बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठाःतन्त्रयोगसाधना

गतांश से आगे...उन्नीसवां भाग

इस प्रकार हम देख रहे हैं कि तन्त्रों की संख्या अनेक है,और नामों की पुनरावृत्ति भी खूब हुयी है,किन्तु आन्तरिक अन्तर को नज़रअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए।
तत्पश्चात् प्रसिद्ध तन्त्रग्रन्थ  तन्त्रालोक के कुछ श्लोकों को उद्धृत किया गया था। यथा-  भैरवं यामलं चैव मताख्यं मङ्गलं तथा । चक्राष्टकं शिखाष्टकं बहुरुपं च सप्तम्म ।। वागीशं चाष्टमं प्रोक्तमित्यष्टौ वीरवन्दिते । एतत् सादाशिवं चक्रं कथयामि समासतः ।। स्वच्छन्दो भैरवश्चण्डः क्रोध उन्मत्तभैरवः । असिताङ्गो महोच्छुष्मः कपालीशस्तथैव च ।। एते स्वच्छन्दरुपस्तु बहुरुपेण भाषिताः ।। ब्रह्मयामलमित्युक्तं विष्णुयामलकं तथा । । स्वच्छन्दश्च रुरुश्चैव षष्ठं चाथर्वणं स्मृतम् । अतःपरं महादेवि मतभेदा छृणुष्व मे । रक्ताख्यं लम्पटाख्यं च मतं लक्ष्म्यास्तथैव च ।।  पञ्चमं चालिका चैव पिङ्लाद्यं च षष्टकम् ।। उत्फुल्लकं मतं चान्यद्विश्वाद्यं चाष्टमं स्मृतम् ।। चण्डभेदाः स्मृता ह्येते भैरवे वीरवन्दिते । भैरवी प्रथमा प्रोक्ता पिचुतन्त्रसमुद्भवा ।। सा द्विधा भेदतः ख्याता तृतीया तत उच्यते । ब्राह्मी कला चतुर्थी तु विजयाख्या च पञ्चमी ।। चन्द्राख्या चैव षष्ठी तु मङ्गला सर्वमङ्गला । एष मङ्गलभेदोयं क्रोघेशेन तु भाषितः ।। प्रथमं मन्त्रचक्रं तु वर्णचक्रं  द्वितीयकम् । तृतीयं शक्तिचक्रं तु कलाचक्रं चतुर्थकम् ।। पञ्चमंविन्दुचक्रं तु षष्ठं वै नादसंज्ञकम् । सप्तमं गुह्यचक्रं च खचक्रं चाष्टमं स्मृतम् ।। एष वै चक्रभेदोयमसिताङ्गेन भाषितः । अन्धकं रुरुभेदं च अजाख्यं मूलसंज्ञकम् ।। वर्णभण्टं विडङ्गञ्च ज्वालिनं मातृरोदनम् । कीर्तिताः परमेशेन रुरुणा परमेश्वरि ।। भैरवी चित्रिका चैव हंसाख्या च कदम्बिका । हृल्लेखा चन्द्रलेखा च विद्युल्लेखा च विद्युमान् ।। एते वागीश भेदास्तु कपालीशेन भाषिताः । भैरवी तु शिखा प्रोक्ता वीणा चैव द्वितीयका ।। वीणामणिस्तृतीया तु सम्मोहं तु चतुर्थकम् ।। पञ्चमं डामरं नाम षष्ठं चैवाप्यथर्वकम् ।। कबन्धं सप्तमं ख्यातम् शिरच्छेदोऽष्टमः स्मृतः । एते देवि शिखाभेदा उन्मत्तेन च भाषिताः । एतत्सदाशिवं चक्रमष्टाष्टक विभेदतः ।। - इन श्लोकों के बाद नोट की तरह लाल रंगों से दर्शाया गया था कि सत्साधकों को तन्त्र के इस वैविध्य से यथासम्भव बचना चाहिए,क्यों कि इनसे ऐहिक सिद्धि मात्र की प्राप्ति होती है,यानि इन्हीं में उलझा रहकर साधक का आध्यामिक विकास वाधित होजाता है,भले ही लौकिक प्रतिष्ठा बहुत कुछ लब्ध कर ले,किन्तु स्थायित्व का तो अभाव ही रहेगा। डामरादि विविध तन्त्र अल्पकालिक फलदायी भी कहे गये हैं। इन्द्रजालादि तन्त्र भी कुछ ऐसे ही हैं- सिर्फ चमत्कार का नाटक दिखाने वाले। अतः सतत सावधानी पूर्वक साधकों को जीवन यापन करना चाहिए। तन्त्रों के चमत्कारिक पक्ष को हमेशा हेय ही समझे। कुछ ऐसे ही मूढ़ साधक स्वयं फंस जाते हैं,और बाद में तन्त्र शास्त्र की ही आलोचना करते हैं- कि ये सब अवैदिक कार्य हैं,त्याज्य हैं व्यर्थ हैं...आदि आदि।
            उक्त श्लोकों का अर्थ तो वहां नहीं दिया गया था,किन्तु श्लोक विलकुल सरल प्रतीत हुए,जिनका सामान्य अर्थ मुझ जैसा संस्कृत का अल्पज्ञ भी आसानी से लगा सकता है। विद्वानों के लिए क्या कहना।
            पुस्तक का प्रसंग बाबा के संवाद की तरह ही रोचक और ज्ञानवर्द्धक लगा, फलतः दिन भर का थकान भूल कर,आसन मार,बैठ गया आद्योपान्त पढ़ने का मन बनाकर। गायत्री भी साथ में बैठी ही रही,और बीच-बीच में टिप्पणी करती रही,क्यों कि उसने तो एक बार पढ़ ही लिया था।  आगे वर्णमात्रिकाओं का प्रसंग था,जो हमलोग सुन चुके थे बृद्धबाबा के श्रीमुख से। अतः उनका भी विहगावलोकन करता गया। इसका परिणाम ये हुआ कि सारी बातें चित्रपट की तरह सामने आती गयीं,साथ ही जिन बातों या प्रसंगों का सही हृदयंगम नहीं हो पाया था,याकि किंचित भ्रम रह गया था,वो भी निवारित हो गया।
गायत्री के कहने पर ही जरा आगे वढ़कर प्रसंगों को देखा- एक बहुत ही मार्के की बात मिली,जैसा कि आधुनिक डार्विनवादी सोचते-कहते हैं,ठीक इसके विपरीत सत्य उद्घाटित हुआ- विश्व की रचना एक ही साथ वाच्य और वाचक दोनों रुपों में होती है,न कि पहले सदाशिव से पृथ्वी पर्यन्त तत्त्वों एवं नाना भुवनों का विकास होता है, तत्पश्चात् वर्णों,पदों आदि का ... अनन्यापेक्षिता यास्य विश्वात्मत्वं प्रति प्रभोः । तां परां प्रतिमां देवीं सङ्गिरन्ते ह्यनुत्तराम् ।। (तन्त्रालोक)
इसके बाद परात्रिंशिका का उद्धरण दिया हुआ था- पृथ्वी से लेकर शिव पर्यन्त छत्तीस तत्त्वों की तालिका बनाकर-
वाचक
वाच्य
क,ख,ग,घ,ङ
पञ्चमहाभूत
च,छ,ज,झ,ञ
पञ्चतन्मात्रा
ट,ठ,ड,ढ,ण
पञ्चकर्मेन्द्रिय
त,थ,द,ध,न
पञ्चज्ञानेन्द्रिय
प,फ,ब,भ,म
मन,बुद्धि,अहंकार,प्रकृति,पुरुष
य,र,ल,व
राग,विद्या,कला,माया
श,ष,श,ह
महामाया,शुद्धविद्या,ईश्वर,सदाशिव
क्ष
शक्ति
सभी स्वरवर्ण
शिव

राशि
वर्ण
तुला
कवर्ग
वृश्चिक
चवर्ग
धनु
टवर्ग
मकर
तवर्ग
कुम्भ
पवर्ग
मीन
य,र,ल,व,क्ष
इस तालिका को देखने के बाद एक प्रश्न उठा कि ऊपर तत्त्वों की संख्या तो छत्तीस कही गयी,किन्तु इस तालिका में कुल पैंतीस तत्त्व ही गणित हुए,परन्तु चेष्टा करके भी इसे स्पष्ट न कर पाया। पुनः वर्णों के अधिष्ठाता ग्रहादि,राश्यादि एवं नक्षत्रादि की तालिका भी सुस्पष्ट की गयी थी। यथा-
राशि
वर्ण
मेष
अ,आ.इ.ई
वृष
उ,उ,ऋ
मिथुन
ॠ,लृ,ॡ
कर्क
ए,ऐ
सिंह
ओ,औ
कन्या
अं,अः,शवर्ग,ळ






वर्ग
ग्रह
स्वरवर्ग
सूर्य
कवर्ग
मंगल
चवर्ग
शुक्र
टवर्ग
बुध
तवर्ग
बृहस्पति
पवर्ग
शनैश्चर
यवर्ग
चन्द्रमा
उक्त तालिकायें प्रपञ्चसारतन्त्रम् के निम्न उद्धरण के आधार पर बनायी गयी हैं- तदा स्वरेशः सूर्योऽयं कवर्गेशस्तु लोहितः । चवर्गप्रभवः काव्यष्टवर्गाद् बुधसम्भवः ।। तवर्गोत्थः सुरगुरुः पवर्गोत्थः शनैश्चरः । यवर्गजोऽयं शीतांशुरिति सप्तगुणा त्वियम् ।। यथा स्वरेभ्यो नान्ये स्युर्वर्णाःषड्वर्गभेदिता । तथा सवित्रनुस्यूतं ग्रहष्टकं न संशयः ।।
तथा च-
आद्यैर्मेषाह्वयो राशिरीकारान्तैः प्रजायते । ऋकारान्तैरुकाराद्यैर्वृषो युग्मं ततस्त्रिभिः ।। एदैतोः कर्कटो राशिरोदौतोः सिंहसम्भवः । अमः शवर्गलेभ्यश्च सञ्जाता कन्यका मता ।। षड्भ्यः कचटतेभ्यश्च पयाभ्यां च प्रजजिरे । बणिगाद्याश्च मीनान्ता राशयः शक्तिजृम्भणात् ।। चतुर्भिर्मादिभिः सार्द्ध स्यात् क्षकारस्तु मीनगः ।।  
तथा च-
एभ्यः एव तु राशिभ्यो नक्षत्राणां च सम्भवः । स चाप्यक्षरभेदेन सप्तविंशतिधा भवेत् ।। आभ्यामश्वयुगेर्जाता भरणी कृत्तिका पुनः । लिपित्रयाद्रोहिणी च तत्पुरस्ताच्चतुष्टगात् ।। एदैतोमृगशीर्षाद्रे तदन्त्याभ्यां पुनर्वसुः । अमसोः केवलो योगो रेवत्यर्थं पृथङ्मतः ।। कतस्तिष्यस्तथाश्लेषा खगयोर्घङ्योर्मघा । चतः पूर्वाथ छजयोरुत्तरा झञयोस्तथा ।। हस्तश्चित्रा च टठयोः स्वाती डादक्षरादभूत् । विशाखा तु ढणोद्भूता तथदेभ्योनुराधिका ।। ज्येष्ठा धकारान्मूलाख्या नपफेभ्यो वतस्तथा । पूर्वाषाढा भतोन्या च सञ्जाता श्रवणा मतः । श्रविष्ठाख्या च यरवोस्ततः शतभिषा लतः । वशयोः प्रोष्ठपत्संज्ञा षसहेभ्यः परा स्मृतः।। -  इन श्लोकों के आधार पर वर्णाधारित नक्षत्र-सारणी निम्नांकित रुप से बन पा रही है-

२७ नक्षत्र
अकारादि वर्ण
अश्विनी
अ,आ
भरणी
कृत्तिका
ई,उ,ऊ
रोहिणी
ऋ,ॠ,लृ,ॡ
मृगशिरा
आर्द्रा
पुनर्वसु
,
पुष्य
आश्लेषा
ख,ग
मघा
घ,ङ
पूर्वा
उत्तरा
छ,ज
हस्ता
,
चित्रा
ट,ठ
स्वाती
विशाखा
ढ,ण
अनुराधा
त,थ,द
ज्येष्ठा
मूल
न,प,फ
पूर्वाषाढ
उत्तराषाढ
श्रवण
धनिष्ठा
य,र
शतभिष
प्रोष्ठपदा(पू.भा.)
व,श
उत्तरभाद्रपद
ष,स,ह,क्ष
रेवती
अं,अः,ळ

   तदुपरान्त एक और सारणी-संकेत मिला,जिसमें उक्त सभी वर्णों को पुनः पञ्च महाभूतों के अधीन बतलाया गया है।इसका आधार भी उक्त प्रपञ्चसारतन्त्र तन्त्रम् ही है। यथा-
पञ्महाभूत
अकादिवर्ण
शत्रुभूत
मित्रभूत
वायु
अ,आ,ए,क,च,ट,त,प,य,ष
जल
अग्नि
अग्नि
इ,ई,ऐ,ख,छ,ठ,थ,फ,र,क्ष
जल
वायु
पृथ्वी
उ,ऊ,ओ,ग,ज,ड,द,ब,ल,ळ
अग्नि
जल
जल
ऋ, ॠ,औ,घ,झ,ढ,ध,भ,व,स
अग्नि
पृथ्वी
आकाश
लृ,ॡ,क्ष,ङ,ञ,ण,न,म,श,ह
  0
 0
इस सारणी में कुछ गौर करने लायक बातें मिली,जिसके विषय में गुरुजी ने लिखा था कि समस्त वर्ण विसर्गात्मक ही हैं,अतः सारणी में अलग से विसर्ग को शामिल नहीं किया गया है,तथा हम देख रहे हैं कि क्षक्रमशः अग्नि और आकाश दोनों भूतों में उपस्थित है। इन पाञ्चभौतिक वर्णों का प्रयोग स्तम्भन,परिवर्षण आदि कार्यों में किया जाता है। मन्त्र-साधना में साधक के हिताहित का विचार करने के लिए इन वर्गीकरणों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। जिस प्रकार भूतों में परस्पर मित्र-शत्रु भाव होता है,उसी भांति साधक के नामाक्षर से भी भूतादि सम्बन्ध विचार आवश्यक है, अन्यथा लाभ के बदले हानि ही होगी। परस्पर विरोधी तत्त्वों का मेल कैसे सम्भव है सोचने वाली बात है। जैसे- जल तत्त्व साधक को अग्नितत्त्व वाले मन्त्र कैसे लाभ दे पायेंगे ! इसी भांति अन्य तत्त्वों का भी विचार करना चाहिए। उक्त तत्त्व सारणी में स्पष्ट है कि आकाश वस्तुतः निर्लिप्त है,उसे किसी से शत्रुता या मैत्री नहीं है,यानी सभी तत्त्वों के साथ उसका समान व्यवहार है। पञ्चीकरण-सिद्धान्त से भी स्पष्ट है कि आकाश में सभी तत्त्वों का प्रतिनिधित्व है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है-

तत्त्व
मित्र
शत्रु
पृथ्वीतत्त्व
जलतत्त्व
अग्नितत्त्व
जलतत्त्व
पृथ्वीतत्त्व
वायुतत्त्व
अग्नितत्त्व
वायुतत्त्व
जलतत्त्व
वायुतत्त्व
अग्नितत्त्व
जलतत्त्व
पृथ्वीतत्त्व और जलतत्त्व परस्पर मित्र हैं,
तथा पृथ्वीतत्त्व और अग्नितत्त्व परस्पर शत्रु हैं। अग्नितत्त्व और वायुतत्त्व परस्पर मित्र हैं,तथा जलतत्त्व और अग्नितत्त्व परस्पर शत्रु हैं। जलतत्त्व और वायुतत्त्व परस्पर शत्रु हैं। ध्यातव्य है कि आकाश तत्त्व इस मित्रामित्र बन्धन से सर्वदा मुक्त है। इसे उक्त सारणी से भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।
आगे, शारदातिलक ,द्वितीयपटल के श्लोकों को उद्धृत करके उपयोगिता और सावधानी की भी बात कही गयी है। इसके व्याख्याकार कहते हैं कि मन्त्र–साधकों के लिए वर्णों का पञ्चभूतात्मक वर्गीकरण अति आवश्यक है। जिस प्रकार भूतों में परस्पर मित्र-शत्रुभाव है,उसी प्रकार मन्त्र–वर्णों और साधक के नाम-वर्ण(पुकारनाम,न कि राशिनाम) के वर्णों के बीच मित्रामित्र सम्बन्ध-विचार अवश्य किया जाना चाहिए। ताकि किसी प्रकार अनिष्टकर प्रभाव न पड़े साधक पर। इसे समझने के लिए ऊपर दिये गये सारिणियों पर ध्यान देना चाहिए।
मूल श्र्लोक इस प्रकार हैं-   मन्त्रसाधकयोराद्यो वर्णः स्यात् पार्थिवो यदि । तत्कुलं तस्य तत्प्रोक्तमेव-मन्येषु लक्षयेत् । पार्थिवं वारुणं मित्रमाग्नेये मारुतं तथा ।। ऐन्द्रवारुणयोः शत्रुर्मारुतः परिकीर्तितः । आग्नेये वारुणं शत्रुर्वारुणे तैजसं तथा ।। सर्वेषामेव तत्त्वानां सामान्यं व्योमसम्भवम् । परस्परविरुद्धानां वर्णानां यत्र सङ्गतिः । समन्त्रः साधकं हन्ति किं वा नास्य प्रसीदति ।।
उक्त सारिणी और नियमों के अतिरिक्त,आगे एक और सारणी उपलब्ध हुयी,जिसमें पांचों मूलतत्त्वों को नौ वर्गों में रखा गया है।इस विचार से बनी सारिणी में एक खास बात ये लक्षित होती है कि पृथ्वीतत्व के हिस्से में दूसरे और नवें वर्ग में स्थान रिक्त है,तथा नौवें वर्ग में जलतत्त्व का स्थान भी रिक्त है। वर्णों का विशेष विचार करने हेतु इन बातों पर भी ध्यान देना चाहिए।सारणी के आधार-श्र्लोक निम्नांकित हैं––
अथ भूतलिपिं वक्ष्ये सुगोप्यामतिदुर्लभम् । यां प्राप्य शम्भोर्मुनयः सर्वान् कामान् प्रपेदिरे।। पञ्चह्रस्वा सन्धिवर्णा व्योमेराग्निजलं धरा । अन्त्यमाद्यं द्वितीयं च चतुर्थं मध्यमं क्रमात् ।। पञ्चवर्गाक्षराणि स्युर्वान्तं श्वेतेन्दुभिः सह । एषा भूतलिपिः प्रोक्ता द्विच- त्वारिंशदक्षरैः ।। आयम्बराणामं वर्गाणां पञ्चमाः शार्णसंयुताः । वर्गाद्या इति विज्ञेया नव वर्गाः स्मृता अमी।।  (शारदातिलक सप्तमपटल)    
 
वर्ग
पञ्चमहाभूत
 क्रम
आ.
वा.
अ.
ज.
पृ.
.
लृ
.
0
.
.
.
.
.
८.
.
0
0
इन सभी वर्गों का स्वामित्व भी स्पष्ट किया गया है,आगे के श्लोकों में- व्योमेराग्निजलक्षोणी वर्गवर्णान् पृथग्विदुः । द्वितीयवर्गे भूर्नस्यात् नवमे न जलं धरा ।। विरिञ्चिविष्णुरुद्राश्वि- प्रजापतिदिगीश्वराः । क्रियादिशक्तिसहिताः क्रमात्स्युः वर्गदेवताः ।। ऋषिः स्याद्दक्षिणामूर्तिः गायत्रं छन्द ईरितम् । देवता कथिता सद्भिः साक्षाद्वर्णेश्वरी परा ।।  अर्थात् इन सभी वर्णों के देवता,ऋषि और छन्द भी स्पष्ट हैं। क्रिया ज्ञान और इच्छा आदि इन वर्णों की शक्तियां कही गयी हैं। विरिञ्चि, विष्णु, रुद्र, अश्विनी, प्रजापति तथा चारो दिगीश्वर इनके स्वामी कहे गये हैं। इन सारी बातों से स्पष्ट है कि ये वर्ण (अक्षर) अपने पद को सार्थक करते हैं। ये केवल सांकेतिक ध्वनियां नहीं है, प्रत्युत परम चैतन्य महाशक्तियां हैं। ये सारा जगत प्रपञ्च वाच्यात्मक विश्व, इन्हीं वाचक वर्णों के अधीन है ऐसा कहना जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। सृष्टि के आदि क्षण से शब्द और अर्थ अविनाभूत हैं। सूक्ष्म को आत्मसात कर लेने पर समस्त स्थूल का भी अधिग्रहण हो जाता है- इसमें जरा भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए। ये समस्त मातृका-वर्ण ही विविध मन्त्रों और विद्याओं के जनक हैं,अतः इनकी महत्ता और उपादेयता को स्वीकारने में जरा भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
परात्रिंशिका का वक्तव्य है- अमूला तत्क्रमाज्ज्ञेया क्षान्ता सृष्टिरुदाहृता । सर्वेषामेव मन्त्राणां विद्यानां च यशस्थिनि ।। इयं योनिः समाख्याता सर्वतन्त्रेषु सर्वदा ।। अस्तु ।।
गुरुमहाराज की उस विशिष्ट पुस्तिका में तन्त्रों का सम्यक् विवरण बहुत ही कायदे से सम्पादित किया गया था,जिसे समझने में मुझ सरीखे सामान्य ज्ञान वाले को जरा भी कठिनाई नहीं हुयी। अतः सिलसिलेवार देखता गया सभी प्रसंगों को। ज्यादातर बातें तो वे ही थी,जिन पर उपद्रवीबाबा और विन्ध्याचल वाले वृद्धबाबा काफी कुछ प्रकाश डाल चुके थे। प्रायः सम्पादन ऐसा था जैसे कोई विद्यार्थी अपना नोट्स तैयार करता हो परीक्षा की तैयारी हेतु। इस पर गायत्री ने हँसते हुए कहा- वृद्धबाबा ने तो अपना गेसपेपर ही दे डाला हमलोगों को । अब परीक्षा की तैयारी में जरा भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
मुझे भी कुछ ऐसा ही लग रहा है। वर्णमातृकाओं से काफी कुछ परिचय मिल चुका था। उसके आधार पर आगे की बातों को समझने में सुविधा हो रही थी। लम्बे समय से चला आ रहा एक बड़ा संशय भी निर्मूल हो गया। जैसा कि पहले लगता था- ये क्या करते हैं लोग- किसी स्तोत्र का निरन्तर पाठ करते जाते हैं। स्तोत्रों में रहता क्या है- तत्देवों का स्तुतिगान, प्रसस्ति, चरित-गाथा...वस यही तो- तोते की भांति रटे जा रहे हैं आजीवन एक ही शब्द या शब्दजाल को। क्या इससे स्वयं का सम्मोहन या मूढत्व उत्पन्न नहीं होता? और इसे ही लोग पूजा-आराधना-उपासना कह कर तुष्ट हो जाते हैं। इससे आखिर होता क्या होगा ? तात्कालिक शान्ति, सुकून, कुछ ऐसा भान कि मैंने कुछ अच्छा कर लिया,या कहें कुछ बुरे से बचे...किन्तु वर्णमात्रिकाओं का रहस्य जान कर सारा संशय तिरोहित हो गया।
गुरुमहाराज ने एक स्थान पर टिप्पणी स्वरुप अंकित किया था- मन्त्र और प्रार्थना में साम्य भी है,और वैषम्य भी। यह जरा समझ लेने जैसी चीज है। इसमें जरा भी संदेह नहीं कि मन्त्रों में वर्णों और पदों की आनुपूर्वी नियत रहती है, और प्रार्थना में आनुपूर्वी का होना अपरिहार्य नहीं है। हो भी सकती है,और नहीं भी। प्रार्थना और मन्त्र में यह वैषम्य आधार भूत कहा जा सकता है। यहां यह सवाल उठ सकता है कि यदि आनुपूर्वी नियत हो तो क्या प्रार्थना भी मन्त्र की मर्यादा को प्राप्त हो सकती है? या कहें प्रार्थना मन्त्र बन जायेगा,यानी मन्त्र की तरह शक्तिशाली हो जायेगा? वर्णमातृकाओं के सम्यक् ज्ञान के बाद यह सवाल बचकाना सा लगता है। क्यों कि सत्य तो यह है कि समस्त वर्ण ही मन्त्रस्वरुप हैं, ऐसी स्थिति में उनसे निर्मित पद मन्त्र नहीं होंगे- ऐसा कैसे हो सकता है ! इससे स्पष्ट है कि नियत आनुपूर्वी-सम्पन्न प्रार्थना भी कालान्तर में मन्त्र पदवी से अभिषिक्त हो ही जायेगा। ध्यातव्य है कि नाना साधकों की प्रबुद्ध चेतना, अथवा एक ही साधक की प्रबल तपश्चर्या घनीभूत होकर प्रार्थना को मन्त्र पद पर अभिषिक्त कर देती है। प्रार्थना जीवन्त हो जाती है- मन्त्रों की भांति ही। परिणामतः किसी सिद्ध वा साधक द्वारा की गयी प्रार्थना का यह रुपान्तरण अगले के लिए मन्त्र की तरह कार्य करने लगता है। पौराणिक, वैदिक, औपनिषदिक विविध प्रार्थनाओं को हम मन्त्रों की तरह चैतन्य पाते हैं,क्यों कि उनका सद्यः रुपान्तरण हो गया होता है। जल,वर्फ,और वाष्प में एक ही जलतत्त्व की विद्यमानता की भांति, देश-काल-पात्रादि प्रभाव से विविध वर्ण-योजनायें कारगर होती हैं,सिद्धि दायक होती हैं। सामान्य जन के लिए सन्तवाणियों का नियमित पाठ का यही औचित्य और महत्त्व है।
     वर्णमातृकाओं से परिचय कराकर,गुरुमहाराज आगे,उनसे निर्मित,और समायोजित मन्त्रों के रहस्य पर प्रकाश डालते हुये लिखते हैं कि उपायात्मक मन्त्रों के रुप में परमेश्वर ही स्फुरित होते हैं। वस्तुतः सामान्यतया उच्चारण किये जाने वाले मन्त्र, मन्त्र नहीं हैं। मन्त्रों की जीवभूत अव्यय शक्ति ही वास्तव में मन्त्र-पद-वाच्य है। शिवसूत्रविमर्शिनी में कहा गया है- उच्चार्यमाणा ये मन्त्रा न मन्त्रांश्चापि तद्विदुः...मन्त्राणां जीवभूता तु या स्मृता शक्तिरव्यया । तया हीना वरारोहे निष्फला शरदभ्रवत्।।- यानी शरदकालिक मेघ की भांति वे निष्फल हैं। वर्णात्मक और वदनात्मक तक ही भावना बनाये रखना- सर्वदा मूढता ही कही जायेगी। यथा- वर्णात्मको न मन्त्रो दशभुजदेहो न पञ्चवदनौपि । संकल्पपूर्वकोटौ नादोल्लासो भवेन्मत्रः।।  सच पूछा जाय तो विश्व-विकल्प की पूर्वकोटि में उल्लसित नाद ही मन्त्र है। महार्थमञ्जरी में संकेत है कि मननत्राणधर्माणो मन्त्राः’– अर्थात्  मनन और त्राण- ये ही धर्म हैं मन्त्र के। परस्फुरणा का परामर्श ही वस्तुतः मनन है,परशक्ति के महान वैभव की अनुभूति ही मनन है। तथा अपूर्णता अथवा संकोचमय भेदात्मक संसार के प्रशमन को त्राण कहा गया है। इसे और भी स्पष्ट किया जाय तो कहा जा सकता है कि शक्ति के वैभव या विकास-दशा में मनन युक्त तथा संकोच वा सांसारिक अवस्था में त्राणमयी अनुभूति ही मन्त्र है। यथा-मननमयी निज विभवे निजसङ्कोचमये त्राणमयी । कवलितविश्वविकल्पा अनुभूतिः कापि मन्त्रशब्दार्थः।।  या कह सकते हैं कि परावागात्मक अनुभूति ही मन्त्र है। यह अनुभूति निरन्तर विधिवत मनन(अनुसन्धि) से उत्पन्न होती है,यही कारण है कि संसार को क्षीण करने वाला- त्राणकारक बन पाता है। इस सम्बन्ध में सौभाग्यभास्कर एवं नेत्रतन्त्रम् के वचन हैं- पूर्णाहन्तानु- सन्ध्यात्मा स्फूर्जन् मननधर्मतः । संसारक्षयकृत्त्राणाधर्मतो मन्त्र उच्यते ।। तथा च मोचयन्ति च संसाराद्योजयन्ति परे शिवे । मनन त्राणधर्मित्वात्तेन मन्त्र इति स्मृताः।।
           मन्त्र के सम्बन्ध में आगे वर्णित बातें और भी गूढ प्रतीत हुयी। गुरुजी लिखते हैं कि शिवसूत्रविमर्शिनी में तो चित्त को ही मन्त्र कहा गया है। सूत्र है- चित्तंमन्त्रः ।। अब इस चित्त को समझने के लिए प्रत्यभिज्ञा हृदय के संकेत को समझना होगा-चितिरेव चेतनपदादवरुढा चेत्थसङ्कोचिनी चित्तम्   स्वातन्त्र्यात्मक स्वरुप की संकोचदशा ही चित्त है और विकास अवस्था ही चिति कही गयी है। इस प्रकार निरन्तर सम्यक् चिन्तन से साधक का चित्त ही मन्त्र हो जाता है। अर्थात् केवल वर्ण संघट्टना ही मन्त्र नहीं है। चिति- शब्द की चरमावस्था है, यानी इसके आगे अब शब्द का सामर्थ कहां ! शब्दब्रह्मस्वरुपेयं शब्दातीतं तु जप्यते...। शब्द ब्रह्मरुप अपर ब्रह्म का अतिक्रमण करने पर शब्दातीत परब्रह्म की पदवी प्राप्त की जा सकती है।
          गायत्री ने याद दिलाया- उपेन्दर भैया ने कहा था न एक बार- जपात् सिद्धि जपात् सिद्धि जपात् सिद्धि वरानने...ध्यान है आगे की उनकी बात ? जपेन् सिद्धि कदापि नहीं, जपते-जपते सिद्धि स्वतः लब्ध होजाती है हठात् मानो पेड़ से टूट कर कोई पीला पत्ता भूमिष्ठ हो जाता है- जपात्- यही तो इशारा है,जो आम लोग प्रायः समझ नहीं पाते।’
            मैंने स्वीकृति मुद्रा में सिर हिलाते हुये कहा- ज्यादा काबिल मत बनो,ये उपेन्द्रबाबा की ही कृपा है कि आज इतने अधिकार पूर्वक  हमलोग बातें कर रहे हैं ऐसे गूढ़ विषय पर।
            तुनकती हुयी गायत्री ने कहा- बात तो तुम सोलह आने सही कह रहे हो, किन्तु पहली बात तो ये कि अन्ततः वो मेरे भैया हैं,और दूसरी बात ये कि उन तक पहुंचाने का असली श्रेय मुझे ही मिलना चाहिए। उस दिन पूष की ठंढी रात में तुम्हारे ऊपर पानी न छिड़कती और मॉर्निंगवाक के लिए न भेजती तो क्या यह सब सम्भव था ? न मेरे भैया मिलते और तुम इतने काबिल बनते। बस घोंघाबसन्त ही रह जाते।’
            गायत्री की बातों पर मैं मुस्कुरा कर रह गया- चलो,श्रेय दिया तुम्हें ही।
मन्त्र-शक्ति को समझने के लिए नारी-शक्ति का समादर तो जरुरी ही है । ये देखो,आगे क्या कहते हैं गुरुमहाराज- तदाक्रम्य बलं मन्त्राः सर्वज्ञबलशालिनः । प्रवर्तन्तेधिकाराय करणानीव देहिनाम् ।। तत्रैव सम्प्रलीयन्ते शान्तरुपा निरञ्जनाः । सहाराधकचित्तेन तेन ते शिवधर्मिणः।। स्पन्दकारिका का कथन है कि मन्त्र चित्तशक्ति का आधार लेकर सर्वज्ञत्व आदि बल से समन्वित होकर अनुग्रहरुप स्वाधिकार में प्रवृत होते हैं। उनका कोई आकार विशेष नहीं होता। वे प्राणियों के इन्द्रियों के समान हैं। जब आराधक का चित्त आराध्य में लीन हो जाता तब वे शिवात्मक माया कालुष्य से रहित मन्त्र भी वहीं चित्तशक्ति में समाविष्ट हो जाते हैं। शिव,शक्ति और आत्मा- ये तीन ही श्रेष्ठ तत्त्व हैं। पूर्णकाम शिव अपनी स्वातन्त्र्यात्मक शक्ति द्वारा चराचर जगत की रचना करते हैं,इस प्रकार शक्ति ही सबका उपादान कारक सिद्ध है।
इसके आगे के प्रसंग में मन्त्र की कुछ परिभाषाओं का जिक्र था- मननं विश्वविज्ञानं त्राणं संसारबन्धनात् । यतः करोति संसिद्धिं मन्त्र इत्युच्यते ततः ।।
(पिंगलामत)मनन-त्राणाच्चैव मद्रुपस्यावबोधनात् ,मन्त्र इत्युच्यते सम्यग् मदधिष्ठानतः प्रिये ।। (रुद्रयामल), पूर्णाहन्तानुसंध्यात्म-स्फूर्जन् मननधर्मतः । संसारक्षयकृत् त्राणधर्मतो मन्त्र उच्यते ।। (ललितासहस्रनाम भाष्य- भास्करराय-वचन) अर्थात् जो मनन-धर्म से पूर्ण अहन्ता के साथ अनुसन्धान करके आत्मा में स्फुरण उत्पन्न करता है, तथा संसार का क्षय करने वाले त्राणगुणों से युक्त हो, वही मन्त्र है। मन्त्रोदेवाधिष्ठितोसावक्षररचनाविशेषः   -  देवता से अधिष्ठित यह एक अक्षर-रचना विशेष है। कहते हैं- सर्वप्रथम बीजमन्त्रों की उत्पत्ति हुयी। वह भी एक खास वजह,और विशेष अवस्था में। ईश्वरेच्छा से समष्टि के प्रथम स्पन्दन से ऊँकार की उत्पत्ति हुयी। तदुपरान्त प्रकृति की व्यष्टि स्पन्दन से क्रमशः पृथ्विव्यादि पंचतत्त्व सहित मन,बुद्धि और अहंकार- ये आठ बीजों की उत्पत्ति हुयी। अ+उ+म् = ऊँ ,अ+ए+म्= ऐँ-गुरुबीज, ह+र+ई+म् =ह्रीँ-शक्तिबीज ,श+र+ई+म्= श्रीँ- रमाबीज , क+ल+ई+म् =क्लीँ - कामबीज, क+र+ई+म = क्रीँ- योगबीज , ट+र+ई+म् = ट्रीँ तेजोबीज, स+त+र+ई+म् = स्त्रीँ- शान्तिबीज, ह+ल+र+ई+म् = ह्ल्रीँ- रक्षाबीज। - शब्दब्रह्म की ये ही आठ प्रकृतियां हैं। इस सम्बन्ध में कहा गया है- बीजमन्त्रास्त्रयः पूर्वं ततोष्टौ परिकीर्तिताः । गुरुबीजं शक्तिबीजं रमाबीजं ततो भवेत् ।। कामबीजं योगबीजं तेजोबीजमथापरम् । शान्तिबीजं च रक्षा च प्रोक्ता चैषां प्रधानता ।।  इसी प्रसंग में आगे लिखा गया था- परम शिव ने भगवती उमा के प्रति कहा है कि मेरे प्रणव में अ,उ,म अवस्थित है,और तुम्हारे प्रणव में  उ,म और अ- इस प्रकार उमा पद की उपादेयता सिद्ध होती है।  ये उमा ही ओंकार-सार-शक्ति रुपा हैं। प्राणिमात्र की बुद्धि जब सुप्त हो जाती है,या कहें अबुद्धदशा की स्थिति में हृत्कमल के अन्तर्गत दहराकाशरुपी शिव के सिर में अकारादिमात्रादित्रय शून्य (अमात्र) प्रणवनादभागी शब्दब्रह्मात्मक (अन-आहतनाद) रुप में  जो इन्दुकला वर्तमान रहती है, वही उमा है  अर्द्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः त्वमेव संध्या सावित्री त्वमं देविजननि परा...(रात्रिसूक्त) आदि सम्बोधनों से महर्षि मार्कण्डेय ने इसी उमा का निदर्शन किया है। तुरीय तत्वात्मक ये हेमवती उमा ही अति तूर्यतत्व का दिङ्गनिर्देश करती हैं। अकार,उकार,मकार,विन्दु,नाद- इन कलाओं का स्वच्छन्दतन्त्रम् में एकप्रणव नाम से भी उल्लेख किया गया है। ब्रह्मा,विष्णु, रुद्र,ईश्वर,सदाशिवादि क्रमशः इनके देवता कहे गये हैं। उक्त पांचो को क्रमशः ह्रस्व,दीर्घ,प्लुत,सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म के नाम से भी जाना जाता है। नेत्रतन्त्रम् में बड़ा ही गूढ़ संकेत है- प्रणवः प्राणिनां प्राणो जीवनं सम्प्रतिष्ठितम्....। ये प्रणव ही प्राणिमात्र का प्राण है।अकार,उकार,मकार, विन्दु, अर्द्धचन्द्र, रोधिनी, नाद, नादान्त, शक्ति, व्यापिनी,समना और उन्मना  इन बारह कलाओं से ओंकार, पृथ्वी से शिव पर्यन्त समस्त तत्त्वों और भुवनों को आकर्षित करता है-  अकारश्च उकारश्च मकारो विन्दुरेव च । अर्द्धचन्द्रो निरोधी च नादो नादान्त एव च ।। कौण्डिलो व्यपिनी शक्तिः समनैकादशी स्मृता । उन्मना  च ततोऽतीता तदतीतं निरामयम् ।। (स्वच्छन्दतन्त्र) इसमें समना पर्यन्त भवपाशजाल से मुक्ति नहीं है। वस्तुतः वह तो उन्मना की अवस्था है समनान्तं वरारोहे पाशजालमनन्तकम्। इसी क्रम में आगे लिखा है–– ओंकारगत अणुतर ध्वनियाँ उपर्युक्त विन्द्वादि ही हैं। इस सम्बन्ध में भास्कराय जी कहते हैं- विन्द्वादि नव कलाएँ सूक्ष्म,सूक्ष्मतर,सूक्ष्मतम कालोच्चरित ध्वनि विशेष वा वर्णविशेष  ही हैं,जो ककारादि सदृश स्पष्ट उच्चरित न होने पर भी,जिस भांति अनुस्वारादि को वर्ण माना गया है,इन्हें भी मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
            आगे, इसी क्रम में गुरु महाराजजी ने वर्णोच्चारण की मात्राओं का बड़ा ही सुन्दर क्रम दर्शाया है- काल का परमअणु(परणाणु) लव कहलाता है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि एकत्रित,कमल के अनेक पत्तों को सूई की नोक से भेदने में भले ही काल-भेद-शून्य प्रतीत होता है,किन्तु बात ऐसी होती नहीं। एक पत्ते को भेदने के पश्चात् ही दूसरा पत्र भेदित होता है,फिर तीसरा...चौथा...। इस अल्प कालावधि की ही लव संज्ञा है। इसे ही शास्त्रीलोग शतोत्पलपत्रन्याय कहते हैं। ऐसे ही २५६ लव की एक(पूर्ण) मात्रा कही गयी है। इससे आधे यानी १२८ लव विन्दु का उच्चारण काल होता है,आगे क्रमशः तदर्ध होते जाता है,यानी ६४लव अर्द्धचन्द्र का, ३२लव रोधिनी का, १६लव नाद का, ८लव नादान्त का, ४लव शक्ति का, २लव व्यापिका का,और १लव समना का। इससे आगे उन्मना तो सर्वथा कालहीन है । कालशून्य कहना अधिक अच्छा है। यही परमशिव-प्राप्ति-द्वार है। ऊर्ध्वमुन्मनसो यत्र तत्र कालो न विद्यते, अथवा उन्मन्यन्ते परे योज्यो न कालस्तत्र विद्यते । स कालः साम्संज्ञश्च जन्ममृत्युभयापहः । शब्दब्रह्म इस काल की शक्ति का आधार लेकर ही नाना जन्मादि विकारों का जनक बनता है। भोक्ता, भोग्य,और भोगरुप में प्रसृत होता है। यह कालशक्ति ही स्वातन्त्र्यशक्ति है। तन्त्रालोक का कथन है- क्रमाक्रमात्मा कालश्च पराःसंविदि वर्तते । काली नाम पराशक्तिः सैव देवस्य गीयते ।। क्रमदीपिकाकार ने काल के भी दो भेद किये हैं- पर और अपर। यह अपरकाल ही उन्मनी है। कुण्डलिनी रुप उन्मनीशक्ति उसकी अपनी उपाधि है। यूं तो यह समस्त पिण्ड में व्याप्त है,फिर भी हृदयदेश में विशेष रुप से ध्वनित होते रहता है। यही पिण्डमन्त्र भी है- पिण्डमन्त्रस्य सर्वस्य स्थूल वर्णक्रमेण तु । अर्द्धेन्दुविन्दुनादान्तः शून्योच्चाराद्भवेच्छिवः ।। (विज्ञानभैरवतन्त्रम्) परावाक रुप प्रणवात्मक कुण्डलिनीशक्ति ही प्रकृति है,पश्यन्ति आदि इसकी ही विकृतियां हैं। पैर के अंगूठे से लेकर हृदय पर्यन्त अकार यानी ब्रह्मांश है। इसमें ही समस्त भुवनात्मक प्रपञ्च विद्यमान हैं। उससे आगे कण्ठदेश तक उकार यानी वैष्णवांश का क्षेत्र है। तदुर्ध्व तालु पर्यन्त मकार यानी रुद्रांश क्षेत्र है। नेत्रतन्त्रम् के २१वे अधिकार में इस कुण्डलिनीशक्ति के सम्बन्ध में अति व्यापक वर्णन है,जो सर्वथा गुरुगम्य है । किस भांति यह शक्ति हमारे शरीर में अवगुण्ठित है,कैसे इसके कार्य हैं,कैसी इसकी क्रिया-साधना है- स्वरुप सहित विशद वर्णन वहां देखा जा सकता है। योग्य गुरु के संरक्षण में ही इसका अभ्यास होना चाहिए,किन्तु ध्यान रहे- योग्य शिष्य की महत्ता और उपादेयता को भी कदापि नकारा नहीं जा सकता। भूमि और बीज दोनों ही उत्तम होने चाहिए। इस आद्य मन्त्र- महामन्त्र ओंकार की महत्ता जितनी भी कही जाय कम ही है। अस्तु।
            
मन्त्र के विषय में और भी बहुत सी बातें दी हुयी थी उस पुस्तिका में, किन्तु गायत्री के कहने पर मैं सीधे मन्त्रों के प्रकार और भेदों वाले प्रसंग पर आ गया, क्यों कि उसकी अभिरुचि उसमें विशेष प्रतीत हुयी,और कुछ बातें शायद समझ न पायी थी,इस कारण उसपर चर्चा करना चाह रही थी मुझसे।
            मैंने आगे पढ़ा- मन्त्र का एक अर्थ लोग आमन्त्रण भी लगाते हैं- यानी धर्म,अर्थ, काम, मोक्ष का सम्यक् आमन्त्रण कराये जो,यानि लब्ध कराने की क्षमता रखता हो जो,उसे मन्त्र कहा जाता है। सच्चाई ये है कि मन्त्र में पुरूषार्थ चतुष्टय की सिद्धि की क्षमता तो है ही,किन्तु उसका सम्यक् प्रबोधन अत्यावश्यक है, अन्यथा फिर वही शरदकालीन मेघ वाली बात होगी- जो जल-रुपी परिणामहीन है। ये ठीक है कि सभी मन्त्र परम चैतन्य हैं,किन्तु फिर भी साधक को उसका प्रबोधन तो करना ही होता है। यानी चैतन्य को भी स्वयं के लिए चैतन्य करना, या कहें चैतन्य का बोध...। साधक की अपनी शक्ति प्रबुद्ध होकर मन्त्र की शक्ति को प्रबुद्ध करती है। जीवशक्ति जब दैवीशक्ति से एकाकार होजाती है,तभी मन्त्र  कार्यशील होता है।
            मन्त्रों के प्रकार विभिन्न हैं। उनकी नाना जातियां हैं। नाना भेद हैं। मूलमन्त्र अथवा महामन्त्र के गर्भ से ही सभी मन्त्र जनित होते हैं। इसके मुख्य भेद निम्नांकित हैं,जो पांच वर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं। यथा-1.पुंमन्त्र,स्त्रीमन्त्र,नपुंसकमन्त्र। 2.सिद्धमन्त्र,साध्यमन्त्र,सुसिद्धमन्त्र, और अरिमन्त्र। 3.पिण्डमन्त्र, कर्तरीमन्त्र, बीजमन्त्र और मालामन्त्र 4.सात्त्विकमन्त्र, राजसमन्त्र,तामसमन्त्र एवं 5.साबरमन्त्र और डामरमन्त्र।  आगे इन पर संक्षिप्त चर्चा करते हुए गुरुमहाराज लिखते हैं- जिन मन्त्रों का देवता पुरुष होता है उन्हें पुं मन्त्र कहते हैं,इसी भांति स्त्रीदेवता के अधीन मन्त्र स्त्रीमन्त्र कहे जाते हैं। एक खास बात है कि जिन मन्त्रों का देवता स्त्री होता है,उसे विद्या नाम से भी जाना जाता है। यथा- सौराः पुं देवता मन्त्रास्ते  च मन्त्राः प्रकीर्तिताः । सौम्याः स्त्रीदेवतास्तद्वद्विद्यास्ते इति विश्रुताः ।।    तथा च  पुंस्त्रीनपुंसकात्माना मन्त्राः सर्वे समीरिताः । मन्त्राः पुंदेवता ज्ञेया विद्याः स्त्रीदेवताः स्मृताः ।। किंचित साम्प्रदायिक मत से ऐसा भी कहा जाता है कि जिन मन्त्रों के अन्त में हुँ - फट् लगा होता उन्हें पुं मन्त्र,और ठःठः का प्रयोग हो तो स्त्रीमन्त्र जाने,तथा नमः से समाप्त होने वाले मन्त्र नपुंसक श्रेणी में आते हैं- पुंमन्त्रा हुम्फडन्ताः स्युर्द्विठान्ताश्च स्त्रियो मताः । नपुंसका नमोताः स्युरित्युक्ता मनवस्त्रिधा ।। (शारदातिलक), किन्तु प्रयोगसार में कुछ और लक्षण कहे गये हैं- वषट् ’,‘फट् ’ से समाप्त होने वाले मन्त्र पुंमन्त्र, ‘वौषट् ’ , ‘स्वाहा ’ से  समाप्त होने वाले स्त्री मन्त्र, तथा हुँनमः से समाप्त होने वाले मन्त्रों को नपुंसक जाने। यथा- वषट्फडन्ताः पुंलिङ्गा वौषट्स्वाहान्तगाः स्त्रियः । नपुंसका हुंनमोता इति मन्त्रास्त्रिधा स्मृताः ।। पुनः आगे शारदातिलक का ही उदाहरण दिया हुआ मिला- सिद्धार्णा बान्धवाः प्रोक्ताः साध्यास्ते सेवकाः स्मृताः । सुसिद्धाः पोषका ज्ञेयाः शत्रवो घातका मताः ।। अर्थात् सिद्धश्रेणी के मन्त्र बान्धव की तरह कल्याणकारी होते हैं,साध्य मन्त्र सेवक की तरह कार्य करते हैं,यानी इन्हें सिद्ध करके यथा शीघ्र लाभान्वित हुआ जा सकता है। सुसिद्ध मन्त्र तो और भी अच्छे हैं,जो सन्तुलित आहार के साथ फल और दूध की तरह पोषण-कार्य करते हैं,किन्तु अरिमन्त्र अपने नामानुसार गुण वाले होते हैं,जो प्राण भी ले सकते हैं,रोग भी दे सकते हैं, कुछ भी अनिष्ट कर सकते हैं।  इसे ही देख कर गायत्री चिन्तित हो उठी थी,और यही कारण था कि मुझे शीघ्र ही गुरुबाबा की पुस्तिका का मनन करने को प्रेरित कर रही थी।
अनजाने में न जाने कितने स्तोत्र और मन्त्रों का रट्टा मार चुकी हूँ। अब भला विजली क्या यह सोच कर झटका देगी कि अनजाने में छूआ गया है ? अनजाने में खाया गया जहर क्या जहर नहीं होगा? ’- गायत्री ने चिन्तित स्वर में कहा।
            उसे सान्त्वना देते हुए मैंने कहा- आंखिर क्यों कहा गया है कि ये सब विषय गुरुगम्य हैं। अनधिकृत रुप से सिर्फ किताबों को पढ़कर,या किसी से सुन-जान कर मन्त्रों का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए। किन्तु अब तक जो हुआ सो हुआ, इसके लिए चिन्तित होने से क्या लाभ? आगे से ध्यान रखा करो,और अब तो सौभाग्य से एक योग्य मार्गदर्शक भी मिल गये हैं हमलोगों को।
           गायत्री को समझाने के बाद मैं पुनः पढ़ना शुरु किया।  प्रसंग मन्त्रों के प्रकार का ही चल रहा था। सौभाग्यभास्कर का उद्धरण था- मन्त्रा एकाक्षराः पिण्डाः कर्तर्यो द्व्यक्षरा मताः । वर्णत्रयं समारभ्य नववर्णावधि बीजकाः ।। ततो दशार्णमारभ्य यावद्विंशतिमन्त्रकाः । तत ऊर्ध्वं गता मालास्तासु भेदो न विद्यते ।। अर्थात् सिर्फ एक अक्षर वाले मन्त्र को पिण्ड कहते हैं,दो अक्षरों वाले को कर्तरी, तीन से नौ पर्यन्त वर्णों वाले मन्त्र को बीज मन्त्र कहा गया है,दश से बीस वर्ण तक के मन्त्र को मन्त्र नाम से ही जाना जाता है,और इससे आगे की वर्णसंख्या वाला मन्त्र मालामन्त्र की श्रेणी में आता है,जो अपरिमित है। प्रयोगसार तन्त्र में मन्त्रों का भेद इस प्रकार कहा गया है- बहुवर्णास्तु ये मन्त्रा मालामन्त्रास्तु ते स्मृताः । नवाक्षरान्ता ये मन्त्रा बीजमन्त्राः प्रकीर्तिताः ।। पुनर्विंशतिवर्णान्ता मन्त्रा मन्त्रास्तथोदिताः । ततोधिकाक्षरा मन्त्रा मालामन्त्रा इतिस्मृता ।।- इन श्लोकों का अर्थ भी लगभग वही है।
अब,आगे गुणों के आधार पर मन्त्रों का विभाजन दिखलाया गया है- सात्त्विक, राजस, तामस मन्त्र। जैसा कि गीता में भगवान ने स्वयं को त्रिगुणातीत,और संसार को त्रिगुणमय कहा है। सबकुछ त्रिगुणमय है,तो ये मन्त्र क्यों अछूते रहेंगे ! मन्त्रों में साबर(शाबर) और डामर भी काफी प्रचलित हैं। डामर मन्त्र तात्कालिक सिद्धिदायक और चमत्कारिक तो होते हैं; किन्तु अपना कार्य सम्पन्न कर शीघ्र ही व्यर्थ भी हो जाने का अवगुण या कहें गुण हैं इनमें । ये प्रायः लौकिक कार्य-सिद्धि हेतु प्रयोग किये जाते हैं,जिनसे तन्त्र-साधकों को यथासम्भव परहेज करना चाहिए। ये आध्यात्मिक लक्ष्य को बाधित करने वाले हैं। इससे बिलकुल भिन्न हैं साबर (शाबर) मन्त्र,जिनका शास्त्रीय आधार कुछ खास उपलब्ध नहीं है। फिर भी लोकमान्य हैं। भक्त कवि तुलसी ने अपने महाकाव्य रामचरित मानस में कहा है- कलि विलोकि जग हित हरगिरिजा,साबर मन्त्र जाल जिन सिरजा । अनमिल आखर अरथ न जापू,प्रकट प्रभाव महेश प्रतापू ।।
किंचित मत से यह भी मान्य है कि दिव्यास्त्र हेतु तपश्चर्या रत अर्जुन की परीक्षा क्रम में भोलेनाथ शिव ने किरातवेष धारण किया था, उसी समय उमा ने उनसे कुछ संवाद भी किये थे- भावी कलियुग के आगमन से चिंतित होकर। भील(शबर) भेषधारी होने के कारण वे ही शाबरमन्त्र कहलाये,जो सर्वथा निष्कीलित हैं,यानी किसी तरह का विशेष बन्धन नहीं है उन पर। ऐसे भी प्रसंग मिलते हैं कि मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य और गोरखनाथ के गुरुभाई शाबरनाथ जी हुए हैं। कुछ लोग इसकी प्राचीनता सिद्ध करते हुए शाबरमन्त्र सिद्धि हेतु निम्नाकित आचार्यों का स्मरण भी करते हैं- नागार्जुनो जड़भरतो हरिश्चन्द्रस्तृतीयकः ।  सत्यनाथो भीमनाथो गरक्षश्चर्पटस्तथा ।। अवघटश्च वैरागी कन्थाधारिजलंधरौ । मार्गप्रवर्तका एते तद्वच्च मलयार्जुनः । एते प्रोक्ताः शाबरणां मन्त्राणां सिद्धिदायकाः।।( किन्तु  इस श्लोक का मूल स्रोत अज्ञात है।) कुछ लोग तो साबरमन्त्रों को व्यर्थ शब्द-जाल कहकर ठुकरा देते हैं; किन्तु ध्यान देने की बात है कि इनके वेमेल,बेतुके,बेअर्थ पद- शब्द-विन्यास कुछ अजीब होते हुए भी बहुत ही प्रभावशाली हैं। ये सब निष्कीलित मन्त्र–श्रेणी में हैं,जिसके लिए साधक (प्रयोगकर्ता) को बहुत फ़ज़ीहत नहीं उठाना पड़ता। हां,इतना अवश्य कहा जा सकता है कि मूल साबर मन्त्रों के साथ बहुत ही उठा-पटक भी हुआ है,अनाड़ी ओझा-गुनी,ढोंगीबाबा,ठग-उच्चके भी इसके साथ काफी छेड़-छाड़ किये हैं। परिणामतः इन मन्त्रों के मौलिक स्वरुप काफी भ्रष्ट हो गये हैं। और जब मौलिकता ही नष्ट हो गयी- कलिकाल-ग्रस्त होकर,फिर इनकी सफलता भी तो संदिग्ध हो ही जायेगी न ! अतः साधकों को इससे भी यथासम्भव बचना चाहिए। व्यर्थ अपनी ऊर्जा गंवाना बुद्धिमानी नहीं है।
    उक्त प्रसंग के बाद व्यापक रुप से शारदातिलक के मूलश्लोकों को उद्धृत किया गया था,जिनमें मन्त्र के अन्याय प्रकारों की चर्चा की गयी थी। ये संख्या करीब सन्तावन बतायी गयी है,साथ ही और भी मन्त्र-प्रकार,या कहें लक्षण कहे गये हैं। यथा- छिन्नो रुद्धः शक्तिहीनः पराङ्मुख उदीरितः । बधिरो नेत्रहीनश्च कीलितः स्तम्भिनस्तथा ।। दग्धस्रस्तश्च भीतश्च मलिनश्च तिरस्कृतः ।। भेदितश्च सुषुप्तश्च मदोन्मत्तश्च मूर्च्छितः । हृतवीर्यश्च हीनश्च प्रध्वस्तो बालकः पुनः ।। कुमारस्तु युवा प्रौढ़ो वृद्धो निस्त्रिंशकस्तथा । निर्वीजः सिद्धिहीनश्च मन्दः कूटस्तथा पुनः ।। निरंशः सत्त्वहीनश्च केकरो बीजहीनकः । धूमितालिङ्गितौ स्यातां मोहितश्च क्षुधातुरः ।  अतिदृप्तोङ्गहीनश्च अतिक्रुद्धः समीरितः । अतिक्रूरश्च सव्रीडः शान्तमानस एव च ।। स्थानभ्रष्टश्च विकलः सोतिवृद्धः प्रकीर्तितः । निस्नेहः पीडितश्चापि मन्त्राणि पृथक पृथक ।। इन्हें क्रमशः निम्न तालिका में दर्शाया गया है-

१.   छिन्न
२.   रुद्र
३.   शक्तिहीन
४.   पराङ्गमुख
५.   उदीरित
६.   बधिर
७.   नेत्रहीन
८.   कीलित
९.   स्तम्भित
१०.        दग्ध
११.        भीत
१२.        मलिन
१३.        तिरस्कृत
१४.        भेदित
१५.        सुषुप्त
१६.        मदोन्मत्त
१७.        मूर्च्छित
१८.        हृतवीर्य
१९.        हीन
२०.        प्रध्वस्त
२१.        बालक
२२.        कुमार
२३.        युवा
२४.        प्रौढ़
२५.        निस्त्रिंशक
२६.        निर्वीज
२७.        सिद्धिहीन
२८.        मन्द
२९.        कूट
३०.        निरांश
३१.        सत्त्वहीन
३२.        केकर
३३.        बीजहीन
३४.        धूमित
३५.        आलिंगित
३६.        मोहित
३७.        क्षुधातुर
३८.        अतिदृप्त
३९.        अंगहीन
४०.        अतिक्रुद्ध
४१.        समीरित
४२.        अतिक्रूर
४३.        सव्रीड
४४.        शान्तमानस
४५.        स्थानभ्रष्ट
४६.        विकल
४७.        अतिवृद्ध
४८.        निःस्नेह
४९.        पीड़ित
५०.        मीलित
५१.        विपक्षस्थ
५२.        दारित
५३.        मूल
५४.        नग्न
५५.        भुजंगम
५६.     शून्य
५७.     हत

शारदातिलक के विभिन्न पटलों में मन्त्रों के सम्बन्ध में और भी बहुत सी उपयोगी बातों की चर्चा है,जिनकी जानकारी साधकों को रखनी चाहिए। किंचित अन्य विचार से मन्त्रों के और भी प्रकार कहे गये हैं। यथा- वैदिकमन्त्र, तान्त्रिकमन्त्र,पौराणिकमन्त्र आदि,तथा किंचित व्यवस्था-भेद से मन्त्रों के पांच प्रकार भी कहे गये हैं- नैगमिक,आगमिक,पौराणिक,शाबर और प्रकीर्ण। शाबर मन्त्रों की चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। प्रकीर्ण मन्त्रों से तात्पर्य है- बौद्ध, जैन, इस्लाम आदि मतावलम्बियों द्वारा प्रतिपादित मन्त्र।
 मन्त्रों के विविध प्रकारों की चर्चा के बाद उनके विविध संस्कारों की चर्चा की गयी है पुस्तिका में। मुख्य रुप से मन्त्रों के दश संस्कार कहे गये हैं। यथा-

१.     जनन
२.     जीवन
३.     ताड़न
४.     बोधन
५.     अभिषेक
६.     विमलीकरण
७.     आप्यायन
८.     तर्पण
९.     दीपन
१०.गुप्ति

अब इन्हें संक्षिप्त रुप से व्याख्यायित किया जा रहा है- पूर्व में कहे गये मातृकावर्ण-समूह में से अभीष्ट मन्त्र का उद्धार(निरुपण) ही मन्त्र का जनन संस्कार है। इसकी विशिष्ट विधि है। किसी शुभ पीठिका पर रोचना द्वारा मातृकापद्म की रचना करके, अभीष्ट मन्त्र के प्रत्येक वर्णों को बारी-बारी से मातृकाब्ज से उद्धार किया जाता है। इसके बाद मन्त्र के वर्णों को प्रणव से अन्तरित करके,जप करना ही उसका जीवन संस्कार है। कम से कम सौबार ऐसा करना चाहिए। पिङ्गलामत से इसे जीवन न कह कर बीजन कहते हैं। अब,मन्त्र के सभी वर्णों को भोजपत्र पर चन्दनादि से लेखन करके,वायु बीज- यँ का उच्चारण करते हुए सौ बार ताड़न संस्कार करना चाहिए। उक्त लिखित मन्त्र को कनेर(शिवपुष्प)से सौ बार  ताड़ित किया जाना ही बोधन संस्कार कहलाता है। इस क्रिया में अग्नि का बीज- रँ प्रयुक्त होना चाहिए। भुर्जपत्र पर लिखे उक्त अभीष्ट मन्त्र को पीपल-लाई से अभिषिक्त करना अभिषेक-संस्कार कहलाता है। विद्वानों का मत है कि अभिषेक की संख्या मन्त्र-वर्ण के अनुरुप होनी चाहिए। अब,प्रणव के प्रयोग से मानसिक चिन्तना करते हुए सहज,आगन्तुक और मायीय मलों को दग्ध करना चाहिए। इसे ही मन्त्र का विमलीकरण संस्कार कहा गया है। अभीष्ट मन्त्र का जल द्वारा एक सौ आठ बार तर्पण-क्रिया तर्पण-संस्कार कहा जाता है। अब,तार, माया, और रमाबीज से मन्त्र को युक्त करके,दीपन संस्कार किया जाता है। अभीष्ट मन्त्र की गोपनीयता(मर्यादा रक्षण) ही गोपन संस्कार कहा जाता है। इन सभी संस्कारों के बाद ही मन्त्र-साधना करनी चाहिए। दूषित मन्त्रों का शोधन अत्यन्त आवश्यक है- विशेष कर काम्य कर्मों में। किन्तु मोक्ष की कामना वाले,वा कुछ भी न चाहने वाले साधक के लिए ये सब झंझट ही फिजूल है। वह तो एकोहं द्वितीयोनास्ति की सोच वाला है,उसके लिए क्या...! गुरुमुख से निःसृत,शिष्य की कर्णगुहा में प्रविष्ट मन्त्र सर्वदोषों से स्वमेव मुक्त हो जाता है। यह सारी जिम्मेवारी गुरु की होती है। सौभाग्य से जिसे योग्य गुरु मिल जाय, समझो कि उसका आधा काम तो हो गया। गाड़ी पटरी पर रख दी गयी,ईंजन भी चला दिया गया,अब बाकी का काम केवल करना रह गया है। कभी-कभी पूर्वजन्म के प्रभाव से,साधक को स्वप्नमन्त्र की प्राप्ति हो जाती है । इसे सर्वश्रेष्ठ श्रेणी में रखा जाना चाहिए । ऐसे मन्त्र को सिर्फ अश्वत्थपत्र  पर अष्टगन्ध से लिखकर, षोडशोपचार पूजित कर स्वयमेव ग्रहण कर लेना ही पर्याप्त है।
            उक्त प्रसंग के पश्चात् गुरुमहाराज ने वर्णोद्धारतन्त्रोक्त मातृका-ध्यान की चर्चा की है,जिसके अन्तर्गत सभी वर्णमातृकाओं के ध्यान के लिए एक-एक स्वतन्त्र श्लोक दिये गये हैं। उक्त श्लोकों में से प्रणवाक्षर के तीन वर्णमातृकाओं के ध्यान को विशेष रुप से चिह्नित किया गया था,जो इस प्रकार हैं-                (अ) केतकीपुष्पगर्भाभां द्विभुजां हंसलोचनाम् । शुक्लपट्टाम्बरधरां पद्ममाल्यविभूषिताम् ।। चतुर्वर्गप्रदां नित्यं नित्यानन्दमयीं पराम् । वराभयकरां देवीं नागपाशसमन्विताम् । एवं ध्यात्वा अकारं तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।।
(उ) पीतवर्णां त्रिनयनां पीताम्बरधरां पराम् । द्विभुजां जटिलां भीमां सर्व सिद्धि प्रदायिनीम् । एवं ध्यात्वा सुरश्रेष्ठां तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।।
(म) कृष्णा दशभुजां भीमां, पीतलोहितलोचनाम् । कृष्णाम्बरधरां नित्यां धर्मकामार्थमोक्षदाम् । एवं ध्यात्वा मकारं तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।।
          पुस्तिका का आद्योपान्त अध्ययन करते-करते सबेरा हो चला । गायत्री अपने नित्यक्रिया में लग गयी।
वैसे भी, अब क्या सोना ’––  बुदबुदाते हुए, मैं भी विस्तर से उठ गया। मेरी बुदबुदाहट की आहट गायत्री को भी लग गयी थी। उसने भी दुहराया–– ‘अब क्या सोना। बहुत सो लिए, अभी भी क्या सोये ही रहोगे !
सच में सोना यानी खोना...गवांना...हीरा जनम गंवायो...।

सप्ताह भर और गुजर गये। इस बीच अधिकाधिक समय दियाशेष पुस्तिकाओं के अवलोकन-मनन में। कार्यालय के काम से जो भी समय बचता, उसे अध्ययन में ही व्यतीत करता। गायत्री का भरपूर सहयोग रहा। दिन भर वह उन्हीं पुस्तकों में डूबी रहती,और फ़ुरसत पाते ही,चर्चा छेड़ देती।
ऐसे ही एक दिन,उसने कहा- ‘ ये देखो,बार-बार जिज्ञासा होती थी न, उस दिन भारद्वाज आश्रम में भी जो अनुभूति हुयी,हमदोनों को—ये तो उसका ही स्पष्ट खाका है।’
बृद्धबाबा द्वारा दिए हुए पीले बन्धने में से एक पुलिन्दा निकाल कर, गायत्री मेरे सामने फैला दी। मैंने देखा- तरह-तरह की आकृतियां बनी हुयी थी—त्रिभुज,षट्कोण,चतुष्कोण,अष्टकोण,वृत्ताकार,अण्डाकार,आदि आदि। उन्हीं में एक आकृत्ति वह भी थी,जिसे हमने देखा था उस दिन।
गायत्री ने कहा- याद है- उपेन्दर भैया ने कहा था न- शरीर का भीतरी भूगोल जानना भी बहुत महत्त्वपूर्ण है,जिसे आधुनिक विज्ञान की आंखों से नहीं देखा जा सकता ?
काफी देर तक हमदोनों देखते रहे उन आकृत्तियों को। कुछ समझ आयी, कुछ नहीं भी। समझ आने वाली बातों में सर्वाधिक रोचक और मोहक लगा- अन्तःकायिक संरचना। विधाता ने कितनी सुन्दर व्यवस्था देकर भेजा है मनुष्य को- सारे खजाने भर दिये हैं- छःफुटी काया में,चाभी भी यहीं कहीं रख छोड़ी है खजाने की,खोलने का तरीका भी सलीके से समझा दिया है ऋषि-मुनियों के श्रीमुख से,किन्तु इसके बावजूद, हमसब कहीं और भटकते रहते हैं। परमात्मा को कहीं और ढूढ़ते फिरते हैं,जबकि वह सबके भीतर ही कुण्डली मारे बैठा है।
कुण्डली की बात पर मानव-कायान्तर्गत विद्यमान कुण्डलिनी शक्ति की बात याद आयी। बाबा का इशारा बार-बार इसी ओर था । ये चित्र भी उसी ओर संकेत कर रहा है। उक्त सारी आकृत्तियां उन्हीं स्थलों का ईंगन है। गुरुमहारज ने एक प्रसंग में अंकित किया था-
महर्षि पतञ्जलि ने अपने बहुचर्चित पुस्तक योगसूत्र के प्रारम्भ में ही कहा है- योगश्चितवृत्ति निरोधः । यानी चित्तवृत्तियों के निरोध को ही योग कहते हैं। चित्त की वृत्तियां निरुद्ध हुयी,कि योग हो गया- आत्मा और परमात्मा के बीच की झीनी दीवार- विभेदक रेखा- समाप्त हो गयी। यह अवस्था विशेष है,इसमें असम्प्रज्ञात के साथ-साथ सम्प्रज्ञात समाधि को भी ग्रहण किया गया है। यानि जिस किसी विधि से हम यात्रा(साधना) प्रारम्भ करें, चित्त की उच्छृखल वृत्तियों का निरुद्ध हुए बिना काम होने को नहीं है। जिस किसी भी रास्ते से जाओ,जाना तो वहीं है। इस सम्बन्ध में कृष्ण ने गीता में बहुत कुछ साफ कर दिया है,फिर भी, फिर भी लगा ही रहता है। अतः साधक को यम-नियमादि का सम्यक् अभ्यास करते रहना चाहिए,यानि अहिंसा, सत्य,अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, स्वाध्याय,तप, और ईश्वरप्रणिधान के मार्ग पर सतत अग्रसर होना चाहिए। सात्त्विक आहार-विहार में संलग्न रहते हुए,शरीर को स्वस्थ और सामर्थ्य-वान रखने हेतु विहित आसनों के अभ्यास के साथ-साथ प्राणायाम के यत्किंचित अभ्यास भी करना चाहिए- सभी प्रारम्भिक अभ्यासियों को। सर्वप्रथम अन्तः नाडियों के सम्यक् शोधन हेतु नाडीशोधन प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। गुरुनिर्देशन में रहते हुए,सुविधानुसार प्रातः-सायं एक चक्र से प्रारम्भ करके चौवन चक्र तक का दीर्घ अभ्यास जरुरी है। ताकि समस्त नाडियों का सम्यक् शोधन हो जाय। इस क्रिया में तीन से छः माह लग सकते हैं। आसन की परिभाषा तो सुस्पष्ट है- स्थिरःसुखमासनम्- साधना हेतु दीर्घकाल तक स्थिर रुप से बैठने की आवश्यकता होती है। जिस मुद्रा में सुखपूर्वक लम्बे समय तक बैठा जा सके, वस इतने ही से मतलब है,किन्तु कतिपय आसनों पर योगियों ने जोर दिया है। यथा -पश्चिमोत्तासन, शलभासन,पद्मासन, सिद्धासन (स्त्रियों के लिए सिद्धयोनि आसन), वज्रासन,सुप्तवज्रासन,आनन्दमदिरासन,शवासन आदि। बारह आसनों का एक समूह है- सूर्यनमस्कार,जो समन्त्र और अमन्त्र दोनों प्रकार से किया जाता है। इसके नियमित अभ्यास से शरीर स्वस्थ रहता है। इन आसनों के साथ रहस्यमय ढंग से विशिष्ट प्राणायाम स्वतः होते चलता है। अतः इसे अवश्य करना चाहिए। गीता में भगवान ने कहा है- शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ।।(६-१२) अतः सुरुचिकर एकान्त स्थान में पवित्र आसन पर स्थिरचित्त बैठने का अभ्यास करना चाहिए...।

‘...अन्य समयों में भी वायें-दायें नथुनों से आते-जाते स्वांस का निरीक्षण होते रहे। इस क्रिया को स्थिर आसन पर बैठ कर भी किया जाना चाहिए। स्नान,स्वच्छ वस्त्रादि धारण,पूर्ण शुचिता आदि अपनी जगह पर काफी महत्त्वपूर्ण हैं,किन्तु ऐसा न हो कि ये सिर्फ वाह्याडम्बर बन कर रह जायें।व्यावहारिक रुप से होता ये है कि हम बाहरी तल पर तैयारी तो खूब करते हैं,पर भीतरी तल पर कुछ होता नहीं,या कहें ठोस कार्य कुछ होता ही नहीं। अतः मुख्य रुप से अन्तः शुचिता का ध्यान रखना जरुरी है। रात सोते समय भी चित्त लेटकर इस क्रिया को की जा सकती है। भोजन और क्रिया के बीच दोघड़ी(४८ मिनट) का अन्तराल अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार निरन्तर करते रहने से थोड़े ही दिनों में चंचल चित्त की उच्छृंखलता कम होजाती है। मन्त्रों का जप,स्तोत्रों का पाठ आदि भी इसी उद्देश्य की ओर ले जाने वाले मार्ग हैं। अतः बहुत झमेले में पड़े बिना,सीधे इस व्यावहारिक क्रिया का अभ्यास किया जा सकता है। नाड़ीशोधन का अभ्यास सिद्ध हो जाने के पश्चात् पञ्चतत्त्वों के बीजमन्त्रों का सतत अभ्यास किया जाना चाहिए। यानि विविध केन्द्रों पर चित्त को एकाग्र करते हुए, मानसिक रुप से उन बीजों का जप करे। यह अभ्यास नियमित रुप से थोड़े लम्बे समय तक करने की आवश्यकता है,ताकि नाड़ियों के शुद्ध हो जाने के बाद कायिक पञ्चतत्त्व भी शुद्ध हो जायें। 
क्रमशः...

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