बाबाउपद्रवीनाथ का चिट्ठाःतन्त्रयोगसाधना

गतांश से आगे...सोलहवां भाग
वृद्धबाबा जरा ठहर कर फिर बोले- अभी तुम प्रयाग के भारद्वाज आश्रम की बात कर रहे थे। वहां हुयी अनुभूतियों पर कुछ सवाल उमड़-घुमड़ रहे हैं तुम्हारे मन में। प्रसंगवश पहले उन दिव्य महानुभाव भारद्वाज के बारे में ही कुछ जान लो। फिर अवसर पर कभी अष्टांगयोग पर बातें होंगी,क्यों कि अभी ये तुम्हारी जिज्ञासा में भी नहीं है,और प्रश्न जब तक अपना नहीं होता,तब तक दिया गया उत्तर भी व्यर्थ हो जाता है। इसका बड़ा ही अद्भुत प्रयोग किया है श्रीकृष्ण ने अपने सखा अर्जुन के जिज्ञासाओं के शमन में। इस रहस्य को समझे बिना ही लोग आक्षेप लगा देते हैं कि युद्ध जैसे विकट अवसर पर गीता जैसे दिव्य ज्ञान का क्या औचित्य! अरे भाई दवा तो बीमार को ही खिलायी जायेगी न ! अर्जन का दुर्बल चित्त बीमार हुआ कुरुक्षेत्र में,तो फिर उसे उसका उपचार हस्तिनापुर में कैसे किया जाता? -प्रश्नात्मक सिर हिलाते हुए बृद्धमहाराज ने कहा,और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये पुनः कहने लगे-  हमारे आर्यावर्त में एक से एक विभूति हुए हैं,जिनका चिर ऋणि रहेगा समस्त मानव समाज; जिन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया मानव-कल्याण हेतु। ऋषि भारद्वाज के जन्म और लालन-पालन के विषय में भी बड़ा ही रोचक और विडम्बना पूर्ण प्रसंग है। ये उतथ्य ऋषि के क्षेत्रज सन्तान कहे गये हैं, जब कि देवगुरु बृहस्पति के औरस पुत्र हैं।
            वृद्धबाबा की बातों पर बीच में ही टोकती हुयी, गायत्री ने जिज्ञासा व्यक्त की-  ‘  ये औरस,क्षेत्रज क्या होता है महाराज?’
            उन्होंने स्पष्ट किया- सन्तान के कई प्रकार कहे गये हैं। अपनी विवाहिता पत्नी से उत्पन्न सन्तान सर्वोत्तम कोटि की होती है। सन्तानोत्पत्ति हेतु जिस पुरुष का वीर्य उपयोग होता है,उस पुरुष के लिए उसका औरस पुत्र कहलायेगा। किन्तु निज विवाहिता स्त्री के गर्भ में कोई अन्य पुरुष अपना वीर्य स्थापित कर दे, तो इस प्रकार उत्पन्न सन्तान उसके लिए क्षेत्रज कही जायेगी। यानी की क्षेत्र तो अपना ही हुआ, पर बीज किसी और का। क्षेत्र और बीज दोनों ही किसी अन्य के ही हों,और लालन-पालन हेतु किसी और ने ग्रहण कर लिया हो,तो वह सन्तान उस ग्रहीता दम्पति के लिए दत्तक पुत्र कहलायेगा। महर्षि भारद्वाज की माता (जननी) ममता थी, जो ऋषि उतथ्य की पत्नी थी, और गर्भ में वीर्य स्थापित हुआ बृहस्पति का। परिणामतः लोकभय या जो भी कारण रहा हो,ममता ने उसका परित्याग कर दिया। उधर वपनकर्ता बृहस्पति भी ग्रहण करने से अस्वीकर कर दिये। पालन-कार्य हुआ किसी और के द्वारा। माता ममता और पिता बृहस्पति दोनों द्वारा परित्याग कर दिए जाने पर मरुद्गणों ने इनका पालन किया,और तब इनका एक नाम पड़ा-वितथ। सौभाग्य कहो या कि दुर्भाग्य,कालान्तर में,जब राजा दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र सम्राट भरत का वंश डूबने लगा, तो उन्होंने पुत्र-प्राप्ति हेतु मरुत्सोम नामक यज्ञ किया। यज्ञ से प्रसन्न होकर मरुद्गणों ने अपने द्वारा पालित पुत्र वितथ को उपहार स्वरूप, शकुन्तलानन्दन भरत को समर्पित कर दिया। भरत का दत्तक-पुत्र बनने पर ये ब्राह्मण से क्षत्रिय हो गए,और नाम पड़ गया भरद्वाज। मूलतः ब्राह्मण होने के कारण आचार-विचार-व्यवहार तो वही रहेगा न ! राजकीय परिवेश इन्हें रास न आया,फलतः हस्तिनापुर का लगभग परित्याग कर,व्रज-क्षेत्र स्थित गोवर्द्धन पर्वत को अपना निवास बनाया, जहां इन्होंने काफी संख्या में वृक्ष लगाए। ध्यान देने की बात है कि ये उस जमाने का प्रसंग है,जब ‘ब्रज’ ब्रज के रुप में प्रतिष्ठित नहीं हुआ था,और न गोवर्द्धन ही गोवर्द्धित था।
         ये सब तो सत्युग का प्रसंग है न महाराज?- मैंने जिज्ञासा व्यक्त की।
         सिर हिलाते हुए वृद्धबाबा ने कहा-  हाँ। उसी समय का प्रसंग है। महर्षि भारद्वाज आंगिरस की पन्द्रह शाखाओं में से एक शाखा के प्रवर्तक तथा मंत्रदृष्टा ऋषि भी हैं। इन्हें आयुर्वेद शास्त्र का प्रवर्तक भी कहा गया है। इन्होंने आयुर्वेद को आठ भागों में विभाजित और व्यवस्थित किया,जिसे अष्टांग आयुर्वेद के नाम से जाना जाता है। प्राय: सभी आयुर्वेदज्ञ सुपरिचित हैं इस बात से। महर्षि ने इस अष्टांग आयुर्वेद का ज्ञान अपने शिष्यों को प्रदान किया। स्वयं,आयुर्वेद की शिक्षा इन्होंने इन्द्र से ली थी। वायुपुराण,हरिवंश,भावप्रकाश आदि के अध्ययन से इन बातों की जानकारी मिलती है। काशिराज दिवोदास और धनवन्तरि इन्हीं के शिष्य थे। भारद्वाज ऋषि काशीराज दिवोदास के पुरोहित भी रह चुके हैं। इतना ही नहीं, महर्षि भारद्वाज ने सामगान को देवताओं से प्राप्त किया था। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में कहा गया है- यों तो समस्त ऋषियों ने ही यज्ञ का परम गुह्य ज्ञान जो बुद्धि की गुफा में गुप्त था,उसे जाना,परन्तु भारद्वाज ऋषि ने स्वर्गलोक के धाता, सविता, विष्णु और अग्नि देवता से ही बृहत्साम का ज्ञान प्राप्त किया था। राष्ट्र को समृद्ध और दृढ़ बनाने के लिए भारद्वाज ने राजा प्रतर्दन से यज्ञानुष्ठान कराया था, जिससे प्रतर्दन का खोया राष्ट्र उन्हें मिला था। इन्हें उत्तम कोटि का वैज्ञानिक कहने में भी जरा भी संकोच नहीं। रत्नप्रदीपिकाम् नामक प्राचीन संस्कृत ग्रंथ में वर्णन है भारद्वाज ने प्राकृतिक हीरे और कृत्रिम हीरे के संघटन को विस्तार से बताया है।  ध्यातव्य है कि पचास के दशक के अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी द्वारा पहले कृत्रिम हीरे के निर्माण से भी लाखों वर्ष पूर्व मुनिवर भारद्वाज ने कृत्रिम हीरा के निर्माण की विधि बतलाई थी। इस प्रकार स्पष्ट है कि वे रत्नों के पारखी ही नहीं, प्रत्युत, रत्नों की निर्माण-विधि के पूर्ण ज्ञाता भी थे। तुम नयी पीढी वालों को तो यह सुन कर आश्चर्य होगा कि ऋषि  भारद्वाज एक अद्भुत विलक्षण प्रतिभा-संपन्न विमान-शास्त्री भी थे। सच पूछो तो विमानन तकनीक का इन्हें अन्वेषक कहना चाहिए। इनके द्वारा वर्णित,प्रायोगित विमान-सिद्धान्त अद्भुत हैं।
मैं चौंका- क्या कहा आपने,दुनिया तो जानती और मानती है कि विमान के आविष्कारक राइटबन्धु थे?
नहीं,बिलकुल नहीं।”-एक साथ दोनों बाबाओं ने नकारात्मक सिर हिलाया। बृद्ध बाबा ने आगे बतलाया -  “ आर्यावर्त की बहुत सी चीजें यहाँ से बाहर जाकर,या ले जायी जाकर प्रसिद्ध हुई हैं। किन्तु दुःख इस बात का है कि उनके अन्वेषकों का नाम भी वहीं वालों का हो गया है। विमानन,विद्युत आदि भी इसी में एक है। आज बैट्रीसेल के विविध रुपों को दुनिया अपनाये हुए है,जो भारतीय मनीषी अगस्त का आविष्कार है। महर्षि भारद्वाज ने ही अगस्त्य के समय के विद्युत ज्ञान को विकसित किया था। इस सम्बन्ध में एक रोचक जानकारी दे रहा हूँ- महर्षि भारद्वाज द्वारा वर्णित विमानों में से एक है- मरुत्सखा विमान सिद्धान्त, जिसके आधार पर १८९५ ई. में मुम्बई स्कूल ऑफ आर्ट्स के अध्यापक शिवकर बापूजी तलपड़े, जो एक महान वैदिक विद्वान थे,ने अपनी पत्नी,जो स्वयं भी संस्कृत की विदुषी थीं, की सहायता से विमान का एक नमूना तैयार किया था। दुर्भाग्यवश इसी बीच तलपड़े की विदुषी जीवनसंगिनी का देहावसान हो गया। फलत: वे इस दिशा में और आगे न बढ़ सके। १७ सितंबर १९१७ ई. को उनका स्वर्गवास हो जाने के बाद उस मॉडल विमान तथा अन्य सामग्रियों को उनके उत्तराधिकारियों ने एक ब्रिटिश फर्म- राइटब्रदर्स के हाथों बेच दिया था। आगे चलकर उन बन्धुओं ने ही विमानन-विद्या पर अपना ठप्पा लगा दिया। महाराष्ट्र के सरकारी संग्रहालय में इस
सम्बन्ध में काफी सूचनाएँ हैं...।
“…ऋग्वेद के मंत्रों की शाब्दिक रचना जिन ऋषि समूहों द्वारा हुई है, उनमें भी भारद्वाज का स्थान है। ये छठे मण्डल के ऋषि के रूप में ख्यात हैं। इनके नाम से भारद्वाज गोत्र भी प्रचलित है। अन्तरराष्ट्रीय संस्कृत शोध मंडल ने प्राचीन पाण्डुलिपियों की खोज का विशेष प्रयास किया,जिसके परिणाम स्वरूप जो ग्रंथ मिले, उनके आधार पर भारद्वाज का विमान-प्रकरण प्रकाश में आया। महर्षि भारद्वाज रचित यंत्रसर्वस्वम् के विमान-प्रकरण की यती बोधायनकृत वृत्ति (व्याख्या) सहित पाण्डुलिपि मिली है, जिसमें प्राचीन विमान-विद्या सम्बन्धी अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा चमत्कारिक तथ्य उद्घाटित हुए हैं। सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली द्वारा इस विमान-प्रकरण का स्वामी ब्रह्ममुनि परिव्राजक की हिन्दी टीका सहित सम्पादित संस्करण वृहत विमान शास्त्र के नाम से १९५८ ई. में प्रकाशित हुआ है,जो दो अंशों में प्राप्त है। इसके कुछ अंश बड़ौदा,गुजरात के राजकीय पुस्तकालय की पाण्डुलिपियों में मिले,जिसे वैदिक शोध-छात्र प्रियरत्नआर्य ने विमान-शास्त्रम् नाम से वेदानुसंधान सदन, हरिद्वार से प्रकाशित कराया। बाद में कुछ और महत्वपूर्ण अंश मैसूर राजकीय पुस्तकालय की पाण्डुलिपियों से प्राप्त हुए। इस ग्रंथ के प्रकाशन से भारत की प्राचीन विमान-विद्या सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण तथा आश्चर्यजनक तथ्यों का पता चला। भारद्वाज प्रणीत यंत्रसर्वस्वम् ग्रंथ तत्कालीन प्रचलित सूत्र शैली में लिखा गया है। इसके वृत्तिकार यतिबोधायन ने अपनी व्याख्या में स्पष्ट लिखा है कि- महर्षि भारद्वाज ने वेदरूपी समुद्र-मन्थन करके, मनुष्यों को अभीष्ट फलप्रद यंत्रसर्वस्वम् ग्रंथरूप नवनीत (मक्खन) प्रदान किया। 'यंत्रसर्वस्वम् में स्पष्ट है विमान बनाने और उड़ाने की कला यानी सम्पूर्ण वैमानिकी-प्रकरण की रचना वेदमंत्रों के आधार पर ही की गई है। विमान की तत्कालीन प्रचलित परिभाषाओं का उल्लेख करते हुए महर्षि भारद्वाज कहते हैं कि वेगसाम्याद् विमानोण्डजजानामितिं  अर्थात् आकाश में पक्षियों के वेग सी जिसकी क्षमता हो, वह विमान कहलाता है। वैमानिक प्रकरण में आठ अध्याय हैं, जो एक सौ अधिकरणों में विभक्त और पांच सौ सूत्रों में निबद्ध हैं। इस प्रकरण में बतलाया गया है कि विमान के रहस्यों का ज्ञाता ही उसे चलाने का
अधिकारी है। इन रहस्यों की संख्या बत्तीस है। यथा- विमान बनाना,उसे आकाश में
ले जाना,आगे बढ़ाना, टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना या चक्कर लगाना,वेग को कम या अधिक करना, लंघन(लांघना),सर्पगमन, चपल, परशब्दग्राहक, रूपाकर्षण,क्रिया- रहस्य-ग्रहण, शब्दप्रसारण, दिक्प्रदर्शन इत्यादि । रहस्यलहरी  नामक ग्रंथ में विमानों के इन रहस्यों का विस्तृत वर्णन है।
वृद्धबाबा की बातें अति रहस्यपूर्ण और ज्ञानवर्धक थी। हमदोनों तन्मयता पूर्वक सुन रहे थे। मैंने करवद्ध आग्रह किया कि बाबा इसे और भी विस्तार से बतलावें ।
वृद्धबाबा ने कहा - विस्तार से ही तो बता रहा हूँ। ये विमान मुख्य रुप से तीन प्रकार के होते हैं   १) मान्त्रिक यानि मंत्र-चालित, जिसे दिव्य विमान भी कहा जाता है। २) तांत्रिक यानि विविध औषधियों तथा शक्तिमय वस्तुओं से संचालित तथा ३) कृतक यानी यन्त्र-चालित...  
“…यन्त्रसर्वस्वम् में ही अन्य प्रसंग में उक्त तीन के ही उपप्रकारों की भी चर्चा है। मान्त्रिक विमान का चलन त्रेतायुग तक रहा है। धनाध्यक्ष कुबेर का पुष्पक नामक विमान, जिसे लंकापति रावण ने हर लिया था,एक मान्त्रिक विमान ही था। इसकी कई विशेषताओं में एक यह भी था कि कितने हूं लोग बैठ जायें,एक स्थान रिक्त ही रह जाता था। यानी स्थान-विस्तार-गुण-युक्त था। लंका-विजयोपरान्त श्रीराम जानकी सहित उसी विमान से अयोध्या लौटे थे। रास्ते में उन्होनें महर्षि भारद्वाज का दर्शन भी किया था। अयोध्या पहुंचने के पश्चात् उस मन्त्र-चालित पुष्पक विमान को आदेश देकर मूल स्वामी कुबेर के पास भेज दिया था। इससे प्रमाणित होता है कि विमान को बिना चालक के भी संचालित किया जा सकता है। आजकल दूरस्थ नियन्त्रण-व्यवस्था(रिमोट-कन्ट्रोल) से विविध यानों को संचालित किया जा रहा है,यह कोई नयी खोज नहीं है,बल्कि हमारे महर्षि की ही देन है। वाल्मीकि रामायण में भी इसकी विशद चर्चा है। दूसरे शब्दों में कहें कि तान्त्रिक विमानों का उपप्रकार छप्पन कहा गया है। इस प्रकार के विमानों का चलन श्रीकृष्ण के द्वापर युग तक रहा है। तृतीय श्रेणी का कृतक विमान भी पच्चीस उपप्रकारों वाला होता है। जिन सिद्धान्तों का वर्णन महर्षि ने किया है,उनमें अभी भी बहुत से ऐसे हैं,जिनकी मानसिक कल्पना भी आधुनिक वैज्ञानिकों के लिए कठिन सा है। वर्तमान समय के जेट,हेलिकॉप्टर,रडार और सुडार के पकड़ से बाहर के विविध आकाशीय और जलीययानों की चर्चा मिलती है उनके ग्रन्थों में। भूतयान का प्रसंग मिलता है,जिसे अल्पज्ञ लोग भूतों द्वारा चालित समझ लेते हैं,जब कि यहां भूत शब्द का अर्थ ही भिन्न है- वस्तुतः ये आकाशादि पंचमहाभूत हैं, न कि भूत-प्रेत। यानी कि जल से,वायु से,धुए से,आग्नेय ऊर्जा आदि से वे चालित होते थे। एक विशेष प्रकार के यान की भी चर्चा है जो जल,स्थल और वायु में समान रुप से गतिशील हो सकता है। आधुनिक आविष्कार का होवरक्राफ्ट भी उसी सोच पर आधारित प्रतीत होता है। महर्षि के सूत्रों की व्याख्या करते हुए यति बोधायन ने आठ प्रकार के विमान बतलाए हैं-१. शक्तियुद्गम - बिजली से चलने वाला, २.भूतवाह - अग्नि, जल और वायु से चलने वाला,३.धूमयान - गैस से चलने वाला, ४.शिखोद्गम - तेल से चलने वाला,५.अंशुवाह - सूर्यरश्मियों से चलने वाला, ६.तारामुख यानी चुम्बकीय शक्ति से चलने वाला,७.मणिवाह - चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त आदि मणियों की शक्ति से  चलने वाला,तथा ८.मरुत्सखा यानी वायु से चलने वाला। महर्षि रचित एक अन्य पुस्तक- अंशुबोधिनी भी है,जिसमें अन्य विविध विद्याओं की चर्चा है। इस प्रकार हम पाते हैं कि महर्षि भारद्वाज का अद्भुत योगदान रहा है प्राचीन विज्ञान में।  
बातें अभी और भी होती,क्योंकि बृद्धबाबा भावमय होकर महर्षि चरित
का गुणगान कर रहे थे, किन्तु उपेन्द्र बाबा ने बीच में ही टोका- तब, अभी और
भारद्वाज चरित ही सुनने का विचार है या कि कंकालकाली का दर्शन भी करोगे?
बाबा के टोकने पर,मेरा ध्यान घड़ी पर गया- रात के ग्यारह बजने ही वाले थे। ज्ञानवर्धक विषयवस्तु से तृप्ति तो नहीं हुई थी,किन्तु कंकालकाली के आकर्षण को भी नकारा नहीं जा सकता। काश छुट्टी थोड़ी लम्बी ली होती... – बुदबुदाते हुए उठ खड़ा हुआ।
तारा मन्दिर से बाहर आते ही ऑटो मिल गया। उपेन्द्र बाबा ने उसे हितायत दे दी कि विरोही में घंटे भर करीब रुकना है हमलोगों को। इस बीच या तो वह वहीं रुका रहे,या पुनः घंटे भर बाद आ जाये लेने के लिए। क्यों कि उन्हें पता था कि विरत रात में उधर से वापस आने के लिए कोई साधन मिलना कठिन है।
कोई आधे घंटे बाद हमलोग विरोही पहुंच गये। संयोग से टेम्पो वाला वहीं
पास का ही रहने वाला था,अतः कोई परेशानी की बात नहीं थी,न उसके लिए और न हमलोगों के लिए। स्टेशन पर हमलोगों को छोडकर वह अपने आवास पर चला गया, और हमलोग कालीमन्दिर की ओर रुख किये।
विरोही गांव के लगभग बीच में एक विशाल वटवृक्ष के नीचे ऊँचे चबूतरे पर बना हुआ छोटा सा मन्दिर- आसपास की स्थिति से ही लग रहा था कि यह स्थान उपेक्षित सा है। कोई आता-जाता भी बहुत कम ही है। मन्दिर के दायीं ओर यानी दक्षिण की ओर एक विशाल कुआँ भी है,जिसमें जल तो है,पर बिलकुल अनुपयोगी- कुछ कूड़े-कचरे भी पड़े हुए। कुएँ का जगत टूटा-फूटा,गन्दा-सन्दा। आसपास कुछ खूँटे गड़े हुए- मवेशियों को बाँधने हेतु,किन्तु शायद रात का वक्त होने के कारण कोई मवेशी वहाँ वँधा हुआ नहीं दिखा। गाँव के आवारा कुत्ते भों-भों करते हुए, ग्रामवासियों को हमारे प्रवेश की सूचना देकर,अपना कर्त्तव्य पूरा कर रहे थे। एक बूढा-सा श्वान ऊँचे चबूतरे पर विराज रहा था,आवारा कुत्तों के मुखिया की तरह। ज्यों ही हमलोग चबूतरे पर चढ़ने के लिए आगे बढ़े,वह जोरों से गुर्राया। बाबा ने हाथ से संकेत करते हुए उसे शान्त रहने को कहा। मानों उनकी भाषा और भाव को भाँप गया हो, स्वामीभक्त सेवक-सा आकर पैरों में लोटकर,दुम हिलाने लगा। बाबा ने अपनी झोली से निकाल कर कुछ खाद्य-पदार्थ उसे अर्पित करते हुए बोले- ये महाभैरव के साक्षात् वाहन हैं। इनकी सेवा किये वगैर किसी की मजाल नहीं जो इस मन्दिर में प्रवेश पा जाये।
मन्दिर का आकार बिलकुल ही छोटा था - न सभामंडप,न परिक्रमा-पथ। या तो ये बनाये ही नहीं गये होंगे, या कालान्तर में नष्ट हो गये होंगे; किन्तु कुछ भी अवशेष दिख न रहा था। आधुनिक शैली का लोहे का ग्रील लगा था,जिसमें कुंडे की भी सही व्यवस्था न थी। बगल में एक जीर्ण-शीर्ण कोठरी नजर आयी। शायद किसी जमाने में पुजारी या किसी साधक का स्थल रहा हो।
ग्रील खोल कर बाबा अन्दर घुसे। उनके साथ ही हमदोनों भी प्रवेश किये। भक्तों ने इतनी कृपा अवश्य की थी कि मन्दिर के भीतर बिजली का एक बल्व लटका दिया था। उधर कुएँ के पास लकड़ी के पुराने खम्भे पर भी एक लट्टू टिमटिमाता हुआ अपने अस्तित्व की गुहार लगा रहा था,जिसकी वजह से कुएँ के पास हल्की रौशनी हो रही थी। मन्दिर के भीतर बिलकुल साफ-सुथरा था। लगता है किसी भक्त ने रात्रि काल में ही आरती-वन्दना की थी, कारण की देवदार-अगरु-गुगुल-धूने का परिमल मन्दिर के भीतरी वातावरण में अभी भी व्याप्त था।
कोई चार-साढ़े चार फीट की, शवारुढ़ा मूर्ति काले पत्थर की बनी हुई-
हाथ भर ऊँचे चबूतरे पर विराज रही थी। जीवन में अनेक मूर्तियाँ देखी है मैंने, किन्तु इस तरह का मूर्ति-दर्शन-सौभाग्य नहीं मिला था। आकृति पर विशेष ध्यान देने पर ही,खास कर मुण्डमाला धारिणी,और शवारुढा होने के कारण ही दावे के साथ कहा जा सकता था कि मूर्ति निश्चय ही काली की है,जो कंकाल मात्र हैं- एक-एक हड्डियां सहजता से गिनी जा सकती थी। गले में पड़ी आपादकण्ठ मुण्डमाल भी कंकालवत् ही था। कोटरनुमा आँखें बड़ी भयावह लग रही थी,जो आकार में भी अपेक्षाकृत काफी बड़ी प्रतीत हुई।
बाबा के इशारे पर हम तीनों वहीं बैठ गये। बाबा ने हमें सावधान करते हुए कहा- अन्य मन्दिरों की भाँति यहाँ तुमलोगों को ध्यानस्थ होने नहीं कहूँगा,किन्तु सजग-चैतन्य अवश्य रहना। मैं अभी कुछ क्रिया सम्पन्न कर रहा हूँ। इसके पश्चात् जो कुछ दृश्य दिखे,उससे जरा भी घबराना नहीं।
उक्त निर्देश देकर,बाबा वीरासन-मुद्रा में बैठ गये,और किसी स्तोत्र का पाठ करने लगे। स्तोत्र की वाणी तो वैखरी ही थी,किन्तु कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। एक भी शब्द पल्ले नहीं पड़ रहा था।
थोड़ी देर बाद स्तोत्र पाठ समाप्त हो गया। बाबा ने अपनी झोली से काले खड़े उड़द के कुछ दाने निकाले,साथ ही सरसों के आकार का कुछ और भी अनजान दाना - बिलकुल सफेद-सा। क्या यह ‘श्वेत सर्सप’ है- मेरे मन में प्रश्न उठा,और स्वयं ही उत्तर भी मिला- हाँ,निश्चित ही। इस प्रजाति के बारे में सिर्फ तन्त्र की किताबों में पढ़ा था,देखने का मौका आज ही मिला। उन्हें वहीं सामने जमीन पर रखने के बाद, घुंघची के लाल और श्वेत दाने भी निकालकर आसपास रख दिये,और चामुण्डा मन्त्र का सस्वर पाठ करने लगे।
कुछ पल बीते होंगे कि पीछे से जोरों की खड़खड़ाहट सुनायी पड़ी- ठीक वैसे ही जैसे कि कुएँ में ‘रहट’ चलने की होती है।। बैठते वक्त ही बाबा ने हिदायत कर दिया था कि मूर्ति के ठीक सामने से जरा हट कर ही बैठना चाहिए यहाँ- बायीं या दायीं ओर। हमदोनों बायीं ओर बैठे थे,और बाबा दायीं ओर। बीच में- द्वार के सीध वाला स्थान रिक्त था।
खड़खडाहट की आवाज पर,गर्दन हठात् पीछे घूम गया- आवाज की वजह जानने को; किन्तु जो भी नजर आया उसे देखते ही रोंगटे खड़े हो गये। बाबा का संरक्षण,और न घबराने का आश्वासन न रहता यदि, तो शायद चीख उठता। मैंने देखा - ताजे लहू से लथपथ एक नरमुण्ड स्वतः सरकते हुए मन्दिर का चौखट लाँघ रहा है,और अकेला नहीं,उसके पीछे और भी नरमुण्ड, उसी अवस्था में सरकते चले
आ रहे हैं।
चौखट लाँघकर, नरमुण्ड सीधे मूर्ति के ग्रीवा तक सरकते हुए पहुँच कर थिर हो गया। उसके ठीक नीचे दूसरा नरमुंड भी स्थित हो गया,और देखते ही देखते नरमुण्डों की माला तैयार हो गयी काली के गले में। इतना ही नहीं, काली की मूर्ति भी अन्य मूर्तियों की भाँति परिपुष्ट- मांसल प्रतीत होने लगी। आँखों से अद्भुत तेज निकलने लगा, जिह्वा लपलपा रही थी। कटार भी गतिशील था। ऐसा प्रतीत हो रहा था,मानों मूर्ति नहीं साक्षात् काली विराज रही हों।
मेरा शरीर पसीने से लथपथ हो गया था। लाख सम्भालने पर भी जूड़ीताप के मरीज की तरह वदन काँप रहा था। गायत्री की भी लगभग यही दशा थी।
बाबा ने कठोरता पूर्वक कहा – डरो नहीं। घबराओ नहीं जरा भी। कालीकर्पूरस्तोत्र का पाठ प्रारम्भ करो। एक मात्र यही उपाय है - इस स्थान पर। भय-मुक्त होकर, मातेश्वरी की कृपा प्राप्त करो। इस अवस्था का दिव्यदर्शन बहुत ही सौभाग्य से प्राप्त होता है। तुमलोगों पर वृद्धबाबा की महती कृपा है,जो यहाँ तक आने को प्रेरित किये हैं, अन्यथा यहाँ आता कौन है,और आता भी है यदि, तो पाता कहाँ कुछ है ! स्थान की वीरानगी देख वापस चला जाता है।
संयोग से मुझे कालीकर्पूरस्तोत्र याद है। किसी जमाने में एक शुभेच्छु विप्र ने यह कह कर इसका नियमित पाठ करने का सुझाव दिया था कि इससे जीवन की अति अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति कदापि बाधित नहीं होगी- अतिअनिवार्य; और तब से लगभग साधे हुए था,मगर सिर्फ तोतारट। इसके गूढ़ रहस्यों पर न ध्यान गया था और न जिज्ञासा ही उठी थी ; किन्तु आज इस महाभैरवी के समक्ष बाबा ने ज्यों ही आदेश दिया पाठ का,त्यों ही एक अजीब झटका- सा लगा, और पूरा शरीर जो पहले ही कम्पायमान था,और भी कांप उठा, साथ ही अभिज्ञानित हो उठा – कालीकर्पूर के तार-तार खुलने लगे। जिन क्लिष्ट और दुरुह शब्दों का गूढ़ार्थ किसी कोष में भी न   मिला था, स्वतःस्पष्ट होने लगा। अब भला ‘तल्प’ का अर्थ आसन,‘पलल’ का अर्थ मांस-कौन बताता ? सच्चे गुरु-मार्गदर्शक बहुत ही भाग्यवानों को लब्ध होते हैं।
क्षण भर में ही काय-कम्प थमने लगा । गायत्री मेरे साथ स्वर में स्वर मिलाने लगी   कर्पूरं मध्यमान्त्यस्वरपररहितं सेन्दु वामाक्षियुक्तं, बीजं ते मातरेतत् त्रिपुरहरवधु त्रिः कृतं ये जपन्ति । तेषां गद्यानि पद्यानि च मुखकुहरादुल्लसन्त्येव वाचः,स्वच्छन्दं ध्वान्तधाराधररुचिरुचिरे सर्वसिद्धिं गतानाम् ।।१।।ईशानः सेन्दुवामश्रवणपरिगतो बीजमन्यन्महेशि, द्वन्द्वंते मन्दचेता यदि जपति जनो वारमेकं कदाचित् । जित्वा वाचामधीशं धनदमपि चिरं मोहयन्नम्बुजाक्षी वृन्दं चन्द्रार्धचूडे प्रभवति स महाघोरशावावतंसे ।।२।। ईशौ वैश्वानरस्थः शशधरविलसद्वामनेत्रेण युक्तो, बीजं ते द्वन्द्वमन्यद्विगलितचिकुरे कालिके ये जपन्ति । द्वेष्टारं घ्नन्ति ते च त्रिभुवनमभितो वश्यभावं नयन्ति,सृक्कद्वन्द्वास्रधाराद्वयधरवदने दक्षिणे कालिकेति ।।३।।  ऊर्ध्वं वामे कृपाणं करकमलतले छिन्नमुण्डं ततोऽधः,सव्येऽभीतिं वरं च त्रिजगदघहरे दक्षिणे कालिके च । जप्त्वैतन्नाम ये वा तव विमलतनुं भावयन्त्येतदम्ब,तेषामष्टौ करस्थाः प्रकटितरदने सिद्धयस्त्र्यम्बकस्य ।।४।। वर्गाद्यं वह्निसंस्थं विधुररतिवलितं तत्त्र्ययं कूर्चयुग्मं,लज्जा द्वन्द्वं च पश्चात् स्मितमुखि तदधष्ठद्वयं योजयित्वा । मातर्ये वा जपन्ति स्मरहरमहिले भावयन्तः स्वरुपं, ते लक्ष्मीलास्यलीलाकमलदलदृशः कामरुपा भवन्ति ।।५।। प्रत्येकं वा द्वयं वा त्रयमपि च परं बीजमत्यन्तगुह्यं ,त्वन्नाम्ना योजतित्वा सकलमपि सदा भावयन्तो जपन्ति । तेषां नेत्रारविन्दे विहरति कमलावक्त्रशुभ्रांशुविम्बे,वाग्देवी देवि मुण्डस्रगतिशयलसत्कण्ठपीनस्तनाढ्ये ।।६।। गतासूनां वाहुप्रकरकृतकाञ्चीपरलसन्नितम्बां दिग्वस्त्रां त्रिभुवनविधात्रीं त्रिनयनाम् ।
श्मशानस्थे तल्पे शवहृदि महाकालसुरत प्रसक्तां त्वां ध्यायन् जननि जडचेता अपि कविः ।।७।। शिवाभिर्घोराभिः शवनिवहमुण्डास्थिनिकरैः परं संकीर्णायां प्रकटितचितायां हरवधूम् । प्रविष्टां सन्तुष्टामुपरि सुरतेनातियुवतीं सदा त्वां ध्यायन्ति क्वचिदपि न तेषां परिभवः ।।८।। वदामस्ते किं वा जननि वयमुच्चैर्जडधियो न धाता नापीशो न हरिरपिन ते वेत्ति परमम् । तथाऽपि त्वद्भक्तिर्मुखरयति चास्माननमिते तदेतत् क्षन्तव्यं न खलु पशुरोषः समुचितः।।९।।
समन्तादापीनस्तनजघनदृग्यौवनवती रतासक्तो नक्तं यदि जपति भक्तस्तव मनुम् ।
विवासास्त्वां ध्यायन् गलितचिकुरस्तस्य वशगाः समस्ताः सिद्धौघा भुवि चिरतरं जीवति कविः।।१०।। समाः स्वस्थीभूतां जपति विपरीतां यदि सदा,विचिन्त्य त्वां ध्यायन्नतिशयमहाकालसुरताम् । तदा तस्य क्षोणीतलविहरमाणस्य विदुषः कराम्भोजे वश्या हरवधु महासिद्धिनिवहाः ।।११।। प्रसूते संसारं जननि जगतीं पालयति वा समस्तं क्षित्यादि प्रलयसमये संहरति च । अतस्त्वां धाताऽपि त्रिभुवनपतिः श्रीपतिःरतिरपि महेशोऽपि प्रायः सकमपि किं स्तौति भवतीम् ।।१२।। अनेके सेवन्ते भवदधिकगीर्वाणनिवहान् विमूढास्ते मातः किमपि न हि जानन्ति परमम् । समाराध्यामाद्यां हरिहरविरञ्च्यादिविबुधै प्रपन्नोऽस्मि स्वैरं रतिरसमहानन्दनिरताम् ।।१३।।  धरित्री कीलालं शुचिरपि समीरोऽपि गगनं त्वमेका कल्याणी गिरिशरमणी कालि सकलम् । स्तुतिः का ते मातस्तव करुणया मामगतिकं प्रसन्ना त्वं भूया भवमननुभूयान्मम जनुः ।।१४।। श्मशानस्थः स्वस्थो गलितचिकुरो दिक्पटधरः सहस्रं त्वर्काणां निजगलितवीर्येण कुसुमम् । जपंस्तत् प्रत्येकं मनुमपि तव ध्याननिरतो महाकालि स्वैरं स भवति धरित्रीपरिवृढः ।।१५।।
गृहे सम्मार्जन्या परिगलितवीर्यं हि चिकुरं समूलं मध्याह्ने वितरति चितायां कुजदिने । समुच्चार्य प्रेम्णा मनुमपि सकृत् कालि सततं गजारुढो याति क्षितिपरिवृढः सत्कविवरः ।।१६।। सुपुष्पैराकीर्णं कुसुमधनुषो मन्दिरमहो पुरो ध्यायन् ध्यायन् जपति यदि भक्तस्तव मनुम् ।  स गन्धर्वश्रेणीपतिरिव कवित्वामृतनदी नदीनः पर्यन्ते परमपदलीनः प्रभवति ।।१७।। त्रिपञ्चारे पीठे शवशिवहृदि स्मेरवदनां महाकालेनोच्चैर्मदनरसलावण्यनिरताम् । समासक्तो नक्तं स्वयमपि रतानन्दनिरतो जनो यो ध्यायेत्त्वामपि जननि स स्यात् स्मरहरः ।।१८।। सलोमास्थि स्वैरं पललमपि मार्जारमसिते परं मैषं वौष्ट्रं नरमहिषयोश्छागमपि वा । वलिं ते पूजायामपि वितरतां मर्त्त्यवसतां सतां सिद्धिः सर्वा प्रतिपदमपूर्वा प्रभवति ।।१९।।
वशी लक्षं मन्त्रं प्रजपति हविष्याशनरतो दिवा मातर्युष्मच्चरणकमलध्याननिरतः ।
परं नक्तं नग्नो निधुवनविनोदेन च मनुं जपेल्लक्षं सम्यक् स्मरहरसमानः क्षितितले ।।२०।। इदं स्तोत्रं मातस्तव मनुसमुद्धारणमनु स्वरुपाख्यं पादाम्बुजयुगल- पूजाविधियुतम् । निशार्धे वा पूजा समयमधि वा यस्तु पठति प्रलापस्तस्यापि प्रसरति कवित्वामृतरसः ।।२१।। कुरङ्गाक्षीवृन्दं तमनुसरति प्रेमतरलं वशस्तस्य क्षोणीपतिरपि कुबेरप्रतिनिधिः । रिपुःकारागारं कलयति परं केलिकलया चिरं जीवन् मुक्तः स भवति च भक्तः प्रतिजनु ।।२२।।   
                       ।। ऊँ श्री कालीकर्पूरस्तोत्रंदेव्यार्पणमस्तु।।
स्तुति समाप्त होते-होते शरीर में अद्भुत स्फूर्ति का समावेश हो गया। शरीर इतना हल्का प्रतीत होने लगा,मानों हवा में उड़ चलूँ। माँ के वरद हस्त का स्पष्ट स्पर्श सिर पर अनुभव कर रहा था। साथ ही ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ऊँचे आकाश में कहीं प्रेंखादोला पर दोलायमान हो रहा हूँ। चारो ओर दिव्य परिमल सुवासित है। आँखें खोलने की इच्छा न हो रही थी, भय लग रहा था कि कहीं ये अनुभूति खो न जाये।
  बाबा ने पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- चलो, अब तो आँखें खोलो। स्तुति
पूरी हो गयी,और माँ ने स्वीकार भी कर लिया,तुमदोनों की प्रार्थना को। आज तुम
दोनों सच में धन्य हो गये,मेरे गुरुमहाराज का अतिशय अहैतुकी कृपा वर्षण होगया
तुमलोगों पर।
            आँखें खोलती हुई गायत्री ने कहा- ‘ धन्य तो अवश्य हो गयी,मातेश्वरी की कृपा से, किन्तु इसमें आपके गुरुमहाराज की कृपा... ?
            बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा- तो क्या समझती हो, मुस्कुराते हुये बाबा ने कहा-  ये सब दृश्य तुम मेरी वजह से देखने में सक्षम हुई ? कदापि नहीं । वृद्धमहाराज ने ही प्रेरित किया यहाँ आने को, और आगे की व्यवस्था भी सब उन्हीं की कृपा का परिणाम है। विन्ध्याचल तो हजारों-लाखों लोग आते हैं, किन्तु बहुत कम ही लोग ऐसे हैं,जो यहाँ के बारे में जानते हैं या यहाँ तक आ पाते हैं। और उन दर्शन-लब्ध व्यक्तियों को भी क्या इस दिव्यलीला का दर्शन-लाभ मिल पाता है! कदापि नहीं। यह तो कहो कि उन्होंने ही तुम्हें प्रेरित किया आने को,और मुझे इशारा किया कि तुमलोगों को मातेश्वरी के असली रुप का दर्शन कराने में सहयोगी बनूँ। सो मैंने उनके आदेश का पालन किया— मात्र निमित्त बनकर। सच पूछो तो यदि उनकी कृपा न हुई होती तो मुझमें भी इतनी क्षमता न थी,जो तुम्हें ये रुप दिखा सकता। ये कोई बाजीगरी थोड़े जो है।
            मैं अभी भी अभिभूत था,कालिका के दिव्य रुप का दर्शन करके। ऐसा लग रहा था,मानों नशा तो उतर गया,पर ‘खुमारी’ अभी गयी न हो। बाबा उठ खड़े हुए, और इशारा किये- यहाँ से बाहर चलने को। मैंने गौर किया- मन्दिर से बाहर निकलते समय वे मूर्ति की ओर मुँह किये,पीछे की ओर सरकते हुए निकल रहे थे, साथ ही इस बात का ध्यान भी रख रहे थे कि मार्ग में गिरे ताजे लहु पर कदाचित पाँव न पड़ जाएँ। आसपास की अधिकांश भूमि रक्त-रंजित थी। उनके देखादेखी, हमदोनों ने भी ऐसा ही किया।
            बाहर आकर बाबा पुनः रुक गये,और कोई मन्त्रोच्चारण करने लगे। इस बार का मन्त्र भी कुछ वैसा ही था,जिसके शब्द तो स्पष्ट सुनायी पड़ रहे थे,किन्तु अर्थ और भाव कुछ समझ न पा रहा था।
            मन्त्र पाठ समाप्त करके उन्होंने कहा- अब जरा इधर आ जाओ,कुएँ के समीप, और ध्यान उधर मन्दिर की ओर भी लगाये रखो।
              मैंने देखा- मन्दिर का चौखट लाँघता एक नरमुण्ड वापस आ रहा है,उसी
भाँति सरकता हुआ,और कुएँ के समीप आकर छलांग लगा गया,जैसे कोई आदमी आत्महत्या करने के लिए कुएँ में कूद रहा हो। कोई घड़ी भर लगे होंगे,सारा का सारा नरमुण्ड पूर्व की भाँति सरकता हुआ कुएँ के पास आया,और छलांग लगाता गया। कुएँ में गिरने से पहले प्रत्येक मुण्ड उछाले गये कन्दुक की तरह कोई दो हाथ भर ऊपर उठ रहा था, और झपाक से अन्दर जा पहुँचता था। दृश्य अत्यन्त कौतूहल पूर्ण रहा। मैं मन ही मन गिनती भी गिने जा रहा था- मुण्डों की संख्या पूरे एक माला के बराबर- एक सौ आठ थी। संख्या पूरी हो गयी,तब बाबा ने साष्टांग दण्डवत् किया भूमि पर लोट कर। हम दोनों ने भी उनका अनुपालन किया। आसपास की पूरी भूमि तो साफ थी,किन्तु कुएँ के जगत पर एक जगह थोड़ा का ताजा रक्त अभी भी नजर आ रहा था। आगे बढ़ कर बाबा ने उसे अपने अंगूठे में लगाया, और सीधे मेरे भ्रूमध्य में तिलक लगा दिया। फिर शेष बचे रक्त से अपनी मध्यमा को रंजित कर गायत्री के कण्ठ देश में लगा दिया। पुनः मध्यमा द्वारा ही स्वयं भी तिलक किया,और कहा- अब यहाँ से चलना चाहिए।
            मेरे मन में कुछ सवाल घुमड़ रहे थे,किन्तु मेरे कुछ पूछने से पहले गायत्री ने ही सवाल कर दिया- ‘ भैया ! ये कर्पूरस्तोत्र के बारे में कुछ कहो न । इनको बहुत पहले औरंगावाद,पंणरिया के शिवशंकर पंडितजी ने बतलाया था नियमित पाठ करने के लिए विशेष कर रात्रि में सोने से पहले। और यह भी कहा था कि इसे साध लो, बहुत ही उपयोगी चीज है। किन्तु जानते ही हो कि इनको इन सब चीजों में बहुत आस्था तो है नहीं। हर चीज को भ्रम और अविश्वास से मापते हैं। नतीजा ये हुआ कि कभी भी नियमितता बनी नहीं। उन्होंने लगातार,अवाधित रुप से पूरे एक वर्ष अवश्य साधने को कहा था। इनकी अनास्था देखकर,मैं ही साध ली। मेरा क्रम कभी टूटा नहीं,कुछखास पाँच दिनों को छोड़ कर। और इसी का सुफल मानती हूँ कि लाख परेशानी झेलते हुए भी ऐसा कभी नहीं हुआ कि नित्य के अत्यावश्यक खर्च में कोई दिक्कत हुई हो। किसी न किसी तरह गृहस्थी की गाड़ी चलती ही गयी; और अब तो तुम्हारी कृपा से...। ’
            बाबा ने बीच में ही टोका- मेरी कृपा-वृपा की बात न करो। मातेश्वरी की ही कृपा सर्वोपरि है। वही सृष्टि का सृजन करती है,वही संहार भी। उन्हीं की प्रेरणा से मैं मिला तुमलोगों को। उन्हीं की प्रेरणा से यहाँ तक आये भी तुमलोग; और आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आगे भी उनकी अहैतुकी कृपा मिलती रहेगी; वशर्ते कि मेरे बताये हुए मार्ग का अनुशरण करते रहो। विन्ध्याचल की इस यात्रा में बहुत कुछ देने-दिखाने, जताने का प्रयास किया है मैंने। आगे तुमलोग जानो और तुम्हारा काम जाने।
            बातें करते हुए हमलोग सड़क पर आ पहुँचे। लाइट-पोस्ट के नीचे ऑटो
वाला हमलोगों का इन्तजार कर रहा था।
तारा-मन्दिर पहुँचते-पहुँचते रात काफी बीत चुकी थी। करीब पौने दो बजने वाले थे। प्रवेश द्वार से भीतर आते ही वृद्धबाबा पर नजर पड़ी,वहीं वटवृक्ष तले, शिलापर विराज रहे थे,अकेले ही,मानों हमलोगों की प्रतीक्षा में ही हों। समीप आते ही बोले- आ गये तुमलोग,बड़ी देर लगा दी।
अभी और भी देर लग सकती थी,यदि इनलोगों के साथ प्रश्नोत्तर में उलझता।-मेरे कुछ कहने के पूर्व ही बाबा ने उत्तर दिया।
 प्रश्नोत्तर स्वाभाविक है,किन्तु यह तो यहाँ बैठ कर भी हो सकता है। अभी तुमलोगों के पास पूरे एक दिन का समय है। कल का व्यक्तिगत कार्यक्रम यथासम्भव समेट कर,बैठ जाना गुरुमहाराज की समाधि पर,जितनी देर बैठकी लगा सको। अधिकांश प्रश्नों का उत्तर स्वयंमेव मिल जायेगा। कुछ शेष रह जायेंगे,उनके लिए तो तुम्हारे उपेन्द्र बाबा ही पर्याप्त हैं।”—वृद्धबाबा ने कहा।
अब जाओ,विश्राम करो तुमलोग। कल सुबह वहीं गुरुमहाराज की समाधि पर मिलूँगा। व्यर्थ के सवालों से मस्तिष्क को बोझिल न बनाया करो। प्रायः उत्तर समय पर स्वतः मिल जाया करते हैं। कर्पूरस्तव के विषय में मैं स्वयं ही कुछ प्रकाश डालूँगा। इतने दिनों से निर्जीव सा उसे ढोते रही है गायत्री,अब सजीव होने का अवसर आ गया है।”-हमलोगों को निर्देश देकर,उपेन्द्र बाबा ने वृद्धबाबा से कहा-  तो अब चलें हमलोग भी अपने कार्य में।
दोनों बाबा चल दिये मन्दिर परिसर से बाहर की ओर। सम्भवतः उनके श्मशान-साधना का समय हो गया था। गायत्री के साथ मैं भी अपने कमरे में विश्राम के लिए चल दिया।
कमरे में आकर,विस्तर पर गिरते ही नींद के आगोश में डूब गया। और डूबा तो डूबा ही रहा गया। आदतन, रात में भी दो बार लघुशंका के लिये उठने की प्रवृति भी आज परेशान न की। सीधे सूर्योदय के कोई घड़ी भर बाद ही नींद खुली।
हड़बड़ा कर उठा। गायत्री अभी नींद में ही थी। उसे जगाया,और यथाशीघ्र नित्य क्रियादि से निवृत्त होने को कहा। कल की स्थिति देख कर,आज गंगातट पर जाने की इच्छा न हुई। सोचा तो था कि मुँहअन्धेर ही गायत्री के साथ जाकर डुबकी मार लूँगा, पर शायद गंगा को भी मंजूर न था । अतः मन्दिर-परिसर में ही कूप-
जल-स्नान करने को विवश हुआ।
कोई घंटे भर बाद तैयार हो कर गुरुबाबा की समाधि पर पहुँचा,तो दोनों बाबाओं को पहले से ही वहाँ उपस्थित पाया।
आ जाओ। तुमलोगों की ही प्रतीक्षा कर रहा था। ” - एकसाथ दोनों बाबाओं ने आहूत किया।
समाधि-परिसर के चौखटे को प्रणाम कर हमदोनों अन्दर आये। बाबा ने इशारा किया एक ओर बैठ जाने को। बैठ कर क्या करना है- इसका संकेत रात सोने से पहले ही मिल चुका था,अतः पुनः पूछने-कहने की गुंजाइश न थी।
घंटों बैठा रहा। गायत्री भी बैठी ही रही। उधर दोनों बाबा भी बैठे रहे। सब कुछ शान्त...शून्य...निःशब्द सा...। मैंने गौर किया- लम्बी बैठकी के बावजूद मन का उड़ान थमता नहीं था,साँसों पर चित्त को एकाग्र करने के लिए विज्ञानभैरवतन्त्रम् का पहला सूत्र जो संकेत देता है,उसका भी अभ्यास  कोई काम नहीं आया कभी। उब सी हो आती, और आँखें खोल,उठने को विवश हो जाता था –– अब से पूर्व; किन्तु आज ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। विन्ध्याचल आने के बाद से ही महसूस कर रहा हूँ कि इस महाविघ्न में निरन्तर सुधार होता प्रतीत हो रहा है। इसे बाबाओं का सानिध्य कहूँ, स्थान का प्रभाव कहूँ, क्षेत्रेशी की कृपा कहूँ या कि सबका मिला-जुला प्रभाव !
कोई दो घंटे व्यतीत हो गये- ये तो तब पता चला,जब उपेन्द्रबाबा ने आवाज लगायी। इस दीर्घकालान्तराल में क्या कुछ देखा-दिखा- कुछ भी कह नहीं सकता। साक्षी में कलाई घड़ी न होती तो कह सकता था कि कुछ मिनट ही तो गुजरे हैं। गायत्री की भी यही दशा थी,क्योंकि आँखें खुलने के बाद वह भी बार-बार घड़ी ही देख रही थी,साथ ही खुले आसमान को भी,जहाँ सूरज काफी ऊपर चढ आया था।
उपेन्द्र बाबा थोड़ा समीप आ जाने का संकेत करते हुए बोले-  कर्पूरस्तव का पाठ तो तुमलोग बहुत ही सुन्दर कर लेते हो। स्वरों के आरोह-अवरोह पर अच्छी पकड़ हो गयी है। इस उतार-चढ़ाव को समझने में तो अभ्यासियों को वर्षों लग जाते हैं। आज तुम्हें इसके कुछ रहस्यों का संकेत कर रहा हूँ। जैसा कि कल गायत्री ने कहा कि लम्बें समय से पाठ करती आ रही है,पड़रिया के पंडितजी के आदेशानुसार- एक खास उद्देश्य को लेकर; किन्तु जान रखो- ये वही हुआ, जैसा कि कहा जाता है- पारस पड़ा चमार घर,नित उठ कूटे चाम..। अब भला किसी चमार को पारस पत्थर मिल ही जाय तो वह मूढ़ क्या उपयोग करेगा? चाम ही तो कूंटेगा? आमजन भी यही करते हैं। सांसारिक लोगों को तो संसार ही चाहिए न- धन,सुख,समृद्धि...। पता नहीं उन्हें इसके सेवन से कितना क्या मिलता है...।
गायत्री ने बीच में ही टोका- ‘ नहीं भैया ! पाठ करने से नहीं कुछ मिलता है- ये मैं नहीं मान सकती,मुझे पूरी आस्था है,इस स्तोत्र पर। और आस्था भी निराधार नहीं है- बार-बार तो कहा गया है,स्तोत्र में ही- लक्ष्मी,सरस्वती, रुप, लावण्य...सबकुछ मिलेगा। सभी पुरुषार्थों की सिद्धि होगी।’
बाबा मुस्कुराये- ये तो प्रायः हर स्तोत्र के महात्म्य में कहा जाता है, क्योंकि सांसारिकों को संसार की वस्तुओं का प्रलोभन न दिया जाय,तो वे संसार से पार जाने की किसी बात को सुनने को भी राजी न हों। यही कारण है कि लाभ की बात पहले बता दी जाती है। किन्तु ,बात बनती नहीं। लोग यहीं के यहीं रुके रह जाते हैं। बच्चाक्लास में स्लेट-पेन्सिल पकड़ा दिया जाता है, इसका ये मतलब तो नहीं कि एम. ए. तक इसे ही ढोते रहो।
तो फिर क्या मतलब है?— मैंने पूछा।
मतलब है,और बहुत खास है। ”— इस बार वृद्धबाबा ने स्वीकृति मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा— मात्र बाइस श्लोकों के कालीकर्पूरस्तोत्र में अद्भुत रहस्य अवगुंठित है। तन्त्र के इस गोपन रहस्य को स्वयं महाकाल ने, स्वविमर्श रुपिणी महाकाली की स्तुति के व्याज से लोक-कल्याणार्थ प्रणीत किया है। इसके प्रथम श्लोक को ही जरा ध्यान से देखो- इसमें महाकाली के प्रियतम बीजाक्षर ‘क्रीं’कार का मन्त्रोद्धार है,साथ ही क्रिया-विधि,और परिणाम का भी निस्पादन किया गया है। महासाधक श्रीरङ्गनाथजी की कर्पूरदीपिका की टीका करते हुए पंडित नारायणशास्त्री,जो कि योगीन्द्र विशुद्धानन्द जी के परम भक्त थे,विक्रम सम्बत् १९८५(ई.सन् १९२८) में ही अपनी ‘परिमल’ टीका का प्रणयन किया है। आमजन के लिए यह सरलातिसरल टीका भी अति कठिन ही है। अब सोचो जरा कि टीका का भी टीकान्तरण कठिन है,तो मूल की क्या स्थिति होगी ! पंडितजी कहते हैं --   ‘‘ प्रणम्य शक्तित्रितयं पितरौ च गुरुत्रयम्। कर्पूरस्तवसम्भूतं कुर्वे परिमलं नवम्।।’’ पंडितजी आगे कहते हैं- ‘‘भगवान् परप्रकाशात्मको महाकालः स्वविमर्शरुपिणीं परदेवतां महाकालीं प्रीणयिष्यन् संसारतापतप्तानां जीवानां चोद्धारं करिष्यन् चतुर्विध पुरुषार्थसाधनं कालीकर्पूरस्तवं प्रकटयति । मध्यमान्त्यस्वरपररहितं सेन्दुवामाक्षियुक्तं ते बीजमिति योजना...एतेन क्रीं इति महाबीजम् उद्धृतं...। ’’
‘‘....इसी भाँति आगे श्लोक में कूर्चबीज- ‘हूँ‘ , पुनः लज्जा बीज ‘ह्रीं’ का भी
प्रकटन हुआ है। करालवदना,विगलितचिकुरा,मुक्तकेशी,दिगम्बरा,मुण्डमालिनी महाकाली के दिव्य ध्यान का स्वरुप और विधि भी बतलायी गयी है। जैसा कि कालीतन्त्रम् में कहा गया है- कामत्रयं वह्निसंस्थं रतिविन्दुविभूषितम् । कूर्चयुग्मं तथा लज्जायुग्मं च तदनन्तरम् ।। दक्षिणे कालिके चेति पूर्वबीजानि चोच्चरेत् । अन्ते वह्निवधूं दद्याद्विद्याराज्ञी प्रकीर्तिता ।। महानुभाव ने तन्त्र के गुत्थियों को तोड़-तोड़ कर समझाने का प्रयास किया है। इन मन्त्रोद्धारों से जो प्रकट होता है,वह मन्त्र है- क्रीं ह्रूं ह्रीं दक्षिणे कालिके स्वाहा । क्रीं क्रीं ह्रूँ ह्रूँ दक्षिणे कालिके स्वाहा । क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके स्वाहा । - इन मन्त्रों को स्पष्ट करने के पश्चात् कहते हैं- तेषां भावनापूर्वकजपपराणां नेत्रारविन्दे नयन पद्मे कमला लक्ष्मी र्विहरति- विलासं करोति इति । तत् साधक दृष्टिपातेन प्राकृतोऽपि सकलैश्वर्यभाजनं भवतीति भावः । पुनर्वक्त्रशुभ्रांशुबिम्बं वक्त्रं मुखं शुभ्रांशुबिम्बमिव चन्द्रमण्डलमिव तस्मिन् वाग्देवी विहरतीत्यत्रान्वेति । इन संकेतों में कितना स्पष्ट है । योग की भाषा में कहें तो कह सकते हैं कि इनकी साधना से हठात् षष्टम् चक्र (आज्ञाचक्र) का उद्भेदन हो जाता है,और जब यह सिद्ध हो जायेगा तो साधक को स्वयमेव बहुत कुछ लब्ध हो जायेगा। किन्तु वैसे ही जैसे तक्था (पटरी) बनाने के लिए लकड़ी चीरते समय कुन्नी बनाने की कोई विधि नहीं बरती जाती,विधि तो सिर्फ बरती जाती है तक्था बनाने की। कुन्नी तो स्वतः प्राप्त हो जाता है,होना ही है। अंग्रेजी में इसे बाईप्रोडक्ड कहते हैं। एक के प्राप्ति के प्रयास में दूसरे की स्वतः प्राप्ति...।’’
वृद्धबाबा की बातों से मैं आश्चर्चचकित होते हुए पूछ बैठा- यानि कि महाराज संसार की सारी अलभ्य वस्तुएँ साधकों को यूँ ही सहज ही प्राप्त हो जाती हैं ?
 ‘‘ इसमें कोई दो राय नहीं। किन्तु विडम्बना भी यही है कि साधक इन्हीं प्रलोभनों में फँस कर,मुख्य साधन-पथ से भटक भी जाता है। जरा सोचो, वो बढ़ई कितना मूर्ख होगा,जो चीरे गये पटरियों को सहजने के वजाय धूलमय कुन्नियों (कुनाई) को सहजने और उनके प्रयोग में अपना जीवन गँवा देता है । आह ! मन मुग्ध हो जाता है- ऋषियों की निर्देशन-कला पर । अर्थ-काम का प्रलोभन देकर, स्तोत्रपाठ का खड़िया-पट्टिका पकड़ा दिया,ताकि कभी होश में आवे तो सारा भेद खुल जाय, और कामार्थ की आड़ में मोक्ष लब्ध हो जाय। और धर्म की चिन्ता भी न करनी पड़े। वो तो यूँ ही साथ-साथ सधता ही रहता है। जरा सजावट तो देखो- धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष––– धर्म और मोक्ष के बीच में अर्थ और काम को रख दिया गया है। वस्तुतः होता ये है कि जब हम किसी स्तोत्र का तन्मयता पूर्वक पाठ करते हैं, और दीर्घ काल तक क्रिया चलती है, तो रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निशान –– वाली बात सिद्ध हो जाती है। तुमने डीजल ईंजन वाले जनरेटर को देखा होगा- चालक उसमें एक हैंडिल जोड़ कर दो-चार बार गोल-गोल घुमाता है,और फिर छोड़ देता है। उस अल्पकालिक घुर्णनक्रिया से ईंजन के भीतर का विद्युतचुम्बकीय क्षेत्र सक्रिय हो जाता है। और फिर मोटर स्वतः चलने लगता है। इन समस्त स्तोत्रों की जो वर्णयोजना है,अद्भुत है। हर स्तोत्र हमारे अन्दर के किसी न किसी ईंजन को चालित करता है,और फिर शनैःशनैः कायगत समस्त यन्त्र स्वचालित हो उठते हैं- सृष्टि का रहस्य उद्घाटित हो जाता है। अहम् ब्रह्माऽस्मि का सद्यः भान हो जाता है।’’
मैंने पुनः जिज्ञासा व्यक्त की – तो क्या हमारे शरीर के अन्दर भी बहुत सारे यन्त्र सच में हैं,या सिर्फ किताबों की कल्पना है? क्योंकि शल्यक्रिया द्वारा परीक्षण करने पर कुछ यन्त्र– यकृत,प्लीहा,अवटुका,वृक,हृदय,फेफडा,मस्तिष्क आदि तो नजर आतें हैं,किन्तु इसके अलावे और कुछ खास दिखता नहीं ।
वृद्धबाबा ने सिर हिलाते हुए कहा – वैसे अब तुम विषयान्तर हो रहे हो। बात कालीकर्पूर की चल रही थी, और खींच ले जा रहे हो- शरीरक्रियाविज्ञान,और प्रत्यक्षशरीरम् पर। साथ ही योग-दर्शन की भी बात समझाने की आवश्यकता प्रतीत हो रही है । इन सब बातों पर फिर कभी अवसर मिला तो चर्चा की जा सकती है,या समझो कि तुम्हारे उपेन्द्र भैया ही काफी है वर्णन के लिए। फिलहाल मैं कालीतन्त्र के कुछ खास रहस्यों पर प्रकाश डाल कर अभी की ये सभा समाप्त करना चाहता हूँ,कारण कि तुमलोगों के जलपानादि का भी समय निकला जा रहा है।’’
नहीं महाराज,आहारनिद्राभयमैथुनम् च...जैसा कुछ सूक्ति है न–– ये सब तो नित्य, और कहीं भी,होते ही रहता है; किन्तु आप महानुभावों का सानिध्य-लाभ तो बड़े भाग्य से ही मिलता है। खैर,कहने की कृपा करे। पहले कालीतन्त्र पर ही बातें हो जाए। हम अल्पज्ञों के पास बचकाने सवालों का तो ढेर रहता है ।
मुस्कुराते हुए वृद्धबाबा ने कहा- ‘‘ कालीतन्त्रम् में इस क्रिया विधि को और भी स्पष्ट किया गया है-  निजबीजं तथा कूर्चं लज्जाबीजं ततः परम् । दक्षिणे कालिके चेति तदन्ते बह्निसुन्दरी ।। एकादशाक्षरी विद्या   चतुर्वर्गफलप्रदा ।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       मूलबीजंद्वयं ब्रूयात् ततः कूर्चंद्वयं वदेत् ।। लज्जायुग्मं समुद्धृत्य सम्बोधनपदद्वयम् । स्वाहान्ता कथिता विद्या चतुर्वर्गफलप्रदा ।। मूलत्रयं ततः कूर्चत्रयं मायात्रयं तथा । सम्बोधनपदैद्वन्द्वमन्ते च वह्निसुन्दरी । एषा विद्या महादेवी कालीसानिध्यकारिणी ।।  इन्हीं भावों को कुमारीतन्त्रम् में भी व्यक्त किया गया है – कामाक्षरं वह्निसंस्थं रतिविन्दुविभूषितम् । मन्त्रराजमिदं ख्यातं दुर्लभं पापकर्मणाम् । भोगमोक्षैकनिलयं कालिकाबीजमुत्तमम् । एकं द्वयं त्रयं वाऽपि निजबीजवदुत्तमम् । दक्षिके कालिके नाम पुटितं वा यथोदितम् । निजबीजं तथा कूर्चं लज्जाबीजमिति त्रयम् । एकद्वित्र्यादिपूर्वं स्यात् सम्बोधनपदद्वयम् । पुटितं वा तथा पूर्वबीजैरेकादिकैरिति। नाम ठद्वय मित्याद्या भेदाः स्युर्दक्षिणागताः ।।’’ 
वृद्धबाबा द्वारा उक्त संकेतों की स्पष्टी सुनकर,पुनः उत्सुकता जगी,जिसे संवरित न कर पाया –- महाराज,वैसे तो संस्कृत का विशेष ज्ञान नहीं है,किन्तु स्तोत्र में कहे गये- श्मशानस्थः स्वस्थो गलितचिकुरो दिक्पटधरः । सहस्रं त्वर्काणां निज गलित वीर्येण कुसुमम्.....इत्यादि जो पद हैं,जिसमें श्मशान भूमि में सूर्यपुष्प और निज वीर्य से हवन करने की बात कही गयी है,इतना ही नहीं, तन्त्र की पुस्तकों में निकृष्ट से निकृष्ट वस्तुओं के पूजन-प्रयोग की बात कही जाती है- आखिर ये सब क्या रहस्य है?
बहुत देर से चुप बैठे,सुनते आ रहे, उपेन्द्रबाबा ने इस बार चुप्पी तोड़ी-   ‘‘ बहुत पहले मैंने किसी प्रसंग में तुमसे कर्पूरस्तोत्र के एक श्लोक की चर्चा की थी  - सलोमास्थि स्वैरं पललमपि मार्जारमसिते परं मैषं वौष्ट्रं नरमहिषयोश्छागमपि वा । वलिं ते पूजायामपि वितरतां मर्त्त्यवसतां सतां सिद्धिः सर्वा प्रतिपदमपूर्वा प्रभवति जिसमें इन प्रसंगों में प्रयुक्त गूढ़ार्थों की भी खुल कर चर्चा हुई थी। क्या इन्हीं अर्थो के आलोक में अन्यान्य तान्त्रिक शब्दों का गूढ़ार्थ नहीं ढूँढा जा सकता?’’
            जी हां,बिलकुल ढूढ़ा जा सकता है,और स्मरण भी हैं आपकी वे बातें-- मैं थोड़ा लज्जित होते हुए बोला।
            उपेन्द्रबाबा ने ही आगे कहा- ‘‘ कुलचूणामणितन्त्रम् में कहा ही गया है- नखं केशं स्ववीर्यं च यद्यत् सम्मार्जनीगतम् । मुक्तकेशो दिगावासो मूलमन्त्रपुरःसरम् । कुजवारे मध्यरात्रौ जुहुयाद्वै श्मशानके... तथा उत्तरतन्त्र में कहा गया है-- मांसं रक्तं तिलं केशं नखं भक्तं च पायसम् । आज्यं चैव विशेषेण जुहुयात् सर्वसिद्धये ।। किन्तु उसी प्रसंग में आगे यह भी स्पष्ट किया गया है- श्मशान क्या है,वीर्य किसे कहते हैं, आहुति से क्या तात्पर्य है,स्रुवा क्या है,क्रिया क्या है,मैथुन क्या है,रति और विपरीत रति में क्या अन्तर है..आदि-आदि—मूलाधारगते देवि देवताग्नि समुज्ज्वले । धर्माधर्मान्विते त्र्यस्रैर्मूलमन्त्रपुरःसरम् । अहं जुहोमि स्वाहेति प्रत्येकं जुहुयात् सुधीः । अहन्तासत्यपैशून्य- कामक्रोधादिकं हविः । मन एव स्रुवः प्रोक्तः उन्मनी स्रुगुदीरिता ।।   अतः तन्त्र के इन गूढ़ शब्दों पर कदापि शंका न करो,और न इन्हें निकृष्ट भाव से देखो ही।
         इतना कह कर उपेन्द्रबाबा ने वृद्धबाबा की ओर देखा । उन्होंने भी सिर हिलाते हुए उनकी बातों का समर्थन किया ।

            आशा देखते-देखते वाजूगोस्वामी को आना ही पड़ा। उसे आता देख उपेन्द्रबाबा उठ खड़े हुए,साथ ही वृद्धमहाराज भी। हमलोगों को भी उठना ही पड़ा। आज की ये प्रातः कालीन सभा विसर्जित करनी पड़ी। सूर्य भी मध्याह्नगामी होने को आतुर हो रहे थे। मन की प्यास को तन की भूख के सामने किंचित झुकना पड़ा। न भी झुकता यदि, तो बाबाओं की अवज्ञा होती । 

क्रमशः....

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