गतांश से आगे...भाग चौदह
अभी
तक,बाबा बाहर ही एक स्तम्भ के पास खड़े, कुछ मन्त्र बुदबुदा रहे थे। मैंने गौर
किया- उनकी अंगुलियों की मुद्रा कुछ अजीब सी थी- न प्रणाम की न आशीष की,न वरद,न
अभय। मैंने धीरे से इशारा किया गायत्री को भी देखने के लिए। उसने बताया- ‘ ये
योनिमुद्रा है,प्रार्थना की एक विशिष्ट मुद्रा। ’ पता नहीं उसे कैसे ज्ञात है-
साधना की ऐसी मुद्राओं के वारे में। अनुकूल अवसर न देख,इस पर कोई सवाल करना उचित न
लगा मुझे।
हमलोगों के पहुँचने के थोड़ी देर बाद बाबा
ने आँखें खोली- ‘ कर लिए दर्शन? चला जाय अब ?’
‘जी।’- संक्षिप्त- सा उत्तर दिया मैंने,और चल
पड़े वापस,पुनः सीढियाँ उतर कर।
बाहर आकर,मन्दिर से पश्चिम का रास्ता
पकड़े,जो सीधे कालीखोह की ओर जाती थी। रास्ते में जगह-जगह छोटे-बड़े कई मन्दिर मिले।
जाना चाहें या नहीं,बाहर में ही पंडा-पंडित-टीकाधारी खड़े आहूत कर रहे थे, चिल्ला
चिल्लाकर- ‘ आओ जी इधर भी दर्शन करो....दक्षिणा चढ़ाओ।’ मेरा मन इन सबको देखकर और
भी खिन्न होने लगा। धर्म की सजी-धजी दुकानें...ढोंगी पंडा-पुरोहित...जिनका संस्कार
हीन चेहरा... ब्रह्मणत्त्व का नामोंनिशान नहीं...क्या यही हमारी तीर्थ-स्थली है?
तीर्थों में तो प्रेम,सद्भाव,शान्ति का वातावरण होना चाहिए,जहाँ आकर खिन्न चित्त
भी प्रसन्न हो जाय; किन्तु
यहाँ तो उल्टा ही हो रहा है- प्रसन्न चित्त भी खिन्न हो गया। शान्ति नाम की कोई
चीज नहीं,चारों ओर मार-काट जैसा कोलाहल है- श्रद्धालुओं का पॉकेट काटने का होड़
मचा है,ठगी की प्रतिद्वन्द्विता हो रही है। चाह कर भी किसी कोने में बैठकर एकान्त
ध्यान लगाना मश्किल है। चारों ओर सड़े-गले फूल-मालाओं का अम्बार लगा है- नगरनिगम
के ‘डम्पिंगप्वॉयन्ट’ की तरह । दुर्गन्ध का भभाका नथुनों को बेचैन
किये है। सुबह स्नान करते समय भी ऐसी ही परेशानी हुयी थी- गंगा के घाटों की
दुर्गति देख कर- गंगा की पवित्र रेती पर केवल मल ही मल नजर आ रहे थे,कहीं ईंच भर
भी स्थान नहीं,जहाँ कायदे से खड़ा हुआ जा सके। कहीं कोई ढंग की व्यवस्था नहीं। लाचार
या कहें आदतन लोग- पुरुष तो पुरुष, स्त्रियां भी धड़ल्ले से यहाँ-वहाँ सिकुड़ी, उकड़ू
बैठी नजर आरही थी। यदि आप में थोड़ी लाजोहया है,तो खुद की नज़रें नीची कर लें,या
बेश़र्मों की तरह नज़र मिलाते निकल जायें। गायत्री के हाथ में कपड़े थमा,उतरना
पड़ा जल में,और किसी तरह दो डुबकी लगाकर,जल्दी ही बाहर आ गया था। फिर यही करना
पड़ा गायत्री को भी। महिलाओं के लिए तो और भी समस्या- न सुरक्षित घाट,न कोई
व्यवस्था। चारों ओर घूरती आँखें- मानों जीवन में पहली बार कोई औरत पर नज़र पड़ी हो...।
बाबा
की टोक पर विचार-तन्तु टूटा- ‘ क्या सोच रहे हो अखबारी बाबू? तुम बकर-बकर करने
वाले ठहरे,इतनी चुप्पी क्यों साध लिए अचानक?’
‘
जी,यूं ही...कभी-कभी मौन सध जाता है,कुछ सोचने पर विवश हो जाता हूँ।’- मेरी बात काटते
हुए बाबा ने कहा- ‘ इसे मौन नहीं कहते,यह तो चुप्पी है । मौन और चुप्पी में बहुत
अन्तर होता है। मौन भीतर से उपजता है,प्रस्फुटित होता है,खिलता है- फूलों की
तरह,आभ्यन्तर आनन्द विखेरता है। चुप्पी बाहर से ओढ़ी और लपेटी जाती है । मौन में
नीरव शान्ति होती है,चुप्पी में विचारों का बवन्डर होता है।’
‘
आज सुबह से ही थोड़ी खिन्नता चल रही है,गंगा की दुर्दशा पर सोच रहा था। यहाँ
मन्दिर में आकर तो और भी अशान्त हो गया। ’- मैंने संक्षिप्त
उत्तर दिया।
बाबा
मुस्कुराये- ‘ गंगा के बारे में क्यों चिन्ता करते हो ? कितने दिन और रोक रखोगे
गंगा को यहाँ ? ’
‘ मतलब? ’- बाबा की पहेली बूझ न पाया।
‘
जो गंगा हैं तुम्हारी आस्था,कल्पना और जानकारी में, वो तो कब की जा चुकी हैं
पृथ्वी त्याग कर। अब तो पानी की धार भर रह गयी है,वो भी शनैः-शनैः लुप्त होती जा
रही है। कुछ दिनों में पाओगे कि ये धारा भी गायब हो जायेगी।गंगा भी अन्तःसलिला
सरस्वती और फल्गु बन जायेगी।’
‘मैं
कुछ समझा नहीं। क्या ये गंगा नहीं हैं ? ’
‘नहीं,
गंगा नहीं है...गंगा की निस्प्राण काया है ये । प्राण निकल जाने के बाद शरीर की जो
स्थिति होती है,वही स्थिति आज इस गंगा की है। तुम्हें पता होना चाहिए कि यह कलियुग
का काल है,जिसका ५११६ वर्ष व्यतीत हो चुका है इस विक्रमी संवत् २०७२ यानी २०१५ ई.सन्
तक। ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृतिखंड के छठे और सातवें अध्याय में कलिवर्णन का
विस्तृत प्रसंग है। ये प्रसंग अन्यान्य पुराणों में भी किंचित भेद सहित मिल जाता
है। भगवान विष्णु ने प्रतिज्ञा पूर्वक वचन दिया है अपनी प्रियाओं- तुलसी,लक्ष्मी,सरस्वती,और
गंगा को कि कलिकाल के पांच हजार वर्ष व्यतीत होते ही मैं तुम सबको वापस अपने धाम
बुला लूँगा- कलेः पञ्चसहस्रे च गते वर्षे च मोक्षणम् । युष्माकं सरितां भूयो
मद् गृहे चागमिष्यथ ।। इसी प्रसंग में पुनः कहा गया है- कलेः
पञ्चसहस्रं च वर्षं स्थित्वा च भारते । जग्मुस्ताश्च सरिद्रूपं विहाय श्रीहरिः
पदम् ।। यानि सर्वाणि तीर्थानि काशी वृन्दावनं विना । यास्यन्ति
सार्द्धं तामिश्च हरेर्वैकुण्ठमाज्ञया ।। शालग्रामो हरेर्मूर्तिर्जगन्नाथश्च भारतम्
। कलेर्दशसहस्रान्ते ययौ तक्त्वा हरेः पदम् ।। वैष्णवाश्च पुराणानि शंखाश्च
श्राद्धतर्पणम् । वेदोक्तानि च कर्माणि युयुस्तैः सार्द्धमेव च ।। भगवान
विष्णु कहते हैं कि कलियुग में पांच हजार वर्षों तक हरि को छोड़कर,सरिता रुप में रहने
के पश्चात् पुनः हरिपद को प्राप्त करोगी,यानी वापस वैकुण्ठ-धाम को चली जाओगी। काशी
और वृन्दावन के अतिरिक्त अन्य सारे तीर्थ भी श्रीहीन हो जायेंगे। शालग्राम-शिला,
जगन्नाथ-मूर्ति,शंख,श्राद्धादि कर्म भी कलि के दश हजार वर्ष व्यतीत होते-होते त्याग
देंगे इस पृथ्वी को क्यों कि कलि का घोर शासन आ जायेगा।
‘...कथा-प्रसंग
है कि एक बार लक्ष्मी, सरस्वती,गंगा,तुलसी आदि परस्पर विवाद कर बैठी,और एक-दूसरे
को शाप दे दी- सरिता बनने का। दयावान प्रभु को उनके शाप की मर्यादा भी रखनी थी,और लोककल्याण
भी करना था, सो किया उन्होंने, क्यों कि प्रभु की प्रत्येक लीला का मूल उद्देश्य
ही होता है लोककल्याण। इसी कल्याणकारी उद्देश्य से भागीरथी गंगा का अवतरण हुआ
पृथ्वी पर। राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के उद्धार के साथ-साथ अन्यान्य प्राणियों
का भी उद्धार हुआ। ये सुविधा पृथ्वी-वासियों को मात्र पांच हजार वर्षों के लिए ही
मिली थी,जो कि अब समाप्त हो चुकी है। परस्पर के शाप से मुक्त होकर ये सभी जा चुकी
हैं अपने दिव्य धाम को । आज न असली तुलसी है,न गंगा,न पद्मा,न सरस्वती। देखते हो
तुलसी में कीड़े लग रहे हैं। महाकिटाणुनाशक तुलसी और स्वयं कीट-युक्त- कुछ बेतुका
नहीं लग रहा है देख कर? कलि-प्रभाव ने हमारी बुद्धि को मलिन और भ्रष्ट कर दिया है।
धर्म,लोक-लाज सब छोड़कर,सारी गंदगी गंगा,और अन्य नदियों में प्रवाहित किये जा रहे
हैं। पतित-पावनी पवित्र गंगा अपवित्र हो चुकी हैं पापियों के पाप धोते-धोते । शाप
से दुखित गंगा जब भावी दुःख की बात की थी कि पापियों का पाप धोना पड़ेगा,तब
कृपासिन्धु विष्णु ने कहा था कि उनके भक्त भी रहते हैं पृथ्वी पर। वे भी तो स्नान
करेंगे गंगा में। किसी एक भक्त के स्नान से जो पुण्य मिलेगा,उससे हजार पापियों के
पाप का प्रभाव धुल जायेगा।किन्तु सच पूछो तो अब वैसे पुण्यात्मा रहे ही कितने हैं ! पुण्यात्माओं की तुलना में पापियों की संख्या कई गुना अधिक हो गयी है- कलौ
तु पाप बाहुल्यं....फलतः सारा गणित गडमड हो गया है। विज्ञान भी मानता है,जल
में मल या किसी अन्य वस्तु की घुलनशीलता की एक खास सीमा होती है,वो अब पार कर चुकी
है। पार करनी ही है । एक गिलास पानी में बोरी भर शक्कर घोल पाओगे– सोचो जरा! आज,अपने
ग्रन्थों को त्याग कर,विसार कर म्लेच्छों का शास्त्र पढ़ने में रुचि अधिक हो गयी
है– म्लेच्छशास्त्रं
पठिष्यन्ति स्वशास्त्राणि विहाय ते...(प्रकृतिखंड ७-२५)। यीशु का अनुयायी अंग्रेजी
जानता है,पैगम्बर का अनुयायी भी अरबी-उर्दु-फ़ारसी जानता है, पर क्या तुम संस्कृत
जानते हो ? नहीं न। पढ़ना तो दूर रहे,कितने हिन्दु हैं जो वेद देखे हैं, पुराण
देखे हैं,अपना धर्मशास्त्र और उपनिषद का ज्ञान रखते हैं ? अंगुलियों पर भी गिनने
चलोगे तो फेरे में पड़ जाओगे । खैर चलो,अभी तो कालीखोह चल रहे हो न । वो देखो
कालीवाड़ी का कलश दीख रहा है ।अब हमलोग पहुँचने ही वाले हैं ।’
मैंने धीरे से कहा- ‘ जी। ’
मेरी
आवाज की दुर्बलता पर बाबा ताड़ गये- ‘ लगता है तुमलोग थक गये हो। अच्छा चलो,अब
ज्यादा दूर नहीं है। वहीं चल कर थोड़ा विश्राम कर लेना । मन हो तो कुछ फलाहार भी
ले लेना । मीठा-नमकीन हर तरह का फलाहारी सामान वहां उपलब्ध है । और जगहों की तरह
यहां तेल-वेल का प्रयोग नहीं होता, शुद्ध घी के सारे सामान मिल जायेंगे।’
कहने
को तो कलश दीख गया,पर वहाँ पहुँचने में काफी देर लगा। गायत्री वाकयी थक चुकी थी।
थक तो मैं भी गया था। आज तो सुबह वाली चाय भी नहीं मिली है। किन्तु बाबा बमबम थे।
उन्हें क्या परवाह- न चाय की,न कुछ और खाने-पीने की।
बाबा
का संकेतात्मक आदेश मिल ही चुका था। मन्दिर के पास पहुँचते ही, मैंने गायत्री को
इशारा किया,किन्तु बाबा की दुलारी मेरा पोल खोलने पर तुली थी।
‘
मैं जानती हूँ कि तुम्हें चाय के लिए बैचैनी हो रही है,तो पीते क्यों नहीं, यहाँ रोक
कौन रहा है ?
’-कहती हुयी गायत्री पास के एक दुकान की ओर मुड़ी,और मेरे हां-ना के
जवाब के पहले ही ऑडर कर दी दो चाय के लिए।
मैंने
बाबा की ओर देखते हुए कहा- ‘ देखा न महाराज आपने,अपनी लाडली बहन का करिश्मा ? चाय
की तलब इसे हो रही थी,और बदनामी का ठीकरा मेरे सिर पर फोड़ डाली।’
‘ कोई
बात नहीं,क्या फर्क पड़ता है,ठीकरा तुम्हारे सिर फूटे या कि गायत्री के । अच्छा,
तो तुमलोग चाय-वाय पीओ,तब तक मैं अपना एक काम निपटा लूँ ।’-कहते हुए बाबा मन्दिर
के पास ही एक ढोंके की आड़ में मुड़ गये। उन्हें जाते हुए,मैंने गौर किया- कुछ
चट्टाने अजीब ढंग से आपस में जुड़ कर छोटी सी गुफा का सृजन कर रही थी,जिसे गुफा
कम,सुरंग का मुहाना कहना अधिक सही होगा। पास ही अप्रत्याशित, कदम्ब का एक वृक्ष भी
था, काफी पुराना सा। आम तौर पर कदम्ब का वृक्ष ऐसी जगहों पर पाया नहीं जाता। उसके
लिए यहाँ की भूमि कदापि अनुकूल नहीं है,किन्तु प्रकृति की लीला,प्रभु की लीला का
ही तो प्राक्कटन है।
चायवाले
ने दो गिलासों में पानी रखते हुए पूछा,साथ में कुछ और लेने की बात और बिना कुछ कहे
ही रटे-रटाये तोते की तरह सामानों का फ़ेहरिस्त सुना गया। लम्बी सूची में उसने
क्या-क्या बतलाया ये तो कहना मुश्किल है, पर उसका अन्तिम शब्द याद रहा- ‘ सिंघाड़े
की पकौड़ी-खालिस घी में,सेन्धा नमक वाला...।’ सिंघाड़े की पकौड़ी मुझे अति प्रिय
है । अतः उसके अन्तिम बात पर हामी भर दिया। गायत्री जब कभी व्रत करती है,सिंघाड़े
का प्रयोग जरूर करती है,और उसके व्रत के बहाने हमें भी सुस्वादु फलाहार का लाभ तो
हो ही जाता है। व्रत-उपवास मुझसे कभी होता नहीं,और न इसमें हमारी विशेष आस्था ही
है । हां,गायत्री को व्रत करने से मना भी नहीं करता। हँसी-हँसी में वह अकसर कहा करती
है- ‘ मेरे व्रत का चवन्नी भर फल तो तुम्हें मुफ्त में ही मिल जाता है,फिर क्या
जरूरत..।’ सुनते हैं कि पति के पुण्य का आधा फल पत्नी को स्वतः ही मिल जाता है,और
पाप का कुछ भी हिस्सा उसे नहीं मिलता। ठीक इसके विपरीत पत्नी के पुण्य का
चतुर्थांश पति को स्वतः मिल जाता है,और पाप का दशमांश भी भोगना पड़ता है। किन्तु मुझे
आज तक ये न्याय व्यवस्था समझ नहीं आयी ।
ताजे
पतों से बने, बड़े से दो दोनों में सिंघाड़े की गरमागरम पकौड़ियां सामने हाजिर हो
गयी। हमदोनों वहीं पत्थर की बनी लम्बी सी बेंचनुमा चट्टान पर बैठ कर पकौड़ियों का
आनन्द लेने लगे। दोना का आकार पर्याप्त था,और सामग्री भी तदनुसार ही। पकौड़ियां
खाकर पूरी तृप्ति मिली । चाय भी वैसी ही- शुद्ध दूध की, पानी का नामोनिशान नहीं,इलाइची,अदरख
वाली। महानगरीय फाइवस्टार होटलों में भी ऐसी कड़क चाय कहां नसीब होती है,पर वहाँ
तो लोग पैसा पीने जाते हैं,चाय तो अन्यत्र भी मिल जाती है ।
जलपानादि
से निवृत होकर,बाबा का इन्तजार करने लगे, और घंटे भर
गुजर गये। अन्त में लाचार
होकर उधर देखने जाना पड़ा,क्या बात है,अभी तक
लौटे क्यों नहीं।
कदम्ब
के मोटे तने से सुरंग का अधिकांश ढका हुआ था। रही सही कसर आसपास उगी झाड़ियाँ पूरा
कर रही थी। बिलकुल समीप जाने पर भी कुछ पता नहीं चल पाता था। वृक्ष के पास जाकर
टोह लेने लगा- भीतर की आहटों का,किन्तु कुछ ज्ञात न हो पाया। लाचार होकर,कटीली
झाड़ियों को टेढ़ाकर,भीतर झाँकने का प्रयास किया।
अनुमान था कि अन्दर अन्धेरा होगा,या रौशनी की कमी तो अवश्य होगी,किन्तु ये
दोनों अन्दाज गलत निकले ।
गुफा
का सिर्फ मुँह ही छोटा था,इतना छोटा कि सहज ही कोई आदमी उसमें प्रवेश नहीं कर
सकता। दुबला-पतला आदमी भी बहुत प्रयास करने पर देह सिकोड़ कर घुस सकता था,बशर्तें
कि फँसने का डर उसे न हो। झाड़ियों को एक ओर हटा कर,मुहाने में सिर डाल कर भीतर झाँका-
हल्की,किन्तु प्रखर, नीली रौशनी से एक छोटा सा कक्षनुमा स्थान आप्लावित था,जिसमें
एक साथ चार-छः लोग आसानी से बैठ सकते थे । प्रकाश के स्रोत की ओर मुँह
किये,पद्मासन लगाये बाबा बैठे नजर आये । उनकी पीठ से प्रकाश का स्रोत बिलकुल ढका
हुआ था, फलतः जान न पाया कि प्रकाश कहाँ से,कैसे निकल रहा है । किन्तु इतना तो तय
है कि ये बिजली की रौशनी नहीं हो सकती,दिए की तो है ही नहीं । अवश्य ही कुछ
चमत्कारी तत्व है यहाँ। कुछ देर यूँ ही गर्दन लगाये,देखता रहा। गायत्री पीछे, झाड़ियाँ
चांपे खड़ी पूछ रही थी- ‘ क्या है अन्दर ? ’ किन्तु उसकी बातों
का जवाब, बाहर सिर निकाले वगैर असम्भव था,फलतः हाथों से ही इशारा किया,चुप रहने के
लिए।
कुछ
देर भीतर का निरीक्षण करने के बाद,सिर बाहर निकाला,और झाड़ियों को पकड़ कर,गायत्री
को अन्दर झाँकने का इशारा किया । मेरे कहने पर गायत्री ने वैसे ही अपना सिर डाला
मुहाने के भीतर,किन्तु तभी बाबा की धीमी- सी आवाज सुनाई पड़ी- ‘ अच्छा ! तो, तुमलोग यहाँ तक
आ ही पहुँचे, मुझे तलाशते ? आ गये ,तो आ ही जाओ भीतर। बाहर
क्यों खड़ी हो ?’
गायत्री
ने बाहर गर्दन निकाल कर,मुझझे कहा अन्दर आने को,जब कि बाबा की बातें मैं सुन चुका
था,और व्याकुल हो रहा था,उनके आदेश के लिए; किन्तु
भय भी लग रहा था,कि कहीं फँस न जाऊँ । कैसे घुसूँगा इस छोटे से दरबे में।
मेरी
हिचकिचाहट देख,गायत्री बोली- ‘ क्यों, डर लग रहा है,अन्दर चलने
में ? तो ठहरो,मैं पहले घुसती हूँ। ऐसी कितनी ही सुरंगों में घूम चुकी हूँ बचपन
में अपने दादाजी के साथ।’
डर
अन्दर घुसने में नहीं लग रहा है । लग रहा है- कहीं बीच में ही फँस न जाँऊ, तुम्हारी
तरह मुलायम शरीर तो मेरा है नहीं,जो बिल्ली-सी सिकोड़ लूँ । – मैं कह ही रहा था,तब
तक गायत्री सच में बिल्ली सी छपक कर, घुस ही गयी अन्दर।
अन्दर
से बाबा की आवाज आयी- ‘ डरने की कोई बात नहीं। ऐसा करो कि पैर को पहले भीतर
डालो,फिर धड़ को हल्का भांजते हुये अन्दर कर लो।’
बाबा के निर्देशात्मक संकेत का पालन करते हुए,अगले
ही क्षण मैं भी अन्दर आ पहुँचा। बाबा की बतायी विधि वाकयी काम आयी।
ऊपर
सिर उठाकर देखा,मुश्किल से खड़ा होने भर ऊँचाई थी । तन कर खड़ा होना चाहूँ तो सिर
ऊपर वाली चट्टान से टकराने लगे । सामने एक ताख बना हुआ था– सतह के लगभग बराबर में ही, कोई दो हाथ भर लम्बा-चौड़ा,और
इतना ही गहरा भी। उसमें कुछ मूर्तियाँ रखी हुयी थी- बालिस्त भर की। उन्हीं में,एक
मूर्ति में से ये अद्भुत रौशनी निकल रही थी। प्रकाश की किरणें इतनी तेज थी कि
मूर्ति को सही रुप से पहचानना कठिन हो रहा था कि किस देवी-देवता की है । हाँ, अगल-बगल
की दो मूर्तियों को आसानी से पहचाना जा सकता था,जो काले पत्थर की बनी किसी देवी की
मूर्ति थी। सीधी किरणों से बचते हुए,थोड़ा तिरछा होकर, देखने पर,स्पष्ट पहचान लिया
कि चमकदार मूर्ति की बायीं ओर वाली मूर्ति लक्ष्मी की है, जो पद्मासना
हैं,पद्मधारिणी भी,और दायीं ओर वाली भी किसी देवी की ही है, दोनों हाथ किसी खास
मुद्रा में चेहरे पर भंगिमा दिखाती हुयी-हाथों में कुछ दीख नहीं रहा था,किन्तु
अंगुलियों की मुद्रा,कुछ संकेतात्मक प्रतीत हुयी। मूर्ति किसकी है– कुछ समझ न पाया। ताख के बगल में दोनों ओर करीब बित्ते भर गोलाई
वाला मोका बना हुआ था,जिससे छन-छनकर ताजी हवा आ रही थी- बिलकुल स्वच्छ-सुगन्धित,
मानों सीधे मलयसिन्धु में डुबकी लगाकर चली आरही हो । मूर्ति के समीप ही छोटा सा त्रिभुजाकार
त्रिवलीय हवन-कुण्ड बना हुआ था, जिससे निकलता गुगुल-अगरु का मदिर सुगन्ध नथुनों को
तृप्त कर रहा था। दायीं ओर की चट्टान में बीचो-बीच एक वैसा ही मुहाना नजर आया,जो
किसी दूसरी ओर निकलने का रास्ता प्रतीत हुआ।
बाबा
के कहने पर हमदोनों वहीं बैठ गये,पास में ही।बाबा ने अपनी
झोली से एक मुठ्ठी गुगुल
निकाल कर कोई वाचिक मन्त्रोच्चारण करते हुए सामने के हवन कुण्ड में झोंक दिये। थोड़ी
ही देर में हमने अनुभव किया कि गर्भगृह में व्याप्त प्रखर नीली रौशनी धीरे-धीरे
मन्द पड़ने लगी,और कुछ ही देर में स्थिति ऐसी हो गयी कि मूर्ति से आसानी से आँखें मिलायी जा सकती थी। मैंने देखा- यह मूर्ति
स्फटिक की बनी हुयी थी,आकार में उन दोनों मूर्तियों से थोड़ी बड़ी थी। बाबा ने पहले
मेरी ओर देखा,फिर गायत्री की ओर देखते हुए सवाल किया- ‘ देखो,पहचानों तो जरा,ये
मूर्ति किसकी है ? ’
अपने
स्थान पर बैठी-बैठी ही,जरा आगे झुककर गायत्री ने मूर्ति को पहचानने का प्रयास किया।
मैं भी लपका- शायद पहचान जाऊँ,किन्तु कुछ पल्ले न पड़ा, न मुझे और न गायत्री को
ही। देखने में तो मूर्ति बहुत ही आकर्षक,और बिलकुल जागृत-सी लगी। किन्तु आकृति,आयुध,तथा
मुद्राओं से कुछ समझना मुश्किल था।
बाबा
ने कहा- ‘ मैं जानता था,तुमलोग पहचान नहीं पाओगे । दरअसल पहचाने का जो चिन्तन
स्रोत है,वही नहीं है तुमलोगों के पास। तुम क्या,कोई और भी सामान्य व्यक्ति यह
कयास नहीं लगा सकता कि यहाँ,इस तरह की मूर्ति भी हो सकती है । राधा के बारे में तो
हर कोई जानता है । अदना -सा आदमी भी राधा-कृष्ण के बारे में कुछ न कुछ जरूर बता
देगा,किन्तु ये वह राधा है जिनसे राधा की उत्पत्ति हुयी है।’
राधा
की उत्पत्ति हुयी- यानी की वृषभानु की पत्नी की यह मूर्ति है ? - मैंने चौंकते हुए
पूछा। मेरी बात पर बाबा मुस्कुराये। ‘ कहां
वृषभानु-पत्नी,और कहाँ ये मूलप्रकृति। वस्तुतःये मूलप्रकृति श्रीराधा की मूर्ति है
। संसार की सारी देवियां इन्हीं की विभूति हैं । लक्ष्मी,काली,सरस्वती,दुर्गा सबके
सब इन्हीं से निकली हैं । ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड में इसका विशद वर्णन
मिलेगा । सृष्टि के प्रारम्भ में इन्हीं से त्रिदेवियाँ आविर्भूत हुई हैं। ये जो
दायीं ओर देख रहे हो- यही महालक्ष्मी हैं- पद्मासना,और ये जो बायीं ओर की मूर्ति
है,जिसके हाथों की भंगिमा आयुध-रहित होकर भी कुछ ईंगित कर रही हैं- ये ही राधा
है,जो कृष्णप्रिया बनी हैं,और ये ही मूलप्रकृति,महात्रिपुरसुन्दरी हैं । इन्हीं का
लीलाविलास है यह समस्त जगत-प्रपंच । ये वो राधा हैं,जिनसे अनन्त राधाओं,अनन्त
कृष्ण की व्यूह-रचना होती है। जगदाधार भगवती यही हैं मुख्यतः।’
बाबा
बड़े ही आनन्द-मुद्रा में थे । आज से पहले इतना दर्पित मुखमंडल
नहीं देखा था मैंने इनका । लगता
था मूलप्रकृति की सारी विभूतियाँ इन्हीं में उतर आयी हैं । मद्धिम रौशनी में भी
चेहरा चमक रहा था,मानों नीलमणि हो।
बाबा
ने आगे बताया- ‘ मैंने कहा न ये विन्ध्यगिरि हिमवान से भी प्राचीन है । जो वहाँ भी
नहीं है,वो यहां मौज़ूद है । यूँ तो शक्ति के अनेक पीठ हैं पूरे आर्यावर्त में,जिनकी
गणना अलग-अलग प्रसंगों और रुपों में कहीं इक्यावन तो कहीं एकाशी,तो कहीं चौरासी की
जाती है; किन्तु
विन्ध्यगिरि का यह त्रिकोण-क्षेत्र यूँ ही नहीं महत्त्वपूर्ण माना गया है। ये सभी
पीठ यहाँ प्रतिनिधित्व करते हैं- क्या वाम,क्या दक्षिण । एक बहुत ही रहस्यमय बात
बतला दूँ तुम्हें, विन्ध्यगिरि आमतौर पर बस उत्तरप्रान्त के इस खास भूभाग को ही
समझा जाता है; किन्तु सच
पूछो तो पूर्व में विष्णुनगरी गयाजी से लेकर उत्तर में हिमालय तक अन्दर-बाहर
दृष्टिगोचर और भूगर्भगमन करते हुए ये सारा सिलसिला विन्ध्यगिरि का ही है । काशी
आदि सभी इसी के अंश हैं । और सबसे बडा रहस्य ये है कि ऊपर जो दीख रहा है,उससे कहीं
हजार गुना रहस्य भीतर छिपा है । कलि के प्रभाव वश ये सारी वातें लुप्त-गुप्त होती
जा रही हैं ।’- बगल के मुहाने की ओर इशारा करते हुए बाबा ने कहा- ‘ इस मुहाने में
साहस करके प्रवेश करोगे तो ठीक इसके नीचे ही,जहाँ हमलोग बैठे हैं एक और कक्ष
मिलेगा,जहां से सुरंगपथ प्रयाग,काशी,गया,आदि तक गया हुआ है । उस मार्ग में जैसे-जैसे
आगे बढ़ोगे, इसी तरह के हजारों-हजार ताखे मिलेंगे- इससे भी बड़े-बड़े,जिसमें एक
आदमी सहजता पूर्वक आसन लगा सकता है। उन सभी ताखों में कोई न कोई दिव्य मूर्ति
विराजमान मिलेगी। यहाँ मैं एक और रहस्योद्घाटन कर दूँ कि सामान्य दृष्टि में पत्थर
की मूर्ति नजर आने वाली वे सारी पीठासीन मूर्तियां मूर्तियाँ है ही नहीं, वे सीधे
जीवित-जागृत साधक हैं,जो अनेकानेक वर्षों से समाधिस्थ हैं । किन्तु इसे सौभाग्य
कहो या कि दुर्भाग्य, सामान्यजन का वहां तक प्रवेश कदापि नहीं है। प्रवेश तो यहां
इस गुफा तक भी नहीं है किसी का। मेरे बदौलत तुमलोग आ गये यहाँ तक, इससे ये न समझ
लेना कि मेरे पीछे में भी आकर घूम-फिर लोगे ।’ – बातें करते हुए बाबा अपने आसन से
उठे, और दायीं ओर मुहाने के पास,नीचे चट्टान पर प्रणाम करने के बाद कोई मन्त्र
बुदबुदाते हुये ठोंकने लगे । थोड़ी ही देर में हमने देखा- वह विशाल चट्टान लोहे
में चिपके चुम्बक की तरह उनके हाथों में चिपक सा गया, जिसे फूल की तरह सहज रुप से
सरका कर,बाबा ने एक ओर कर दिया। बगल में हाथ भर का मुहाना खुल गया, जिससे आसानी से
अन्दर झाँककर देखा जा सकता था । मैंने,और गायत्री ने भी उसमें झाँक कर देखा- भीतर
वैसी ही नीली रौशनी थी,जैसी की अब से कुछ देर पहले इस कक्ष में थी । रौशनी की
प्रखरता के कारण हमलोग कुछ और देख न पाये। बाबा ने कहा- ‘ बहुत हो गया,अब अधिक
जिज्ञासु न बनो । गर्दन बाहर निकालो। अब इसे पूर्ववत बन्द करता हूँ।’
हमलोगों
के गर्दन निकालने के बाद,क्षणभर में उसी सहजता से बाबा ने उसे यथावत बन्द भी कर
दिया। मेरी खोजी बुद्धि,और तीव्र जिज्ञासा इतनी बलवती हो गयी कि बेचैन हो उठा-
जैसे किसी शराबी को शराब की बोतल दिखा कर, कोई दूर भागने लगे। मैंने बाबा के चरण
पकड़ लिये,जैसे कि उस दिन बंगले में रोकने के लिए गायत्री ने पकड़ा था- ‘ अब नहीं
छोड़ सकता ये युगलपादपंकज। मिठाई खिलानी ही नहीं थी तो बच्चे के मुंह में सटाया ही
क्यों आपने ?’ बाबा की आत्मीयता और स्नेह ने कुछ-कुछ मुँह लगा बना दिया था मुझे
भी,गायत्री तो उनकी मुँहलगी चहेती थी ही।
हँसते
हुये बाबा ने मेरा पीठ ठोंका- ‘ तुम भी अब गायत्री की तरह जिद्द करने लगे हो। ’
मगर
पीठ पर उनके हाथ का स्पर्श कोई सामान्य स्पर्श नहीं था। क्षण भर के लिए मुझे लगा
मानों ग्यारह सौ वोल्ट वाला बिजली का तार छू गया हो, अनजाने में । सारा शरीर सुन्न
सा हो गया। आवाज बन्द हो गयी । जमीन पर झुका सिर, और बन्द आँखें- एकदम बेवश हो
गयीं । न सिर उठा पा रहा था,और न आँखें ही खुल पा रही थी। बस इतना ही अनुभव हो रहा
था कि बाबा के हाथों का छुअन है पीठ पर,और शरीर बेसुध और बेसुध होता जा रहा है। किन्तु
इसके साथ ही अनुभव किया कि शरीर से कुछ निकला जा रहा है- बाहर की ओर,और कुछ अद्भुत
दृश्य दीख भी रहे हैं । एक साथ कई चीजें- जैसे प्रायः सपने में कुछ का कुछ दिखायी
पड़ जाता है । मैंने देखा- एक प्रज्ज्वलित त्रिकोण है,जिसके आकार का कोई अन्दाजा
नहीं लगाया जा सकता । जिसमें ज्वाला है,पर उष्मा नहीं । क्षितिज पर चुम्बन करते आकाश
और भूमि की एकात्मकता जैसे समीप भी लगती है,और दूर भी, ऊपर विस्तृत नीलाम्बर कितना
नजदीक लगता है,और कितना दूर,टिमटिमाते तारे, चाँद सितारे,कितने मोहक लगते हैं...उन
सबको बहुत ही समीप से देखा जाए तो कैसा लगेगा-बिलकुल हाथ भरकी दूरी से ! कुछ वैसा ही दीख रहा था,सारा गगन,सारी
धरती। उस प्रज्ज्वलित त्रिकोण के ठीक मध्य में स्वयं को खड़ा देखा,और फिर तीनों
भुजाओं पर गमन करते हुए भी, जिसकी गति का अन्दाजा लगाना भी मुश्किल...ये सारी
क्रियाएँ एक साथ चल रही थी, न कोई आगे न कोई पीछे। लगता था- दृश्य अनेक हैं,तो
द्रष्टा भी अनेक ही है। सैलून में दाढ़ी बनाते समय आमने-सामने के आदमकद आइने में
अपना ही बिम्ब अनेक होकर भाषित होने लगता है,कुछ वैसी ही स्थिति लग रही थी; किन्तु वहाँ सिर्फ खुद का ही बिम्ब होता है, कभी-कभी हजाम का
सिर या हाथ भी दीख जाता है; परन्तु
यहां स्वयं के अतिरिक्त भी अनेकानेक दृश्य...कोई शब्द नहीं मिल रहे हैं,जो पूरी की
पूरी अभिव्यक्ति दे सकूँ- उन दृश्यों का।
कुछ देर में बाबा ने अपना हाथ हटा लिया पीठ से,और लगा मानों
डिस का कनेक्सन अचानक कट गया हो,और टीवी स्क्रीन सादा हो गया हो। झुका हुआ सिर,और
खुली हुई आँखें । आँखों ने सिर्फ चट्टान को देखा- काली चट्टानी जमीन को। अब पूरे
होशोहवाश में था।
मैं
बाबा के चरणों में सीधे लोट गया- ‘ बाबा ! आप मेरा मार्गदर्शक
बनें...बहुत भटका मझधार में...अब आपका ये श्रीचरण छोड़ना नहीं चाहता ... आपने इन
स्वप्नलोकों का दर्शन कराकर,मेरी प्यास और बढ़ा दी...अब बर्दास्त नहीं होता...इन
रहस्यमय लोकों की मैं यात्रा करना चाहता हूँ...इसके वगैर अब चैन नहीं..आज मौका आया
है, तो सबकुछ खुल कर कह देना उचित है- ये जो कुछ आपने दिखाया,और अब से पहले,इस
यात्रा क्रम में प्रयाग आदि जगहों में जो कुछ भी मैंने अनुभव किया- ये सारी चीजें
स्वप्न में बीसियों बार देख चुका हूँ- टुकडे-टुकड़े में,जिन्हें आज एकत्र कर दिया
आपने,जोड़ दिया सिलसिलेवार,फिर भी कुछ समझ नहीं पाया कि ये है क्या है...क्या देखा
मैंने पहले टुकड़ों में,और क्या देखा आज एकत्र?’
बाबा
इत्मीनान से बैठ गये बगल में,पहले की भांति पद्मासन मुद्रा में। हमदोनों भी पास ही
बैठे रहे। थोड़ी देर तक मौन,मेरे चेहरे को निहारने के बाद,मेरे सिर पर अपना दाहिना
हाथ रखा उन्होंने और बांया हाथ मेरे हृदय पर रखते हुए उपांसु भाव में कुछ मन्त्र
बुदबुदाने लगे । उनकी इस क्रिया के दौरान मेरे शरीर में अजीब- सी झुरझुरी होने
लगी- बिजली के हल्के झटके की तरह,जो सुखद अनुभूति पूर्ण थी। कोई पाँच मिनट के बाद बाबा ने वाचिक रुप से मेरे कान में
एक मन्त्र बुदबुदाया,और फिर कहा- ‘ इसे ठीक से हृदयंगम कर लो। आज से तुम्हारा ये
गुरुमन्त्र हुआ,और मैं तुम्हारा दीक्षागुरु। इस मन्त्र का नित्य जप और इसके अनुकूल
ध्यान का सतत् अभ्यास करते रहना है। आगे समयानुसार दिशानिर्देश स्वतः मिलता रहेगा।
मैं सामने रहूँ न रहूँ,कोई बात नहीं,मन्त्र की साधना से ही तुम्हारा मार्गदर्शन
होता रहेगा। वैसे जब तक मैं हूँ,तब तक तो प्रत्यक्ष संवाद होते ही रहेंगे । बाद
में यदि संवाद करना आवश्यक प्रतीत हो तो आगे का ‘ प्रणव ’ और ’ व्याहृतियों ’ को हटाकर बीच के
मन्त्र-स्वर का उच्चारण करोगे। तत्क्षण ही मुझसे संवाद होने लगेगा; किन्तु ध्यान
रहे, इसका प्रयोग खिलवाड़ के लिए नहीं होना चाहिए। साधना-पथ में विशेष अड़चन आये
तभी प्रयोग करना। भूल से भी दुरुपयोग करने की चेष्टा करोगे तो तत्क्षण ही मन्त्र
का प्रभाव तुम पर से समाप्त हो जायेगा।’
इतना
कह कर बाबा ने अपना दोनों हाथ हटा लिया मेरे सिर और छाती परसे। फिर कहने लगे- ‘ मेरी
बातों को जरा ध्यान से सुनो, और काय-संरचना को हृदयंगम करो। इन बातों की जानकारी
अति आवश्यक है– साधना में आगे बढ़ने के लिए। वैसे बिना कुछ
जाने समझे भी साधना की जा सकती है। साधक के लिए वेद-उपनिषद् का ज्ञाता होना अति आवश्यक
नहीं है। ऐसा नहीं कि जो पतञ्जलि का योगसूत्र नहीं पढ़ा है,वो साधना कर ही नहीं
सकता,किन्तु कुछ बुनियादी बातें जान लेना अच्छा होता है। मनुष्य का शरीर और
ब्रह्माण्ड दोनों की संरचना एक ही तरह की है। भूः,भुवः,स्वः,महःजनः,तपः,सत्म् ये
सात लोक ऊपर की ओर हैं, और ठीक इसी भांति सात लोक नीचे की ओर भी हैं- तल,तलातल,सूतल,वितल,रसातल,
महातल और पाताल। ये सात और सात मिलकर चौदह हुए- ये ही चौदह भुवन कहे जाते हैं। ये
जिस भाँति ब्रह्माण्ड में व्यवस्थित हैं,तद्भांति ही मानव शरीर में भी। यही कारण
है कि मानव-शरीर को विधाता की सर्वोत्कृत रचना कही जाती है। चौरासी लाख योनियों
में यहाँ-वहाँ भटकते हुए मानव-शरीर में हमें एक महान अवसर देकर भेजा जाता है कि
साधना करो,और मुक्त हो जाओ इस भव-जंजाल से। किन्तु साथ ही परीक्षा के तौर पर कुछ अन्य
चीजें भी साथ लगी रहती हैं। आहार,निद्रा,मैथुनादि तो प्रत्येक प्राणी का सहज कर्म
है, उसके बिना वह रह ही नहीं सकता,किन्तु मनुष्य में बुद्धि और विवेक नामक दो
अतिरिक्त चीजें देकर ईश्वर ने सावधान भी किया है। हमें इनका उपयोग करना
चाहिए,अन्यथा हममें और अन्य प्राणी में फ़र्क ही क्या रह जायेगा।’
बाबा
की क्रियाकलापों को देखती,सुनती गायत्री बड़ी देर से चुप्पी साधे थी, अब उसने
जिज्ञासा की- ‘ भैया ! ये जो सात और सात चौदह भुवनों की बातें कर
रहे हो,इनके बारे में कुछ विस्तार से बतलाओ,ताकि मैं भी समझ सकूँ। और दूसरी बात ये
कि अभी-अभी तुमने कहा कि इनकी गुरुदीक्षा हो गयी। क्या साधना करने का अधिकार सिर्फ
इन्हें ही है? स्त्री साधिका नहीं हो सकती,उसे मन्त्रदीक्षा की
जरुरत नहीं है क्या?’
गायत्री
की बात पर बाबा मुस्कुराये । क्षणभर चुप्पी के बाद कहने लगे- ‘ मैं पहले तुम्हारे
दूसरे प्रश्न का ही उत्तर दे दूँ,फिर पहले पर बात करुँगा । तुम कौन हो ? क्या केवल
गायत्री हो ? तुम्हारी जन्मजात उपाधि तो ‘पाण्डेय’ थी,अब ‘ पाठक ’ क्यों कहती हो
खुद को?’
‘ ये
तो नियम है समाज का उपेन्दर भैया। शादी के बाद स्त्री का कुलगोत्र, उपाधि सबकुछ
पति वाला हो जाता है।’-गायत्री ने कहा,जिसपर सिर हिलाते हुए मैंने भी हामी भरी- ‘ ये
तो पितृ सत्तात्मक या कहें पुरुष सतात्मक व्यवस्था का गुण-दोष-परिणाम है।’
नकारात्मक
सिर हिलाते हुए बाबा ने कहा- ‘ नहीं,सिर्फ इतनी सी ही बात नहीं है। आजकल तो कान फूँक
कर चेला-चेलिन बनाना रोजगार हो गया है । सच्चे गुरु दुर्लभ हैं संसार है,बड़े भाग्य से ही मिलते हैं। मन्त्र
देने की जो बात है, पुरुष के कान में एक खास विधि से दी जाती है। ऐसा नहीं कि कान
में फूँ कर दिये, या कि भ्रूमध्य में अंगूठा सटा दिये,और हो गयी दीक्षा। ये दीक्षा
भी दुकानदारी बन गयी है। बड़ी-बड़ी दुकानें और मॉल खुले हुए हैं दीक्षा देने वाले।
भीड़ भी खूब है वहाँ। अरे बाबू ! हाईटेन्सनवायर में टोका फँसाने पर बत्ती तभी
जलेगी न जब तार में बिजली होगी। और तार में भी अपनी बिजली तो होती नहीं,वह आती है ट्रान्सफर्मर
से,और ट्रान्सफर्मर भी केवल ट्रन्सफर्मर ही है,उसके पास भी अपना कुछ नहीं है,देने
को। उसे ऊर्जा(शक्ति) दे रहा है पावरहाउस। ये बल्व में जो प्रकाश है न, वह न तार
का है,और न ट्रान्सफर्मर का। यह है पावरहाउस के उस जेनरेटर का जिसने बिजली को पैदा
किया- ऊर्जा सारा उसी का है। क्या फ़ायदा- एक नहीं दस टोके फंसा लो। पावरहाउस ही
बन्द है,फिर सप्लाई कहाँ से होगी? मन्त्र-दाता मन्त्र देने
के लिए अपनी व्यक्तिगत ऊर्जा का प्रयोग करता है,जो सच पूछो तो उसका अपना नहीं है। वह
उसी मूल ऊर्जा-स्रोत से लिया गया है। गुरु एक श्रेष्ट स्थानान्तरक-संयत्र की
भूमिका निभाता है। सिर या ललाट मुख्य रास्ता है कुछ स्थानान्तरण करने के लिए।
‘...अब
इसके दूसरे पक्ष को समझो- पति को विधिवत दीक्षा दे दी गयी यदि तो पत्नी को अलग से
दीक्षा देने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। साधना का दक्षिणपथ यही कहता है,और वाम
पथ में तो स्त्री ही मूलतः गुरु की भूमिका में होती है- पुरुष के लिए। असली दीक्षा
वहां स्त्री की ही होनी चाहिए। शक्ति का मूल स्रोत वही है। वह पुरुष की अर्धांगिनी
कही जाती है। उसके बिना पुरुष अधूरा ही नहीं,शून्य सा है,व्यर्थ सा है। ऊर्जा की
भाषा में समझने की चेष्टा करो तो कह सकते हो कि बिजली का धन और ऋण पक्ष है। इन
दोनों छोरों को अलग-अलग विन्दुओं से लाकर विद्युत उपकरण से जोड़ने पर ही सक्रियता
आती है। पत्नी पति के प्रत्येक कार्य की सहायिका होती है। वस्तुतः शक्ति का
प्रतिनिधित्व वही करती है । शक्ति के सानिध्य(संयोग) में ही शक्तिमान की सार्थकता
सिद्ध होती है। शक्ति के बिना तो शिव भी शव है। मनुष्य का जीवन सूर्य के रथ की तरह
नहीं है,जिसमें केवल एक ही चक्का लगा है। पति और पत्नी जीवन-रथ के दो चक्के हैं-
बैलगाड़ी के दो चक्के की भाँति। गृहस्थ जीवन में रहते हुए,गृहस्थाश्रम की
नियम-मर्यादाओं का पालन करते हुए, साथ-साथ साधना-पथ पर बढ़ा जा सकता है। बढ़ना
चाहिए भी। अब तुम यहां ये सवाल भी उठा सकती हो कि जिस पुरुष ने शादी नहीं की,या शादी
करके संन्यास ले लिया,या स्त्री की शादी नहीं हुई या विधवा-परित्यक्ता हो गयी-
उसका क्या होगा? सच पूछो तो संन्यास बिलकुल अलग चीज है,बहुत दूर की चीज है। स्वयं
में न्यस्त हो जाना ही संन्यास का असली प्रयोजन है। आज के जमाने में किसी के बस की
बात भी नहीं है। यही कारण है कि शास्त्रों में जैसे बहुत से कर्म का निषेध किया
गया है,वैसे ही कलिकाल में संन्यास लेने की घोर मनाही है। आज का परिवेश संन्यास के
योग्य कदापि नहीं है,और इस तथ्य की अवहेलना करके जो भी संन्यासी हुए हैं,हो रहे
हैं- उनकी स्थिति बड़ी दयनीय होती है। धोबी के गदहे की तरह न वो घर के होते हैं, और
न घाट के। आज का संन्यास पलायन वाद है- सांसारिक जिम्मेवारियों से पलायन करना। या
फिर आतुर वैराग्य है- माँ-वाप,पत्नी किसी से झगड़ा हुआ,और चट चोला बदल लिए,घर से
भाग खड़े हुए। संन्यासी बन गये। मन के कमजोर लोग ही संन्यास का रास्ता चुनते हैं। अतः
किसी संशय में न रहो। गृहस्थ धर्म का सम्यक् पालन करते हुए साधन पथ पर अग्रसर होओ।
एक धुरी से जुड़े दो चक्के,और उनसे जुड़ा जुआ,जो बैलों के कंधे पर रखा होता
है,उबड़-खाबड़-प्रशस्त पथ पर सरकता जाता है शनैः-शनैः। हमारे शास्त्रों में यत्र-तत्र
प्रचुर मात्रा में वर्णन है इन विषयों का। एक ओर गृहस्थ-धर्म की महत्ता दर्शायी
गयी है तो दूसरी ओर पत्नी-परित्याग का दुष्परिणाम भी बतलाया गया है। ब्रह्मवैवर्तपुराण
श्रीकृष्णजन्मखंड अध्याय ११३ के श्लोकसंख्या ६,७,८ में कहा गया है- अनपत्यां
च युवतीं कुलजां च पतिव्रताम् । त्यक्त्वा भवेद्यः संन्यासी ब्रह्मचारी यतीति वा ।।
वाणिज्ये वा प्रवासे वा चिरं दूरं प्रयाति यः । तीर्थे वा तपसे वापि मोक्षार्थं
जन्म खण्डितुम् ।। न मोक्षस्तस्य भवति धर्मस्य स्खलनं ध्रुवम् । अभिशापेन भार्याया
नरकं च परत्र च ।। जरा ध्यान दो
शास्त्र के इस वचन पर। तब से लेकर अब तक की सामाजिक,पारिवारिक स्थितियों को ध्यान
में रख कर जरा विचारो,किस प्रकार संकेत किया गया है- ऋषि के वचन हैं कि कुलीन,पतिव्रता,
युवती,पत्नी को सन्तान रहित त्यागकर संन्यासी,ब्रह्मचारी, यति, मोक्षार्थी बन
जाना, तीर्थाटन वा तप के लिए निकल जाना,तथा व्यापार-नौकरी आदि के उद्देश्य से
दीर्घकालिक प्रवास पर चले जाना- इन सभी स्थितियों में पत्नी के (प्रत्यक्ष-परोक्ष)
शाप का भाजन बनना पड़ता है, जिसके परिणाम स्वरुप मोक्ष की प्राप्ति तो होती ही
नहीं, उलटे धर्मच्युत(पतित) होकर,नरकगामी भी बनना पड़ता है। ’
गायत्री
को अच्छा सा उदाहरण मिल गया। अतः बीच में ही टोक दी- ‘ भैया ! ये तो बड़े मार्के की बात कह रहे हो- साधु-संन्यासी,भगोड़ू होना तो और
बात है,आजकल नौकरी के बहाने या लाचारी में पति लोग गाँव में बेवश पत्नी को छोड़ कर
लम्बें समय के लिए महानगरों, या कि विदेशों में निकल पड़ते हैं। यहाँ तक कि प्रायः
लोग वहीं की मौज-मस्ती भरी दुनियां में खोकर,विवाहिता साध्वी पत्नियों को विसार
देते हैं,यह कितना अन्याय है। ’
बाबा
ने सिर हिलाते हुये कहा- ‘ अन्याय ही नहीं घोर अन्याय कहो इसे। विवाह समय लिए गये
संकल्प और शपथ को भी भुला देते हैं। शास्त्रकार तो यहाँ सन्तान-रहित होने की ही
बात पर जोर दे रहे हैं,इसका भी पुरुष गलत अर्थ लगा लेते हैं। सन्तान हो जाने के
बाद क्या उसकी मनोदैहिक आवश्यकतायें समाप्त हो जाती हैं ? फिर सन्तान होने की ही
सीमा-रेखा क्यों ? सन्तान पालन कौन करेगा, क्या उस पुरुष का धर्म नहीं है यह ? इसीलिए
मैं कहता हूँ कि यथोचित गृहस्थ धर्म का निर्वाह करो। यहां भी तो आश्रम विभाजन
बतलाया ही गया है। संन्यासी होने न होने में पत्नी कहाँ बाधक बन रही है ? पत्नी को
साथ रखे वानप्रस्थी हो जाओ, फिर संन्यास तो स्वयं ही उतर जायेगा धीरे-धीरे। ‘ त्यागना
’ और ‘ त्यगाजाना ’, छोड़ना और छूटजाना में बहुत बड़ा अन्तर है– आसमान और जमीन का सा
फर्क है। पतंजलि ने वृत्तियों को रोकने नहीं कहा है- वृत्तियों को निरुद्ध होने की
बात कही गयी है- इस विन्दु पर गौर करो।’
यहाँ
बाबा की बातें मुझे भी आंशिक रुप से आपत्तिजनक लगी,अतः बोला- कलयुग में भी तो एक
से एक संन्यासी हुए हैं- महान शंकराचार्य से लेकर रामकृष्ण और विवेकानन्द जैसे
महान पुरुष। क्या इनका निर्णय गलत था?
‘ ये
कुछ अपवाद हैं-अंगुलियों पर गिने जाने योग्य,और अपवाद नियम की सार्थकता सिद्ध करता
है। तुमने ये जो तीन नाम लिए,जरा इनके बारे में कुछ और जान लो- रामकृष्ण तो
अन्त-अन्त तक माँ शारदादेवी के साथ रहे,जो उनकी अर्द्धांगिनी थी। असली अर्द्धांगिनी
उसे ही कहा जा सकता है। आद्यशंकर तो अपने आप में अभूतपूर्व उदाहरण हैं, बहुत से
कार्य उन्होंने ऐसे किए जो संन्यास धर्म के बिलकुल विपरीत है। जानते हो- उन्होंने
अपनी माँ को वचन दिया था,जिसे निभाने के लिए अन्तिम अवस्था में उपस्थित हुए,और
सामाजिक विरोध का खंडन करते हुए माँ का दाह-संस्कार भी किये, जब कि संन्यासी के
लिए अग्नि-स्पर्श भी मना है। संन्यास-आश्रम में रहते हुए गृहस्थों के लिए उन्होंने
जो मार्ग दर्शाया, अद्वितीय है। पंचदेवोपासना का सूत्र देकर,देश के चार दिशाओं में
चारों धाम की स्थापना करके,राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का जो श्लाघ्य कर्म उन्होंने
किया है, उसके लिए आर्यावर्त चिर ऋणि रहेगा। आद्यशंकराचार्य न होते तो आज सनातन
धर्म भी शायद न होता। आपस में ही लड़कर मर मिट जाते कृष्ण के वंशजों की तरह। आर्यावर्त
की रूपरेखा सम्भवतः और भी बिकृत होगयी रहती,यदि ये न होते। वैष्णव,शाक्त, शैव,सौर्य,गाणपत्य
पराम्पराओं ने साधना कम ,शास्त्रार्थ और झगड़ा अधिक किया है। एक दूसरे को नीचा
दिखाने के लिए। आज भी आपसी विसंगतियाँ बहुत है,फिर भी शंकर के पंचदेवोपासना ने इसे
काफी हद तक एकसूत्र में पिरोने में सफलता पायी है। मैं ये कभी सलाह नहीं दूँगा कि
सर्वोत्कृष्ट गृहस्थ-जीवन को त्याग कर जंगलों में भाग जाओ,कन्दराएँ पकड़ लो। संसार
में रोकने, बाँधने,और छुड़ाने का जो काम करता है, वह है तुम्हारा मन। और ये चंचल
मन कन्दराओं में भी तुम्हारे साथ ही रहेगा। सच पूछो तो तुम भागे कहाँ? भाग भी कैसे
सकते हो? मन एव मनुष्याणाम् कारणं बन्धमोक्षयोः इस चतुर मन की गति को
नियंत्रित करो- यहीं रह कर,पत्नी-पुत्रादि बन्धु-बान्धवों सहित। हमारे शास्त्रों
में कितनी अच्छी व्यवस्था सुझायी गयी है- वर्णाश्रम धर्म की।
व्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ,और अन्त में संन्यास। इन चारों आश्रम-धर्मों का
सम्यक् पालन करते हुए पुरुषार्थचतुष्टय – धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की सिद्धि करनी
है। यही अभीष्ट है मानव-जीवन का। ’
मैंने
कहा- मन को ही बन्धन और मोक्ष का कारण कहा आपने,और इस पर नियन्त्रण की बात भी कह
रहे हैं,किन्तु इसकी चंचलता तो जग-ज़ाहिर है। साधा कैसे जाय इस अड़ियल टट्टू को?
मेरी
बात पर बाबा ने कहा- ‘ ये समस्या तुम्हारी अकेली नहीं है। कृष्ण के समझाने पर
अर्जुन ने भी यही कहा था कि हे कृष्ण,ये मन बड़ा ही चंचल है। इसपर नियन्त्रण करना
बहुत कठिन है। दरअसल बात वैसी ही है- जैसे परम्परा से चली आ रही है कि काम मनुष्य
का प्रबल शत्रु है,और इस पर मैंने काफी कुछ समझा चुका हूं तुमलोगों को। ठीक वैसे
ही बारबार कहा गया है- मन को नियन्त्रित करने की बात। किन्तु मैं कहता हूँ,
नहीं...नहीं...मैं क्या कहूंगा शास्त्र कहते हैं,जिसे लोगों ने गलत रुप से समझ
लिया है– काम शत्रु नहीं है,वो एक सहज वृत्ति है। उसी
तरह मन पर काबू करने की चिन्ता ही फिज़ूल है। मन को दौड़ लगाने दो नटखट बालक की
तरह। कुलांचे भरने दो मृग की तरह। तुम बस एक ही काम करो- उस मन को उछलने के लिए जो
शक्ति दे रहा है- भोजन दे रहा है- उस प्राण का ध्यान रखो। उसे भी रोकने की बात
नहीं कर रहा हूँ। सिर्फ और सिर्फ निरीक्षण करो कि शरीर की जो प्राणऊर्जा है- कैसे
क्या हो रहा है उसके साथ। बिना किसी रोक-टोक के, बिना छेड़छाड़ के, सिर्फ देखो और
देखते जाओ। थोड़े ही दिनों के अभ्यास से पाओगे कि यह चंचलातिचंचल प्रमाथी मन थक
गया है दौड़ लगाकर। ’
मन
की चर्चा करते हुए बाबा अचानक बाबा रुक गये । जरा ठहर कर बोले- ‘ अरे हां ! तुमलोगों को त्रिकोणयात्रा भी करनी है न?’
जी
करनी तो है,पर ये क्या उससे कम पुण्य-कार्य हो रहा है?
‘ इन
जानकारियों को ज्ञान में बदलो। सिर्फ जानकारियाँ तो उधार जैसी होती हैं, ज्ञान
अपना। ’-कहते हुए बाबा उठ खड़े हुए- ‘ आओ,चलो तुम्हें पहले कालीगोह ले चलता हूँ।’
क्रमशः....
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