गतांश से आगे...बीसवां भाग
इतना पढ़ने के बाद,मैंने पुनः उस पुलिन्दे वाली आकृति को
देखने लगा। पद्मासन में बैठे एक मानवाकृत्ति के पृष्ठ प्रदेश का चित्रांकन था,साथ
ही अग्रभाग को भी एक अन्य चित्र में दर्शाया गया था। चित्रों को श्रृंगारहार, मल्लिका,
मनशिलादि रंगों से बड़े ही सुन्दर ढंग से चित्रित किया गया था,जिसे समझने में जरा
भी कठिनाई न हो हुयी।
मेरुदण्ड के निम्न खण्ड से लेकर ऊपर मेडूला तक (जिस पर सिर टिका है) पांच स्थलों का महीन अक्षरों में निर्देश था क्रमशः,जिससे
एक तालिका बन रही थी-
क्र.
|
स्थान
|
तत्त्व
|
बीज
|
१.
|
मूलाधार
|
पृथ्वी
|
लं
|
२.
|
स्वाधिष्ठान
|
जल
|
वं
|
३.
|
मणिपूर
|
अग्नि
|
रं
|
४.
|
अनाहत
|
वायु
|
यं
|
५.
|
विशुद्धि
|
आकाश
|
हं
|
सुस्पष्ट चित्रांकन को बड़ी देर तक देखता रहा मैं और पूर्व
अनुभूत विम्बों से मिलान भी करता रहा। गायत्री भी मेरे साथ-साथ नजरें टिकाये हुये
थी, उसी चित्र पर। बड़ी देर तक गौर करती रही,फिर उसने कहा- ‘ बिलकुल ही सही सारणी बन रही है। इन
स्थलों(केन्द्रों) का नाम भले ही पहले मुझे पता न था,किन्तु अब देखती हूँ-
इन्हीं-इन्हीं स्थलों में मैं इन्हीं बीजों को कई बार चमचमाते हुए स्पष्ट देख चुकी
हूँ- किन्तु स्वप्न की नाई,साथ ही एक भिन्नता और भी देख रही हूँ- इस चित्र में
मूलाधार और स्वाधिष्ठान का जो स्थान दिखलाया गया है,उससे किंचित भिन्न अनुभूति
हुयी मुझे। या तो ये मेरी नासमझी है,या फिर कोई रहस्य है इसमें,जिसे मैं समझ नहीं
पा रही हूँ। एक और बात- ऊपर के प्रसंग में साधे जाने वाले आसनों के क्रम में पुरुष
और स्त्री के लिए क्रमशः सिद्धासन और सिद्धयोनिआसन की बात कही गयी है। मुझे लगता
है- रहस्य यहीं छिपा है। तुम्हें समय मिले कभी तो इन दोनों आसनों के फ़र्क को समझा
जाय- हमलोग साथ-साथ करके देखें इन्हें। और इनके प्रभावों पर भी गौर करें। आसनों के
बाद,कुछ मुद्राओं की भी चर्चा है- एक अलग पुलिन्दे में। मुद्राओं के विषय में कुछ
तो मैं पिताजी से सुनती थी- गायत्री जप के पहले,और जप के बाद मुद्रायें की जाती
है- योनिमुद्रा भी उन्हीं में एक है;
किन्तु यहां गुरुमहाराज ने बहुत सी अनजान मुद्राओं की चर्चा की है। जैसे- महामुद्रा
अश्विनी,खेचरी, योनि संकोचिनी, वज्रोली,सहजोली,अमरोली आदि । हालाकि अब बृद्ध बाबा की
कृपा से बहुत कुछ रास्ता स्पष्ट हो रहा है,फिर भी...। ’
मैंने हामी
भरी- बिलकुल सही कह रही हो। क्या बृद्धबाबा ने नहीं कहा था कि इन्हें बारबार गुनना। और ये जो आसन वाली बात कर रही
हो,मैं अभी बताता हूँ,तुम्हें करके दिखाता हूँ। मुझे क्या करना है इसमें,और
तुम्हें क्या करना है, वो भी स्पष्ट हो जायेगा।बिम्बों की अनुभूति में जो फ़र्क की
बात करती हो,वह भी स्पष्ट है मेरे दिमाग में- तुम याद करने का प्रयास करो उस क्षण
को,जब कालीखोह वाली गुफा में बैठे थे हमलोग। कल जो चित्रों वाली पुस्तिका मैं देख
रहा था,उसमें स्पष्ट वर्णन था चक्रों के स्थान का। उस समय तो मैं सरसरी तौर पर
देखता चला गया। इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि एक ही तरह के दो चित्र क्यों दिये
गये हैं- किंचित भिन्नता के साथ,किन्तु अब जब तुम शंका जता रही हो, तो मेरे
ज्ञानपट भी खुल रहे हैं- एक चित्र तुम्हारे शरीर का है और दूसरा मेरे,यानी कि
स्त्री में ये स्थान किंचित भिन्न होंगे,पुरुषों से।
इतना कह कर,मैंने गायत्री को सिद्धासन करके दिखाया,और उसे सिद्धयोनिआसन का
फ़र्क समझाया–– ये
देखो,दाहिने पैर को मोड़कर उसके तलवे को बायीं जांघ से ऐसे सटाना है ताकि एड़ी का
दबाब मूत्रेन्द्रिय और गुदा के बीच वाले भाग(पेरिनियम)पर पड़े,और बायें पैर को
मोड़ कर दाहिनी पिंडली के ऊपर ऐसे जमादे कि इस एड़ी का दबाब मूत्रेन्द्रिय के ठीक
ऊपर बस्तिप्रदेश की हड्डी पर हो,पैर की अंगुलियों तथा पंजे के अगले भाग को दाहिनी
पिण्डली और जांघ की मांसपेशियों के बीच में फंसाना है। दाहिने पैर की अंगुलियों को
पकड़कर बायीं पिण्डली व जांघ के बीच फंसाना है। दोनों घुटने जमीन पर जमे रहेंगे।
मेरुदण्ड को जितना ही सीधा करेंगे,हम पायेंगे कि पेरिनियम पर दबाव बढ़ता जायेगा।
वैसे इसका अभ्यास किसी भी पैर को पहले-पीछे रख कर भी किया जा सकता है। मुझे ध्यान
आरहा है कि बाबा ने कहा था एक बार कि सायटिका या लम्बर के मरीजों को इससे परहेज
करना चाहिए। और अब तुम्हारे लिये इस मुद्रा में वस थोड़ा सा ही फ़र्क करना है-
दाहिने पैर को मोड़कर तलवे को बायीं जांघ से इस प्रकार सटाना है कि एड़ी योनिमुख
पर जम जाये,और पैर का पंजा भगनासा (क्लिटोरिस)से सटाये रखना है,बाकी बातें तो वैसी
ही हैं।
मेरे कथनानुसार
गायत्री ने भी वैसा ही किया। थोड़ी देर अभ्यास करने के बाद,बिहंसती हुयी बोली- ‘ अरेवाह
!
अब तो तुम भी गुरु बन गये। मेरा तो ध्यान ही नहीं जा रहा था,इस छोटी सी बात पर।’
चक्र-चित्रावली में दिये गये चिह्न और वर्ण इतने साफ नहीं थे, कि मैं उन महीन
हरुफ़ों को देख कर पहचान सकूं,किन्तु इन चित्रों को देखते के बाद स्पष्ट हो जा रहा
है कि जो कुछ भी अस्पष्ट सा था, ये बीजाक्षर ही थे।
गायत्री ने एक दूसरा पुलिन्दा निकाला। ये सब के सब पुलिन्दे पुराने ढंग के टीपन-कुण्डली बनाने वाले कागजों पर बने हुये
थे,जिन्हें उसी भांति गोल-गोल करके रखा भी गया था। कागज बहुत ही नाजुक हालत में
थे। बहुत ही सावधानी से खोलना पड़ रहा था। चित्रों और तालिकाओं की एक से एक
श्रृंखला थी, जिन्हें किसी विशेष क्रम से रखा गया था,जिसका वजह तो मुझे समझ न आ
रहा था,किन्तु इतना अवश्य समझ पा रहा था कि इनका क्रम-भंग नहीं होना चाहिए, इन
क्रमों में भी कोई रहस्य छिपा है। एक चित्र पर उंगुली रखती हुयी गायत्री ने कहा -
‘ मेरे पास कोई तर्क और प्रमाण तो नहीं है,किन्तु फिर भी मैं पूरे यकीन के साथ कह
सकती हूँ कि इस बीज-तालिका के बाद ही इस पद्म-तालिका का स्थान होगा। हालाकि ये
दोनों दो अलग-अलग पुलिन्दों में रखे गये हैं,फिर भी मुझे कुछ ऐसा ही लग रहा है। इस
विषय में तो सही जानकारी उपेन्दर भैया के आने पर ही मिल सकती है।’
हमदोनों
उसे ध्यान से देखने लगे। एक पन्ने पर चित्र बना हुआ था,और दूसरे पर तालिका। दोनों
में तालमेल बिठाने का प्रयास किया गया था- रंगों के सहारे। चित्र को सामने रखते
हुए तालिका से मिलान करके समझने का प्रयास करने लगे हमदोनों। तालिका इस प्रकार थी-
क्र.
|
तत्त्व
|
रंग
|
चिह्न
|
स्वाद
|
गति
|
परिमाण
|
स्वभाव
|
कार्य
|
१.
|
पृथ्वी
|
पीत
|
चौकोर
|
मधुर
|
सामने
|
१२अंगुल
|
गुरु
|
स्थिर
|
२.
|
जल
|
स्वेत
|
अर्द्ध चन्द्रा
कार
|
काषाय
|
नीचे
|
१६अंगुल
|
शीत
|
चर
|
३.
|
अग्नि
|
रक्त
|
त्रिकोण
|
चर्पर
|
ऊपर
|
४अंगुल
|
उष्ण
|
क्रूर
|
४.
|
वायु
|
धूम्र
|
षट्कोण
|
अम्लीय
|
तिर्यक
|
८अंगुल
|
चञ्चल
|
क्लिष्ट
|
५.
|
आकाश
|
मिश्र
|
विन्द्वा कार
|
कटु
|
मिश्र
|
नासान्तर
|
मिश्र
|
योग साधना
|
उक्त चित्र और तालिका के सहयोग से तत्त्वों के बारे में बहुत
कुछ स्पष्ट हो गया। गायत्री ने उसी पुलिन्दे से उसके बाद वाले चित्र को निकाल कर
सामने रखा,साथ ही दूसरे पुलिन्दे से एक सारणी । किन्तु यह चित्र बहुत ही जटिल
प्रतीत हुआ। स्पष्ट रुप से तो मानवाकृति ही बनी हुयी थी,जिसमें अनगिनत विन्दु दर्शाये
गये थे। फिर उन विन्दुओं को आपस में किसी खास क्रम से जोड़ा भी गया था,पतली- पतली
रेखाओं से,जो कई रंगों में थी। गायत्री की सूक्ष्म निगाहें उनमें कुछ वजह ढूढ़
चुकी थी,और वह मुझे भी प्रेरित कर रही थी- चुनौती भरे लहजे में। बड़ी देर तक मैं
उन पर गौर करता रहा,पर कुछ खास पल्ले न पड़ा। अन्त में गायत्री ने कहा- ‘ये महीन रेखायें विभिन्न नाडियों की सूचक लग रही हैं मुझे।
तुमने अभी नाड़ियों वाला अध्याय शायद पढ़ा नहीं है,इसी कारण समझने में कठिनाई हो
रही है। फिलहाल इसके क्रम-व्यवस्था को ही समझो,उन्हें बाद में पढ़-देख लेना।’
गायत्री के
कहे मुताबिक मैं सारणी पर विचार करने लगा। लिखा था- पूर्वकथित बहत्तरहजार नाडियों
में पन्द्रह प्रधान हैं-
१.
सुषुम्णा
२.
इडा
३.
पिंगला
४.
गांधारी
५.
हस्तजिह्वा
६.
पूषा
७.
यशश्विनी
८.
शूरा
९.
कुहू
१०.सरस्वती
११.वारुणी
१२.अलम्बुषा
१३.विश्वोदरी
१४.शङ्खिनि
१५.चित्रा
इन पन्द्रह में
प्रथम तीन अति प्रधान हैं,और उनमें भी सर्वप्रधान है- प्रथम यानी सुषुम्णा।
योग-साधना से इसका घनिष्ट सम्बन्ध है। इसे नाडियों की रानी कहा जा सकता है। इसकी
स्थिति सूक्ष्मकाय में अति सूक्ष्मातिसूक्ष्म है,जो गुदा मार्ग के निकट से
प्रारम्भ होकर,मेरुदण्ड से गुजरती हुयी,ऊपर मस्तिष्क तक गमन करती है। इसके
दायें-बायें ही क्रमशः पिंगला और इडा का पथ है,जो नासिका-मूल पर्यन्त गमन करती
हैं। भ्रूमध्य में ये तीनों नाडियां परस्पर मिल जाती है, जिसे योग-शैली में ‘युक्तत्रिवेणी’ कहते हैं,और उधर
गुदामार्ग के समीप वियुक्त होती है, इसकारण ‘मुक्तत्रिवेणी’ कहते हैं उस स्थान
को। सामान्यतया प्राणऊर्जा वाम-दक्षिण नाडियों से ही निरन्तर गमन करती है। इडा को
ही चन्द्र और पिंगला को सूर्यनाडी के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इसे ही दिवा और
रात्रि भी कहा जाता है। ये दोनों क्रमशः रज और तम प्रधान हैं। साधना संकेत है- दिवा
न पूजयेत देवि,रात्रौ नैव च नैव च । सर्वदा पूजयेद्देवि दिवारात्रौ विवर्जयेत ।।
इस संकेत पर गायत्री आकर अटक गयी- ‘क्या मतलब ! न दिन में पूजो
देवी को और न रात्रि में, दिन-रात छोड़कर सब समय पूजते रहे- क्या कहना चाह रहे हैं
गुरुमहाराज ?’
बहुत देर तक हमदोनों मगज़पच्ची करते
रहे,पर कुछ समझ न आया। लाचार होकर पुस्तिका और पुलिन्दा बन्द करके रखने के मूड में
था,तभी अचानक चांदी की रुपल्ली सी खनखनाती हुयी आवाज आयी- “ बस,होगयी परीक्षा तुम दोनों की बुद्धि की ? इतना साफ तो लिखा
है गुरुमहाराज ने,अब क्या चाहते हो घुट्टी पिलावें ? ”
अचानक
की आवाज से हमदोनों चौंक पड़े। पीछे पलट कर देखा तो मुस्कुराते हुए उपेन्द्रबाबा
दरवाजे पर खड़े नजर आये।
‘वाह भैया! खूब आये दो दिन में। आज हमें पता चला
कि ब्रह्मा वाली काल-गणना से तुम भी चलते हो ! मैं तो अपनी घड़ी
से समय नाप रही थी।’
अरे ! पानी-वानी पूछोगी
कि पहले झगड़ा ही कर लोगी भैया से? कौन कहें कि इनका टाइम फेल आज पहली बार
हुआ है ! - मैंने उनका चरणस्पर्श करते हुए कहा।
सोफे पर विराजते हुए
बाबा ने कहा- “ आज भी शायद नहीं ही आ
पाता। कई काम छोड़ कर आना पड़ा है। आज कौन सी तिथि है- याद है न ? ”
‘ हाँ,बिलकुल
याद है- अभी दो दिन बाकी हैं – वसंत पञ्चमी आने में। सप्तमी को हमलोग वापस आये थे
विन्ध्याचल से,नवमी को तुम आने के लिए बोले थे,पर आ रहे हो पूरे चौबीस दिनों बाद।’- गायत्री ने कहा- ‘ किन्तु, चलो अच्छा
ही हुआ। तुम आने में देर किये- इस पूरे खाली समय का उपयोग हमने कर लिया-
गुरुमहाराज की करीब-करीब सारी पुस्तिकाओं को पढ़ ली। अब तुम्हारा माथा चाटने में
सुविधा होगी।’
‘सो सब नहीं होने को है। मैं पहले ही बहुत चटा चुका हूँ
तुमलोगों से। सिद्धान्तों का ज्यादा पिटारा मत उठाओ,वृद्धबाबा का जो आदेश हुआ है,उसका
पालन करो । हां,खास कोई समस्या हो तो बताओ,उस पर कुछ बातें हो जायेंगी।’- बाबा ने कठोर लहज़े
में कहा,और मुंह-हाथ धोने के लिए भीतर चले गये। गायत्री उनके लिए भोजन-व्यवस्था
में लग गयी।
कोई घंटेभर बाद
हमलोग पुनः आसीन हुए। इस बीच,नौकर को आवाज देकर,गायत्री उनके लिए ऊपर का कमरा ठीक
करा दी,जिसमें पूर्व में भी उनका डेरा पड़ चुका था।
गायत्री ने चर्चा
शुरु की- ‘ सबसे पहले तो ये बताओ भैया कि इतनी देर क्यों लगा दिये आने
में?’
‘ तुम्हें ये जानकर शायद दुःख हो कि अब वृद्धमहाराज से मुलाकात
नहीं हो सकती,क्यों कि वे अब समाधि ले चुके।’- बाबा ने कहा,जिसे
सुनते ही हमदोनों सन्न रहे गये।
‘ घबराओ नहीं,समाधि का जो अर्थ तुमलोग समझ रहे हो,सो बात नहीं
है। प्रायः सुनते होवोगे कि फलां महात्मा ने समाधि लेली- यानी की स्वर्ग सिधार गये
। क्यों कि सन्तों की मृत्यु को लौकिक रुप से समाधि ही कहा जाता है; किन्तु वृद्धमहाराज
ने सच में समाधि लेली,जो योगियों की साधना पराकाष्ठा है; और इस समाधि की कोई
स्पष्ट तय अवधि नहीं होती,कब भंग होगी,कहा भी नहीं जा सकता। हिमालय की गुप्त
कन्दराओं में आज भी हजारों हजार वर्षों से तपस्या-रत अनेक सन्त-महात्मा मिल
जायेंगे,हालाकि उन तक पहुँचना आम आदमी,या कहो आधुविक विज्ञान के लिए भी असम्भव है।
उस दिन त्रिकोण के गुप्त खोह में भी मैंने
तुमलोगों को कुछ स्थल दिखाया था। वहां भी जीते-जागते सन्तों की अनेक समाधियां हैं।
वहीं,कालीखोह के पास,गुफा में जहां मूलप्रकृतिराधा की मूर्ति का दर्शन किया था
तुमलोगों ने- वृद्धमहाराज ने समाधि ली है। वास्तव में वह बाबा की ही साधना-स्थली
है। बीच-बीच में तारामन्दिर की कार्य-व्यवस्था देखने हेतु बाहर चले आते थे,क्यों
कि अल्पकालिक (लघु) समाधि में होते थे,पर अब वह भी सम्भव नहीं। इस अवस्था में वहां
तक जाना-मिलना कतयी सम्भव नहीं है- यहां तक कि मेरे लिए भी मनाही है। मुझे भी अब
ज्यादातर वहीं बिताना पड़ेगा- क्यों कि तारामन्दिर का कार्यभार बाबा ने मुझे ही
सौंपा है,और जब तक आगे कोई योग्य पात्र उस स्थान के लिए मिल नहीं जाता,उसे छोड़ कर
मैं कहीं और ठौर नहीं बना सकता। और वैसे भी ठौर बनाने का कोई औचित्य भी नहीं है।’- बाबा ने गायत्री के
सम्भावित प्रश्न का उत्तर भी साथ-साथ दे दिया,क्यों कि निश्चित ही वह अगला सवाल
करती कि आज भी नहीं आते- क्यों?
यह जानकर थोड़ी राहत
मिली कि वृद्धबाबा अभी सशरीर विद्यमान हैं, किन्तु भावी भेंट-मुलाकात की असम्भावना
से जरा क्षोभ भी हुआ; और उससे भी अधिक दुःख इस बात का हुआ कि
उपेन्द्रबाबा को लेकर,जो योजना बनायी थी गायत्री ने,वह भी फलीभूत नहीं हो पायेगी।
किन्तु कर ही क्या सकता हूँ, हवा के झोंके और सूरज की किरणों को कौन कैद कर पाया
है आज तक भला ! उस दिन की उनकी कुछ रहस्यमय बातों का अर्थ अब स्पष्ट हो रहा
है- कौन जानता है- फिर कब मिलना हो...लो सम्भालो अपना धरोहर....। तो क्या
वृद्ध बाबा अपना धरोहर मुझे सौंप गये...इतना महत्त्वपूर्ण हो गया मैं उनकी दृष्टि
में...इतना भरोसा मुझ सरीखे इन्सान पर...गायत्री अकसरहां कहती है- पूर्व जन्म के
पुण्योदय से ही किसी सन्त का साक्षात्कार होता है...सच में अहैतुकी कृपा हो गयी...अज्ञात
पुण्यफल उदित हो गये...अपने गुरुमहाराज का ज्ञान
साझा किया उन्होंने मेरे साथ...ओह ! कितना भाग्यवान हूं
मैं...।
कमरे में छन्नाटा छाया
रहा काफी देर तक। कुछ देर बाद गायत्री चहकी- ‘तुमने तो मेरी
योजनाओं पर ही पानी फेर दी भैया ! कितना खुश थी कि अब साथ रहेंगे,ढेरों
बातें करेंगे तुमसे...अभी तो तुम्हारी जीवनी भी सुननी बाकी ही है मुझे। ’
उपेन्द्रबाबा ने बीच में ही टोका-‘ मेरी जीवनी में कोई
तथ्य नहीं है, कोई रस नहीं है,कोई रहस्य भी नहीं है। उसे जानने के लिए व्यर्थ ही
तुम उत्सुक हो। काल ने कल-बल-छल का प्रयोग किया हो सदा जिसके साथ,उसके जीवन में
क्या रस हो सकता है ! और अच्छा ही हुआ कि रस नहीं है मेरे जीवन
में, अन्यथा ‘महारस’ की खबर भी नहीं ले पाता,क्यों कि यह
संसार इतना रसीला है कि अपने से बाहर निकलने ही देता किसी
प्राणी को। प्रकृतिमंडल को भेदना बड़ी कठिन बात है। खैर,मैं जानता हूं कि थोड़ी-बहुत
बातें हैं,जिनके लिए तुम्हें जिज्ञासा होगी,वो मैं अवश्य बतला दूंगा। कहो कहां से
शुरु करुँ ? ’
‘ मैं तो तुम्हारी
बातों को सिलसिलेवार सुनना चाहती थी। कई बार बातें बढ़ायी भी,पर कुछ न कुछ अन्य
विषय आ टपके,और मेरी जिज्ञासा वहीं अंटकी रह गयी। शादी के मंडप से भागे थे,इतना तो
सबको पता हो गया था उसी समय। अपने स्वसुरजी की सम्पदा का रखवाला यानी कि ‘घरजमाई’ तुम नहीं बनना
चाहते थे- यह वजह भी उस दिन तुमने ही बताया। पर बातों का सिलसिला तो तुम पूर्णाडीह
ज्ञानीजी के पास ही छोड़ आये हो,वहीं से शुरु करो, यदि सुनाना ही चाहते हो तो।
वैसे इधर कुछ और भी नये सवाल उभरे हैं मस्तिष्क में,पुरानी बातों में भी बहुत कुछ छूटा-फटका है,पर इस भगोड़ू भैया
से कितना पूछूं,क्या पूछूं,समझ नहीं पा रही हूँ। ’-
गायत्री ने उलाहने के लहज़े में कहा,जिसपर बाबा मुस्कुरा दिये।
‘‘ खैर, मुझे भगोड़ू
कहने का तो तुम्हें अधिकार बनता ही है। तुम्हारी इच्छानुसार मैं अपनी बात वहीं से
शुरु करता हूँ जहां छोड़ा था।’’- बाबा
कहने लगे - ‘‘ ज्ञानीजी की छत्रछाया में मैं बड़ी तेजी से
फलने-फूलने लगा। बीच-बीच में दादाजी आ जाया करते,घर का हालचाल मिल जाता,बस इतने तक
ही मन सिमट कर रह गया था। घर जाना भी है,वहां कोई और भी है जो मेरे लिए आँखें
बिछाये होगी- सपने की भांति कभी आते,और क्षण भर में चले भी जाते। दादाजी ने कहा भी
बड़ीमाँ से मिलने के लिए,किन्तु खास इच्छा न हुयी। दादाजी से ही यह भी मालूम चला
कि पिताने कभी सपने में भी गोहराया नहीं है। कुल मिलाकर बात ये हुयी कि करीब करीब
चार वर्ष गुजर गये,पर मेरे लिए चार महीनों जैसे। हां, कभी-कभी बड़ी माँ से मिलने
की इच्छा बलवती हो जाती, और उदास हो जाता,किन्तु ज्ञानीजी ताड़ जाते,और चट कह
उठते- ‘
हेंऽऽ ! ये क्या तुम उदास क्यों हो,क्या उस मां से मिलने का इरादा
बदल दिया तुमने,जो इस मां के बारे में सोच कर उदास हो रहे हो....?’ कुछ ऐसे ही समय
गुजरता रहा। चौथा वर्ष अभी पूरा ही होने वाला था,सप्ताह-दश दिन में कि अचानक एक
अनहोनी हो गयी- हुयी तो होनी ही,किन्तु दुनिया तो इसे अनहोनी ही कहती है न ! उमगा
माँ के दरबार में ही उपासना रत थे ज्ञानीजी। शारदीय नवरात्र के बाद वाली एकादशी
तिथि थी। ज्ञानीजी ने हमें हिदायत दी कि आज तुलसी पत्र कुछ अधिक ही तोड़ना है-
द्वादशी-निमित्त जो अधिक तोड़ते हैं,उससे भी अधिक। आदेशानुसार,अभीष्ट मात्रा में
तुलसी पत्र डोलची में रखकर,मैं पुनः निकल गया मन्दिर से बाहर जवाकुसुम के लिए
दूसरी खंचिया लेकर। कोई आध घंटे भर बाद लौटा तो वहां का दृश्य बिलकुल बदला हुआ था –– पद्मासनासीन ज्ञानी
जी का ब्रह्मरन्ध्र करीब चवन्नीभर गोलाई में खुला हुआ हुया था,और बगल में बैठे
जराजीर्ण एक दिव्य महात्मा तुलसीपत्र के सहारे,पत्रावली में पड़ा मक्खन उस खुले
रन्ध्र में भर रहे थे। मेरे पहुंचते ही
उन्होंने आदेशात्मक लहजे में कहा,मानों पुरानी जान-पहचान हो - ‘ तुम उपेन्द्र हो
न,फूल की खंचिया वहीं रख दो,और झटपट चलो मेरे साथ।’ मैं कुछ समझता,पूछता,कि उससे
पहले ही उन्होंने मेरा सिर पकड़कर जबरन ज्ञानीजी के चरणों में झुका दिया– ‘लो अपने गुरु को अन्तिम प्रणाम निवेदन
करो।’ और मेरी कलाई पकड़े मन्दिर से बाहर हो गये। इतना कुछ, पलक
झपकते ही हो गया ’’- इतना कह कर उपेन्द्रबाबा जरा रुके,और गायत्री के चेहरे पर गौर
करने लगे। गायत्री कुछ कहती-पूछती,कि उसके पहले ही वे स्वयं उचरने लगे- ‘‘ तुमलोगों की जिज्ञासा और उत्सुकता को
और विकल न करके,मैं स्पष्ट कर दूं कि वे दिव्य विभूति कोई और नहीं,बल्कि ये विन्ध्याचल वाले बंगाली बाबा ही थे। मेरी कलाई
पर उनके हाथों की पकड़ बड़ी विलक्षण थी। मन्दिर से बाहर निकलते-निकलते मेरी चेतना
कहीं खो गयी थी,और पूर्णरुपेण वापस आयी तो गुरुमहाराज की समाधि के आगे औंधे मुंह
पड़ा पाया स्वयं को। हां इस बीच समय का पहिया लगता है बिलकुल रुका हुआ सा रह
गया,क्यों कि बहुत बाद में मुझे पता चला कि बिहार के पूर्णाडीह से उत्तरप्रान्त के
विन्ध्याचल की दूरी सैंकड़ो मील है,जबकि बाबा ने पलक झपकते ही यह दूरी तय कर ली थी।
’’
गायत्री ने टोका- ‘ इसका
मतलब कि बृद्धमहाराज को पादुका-सिद्धि भी प्राप्त है ?’
गायत्री के मुंह से
पादुकासिद्धि की बात सुन उपेन्द्रबाबा जरा चौंके- ‘ ये तुमने क्या सवाल कर दिया? पादुकासिद्धि के
बारे में कहीं सुना-जाना है क्या?’
‘आपने ही तो एक बार बात निकाली थी,किन्तु अधूरी रह गयी थी।
सुनते हैं –अंकोलकाष्ठ निर्मित पादुका पर कुछ खास तरह की साधना करके,बड़ी सहजता से
अदृश्य होकर,आकाशमार्ग से वायुयान की वेग से गमन किया जा सकता है।’-मैंने जिज्ञासा
व्यक्त की, जिस पर बाबा ने जरा आँखे तरेर कर कहा- ‘‘ क्या बच्चों जैसी
बातें करते हो ! गुरुमहाराज तुमलोगों पर मेहरवान हैं, अकूत सम्पदा-गृह की
चाभी सौंप दिये हैं,और छोटे-मोटे खिलौने की लालसा लगाये बैठे हो तुम ! इन फ़िज़ूल की
जिज्ञासाओं से मन को हटाओ,और अपने असली काम में लग जाओ। उस बार भी मैं अंकोल-साधना
की चर्चा को जानबूझ कर ही टाल गया था। ये सब व्यर्थ की बाज़ीगरी है,मुख्य साधन-पथ
के रोड़े-कंकड़,या सीधे कहो बाधक-तत्त्व हैं। कदाचित मिल भी जाये रास्ते में तो
छूने की भी आवश्यकता नहीं। ज्यादातर लोग कुछ ऐसी ही छोटी-मोटी उपलब्धियों में
उलझकर जीवन गंवा देते हैं,और सच पूछो तो ऐसे लोग, बिलकुल प्रयास न करने वाले लोगों
से भी गये गुजरे होते हैं। प्रयास न करना तो दुःखद है ही, किन्तु बीच में फंस जाना,उलझ जाना,मार्ग-भ्रष्ट
होजाना- कहीं उससे अधिक दुःखद है।
सम्हलते-सम्हलते बहुत समय बीत जाता है। एक रोचक और भयावह जानकारी दे रहा हूँ-
एकबार एक साधक को थोड़ी अनुभूति हुयी,भूत-वर्तमान के साथ भविष्य भी आभासित होने
लगा। अब वे महाशय को ये सूझी कि मेरी प्रेमिका जो हाल में ही गुजर गयी है-
कहां,किस स्थिति में है- इसे जानूं। चेतना को केन्द्रित करते ही सामने एक प्रेत
प्रकट हुआ,और भर्त्स्नापूर्वक बोला- क्यों बुलाया मुझे...। साधक महोदय तो मानसिक
रुप से इसके लिए तैयार न थे, और न उन्हें
इस बात का गुमान था कि ऐसा भी हो सकता है,और न उन्हें भरोसा ही था कि इतनी जल्दी
कुछ हो जायेगा। सोच न पाये उस प्रेत को क्या उत्तर दें। जवाब में विलम्ब होता देख,प्रेत
ने एक ही झटके में उन्हें उठाकर पटक दिया। रीड़ की हड्डी टूट गयी,और लाखों
रुपये,और काफी समय गंवाकर भी दुरुस्त न हो पाये। ऐसे अनेक उदाहरण है नये
अभ्यासियों के,जो मूर्खतावश धोखा खाये हैं। इसी लिए साधना-गुरु की आवश्यकता बतायी
गयी हैं,कीचड़ में फंसने पर निकालने हेतु,स्वच्छ मार्ग निर्देशन हेतु।’’- इतना कह कर बाबा
जरा रुके।
बातों को सम्हालती
हुयी गायत्री ने कहा- ‘ खैर छोड़ो भी,अंकोल की लाठी बहुत देख चुकी हूँ। मेरे
दादाजी के पास भी थी। कहते थे कि इसके बहुत उपयोग हैं तन्त्र में। वैसा ही होगा
खड़ाऊँ का भी। खड़ाऊँ ना भी देखू तो कोई
बात नहीं। फ़िलहाल तुम अपनी ही बात कहो न। हर बार कोई न कोई बाधा आजाती है,या कहो
विषयान्तर हो जाता है। आज पूरी कहानी सुन कर ही दम लूंगी। बताओ न,फिर क्या हुआ-
बाबाजी तो तुमको पीठपर लाद कर हवाई- मार्ग से विन्ध्याचल पहुँचा दिये,फिर आगे क्या हुआ...घर कब गये...शादी के चक्कर में कैसे
फंसे...भागे तो फिर कहां भागे...और ये दिल्ली क्यों इतनी रास आरही है तुम्हें...ये
कोई पावन तीर्थस्थल तो है नहीं !’
‘‘ भले ही ये
राजनयिकों का महातीर्थस्थल हो,परन्तु साधकों के लिए कोई तुक नहीं है- दिल्ली-वास ; किन्तु हालात कुछ
ऐसे बने कि मेरे लिए भी महातीर्थ बन गया––
काशी-विन्ध्याचल से भी कहीं बढ़ कर। ’’- बाबा ने एक नयी जिज्ञासा पैदा कर
दी,किन्तु इस बार मैं खुद को कड़ा कर लिया था,कुछ नहीं पूछूंगा,जितना वे खुद
बतायेंगे उतना ही सुनूंगा।
बाबा ने कहा- ‘‘ विन्ध्याचल
वाले बंगालीबाबा,जिनसे अभी तुमलोग मिल कर आये हो,पूर्णाडीह के ज्ञानी जी के
गुरुभाई हैं,हालाकि उम्र में कुछ छोटे हैं। अपने साथ मुझे लाकर बड़ा ही उपकार किया
मुझ पर। प्रसंगवश इन्होंने अन्य बातों के साथ ये भी बताया कि उस समय ज्ञानीजी के
समाधि लेने की रहस्यमय सूचनास्रोत के कारण वे हठात वहां पहुँचे थे। उन्हीं का आदेश
था कि मुझे यहां लाकर,अपने संरक्षण में रखकर आगे की मेरी क्रियायें पूरी
करायें,क्यों कि उनके भी गुरुमहाराज का ऐसा ही आदेश-संकेत था। बंगाली बाबा के
संरक्षण में रह कर,मेरी साधना चलने लगी। सच पूछो तो अभी चार-पांच वर्षों में मैं
सीखा ही कितना था ...
‘‘ यहां रहते कोई तीन वर्ष गुजर गये। इसी बीच एक बार उन्हीं के
साथ काशी जाने का सौभाग्य मिला,जो मेरे लिए दुर्भाग्य का द्वार खोल गया। महीने भर
वहां रहकर,मणिकर्णिका पुष्करणी पर कुछ क्रियायें करनी थी उन्हें। कुछ विशेष
क्रियायें मेरे लिए भी निर्धारित कर रखा था उन्होंने। इसी बीच,एक दिन की बात है- मुझे
कुण्ड की कुछ क्रियायें समझा कर,स्वयं विश्वनाथ दर्शन हेतु चले गये। गंगा-स्नान के
पश्चात् ऊपर आकर मैं कपड़े बदल रहा था,तभी अचानक मेरा ध्यान सामने जलती चिता पर
गया। वैसे भी जलती चिता को घंटों निहारना मुझे बड़ा ही आकर्षक और प्रीतिकर लगता
है। मौका मिलते ही प्रायः वहां आकर बैठ जाया करता। बहुत बार तो बाबा भी मेरे साथ
ही आसन लगा लिया करते। एकाग्रता के लिए यह भी एक बहुत ही अच्छा साधन है। किन्तु उस
दिन उस चिता ने मुझे कुछ अधिक ही आकर्षित किया था। चिता लगभग जल चुकी थी,और परिजन
भी स्नानादि में शायद लग चुके थे,वस दो आदमी चुकमुक बैठे निहार रहे थे,जिनका
पृष्ठभाग ही मेरे सामने था। तभी अचानक अपने कंधे पर वलिष्ट स्पर्श के साथ चीख
सुनाई पड़ा- अरे वो भट्टजी ! ये रहा आपका उपेन्दऽ र ऽ ...! और इस चीख के साथ
ही मैं अचानक घिर गया बीसियों लोगों से, जिनमें मेरे पिता,चाचा,मामा,फूफा सब मौजूद
थे। पिता को दाहकर्ता के वेश में देख कर इतना तो तय हो गया कि किसी अपने की महायात्रा
हुयी है; परन्तु अचानक के इस परिजनीय चक्रब्यूह से मैं इतना घबरा गया
कि कुछ सूझा नहीं। कुछ सोच-समझ पाता,इसके पूर्व ही फूफाजी ने कहा- ‘ जाओ,दादाजी को
कम से कम तिलांजलि तो दे दो। पहले आये रहते तो ....।’ सुन कर,क्षणभर के लिए सूना मस्तिष्क
और भी निर्जीव सा हो गया–– ऐं..ऽ..ऽ तो ये मेरे प्यारे दादाजी की
चिता जल रही थी....मैं भी कैसा अभागा हूँ...! – मन ही मन बड़बड़ाते
हुये आगे बढ़ गया चिता के समीप। चिता-भूमि में दण्ड की भांति गिर कर उनसे क्षमा याचना
की,फिर तिलाञ्जलि भी प्रदान किया नियमानुसार। मेरे विषय में अनेक सवाल सबके पास
थे, पर उस गमगीन माहौल में किसी ने पूछा-जाना नहीं कुछ । वैसे, कुटुम्बीजन की
जानकारी में तो मैं गया के अवस्थीजी के आश्रम का विद्यार्थी हूँ ही। फलतः अपनी ओर
से कुछ कहना कदाचित उचित न लगा। काष्ठवत खड़ा, दायें-बायें झांक रहा था कि बंगालीबाबा जल्दी आते क्यों नहीं और ....।
किन्तु काफी देर हो गयी,वे आये नहीं। मेरा असमंजस बढ़ता रहा- क्या करना चाहिए- सोच
न पा रहा था...।
‘‘...एक ही रास्ता
दिखा- बिना ना-नाकूर के स्वजनों के साथ घर की ओर वापसी। वैसे, विकल्प ये भी था कि
लोगों की नज़रें बचाकर,गायब हो जाऊँ,पर न जाने क्यों मन की किस कमजोरी ने ऐसा करने
न दिया, और उस मानसिक दुर्बलता की डोर थामे घर पहुँच गया...।
‘‘...कुल मिलाकर
कहें तो लगभग साढ़ेसात वर्षों के बाद घर की आंगन में था। भले ही घर के मुखिया,वो भी
एक महाप्रतापी व्यक्तित्त्व का वियोग हुआ था,परन्तु लगभग वियुक्त पुत्र का अचानक
आगमन, वृद्ध-वियोग के सारे गम को धो-पोंछ कर एक किनारे कर दिया। माँ ही
नहीं,माँयें दौड़ कर लिपट पड़ी,
और वयस्कता की चौखट
पर खड़े पुत्र का मुंह चूमने का होड़ लग गया। ’’
उपेन्द्र बाबा कहे
जा रहे थे,अपनी कहानी। हमदोनों योग्य श्रोता की भांति बिलकुल मौन साधे सुने जा रहे
थे। बाबा ने विस्तार से बताया कि कैसे दादाजी का श्राद्ध सम्पन्न हुआ, कितने
धूमधाम से- सहस्रों विप्र-भोजन के साथ-साथ दरिद्रनारायण-भोज भी हुआ। उस हुज़ूम को
तो देख कर लगता था कि पूरी दुनिया ही दरिद्र है। बाप रे बाप ! इतने मंगते आये
कहां से होंगे....। मधुर मिष्टान्न,षडरस भोजन के पश्चात् यथेष्ट अन्न-वस्त्रादि भी
उन्हें दान में दिया गया था। कुछ ने तो ‘बासगीत’ जमीन ही मांग दी।
उसे भी तुष्ट किया गया। गांव से बाहर भूमिहीनों के लिए एक ‘बिगहा’ बसाने की घोषणा की
गयी दादाजी के नाम। ईंच भर जमीन के लिए सिर कटाने वाले ग्रामीण दांतो तले अंगुली
दाबे रह गये। लोग कहते हैं न कि असली दान यही है- दरिद्रनारायण तुष्ट हो गये तो
समझो प्राणी को सद्यः मुक्ति मिल गयी। श्राद्ध की रात्रि में उन्होंने सद्यः देखा-
दादाजी को अति प्रसन्न मुद्रा में टहलते हुए घर के समीप वाली वाटिका में।
‘‘...श्राद्ध के
तीसरे दिन ही मृत्यु-तिथि मिल गयी। कुटुम्बीजन अभी पूर्ववत जमे हुए थे। अगले दिन
ही वार्षिकी भी निपटा देना था,और इसी क्रम में गुप्त सूत्रों से ज्ञात हुआ कि
मामाजी और पिताजी के साठगांठ से दादाजी को राजी कर लिया गया था- मेरी शादी के लिए।
पहले तो उन्होंने काफी विरोध जताया था, पर बाद में न जाने क्यों स्वीकृति भी दे
चुके थे। मृत्यु की ये आकस्मिक दुर्घटना न हुयी होती तो, बीते महीने का अन्तिम लगन
ही तय था। परन्तु बीस-पसीस दिन दादाजी शैय्यासीन रहे,और अन्त में चल बसे। उधर
बेचारा लड़की वाला सारी तैयारी किये बैठा है। अतः कुटुम्बियों की राय बनी कि
त्रिरात्रि वार्षिकी सम्पन्न करके ,शीघ्र ही शादी निपटा दी जाये। परिणामतः इन सबसे
निबट कर शादी की तैयारियां भी होने लगी। किसी ने ये सोचना भी जरुरी न समझा कि घर
के मुखिया का निधन हुआ है,और कौन कहें कि लड़का बूढ़ा हुआ जा रहा है...अभी तो ठीक
से बालिग भी नहीं हुआ है। किन्तु लोग ऐसे फिजूल की बातों में भला क्यों कीमती वक्त
ज़ाया करें !
‘‘...बड़ी माँ ने
अपने अन्दाज़ में समझाया–
‘शादी कर ले उपेन्दर,नहीं तो दादाजी की आत्मा को कष्ट
पहुंचेगा। उन्होंने ने ही शादी पक्की की थी,और बड़े ही उत्सुक थे नातिनबहु का मुंह
देखने को।’ मैं सोच रहा था- काश ! काशी मणिकर्णिका पर ही वैकल्पिक निर्णय
ले लिया होता...कहां आ फंसा इस महाजाल में ! किन्तु किसी ठोस निर्णय पर पहुँच न पाया,
कोई ठोस कदम न उठा पाया,और अरिछन-परिछन कराके दूल्हा बन ही जाना पड़ा।’’
बड़ी देर से चुप्पी
साधे गायत्री बोली - ‘ उस समय तो मैं भी थी ही।
बाप रे, कितना परेशान की थी तुमको पालकी में बैठते समय,और
भाभी को
लेकर आने पर ‘दुअरछेंकाई’ के वक्त और भी परेशान करने की धमकी भी दे
डाली थी। मगर कौन जानता था कि ...।’
गायत्री को
बीच में टोकते हुए उपेन्द्रबाबा ने कहा- ‘‘ वैसे मैंने मन ही मन तय कर लिया था-
आगे की पूरी योजना- पुरुषार्थ चतुष्टय का किंचित अर्थ तो समझ आ ही गया था,इतने
दिनों में बाबाओं के सानिध्य से; किन्तु
वहां पहुँच कर ऐन सुमंगली के समय जो कानाफूसी सुनने को मिला- उसे जान कर तो मेरे
रोंगटे खड़े हो गये। ‘ उसकी
’ एक पड़ोसन
भाभी ने बिना प्रसंग का प्रसंग छेड़ कर मज़ाक में उलाहना दे दिया- घरजमाईराजा कह
कर,और मेरे कान खड़े हो गये। मौका पाकर तहकीकात किया,तो सारा भेद खुल गया,और फिर
पिता, और होने जारहे पिता से बहसा-बहसी कर रफ़ूचक्कर हो गया...।
‘‘...वहां
से निकला तो सीधे विन्ध्याचल का रास्ता पकड़ा,मगर अफसोस कि वहां पहुंच कर बंगाली
बाबा से मुलाकात न हुयी। किसी से कोई सुराग भी न मिला कि वे कहां हैं,कब तक
आयेंगे। बस इतना ही पता चला कि उनका कोई ठिकाना नहीं रहता। कभी-कभी तो महीनों और
वर्षों गायब रहते हैं। ऐसी स्थिति में मैं अपना कर्तव्य निर्धारण न कर पा रहा था। उन
दिनों यह तारामन्दिर अब की भांति व्यवस्थित भी नहीं था,जहां रुका-टिका जासके,बाबा
की अनुपस्थिति में। दो-चार दिन इधर-उधर गुजारा किया,फिर वहां से प्रयाग भागा। भागा
नहीं,भाग्य ले गया- कहना ज्यादा अच्छा होगा। गंगा किनारे चिंतित-उदास बैठा था। पेट
में कलछुल नहीं, वेलचा फिर रहा था। तीन दिन हो गये थे। जेब में अधेला भी नहीं था।
स्नान से निवृत्त हो बाहर निकलते ,एक सेठनुमा सज्जन दीखे। मैं जहां बैठा था,वहीं
पास में खड़े होकर कपड़े बदले। फिर अपने बैग में से निकाल कर कुछ जलपान करने लगे।
तभी अचानक मुझसे नजरें मिली – ‘ कहां के
वासिन्दे हो बाबू ? लगता है ब्राह्मणकुमार हो। ’ मैंने बिना कुछ
बोले,सिर्फ सिर हिला दिया। अपनी परख पर दर्पित होते हुए मेरे समीप खिंचे चले आये। ‘
मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया तुमने...लगता है तुम्हें भूख भी लगी है...घर से
भाग कर आये हो क्या...मेरे साथ चलोगे ? ’ उनके प्रश्नों की झड़ी में से, मुझे सिर्फ एक का उत्तर
देना,या कहो पुनर्प्रश्न करना समीचीन लगा- किसलिए, कहाँ ले जाना चाहते हैं आप? ‘ ब्राह्मणकुमार को कोई और किस काम के लिए ले जा सकता है ? मैं दिल्ली में रहता हूँ। छोटा-मोटा कारोबार है। घर के पास ही
एक मन्दिर बना दिया हूँ। कोई ढंग का स्थायी पुजारी मिल नहीं रहा है। वहां जो पंडित
मिलते हैं, उन्हें मोटी तनख़्वाह चाहिए। सिर्फ भोजन-वस्त्र–आवास पर कोई टिकता
नहीं, और उससे अधिक मेरी औकाद नहीं। ’ सुनकर, मैंने तपाक से कहा– आपकी सारी शर्तें तो मुझे मंजूर है,किन्तु मेरी भी एक शर्त
होगी- मैं मातेश्वरी के अतिरिक्त किसी और स्वरुप की पूजा में दिलचश्पी नहीं रखता।
‘‘...मेरा जवाब सुन वे उछल पड़े,मानों कारू का खज़ाना मिल गया हो।
‘धन्य हो
मातेश्वरी ! तूने मेरी
सारी समस्या का समाधान दे दिया।’-
दोनों हाथ जोड़ अदृश्य शक्ति को प्रणाम किया उन्होंने, और फिर मेरे पैरों पर माथा टेक
दिये– ‘आपने
मेरा मान रख लिया विप्रकुमार ! और
मातेश्वरी ने आपके शर्त का भी । काली मन्दिर का ही पुजारी नियुक्त करना चाहता हूँ
आपको।’
‘‘...और अगले ही पल उनके साथ हो लिया। अपने साथ लेकर वे
धर्मशाला पहुँचे, और फिर शाम की गाड़ी से दिल्ली प्रस्थान कर गये। वहां पहुँच कर
मेरे रहने-खाने की सारी व्यवस्था आनन-फानन में पूरी हो गयी,और अगले दिन से मैं
कालीमन्दिर का पुजारी बन गया। उमगा भगवती से विछुड़ने के बाद मन थोड़ा उचाट सा
रहता था। यहां पहुँच कर लगा कि सच में माँ की गोद में आगया हूँ। लगन से उनकी सेवा-पूजा
में लग गया...।
‘‘...सुख के समय की रफ़्तार बड़ी तेज होती है। कोई डेढ़ साल उड़
गये सुनहले पंख लगा कर। काली मन्दिर में सोम-मंगल को विशेष भीड़ जुटती थी। ऐसे ही
एक दिन की बात है- एक कमसिन लड़की आयी,और नम्रता पूर्वक निवेदन की कि मैं उसे
मन्दिर में भीतर आकर माँ की मूर्ति की पूजा करने दूँ,ताकि वह अपने हाथों से मूर्ति
को सिन्दूर चढ़ा सके। जब कि नियमतः कोई भीतर प्रवेश नहीं करता था,और न करने की
इच्छा ही ज़ाहिर करता था। मुझे उस वालिका की विनती में कुछ आपत्तिजनक प्रतीत न
हुआ। हो भी क्यों- मां का एक स्वरुप दूसरे स्वरुप से मिलना चाहता है,तो मैं इसमें
कौन होता हूँ बाधा डालने वाला–
मेरे उत्तर से उसे तुष्टि मिली। उसने कहा कि किसी पंडितजी ने सुझाव दिया है– मनोकामना पूर्ति के लिए चौआलिस दिनों तक माँ को सिन्दूर
लगाने के लिए,और समस्या ये है कि आसपास के मन्दिरों में किसी का प्रवेश वर्जित है।
‘‘...अगले दिन से नियम पूर्वक वह लड़की
नित्य प्रातः,जरा मुंह अन्धेरे ही आने लगी। बड़ी श्रद्धा से मां को सिन्दूर
लगाती,और चरणों में किंचित मौन शब्द-पुष्प निवेदन करके,चट वापस भी चली जाती। मैं
तब तक मन्दिर की अन्य व्यवस्थाओं में व्यस्त रहता। बाकी के भक्त काफी देर से आया
करते थे,उनके आने से पहले मुझे बहुत कुछ साज-सजावट करना होता था।
‘‘...कोई पन्द्रह दिन गुजर गये थे उसकी
उपासना के। एक दिन उसने कहा- ‘महाराज
जी! देखती
हूँ,सुबह-सुबह आपको काफी परेशानी होती है,कम समय में अधिक तैयारियां करनी पड़ती
हैं। आपकी अनुमति हो तो मैं भी कुछ सहयोग कर दूं। माँ की सेवा का कुछ अवसर मुझे भी
मिल जायेगा। वैसे, आप चिन्ता न करें,मैं भी ब्राह्मण-कन्या ही हूँ। यहीं पास में
रहती हूँ, अपने भैया-भाभी के साथ।’...
‘‘...उसकी विनम्र वाणी की मैं अवज्ञा न कर सका। मैंने सहज ही
स्वीकृति दे दी; और वह मेरे
काम में हाथ बंटाने लगी । मन्दिर परिसर से बाहर जाकर, बाल्टी भर लाती,फ़र्श की
धुलाई करती,पोछा लगाती। फूलों की चंगेरी लेकर माला भी गूंथ देती। मैं तबतक गर्भगृह
में अन्य साज-सज्जा का काम करता। माँ की सेवा के अतिरिक्त फ़िज़ूल की बातों के लिए
न मेरे पास वक्त था,और न उसे ही अभिरुचि। वस काम से काम...। ऐसे ही एक दिन, गूंथा
हुआ माला मुझे पकड़ाते समय हठात उसकी दृष्टि मेरी अंगुलियों पर गयी। माला मुझे
देने को बढ़े उसके हाथ, अचानक कांप उठे। ऊपर-नीचे सरकती हुई नजरें ,मेरा आपादमस्तक
निरीक्षण करने लगी। मैं भी ठिठक गया- क्या बात है...क्या देख रही हो इस तरह?
‘‘...जवाब के
बदले,उसने मुझसे ही सवाल कर दिया- ‘आपका नाम क्या है महाराज ! आप रहने वाले कहां
के हैं? ’ उसके इस अटपटे सवाल के लिए मैं कतई तैयार नहीं था। अचानक का सवाल- एक
कठोर कुठार की तरह प्रतीत हुआ। इतने दिन हो गये,किसी ने ये सवाल किया ही नहीं था
यहां आने से। यहां तक कि नियोक्ता सेठ भी कभी ये पूछना-जानना जरुरी न समझा। उसके
लिए वस इतना ही पर्याप्त था कि मैं ब्राह्मण-कुमार हूँ,और बिहार के किसी छोटे गांव
का भगोड़ा हूँ। भागने का वजह भी बिना पूछे मैंने बता दिया था– पिताकी प्रताड़ना । किन्तु आज इस अनजानी लड़की के इस सवाल से
तिलमिलाना स्वाभाविक था मेरा। अतः जवाब के बदले मैंने भी सवाल कर दिया- आजतक मैंने
तुम्हारा नाम-धाम नहीं पूछा, फिर तुम क्यों पूछ रही हो?
‘‘...समुचित
उत्तर के बदले उठे प्रश्न से वह भी तिलमिला गयी। माला उसके हाथ से छूट कर धराशायी
हो गयी। बड़ी-बड़ी आँखें...नीली झील सी आँखें, जिनके अन्तः में अथाह लहरें उठ रही
थी, सीमा तोड़ स्रवित होने लगीं। जरा ठहर कर, हिम्मत बटोर, कहा उसने- ‘ आपकी
भाषा-शैली तो बिलकुल बिहारी लगती है, उसमें भी औरंगावादी। आप कहीं गदाधर भट्ट के पौत्र उपेन्द्रनाथ भट्ट
तो नहीं हैं...?’ उसकी आवाज
कांप रही थी। होंठ फड़क रहे थे। आँखों में अंगारे धधकने लगे थे।
‘‘...मैं हतप्रभ था- इतना सटीक परिचय-पत्र,वो भी बिना दिये...
आंखिर कौन है ये जो मेरे बारे में इतना सही अनुमान लगा रही है...सोचा,और उससे फिर
सवाल कर दिया- खैर,मान लिया तुम्हारी बातें सही हों,क्यों कि झूठ बोलने का कोई
औचित्य नहीं,क्यों कि झूठ तो अपराधी बोला करते हैं,अपने कारनामे छिपाने के लिए...।
‘‘...मैं कुछ और कहता,उससे पूर्व ही क्रोध में उबलकर कहा उसने– ‘ कुछ निडर और बेशर्म अपराधी सच भी बोलते हैं,क्यों कि
उन्हें अपने किये पर पश्चाताप या ग्लानि नहीं होती। ’
‘‘ मैं कुछ समझा नहीं, तुम कहना क्या चाहती हो? कौन अपराधी है यहां जिसे ग्लानि नहीं है अपने किये पर? तुम पहले अपना परिचय तो दो,फिर...
‘...मेरा
परिचय जान कर कहीं तुम फिर भाग न जाओ भगेड़ूभट्ट !,किन्तु जान रखो, माँ के इस दरबार से तुम्हें कदापि भागने न
दूंगी। इसी कटार से तुम्हें टुकड़े-टुकड़े कर दूंगी- यहीं और अभी, और फिर खुद को
भी मार डालूंगी। क्या तुम्हें अब भी मेरा परिचय जानने की इच्छा है? ’– मन्दिर के द्वार पर दोनों चौखटों को टेके, काली की चमचमाती
कटार पर आँखों से ईशारा करती हुई धृष्टतापूर्वक बोली- ‘ माँ ने मेरा नाम सावित्री
रखा था। हूँ भी राजा अश्वपति की पुत्री के समान दृढ़ निश्चयी। जो ठान लेती हूँ,कर
गुजारती हूँ।’
‘‘ सावित्री !
गिरीडीह
के महेश्वर भट्ट की इकलौती वेटी सावित्री? पर उनका तो कोई पुत्र नहीं था,और तुमने
कहा था उस दिन कि भैया-भाभी के साथ रहती हो। ’’
‘हां,भैया-भाभी के साथ ही रहती हूँ। पिताजी तो शादी वाली दुर्घटना के महीने भर बाद
ही चल बसे। और फिर,गोतिया-भाई की बकदृष्टि गटक गयी सारी सम्पत्ति। माँ को तो बचपन
में ही खो चुकी थी। वेसहारा अनाथ को साथ दिया फुफेरे भाई ने । मैं वही अभागन
सावित्री हूँ,जिसे तुम्हारी वाग्दत्ता होने का दुर्भाग्य प्राप्त है। प्रतिज्ञा
संकल्प– वाग्दान से
लेकर,कन्या-दान-ग्रहण तक का रस्म तो अदा कर ही चुके थे। ऐन सिन्दूर-दान के समय भाग
खड़े हुए- भगेड़ूभट्ट !
तुम मेरे गुनहगार हो,मेरे अपराधी हो। सजा तो तुम्हें मिलनी ही चाहिए। बड़े संयोग से मिल गये तुम । कहो कौन सी सज़ा दी जाय तुम्हें? ’
‘‘...मेरी तो घिग्घी
बंध गयी थी। ज़ुबान तालु से जा लगे थे। कंठस्वर कांप रहा था। बहुत हिम्मत करके
बोला– ‘हां, ठीक कहा तुमने।
सच में मैं तुम्हारा अपराधी हूँ सावित्री । तुम जो भी सज़ा देना चाहो,दे सकती हो।’
‘‘...कुछ पल के लिए
सन्नाटा छाया रहा। ऐसा लगा मानों वह मेरे लिए कोई सख्त सजा तज़बीज़ कर रही हो। किन्तु
नहीं। बात कुछ और थी। जरा ठहर कर उसने कहा- ‘ मैं कौन होती हूँ,किसी को सज़ा देने
वाली। सज़ा तो मैं खुद को दे रही हूँ। आर्यावर्त की नारी हूँ न...मर्यादाओं
की डोर में बंधी...धरती की तरह हर दुःख सहती,सूरज की तरह तू जलती जा...सिन्दूर
की लाज निभाने को....चुपचाप तू आग पे चलती जा...मर्यादापुरुषोत्तम कहे जाने वाले
राम ने जब साध्वी सीता का परित्याग कर दिया,फिर और कुछ रह ही क्या जाता है नारी को
आश लगाने के लिए...किस पर भरोसा करे?
किसका सहारा ढूढ़े ? चारो ओर भूखे
भेड़िये खांव-खांव करते नज़र आते हैं। जाये तो जाये कहां ये असहाय नारी...। ’– वह सुबक-सुबक कर रोने लगी थी। किंकर्तव्यविमूढ़
खड़ा मैं, कुछ सोच न पा रहा था।
‘‘...अभी मैं कुछ और
सोचता,कहने को कुछ शब्द तलाशता, कि तभी अचानक वह मुझे धक्के देती हुयी आगे बढ़ी,और
काली-मूर्ति के हाथों से कटार छीन कर, अपने सीने में भोंक ली। निशाना अचूक था। खून
का फ़ब्बारा छूटा और मेरे चेहरे को रंग गया। ‘ हैं ऽ..ऽ...ये क्या
कर ली तूने सावित्री ! कहता हुआ मैं आगे झुक कर उसके सीने में
धंसे कटार को निकालने का प्रयास कर रहा था, कि तभी सेठ दम्पति का प्रवेश हुआ परिसर
में।
‘‘...और फिर...फिर
क्या...भला किसे जरुरत थी पूछने की कि किसने
मारा...क्यों
मारा...रक्त-रंजित प्राणहीन शिथिल शरीर सामने है...हथियार भी सामने है...गवाह
मौजूद है...फिर बाकी ही क्या रह जाता है नेत्रविहीन न्याय-व्यवस्था के लिए...कौन
सुनता है अरोपी की...आरोप लग जाना ही काफी होता है...ये वो धब्बा है जिसे मिटाना
बड़ा मुश्किल होता है...और मिटाने केलिये जो ‘इरेज़र’ चाहिए वो मेरे पास
था नहीं, या कहें रहने पर भी प्रयोग करता क्या ?
नहीं ऐसे काम के लिए कदापि नहीं । अपराधी तो मैं हूँ ही। सजा तो
मुझे मिलनी ही चाहिए...। पिता की धनाढ्यता का दंड पुत्री को देने में, मैं निमित्त
बना हूँ...परिणाम तो भुगतना ही होगा न ! निर्धन बाप की बेटी
प्रायः ससुराल में प्रताड़ित होती है...पर यहां तो स-धन बाप की बेटी मैके में
यातना भोग रही है...कुंवारी विधवा जैसी...।
‘‘...और फिर आगे, हुआ
ये कि विचाराधीन और सज़ायाफ़्ता – कुल मिलाकर कोई सत्रह-अठारह वर्ष गुजर गये जेल
की चारदीवारी में- नारकीय जीवन गुजारते हुए। भले ही नेताओं और रसूकदारों का
पर्यटन-केन्द्र हो कारावास,पर आम आदमी के लिए तो नरक से भी बदतर है।
‘‘...और फिर जब दीर्घ
कारावास के पश्चात् मुक्त आकाश मिला, तबतक स्थितियां काफी कुछ बदल चुकी थी। साधन-पथ
पर बढ़ने वाले, कदम जीवन-रक्षक संसाधनों की टोह में भटकने लगे थे। यहां-वहां
मारा-मारा फिरा,नैतिक-अनैतिक का विचार छोड़, कुछ काम की तलाश में,पर इतनी बड़ी
दिल्ली महानगरी कुछ खास देने में विफल रही। थक-हार कर,प्रायः यमुना किनारे जाकर
बैठा रहता- श्मशान घाट के पास।’’
क्रमशः...
Comments
Post a Comment