के
व्यक्तित्त्व और कृतित्व पर समाज में रहते हुए कितना विचार कर पायेगा कोई गृहस्थ?
करना चाहिए या नहीं- यह भी विचारणीय है। सामाजिक नियम बहुत ही सोच-समझ से बनाये
गये होते हैं। इनमें शास्त्र-सम्मति के साथ लोकरीति-परिवेशरीति भी समायी होती है।
ध्यान देने की बात है कि लौकिक-सामाजिक-कृत्य—शादी-विवाह,श्राद्ध,भोज, यज्ञादि जनित
उत्सव-आयोजन में सामूहिक भोजन की व्यवस्था का विधान है, परिपाटी है। इन सबके अपने
खास महत्त्व हैं। कितना सुव्यवस्थित नियम बनाया है हमारे मनीषियों ने शास्त्र–रचना
करके- जागने,सोने, खाने,पीने,जीने,मरने...सबके नियम निर्धारित किये गये हैं।
किन्तु हम इनके बनाये नियमों में समयानुसार अपने अ-विवेक और स्वार्थ का छौंका लगा
दिये हैं,जिसके कारण सारा ज़ायका गडमड हो गया है। आज सामूहिक भोजन की रुपरेखा
बिलकुल पाश्चात्य हो गयी है- सामूहिक भोजन का सीधा अर्थ हो गया है- बिलकुल जूठा
खाना। एक अज्ञात कवि की उक्तियाँ याद आरही हैं- वानरा इव कुर्वन्ति सर्वे वफे डीनरः...आजकल
लोग सामूहिक भोजन करते हैं- ‘ वफेडिनर ’ वन्दरों की भांति उछल-उछलकर- न यहाँ धर्म
है और न विज्ञान। इन दोनों में किसी एक का भी पूर्णतया आश्रयी हो जाते, तो कल्याण
हो जाता। आधुनिकों को कम्प्यूटर केबिन में जूता उतार कर जाने की बात समझ आती
है,किन्तु रसोईघर में भी यह लागू होना चाहिए- इसे समझने में कठिनाई होती है।
भोजन
के बाद सबने अपना-अपना पत्तल उठाकर बाहर पड़े कूड़ेदान में डाला। गिरधारी और दो
अन्य सेवकों ने मिलकर कक्ष और पाकपात्रों की सफाई की। गोस्वामी बाबा से आदेश लेकर
अपने कक्ष की ओर चला गया। दोनों बाबाओं के साथ हमदोनों वहीं बाहर वरगद के नीचे
शिलाखंड पर बैठ गये।
बाबा
ने पूछा- ‘ तब कहो,कैसी रही तुमलोगों की यात्रा? और आगे का क्या कार्यक्रम है?’
‘
आपके आशीर्वाद से यात्रा बहुत ही अच्छी रही। कई नयी जिज्ञासाएँ और प्रश्नों का
कौतूहल मथित किये हुए है। मौका मिले तो इन पर आपसे चर्चा करुँ। रही बात आगे प्रोग्राम की,तो वो सब आपके आदेशानुसार ही
सम्पन्न होगा। गायत्री का मन्नत था- यहाँ तक आकर,विन्ध्यवासिनी-दर्शन करने का,सो
तो कल गंगा स्नान के बाद कर लिया जायेगा,फिर आगे आपकी इच्छा और आदेश...।’
‘
तुम्हारी छुट्टी कब तक है? यानी लौटना कब तय है? ’
‘
नियमतः मैं दो दिनों के ऑफिसीयल टूर पर हूँ। दो दिन अपनी छुट्टी से भी ले लिया हूँ,जिसका
उपयोग यहाँ रहकर किया जा सकता है,या फिर
जैसा आप कहें।’
‘
ईश्वर की कृपा से जो होता है,अच्छा ही होता है। तुम्हारी बहुत सी जिज्ञासाओं का
समाधान यहाँ मिल जायेगा। ये अच्छा संयोग रहा कि इसी बीच मुझे बाबा का बुलावा आ गया।’-
बाबा ने वृद्धबाबा की ओर संकेत करते हुए कहा- ‘ और तुम्हें इलाहाबाद का टूर मिल
गया। नवमी की रात तक मुझे भी यहां रहना है,आज पंचमी हो ही गया। ’
‘
मतलब कि हमलोग साथ वापस नहीं चल सकेंगे? ’
‘
साथ की क्या बात करते हो,न साथ आये हैं,और न जाना हो सकता है।’-
बाबा का
कथन द्वयर्थक था, जिसे वृद्धबाबा ने स्पष्ट कर ही दिया- ‘ इस संसार में सच पूछो तो
कोई किसी का साथी नहीं है। हुआ भी नहीं जा सकता। सबकी यात्रा अकेले की है। भले ही
गन्तव्य एक हो सबका। जिसे तुम साथी समझने की भूल कर बैठते हो,वह भी असली साथी नहीं
है। कौन कब किस दिशा में अपनी यात्रा प्रारम्भ करेगा,कहना मुश्किल है। सब
अपने-अपने कर्म और संस्कारों की डोर से बन्धे हैं।’
मैंने
हाथ जोड़ कर वृद्धबाबा से निवेदन किया- ‘ महाराज ! ये संस्कार है
क्या चीज, और कैसे बनता-बिगड़ता है,तथा बाँधता कैसे है हमें? ’
वृद्धबाबा
ने कहा- ‘ संस्कार हमारा परिधान है। इसे वास्तविक पहचान भी कह सकते हो। मनुष्य के
मनुष्यता की व्यापकता उसके संस्कार में आवृत्त है । संस्कार समग्र जीवन-दर्शन है ।यह
न जातिबोध है,न धर्म-तत्त्व,न देश-काल का विखंडन । संस्कार लिंग-विच्छेद से परे संज्ञाहीन
शिखर पुरुष है । संस्कार घोर अन्धकार में दिव्य प्रकाश की अनश्वर दीपशिखा है । यही
हमारी जीवनी-शक्ति है। इसे समझने के लिए सच्ची भक्ति की शक्ति चाहिए । उस भक्ति की
जो सदा सर्वदा निर्बन्ध है,जिसे कतई अवरुद्ध और आवद्ध नहीं किया जा सकता । भक्ति
अद्वैत है, परे है यह वेदान्त से भी । भक्ति ही आत्मा के स्वरुप का संधान है ।
भक्ति का सम्पूर्ण समर्पण शोषक यन्त्र, जिसे तुमलोग आजकल ‘वैक्यूमक्लीनर’ कहते हो,की तरह सब कुछ सोख लेता है अपने आप
में,फिर कुछ शेष नहीं रह जाता। न कोई प्रश्न,न कोई उत्तर। भक्ति- मैं को ढहा देती
है,विसर्जित कर देती है । और जब मैं ही न रहा,फिर क्या ! यह संस्कार न एक दिन में बनने की चीज है,और न हठात् बिगड़ जाने वाली। संस्कार
को बनाने और बिगाड़ने वाले ‘दायरे’ सदियों से, परम्पराओं से, जातियों से,जातिगत
धर्माचारों से और नियन्ता-सृष्टि के प्रवेश में आते ही आवृत करनेवाले अवयवों से
संचालित होते हैं। ये संस्कार ही काम,क्रोध,लोभ,मोहादि को जन्म देते हैं; और ठीक इसके
विपरीत यह संस्कार ही मुक्ति का अभयद्वार भी है,जो रोग,शोक,मोह,माया,ममतादि से परे
है। एक बात और जान लो कि असत्य ही संस्कार का परम द्रोही है,परम शत्रु है। और सत्य
? सत्य तो सिर्फ और सिर्फ एक है- पुष्प के भीतर छिपे पराग की तरह । और इसे पाना
होगा- नहीं,पाये हुए हो । वस समझ जाने भर की बात है। सुगन्ध मिल रही है तुम्हारे
नथुनों को,किन्तु इसे कहीं और ढूढने में परेशान हो । यह किसी मन्दिर,मस्जिद,गुरुद्वारे,या
कि गिरजाघरों में नहीं मिलता। यह तुम्हारे ही भीतर छिपा बैठा है- कस्तूरी कुण्डली
बसै, मृग ढूँढै वन माही। ऐसे घटि-घटि राम बसै दुनिया देखै नाहीं।। भूले तुम हो, और ढूँढ रहे हो भगवान को । बेटा खो
जाये,और टोला-महल्ला बाप को ढूँढ़ने निकल पड़े- ऐसा भी कहीं होता है क्या ? हमारी
आँखों पर मोतियाविन्द का पर्दा पड़ा है, चिकित्सक के पास जाना होगा,जो अपनी शल्य-क्रिया
से उसे हटा दे । आँखों की दृष्टि को कुछ खास हुआ नहीं है ।’
वृद्धबाबा
की बातें ज्ञानाञ्जनशलाका की तरह प्रभावित कर गयी । मोतियाविन्द का ऑपरेशन मानों
हो गया- प्रकाश की किरणें फूट पड़ी। लपक कर उनके श्रीचरणों में नत हो गया। उनके
मृदुल कर-स्पर्श से स्नात हो गया वाह्याभ्यन्तर।
गायत्री
को सम्बोधित करते हुए बाबा ने कहा- ‘ अब तुमलोग जाओ,आराम करो। कल सुबह गंगा स्नान
के बाद मिलना। मैं भी चलूंगा,साथ में मां विन्ध्यवासिनी के दरवार में।’
इच्छा
न रहते हुए भी उठ ही जाना पड़ा। केवल बाबा रहते तो उनके साथ थोड़ा हठ भी कर
लेता,किन्तु वृद्धमहाराज के सामने यह अभद्रता होगी– सोचकर,उठ खड़ा हुआ। हमलोगों के
उठते ही,वे दोनों भी उठ खड़े हुए। हमलोग अपने निर्धारित कमरे की ओर बढे,किन्तु वे
दोनों अहाते से बाहर निकलकर गंगा की ओर प्रस्थान किये। गायत्री ने धीरे से कहा- ‘ बाजू
कह रहा था न...लगता है वे दोनों श्मशान की ओर ही जा रहे हैं।’
सूर्योदय से काफी पहले ही नींद स्वतः
खुल गयी। मुंह अन्धेरे ही स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर माँ तारा का
दर्शन किया । कल बाहर से ही प्रणाम भर कर लिया था। आज भीतर गर्भगृह में प्रवेश
किया। जमीन से कोई हाथ भर ऊँचे चबूतरे पर काले पत्थर की बनी आदमकद, शिवारुढा माँ
की मूर्ति बड़ी ही आकर्षक थी। कोई खास ज्ञान-अनुभव तो नहीं है,फिर भी न जाने क्यों
स्थान बहुत ही जागृत प्रतीत हुआ। ज्योतित आँखें लग रही थी- मुझे ही निहार रही हों।
क्षण भर के लिए,अज्ञात भय से रोंगटे खड़े हो गये । हवन कुंड में सद्यः प्रज्वलित
अगर, गुगुल की मदिर सुगन्ध से भीतर का वातावरण आप्लावित था। साष्टांग दण्डवत करने
के बाद बैठ गया वहीं। पास ही गायत्री भी थी। चित्त की एकाग्रता का प्रयास करने
लगा। थोड़ी ही देर में लगा कि किसी ने कान में धीरे से कहा - ‘ व्यर्थ भटकना
छोड़ो, ‘क्रीँ’ के प्रति समर्पित हो जाओ , यहीं से ‘क्लीँ’ का द्वार खुलेगा।’
आवाज
बहुत ही धीमी थी,फिर भी थी बिलकुल स्पष्ट । स्वर पुरुष का था या नारी का- कह नहीं
सकता। लगा दूर कहीं घाटियों से टकराकर आवाज कानों तक आयी हो। आँखें खुल गयी। कहीं
कुछ दिखा नहीं- कोई स्रोत नहीं । गायत्री अभी आँखें मून्दे बैठी ही थी। मैं उसका
इन्तजार करने लगा,और सोचने लगा- कि क्या इशारा है। क्लीं से तो बाबा ने परिचय करा
दिया था,ये क्रीं क्या है,और ये संकेत देने वाला/वाली कौन है?
‘
किस उधेड़बुन में जकड़े हो- वाला/वाली के ? इतना समझाने के बाद भी
वाला/वाली के जंजाल से निकलने का मन नहीं कर रहा है? ’-
अचानक वृद्धबाबा की आवाज कानों में पड़ी- ‘ जो आदेश हुआ है,उसका पालन करो। संशयात्मा
विनश्यति....।’
आँखें
तो पहले ही खुल चुकी थी,उस सूक्ष्म ध्वनि से। इस नये आवाज पर पीछे मुड़कर देखा-
आसपास कहीं कोई नहीं,किन्तु आवाज तो स्पष्ट रुप से मैंने सुनी, पहचान में भी संशय
नहीं- वृद्धबाबा की ही आवाज थी,किन्तु....।
गायत्री
का ध्यान पूरा हो चुका था। मुझे पीछे झांकते हुए देखकर उसने पूछा- ‘ क्या बात
है,ध्यान में मन नहीं लगा? ’
अभी
कुछ कहना ही चाहा था कि सभामंडप में खड़ा गोस्वामी नजर आया- ‘ कहां हो दीदी ! बाबालोग आपलोग को बुला रहे हैं।’
हमदोनों
मन्दिर से बाहर निकलकर गोस्वामी के साथ हो लिए। ईंट की बनी पगडंडी,अहाते में पीछे
की ओर चली गयी थी,जहाँ मौलश्री का एक बड़ा सा वृक्ष था, जिसके नीचे पन्द्रह-वीस
हांथ के घेरे के अन्दर एक छोटी सी खूबसूरत समाधि बनी हुयी थी। समाधि को चारों ओर
से विविध प्रजातियों के जवाकुसुम के पौधे घेरे हुए थे,जिनमें अधिक संख्या लाल
रंगों वाले बड़े आकार के फूलों की थी। ये फूल देवी को अतिशय प्रिय हैं। चारों
कोनों पर बाँस की चचरी बनाकर, अपराजिता-पुष्प की तीनों प्रजातियों- ब्रह्मक्रान्ता,विष्णुक्रान्ता,शिवक्रान्ता
को बड़े करीने से सजाया गया था। तन्त्रशास्त्र कहते हैं कि तन्त्र-साधकों के लिय जपा
और अपराजिता यानी कि क्रान्तात्रय- ये दोनों पुष्प अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। अपराजिता
को तन्त्र में योनिपुष्प कहा जाता है,क्यों कि इसकी आकृति योनि की आन्तरिक संरचना
जैसी ही होती है। अतः देवी को यह पुष्प अति प्रिय है। अपराजितात्रय योनि है,तो
कनेरपुष्प लिंग का प्रतीक है। योनि और लिंग ही तो सृष्टि का उपोद्घात है।
गोस्वामी ने बतलाया- ‘ वृद्धबाबा के गुरु महाकापालिक
बाबा की यही समाधि है। इसे रोज अपराजिता-पुष्प और जवा-कुसुम से सजाया जाता है,जैसा
कि आप देख रहे हैं-इतनी बड़ी समाधि पटी पड़ी है-इन्हीं फूलों से। इसे सजाने का काम
यहाँ के बाबा खुद अपने हाथों करते हैं। प्रातः गंगा-स्नान के बाद सीधे यहीं आ जाते
हैं, और देर,दोपहर तक उनका समय यहीं गुजरता है। दिन के भोजन के समय ही यहाँ से उधर
भोजनालय की ओर जाते हैं। अभी दोनों बाबालोग यहीं बैठे आपलोग का इन्तजार कर रहे
हैं।’
समाधि
के प्रवेशद्वार का स्पर्श करते हुए नमन किया,और परिसर में भीतर घुसा। संगमरमरी
चट्टान पर आमने-सामने दोनों बाबा बिराज रहे थे- भव्य गुरु-मूर्ति के श्रीचरणों
में। हम पर नजर पड़ते ही बोले- ‘ बड़ी देर लगा दी तुमलोगों ने तैयार होने में। हम
कब से प्रतीक्षा कर रहे हैं। विन्ध्यवासिनी का दर्शन करना है कि नहीं ?’
गुरुमूर्ति
को प्रणाम करने के पश्चात् दोनों बाबाओं का चरण-स्पर्श करते हुए मैंने कहा- ‘ चलना
क्यों नहीं है। इसी लिए तो आया हूं।’
‘
तो चलो,क्यों कि वैसे ही देर बहुत हो गयी है। विन्ध्यवासिनी दर्शन के बाद त्रिकोण
यात्रा भी तो करनी है। हालाँकि, लोग भोजन के बाद भी सुविधानुसार भ्रमण की तरह
त्रिकोण करते हैं,किन्तु उचित यही है कि इसे पूर्वाह्न में ही किया जाय,तत्पश्चात्
भोजन किया जाय।’
‘
तो ऐसा करते हैं भैया कि विन्ध्यवासिनी दर्शन के बाद कुछ फल वगैरह ले लिया जाय,फिर
इत्मिनान से त्रिकोण-यात्रा की जायेगी।’-बाबा की बात पर गायत्री ने कहा। मैंने भी
गायत्री की बातों का समर्थन किया।
समाधि-परिसर
से बाहर निकलते हुए,बाबा से पूछा- ‘ ये त्रिकोण-यात्रा का क्या मतलब है,और वस्तुतः
यह है क्या? क्या इसकी कोई खास विधि भी है,या कि यूँ ही तीनों स्थानों के एकत्र
दर्शन को त्रिकोण कहते हैं ? बहुत पहले मैं एक बार और आया था यहाँ। कुछ खास पता तो
था नहीं। लोगों को देखा,और मैं भी साथ हो लिया। भगवती विन्ध्यवासिनी के मन्दिर से
आगे सड़क पर निकलते ही तांगेवाले आवाज लगाते रहते हैं-त्रिकोणयात्रा के लिए।
यात्रियों की एक टोली में मैं
भी शामिल
हो गया था।’
जल्दवाजी
के लिए हमलोग सड़क की ओर न जाकर सीधे,गंगाकिनारे वाला खुश्की रास्ता ही पकड़े,
जिससे पन्द्रह-बीस मिनट में ही मन्दिर पहुँच गये।
रास्ते में बाबा ने बतलाया- ‘ विन्ध्यवासिनी के
बारे में जानने से पहले इस विन्ध्यगिरि को ही जानो-समझो। तुम्हें यह सुन कर
आश्चर्य होगा कि यह विन्ध्यगिरि पर्वतराज हिमालय का भी पितामह-प्रपितामह जैसा है। सृष्टि
के आरम्भ में एक ऐसी स्थिति थी कि जब आज का यह बूढ़ा पर्वत अपनी युवावस्था में था।
युवाओं का गौरव भी अहंकार का रुप ले बैठता है। विन्ध्य के साथ भी यही हुआ। उसे लगा
कि सभी ग्रह-नक्षत्र सुमेरुपर्वत की परिक्रमा क्यों करते हैं,क्या मैं उनके समान
नहीं हूँ ? प्रसंग है कि विन्ध्य इतनी तेजी से बढ़ने लगा कि सूर्य का परिक्रमा-पथ
वाधित होने लगा। त्रिलोक में हाहाकार मच गया। तब देवता लोग महर्षि अगस्त्य से
याचना किये- इस समस्या के निदान हेतु। महर्षि अपनी पत्नी लोपामुद्रा के साथ
विन्ध्य के पास गये । उस समय वह उन्हें प्रणाम करने हेतु चरणों में झुका। महर्षि
ने आशीष देते हुए कहा कि हे वत्स ! तुम तबतक इसी भांति
झुके रहो जबतक मैं वापस न आऊँ। विन्ध्य ने वैसा ही किया- आज भी वह गुरु की
प्रतीक्षा में ही नत है…। इसे ही भूगोल वाले कहते हैं कि
पहाड़ अन्दर दब रहा है।”
बाबा
की बात पर मुझे ध्यान आया- विज्ञान कहता है कि पृथ्वी पर सदा उलट-फेर होते रहता
है। आज जो ऊँचा है,कल नीचा हो जायेगा। आज जो खाई है, कल पर्वत हो जा सकता है,और
इसके विपरीत पर्वत खाई में बदल सकता है। पृथ्वी का सर्वाधिक गहरा प्रशान्त महासागर
वही खाई है,जहां से विखण्डित होकर एक पिण्ड निकला,जिसे हम चन्द्रमा के नाम से
जानते हैं। यानी इसे मानने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए कि किसी जमाने में
विन्ध्य ऊँचा रहा होगा हिमालय से भी।
बाबा
का कथन जारी था- “...इसी विन्ध्य को गौरवान्वित किया महामाया भगवती ने। श्री मार्कण्डेय
पुराणान्तर्गत श्रीदुर्गासप्तशति ग्यारहवें अध्याय (४१,४२) में महामाया के वचन
हैं- वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे । शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते
महासुरौ । नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा । ततस्तौ नाशयिष्यामि
विन्ध्याचलनिवासिनी ।। यहां महामाया कह रही हैं- ‘ वैवस्वत मनु के शासन काल में अठाइसवें
चतुर्युगी के द्वापर में नन्दगोप के घर में यशोदा के गर्भ से प्रकट होकर,मैं
विन्ध्यगिरि पर वास करुँगी।’ इसी क्रम में आगे, यानी सप्तशती के मूल पाठ के
पश्चात् जो मूर्तिरहस्य है, उसके प्रारम्भ में ही ऋषि कहते हैं- नन्दा भगवती
नाम या भविष्यति नन्दजा । स्तुता सा पूजिता भक्त्या वशीकुर्याज्जगत्त्रयम् ।।
अर्थात् नन्दा नाम की देवी,जो नन्दगृह में उत्पन्न(होंगी) हुयी हैं, उनकी
भक्तिपूर्वक आराधना करने से त्रिलोकी को वशीभूत करने की क्षमता साधक में आ जाती है।
इससे श्रेष्ठ वशीकरण का और कौन सा उपाय हो सकता है ! यहाँ एक
बात और ध्यान देने की है,कि देवी की अंगभूता छः देवियाँ हैं क्रमशः – नन्दा,रक्तदन्तिका,
शाकम्भरी, दुर्गा,भीमा,और भ्रामरी । ये देवी के साक्षात् विग्रह हैं। इनके स्वरुप
का प्रतिपादन होने के कारण ही इस प्रसंग को मूर्तिरहस्य के नाम से सम्बोधित किया
गया है। ऋषि ने लोककल्याण की भावना से सारा रहस्य उढेल कर रख दिया है यहां,और
रहस्य के अन्त में कहते हैं- सर्वरुपमयी देवी सर्वं देवीमयं जगत् । अतोऽहं
विश्वरुपां तां नमामि परमेश्वरीम् ।। इस रहस्य को ठीक से हृदयंगम करो, ये
जो सारा जगत-प्रपंच तुम देख रहे हो,वो और कुछ नहीं,एक और एक मात्र उस महामाया की
विभूति या कहो विकृति ही है।’
‘विकृति’
शब्द पर मुझे जरा आपत्ति हुयी,अतः टोकना चाहा; किन्तु तब तक गायत्री ने ही मेरा
काम कर दिया- ‘ ये क्या कह रहे हो भैया ? विकृति और विभूति
दोनों एक कैसे हो सकता है ?’
बाबा
मुस्कुराये- ‘ यही तो मुश्किल है,तुमलोगों के साथ- अंग्रेजी पैटर्न से पढ़ोगे तो
ऐसे बेहूदे सवाल तो उठेंगे ही। विकृति का अर्थ यहाँ खराबी नहीं, विस्तार समझो, तो
ज्यादा अच्छा होगा- प्रकृति और विकृति ये दो शब्द हैं। एक है मूल अवस्था और दूसरा
है उसका विस्तार। ये सारा दृश्यमान जगत प्रकृति की विकृति ही तो है। अभी-अभी मैंने
जो भगवति की छः विशेष विभूतियों का नाम लिया, उन्हीं में कुछ महत्त्वपूर्ण कही-मानी
जाने वाली विकृतियां हैं ये। और एक बात जान लो कि पूर्ण का अंश भी पूर्ण ही हुआ
करता है,सारी की सारी विभूतियां भी अपने आप में पूर्णत्त्व का ही बोधक है। इसमें
जरा भी संशय न करो। बस इसी रहस्य को तो समझना है। अब इसे ज्ञानमार्ग से समझो,भक्ति
मार्ग से समझो या कि कर्ममार्ग से।’
जरा
ठहर कर बाबा पुनः बोले- ‘ हां,तो कह रहा था- नन्दजा भगवती की बात, इनकी
आराधना-साधना से त्रिलोकी को वशीभूत कर सकते हो,और वशीभूत भी क्या करना है,बस
रहस्य को समझ भर लेना है,हो गया खेल खतम। अभी जहां हमलोग चल रहे हैं,वह एक अद्भुत
स्थान है। आज तुमलोगों को उन नन्दजा का दर्शन करा ही देता हूँ। यही वह
विन्ध्यवासिनी हैं,जो अपनी प्रतिज्ञानुसार प्रकट हुई हैं। किन्तु एक बात और जान लो- ये गंगा
किनारे वाली नहीं,और न उस खोहवाली अष्टभुजी रुपा महामाया ही असली बहन हैं
श्रीकृष्ण की। कुछ लोग इनको,तो कुछ लोग उनको नन्दजा भगवती या यशोदानन्दिनी माने
बैठे हैं,किन्तु असली तो फिर असली होता है- असली नन्दजा यहां से थोड़ी दूर पर
घनघोर जंगल में पहाड़ी पर स्थित हैं। पुराने लोग उन्हें नन्दजा कहते है,किन्तु
सामान्य जन वहां तक पहुँचते नहीं हैं। वर्तमान में भी वहां की स्थिति बड़ी खतरनाक
है,जंगली जानवर अभी भी वहाँ बहुत अधिक हैं। कालीखोह के पास पहुँच कर वहां के
पुराने निवासियों (जंगलीलोगों)से पूछने पर सही जानकारी हो सकती है,किन्तु वे भी
वहां जाने से मना करेंगे। नन्दजा के इस रहस्य को बहुत कम लोग ही जानते हैं। और
कलियुग में न जाने, तो ही अच्छा है। कलिकाल की ही कृपा है कि ज्यादातर लोग बस आते
हैं, गंगा स्नान करके,समीप के इस मन्दिर में दर्शन करके वापस चले जाते हैं। लोगों
को ये पता भी नहीं है कि यह समूचा विन्ध्यगिरि साधकों का गढ़ है। एक से बढ़कर एक रहस्यमय
स्थान यहां फैले हुए हैं पर्वत-श्रृंखला में,जिनमें प्रमुख हैं त्रिकोण स्थिति में
अवस्थित— विन्ध्यवासिनी,कालीखोह और अष्टभुजी। ये तीनों विन्ध्यगिरि के लगभग तीन
कोणों पर स्थित हैं। किसी एक से प्रारम्भ कर,बाकी दो का क्रम से दर्शन त्रिकोण-यात्रा
कहा जाता है। क्यों कि इस यात्रा-क्रम में त्रिकोण बनता है। इस पूरे त्रिकोण में
लगभग नौ मील का सफर तय करना पड़ता है। यह त्रिकोणयात्रा- ‘ त्रिलोकयात्रा ’ के
तुल्य फलदायी है। प्रायः लोग विन्ध्यवासिनी मुख्य मन्दिर से कालीखोह, और फिर उधर
से ही अष्टभुजी होते हुए पुनः विन्ध्यवासिनी पर आकर यात्रा समाप्त करते हैं। इस
प्रकार काली को मध्य में रखकर त्रिकोण रचित होता है। दूसरा तरीका ये भी हो सकता है
कि यात्रा काली से ही आरम्भ की जाय, और अष्टभुजी होते हुए विन्ध्यवासिनी, और फिर
अन्त में काली पर आकर यात्रा समाप्त की जाय। इसमें अष्टभुजी मध्य हो जायेंगी। और
तीसरा तरीका होगा अष्टभुजी से यात्रा प्रारम्भ करके,विन्ध्यवासिनी होते
हुए,काली,और पुनः अष्टभुजी पर यात्रा की समाप्ति। दुर्गासप्तशती के पाठ-क्रम से तो
लोग यही उचित कहेंगे कि काली से ही यात्रा प्रारम्भ हो। गंगा किनारे जो मुख्य
विन्ध्यवासिनी भगवती हैं, वे महालक्ष्मी के प्रतीक हैं, कालीखोह की काली तो
महाकाली है ही,और त्रिकोण के तीसरे विन्दु पर अवस्थित अष्टभुजी महासरस्वती के
प्रतीक में हैं। अब तुम यहां इस शंका में मत पड़ जाना कि अभी तो मैंने कहा यशोदा
वाली भगवती,और अभी कह रहा हूँ महा सरस्वती, और फिर ये भी कह रहा हूँ कि यशोदा वाली
भगवती तो कहीं और छिपी हैं- इन तीनों से भिन्न स्वरुप में। और यही सत्य भी है। अरे,
इन भेदों और अभेदों को ही तो हृदयंगम करना है। ठीक से समझना है। पहले इस त्रिकोण
को समझ लो,फिर उसके मध्य-विन्दु को भी समझने का प्रयास करना। विन्दु के वगैर
त्रिकोण टिकेगा कहाँ ? विन्दु का विस्तार ही तो त्रिकोण
है,और त्रिकोण का सिकुड़ाव ही विन्दु बनता है। या सीधे कहो कि बिन्दु का विस्तार
ही संसार है। ज्यामिति और त्रिकोणमिति
पढ़े हो कि नहीं ?”- बाबा ने मेरी ओर देखते हुए पूछा,और फिर
बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये, बोलने भी लगे- “ इसी त्रिकोण के बीच महात्रिपुरसुन्दरी का प्रतीक श्रीयन्त्र भी स्थापित
है। यह श्रीयन्त्र ही अखिल ब्रह्माण्ड की संरचना को उजागर करता है। श्रीयन्त्र की
महिमा और साधना अपने आप में अति गहन और गुह्यतम है। संसार की सर्वाधिक गुह्यतम
साधनाओं में है श्रीयन्त्र-साधना। त्रिकोण यात्रियों को इसका दर्शन भी अवश्य कर
लेना चाहिए। तन्त्र-साधना की विविध विधियों के हिसाब से ये बातें तय होती हैं कि
यात्रा कहां से प्रारम्भ की जाय। वस्तुतः ये बाहरी यात्रा भर ही नहीं है। आमजन तो इन
तीनों अलग-अलग स्थानों पर बने मन्दिरों की यात्रा करके ही सन्तुष्ट हो जाते हैं; किन्तु साधना के विचार से यह बाहरी त्रिकोण
किसी आन्तरिक त्रिकोण-यात्रा का संकेत है। इस एक त्रिकोण से ही आगे नौ त्रिकोण
बनते हैं- पांच उर्ध्व और चार अधो- यही तो हमारे शरीर की स्थिति है,और ऐसा ही
ब्रह्माण्ड की भी। इन नौ त्रिकोणों के सामरस्य को ही तो श्रीयन्त्र कहते हैं। हमारा
शरीर एक चलता-फिरता जागृत श्रीयन्त्र ही तो है- परमात्मा का बनाया हुआ,जिसे हम काम
और भोग का साधन भर माने बैठे हैं। ‘ कंचन और कामिनी ’ से आगे कुछ सोच-समझ भी नहीं
पाते। मजे की बात ये है कि आम आदमी सोचे भी तो कैसे! और ये जो देखने में आता है- कामिनी के प्रति
आकर्षण- ये भी कोई आश्चर्य की बात थोड़े जो है। अभी-अभी मैंने कहा कि बिन्दु और
त्रिकोण के अतिरिक्त है ही क्या। इसका ही
प्रतीक या कहो प्रतिनिधत्व करता है नारीभग,जिसके पीछे दीवाना है इन्सान। इस छायात्मक
त्रिकोण से बाहर निकलने पर ही असली त्रिकोण की बात हो सकती है। चन्द्र तो ऊपर आकाश
में है,और सरोवर के जल में उसकी परछाई पकड़े बैठे हैं हम,या कहो प्रतिलिपि को ही
मूल माने बैठे हैं हम। त्रिकोण और त्रिकोणों का महाजाल...यही तो विषय है तन्त्र
का- समझे कि बस, मुक्त हो गये। किन्तु बड़े-बड़े साधक भी इन विविध त्रिकोणों में
अटक-भटक कर रह जाते हैं। आमजन के लिये तो भ्रम की काफी गुंजायश है। अब जरा सोचो न
आजकल प्रायः घर घर में तांबे का बना श्रीयन्त्र लटका मिल जायेगा- इस ख्याल से कि
लक्ष्मी की प्राप्ति होगी,जब कि लक्ष्मी को इस श्रीयन्त्र से ‘कोईखास’
वास्ता नहीं है। यहां ‘श्री’ पद लक्ष्मी का बोधक नहीं,प्रत्युत राधा-यानी
त्रिपुरसुन्दरी का बोधक है। खैर, पहले बाहरी त्रिकोण की यात्रा करो , फिर भीतरी
त्रिकोण को समझने का प्रयास करना। और जब एक त्रिकोण को समझ जाओगे तो नौ त्रिकोणों
को समझने में भी अधिक कठिनाई नहीं होगी। बच्चों को पहले वर्णमाला का ज्ञान करना
होता है,फिर उसे वर्णों की व्यवस्था सिखायी जाती है- व्याकरण पढ़ाकर,और तब कहीं
जाकर वह मोटी-मोटी पोथियां पढ़कर समझने के काबिल बनता है। यहां भी बात कुछ वैसी ही
है। ’- बाबा ने गायत्री की ओर देखते हुए कहा- ‘ तुम तो शाक्त साधक कुल की रही हो।
क्या कभी इस पर चर्चा हुयी घर में पिता या दादाजी द्वारा?’
‘
मैं जब से होश सम्हाली,दादाजी को हर महीने विन्ध्याचल की यात्रा करते देखती थी।
उनका शुक्लपक्ष प्रायः यहीं गुजरता था- नवमी तक। दशमी या एकादशी को घर वापस आते थे; और पुनः कृष्ण त्रयोदशी को ही निकल जाते थे-
यहाँ के लिए। क्या करते थे,कैसे करते थे- इस विषय पर कभी कुछ जानकारी न मिली। हां,बस
इतना सुनती थी कि त्रिकोणयात्रा जरुर करनी चाहिए। यह अपने आप में बहुत बड़ी
तीर्थयात्रा है।’- गायत्री का जवाब सुन बाबा जरा मुस्कुराये।
‘
यही तो तरीका होता है बीज बोने का- उन्होंने घर-परिवार में बारम्बार चर्चा की।
समय-असमय तुमने सुना-जाना। यानी कि मिट्टी में बीज डाल दिया गया। परिवेश,और काल के
संयोग से उसका प्रस्फुटन हो जायेगा। कहने-सोचने-बोलने का यही तरीका था हमारे
वुजुर्गों का। बच्चों में होश सम्भालने से पहले ही सारा कुछ डाल देते थे। डालने का
अंदाज(तरीका)भी अनोखा होता था- पिता, माता,दादा,दादी की गोद में बच्चा बैठता था, नियमित
रुप से, सहज भाव से। सामान्य तौर पर तो यही लगेगा कि बुजुर्गों का स्नेह है बच्चों
के प्रति; किन्तु प्रबुद्ध रहस्यमय बुजुर्ग इसी अन्दाज में कुछ के कुछ कर गुजरते
थे। पुराणों में रानीसती मदालसा का प्रसंग प्रसिद्ध है। गन्धर्वराज विश्वावसु की कन्या का
विवाह राजा शत्रुजित-पुत्र ऋतध्वज से हुया था। इनसे उत्पन्न तीन पुत्र-
विक्रान्त,सुबाहु और शत्रुमर्दन को रानी मदालसा ने विरक्त बना दिया था- सिर्फ लोरी
सुना-सुना कर, और अन्त में सांसारिक जंजाल में जकड़े पिता ऋतध्वज ने चौथे पुत्र को
आग्रह पूर्वक सांसारिक बनाने का अनुरोध किया,ताकि उनकी वंश-शाखा का उच्छेदन न
होजाय। देखने में तो कुछ समझ नहीं आता किसी को कि वह कर क्या रही है,किन्तु उसका
एक खास अन्दाज था लोरी सुनाने का नियमित तेल मालिस करने का, बालक को स्तनपान कराने
का।’- कहते हुए बाबा अचानक रुक गये।
थोड़ी
देर गायत्री के चेहरे पर गौर किये। फिर उससे ही सवाल कर दिये- ‘ क्यों गायत्री ! तुम तो एक स्त्री हो,वो भी साधक कुल-जन्मा। मेरी बातों को शायद आसानी से
समझ पाओ। तुम्हें तुम्हारी माँ कैसे तेल मालिस की होगी यह तो याद रहने का सवाल
नहीं है,किन्तु घर में मां,दादी,चाची,नानी किसी महिला को, किसी बच्चे को तेल मालिश
करते देखी तो जरुर होवोगी,और फिर यह भी ध्यान होगा कि मालिश के बाद माँ उन्हें
स्तनपान जरुर करा देती है,यह कहते हुए कि तेल भूल जायेगा। दूध पिला देने से याद
रहेगा।’
बाबा
की बात पर गायत्री बिहँसती हुयी बोली- ‘ हां उपेन्दरभैया ! खूब याद है । मैं प्रायः हर माँओं को ऐसा करते देखती हूँ,किन्तु इसका कोई
खास कारण-रहस्य तो पता नहीं,और न इसे रहस्यमय जान, कभी प्रश्न ही उठा मन में।’
सिर हिलाते हुए बाबा ने कहा- ‘ यही तो बात है-
हमारे मन में प्रश्न उठते ही नहीं,फिर उत्तर की तलाश क्योंकर होगी? आधुनिकायें तो
इन सब बातों को और भी विसार चुकी हैं,दकियानूसी कहकर। डॉक्टर भी उन्हीं के मन
मुताबिक राय दे देंगे- बच्चों को तेल मत लगाओ,काजल मत लगाओ। और स्तनपान के प्रति
तो ऐसी मूढ़ी अज्ञानता फैल गयी है कि स्तनपान कराने से स्तन जल्दी ढीले हो
जायेंगे। अब इन मूर्खाओं को फिर से जागरुक करने का काम करना पड़ रहा है- जब विदेशी
वैज्ञानिकों ने स्तनपान के रहस्य और महत्त्व पर प्रकाश डाला। हमारी तो आदत है न
अपनी चीज को विसार कर, परमुखापेक्षी बनने की।
गायत्री
ने सवाल किये- ‘ आंखिर क्या रहस्य है भैया ! तेल मालिश और
स्तनपान का क्या सम्बन्ध है? ’
बाबा
ने गायत्री को समझाया- ‘ तेल मालिश के समय माँयें अपने दोनों पैर सामने की ओर पसार
देती हैं, और घुटने के सहारे बच्चे के शिरोभाग को रखकर,यानी शेष शरीर मां की
जांघों के इर्दगिर्द पड़ा होता है। उसी मातृ-जघन-शैय्या पर बालक का मर्दन होता है-
नियमित- सुबह-दोपहर,शाम,रात्रि...। मालिश के बाद माँ गोद में उठा लेती है,बच्चे को
और प्रायः देखती होगी कि पहले बायाँ स्तन देती है बच्चे के मुंह में,और फिर दायाँ।
बायें स्तनपान के समय माँ का बायाँ हाथ बच्चे की गर्दन से गुजरते हुए उसके
गुदामार्ग तक जाता है,यानी की गुदामार्ग से कटि प्रदेश तक का भाग माता की हथेली पर
होता है। इधर मां का दाहिना हाथ बालक के सिर,ललाट, मुख,छाती आदि पर बारम्बार अवरोह
क्रम में सरकते हुए नीचे बच्चे के शिश्न-प्रान्त तक आता है। थोड़ी देर तक इस
क्रिया के उपरान्त स्थिति बदल जाती है- बच्चा दाहिने स्तन का पान करने लगता है,और
इस प्रकार माता का दाहिना हाथ बालक के कटि से पृष्ट-प्रदेशों तक गुजरता है। किन्तु
ध्यान रहे इस स्थिति में मां बच्चे को सिर्फ दुलारती पुचकारती है,बायाँ हाथ पूर्व
की तरह ऊपर से नीचे सरकाती नहीं है। चतुर और जानकार मातायें यही करती हैं।’
गायत्री
ने पुनः टोका- ‘ सो तो ठीक है। इसे मैं सैकड़ों बार देख चुकी हूँ, रहस्य और कारण
भले न ज्ञात हो। किन्तु इस स्थिति से मदालसा की लोरी का क्या सम्बन्ध है?’
‘
है; सम्बन्ध है,और बहुत ही गहरा सम्बनध है।’- बाबा दृढ़ता पूर्वक अपनी तर्जनी
हिलाते हुए बोले- ‘ यौगिककाय-रहस्य को समझोगी तो सब भेद खुल जायेगा। मदालसा नित्य
स्तनपान के समय कुछ विशेष वर्ण-योजनाओं का प्रयोग करती थी- शुद्धोसि, बुद्धोसि....अध्यात्म
की सारी गुत्थियां,और जीवन का रहस्य खोल देती थी शिशु- स्तनपान के क्रम में।
अभी-अभी जो मैंने ध्यान दिलाया तुम्हें माता ही हस्त-मुद्रा और भंगिमाओं का,वह एक
विशिष्ट विधि है जीवात्मा तक संदेश पहुँचाने की। सीधी भाषा में कहूँ तो कह सकता
हूँ कि अचेतन मन तक संदेश पहुँचाने की इससे अच्छी कोई और विधि हो ही नहीं सकती।
कोई दक्ष गुरु शिष्य के सिर पर हाथ रख कर,या कि ललाट पर अंगूठा रख कर,उसे उपदेशित
करता है न ? माता से बढ़िया और महान गुरु, और कौन हो सकता है जगत में ? अन्य गुरु
को तो शिष्य के कैशोर्य और युवत्व की प्रतीक्षा करनी पड़ती है,पर माता,उसे तो ‘नाल’
से सम्बन्ध होता है,और एक औरत होने के नाते तुम अच्छी तरह जानती होवोगी कि
माता,गर्भस्थ शिशु और नाल का क्या रिस्ता है। आजकल वैज्ञानिकों को इसके रहस्य का
कुछ संकेत मिल गया है । तुमने सुना होगा- जन्म के बाद बच्चे के नाल का छेदन करके
फेंक दिया जाता था, पुरईन (प्लेसेन्टा)के साथ। किन्तु अब उसका संरक्षण किया जा रहा
है- लाखों खर्च करके– ‘प्लेसेन्टा-बैंकों’ में। इस रहस्य पर बातें और भी लम्बी हो जायेगी।
इस पर फिर कभी चर्चा करेंगे। अभी तो तुम मदालसा-रहस्य को ही समझो। बच्चे के
गुदामार्ग से लेकर सिर पर्यन्त माता की सरकती हथेली,और उच्चरित विशिष्ट स्वर-लहरी(rethmic sound
web) सीधे शिशु में सूचना का संचार ही नहीं, स्थापन कर देता है, जिसके
परिणाम स्वरुप बालक होश सम्भालते ही सांसारिक जंजालों में अनुरक्त हुये बिना ही
सीधे साधना-लोक में पदार्पण कर देता है। फिर उसे किसी बाहरी गुरु की खास आवश्यकता
भी नहीं रह जाती- ठीक वैसे ही जैसे जेनरेटर स्टार्ट हो जाने के बाद, निर्बाध चलते
रहता है,जब तक उसकी क्षमता होती है,या कि पुनः सायास बन्द न किया जाय। मदालसा ने
यही किया अपने सभी पुत्रों के साथ,और इस व्याज से उसने संसार की अन्य माताओं को भी
संदेश दे दिया। वस्तुतः यह स्तोत्र नहीं है, फिर भी इसे स्तोत्र कहने में कोई
आपत्ति भी नहीं है मुझे। मदालसा का यह दिव्य संदेश भी बहुत ही गुनने योग्य है। मार्कण्डेय
पुराण २६/११ से ४१ तक इस प्रसंग का विशद वर्णन है। प्रारम्भ
के श्लोकों में निवृत्तिमार्ग का
दिशानिर्देश है, और अन्त में प्रवृत्तिमार्ग का भी संकेत है। प्रवृत्ति और
निवृत्ति के बीच के भी, किंचित उपचार सुझाये गये हैं। पति के आग्रह से प्रवृत्ति-मार्ग-गामी
पुत्र के लिए भी भैषज्यात्मक(औषधि निमित्त)सूत्र है। पहले इसी की बानगी देखो- संगः
सर्वात्मना त्याज्यः सचेत्यक्तुं न शक्यते । ससद्भिः सकर्त्तव्यः सतां संगो हि
भेषजम् ।। कामः सर्वात्माना हेयो हातुं चेच्छक्यते न सः। मुमुक्षां प्रति
तत्कार्यं सैव तस्यापि भेषजम् ।। - माता मदालसा कहती है- हे पुत्र ! सर्वविध संग का परित्याग करना। और यदि इसमें
शक्य न होवो,तो सत का संग(सत्संग) करना,यही इसका औषध है। पुनः कहती है- सर्वविध
काम का त्याग करना,और यदि इसमें शक्य न होवो,तो मुमुक्षु (मोक्षार्थी) होने की
कामना करना। यही इसकी औषधि है। ’
मैंने
संशयात्मक स्वर में कहा- ये तो बड़ा ही अजीब है,रानी मदालसा का उपदेश- संग और
कामना के त्याग की बात करके,फिर सत्संग और मोक्षाकांक्षा की कामना को ग्रहण करने
को कहा जा रहा है।
बाबा
ने स्वीकारात्मक सिर हिलाते हुए कहा- ‘
हां,अजीब तो जरुर है। हर प्रकार के संग को त्यागने की बात की जारही है,किन्तु
ध्यान देने की बात है कि न त्यागा जा सके,वैसी स्थिति में सत का संग यानी सत्संग
करे। कामना का परिणाम होता है बन्धन,अतः
इसका भी परित्याग करना चाहिए। यदि न सम्भव हो तो, यानी कामना किये वगैर हम रह ही
नहीं सकते,तो ध्यान रहे कि मोक्ष की कामना करे। वस्तुतः संतों ने तो इसकी भी कामना
नहीं की है- स्वर्ग और मोक्ष का भी परित्याग करने वाले एक से एक संत हुए हैं। आद्यशंकर
ने तो भगवती की प्रार्थना में कहा ही है- न मोक्षस्याकांक्षा भवविवांछापि च न
मे न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः...। चूँकि शंकराचार्य यहां
भक्तिमार्गी की भूमिका में हैं,अतः देवीमुखारविन्द की लालसा कर रहे हैं। इसके
सामने मोक्ष को भी तुच्छ कह रहे हैं। भक्त हमेशा द्वैत में ही रहना पसन्द करता है-
आराध्य और आराधक का द्वैत। उसे मोक्ष वाली शून्यता की कामना भी नहीं रहती। खैर,
अभी यहां मदालसा द्वारा गायी जाने वाली
लोरी के मूलश्लोकों को हृदयंगम करो,फिर इस पर विशेष चिन्तन करना । निवृत्तिमार्ग
पर लेजाने हेतु,मदालसा मात्र छः श्लोकों को लोरी के रुप में अपने बालकों को सुनाती
थी। शर्त ये रहता था कि बालक का अन्नप्राशन न हुआ हो, यानी कि उसकी अवस्था अधिकतम
छः माह की ही रहती थी। इस बीच ही वह निवृत्तिमार्ग का बीजारोपण कर दिया करती थी। मूल
श्लोक के पद-लालित्य पर जरा गौर करो- शुद्धोऽसि रे तात न तेऽस्ति नाम कृतं
हि ते कल्पनयाधुनैव । पञ्चात्मकं देहमिदं न तेऽस्ति नैवास्य तं रोदिषि कस्य हेतोः।।१।। न वा भवान् रोदिति
वै स्वजन्मा शब्दोऽयमासद्य महीशसूनुम्। विकल्प्यमाना विविधा गुणास्तेऽगुणाश्च
भौताः सकलेन्द्रियेषु।।२।। भूतानि भूतैः परिदुर्बलानि
वृद्धिं समायान्ति यथेह पुंसः। अन्नाम्बु दानादिभिरेव कस्य न तेऽस्ति वृद्धिर्न च
तेऽस्ति हानिः।।३।। त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेऽस्मिंस्तास्मिंश्च देहे मूढतां मा
व्रजेथाः । शुभाशुभैः कर्मभिर्देहमेतन्मदादिमूढैः कञ्चुकस्ते पिनद्धः।।४।। तातेति किञ्चित् तनयेति किञ्चिदम्बेति
किञ्चिद्दयितेति किञ्चित् । ममेति किञ्चिन्न ममेति किञ्चित् त्वं भूतसङ्घम् बहु
मानयेथाः।।५।। दुःखानि दुःखोपगमाय भोगान्
सुखाय जानाति विमूढचेताः । तान्येव दुःखानि पुनः सुखानि जानाति विद्वान्
विमूढचेताः।।६।। ’’
गायत्री
सिर हिलाते हुए हामी भरी-‘ हाँ भैया ! सती मदालसा ने तो
संदेश दे दिया, सारे गुर सिखा दिये; किन्तु आज तो बच्चे का लालन-पालन ‘आयाएँ’ करती
हैं, ‘माय’ की जगह ‘धाय’ ले ली है। अब मातृ-गुरु-गरिमा का लाभ कहां से, कैसे मिल
पायेगा? न बच्चे की मालिश हो रही है,और न लोरी और थपकी,और न पिता,दादा,दादी का गोद ही मयस्सर है। आज का अभागा
वच्चा होश सम्हालता है वोर्डिंग और प्लेस्कूलों में।’
बाबा
ने स्वीकृति मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा- ‘ हाँ बिलकुल सही समझा तुमने। माता की
मृदुल हथेली का स्पर्श,तथा पिता दादा आदि के द्वारा भी उसी भांति उसके शरीर के
प्रधान स्थानों का निरंतर स्पर्श होते रहता था। उस बीच में जो आपसी संवाद होते
थे,वो बहुत ही गहरे अर्थ रखते थे- चाहे वो कथाओं के माध्यम से हो या किसी और तरीके
से। गोद,संगति और सानिध्य का भी बड़ा महत्त्व है। मगर दुर्भाग्य ये है कि आज के
बच्चों को माता-पिता का ही गोद भरपूर नहीं मिल पाता,फिर दादा-दादी तो दूर की चीज
हैं। आज तो उनका स्थान वृद्धाश्रम में होता है,और बच्चों का स्थान आवासीय
विद्यालयों में। आज की पीढी ‘कॉन्वेन्टी’ होकर गौरवान्वित हो रही है,और पैरेन्ट्स
भी फूले नहीं समाते - समझते हैं कि हमने अपने बच्चे को उचित शिक्षा दी है-
अंग्रेजी स्कूल में भेज कर विज्ञान और तकनीक सिखाया है। पर खाक दिये हैं शिक्षा ! जड़ का पता नहीं, पत्तियां और तने सींचे जा रहे हैं,पौधा तो सूखेगा ही । योग-साधना
की ‘एनाटोमी’ पढ़ोगे, मानव शरीर का ‘ज्योग्राफी’ जानोगे, तभी ये रहस्यमय बातें समझ
में आयेंगी,अन्यथा व्यर्थ बकवास सी लगेंगी। भारत की शिक्षा-पद्धति, ज्ञान के
स्थानान्तरण का विज्ञान बड़ा ही अद्भुत रहा है। बीज बोया कैसे जाता है,यह भी पता
नहीं होता आज के जाहिल किसान को। हम सब किसान ही तो हैं। हर बीज में वृक्ष बनने की
संभावना बनी हुयी है,बस बोने का तरीका,और परिवेश और काल (समय)का सही ज्ञान होना
चाहिए। ’
किन्तु
अधिकांश बीज नष्ट भी तो हो जाते हैं महाराज, यदि सही ढंग से बोया नहीं गया,और आगे
उसकी निगरानी नहीं की गयी?
‘तुम
तो अंग्रेजी खां हो।’- मेरी ओर हाथ का इशारा करते हुए बाबा ने कहा- ‘ अंग्रेजी में
एक कहानी है न- ‘ द पैरेबल ऑफ सोअर ’ क्या सच में यह किसी किसान की कहानी है? कथाकार
ने इस कहानी के जरिये मानव जीवन के बहुत बड़े रहस्य की ओर इशारा किया है । गौर
करने की बात है- यह स्टोरी नहीं, ‘ पैरेबल ’ है। पैरेबल और स्टोरी का फर्क तो पता
है न, या ये भी हमें ही बतलाना पड़ेगा? ”- बाबा ने मेरी ओर
देखकर सवाल किया।
राष्ट्र
की वर्तमान स्थिति और सोच पर गौर करते हुए,मैं जरा शर्मिन्दगी महसूस करते हुये कहा
– जी पता है,पैरेबल और स्टोरी का अन्तर,और ये भी पता है कि कहानीकार ने क्या कहना
चाहा है इस छोटी-सी कहानी में।
बातों
की धुन में,विन्ध्यवासिनी मन्दिर के सभामण्डप के बाहर पहुँच,सीढियों के पास ही ठहर
गये थे हमलोग । बाबा का यह प्रसंग पूरा हुआ तो गायत्री ने टोका- ‘ अब अन्दर भी
चलोगे भैया या कि यहीं खड़े पैरेबल सुनाते रहोगे ? तुमसे करने
के लिए मेरे पास भी बहुत से सवाल हैं,किन्तु समय के इन्तजार में हूँ। इधर से
घूम-घाम कर स्थिर बैठूँ, फिर बातें छेड़ूँ। ’
गायत्री के कहने पर,मैं पास की दुकान
से प्रसाद वगैरह ले आया एक छोटी-सी डलिया में,
और दर्शनार्थियों की कतार में लग गया। काफी लम्बी लाईन लगी थी,लगता है
दुनिया में सिर्फ भक्त ही भक्त हैं। कई पुजारी भी इधर-इधर मटक-भटक रहे थे। पुजारियों
में एक, मेरे पास आकर धीरे से फुसफुसाया- ‘ शाम तक लाईन में खड़े रह जाओगे। कुछ
जेब ढीला करो,मैं मिन्टों में दर्शन कराता हूँ।’ मैं उसकी बात सुन अवाक् रह गया।
देवी का दर्शन करने के लिए भी जेब ढीला करने की बात हो रही है।
बाबा
तो यहाँ के परिस्थिति से पूरे वाकिफ थे। उस पुजारी को इशारे से बुलाकर बोले- ‘ जानते
हो,किसे जेब ढीला करने बोल रहे हो ? कल के अखवार में
तुम्हारे फोटो के साथ छपेगा कि तुमने रिश्वत मांगी एक अखवारी बाबू से।’
बाबा
की बात सुनते ही पुजारी सख्ते में आ गया। हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा। गायत्री ने
कहा- ‘ क्या जरुरत थी भैया, यहां परिचय देने की, देखती, अभी कुछ देर और यहां का तमाशा।
ऐसे लोग ही पवित्र स्थानों को बदनाम करते हैं । सिपाही तो है ही बदनाम घुसखोरी के
लिए,ये पुजारी बन कर लोगों को ठग रहा है । वही सोच रही थी कि इतनी देर से लाइन जरा
भी आगे क्यों नहीं बढ़ी है। ’
डरे
हुए उस पुजारी ने विनम्रता पूर्वक मुझे और गायत्री को लेकर बगल के रास्ते में
प्रवेश किया। सभामंडप से सटे ही एक संकरी गली जैसी थी,जिससे होकर गुप्त रास्ते से
सीधे अन्दर गर्भगृह में पहुँचा दिया हमदोनों को। गायत्री ने माथा टेका, और
फूलमाला-प्रसाद वाली डलिया मुख्य पुजारी को देते हुए,सौ का एक नोट भी दक्षिणा
स्वरुप अर्पित किया। थोड़ी ही देर में हमलोग आराम से दर्शन करके बाहर आगये,उसी
रास्ते से। सोच रखा था- यह नौकरी पाने के बाद,पहली बार यहाँ आया हूँ। कुछ विशेष
दान-दक्षिणा अर्पित करुँगा देवी के निमित्त; किन्तु ‘‘प्रथम
चुम्बने नासिका भंगम् ’ वाली बात हो गयी,मन भिन्ना गया। अश्रद्धा हो आयी
तीर्थस्थल की दुर्गति देखकर। यह कार्य भी पुरोधाओं द्वारा ही हो रहा है,जो कि और
भी चिन्ताजनक है।
क्रमशः..
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