गतांश से आगे...सत्रहवां भाग
विलम्बित जलपान के
वजाय,अग्रिम भोजन सम्पन्न करके,घड़ी भर विश्राम किया। भोजन कक्ष में ही उपेन्द्रबाबा
ने अगाह कर दिया था- ‘‘ थोड़ा विश्राम कर लो,फिर बैठकी लगायी जायेगी। रात की गाड़ी
से तो तुमलोगों की वापसी भी है न ! मैं तो सदा तुम्हारे साथ हूँ ही,किन्तु
विन्ध्यवासी बाबा का सानिध्य जितना लिया जा सके ले लो। कौन जाने फिर कब मिलना हो !
’’
पुनः वटवृक्ष तले शिवचैत्य पर बैठकी लग गयी,अपराह्न दोबजे
करीब। मेरे कुछ अनुत्तरित प्रश्नों पर वृद्धमहाराज ने स्वयं चर्चा छेड़ दी -- ‘‘
तुम्हारी जिज्ञासा या कहो आशंका थी न कि शरीर में विविध यन्त्र दिखते तो हैं नहीं
कहीं, तथा ये विभिन्न स्तोत्रों और मन्त्रों की वर्ण योजना जिसका तोतारट लगाते
जीवन चुक जाता है,पर कुछ होता-जाता नहीं- आखिर क्या रहस्य है इसमें। तुम्हारे
अन्दर ये कुलबुलाहट भी निरन्तर चलते रहा है कि ‘धीमहि...धीमहि’ का रट लगाने से
क्या सच में ‘धी’ - बुद्धि मिल जायेगी?—ये सारे सवाल बिलकुल बचकाने हैं- अज्ञानता
पूर्ण हैं। ऐसा इसलिए क्यों कि जानकारी नहीं है। वर्णों के रहस्य का ज्ञान नहीं
है। वर्णों की क्षमता का कुछ पता नहीं है। देवनागरी के ये वर्ण तुम्हारे अंग्रेजी
के अल्फावेट नहीं हैं। इन्हें निर्जीव और निर्बीज समझने की भूल न करो। ये जो भी
हैं परमजागृत,परमचैतन्य और स्वरुपवान हैं। इसे पूर्णरुप से समझने के लिए वर्णों और
मात्रिकाओं का रहस्य जानना अत्यावश्यक है। मानव कायस्थ, इन्हीं मात्रिकाओं को
स्तोत्रपाठ वा जप के क्रम में चैतन्य(जागृत) करते हैं। वैसे परमचैतन्य को जागृत
करने का कोई तुक नहीं। जगे हुए को क्या जगाना ! दूसरे शब्दों में कह सकते हो कि
परमचेतना की चेतनता की अनुभूति करते हैं हम, वस और कुछ नहीं। जो है सदा-सर्वत्र,हम
उसे ही समझते-देखते,अनुभव करते हैं। तुमने मन्त्रों के द्रष्टा,उपदेष्टा,छन्द,ऋषि,देवता,शक्ति,कीलन,उत्कीलन
आदि के बारे में सुना या पढ़ा होगा। इतना ही नहीं प्रत्येक वर्णों के निज
तत्त्व,वर्ग, ग्रह, राशि, नक्षत्र, स्थान,स्वरुप,ध्यान,न्यास आदि भी निश्चित हैं। ये
सब कोई कोरे बकवास थोड़े जो हैं। दीर्घ साधना के पश्चात् हमारे महर्षियों ने इनका
साक्षात् दर्शन किया है। तज्जनित पूरी बातों का ज्ञान प्राप्त किया,न कि महज
जानकारी। प्रायः तुम नये लोग तो जानकारी को ही ज्ञान समझने की भूल कर बैठते हो। हां,
ये बात अलग है कि सद्गुरुमुख से कर्णगुहा में प्रवेश के पश्चात् प्राप्त जानकारी
को आधार बना कर साधक को ज्ञान-दर्शन के शिखर तक पहुँचना होता है। सैद्धान्तिक रुप
में बहुत सी बातें हैं। उन सबका विश्लेषण,और प्रस्तुति यहां आवश्यक भी नहीं है। समयानुसार
स्वयं भी जान जाओगे,यदि अभिरुचि होगी इन विषयों में। अल्प समय में मैं इनसे
सम्बन्धित कुछ खास बातों का संकेत किये देता हूँ। ’’
इतना कह कह वृद्धबाबा जरा रुके,और मेरे चेहरे पर गौर करने
लगे। वे कुछ कहना ही चाहते थे कि उसके पूर्व गायत्री करवद्ध प्रार्थना पूर्वक कहने
लगी–– ‘ नहीं
महाराज !
समय तो हमेशा कम ही होता है,ज्यादा हुआ कहां है किसी के पास। मैं
सिर्फ इतना ही आग्रह करुंगी कि यदि हमें इन विषयों का अधिकारी समझते हों तो
यथासम्भव अधिक से अधिक जानकारी देने का कष्ट करें,साथ ही समुचित मार्गदर्शन भी
करें,ताकि....।’
गायत्री की इच्छा की अनुशंसा करते हुये उपेन्द्र बाबा बीच
में ही बोल पड़े- “
समझ
गया...समझ गया, तुम्हारी वांछा क्या है। बाबा जाने या नहीं जाने, मैं तो तुम्हारे
रग-रग से वाकिफ़ हूँ। नीम्बू से रस की अन्तिम बूंद तक निचोड़ लेना चाहती हो। अतः
चिन्ता न करो,मैं भी महाराज से यही प्रार्थना करूंगा कि जहां तक कथ्य हो कह ही
डालें। इतना तो तय है कि घी किसी उपले पर नहीं उढेला जा रहा है...। ”
उनकी
इस बात पर बृद्धबाबा हँसने लगे। गायत्री अपने पुराने अंदाज में ठुनकती-तुनकती हुयी
बोली- ‘ तुम तो उपेन्दर भैया मेरी कलई ही खोलते रहते हो। ये भी जान रखो कि जहां भी
गाड़ी फंसेगी,तुम्हारा ही सिर चाटूंगी।’
इस बार दोनों बाबा हठाकर हँस पडें। उपेन्द्रबाबा ने कहा- ‘‘
ठीक है
चाटती रहना। परन्तु पहले ‘ ककहरा-मनतरा ’ तो सुनाओ। देखूं तो जरा,ठीक से
याद भी है या नहीं।’’
तुनकती हुयी गायत्री,एक ही सांस में सब सुना गयी,फिर बोली- ‘
तुम्हें क्या लगता है, दिल्ली वाली
होकर,ये भी भूल गयी हूँ? अभी भी पूरे औरंगावादी ही हूँ। ’
‘‘कौन कहता है कि भूल गयी हो,भूलने की बात तो तब आती है,जब कभी
याद की गयी हो। सच पूछो तो सही ढंग से इन अद्भुत वर्ण-मात्रिकाओं का ज्ञान ही नहीं
कराया जाता। पहले के समय में कम से कम लधुसिद्धान्त कौमुदी पढ़ाई जाती थी। पाणिनीशिक्षा
का ज्ञान कराया जाता था। पतञ्जलि के महाभाष्य का मन्थन भी होता था। फिर भी बहुत
कसर रह जाता था। पर अब तो सही ढंग से अक्षरों का ज्ञान भी नहीं कराया जाता।’’-
नकारात्मक सिर हिलाते हुए बृद्धबाबा ने कहा- ‘‘ मात्रिकाओं के रहस्य को समझने के
लिए बहुत कुछ जानने-समझने की आवश्यकता है। भाषा और व्याकरण की दृष्टि से सामान्य
स्वर-व्यंजनों की जानकारी,और उच्चारण भर से प्रायः काम चल जाता है दुनिया
का,किन्तु साधक को इसके रहस्य में डूबना होता है। अतः तन्निहित गूढ़ बातों का
ज्ञान अति आवश्यक है। पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड आदि में तुमने मात्रिका पूजन अवश्य सुना
होगा। किया भी होगा। क्या कभी जानने का प्रयत्न किया कि ये सप्तमात्रिकायें, षोडशमात्रिकायें,
चतुःषष्ठीमात्रिकायें क्या हैं?’’
जी महाराज ! पूजा-पद्धतियों
में इन सबके नाम और आवाहन मन्त्र जो दिये रहते हैं,उनकी तो जानकारी है,थोडा-बहुत। विशेष
न कभी प्रश्न उठा मन में, और न जानकारी ही हुयी – बाबा की बातों का मैंने उत्तर
दिया।
सिर हिलाते हुए बृद्धबाबा ने कहा- ‘‘ समझ
रहा हूँ। अधिक से अधिक इतने तक ही आम आदमी की पहुंच रहती है। विशेष के लिए तो
विशेष ही होता है। तुम्हें यह स्पष्ट कर दूं कि विविध तन्त्र-ग्रन्थों में इनकी
विशद चर्चा है। ललितासहस्रनाम के १६७ वें श्लोक में मात्रिका वर्णरुपिणी
कह कर इसकी गरिमा सिद्ध की गयी है। सामान्य रूप से वर्णों को अलग-अलग,तथा वर्णमाला
को एकत्र रूप से मातृका के नाम से जाना जाता है। ये चार प्रकार से प्रयुक्त होती
हैं- १) केवल, २) विन्दुयुक्त,३) विसर्गयुक्त,४) उभयरुप । महाभाष्य में केवलमातृका
को साक्षात् ब्रह्मराशि कहा गया है- सोऽयं वाक्समाम्नायो वर्णसमाम्नायः
पुष्पितः फलितश्चन्द्रतारकवत्प्रतिमण्डितो वेदितव्यो ब्रह्मराशिः ।। तो, स्वच्छन्दतन्त्रम् में
न विद्या मातृकापरा कह कर प्रतिष्ठित किया गया है। यह जान लो कि सम्पूर्ण
वर्णमाला रूप मातृका की उत्पत्ति प्रणव से हुयी है। यही कारण है कि ओंकार का एक
नाम मातृकासूः भी है। तथा इस पर भी ध्यान दो कि सामान्य तौर पर लोग अक्षमाला
का अर्थ रूद्राक्ष की माला समझ लेते हैं,किन्तु इसका तान्त्रिक अर्थ कुछ और ही है।
महायोगी शिव जिस अक्षमाला का निरन्तर जप करते रहते हैं वह है- अकार से क्षकार
पर्यन्त विन्दुयुक्त मातृका , न कि कुछ और। जैसा कि कहा गया है- कथयामि
वरारोहे यन्मया जप्यते सदा । अकादिक्षकारान्ता मातृका वर्णरूपिणी ।
चतुर्दशस्वरोपेता बिन्दुत्रय विभूषिता ...।। ध्यातव्य है कि वैष्णव
व्याकरण(हरिनामामृत) में जीवगोस्वामी ने जिस वर्णमाला की चर्चा की
है,और पाणिनी प्रणीत माहेश्वर वर्णमाला में किंचित मातृका-क्रम-भेद है। वर्णमाला
को स्थूलमातृका भी कहते हैं। यही वैखरी वाक् है- विशेषेण न खरः
कठिनस्तस्येयं वैखरी सैव रूपं यस्याः ...वै निश्चयेन खं कर्णविवरं राति गच्छतीति
व्युत्पत्तिः ...विखरे शरीरे भवत्वात् वैखरीपदाभिधेया...प्राणेन विखराख्येन
प्रेरिता पुनरिति योगशास्त्रवचनाद्विखरवायुनुन्नेति वा... इन वचनों से
तन्त्रालोकविवेक, सौभाग्यभास्कर आदि ग्रन्थों में इसे स्पष्ट किया गया है। कथन का
अभिप्राय ये है कि कठिन या घनीभूत है,निश्चित रूप से कर्णविवर यानी ‘ख’
में पैठती है, विखर नामक प्राण से प्रेरित होती है- इन कारणों/लक्षणों से इसका वैखरित्व सिद्ध होता है। वर्णों से बने शब्दों का जो
प्रत्यक्ष उच्चारण करते हो,जिसके माध्यम से संवाद करते हो–– वक्ता के मुखविवर से स्रोता के कर्णविवर तक की वर्णयात्रा जो
होती है, वह वाणी वस्तुतः वैखरीवाणी कही जाती है। इसके बाद की उत्तरोत्तर
स्थितियां क्रमशः मध्यमा,पश्यन्ती,और परा कही जाती है। परा और पश्यन्ती को
सूक्ष्मतर या कि सुसूक्ष्म मातृका कहते हैं। सच पूछो तो ये भगवती मातृका ही
समस्त वाच्यवाचकात्मक चराचर जगत के अभेद का भोगानन्द प्रदान करने वाली शब्दराशि की
विमर्शिनी हैं । अरणिकाष्ठ में जिस भांति अग्नि छिपी होती है,वा उसके मन्थन से
प्रकट होती है,तद्भांति ही सभी मन्त्र इसी से उत्पन्न होते हैं। बुद्धि से संयुक्त
होकर,उसके सम्पर्क में आकर यही मध्यमा वाणी का रूप ग्रहण करती है। यह मातृका ही
परमदेवी है,परम शक्तिस्परूपा है। घोष,राव,स्वन,शब्द,स्फोट, ध्वनि,झंकार,ध्वंकृति आदि
अष्टविध शब्दों में व्याप्त होने के कारण इसे ही अक्रमामातृका भी कहते हैं।
सूतसंहिता यज्ञवैभव खंड में कहा गया है- मन्त्राणां मातृभूता च, मातृका
परमेश्वरी । बुद्धिस्था मध्यमा भूत्वा विभक्ता बहुधा भवेत् ।। सा पुनः क्रमभेदेन
महामन्त्रात्मना तथा ।। मन्त्रात्मना च वेदादिशब्दाकारेण च स्वतः । सत्येतरेण
शब्देनाप्याविर्भवति सुव्रताः ।। मातृका परमादेवी स्वपदाकारभेदिता ।
वैखरीरुपतामेति करणैर्विशदा स्वयम् ।।
इस संहिता के टीकाकार श्रीमाधवाचार्यजी तो यहां तक कहते हैं कि मातृका का
पररूप परा और पश्यन्ति से भी परे है- बिन्दुनादात्मक है– परापश्यन्त्याद्यवस्थातः प्राक् बिन्दुनादाद्यात्मकं
यन्मातृकायाः सूक्ष्मं रूपम् । इसका
विशद वर्णन करने में वाणी सर्वथा अक्षम है। साधकगण ध्यानावस्था में
ही इसकी सही अनुभूति कर सकते हैं, जिसका आंशिकरुप ही शब्दरुप में प्रकट हो सकता
है,या कहो किया जा सकता है। ”
जरा
ठहर कर बृद्धमहाराज फिर कहने लगे–– “ इस सम्बन्ध में किंचित
मतान्तर, और स्थिति भेद से सप्त,अष्ट और नव वर्गों की चर्चा भी मिलती है। किन्तु
इन सब पर चर्चा करने से पूर्व सभी वर्णों की बात करता हूँ। सबसे पहले कम से कम इनकी
सही संख्या और स्थिति तो जान-समझ लो-
१.अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ॠ,लृ,ॡ,ए,ऐ,ओ,औ,अं,अः-
ये १६ स्वर वर्ण हैं,चौदह नहीं, जैसा कि अभी तुम सुनायी। २.क,ख,ग,घ,ङ ३.च,छ,ज,झ,ञ ४.ट,ठ,ड,ढ,ण ५.त,थ,द,ध,न.
६.प,फ,ब,भ,म. ७.य,र,ल,व. ८.श,स,ष,ह,क्ष- ये चौंतीश व्यंजन कहे गये हैं। व्यंजन
अर्थात् मिले हुए। इस प्रकार कुल पचास वर्ण कहे गये हैं। यहां प्रसंगवश एक और बात
जान लो कि मात्रिकाचक्रविवेक और भास्कर राय के मत से ‘ळ’ इस विशिष्ट वर्ण की भी
गणना की गयी है–– श्लिष्टं पुरः स्फुरितसद्वय कोटिळक्ष- रुपं परस्परगतं च समं च कूटम्।। ये स्वर और व्यंजन
तन्त्रशास्त्रों में पुनः दो नामों से जाने जाते हैं। स्वरों को बीज,और व्यंजनों
को योनि जानो। योनि और बीज से ही सारा जगत प्रपंच रचा-बसा है। वामकेश्वरीमतम् में
कहा गया है –– यदक्षरैकमात्रेऽपि
संसिद्धे स्पर्द्धते नरः । रवितार्क्षेन्दुकन्दर्पशङ्करानलविष्णुभिः ।।
यदक्षरशशिज्योत्स्नामण्डितं भुवन त्रयम् । वन्दे सर्वेश्वरीं देवीं
महाश्रीसिद्धमातृकाम् ।। यदक्षरमहासूत्रप्रोतमेततज्जग- त्त्रयम् ।
ब्रह्माण्डादिकटाहान्तं जगदद्यापि दृश्यते ।। अर्थात्
उक्त वर्णों में किसी एक की भी सिद्धि हो जाये तो मनुष्य सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र,कंदर्प,
अग्नि,यहां तक कि ब्रह्मा,विष्णु,महेश से भी स्पर्द्धा करने लगता है। कथन का
अभिप्राय ये है कि इतना महान हो जाता है वह साधक। सर्वेश्वरी महासिद्धिमातृका देवी
के एक अक्षररुप चन्द्रमा की ज्योत्सना से ये त्रिभुवन प्रकाशित हो रहा है। समस्त
ब्रह्माण्ड उस सिद्धमातृका के वर्णमय महासूत्र में अनुस्यूत हैं। इसमें जरा भी
अतिशयोक्ति न समझो। ये ‘अ’ वर्ग ही भैरव है- स्वतः प्रकाशित, ‘शब्दन’
स्वभावशील,भेदरुप उपताप तथा विश्व का आक्षेप करने के कारण भैरव- स्वर वाच्य है। इसे
ही मूल बीज जानो। इस प्रकार भैरव को ही स्वरों का अधिष्ठाता कहा गया है। और उधर ‘क’ आदि
योनिवर्ण हैं,उन्हें ही भैरवी जानो। दूसरे शब्दों में इसे ही महेश्वर और उमा कह
सकते हो । उमा शरीरार्द्ध हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि शक्तिवर्गों के
अधिष्ठातृदेवता भैरव और अधिष्ठातृदेवी उमा (भैरवी) हैं। स्वच्छन्दतन्त्रम् में कहा
गया है- अवर्गे तु महालक्ष्मीः कवर्गे कमलोद्भवा,चवर्गे तु महेशानी टवर्गे तु
कुमारिका । नारायणी तवर्गे तु वाराही तु पवर्गिका ।। ऐन्द्री चैव यवर्गस्था
चामुण्डा तु शवर्गिका । एताः सप्तमहामा- तृः सप्तलोक व्यवस्थिताः ।। यानी
अवर्ग की महालक्ष्मी,कवर्ग की ब्राह्मी,चवर्ग की माहेश्वरी,टवर्ग की कौमारी, तवर्ग
की वैष्णवी,पवर्ग की वाराही,यवर्ग की ऐन्द्री,और शवर्ग की अधिष्ठातृ चामुण्डा हैं।
अब यहां तुम संशय में पड़ सकते हो कि अ वर्ग की अधिष्ठातृ महालक्ष्मी का अधिष्ठाता
भैरव से क्या वास्ता?’’
मैंने सिर हिलाते हुए कहा- जी महाराज !
अभी मैं यही सवाल करने ही वाला था। एक ओर महालक्ष्मी हैं,तो उधर भैरव कैसे,विष्णु
होना चाहिये न?
नकारात्मक सिर हिलाते हुए,बृद्धबाबा ने आगे बतलाया- ‘‘
ज्ञानदीप्तमयी उमा ही वस्तुतः महालक्ष्मी हैं। वे उमापति भैरव-देह से अभिन्न हैं।
अतः महेश्वर ही सप्तमातृकाओं से परिवारित परालक्ष्मी के साथ विद्यमान रहते हैं। ये
गिनायी गयी सात विभिन्न शक्तियाँ कोई और नहीं उमा ही हैं,बल्कि आठों कहो। उमा और
लक्ष्मी में अभेद जानो। वहीं, स्वच्छन्दतन्त्रम् के ही दशवें पटल में कहा गया है -
उमैव सप्तधा भूत्वा नामरुपविपर्ययैः । एवं स भगवान् देवो मातृभिः परिवारितः ।
आस्ते परमया लक्ष्म्या तत्रस्थो द्योतयञ्जगत् ।। यहां विस्तार से इन सभी मातृकाओं
का स्वरुप वर्णन भी किया गया है। कभी अवसर मिले तो इन गूढ ग्रन्थों का अवलोकन
अवश्य करना। आद्यशंकराचार्य ने अपने गूढ़ग्रन्थ सौन्दर्यलहरी में मातृकाओं के
रहस्य को विशद रुप से उद्घाटित किया है। यह ग्रन्थ भी तन्त्र-प्रेमियों के लिए
अवश्य सेवनीय है । वामकेश्वर तन्त्रम् में उक्त शक्तियों के अतिरिक्त- वशिनी, कामेश्वरी,मोदिनी,विमला,अरुणा,
जयिनी,सर्वेश्वरी,कौलिनी आदि आठ देवों की पुनः चर्चा की गयी है,जिनकी साधना
भेदाभासात्मक,तथा अभेदाभासात्मक फलदायी है। यानी पर और अपर दोनों सिद्ध होते हैं
इन देवों की साधना से। इन प्रत्येक वर्ग की शक्तियां पुनः त्रिधा विभक्त हैं-
घोर,घोरतर और अघोर। कामक्रोधादि का विस्तार करती हुयी ये भोगापवर्गात्मक मिश्रित
कर्मों में व्यक्ति को आसक्त करती हैं,तो इनका लक्षण ‘घोर’होता
है। विषयासक्त चित्त वालों को नीच से भी नीच दशा में डालने का कारण बनती है,तब
इन्हें ‘घोरतर’
कहते हैं,और ये शक्तियां ही ‘ज्ञात’ होने पर जब साधक को शिवत्व प्रदान करती हैं तब ‘अघोर’ रुप
में जानी जाती हैं। पर,परापर और अपर भी ये ही तीन हैं। उक्त शक्तियों को ही योगिनीहृदय
में योगिनी नाम से सम्बोधित किया गया है,इसमें किसी तरह का संशय न करना।’’
इतना कह कर बाबा जरा ठहर गये। हमदोनों के चेहरे पर सघन
दृष्टिपात करते हुए,मनोभावों को पढ़ने का प्रयत्न करने लगे। फिर किंचित आस्वस्त
हो,कुछ देर बाद कहने लगे–– ‘‘ सामान्य
रुप से जिन वर्णमातृकाओं का चलन - क्रम है,उन्हें मातृका,सिद्धा अथवा ‘पूर्वमालिनी’ के
नाम से जाना जाता है। इससे भी विलक्षण है ‘उत्तरमालिनी’ का क्रम,जिसकी अधिष्ठात्री मालिनीशक्ति है। मातृका को
अभिन्नयोनि और मालनी को भिन्नयोनि कहते हैं। कथन का अभिप्राय यह है कि योनि
अर्थात् व्यञ्जन यानि ‘कादि’ जहाँ बीज यानि स्वरों से परस्पर मिल गये हों,वही भिन्नयोनि
मालिनीशक्ति है। यथा- मातृकाशब्दराशिसंघट्टात् शक्तिमदैक्यात्मलक्षणात् लवणारनालवत्परस्परमेलनात्
––– भिन्ना
बीजैर्भे दिता योनयो व्यञ्जनानि यस्याः सा तथाविधा सती (तन्त्रालोकविमर्श)
तथा च- शब्दराशिः स एवोक्तो मातृका सा च कीर्तिता । क्षोभ्यक्षोभकतावेशान्मालिनीं
तां प्रचक्ष्महे ।। (उक्त २३२) वस्तुतः भैरवात्मक शब्द-राशि
को मातृका और मालिनी इन दो रुपों में स्मरण करते हैं। मातृका ही क्षोभ्य और
क्षोभकतावेश से मालिनी बन जाती है। क्षोभ्य योनियों का क्षोभक-बीजों से परस्पर
सङ्घट्टात्मक आवेश ही मूल कारण है,जैसा कि
अभी कहे गये श्लोक से स्पष्ट है। वहीं तन्त्रालोक के अगले(२३३वें) श्लोक में कहा
गया है- बीजयोनिसमापत्तिर्विसर्गोदय सुन्दरा । मालिनी हि पराशक्तिनिर्णीता
विश्वरुपिणी ।। यानि यही
शक्ति सम्पूर्ण विश्व को अपने रुप में धारण करती है,अथवा कहें कि समग्र को
अपने में अन्तर्भूत कर लेती है। यही कारण है कि मालिनी कहलाती है। यथा- मलते
विश्वं स्वरुपे धत्ते, मालयति अन्तःकरोति कृत्स्नमिति च मालिनीति व्यपदिश्यते । इसकी
वर्णयोजना सच में विलक्षण है। इसका प्रारम्भ ‘न’ से ,और समापन ‘फ’
से
होता है। इसे भी क्रमवार देखो- न,ऋ,ॠ,लृ,ॡ,थ,च,ध,ई,ण,उ,ऊ,ब,क,ख,ग,घ,ङ,इ,अ,व,भ,य, ड,ढ,
ठ,झ,ञ,ज,र,ट,प,छ,ल,आ,स,अः,ह,ष,क्ष,म, श,अं,त,ए, ऐ,ओ, औ, द, एवं फ। यहां एक और बात
जान लो कि भगवती मालिनी मुख्यरुप से शाक्तरुप धारिणी हैं। बीज और योनि के संघट्ट
जनित यह शक्ति सम्पूर्ण कामनाओं की प्रदातृ हैं। रुद्र और शक्तियों की माला से
युक्त होने के कारण ही इसका मालिनी नाम सार्थक होता है। इस विषय की गहन जानकारी
करने के लिए मालिनीविजयोत्तरतन्त्रम् का अवलोकन करना चाहिए।
“...प्रपञ्चसारतन्त्रम् के अनुसार समस्त वर्ण अग्निसोमात्मक हैं। वर्णों
में व्याप्त आकारांश ही आग्नेय अथवा पुरुषात्मक है,तदीत्तर अंश सौम्य वा
प्रकृत्यात्मक है। इसे ही वर्णों के प्रमुख दो भेद कहे गये हैं- स्वर और व्यञ्जन ।
व्यंजन यानि कादि योनियाँ स्वरों से प्रकाशित हो पाती हैं। शब्द द्वारा चित्तवृत्ति
को अनुभावित करने के कारण,या कहो कि ‘स्व ’अर्थात् आत्मरुप का बोध कराने के कारण ,या कहो कादि योनियों को विकसित
करने के कारण ही इन्हें स्वर कहा गया है। पुनः इनका स्पर्श और व्यापक- दो भेद करते
हैं। पुनः व्यापक भी दो भागों में बंट जाता है- अन्तस्थ और ऊष्म। पुनः सभी वर्णों
के तीन प्रकार भी कहे गये हैं- सोलह स्वर को सौम्य,पच्चीस स्पर्शवर्णों को सौर, और
दस व्यापक वर्णों को आग्नेय कहते हैं। पुनः स्वरों में भी ह्रस्व और दीर्घ दो भेद
करते हैं,तथा इनका उपप्रकार भी है- अ,इ,उ,ए और विन्दु को पुरुषस्वर,तथा आ,ई,ऊ,ऐ,औ
और विसर्ग को स्त्रीस्वरवर्ण एवं शेष- ऋ,ॠ,लृ,ॡ- इन चार को नपुंसक स्वरवर्ण कहते
हैं। ये समस्त ह्रस्व स्वर शिवमय हैं, और दीर्घस्वर शक्तिमयी कही गयी हैं। यहां एक
और बात का ध्यान रखना चाहिए कि ऋ,लृ को शिव में और ॠ,ॡ को शक्ति वर्ग में
अन्तर्भावित किया गया है। प्रपञ्चसार तन्त्र में इस पर व्यापक रुप से प्रकाश डाला
गया है। ’’
इतना कहकर बृद्धबाबा फिर चुप्पी साध लिए,और हमारे चेहरे पर
गौर करने लगे। वर्णों की अद्भुत संरचना और विभाग,अनुविभागों को सुन-जान कर हम चकित
हो रहे थे। ऐसा लग रहा था,मानों आज तक कुछ सीखा-समझा ही नहीं हूँ, अभी-अभी
अक्षर-ज्ञान कराया जा रहा हो। सच कहें तो सामान्य जानकारी भर थी इन अक्षरों (अल्फावेट्स)
के बारे में। ये अल्फावेट नहीं हैं,मूलतः अक्षर हैं, यानि इनका कदापि ‘क्षर’
नहीं होता,स्वरुपवान हैं,परम चैतन्य हैं- इस बारे में आज ही आँखें खुल रही हैं।
हालाकि अभी आँखें खुलना नहीं कह सकते,क्यों कि अज्ञान-निद्रा वाला प्रभाव अभी गया
कहां है
! हां,ये भले कह सकता हूँ कि जानकारियां थोड़ी चमकदार हुयी हैं-
पॉलिस चढ़ गया बाबाओं की कृपा का।
वृद्धबाबा ने पुनः कहना प्रारम्भ किया- ‘‘ मन्त्रशास्त्रों में विलोममातृका,
वहिर्मातृका,अन्तर्मातृका आदि की चर्चा मिलती है। प्रचलित मातृका का बिन्दु सहित
उलटारूप ही विलोममातृका है । लिपीमयी देवी के रूप को ही वहिर्मातृका कहते हैं,या
कह सकते हो कि वाग्देवता के अंग वर्णमय
हैं(इसलिए उन्हें वर्णतनु भी कहते हैं), ये वर्णमयी मातृकादेवी ही बहिर्मातृका के
नाम से जानी जाती है। विभिन्न अंगविन्यास इन वर्णों का ही प्रसार मात्र है।
अकादिवर्णों द्वारा ही देवी के अंगों का निर्माण होता है। साधकगण इन्हीं निगूढ़
शक्तियों को निज अंगों में न्यासित करते हैं साधना-क्रम में।”
जरा
ठहर कर वृद्धबाबा ने फिर कहना शुरु किया- “ पता नहीं तुम्हारे
उपेन्द्रभैया ने अन्तः शरीर-संरचना के बारे में कुछ बताया है या नहीं, किन्तु
संक्षेप में इतना जान लो कि शरीर में बहुत से स्थान हैं,जिनका उपयोग,या कहो जिन पर
प्रयोग करते हैं साधक गण। उन्हीं मूलाधार,स्वाधिष्ठानादि चक्रों में साधक जब
इन्हीं मातृकावर्णों का विधिवत न्यास करते हैं,तब इसका ही नाम अन्तर्मातृका न्यास
होता है। यह कहां,कैसे,कब किया जाय बहुत ही गूढ़ और गुरू-सानिध्य वाली बातें हैं। यानी
कि यह सब बिलकुल ही व्यावहारिक साधना-जगत की बातें हैं,अतः अभी विशेष कुछ कह भी नहीं
सकता। क्या कहते हो तुमलोग इसे- ‘प्रैक्टिकल’ यही न?
अब तैराकी का प्रैक्टिकल मैदान में खड़े होकर तो नहीं किया जा
सकता न ! उसके लिए तो
नदी की धार में उतरना होगा––
डूबने-उतराने का भय-संकोच छोड़कर। वैसे, तुम तो ब्राह्मण हो। सुने होवोगे बहुत
कुछ,देखे-पढ़े भी होवोगे- मार्कण्डेयपुराणान्तर्गत
वर्णित श्रीदुर्गासप्तशति का पाठ तो जरुर किये होगे? वहां विविध न्यासों की चर्चा है। तान्त्रिक विधि से पाठ करने
के लिए ग्यारह प्रकार के न्यासों की व्यवस्था कही गयी है । कर्मकाण्डी ब्राह्मणों
के बीच बहुश्रुत और प्रसिद्ध ‘दुर्गार्चनसृति’ नामक पुस्तक में भी इसकी थोड़ी चर्चा मिल जाती है,किन्तु
इशारा मात्र ही है वहां,और संख्या भी पूरी नहीं है। पूर्ण जानकारी के लिए तो
तन्त्र के विविध मूलग्रन्थों में ही झांकना होगा,या किसी गुरु के सामने प्रणिपात करना
होगा, तभी पराम्बा की कृपा प्राप्त हो सकती है। अज्ञान रुपी अन्धकार से ज्ञानरुपी
प्रकाश में जो पहुँचा देने की क्षमता रखता हो,वही तो सच्चा गुरु है। शेष तो
कामाऊखाऊ गुरुघंटाल भर हैं। उनपर भरोसा करने से कहीं अच्छा है - ‘निगुरा’ ही
रहे।’’
‘ निगुरा
’
शब्द पर मैं जरा चौंका। क्यों कि इस शब्द का तात्त्विक अर्थ तो कुछ और ही होता है;परन्तु मैंने कुछ कहा नहीं । कुछ कहने को सोच ही रहा था कि बाबा
के उपदेशात्मक ज्ञानामृत का एकाग्रचित्त से रसपान करती गायत्री बोल उठी- ‘ महाराज ! दो-तीन प्रकार के न्यासों के बारे में तो पिताजी ने मुझे बतलाया है। करती
भी हूँ पाठ के समय; किन्तु अन्तर्मातृका, बहिर्मातृका आदि सिर्फ नाम भर ही सुनी
हूँ। इसके गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित कर आज आपने हमलोगों पर महती कृपा कर दी।’
सिर हिलाते हुए वृद्धबाबा ने कहा- ‘‘चलो,इतना क्या कम है,तुम जैसी समान्य स्त्री इनका नाम जानती
है, यानी कि वैसे कुल की हो,जहां साधना की किंचित परम्परा सुप्त पड़ी है। दुःख और
चिन्ता की बात तो ये है कि आम ब्राह्मण सिर्फ दशहरे में दुर्गापाठ कर थोड़ी आमदनी
करके ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। इसकी उपयोगिता उनके लिए बस इतना ही है। उससे आगे भी
कुछ है,हो सकता है- प्रश्न ही नहीं उठता कभी उनके मन में। खैर,छोडो,जाने दो ।कौन
क्या करता है- इसकी आलोचना में समय क्यों गंवाना ! मैं तुमलोगों
को इन मातृकाओं के अंगादि से सैद्धान्तिक परिचय कराये देता हूँ। व्यावहारिक परिचय
तो तुम स्वयं करोगे।’’
इतना कह कर वृद्धबाबा ने आंखें मूंद ली। तीन-चार बार बड़े
गहराई से ऊँकार का सुमधुर उच्चारण किये,और फिर सभी वर्णों का उच्चारण करते
हुए,अपने अंगों का स्पर्श करने लगे। उपेन्द्र बाबा ने इशारा किया- ठीक से उन्हें
देखने के लिए। और हमदोनों देखने लगे,बाबा के अंगों को,स्वरों से समायोजित होते हुए––
क्र.
|
वर्ण
|
अंग
|
१.
|
अ
|
शिर
|
२.
|
आ
|
मुख
|
३.
|
इ
|
दक्षिण
नेत्र
|
४.
|
ई
|
वाम
नेत्र
|
५.
|
उ
|
दक्षिण
कर्ण
|
६.
|
ऊ
|
वामकर्ण
|
७.
|
ऋ
|
दक्षिणनासा
|
८.
|
ॠ
|
वामनासा
|
९.
|
लृ
|
दक्षिणकपोल
|
१०.
|
ॡ
|
वामकपोल
|
११.
|
ए
|
अधर
|
१२.
|
ऐ
|
ओष्ठ
|
१३.
|
ओ
|
अधोदन्त
|
१४.
|
औ
|
उर्ध्वदन्त
|
१५.
|
अं
|
जिह्वा
|
१६.
|
अः
|
ग्रीवा
|
१७.
|
क
|
दक्षिणवाहु
मूल
|
१८.
|
ख
|
दक्षिणकर्पूर
(केहुनी)
|
१९.
|
ग
|
दक्षिण
मणिबन्ध
|
२०.
|
घ
|
दक्षिणअंगुली
मूल
|
२१.
|
ङ
|
दक्षिण
अंगुल्यग्र
|
२२.
|
च
|
वामवाहुमूल
|
२३.
|
छ
|
वामकर्पूर
|
२४.
|
ज
|
वाममणिबन्ध
|
२५.
|
झ
|
वामअंगुली
मूल
|
२६.
|
ञ
|
वामअंगुल्यग्र
|
२७.
|
ट
|
दक्षिणऊरु
मूल
|
२८.
|
ठ
|
दक्षिणजानु
|
२९.
|
ड
|
दक्षिणगुल्फ
|
३०.
|
ढ
|
द.पादांगुलि
मूल
|
३१.
|
ण
|
द.पाद
अंगुल्यग्र
|
३२.
|
त
|
वामऊरुमूल
|
३३.
|
थ
|
वामजानु
|
३४.
|
द
|
वामगुल्फ
|
३५.
|
ध
|
वा.पादागुलि
मूल
|
३६.
|
न
|
वा.पाद
अगुल्यग्र
|
३७.
|
प
|
दक्षिणकुक्षि
|
३८.
|
फ
|
वामकुक्षि
|
३९.
|
ब
|
पृष्ठ
|
४०.
|
भ
|
नाभि
|
४१.
|
म
|
उदर
|
४२.
|
य
|
हृदय
|
४३.
|
र
|
दक्षिणस्कन्ध
|
४४.
|
ल
|
वाम
स्कन्ध
|
४५.
|
व
|
तालु
|
४६.
|
श
|
हृदय
से दक्षिण हस्त पर्यन्त
|
४७.
|
ष
|
हृदय
से वाम हस्त पर्यन्त
|
४८.
|
स
|
हृदय
से दक्षिण पाद पर्यन्त
|
४९.
|
ह
|
हृदय
से वाम पाद पर्यन्त
|
५०.
|
क्ष
|
ब्रह्मरन्ध्र
|
५१.
|
ळ
|
xxx
|
अन्तिम ५१वें वर्ण ळ के उच्चारण के साथ वृद्धाबाबा ने अपनी आंखें खोलते हुए कहा-- ‘‘न्यासक्रम में
इसे समाहित नहीं किया गया है। इसकी वहां आवश्यकता भी नहीं है। साधना के क्रम में
साधक को इन सभी वर्णों को परम चैतन्य और
दिव्य भाव से स्वीकारते हुए अपने विविध अंगों में न्यस्त करना चाहिए,जैसा कि
सामान्य न्यास-प्रक्रिया में भी कहा जाता है। ये ठीक वैसा ही है,जैसे कि तुम्हें
दुर्गा की उपासना करनी है, तो सर्वप्रथम उनकी एक प्रतिमा वा चित्र की व्यवस्था
करोगे। उसे सामने रखकर, यथोपलब्धोपचार पूजन करोगे। तन्त्र साधना में साधक भी कुछ
ऐसा ही करता है, किन्तु काफी गहरे अर्थ में। जैसा कि हमने कहा, सभी वर्ण परम
चैतन्य, स्वरुपवान हैं। उनके इन्हीं स्वरुपों को बाहर के वजाय भीतर स्थापित करना
है,और सच पूछो तो स्थापित क्या करना है,स्थापित तो है ही,क्यों कि ब्रह्माण्ड की
प्रतिकृति ही तो हमारा यह पिण्डात्मक शरीर है। वे हैं कहां, किस अवस्था में यही तो
समझना,जानना,देखना, अनुभव करना है- साधक को। और इसके लिए सर्वप्रथम उनकी सही
जानकारी चाहिए,सो मैं दिये देता हूँ। वर्ण हैं तो उनके ऋषि होंगे ही,छन्द भी
होगा,स्वरुप भी होगा। देवता होंगे,तो उनके साथ उनकी शक्ति भी होगी ही। यहां एक और
बात को समझ लो कि संहारक और पालक भेद से देवता की स्थिति ,जिसे हम रुद्र और विष्णु
नाम से यहां कह रहे हैं–सीधे शब्दों में यूं कहो कि अमुक वर्ण के अमुक रुद्र हैं,और अमुक विष्णु भी
हैं। ये दोनों तो देवता ही हैं। ध्यान ये
रखना है कि रुद्र के साथ कौन सी शक्ति है,और विष्णु के साथ कौन सी शक्ति कार्यरत
है। वैसे इन सब बातों में, बहुत पचरे में मत उलझना। मान लो तुम और गायत्री किसी
कार्य के लिए निकले। तुम दोनों एक दूसरे के पूरक हो, सहयोगी हो,एक शक्ति और दूसरा
है शक्ति का आधार। तुम दोनों मिलकर,एक दूसरे के सहयोगी बन कर कभी घर का काम करते
हो,कभी बाजार का भी,कभी नौकर की भूमिका में होते हो,कभी मालिक की भूमिका में। एक
ही व्यक्ति पिता भी होता है,पुत्र भी,सेवक भी,मालिक भी,ब्राह्मण भी,शूद्र भी...इन
बातों की गहराई को समझो, बूझो...सृष्टि का सारा रहस्य परत-दरपरत खुलता जायेगा।
महामाया अपना आंचल पसारे बैठी हैं,उनकी भंगिमाओं का ही तो सारा खेल है यह
स्थावर-जांगम,दृश्यादृश्य जगत-प्रपंच। एक और बात का ध्यान देना, आगे जो सारणी
सुना-बता रहा हूँ उसमें पाओगे कि किसी एक ही ऋषि के अधीन एकाधिक वर्ण भी हैं,और
ऋषि यदि एक है,तो छन्द भी एक ही होना स्वाभाविक है। किन्तु अपवाद स्वरुप ज और झ के
छन्द तो वही है,पर ऋषि अलग हैं। इस प्रकार अजऋषि के जिम्मे ख,ग,घ,ङ और झ वर्ण हो
गये। इसी भांति माण्डव्य के जिम्मे अः के अलावे ढ ,ण,क्ष,और ळ भी है। आगे व से क्ष
पर्यन्त छन्द साम्य है- सभी वर्णों का दण्डक ही है,जबकि ऋषि बदलते गये हैं। एक और
जगह भ्रान्ति होती है प्रायः- य और र के ऋषि में तो संशय नहीं है,पर छन्द या कहो छन्दोच्चारण
में किंचित भेद है। वृत्तरत्नाकर में अतिकृति छन्द कहा गया है,किन्तु पिंगल, ऋकप्रातिशाख्य
यहां तक कि भरतनाट्यम् में भी अभिकृति छन्द की चर्चा है। ये बात मैं तुम्हें इसलिए
बतला दिया ताकि कहीं और से सुनो-जानो तो संशय में न पड़ो। जहां तक व्यावहारिक और साधना-क्षेत्र
की बात है,वहां छन्द-भेद से कोई अन्तर नहीं होने वाला है। हां, छन्दों का सम्यक्
ज्ञान करने के लिए पिंगलसूत्र को भी टटोल सकते हो। और फिर कौन मना करता है कि
भरतनाट्यम् को न देखना, उसे भी देख ही डालो। परन्तु फिर एक बार ये भी कहना चाहूँगा
कि साधक को अधिक जानकारियों के बोझ से भी बचना चाहिए। क्यों कि प्रायः ये बोझिल कर
देती हैं। नदी के किनारे खड़े होकर नावों की गिनती और किराये का मोल-तोल करने में
ही समय चूक जाता है। यात्रा प्रारम्भ ही नहीं हो पाती। अतः उचित है कि सद्गुरु के
आश्रय में प्रणिपात पूर्वक साधना प्रारम्भ की जाये। अस्तु। यहां अभी सभी वर्णों के
ऋषि,छन्द,रुद्र,विष्णु एवं शक्ति को
स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ। इसे जरा ध्यान से सुनो,या कागज-कलम हो तो
लिख सकते हो;
किन्तु लिखने लगोगे तो मेरे कथन-प्रवाह में बाधा पहुंचेगी, अतः हृदयंगम करने की आदत डालो। लिखी हुयी तो बहुत सी वातें हैं। ”
मुझे भी सुनना ही उचित लगा, लिखने का
साधन भी तत्काल उपलब्ध नहीं था। बाबा कहने लगे–
क्रम
|
वर्ण
|
ऋषि
|
छन्द
|
रुद्र
|
शक्ति
|
विष्णु
|
शक्ति
|
१.
|
अ
|
अर्जुन्यायन
|
मध्या
|
श्रीकण्ठ
|
पूर्णोदरी
|
केशव
|
कीर्ति
|
२.
|
आ
|
अर्जुन्यायन
|
मध्या
|
अनन्त
|
विरजा
|
नारायण
|
कान्ति
|
३.
|
इ
|
भार्गव
|
प्रतिष्ठा
|
सूक्ष्म
|
शाल्मली
|
माधव
|
तुष्टि
|
४.
|
ई
|
भार्गव
|
प्रतिष्ठा
|
त्रिमूर्ति
|
लोलाक्षी
|
गोविन्द
|
पुष्टि
|
५.
|
उ
|
अग्निवेश्य
|
सुप्रतिष्ठा
|
अमरेश्वर
|
वर्तुलाक्षी
|
विष्णु
|
धृति
|
६.
|
ऊ
|
अग्निवेश्य
|
सुप्रतिष्ठा
|
अर्धीश
|
दीर्घधोणा
|
मधुसूदन
|
क्षान्ति
|
७.
|
ऋ
|
अग्निवेश्य
|
सुप्रतिष्ठा
|
भावभूति
|
सुदीर्घमुखी
|
त्रिविक्रम
|
क्रिया
|
८.
|
ॠ
|
गौतम
|
गायत्री
|
तिथि
|
गोमुखी
|
वामन
|
दया
|
९.
|
लृ
|
गौतम
|
गायत्री
|
स्थाणु
|
दीर्घजिह्वा
|
श्रीधर
|
मेघा
|
१०.
|
ॡ
|
गौतम
|
गायत्री
|
हर
|
कुण्डोरी
|
हृषीकेश
|
हर्षा
|
११.
|
ए
|
गौतम
|
गायत्री
|
झिंटीशा
|
ऊर्ध्वकेशी
|
पद्मनाभ
|
श्रद्धा
|
१२.
|
ऐ
|
लौहित्यायन
|
अनुष्टुप
|
भौतिक
|
विकृतमुखी
|
दामोदर
|
लज्जा
|
१३.
|
ओ
|
लौहित्यायन
|
अनुष्टुप
|
सद्योजात
|
ज्वालामुखी
|
वासुदेव
|
लक्ष्मी
|
१४.
|
औ
|
वशिष्ठ
|
वृहति
|
अनुग्रहेश्वर
|
उल्कामुखी
|
सङ्कर्षण
|
सरस्वती
|
१५.
|
अं
|
वशिष्ठ
|
वृहति
|
अक्रूर
|
श्रीमुखी
|
प्रद्युम्न
|
प्रीति
|
१६.
|
अः
|
माण्डव्य
|
दण्डक
|
महासेन
|
विद्यामुखी
|
अनिरुद्ध
|
रति
|
१७.
|
क
|
मौद्गायन
|
पङ्क्ति
|
क्रोधीश
|
महाकाली
|
चक्री
|
जया
|
१८.
|
ख
|
अज
|
त्रिष्टुप
|
चण्डेश
|
सरस्वती
|
गदी
|
दुर्गा
|
१९.
|
ग
|
अज
|
त्रिष्टुप
|
पंचान्तक
|
गौरी
|
शार्ङ्गी
|
प्रभा
|
२०.
|
घ
|
अज
|
त्रिष्टुप
|
शिवोत्तम
|
त्रैलोक्यविद्या
|
खड्गी
|
सत्या
|
२१.
|
ङ
|
अज
|
त्रिष्टुप
|
एकरुद्र
|
मन्त्रशक्ति
|
शंखी
|
चंडा
|
२२.
|
च
|
योग्यायन
|
जगती
|
कूर्म
|
आत्मशक्ति
|
हली
|
वाणी
|
२३.
|
छ
|
गोपाल्यायन
|
अतिजगती
|
एकनेत्र
|
भूतमाता
|
मुरली
|
विलासिनी
|
२४.
|
ज
|
नषक
|
शक्वरी
|
चतुरानन
|
लम्बोदरी
|
शूली
|
विरजा
|
२५.
|
झ
|
अज
|
शक्वरी
|
अजेश
|
द्राविणी
|
पाशी
|
विजया
|
२६.
|
ञ
|
काश्यप
|
अतिशक्वरी
|
शर्व
|
नागरी
|
अंकुशी
|
विश्वा
|
२७.
|
ट
|
शुनक
|
अष्टि
|
सोमेश्वर
|
वैखरी
|
मुकुन्द
|
वित्तदा
|
२८.
|
ठ
|
सौमनस्य
|
अत्यष्टि
|
लांगलि
|
मञ्जरी
|
नन्दज
|
सुतदा
|
२९.
|
ड
|
कारण
|
धृति
|
दारुक
|
रुपिणी
|
नन्दी
|
स्मृति
|
३०.
|
ढ
|
माण्डव्य
|
अतिधृति
|
अर्द्धनारीश्वर
|
वारिणी
|
नर
|
ऋद्धि
|
३१.
|
ण
|
माण्डव्य
|
अतिधृति
|
उमाकान्त
|
कोटरी
|
नरकजित
|
समृद्धि
|
३२.
|
त
|
सांकृत्यायन
|
कृति
|
आषाढ़ी
|
पूतना
|
हरि
|
शुद्धि
|
३३.
|
थ
|
सांकृत्यायन
|
कृति
|
दण्डी
|
भद्रकाली
|
कृष्ण
|
भुक्ति
|
३४.
|
द
|
सांकृत्यायन
|
कृति
|
अद्रि
|
योगिनी
|
सत्य
|
मुक्ति
|
३५.
|
ध
|
सांकृत्यायन
|
कृति
|
मीन
|
शंखिनी
|
सात्वत
|
मति
|
३६.
|
न
|
कात्यायन
|
प्रकृति
|
मेष
|
गजिनी
|
शौरि
|
क्षमा
|
३७.
|
प
|
कात्यायन
|
प्रकृति
|
लोहित
|
कालरात्रि
|
शूर
|
रमा
|
३८.
|
फ
|
कात्यायन
|
प्रकृति
|
शिखी
|
कुब्जिनी
|
जनार्दन
|
उमा
|
३९.
|
ब
|
दाक्षायण
|
आकृति
|
छगलण्ड
|
कपर्दिनी
|
भूधर
|
क्लेदिनी
|
४०.
|
भ
|
व्याघ्रायण
|
विकृति
|
द्विरण्ड
|
महावज्रा
|
विश्वमूर्ति
|
क्लिन्ना
|
४१.
|
म
|
शाण्डिल्य
|
संकृति
|
महाकाल
|
जया
|
वैकुण्ठ
|
वसुदा
|
४२.
|
य
|
काण्डल्य
|
अतिकृत
|
कपाली
|
सुमुखेश्वरी
|
पुरुषोत्तम
|
वसुधा
|
४३.
|
र
|
काण्डल्य
|
अतिकृत
|
भुजंगेश
|
रेवती
|
बली
|
परा
|
४४.
|
ल
|
दाण्ड्यायन
|
उत्कृति
|
पिनाकी
|
माधवी
|
बलानुज
|
परायणा
|
४५.
|
व
|
जातायन
|
दण्डक
|
खङ्गीश
|
वारुणी
|
बाल
|
सूक्ष्मा
|
४६.
|
श
|
लाट्यायन
|
दण्डक
|
वक
|
वायवी
|
वृषघ्न
|
सन्ध्या
|
४७.
|
ष
|
जय
|
दण्डक
|
श्वेत
|
रक्षोविदारिणी
|
वृष
|
प्रज्ञा
|
४८.
|
स
|
जय
|
दण्डक
|
भृगु
|
सहजा
|
सिंह
|
प्रभा
|
४९.
|
ह
|
जय
|
दण्डक
|
नकुली
|
लक्ष्मी
|
वराह
|
निशा
|
५०.
|
क्ष
|
माण्डव्य
|
दण्डक
|
संवर्तक
|
माया
|
नृसिंह
|
विद्युता
|
५१.
|
ळ
|
माण्डव्य
|
दण्डक
|
शिव
|
व्यापिनी
|
विमल
|
अमोघा
|
इतना बतला कर वृद्धबाबा ने थोड़ी लम्बी सांस ली,और फिर कहने लगे- ‘‘ इस प्रकार
इक्यावन मातृकायें न्यस्त हैं हमारे शरीर
में। दूसरे शब्दों में कह सकते हो कि इक्यावन शक्तिपीठ हैं हमारे शरीर में,उन्हीं
का ध्यान-चिन्तन करना है साधक को। ये जो वृहत् सारणी बतलायी गयी तुम्हें,इन्हें
सही ढंग से स्मरण रखना तो अति दुरुह होगा। बिना लेखनी के यह सम्भव नहीं,किन्तु अब
इसका भी सरल उपाय कहे देता हूँ। शारदातिलकतन्त्रम् में थोड़े ही शब्दों में इन्हें
व्यक्त किया गया है, जिन्हें सहज ही स्मरण में उतार सकते हो। यथा- अर्जुन्यायनमध्ये
द्वौ भार्गवस्तौ प्रतिष्ठिका ।
अग्निवेश्यः सुप्रतिष्ठा त्रिषु चाब्धिषु गौतमः ।। गायत्री च भरद्वाज उष्णिगेकारके
परे । लोहित्यायनकोऽनुष्टुप् वशिष्ठो वृहती द्वयोः ।। माण्डव्यो
दण्डकश्चापि
स्वराणां मुनिछन्दसी । मौद्गायनश्च पङ्क्तिः केऽजस्त्रिष्टुप्
द्वितये घङों
।।
योग्यायनश्चजगती गोपाल्यायनको मुनिः । छन्दोऽतिजगती
चे छेन्नषकः शक्वरी ह्यजः ।। शक्वरी काश्यपश्चातिशक्वरी झञयोष्टठोः । शुनकोऽष्टिः
सौमनस्योऽत्य ष्टिडे कारणो धृतिः ।। ढणोर्माण्डव्यातिधृति साङ्कृत्यायनकः कृतिः ।
त्रिषु कात्यायनस्तु स्यात् प्रकृतिर्नपफेषु बे ।। दाक्षायणाकृति व्याघ्रायणो भे
विकृतिर्मता । शाण्डिल्यसङ्कृती मेऽथ
काण्डल्याति-कृति यरोः ।। दाण्ड्यायनोत्कृती लेऽथ वे जात्यायनदण्डकौ । लाट्यायनो
दण्डकः शे षसहे जयदण्डकौ । माण्डव्यदण्डकौ ळक्षे कादीनामृषिछन्दसी ।। - इस प्रकार वर्णों के ऋषि और छन्दों का ज्ञान सहज ही कर सकते हो इन
श्लोकों को स्मरण में रखकर। वहीं आगे-पीछे, इसी प्रसंग में कुछ और भी महत्त्वपूर्ण
संकेत तुम्हें मिल जायेंगे- वर्णों का स्वरुप,कला वगैरह,जिसके सहयोग से ध्यान करने
में सुविधा होगी। कुछ अन्य तन्त्र-ग्रन्थों का भी यत्किंचित सहयोग लेना पडता है,
ताकि स्वरुप,वाहनादि को अधिक स्पष्ट किया जा सके। विविध ग्रन्थों का सार-संक्षेप
थोड़े शब्दों में अभी मैं तुम्हें बताये दे रहा हूँ,क्यों कि समय को भी ध्यान में
रखना है। काफी देर से हमलोग यहां बैठे हुए हैं। फिर कभी संयोग हुआ तो और बातें हो
सकेगी,या फिर तुम्हारे उपेन्द्र भैया भी कोई कम थोड़े जो हैं। मेरे पास जो भी था,
पिछले कई वर्षों में सबकुछ उढेल दिया हूँ इनकी गागरी में। ’’- कहते हुए बाबा
ने पहले तो ऊपर आकाश की ओर देखकर,समय का अनुमान किया,और फिर उपेन्द्रबाबा की ओर
देखते हुए बोले- ‘‘ क्या
विचार है, सभा-विसर्जित किया जाय अब ?’’
उपेन्द्रबाबा
ने पहले गायत्री की ओर देखा,क्यों कि उसकी तृप्ति-सहमति के बिना उठ जाने का मतलब
है,अपना सिर चटवाना,भले ही यहां,सुधनीगाय बनी बैठी है।
उनका मनोभाव समझती गायत्री ने कहा- ‘समय तो पंख लगाये उड़ा जा रहा है,अब बताओ न-
इतनी जल्दी भला चार बज जाना चाहिए ?’
उपेन्द्रबाबा
ने हँसते हुए कहा- ‘चार तो ठीक चार बजे ही बजता है गायत्री ! ना क्षणभर पहले और ना क्षणभर बाद। वैसे तुम्हारी तृप्ति
अभी नहीं हुयी हो, तो तुम्हारी ओर से महाराजजी से निवेदन करता हूँ कि कम से कम
वर्णों के वर्ण (रंग),स्वरुप और वाहनादि पर थोड़ा और प्रकाश डाल दें,जैसा कि
उन्होंने स्वयं कहा भी - संक्षेप में ही सही। ’
‘‘
ठीक है। ठीक है,सबकी राय है तो बता ही देता हूँ।’’- कहते
हुए,वृद्ध महाराज ने कुछ देर के लिए अपनी आँखें मूंदी,मानों वर्ण-स्वरुपों का
साक्षात्कार कर रहे हों,और फिर कहना शुरु किये- ‘‘ तन्त्रशास्त्र का मत है कि अकारादि सभी वर्ण
अमृतमय होने के कारण अतिनिर्मल हैं। ललाटदेश में आज्ञाचक्र से जरा ऊपर स्थित
अर्द्धचन्द्र से जो अमृतविन्दु क्षरित होता है, वही नीचे मूलाधारादि कमलदलों में
आकर वर्णरुप में परिलक्षित होता है। सनत्कुमारसंहिता में इस विषय में विस्तृत
वर्णन मिलता है। जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ,पुनः स्मरण दिला दूं कि
पञ्चभूतात्मक,पञ्चप्राणात्मक त्रिदेवादि विभूषित होने के कारण इन मातृकाओं का
नील-पीतादि त्रिवर्णीय होना तो स्वतः सिद्ध है, फिर भी किंचित मतान्तर भी है।
वस्तुतः ये कोई विशेष शंका वाली बात नहीं है। साधनाक्रम में जिस साधक को यत्किंचित
अन्तर प्रतीत हुआ,या कहो, उसने जो जैसा अनुभव किया,लोककल्यार्थ उसे प्रकट करने का,
व्यक्त करने का प्रयास किया। स्थूल रुप से कहा जाय तो कह सकते हैं कि अकारादि
स्वरों का वर्ण (रंग) धूम्र है। ‘क’ से लेकर ‘ट’ पर्यन्त सभी वर्ण
सिन्दूरी आभावाले हैं। यहां यह ध्यान रखना कि आजकल तरह-तरह के सिन्दूर उपलब्ध हैं
बाजार में- लाल,पीले,काले,हरे,नीले...,जो सिर्फ श्रृंगार-प्रसाधन मात्र हैं, जिसे
जो रुचिकर लगे;
किन्तु असली सिन्दूर जो हिन्गुल नामक खनिज-द्रव्य से तैयार होता है,उसका अपना
विशिष्ट सौन्दर्य है। पारद के उर्ध्वपातन के पश्चात् जो अवशिष्ट रह जाता है, वही
असली सिन्दूर है। हिंगुल से पारद निकाल लेने के बाद, अवशिष्ट द्रव्य को विधिवत
अतिपिष्ट कर लो,बस शुद्ध असली सिन्दूर तैयार हो गया। इसी सिन्दूर का उपयोग समस्त
तान्त्रिक क्रियाओं में फलद होता है,न कि बाजार का रंग-रोगन। अब जरा सोचो- पारद
यानी शिववीर्य के अलग हो जाने के पश्चात् पार्वती का शोणितांश ही तो शेष रह गया
सिन्दूर नाम-ख्यात होकर ।”
सिन्दूर-निर्माण
की चर्चा सुन गायत्री मेरी ओर देखी। मैं भी उसका भाव समझ गया। उपेन्द्रभैया ने
सियारसिंगी के पूजन में इसी असली सिन्दूर के प्रयोग के बारे में कहा था,किन्तु
बनाने की विधि की चर्चा उस समय न हो सकी थी। अभी बृद्धबाबा के श्रीमुख से उस विधि
को जान कर अतिशय प्रसन्नता हुयी गायत्री को, क्यों कि उसका मुखमंडल ही गवाही दे
रहा था- इस बात के लिए।
बृद्धबाबा
ने कह रहे थे–– ‘ड’
से लेकर ‘फ’ तक वर्णों का रंग गौर
है। ब, भ, म,य और र का रंग अरुण है। ल,व,श,ष,स - ये पांच, स्वरों की भांति
स्वर्णवर्णी ही हैं। ‘ह ’
और ‘
क्ष ’ सौदामिनी(विजली) के समान आभायुक्त हैं। इस सम्बन्ध
में सूतसंहिता के वचन हैं–– अकारादिक्षरान्तैर्वर्णैरत्यन्तनिर्मलैः
। अशेषशब्दैर्या भाति तामानन्दप्रदां नुमः ।। वर्णों के वर्ण(रंग) को
सनत्कुमारसंहिता के इस वचन से तुम सहज ही स्मरण में रख सकते हो- अकाराद्याः
स्वरा धूम्राः सिन्दूराभास्तु कादयः। डादिफान्ता गौरवर्णा अरुणाः पञ्च वादयः ।
लकाराद्याः काञ्चनाभाः हकारान्त्यौ तडिन्निभौ ।। किंचित तन्त्र-ग्रन्थों में स्वरों को स्फटिक
सदृश,स्पर्श वर्णों को विद्रुम सदृश,यकारादि नव वर्णों को पीत, और क्षकार को अरुण
भी कहा गया है। सौभाग्यभास्कर भी विविध वर्ण भेदों को स्वीकारता है।
कामधेनुतन्त्रम् में भी कुछ ऐसी ही चर्चा है। कहा जाता है कि ये मातृकावर्ण ही
पचास युवतियां हैं,जो विश्वब्रह्माण्ड में सर्वव्याप्त हैं। गीतवाद्यादि में निपुण
और रत, ये सब के सब किशोरवयसा, शिवप्रियायें हैं। पुष्प-कलिका के गर्भ में जिस
भांति गन्धादि संनिहित होता है, तद् भांति ही त्रिधा विभक्त शक्तियां- इच्छा, ज्ञान
और क्रिया, साथ ही पंचतत्त्व,पंचदेव और पंचप्राण सहित आत्म-तत्त्व, विद्या-तत्त्व
एवं शिव-तत्त्व आदि निहित हैं। इन मातृका अभिरूपों का विवरण वर्णोद्धार तन्त्रम्
में भी विशद रुप से मिलता है,साथ ही वर्णमातृकाओं के लिपिमय संकेत भी उल्लिखित हैं
वहां। यह प्रसंग अवश्य सेवनीय है। अतः भले ही समय कम है,फिर भी इसका विस्तार से
वर्णन करने का लोभ-संवरण मैं नहीं कर सकता। ’’
मैंने अनुभव किया- वृद्धमहाराज भी
आज अति प्रमुदित हैं। उनकी मुख-भंगिमा निहारते हुए उपेन्द्रबाबा ने कहा- ‘ जी महाराज ! समय को किसने पकड़ पाया है,ये तो अपनी गति से
चलता ही रहेगा;
किन्तु सुअवसर तो सौभाग्य से ही मिलता है न। अतः इसका अधिकाधिक लाभ ले लिया जाना
चाहिए। कौन जाने जीवन सरिता के किस घाट पर किसकी,किससे और कब मुलाकात हो ! ’
उपेन्द्रबाबा की इस बात पर
वृद्धमहाराज थोडे गम्भीर हो गये। उनके मुखमंडल का प्रमोद अचानक कहीं खो सा गया।
आँखें मुंद गयी। कुछ पल मौन साधे रहे,फिर उच्चरित होने लगे। उनका कंठ-स्वर अद्भुत
ओजपूर्ण प्रतीत हुआ। लग रहा था साक्षात् शिव ही वाचन कर रहे हों, शिवा के
समक्ष,तन्त्र का गोपन रहस्य—(अ) - श्रृणु तत्त्वमकारस्य अतिगोप्यं वरानने ।
शरच्चन्द्रप्रतीकाशं पञ्चकोणमयं सदा ।। पञ्चदेवमयं वर्णं शक्तित्रयसमन्वितम्।
निर्गुणं त्रिगुणोपेतं स्वयं कैवल्यमूर्तिमान् ।। विन्दुतत्त्वमयं वर्णं स्वयं
प्रकृतिरुपिणी ।
(आ)- आकारं परमाश्चर्यं शङ्खज्योतिर्मयं प्रिये । ब्रह्मविष्णुमयं वर्णं
तथा रुद्रमयं प्रिये ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं स्वयं परमकुण्डली ।
(इ)- इकारं परमानन्दसुगन्धकुसुमच्छविम् । हरिब्रह्ममयं वर्णं सदा रुद्रयुतं
प्रिये ।। सदाशक्तिमयं देवि गुरुब्रह्ममयं तथा । (
ग्रन्थान्तर से- सदाशिवमयं वर्णं परं ब्रह्मसमन्वितम् । हरिब्रह्मात्मकं
वर्णं गुणत्रयसमन्वितम् ।। इकारं परमेशानि स्वयं कुण्डली मूर्तिमान् ।।)
(इ)- ईकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डली । ब्रह्मविष्णुमयं वर्णं तथा
रुद्रमयं सदा ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पीतविद्युल्लताकृतिम् । चतुर्ज्ञानमयं वर्णं
पञ्चप्राणमयं सदा ।।
(उ)- उकारं परमेशानि अधःकुण्डलिनी स्वयम् । पीतचम्पकसंकाशं पञ्चदेवमयं सदा
।। पञ्चप्राण मयं देवि चतुर्वर्गप्रदायकम् ।
(ऊ)- शङ्खकुन्दसमाकारं ऊकारं परमकुण्डली । पञ्चप्राणमयं वर्णं पञ्चदेवमयं
सदा ।। धर्मार्थकाममोक्षं च सदासुखप्रदायकम् ।।
(ऋ)- ऋकारं परमेशानि कुण्डली मूर्तिमान् स्वयम् । अत्र ब्रह्मा च विष्णुश्च
रुद्रश्चैव वरानने । सदाशिवंयुतं वर्णं सदा ईश्वरसंयुतम् ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं
चतुर्ज्ञानमयं तथा ।। रक्तविद्युतल्लताकारं ऋकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(ॠ)-ॠकारंपरमेशानि स्वयं परमकुण्डलम् । पीतविद्युतल्लताकारं पञ्चदेवमयं सदा ।
चतुर्ज्ञानमयं वर्णं पञ्चप्राणयुतं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं प्रणमामि सदा
प्रिये ।।
(लृ)- लृकारं
चञ्चलापाङ्गि कुण्डली परदेवता । अत्र ब्रह्मादयः सर्वे तिष्ठन्ति ससतं प्रिये ।।
पञ्चदेवमयं वर्णं चतुर्ज्ञानमयं सदा । पञ्चप्राणयुतं वर्ण तथा गुणत्रयात्मकम् ।।
विन्दुत्रयात्मकं वर्णं पीतविद्युल्लता तथा ।
(ए)- एकारं परमेशानि
ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् । रञ्जनीकुसुमप्रख्यं पञ्चदेवमयं सदा ।। पञ्चप्राणात्मकं
वर्ण तथा विन्दुत्रयात्मकम् । चतुर्वर्गप्रदं देवि स्वयं परमकुण्डली ।।
(ऐ)- ऐकारंपरमंदिव्यं महाकुण्डलिनी स्वयम् । कोटिचन्द्रप्रतीकाशं
पञ्चप्राणमयं सदा ।। ब्रह्मविष्णुमयं वर्णं विन्दुत्रयसमन्वितम् ।
(ओ)-ओकारं चञ्चलापाङ्गि पञ्चदेवमयं सदा । रक्तविद्युल्लताकारं
त्रिगुणात्मानमीश्वरीम् ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं नमामि देवमातरम् । एतद्वर्णं
महेशानि स्वयं परमकुण्डली ।।
(औ)- रक्तविद्युल्लताकारं औकारं कुण्डली स्वयम् । अत्र ब्रह्मादयः सर्वे
तिष्ठन्ति सततं प्रिये ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं तथा शिवमयं सदा ।।
(अं)- सदा ईश्वरसंयुक्तं चतुर्वर्गप्रदायकम् । अङ्कारं विन्दुसंयुक्तं
पीतविद्युतसमप्रभम्
।। पञ्चप्राणमयं वर्णं ब्रह्मादिदेवतामयम् ।
(अः)- सर्वज्ञानमयं वर्णं विन्दुत्रयसमन्वितम् । अः कारं परमेशानि
विसर्गसहितं सदा ।। पञ्चदेवमयं वर्णं
पञ्चप्राणमयः सदा । सर्वज्ञानमयोवर्णः आत्मादि तत्त्वसंयुतः।।
(क)- जपायावकसिन्दूरमदृशीं
कामिनीं पराम् । चतुर्भुजां त्रिनेत्रां च बाहुबल्लीविराजिताम् ।।
कदम्बकोरकाकारस्तनद्वयविभूषितम् । रत्नकंकणकेयूरैरङ्गदैरुपशोभिताम् । रत्नहारैः
पुष्पहारैः शोभितां परमेश्वरीम् । एवं हि कामिनीं व्यात्वा ककारं दशधा जपेत् ।।
(ख)- खकारं परमेशानि कुण्डलीत्रयसंयुतम् । खकारं परमाश्चर्यं
शङ्खकुन्दसमप्रभम् ।। कोणत्रययुतं रम्यं विन्दुत्रयसमन्वितम् । गुणत्रययुतं देवि
पञ्चदेवमयं सदा ।। त्रिशक्तिसंयुतं वर्णं सर्व शक्त्यात्मकं प्रिये ।
(ग)- गकारं परमेशानि पञ्चदेवात्मकं सदा । निर्गुणं त्रिगुणोपेतं निरीहं निर्मलं
सदा ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं गकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(घ)- अरुणादित्यसङ्काशं कुण्डलीं प्रणमाम्यहम् । घकारं चञ्चलापाङ्गि
चतुष्कोणात्मकं सदा । पञ्चदेवमयं वर्णं तरुणादित्यसन्निभम् । निर्गुणं
त्रिगुणोपेतं सदा त्रिगुणसंयुतम् । सर्वगं सर्वदं शान्तं घकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(ङ)- ङकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डली । सर्वदेवमयं वर्णं त्रिगुणं
लोललोचने ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं ङकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(च)-चवर्णं श्रृणु सुश्रोणि चतुर्वर्गप्रदायकम् । कुण्डलीसहितं देवि स्वयं
परमकुण्डली ।। रक्त विद्युतल्लताकारं सदा त्रिगुणसंयुतम् । पञ्चदेवमयं वर्णं
पञ्चप्राणमयं सदा ।। त्रिशक्ति सहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा ।
(छ)- छकारं परमाश्चर्यं स्वयं परमकुण्डली । सततं कुण्डलीयुक्तं पञ्चदेवमयं
सदा ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा । त्रिविन्दुसहितं वर्णं सदा
ईश्वरसंयुतम् ।। पीतविद्युल्लताकारं छकारं प्रणमाम्यहम् ।
(ज)- जकारं परमेशानि या स्वयं मध्य कुण्डली । शरच्चन्द्रप्रतीकाशं सदा
त्रिगुणसंयुतम्।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणात्मकं सदा । त्रिशक्ति सहितं वर्णं
त्रिविन्दुसहितं प्रिये ।।
(झ)- झकारं परमेशानि कुण्डलीमोक्षरुपिणी । रक्तविद्युल्लताकारं सदा
त्रिगुणसंयुतम् ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणात्मकमं सदा । त्रिविन्दुसहितं वर्णं
त्रिशक्तिसहितं सदा ।।
(ञ)- सदा ईश्वरसंयुक्तं ञकारं श्रृणु पार्वति । रक्तविद्युल्लताकारं स्वयं
परमकुण्डली ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणात्मकमं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं
त्रिविन्दुसहितं सदा ।।
(ट)- टकारं चञ्चलापाङ्गि स्वयं परमकुण्डली । पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्च प्राणात्मकमं
सदा ।। त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा ।।
(ठ)- ठकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डली मोक्षरुपिणी । पीतविद्युल्लताकारं सदा
त्रिगुणसंयुतम् ।। पञ्चदेवात्मकं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा । त्रिविन्दुसहितं वर्णं
त्रिशक्तिसहितं सदा ।।
(ड)- डकारं चञ्चलापाङ्गि सदा त्रिगुणसंयुतम् । पञ्चदेवमयं वर्णं
पञ्चप्राणमयं तथा ।। त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा । चतुर्ज्ञानमयं
वर्णमात्मादितत्त्वसंयुतम् ।।
पीतविद्युल्लताकारं डकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(ढ)- ढकारं परमाराध्यं या स्वयं कुण्डली परा । पञ्चदेवात्मकं वर्णं
पञ्चप्राणमयंसदा।। सदात्रिगुणसंयुक्तंआत्मादितत्त्वसंयुतम्। रक्तविद्युल्लताकारं
ढकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(ण)- णकारं परमेशानि या स्वयं परमकुण्डली । पीतविद्युल्लताकारं पञ्चदेवमयं
सदा ।। पञ्चप्राणमयं देवि सदा त्रिगुणसंयुतम् । आत्मादितत्त्वसंयुक्तं
महासौख्यप्रदायकम् ।
(त)- तकारं चञ्चलापाङ्गि स्वयं परमकुण्डली । पञ्चदेवात्मकं वर्णं
पञ्चप्राणमयं तथा ।। त्रिशक्ति सहितं वर्णमात्मादितत्त्वसंयुतम् । त्रिविन्दुसहितं
वर्णं पीतविद्युत्समप्रभम् ।।
(थ)- थकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डली मोक्षरुपिणी । त्रिशक्तिसहितं वर्णं
त्रिविन्दुसहितं सदा ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणात्मकं प्रिये ।
तरुणादित्यसङ्काशं थकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(द)- दकारं श्रृणु चार्वङ्गि चतुर्वर्गप्रदायकम् । पञ्चदेवमयं वर्णं
त्रिशक्तिसहितं सदा ।। सदा ईश्वरसंयुक्तं त्रिविन्दुसहितं सदा ।
आत्मादितत्त्वसंयुक्तं स्वयं परमकुण्डली ।। रक्तविद्युल्लताकारं दकारं हृदि भावय
।।
(ध)- धकारं परमेशानि कुण्डली मोक्षरुपिणी । आत्मादितत्त्वसंयुक्तं
पञ्चदेवमयं सदा ।। पञ्चप्राणमयं देवि त्रिशक्तिसहितं सदा । त्रिविन्दुसहितं वर्णं
धकारं हृदि भावय ।। पीतविद्युल्लताकारं चतुर्वर्गप्रदायकम् ।।
(न)- नकारं श्रृणु चार्वङ्गि रक्तविद्युल्लताकृतिम् । पञ्चदेवमयं वर्णं
स्वयं
परमकुण्डली
।। पञ्चप्राणात्मकं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा । त्रिशक्तिसहितं
वर्णमात्मादितत्त्वसंयुतम्
। चतुर्वर्गप्रदं वर्णं हृदि भावय पार्वति ।।
(प)- अतः परं प्रवक्ष्यामि पकारं मोक्षमव्ययम् । चतुर्वर्गप्रदं वर्णं
शरच्चन्द्रसमप्रभम् ।। पञ्चदेवमयं वर्णं स्वयं परमकुण्डली । पञ्चप्राणमयं वर्णं
त्रिशक्तिसहितं सदा ।। त्रिविन्दुसहितं वर्णंमात्मादितत्त्वसंयुतम् ।
महामोक्षप्रदं वर्णं
हृदि
भावय पार्वति ।।
(फ)- फकारं श्रृणु चार्वङ्गि रक्तविद्युल्लतोपमम् । चतुर्वर्गमयं
वर्णं पञ्चदेवमयं सदा ।। पञ्चप्राणमयं
वर्णं सदा त्रिगुणसंयुतम् । आत्मादितत्त्वसंयुक्तं त्रिविन्दुसहितं सदा ।।
(ब)- बकारं श्रृणु चार्वङ्गि चतुर्वर्गप्रदायकम् । शरच्चन्द्रप्रतीकाशं
पञ्चदेवमयं सदा ।। पञ्चप्राणात्मकं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा । त्रिशक्तिसहितं
वर्णं निविडाऽमृतनिर्मलम्।।स्वयं कुण्डलिनी साक्षात् सततं
प्रणमाम्यहम् ।।
(भ)- भकारं चञ्चलापाङ्गि स्वयं परमकुण्डली । महामोक्षप्रदं वर्णं
पञ्चदेवमयं सदा ।। त्रिशक्ति सहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं प्रिये ।
(म)- मकारं श्रृणु चार्वङ्गि स्वयं परमकुण्डली । महामोक्षप्रदं वर्णं
पञ्चदेवमयं सदा ।। तरुणादित्यसङ्काशं चतुर्वर्गप्रदायकम् । त्रिशक्तिसहितं वर्णं
त्रिविन्दुसहितं सदा ।। आत्मादितत्त्वसंयुक्तं हृदिस्थं प्रणमाम्यहम् ।।
(य)- यकारं श्रृणु चार्वङ्गि चतुष्कोमयं सदा । पलालधूमसङ्काशं स्वयं
परमकुण्डली ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणात्मकं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं
त्रिविन्दुसहितं तथा ।। प्रणमामि सदा वर्णं मूर्तिमान् मोक्षमव्ययम् ।।
(र)- रकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीद्वयसंयुतम् । रक्तविद्युल्लताकारं
पञ्चदेवात्मकं सदा ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा । त्रिशक्तिसहितं
देवि आत्मादितत्त्वसंयुतम् ।।
(ल)- लकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीद्वयसंयुतम् । पीतविद्युल्लताकारं
सर्वरत्नप्रदायकम् ।। पञ्चदेवमयं वर्णं
पञ्चप्राणमं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा ।।
आत्मादितत्त्वसंयुक्तं हृदि भावय पार्वति ।।
(व)- वकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीमोक्षमव्ययम् । पलालधूमसंकाशं पञ्चदेवमयं
सदा । पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा ।। त्रिविन्दुसहितं
वर्णमात्मादितत्त्वसंयुतम् ।।
(श)- शकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीतत्त्वसंयुतम् । पीतविद्युल्लताकारं
सर्वरत्नप्रदायकम् ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं
त्रिविन्दुसहितं सदा ।। आत्मादितत्त्वसंयुक्तं हृदि भावय पार्वति ।।
(ष)- षकारं श्रृणुचार्वङ्गि अष्टकोणमयं सदा । रक्तचन्द्रप्रतीकाशं स्वयं
परमकुण्डली ।। चतुर्वर्गप्रदं वर्णं सुधानिर्मितविग्रहम् । पञ्चदेवमयं वर्णं
पञ्चप्राणमयं सदा ।। रजःसत्त्वतमोयुक्तं त्रिशक्ति सहितं सदा । त्रिविन्दुसहितं
वर्णमात्मादितत्त्वसंयुतम् । सर्वदेवमयं वर्णं हृदि भावय पार्वति ।।
(स)- सकारं श्रृणु चार्वङ्गि शक्तिबीजं परात्परम् । कोटिविद्युल्लताकारं
कुण्डलीत्रयसंयुतम् ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा । रजःसत्त्वतमोयुक्तं
त्रिविन्दुसहितं सदा ।। प्रणम्य सततं देवि हृदि भावय पार्वति ।।
(ह)- हकारं श्रृणु चार्वङ्गि चतुर्वर्गप्रदायकम् । कुण्डलीत्रयसंयुक्तं
रक्तविद्युल्लतोपमम् ।। रजःसत्त्वतमोवायु पञ्चदेवमयं सदा । पञ्चप्राणमयं वर्णं
हृदि भावय पार्वति ।।
(क्ष)- क्षकारं श्रृणु चार्वङ्गि कुण्डलीत्रयसंयुतम् । चतुर्वर्गमयं वर्णं
पञ्चदेवमयं सदा ।। पञ्चप्राणात्मकं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा। त्रिविन्दुसहितं
वर्णांत्मादितत्त्वसंयुतम् । रक्तचन्द्रप्रतीकाशं हृदि भावय पार्वति ।।
क्षकार
महिमा-मण्डन के पश्चात् वृद्धमहाराज जरा रुके। मेरे होठ शकुंत-चंचु सदृश खुले हुए
थे,शायद अभी कुछ और कहें। इस क्रम में मैंने गौर किया कि स्वर-व्यंजन सहित सभी
वर्णों का स्वरुप तो मिल गया,परन्तु ॡ और ळ इसमें नहीं आया। आशंका या कहें
जिज्ञाशा तो हुयी,पर कुछ कह-पूछ न पाया। अभी कुछ कहने को सोच ही रहा था कि वे पुनः
कहने लगे- ‘‘ वर्णों के विषय में काफी कुछ जान चुके। ये गूढ़ विषय महाशक्ति
‘अनन्ता’ की तरह ही अनन्त हैं; किन्तु सांसारिक जीव की अपनी सीमा है- क्यों कि वह
कालवद्ध है। वह अनन्त नहीं हो सकता कदापि। अतः एक अन्तिम जानकारी देकर आज की
गोष्ठी समाप्त करता हूँ। सौन्दर्यलहरी में अकारादि वर्णमातृकाओं का
महिमामण्डल स्पष्ट किया गया है। यथा- अकार ८० लाख, आकार १६० लाख, इकार ९० लाख,ईकार
१८० लाख, उकार १ करोड़, ऊकार २ करोड़,ऋकार ५० लाख,१५० लाख,लृ और ॡ क्रमश एक-एक
करोड़ ; ए,ऐ,औ डेढ़ करोड़; विन्दु और विसर्ग अकार से दुगना यानी १६०लाख,तथा सभी
व्यञ्जन शक्तियां अकारमंडल से आधी यानी ४०-४० लाख योजन विस्तार वाली कही गयी हैं। मातृकाओं के वाहन,और आयुध भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
शारदातिलक,कामधेनुतन्त्रम् जैसे ग्रन्थ भी इसमें अधूरी पहेली बुझा कर छोड़ दिये
हैं। ध्यान के क्रम में इस जानकारी के अभाव में थोडी कठिनाई हो सकती है। इस विषय
में तुम अपने उपेन्द्रभैया से सामयिक जानकारी कर लेना। इसके
अतिरिक्त कुछ और भी जानकारियां शेष हैं, जिसके लिए इनसे सहयोग लेना अपरिहार्य
होगा।’’
इतना कह कर वृद्धमहाराज बगल में बैठे उपेन्द्रबाबा की ओर आंशिक दृष्टिपात
किये,जिसकी प्रतिक्रिया स्वरुप वे मुस्कुरा भर दिये,और दोनों बाबा उठ खड़े हुए।
मुझे भी गायत्री सहित उठ ही जाना पड़ा। वटवृक्ष-तल की गोष्ठी समाप्त हो गयी,या
कहें रहस्यमय विन्ध्याचल यात्रा ही समाप्त होगयी। रात की गाड़ी से, वापस अपने
सांसारिक खेमें में चले जाना है। किन्तु, बाबा के आदेशानुसार अब महायात्रा पूर्व
पर्यन्त, दिव्ययात्रा हेतु कुछ विशेष तैयारियां भी तो करनी है...महामाया के अंचल
तले–– विचारता हुआ,अपने कमरे की ओर चल दिया। थोड़ा आगे जाने के बाद,पीछे मुड़कर
देखा- दोनों बाबा गुरुमहाराज की सामाधि की ओर जा रहे थे।
दिन भर चमकने वाले मार्तण्ड महाराज भी अस्ताचल की ओर पहुंचने ही वाले थे।
उन्हें भी किसी और लोक में जाने की बेताबी थी। बाबाओं के सानिध्य में आज बहुत कुछ
गुत्थियां सुलझी थी। कई अनकहे प्रश्नों का भी उत्तर स्वतः मिल गया था। फिर भी अभी
कुछ प्रश्न कौंध रहे थे मस्तिष्क में सौदामिनी की तरह,जिन्हें लगता है अब
उपेन्द्रबाबा ही हल कर सकेंगे।
कमरे में आते ही,गायत्री ने अपनी डायरी निकाली,और पूरी गोष्ठी का
सारसंक्षेप लिपिवद्ध करने लगी। मैं भी उसमें यत्किंचित सहयोग करने लगा। कोई डेढ़
घंटे के सतत प्रयास के पश्चात् वार्ता की मुख्य बातों के अतिरिक्त एक सारणी भी
बनकर तैयार हो गयी,जो इस प्रकार की थी-
क्रम
|
वर्ण
|
वर्णों का स्वरुपादि
|
१.
|
अ
|
शरच्चन्द्रसदृश,निर्गुण,त्रिगुण,कैवल्यमूर्ति,बिन्दुतत्त्वमय,
प्रकृतिस्वरुप,
त्रिशक्तियुक्त,पंचकोण-पंचप्राण-पंचदेवमय
|
२.
|
आ
|
शंखज्योतिर्मय,ब्रह्मादित्रिदेवमय,परमकुण्डली,पंचप्राणमय
|
३.
|
इ
|
कुसुमछवि,सदाशक्तिमय,त्रिदेवमय,सदाशिवमय,गुरुब्रह्ममय,
मूर्तिमान कुण्डली, त्रिगुण
|
४.
|
ई
|
पीतविद्युत्
सदृश,परमकुण्डलीयुक्त,चतुर्ज्ञान,त्रिदेव,
पंचदेव-पंचप्राणमय
|
५.
|
उ
|
पीतचम्पकतुल्य,अधःकुण्डलिनी,चतुर्वर्ग,पंचदेव-पंचप्राणमय
|
६.
|
ऊ
|
शंख-कुन्दसदृश,पंचदेव-पंचप्राणमय,
परमकुण्डली,पुरुषार्थचतुष्टय तथा सुखप्रद
|
७.
|
ऋ
|
मूर्तिमान्कुण्डली,त्रिदेव-सदाशिवयुक्त,पंचवर्णात्मक,चतुर्ज्ञानमय,
रक्तविद्युतसदृश
|
८.
|
ॠ
|
परमकुण्डली,पीतविद्युत्,त्रिशक्ति,चतुर्ज्ञान,
पंचदेव-पंचप्राणमय
|
९.
|
लृ
|
पीतविद्युत्
सदृश,कुण्डलीपरदेवता,त्रिदेववास,त्रिगुण,
विन्दुत्रयात्मक,चतुर्ज्ञान,पंचदेव-पंचप्राणमय
|
१०.
|
ॡ
|
पीतविद्युत्सदृश,कुण्डलीपरदेवता,त्रिदेववास,त्रिगुण,विन्दुत्रयात्मक,
चतुर्ज्ञान, पंचदेव-पंचप्राणमय
|
११.
|
ए
|
रञ्जनीकुसुमसदृश,त्रिदेव-पंचदेव-पंचप्राणमय,विन्दुत्रयात्मक,
चतुर्वर्गप्रदायिनी, परमकुण्डली
|
१२.
|
ऐ
|
कोटिचन्द्रसदृश,महाकुण्डलिनी,त्रिदेव-पंचदेव-पंचप्राणमय,
विन्दुत्रयात्मक, सदाशिवयुक्त
|
१३.
|
ओ
|
रक्तविद्युत
सदृश,पंचदेवमय,त्रिगुणात्मा,ईश्वर,देवमाता,
परमकुण्डली,पंचप्राणमय
|
१४.
|
औ
|
रक्तविद्युत
सदृश,कुण्डली, त्रिदेव-पंचप्राणमय,
सदाशिव-ईश्वरसंयुक्त,चतुर्वर्गप्रदा
|
१५.
|
अं
|
पीतविद्युत
सदृश,पंचप्राणमय,ब्रह्मादिदेवयुक्त,
सर्वज्ञानमय,बिन्दुत्रयसमन्वित
|
१६.
|
अः
|
रक्तविद्युतकान्तियुक्त,पंचदेव-पंचप्राणमय,विन्दुत्रयात्मक,
बिन्दुत्रयात्मक,
शक्तित्रयात्मक,सर्वज्ञानमय,आत्मादितत्त्व युक्त
|
१७.
|
क
|
जपा-सिन्दूर
सदृश कान्तिवाली,चतुर्भुजा,त्रिनेत्रा,बाहुलताशोभित, कदम्ब-कलिका तुल्य
स्तनोंवाली,रत्न विभूषित, कंकण-केयूर,
अंगदभूषित,परमेश्वरी,
कामिनी
|
१८.
|
ख
|
कुण्डलीत्रययुक्त,शंख-कुन्दकान्ति,त्रिकोण,बिन्दुत्रय,गुणत्रय,
शक्तित्रय, पंचदेवमी
|
१९.
|
ग
|
अरुणादित्यसदृश,निर्गुण,त्रिगुणोपेत,निरीह,निर्मल,कुण्डलीरुप,
पंचदेव-पंच प्राणमय
|
२०.
|
घ
|
तरुणादित्य
सदृश,सर्वगति,सर्वप्रदायिनी,
शान्त,चतुष्कोणात्मक,पंचदेवमय
|
२१.
|
ङ
|
परमकुण्डली,त्रिगुणात्मिका,सर्वदेवमय,पंचप्राणमय
|
२२.
|
च
|
रक्तविद्युत्सदृश,चतुर्वर्गप्रदायिनी,परमकुण्डलीयुक्त,
त्रिशक्ति,त्रिबिन्दु,पंचदेव-पंचप्राणमय
|
२३.
|
छ
|
पीतविद्युत्
सदृश,ईश्वरयुक्त,परमकुण्डलीयुक्त
कुम्डलीसंयुक्त,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,
विन्दुत्रयात्मक
|
२४.
|
ज
|
शरदचन्द्र
सदृश,मध्यकुण्डली-रुप,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,विन्दुत्रयात्मक
|
२५.
|
झ
|
रक्तविद्युत्
सदृश,कुण्डली तथा मोक्षरुप, त्रिबिन्दु, त्रिगुण, ईश्वरसंयुक्त,त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,
|
२६.
|
ञ
|
रक्तविद्युत्
सदृश,परमकुण्डली,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,
विन्दुत्रयात्मक
|
२७.
|
ट
|
परमकुण्डलीरुप,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,विन्दुत्रयात्मक
|
२८.
|
ठ
|
पीतविद्युल्लता-तुल्य,
कुण्डली तथा मोक्षरुप, त्रिबिन्दु, त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय
|
२९.
|
ड
|
पीतविद्युल्लता-तुल्य,आत्मादितत्वयुक्त,चतुर्ज्ञानमय,त्रिबिन्दु,
त्रिगुण, त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय
|
३०.
|
ढ
|
रक्तविद्युल्लता-तुल्य,पराकुण्डली,आत्मादितत्वयुक्त,त्रिगुण,
पंचदेव-पंचप्राणमय
|
३१.
|
ण
|
पीतविद्युल्लता-तुल्य,परमकुण्डली,
आत्मादितत्व-संवलित,महासौख्य,पंचदेव-पंचप्राणमय
|
३२.
|
त
|
पीतविद्युत-कान्ति,पंचदेव-पंचप्राणमय,त्रिबिन्दु,त्रिशक्ति,
आत्मादितत्त्वयुक्त
|
३३.
|
थ
|
तरुणादित्य
कान्तियुक्त, कुण्डली तथा मोक्षरुप, त्रिबिन्दु, त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय
|
३४.
|
द
|
रक्तविद्युल्लताकार,कुण्डली
तथा मोक्षरुप,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,आत्मादितत्त्वयुक्त,
परमकुण्डलीयुकत्,चतुर्वर्ग प्रदाता
|
३५.
|
ध
|
पीतविद्युत
सदृश, कुण्डली तथा मोक्षरुप,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,आत्मादितत्त्वयुक्त,
परमकुण्डलीयुक्त्,
चतुर्वर्ग प्रदाता
|
३६.
|
न
|
रक्तविद्युत
सदृश, कुण्डली तथा मोक्षरुप,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,आत्मादितत्त्वयुक्त,
परमकुण्डलीयुक्त्,चतुर्वर्ग
प्रदाता
|
३७.
|
प
|
शरच्चन्द्र–कान्तियुक्त,
अव्यय मोक्षरुप,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,आत्मादितत्त्वयुक्त,
परमकुण्डलीयुक्त्,चतुर्वर्ग
प्रदाता
|
३८.
|
फ
|
रक्तविद्युत
सदृश, त्रिगुण,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,आत्मादितत्त्वयुक्त,चतुर्वर्ग
प्रदाता
|
३९.
|
ब
|
शरच्चन्द्रतुल्य,चतुर्वर्गप्रदाता,पंचदेव,पंचप्राण,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्तियुक्त,निविड़ अमृत तुल्य निर्मल,कुण्डलिनी स्परुप
|
४०.
|
भ
|
महामोक्षप्रद,परमकुण्डली
रुप, पंचदेव,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्तियुक्त,
|
४१.
|
म
|
तरुणादित्यतुल्य,आत्मादितत्त्वयुक्त,पंचदेव,पंचप्राण,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्तियुक्त, महामोक्षप्रद,परमकुण्डली रुप,चतुर्वर्गप्रदाता
|
४२.
|
य
|
धान
के पुआल के धुंए के समान कान्ति वाली,
अव्यय
मोक्षदायी, त्रिबिन्दु, त्रिशक्तियुक्त, परमकुण्डली रुप, पञ्चप्राण-पञ्चदेवमय,चतुष्कोणमय
|
४३.
|
र
|
रक्तविद्युतकान्तियुक्त,पञ्चदेव,पञ्चप्राणमय,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्तियुक्त,कुण्डलीद्वययुक्त,
आत्मादितत्त्वयुक्त
|
४४.
|
ल
|
पीतविद्युतसदृश,पञ्चदेव,पञ्चप्राणमय,त्रिबिन्दु,त्रिशक्तियुक्त,
कुण्डलीद्वययुक्त, आत्मादितत्त्वयुक्त,सम्पूर्ण रत्नादि प्रदाता
|
४५.
|
व
|
पुआल
के समान कान्तिवाली,कुण्डली तथा अव्यय मोक्षदायी, पञ्चदेव,पञ्चप्राणमय,त्रिबिन्दु,त्रिशक्तियुक्त,कुण्डलीद्वययुक्त,
आत्मादितत्त्वयुक्त
|
४६.
|
श
|
पीतविद्युतसदृश,पञ्चदेव,पञ्चप्राणमय,त्रिबिन्दु,त्रिशक्तियुक्त,
कुण्डलीतत्त्वयुक्त, आत्मादितत्त्वयुक्त
|
४७.
|
ष
|
रक्तचन्द्रसदृश,परमकुण्डलीरुप,चतुर्वर्गप्रद,सुधानिर्मितविग्रह,
सत्त्वादि त्रिगुण युक्त,पञ्चदेव, पञ्चप्राणमय,त्रिबिन्दु,त्रिशक्तियुक्त,
आत्मादितत्त्वयुक्त
|
४८.
|
स
|
कोटिविद्युतकान्तिमय,कुण्डलीत्रययुक्त,पञ्चदेव,पञ्चप्राणमय,
त्रिबिन्दु,त्रिशक्तियुक्त, आत्मादितत्त्वयुक्त,परात्पर शक्ति-बीजयुक्त
|
४९.
|
ह
|
रक्तविद्युत
सदृश कान्ति वाली,चतुर्वर्ग प्रदाता, कुण्डलीत्रय युक्त, त्रिगुण, त्रिशक्ति,
पञ्चप्राणमय,पञ्चदेवमय,त्रिबिन्दुयुक्त
|
५०.
|
क्ष
|
रक्तचन्द्रसदृश,त्रिशक्ति,त्रिबिन्दु,सहित,आत्मादितत्त्वयुक्त,चतुर्वर्गमय,
कुण्डली-त्रययुक्त,पञ्चदेव,पञ्चप्राणमय
|
५१.
|
ळ
|
XXXX
|
सारणी तैयार हो गयी- देखकर अतिशय प्रसन्नता हुयी।
गायत्री की पीठ ठोंकते हुए मैंने कहा- अरे वाह ! ये तो कमाल हो गया। तुम्हें तो विक्रमादित्य के नवरत्नों में होना चाहिए
था। ये तो हू-ब-हू उतार दी तुमने- श्लोकों का शब्दचित्र,वो भी एकदम सरल रुप में।
इसे देखकर तो साधारण आदमी भी वर्णों का स्वरुप आदि बडे आसानी से समझ जायेगा।
मेरी बात पर गायत्री हँसती हुयी बोली- ‘क्यों नहीं कहोगे, एक साधारण से
अखवार के दफ्तर में किरानी का काम मिलना मोहाल है,और बात कर रहे हो विक्रमादित्य
के नवरत्नों में शामिल करने की।’
फिर से
गायत्री की पीठ थपथपाते हुए मैंने कहा- चलो कोई बात नहीं, विक्रमादित्य तो अब
इतिहास के पन्नों में चले गये हैं, फिलहाल तुम मेरे नवरत्नों में ही रहो। मान गया
तुम्हारी भी याददास्त को।
क्रमशः.....
Comments
Post a Comment