गतांश से आगे....इक्कीसवां और अन्तिम भाग
बाबा की करुण कहानी
सुन कर गायत्री सुबकने लगी थी। आंसू पोंछती
हुयी बोली– ‘ गलती तो सच में
तुमसे हुयी उपेन्दर भैया !
एक निर्दोष को अकारण तड़पाया तूने ,और हालात
ने इसकी सजा भी तुम्हें दे दी। ’
मेरे मन में इस विषय
पर बहुत से सवाल उठ रहे थे,किन्तु सबसे अहम सवाल का जवाब पाने की ललक अधिक थी,अतः पूछ
बैठा- बाबा,बुरा न माने तो क्या मैं जान सकता हूँ कि दिल्ली को आपने अपना महातीर्थ
क्यों कहा पिछले प्रसंग में
?
थोथी हँसी हँसते हुए
बोले- ‘‘ जिस महानगर में जीवन के अठारह वर्ष व्यतीत हुए हों,उसे तीर्थ न कहूँ तो
क्या कहूँ ! इस नगर ने मेरे जीवन में इतना बड़ा मोड़ लाया,इसे तीर्थ न
कहूं तो क्या कहूं ! भले ही वो मेरी वाग्दत्ता भर थी, किन्तु
जीवन की आहुति तो दी मेरी वजह से- और इसी महानगरी में। अठारह वर्षों के
कारा-प्रवास ने आभ्यन्तर मांज कर रख दिया मेरे जीवन को। सच में, जेल को ‘सुधारगृह’ नाम देने के पीछे
कुछ ऐसे ही भाव रहे होंगे। भले ही कुछ लोग इसे ‘क्राइम यूनिवरसिटी’ भी कहते हैं,और पुलिसथाने को
प्राथमिक पाठशाला,यानी अपराध सीखने का प्राइमरी स्कूल ; किन्तु यह तो अपनी-अपनी
समझ है। जीवन गुजर जाता गीता को समझने में- तुल्य
निन्दास्तुतिर्मौनी...सन्तुष्टो येन केन चित्...शीतोष्णसुखदुःखेषु...आदि का जो
अर्थ उस प्रवास में समझ आया, वो शायद कई जनम लेने पर भी समझना मुश्किल था। गीता को
हृदयंगम करने हेतु ‘कारागार’ से अच्छी कोई और
जगह हो सकती है क्या! शायद नहीं। और सबसे बड़ी बात ये है कि
उसकी चिता यमुना किनारे ही तो सजी होगी - यह निश्चित है। और बाद में मुझे इसका
प्रमाण भी मिल गया- स्वयं उसने ही सारी बातें बतलायी...। ’’
मैं चौंका- क्या कहा
आपने? उसने बतलायी? मृत्यु के बाद?
‘‘ हाँ,सही
सुना तुमने- यमुना किनारे रोज की बैठकी में एक दिन अजीब घटना घटी। जल में पांव
लटकाये छपकाते हुए कुछ उसके ही विषय में सोच रहा था। ये वही जगह थी, जहां तुम उस
दिन मुझसे मिले थे। अन्धेरा लगभग घिर आया था। थोड़ी दूरी पर एक आकृति प्रतीत हुयी।
मैने समझा कोई स्त्री आयी है,नदी किनारे फ़ारिग होने,अतः उधर पीठ मोड़ लिया।
किन्तु थोड़ी देर बाद ठीक पीछे किसी के होने का आभास हुआ। पलट कर देखा तो स्पष्ट
छवि दिखी। क्षण भर के लिए चौंका,तभी आवाज मिली- ‘ मेरा उद्धार करो उपेन्द्रनाथ !
मेरे उद्धार में ही तुम्हारा भी उद्धार है। जाओ,विन्ध्याचल जाओ। गुरुमहाराज
प्रतीक्षा कर रहे हैं तुम्हारी। उनके मार्गदर्शन में आगे का काम करो।’ शब्द बिलकुल सावित्री के ही थे,पर ध्वनि-तरंगों
में पर्याप्त अन्तर था। जिज्ञासा वश पूछना पड़ा- क्या तुम भटक रही हो प्रेत बन कर?
जिसके जवाब में उसकी व्यंग्यात्मक हँसी सुनायी दी- ‘ तो क्या तुम
समझते थे कि आत्मघात करके मैं मुक्त हो गयी...आत्मघाती भी कभी मुक्त होता है
क्या...यह तो उस जीवन से भी वदतर स्थिति है...काश, किसी आत्मघाती को इसका किंचित
ज्ञान होता...तो स्वयं का घात कदापि न करता। ’ और इसके साथ ही
उसने और भी बहुत सारी बातें कही...कुछ अपने बारे में,कुछ मेरे बारे में,कुछ
संसार-यात्रा के बारे में। और अन्तिम बात ये थी कि जब चाहें उसकी मदद ले सकते हैं,
यहीं उस वृक्ष पर ही उसका प्रवास है। प्रायः समय यहीं गुजारती है। ’
‘‘...उसके निर्देशानुसार
मैं अगले ही दिन विन्ध्याचल के लिए निकल पड़ा- ट्रेन में भिक्षाटन करते हुए,और
दूसरे दिन तारा मन्दिर पहुँच गया। बाबा सच में मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। पहुँचते
ही बोले- ‘ लगता है,तुम्हें उस प्रेतात्मा का संदेश मिल गया। अच्छा किये तुम आ
गये। उस बार जरा सी देर हुयी कि तुम गायब हो गये मणिकर्णिका से,और उसका ही दुष्परिणाम
है कि इतने दिन व्यर्थ गये तुम्हारे जीवन के। जगत-प्रपंच ने अपने अंदाज में जकड़
लिया तुम्हें। किन्तु अवश्यमेवभोक्तव्यं कृते कर्म शुभाशुभं...होनी को
कदापि टाला नहीं जा सकता। विधि का लेख अटल होता है। खैर,चलो जो हुआ सो अच्छा ही
हुआ,जो होगा आगे, वो भी अच्छा ही होगा। भले ही देखने-सुनने में बुरा और दुःखद लगता
है,पर ईश्वर का विधान हमेशा मंगलकारी ही होता है। किसी एक क्रिया के पीछे अनेक
क्रियायों का संयोग होता है। अब, तुम्हारे सामने पहला कर्तव्य है सावित्री का
उद्धार,और इसके साथ-साथ स्वयं के उद्धार का प्रयास। इसके लिए तुम्हें मेरे सम्पर्क
में रहना होगा,किन्तु प्रवास ज्यादातर दिल्ली में रखना होगा,वहीं यमुना के
आसपास...।’ ’’
बाबा के वक्तव्य से
स्पष्ट हो गया बहुत कुछ- क्यों दिल्ली को उन्होंने अपने लिए महातीर्थ कहा...क्यों
यमुना से इतना लगाव है उन्हें...कहां गायब हो जाते है अकसरहां,और क्योंकर टपक
पड़ते हैं...।
बाबा ने आगे कहा –– ‘‘ और तब से अब तक
मेरा यही क्रम जारी है, कभी विन्ध्याचल,कभी दिल्ली। बीच-बीच में यदाकदा वाराणसी
भी,क्यों कि मणिकर्णिका की मेरी क्रिया भी अधूरी ही रह गयी है अभी तक। तुम मुझे
रात में अपने यहां रुकने का आग्रह करते हो प्रायः,पर यही विवशता है मेरी- रात तो
विकी हुयी है सावित्री के हाथों। मैं उसका ऋणी जो हूँ। वैसे,महाराज की कृपा से
कार्य लगभग पूरा होने के कगार पर है- उसके उद्धार का कार्य। वस, थोड़ी सी क्रिया
शेष रह गयी है । आशा है अगली अमावस्या तक वह भी पूरी हो जायेगी। सावित्री के ऋण से
मैं मुक्त हो जाऊँगा,अन्यथा अम्बा शापित भीष्म की तरह मुझे जन्मान्तर में भी चैन न
मिल पायेगा,और उसे भी अपनी प्रतिज्ञानुसार शिखण्डी का रुप धरना न पड़े- मैं इस
प्रयास में हूँ। महाराजजी की कृपा से ऐसा कुछ विपरीत होना तो नहीं चाहिए अब। ज्ञानीजी
चले गये, बंगालीबाबा भी पूर्ण समाधि में लीन हो गये। उनके बाद मेरा दायित्व और भी
बढ़ गया है। समय बहुत कम है मेरे पास। बाबा
के आदेशानुसार,तुमलोगों का कल्याण भी करना है, और इसी रास्ते में से, अपने कल्याण
का रास्ता भी निकालना है।
यह निश्चित है कि ये जीवन सावित्री को
ही समर्पित होकर रह जायेगा। उसका उद्धार तो हो गया लगभग; परन्तु मुक्ति के
लिए मुझे लगता है एक और शरीर लेना ही पड़ेगा। और अगले शरीर से निश्चित रुप से
कार्य सिद्ध हो जाये, इसके लिए सुयोग्य गर्भ और वीर्य के चुनाव की व्यवस्था भी स्वयं ही कर लेनी पड़ेगी।
’’
बाबा के इस अन्तिम
वाक्य ने मेरी जिज्ञासा और संयम की बांध तोड़ डाली। बाबा के डपटने के बाद,मैंने
सोच रखा था कि अब कोई जिज्ञासा प्रकट ही न करुंगा,किन्तु उनके इन शब्दों ने ऐसा
होने न दिया। अब भला किसी बच्चे को कोई टॉफी दिखाये,और खाने के लिए वर्जना भी करे-
कैसे चलेगा ! मैंने तपाक से पूछा- क्षमा करेंगे महाराज ! क्या यह सम्भव है
कि मनुष्य अपने अलगे जन्म की तैयारी भी इसी जन्म में कर ले? व्यावहारिक रुप से देखा जाता है कि मनोनुकूल
नौकरी,पद,स्थान तो आसानी से मिलता नहीं,और शरीर मिल जायेगा- ये कैसे सम्भव है?
बड़ी देर से चल रहे
गमगीन माहौल की कारी वदरी के बीच बाबा के
मन्द मुस्कान की
विजली चमकी–– ‘‘ सम्भव है,सब कुछ सम्भव है- जन्म भी मृत्यु भी, और मुक्ति
भी। सब कुछ तो देने वाले ने हमारे हाथ में दे रखा है। और इस्तेमाल करने न करने की
स्वतन्त्रता भी दे रखी है। अपने अगले जन्म की तैयारी तो हर कोई करता ही है,पर
अनजाने में,क्यों कि वह नहीं जानता कि जो कर्म की कॉपी वह लिखे जा रहा है,उसी से
उसका अंकपत्र निर्मित होना है। प्रारब्ध भी तो कर्म का ही हिस्सा है न,या कहो जरा
बदला हुआ रुप। ’’
मैंने फिर टोका-
महाराज ! मैं तो पुनर्जन्म और स्वर्ग-नरक के प्रति ही भ्रमित हूँ– ये हैं भी या कोरी
कल्पना है,और आप कहते हैं कि सब कुछ अपने ही हाथ में है। स्वर्ग की अवधारणा क्या
मनुष्य की अतृप्त लालसा के वजह से नहीं है...और जब काल्पनिक स्वर्ग रच लिया
गया,फिर नरक की रचना तो स्वयं हो ही जायेगी न ! हम चाहते हैं- सदा
युवा बने रहना,सुन्दर दिखना, हम चाहते हैं- निरन्तर यौन-सुख-भोग, समशीतोष्ण
वातावरण, दुःख-पीड़ा से सर्वथा मुक्त जगत....और इन सारे सुखों के कल्पनालोक को
स्वर्ग का नाम दे देते हैं- जहां सदा षोडश वर्षीया सुन्दरी रमणियों के भोग की पूरी
सुविधा है,सुरा से भी मादक और आनन्दकारी सोमरस की सुविधा है, न क्षुधा-तृषा की
चिन्ता है,और न सर्दी-गर्मी का प्रकोप...और ठीक ऐसे ही लगता है कि पुनर्जन्म भी काल्पनिक धारणा ही है- जो असम्भव हुआ,जो अबूझ हुआ उसे
पूर्व जन्म का कर्मफल कह कर सन्तोष कर लिया गया। मुझे तो लगता है कि ये सब और कुछ
नहीं,बस आत्मसम्मोहन है। नशेड़ी मारजुयेना,और एलएसडी खाकर खुद को विस्मृत किये
रहता है,वैसे ही हम ये सब सोच-विचार कर सम्मोहित हुए रहते हैं, आत्मविस्मृत हुए
रहते हैं।
बाबा फिर
मुस्कुराये,किन्तु उस मुस्कान में प्रफुल्लता नहीं,व्यंग्य का समावेश था–– ‘‘ नहीं,तुम्हारी
यह धारणा बिलकुल गलत है,आधारहीन है। पुनर्जन्म है- यह अकाट्य सत्य है। काल की
स्थिति पर पिछले प्रसंगों में काफी कुछ तुमने जाना-समझा है। गुरुमहाराज की
पुस्तिकाओं में भी इसके बारे में विशद वर्णन मिला ही होगा तुम्हें। पूर्वजन्म और
पुनर्जन्म की अवधारणा सिर्फ हिन्दू ही नहीं, अन्य मतावलम्बियों ने भी स्वीकारा है।
इस सम्बन्ध में महर्षि पतञ्जलि कहते हैं- संस्कारसाक्षात्करणात्
पूर्वज्ञातिज्ञानम्। (योगसूत्र
३-१८) ध्यान की एक विशेष विधि-द्वारा,विशेष
अवस्था में अवचेतन संस्कारों के प्रत्यक्षीकरण के फलस्वरुप पूर्वजन्मों का ज्ञान
सहज ही प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार के अनुस्मरण को जातिस्मर कहते हैं। बुद्ध
के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उन्हें पहले के अपने सभी जन्म याद थे।
लीलापुरुषोत्तम श्रीकृष्ण इस बात को बारम्बार स्मरण दिलाते हैं- बहूनि में
व्यतीतानि,जन्मानि तव चार्जुन । तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ।।(गीता४-५)
हे अर्जुन, मैंने बहुत सारे जन्म बिताये हैं,और तुमने भी; किन्तु तुम्हें वे सब
ज्ञात नहीं,और मुझे ज्ञात है। गीता में ही प्रसंगवश(दूसरे अध्याय में विशद रुप से) कहते हैं- जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य
च...। ....नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः...देहिनोऽस्मिन
यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- किसी
अस्तित्व के शाश्वत होने की धारणा के साथ ही साथ यह धारणा कि उसका आरम्भ होता है-
निरर्थक है। काल में जिसका आरम्भ होता है,अवश्य ही काल में ही उसका विलय भी होगा।
इसे परम सत्य जानो। इसीलिए मैं बार-बार कहता हूँ- इस काल को समझो,काली को
समझो...सभी संशय दूर हो जायेंगे। पुनर्जन्म की सत्यता के मौलिक प्रमाण को केवल
बुद्धि के द्वारा ही समझा जा सकता है। यह प्रमाण किसी भी विषय के महत्व तथा अर्थ
प्रदान करने की उस धारणा-शक्ति पर निर्भर है,जिसके अभाव में, यह विषय इन दोनों से
वंचित रह जाता है। दृश्य जगत तथा विचार-जगत – इन दोनों में पारमार्थिक किसी
भी सत्य के प्रमाण का यही एकमात्र प्रकार है। इस विश्व-ब्रह्माण्ड में एक नीतिगत
व्यवस्था है- इस प्रारम्भिक पूर्वकल्पना के आधार पर पुनर्जन्म के सिद्धान्त को
तर्कसंगत रुप से प्रमाणित किया जा सकता है। और खास बात ये है कि मनुष्य के वर्तमान
जीवन के सुस्पष्ट ज्ञान से ही उसके पूर्व तथा परवर्ती जीवन का ज्ञान हो सकता है।
मनुष्य क्या है,और कैसे जीवन व्यतीत करता है– इस ज्ञान से ही हम निश्चय कर सकते हैं कि वह
कहां से आता है,कहां चला जाता है। इसके प्राकृत स्वरुप को समझे बिना हम उसके जन्म
या मृत्यु का अर्थ कदापि नहीं समझ सकते। मनुष्य केवल एक भौतिक या जैविक या मनोदैहिक
सत्ता मात्र नहीं है,प्रत्युत यथार्थ मनुष्य सर्वज्ञ जीवात्मा है,मौलिक चिदात्मक
तत्त्व है,जो कि देह, इन्द्रियां,मन,और जगत की
निरन्तर परिवर्तनशील अवस्थाओं का अविकारी द्रष्टा है। अन्तरात्मा ही मनुष्य
के ‘व्यक्तित्व ’ में एकमात्र नित्य तत्त्व है,जो सभी
मौलिक तथा मानसिक तत्त्वों को एक सामञ्जस्य पूर्ण एकत्व में मिलाता है,तथा
मन,इन्द्रियों एवं देह के भिन्न-भिन्न कार्यों का समन्वय-साधन करता है। आभ्यन्तर
विविध परिवर्तनों के बावजूद मनुष्य की विशिष्टता को बनाये रखता है। मनुष्य मूलतः
ज्योतिर्मय,अविनाशी आत्मा है,और वही मुख्यतः इस मनोदैहिक जीव के जीवित होने का
कारण है। इस सम्बन्ध में उपनिषद् वचन है- स उ प्राणस्य प्राणः (केनोपनिषद्-१-२)
अपनी आत्मा के शुद्ध-चेतन स्वभाव के कारण ही हर व्यक्ति को अपने तथा अपने जीवन से
सम्बन्धित अन्य सभी वस्तुओं के अस्तित्त्व का बोध है। यह आत्मबोध ही जड़ वस्तुओं
को चेतन वस्तुओं से पृथक करता है। यह स्वयंप्रकाश है। इसे किसी प्रमाण की आवश्यकता
भी नहीं है। इस ज्योतिर्मय अविकारी,अविनाशी आत्मा का उद्भव अपने विपरीत स्वभाव के
कारण देह,इन्द्रिय,उसकी क्रियाओं से नहीं हो सकता, प्रत्युत मौलिक है। शरीर के
जन्म के साथ न इसका जन्म होता है,और न नाश के साथ नाश । गीता कहती है- वासांसि
जीर्णानि यथा विहाय,नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि
संयाति नवानि देही ।। (२-२२) पुनर्जन्म और मृत्यु कपड़े बदलने के समान है- एक
को उतार कर दूसरा धारण कर लिया जाता है। हां,कपड़े पर कपड़ा नहीं पहना जा सकता-
कुछ भिन्न व्यवस्था है इस मामले में। और इस बीच किंचित अन्तराल भी स्वाभाविक है।
काल की गति,स्थिति और स्वरुप को समझ जाने पर ये सभी प्रश्न निर्मूल हो
जायेंगे,ज्ञान का प्रष्फुटन जब हो जायेगा,तो प्रकाश ही प्रकाश रह जायेगा। सूर्योदय
के बाद अन्धकार का अस्तित्व ही कहां रह जाता है ! अतः सब कुछ समेट कर
लग जाओ काली की आराधना में। काल की गुत्थियां खुल जायेंगी। ’’
मेरे कुतर्क और भ्रम
का निवारण करते हुए,बाबा ने आगे कहा- ‘‘
तुम्हें इस विषय में जो आशंका है उसके मूल में तुम्हारा अज्ञान ही कारण है। मनुष्य
के जन्म के सम्बन्ध में आधुनिक विज्ञान तो सिर्फ यही कहता है न कि पुरुष-स्त्री के
शुक्र-शोणित संयोग से ‘तत्सम’ नवीन शरीर का सृजन
हो जाता है। किन्तु बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। शुक्रकीट और डिम्ब का यह मिलन कोई
आकस्मिक घटना भी कदापि नहीं है। इसके मूल में सृष्टि का बहुत बड़ा रहस्य छिपा है, अद्भुत
व्यवस्था और सामंजस्य पूर्ण योजना होती है। कार्य-कारण सम्बन्ध होता है। एक
व्यक्ति का जन्म कुछ काल पूर्व में हुए किसी व्यक्ति की मृत्य का परिणाम होता है।
क्यों कि मृत्यु के साथ व्यक्ति का अन्त नहीं हो जाता,और न जन्म के साथ उसका आरम्भ
ही। इतने अर्थपूर्ण मनुष्य जीवन में आकस्मिकता की कोई गुंजाइश नहीं है। मनुष्य का
जन्म कैसे होता है,इसे जानने के लिए हमें जानना पड़ेगा कि उसकी मृत्यु कैसे होती
है। दरअसल मृत्युकाल में उसकी आत्मा,जो कि उसका मूल स्वरुप है,उसके भौतिक शरीर को
तो छोड़ जाती है, परन्तु सूक्ष्म और कारण शरीर को नहीं छोड़ती। ‘मानव मन’ अपने अंगभूत समग्र
तत्त्वों के साथ सूक्ष्म शरीर का ही अंश है। स्थूल शरीर से प्रयाण के समय
मृत्युकालीन कर्म-संस्कारों यानी वासनाजन्य क्रियाओं,अनुभवों,विचारों के अनुसार
मरणासन्न व्यक्ति के सूक्ष्म तथा कारण शरीरों के लिए एक अतिसूक्ष्म भौतिक आच्छादन
निर्मित होता है,जो कि उसकी परवर्ती स्थूल शरीर की शक्तियों का वाहक बनता है। ऐसा
सम्भव है कि उसके स्वकर्मों द्वारा प्रेरित होकर उसकी गति उच्चतर या निम्नतर लोकों
में हो; किन्तु इन कर्मों के क्षय हो जाने के बाद उसके शेष
कर्मफल,उसे मनुष्यलोक में ला उपस्थित करते हैं। यहीं उसके मुक्ति की सम्भावना भी
बनती है। यहां इस बात पर गौर करो कि जीवात्मा- जो मुक्त नहीं हो पाया है,वही
पुनर्जन्म ग्रहण करता है। मुक्त के जन्म का कोई प्रश्न नहीं है। ये मुक्ति हमारा
अधिकार है और परम कर्तव्य भी। एक वद्ध जीवात्मा जब पुनर्जन्म के लिए प्रस्तुत होता
है,तो उसके कर्म-संस्कार उसे ऐसे माता-पिता के पास ले जाते हैं,जिनसे उसे अपने
स्थूल शरीर के उपादान प्राप्त हो सके। कुम्हार को घड़े बनाने हैं तो पहले वह
मिट्टी की व्यवस्था हेतु तत्पर होता है,फिर जल-सिंचन करता है,उसे गूंधता है,फिर
चाक पर डालता है, घूर्णन करता है...आदि-आदि। घड़े के सृजन हेतु मिट्टी ही उसका
उपादान कारण हुआ। जीवात्मा जिस सूक्ष्म भौतिक आच्छादन को धारण किये रहता है, उसमें
इन आवश्यक उपादानों को जुटा लेने की क्षमता होती है। अन्नमय कोष के मूल में अन्न ही है,इसे तुम जानते हो। अन्न के माध्यम
से ही अपने उद्देश्य-सिद्धि हेतु उपयुक्त पिता के शरीर में प्रविष्ट होता है,और
फिर शुक्राणु रुप में आकर, डिम्बाणु से संयुक्त होकर,भ्रूणाणु में परिणत हो जाता
है। यौन-प्रजनन में प्रयुक्त असंख्य शुक्राणुओं में से दो विशेष ‘स्त्री-पुरुष जननकोष’ शिशु के जन्म के
कारण बनते हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि पारस्परिक साम्य के बावजूद,
पुरुष-स्त्री का प्रत्येक शुक्राणु,प्रत्येक अन्य शुक्राणु से बिलकुल भिन्न होता
है। और यही बात स्त्री डिम्बाणु में भी होती है। अपने कर्म-प्रेरित देहान्तरगामी
जीवात्मा असंख्य जननकोशों में से अपने योग्य शुक्राणु और डिम्बाणु का चयन कर ही प्रवेश
करता है। स्थूल शरीर के निर्माण हेतु होने वाली सारी क्रियायें कदापि आकस्मिक नहीं
हो सकती। इसके गर्भ में कर्मवाद के रुप में कार्य-कारणवाद जैसा विश्वजनीन नियम है।
सभी शुक्राणु और सभी डिम्बाणु व्यक्तिविशेष नहीं है, निषिक्त डिम्बाणु ही
व्यक्तिविशेष है सिर्फ। छान्दोग्य उपनिषद् (५-८-१,२) योषा वाव
गौतमाग्नि...तस्मिन्नेतस्मिन्नग्ननौ देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुतेर्गर्भ सम्भवति
।। नारी ही अग्नि है। इसी अग्नि में इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता- शुक्र की
आहुति देते हैं,जिससे गर्भसंचार होता है। कुछ ऐसी ही बातें वृहदारण्यकोपनिषद् (६-२-१६)
में भी हैं- ते पृथवीं प्राप्यान्नं भवन्ति, ते पुनः
पुरुषाग्नौहूयन्ते,ततो योषाग्नौ जायन्ते लोकान्प्रत्युत्थायिनः, त
एवमेवानुपरिवर्तन्ते...। ऐसे ही,
ऐतरेयोपनिषद् के भी वचन हैं- सर्वप्रथम देहान्तर ग्रहणेच्छुक जीवात्मा
पुरुष के शरीर में रेतस् के रुप को प्राप्त होता है। यह शरीर के सभी अंगों का सार
है ,जिसे पुरुष अपनी स्त्री में सिंचन करता है, तब वह इसे जन्म देता है। यह इस
जीवात्मा का प्रथम जन्म है। मातृगर्भ से वहिर्गत होना द्वितीय जन्म की तरह है। पुनर्जन्म
का सिद्धान्त जीवन को सार्थक बनाता है। यह मानव के अतीत एवं भावी जीवन के सन्दर्भ
में उसके वर्तमान अस्तित्व की व्याख्या करता है। अगर जन्म जीवन का आरम्भ है,तो
अवश्य ही मृत्यु इसका अन्त होगा। अतीत के अस्तित्व को स्वीकार किये बिना भविष्य
जीवन को मान लेना हमारे लिए तर्कसंगत नहीं है। भविष्य जीवन की कल्पना वर्तमान जीवन
को उसके पूर्वकालीन अस्तित्व के रुप में स्वीकार कर लेने पर ही आधारित है। प्रत्येक
शिशु एक विशेष मनोदैहिक गठन के साथ जन्म लेता है। पुनर्जन्म के सिद्धान्त से जीवन
की विषमताओं की एकमात्र सन्तोषप्रद व्याख्या होती है। व्यक्ति का सुख-दुःख,उत्कर्ष-अपकर्ष,ज्ञान-अज्ञान,ये
सब पूर्वकालिक कर्म-विचार पर निर्भर हैं। कोई बाहरी शक्ति इसके लिए उत्तरदायी नहीं
कही जा सकती । यह सिद्धान्त ही अविकारी आत्मा को अपनी नित्य परिवर्तनशील मनोदैहिक
उपाधि से पृथक् करता है। साथ ही बन्धन और मोक्ष के मार्ग को भी प्रदर्शित करता है।
देह,मन,आत्मा के पारस्परिक सम्बन्ध का स्पष्ट ज्ञान आत्मज्ञान का उपाय है। ये
तीनों परस्पर संश्लिष्ट होते हुए भी परस्पर भिन्न है। सच तो ये है कि मानव की
आध्यात्मिक सत्ता वास्तव में न जन्म लेती है,और न मरती ही है, बल्कि प्रारब्ध कर्मानुसार
कुछ काल के लिए देहान्तरण करती है। ’’
इतना कहने के बाद
उपेन्द्रबाबा जरा रुके,और गायत्री को ईंगित करते हुये बोले- ‘‘ समय तो काफी हो गया
है,किन्तु समय का ही अभाव भी है। अतः देर-सबेर की चिन्ता छोड़कर,मैं चाहता हूँ कि
इन दो दिनों का अधिकाधिक उपयोग तुमलोग कर लो मेरे साथ। कुछ बहुत जरुरी बातें जो
बतानी रह गयी हैं, उन्हें साफ कर दूं। मेरी जीवनी की व्यर्थ की उत्सुकता में अपना
कीमती वक्त न गंवावो। वैसे भी कोई खास बातें नहीं हैं। मूल बातें थी सो बता दिया
अपने विषय में। ’’ - फिर मेरी ओर देखते हुये बोले- ‘‘ तुम्हारे पास भी तर्क और सवालों
का ढेर रहता है,इनसे परहेज करो। अभी दो दिन मैं यहां हूँ। गुरुबाबा की पुस्तिका
सम्बन्धी जो शंका-समाधान हो,निपटा लो,और वसंतपंचमी से मूल कार्य में लग जाओ
तुमदोनों। फिर मैं भी वापस चला जाऊँगा अपने कार्य में। ’’
गुरुबाबा की
पुस्तिका का लगभग अध्ययन कर ही चुका था पिछले दिनों में। जानकारी के तौर पर इस
विषय की शंकायें प्रायः निर्मूल थी। और, व्यावहारिक तल पर उठने वाली समस्यायें और
प्रश्न के सम्बन्ध में गुरुमहाराज ने कई जगहों पर स्पष्ट संकेत दे ही दिया था कि
अमुक स्थान पर उलझन हो तो, अमुक ध्यान की विधि का सहारा लो, अमुक स्थान पर उलझन हो
तो, अमुक मन्त्र का जप करो...आदि-आदि। स्थूल गुरु की उपादेयता और अनिवार्यता तो है
ही,फिर भी सूक्ष्म गुरु का सहयोग सदा लेने की क्रिया सीखो–उनके ये दिशानिर्देश
मुझे काफी सहयोगी लगे- भविष्य के लिए,फिर भी मूल बात– चक्रों की
स्थिति,अवस्था,आकृति,क्रिया आदि के विषय में कुछ संशय शेष है, जिसे अभी बाबा से
समझ लेना उचित लगा। अतः,गायत्री को कहा कि गुरुमहाराज वाला पुलिंदा उठा लाये।
गायत्री आलमीरे से
निकाल कर पुस्तिकायें ले आयी,और एक स्थान पर पलट कर सामने रख दी। प्रसंग वही
था,जहां हम और गायत्री बारबार अटल रहे थे। गायत्री ने कहा- ‘ भैया,बात वहीं से
शुरु करना चाहती हूँ,जहां तुम अचानक टपक पड़े थे- वो दिवा-रात्रि-वर्जना वाली बात
आखिर किस ओर इशारा है?’
मुस्कुराते हुये
बाबा ने कहा- ‘‘ मैं तो समझ रहा था कि
तुमलोग अबतक बहुत कुछ समझ चुके होगे,और गूढ़ साधना-संकेतों को आसानी से समझने में
दिक्कत नहीं होगी,परन्तु ऐसी छोटी-छोटी बातों पर क्यों अटक जा रहे हो? यहां बात
दिन-रात से बिलकुल नहीं है। बात नाडियों की है। इडा को चन्द्र, और पिंगला को सूर्य
कहते हैं,ये तो पता है ही तुम्हें। ’’
हाँ,सो तो पता है
ही।– हमदोनों ने एक स्वर से कहा।
‘‘ जब ये
मालूम ही है,फिर इतना दिमाग नहीं लगा सके कि चन्द्रमा रात का प्रतिनिधि है और
सूर्य दिन का,और इन दोनों कालों में वर्जना है,यानी कि बात मध्य नाड़ी सुषुम्णा की
हो रही है। इसे ही कुछ लोग साधना हेतु संध्या-काल यानी कि गोधुलि-बेला भी कहते
हैं। बात चक्र-ध्यान-साधना की हो रही है यहां। कहते हैं कि इडा-पिंगला गत
प्राणसंचार काल में क्रिया न करके,सुषुम्णा-प्राण-संचार-काल में क्रिया करे,ताकि
काम आसान हो। तुमने एक सारणी भी देखी होगी, गुरुमहाराज की पुस्तिका में जिसमें
तत्व-साधन और उनके बीजों की चर्चा है। समस्त ध्यान क्रियायें सुषुम्णा-संचार काल
में ही प्रसस्त है। इसी से सम्बन्धित कुछ और बातों को स्पष्ट कर दूँ। पुस्तिका में
तुमने देखा होगा कि शरीर में अनगिनत नाडियों में बहत्तरहजार योग नाडियों की बात
आयी है,जिनमें पन्द्रह को प्रधान कहा गया है। उनमें भी ये तीन प्रधान हैं। और
सुषुम्णा तो प्रधानतम है। इस सुषुम्णा की बनावट भी अन्य नाडियों से काफी भिन्न है।
जलस्रोत के लिए जमीन में बोरिंग किया जाता है न। उसमें देखा होगा तुमने- छः या आठ
ईंच घेरे का एक पाइप डालते हैं,फिर उसमें पहले की अपेक्षा कुछ कम घेरे का दूसरा
पाइप, और फिर उसमें जरुरत के मुताबिक समरसियेबल मोटर,पाइप वगैरह डाता जाता है।
करीब-करीब ऐसा ही समझो- वायें-दायें इडा-पिंगला के बीच है सुषुम्णा नाडी,और उसके
भीतर बज्रानाडी है। फिर उसके भीतर है चित्रिणी,और उसके भीतर है ब्रह्मनाडी। इस
नाडी के अन्दर ही ऊपर से नीचे की ओर अलग-अगल स्थानों में छः नाड़ीगुच्छ हैं,ठीक
वैसे ही जैसे कल्पना करो कि मकड़ी के महीन जालों को समेट-लपेट कर एक आकृति दे दी
जाय। इन्हें प्रतीकात्मक रुप से कमल की संज्ञा दी गयी है। ये सब के सब स्थान
अतीन्द्रीय शक्तियों के महान स्रोत हैं। योग साधना द्वारा इन स्थानों को चैतन्य
किया जाता है,जब कि सच्चाई ये है कि ये तो स्वतः ही परम चैतन्य हैं। साधना में हम
इनके चैतन्यता की अनुभूति मात्र करते हैं।’’
गायत्री ने
एक दूसरा चित्र सामने रख दिया,जिसमें इन बातों का संकेत था। बाबा उन चित्रों पर
अंगुली रख-रख कर, एक एक कर समझाने लगे ––
‘‘
ये देखो, मेरुदण्ड के निचले अन्तिम छोर पर,यानी गुदामार्ग से करीब दो अंगुल ऊपर, और
उपस्थ मूल से करीब दो अंगुल नीचे के स्थान में जो नाड़ीगुच्छ है,उसे मूलाधारचक्र
या मूलाधारपद्म कहते हैं। इसकी आकृति रक्तिम प्रकाश से उज्ज्वलित चार पंखुड़ियों
वाले कमल के सदृश है। इन पंखुडियों पर क्रमशः वं,शं, षं,सं – ये चार वर्ण हैं।
पृथ्वीतत्व का ये स्थान है, जिसका आधार चौकोर सुवर्णमय आभा वाला है। तत्त्व बीज तो
उस तालिका में तुम जान ही चुके हो- इसका बीज लं है,जिसकी गति ऐरावत हस्ति सदृश है।
यही इसका वाहन भी है, जिस पर इन्द्र विरामान हैं। पृथ्वी की तन्मात्रा गंध है,यानी
गंध ही इसका गुण कहा जायेगा। निम्नगामी आपान वायु का क्षेत्र है ये। इसका सीधा
सम्बन्ध गंध तन्मात्रा की घ्राणेन्द्रिय(नासिका) से है। कर्मेन्द्रिय में गुदा
इसके हिस्से है। भू इसका लोक है। इसके अधिपति चतुर्भुज ब्रह्मा अपनी डाकिनी शक्ति
के साथ यहां वास करते हैं। इसके यन्त्र का आकार चतुष्कोण है,जो स्वर्णआभा युक्त
है। इस स्थान पर दीर्धकाल तक ध्यान केन्द्रित करने से
आरोग्य,आनन्द,वाक्सिद्धि,प्रबन्ध-क्षमता-विकास आदि लब्ध होते हैं। जैसा कि इसका नाम
है मूलाधार- सच में मूल है यह। यह नहीं तो और कुछ कैसे ! इस चक्र के नीचे त्रिकोण यन्त्र जैसा एक सूक्ष्म योनिमण्डल
है, जिसके मध्य के कोण से सुषुम्णा यानी सरस्वति नाडी, दक्षिण कोण से पिंगला यानी
सूर्य,यानी यमुना नाडी,तथा वाम कोण से इडा यानी चन्द्र यानी गंगा नाडी प्रवर्तित
होती है। यही कायगत मुक्त त्रिवेणी है। तन्त्र ग्रन्थों में कहा गया है कि इसी
योनिमंडल के मध्य में तेजोमय रक्तवर्णी क्लीँ बीज रुप कन्दर्प नामक स्थिर वायु
विद्यमान है,जिसके मध्य में यानी ऊपर कथित ब्रह्मनाडी के मुख को अवरुद्ध किये
स्वयंभू लिङ्ग अवस्थित है,जिसका साढ़ेतीन फेरा मारे(लपेटे) सर्पाकृति कुण्डलिनी
महाशक्ति अपने पुच्छ भाग को मुख में दाबे निःश्चल पड़ी है। एक मूल बात और स्पष्ट
कर दूं कि ये जो सभी स्थानिक वर्णन विविध ग्रन्थों में मिलते है,मात्र संकेत सूचक
है। इन्हें ही असली मत समझ लेना। और स्थूल शरीर में ढूढ़ने की बेवकूफी भी मत करना।
हां,ध्यान क्रियादि में इन वर्णनों से सहयोग अवश्य मिलता है,इस कारण कह दिया। असली
स्वरुप की खोज तो तुम्हें स्वयं ही करना है। प्रत्येक साधक की अनुभूतियाँ भी
बिलकुल समान हों,कोई जरुरी नहीं। वो तो उसके स्वयं के संस्कार,और पूर्व जन्मों में
की गयी(साधी गयी)क्रियाओं पर निर्भर है। ’’
जरा ठहर कर
बाबा ने आगे कहा–– ‘‘
अब इसी भांति नीचे से ऊपर की ओर मिलने वाले अन्य पद्मों की चर्चा करता हूँ। नीचे
से दूसरे नम्बर पर है स्वाधिष्ठान चक्र(पद्म),जो निचले चक्र से कोई दो अंगुल ऊपर,थोड़ा
टेढ़ा होकर, लगभग पेड़ू के पास स्थित है। सिन्दूरी आभा वाले छः पंखुड़ियों पर
क्रमशः प्रादक्षिण क्रम से बं,भं,मं,यं,रं,लं वर्ण अंकित हैं। इस चक्र का तत्त्व
जल है,तन्मात्रा रस है,अतः स्वाभाविक है कि बीज वं होगा। मगरमच्छ की भांति इसकी
निम्न और तीव्र गति है। शरीर में सर्वव्यापी व्यानवायु का मुख्य अधिष्ठान है यह।
रस तन्मात्रा के कारण रसना इसकी ज्ञानेन्द्रिय है,और जलतत्व सम्बन्धि मूत्रादि
त्याग-शक्ति उपस्थ इसका स्थान माना जाता है। भुवः इसका लोक है। मकरवाहन पर वरुण
विराजमान हैं। साथ ही विष्णु अपनी शक्ति राकिनी के साथ हैं। अर्द्धचन्द्राकार
स्वेत यन्त्र है,जिस पर ध्यान सिद्ध होने से जिह्वा पर साक्षात् सरस्वती का वास हो
जाता है,साथ ही सृष्टि,पालन,संहार की शक्ति प्राप्त होती है। यानी कुछ भी अवंच
नहीं रहता।
‘‘....नीचे से तीसरा,यानी नाभिमंडल के मूल में मणिपूर नामक तीसरा
पद्म है,जिसकी आकृति नीले रंग के प्रकाश से आलोकित दस पंखुड़ियों वाले कमलपुष्प
सदृश है। चक्रसाधना में इसका विशेष महत्त्व है। मणि और पुर दो शब्दों से इसका
नामकरण हुआ है। दस दलों पर क्रमशः प्रादक्षिण क्रम से डं,ढं,
णं,तं,थं,दं,धं,नं,पं,फं,- ये वर्ण विराजते हैं। यानी इन वर्णों की ध्वनियां
तरंगित होते रहती है। इस पद्म पर रक्तवर्णी अधोत्रिकोणयन्त्र है,जिसके मध्यमें
अग्नितत्त्व का बीज रँ स्थित है,जिसका वाहन मेष यानी भेड़ है। यहीं अग्निदेव
विराजते हैं। समानवायु का यह स्थान है। रुप तन्मात्रा है इसकी,यानि कि चक्षु
ज्ञानेन्द्रिय हुआ और पाद(पैर)कर्मेन्द्रिय। स्वः इसका लोक है। कायव्यूह के सम्यक्
ज्ञान हेतु इस चक्र का ध्यान किया जाता है। सच पूछो तो यहीं सारा संसार है। लोक जयार्थ
इसकी साधना आवश्यक है,किन्तु ऐसा नहीं कि वस लौकिक चमत्कारों में उलझ कर रह जाये।
साधक को इससे आगे बढ़ना है।
‘‘....नीचे से चौथे चक्र को अनाहत कहते हैं- अन+आहत यानी बिना
किसी वाह्य आघात के स्वतः ध्वनित होना। भक्तिरसामृत का परमस्रोत,परमधाम है यह स्थान। इसका क्षेत्र हृदयप्रदेश है।
सिन्दूरी रंग से प्रकाशित द्वादशदलीय पद्म पर क्रमशः कं,खं,गं,घं,ङं,चं,छं,जं,झं,ञं,टं,ठं-
द्वादशवर्ण विराजते हैं। किंचित ऋषिमत से इसका वर्णनील कहा गया है। वायुतत्त्व
होने के कारण धूम्रवर्णी की भी बात कही जाती है। षट्कोणाकृति यंत्र के मध्य में
वायुबीज यँ रचित है, जिसका वाहन हिरण है। हिरण चौकन्ना(सतर्क) रहने के अर्थ में समझना,न
कि भयभीत,और तीब्रगामी। प्राणवायु का मुख्य केन्द्र है यह चक्र। त्वचा ज्ञानेन्द्रिय
है, और हाथ इसका कर्मेन्द्रिय,तथा महर्लोक । दिव्य ऊँकार की ध्वनि सदा गूंजती है
यहां। शब्दं ब्रह्मेति तं प्राह साक्षाद्देवः सदाशिवः। अनाहतेषु चक्रेषु स
शब्दः परीकीर्त्यते।। शब्दब्रह्म का अनाहत गुंजन होते रहता है। यही
साक्षात् सदाशिव हैं।ईशानरुद्र अपनी त्रिनेत्रचतुर्भुजी काकिनी शक्ति के साथ यहां
विराजते रहते हैं।
‘‘....अब अगले यानी नीचे से पांचवें विशुद्धिचक्र की बात करते
हैं। यही वह स्थान है,जहां शिव का हलाहल ठहर गया,और नीलकंठ विभूषित हो गये। दरअसल अशुद्धि रह ही कहां जायेगी विशुद्धि पर
आकर ! कण्ठस्थान
इसका क्षेत्र है। चूंकि इसका सम्बन्ध विशुद्धिकरण से है,इस कारण एक अति चमत्कारिक
केन्द्र है यह। योगीगण कहते हैं कि सदा अमृतक्षरण होते रहता है यहाँ। विष को भी
अमृत में बदल देने की क्षमता है इसकी। धूम्रवर्णी प्रकाश से उज्ज्वल सोलह
पंखुड़ियों वाले कमल पर क्रमशः सभी
स्वरवर्ण - अं,आं,इं,ईं,उं.ऊं,ऋं,ॠ,लृ,ॡ,एं, ऐं,ओं,औ,अं,अः विराज रहे हैं। आकाश
इसका तत्त्व है और बीज हं,जिसका वाहन हस्ति है। हाथी जिस भांति घूम-घूम कर चलता
है,उसी भांति इसकी गति है। शब्द इसका गुण यानी तन्मात्रा है। उदानवायु का मुख्य
स्थान कहा गया है इसे। श्रवणशक्ति(श्रोत्र)ज्ञानेन्द्रिय है,और वाक् कर्मेन्द्रिय।
जनःलोक है। पञ्चमुख सदाशिव अपनी चतुर्भुजा शक्ति शाकिनी के साथ विराजते हैं यहां।
पूर्णचन्द्र सदृश गोलाकार आकाशमंडल इसका यन्त्र है। इसपर साधना करने से
कवित्वशक्ति के साथ-साथ महाज्ञानी,रोग-शोगहीन,दीर्घजीवन लब्ध होता है।
‘‘...छठे यानी आज्ञाचक्र का स्थान भृकुटिमध्य में बताया गया
है। मैं यहां फिर स्मरण दिला दूं कि जो भी स्थान कहे जा रहे हैं सभी चक्रों के हू
ब हू इसे वहीं मत समझ लेना। ये उनके स्थूल स्थान के निर्देश मात्र हैं। एकाग्रता
को बनाने में सहयोग हेतु ही इनका प्रयोग करना चाहिए। सही स्थान पर तो स्वतः ही
पहुंच जाओगे,जो वहीं कहीं आसपास हैं। आज्ञाचक्र पर दो दलों वाला कमल है, जिसपर हं
और क्षं विराजित हैं। तपःलोक है इसका। लिंगाकार यन्त्र है। गंगा,यमुना,सरस्वती का
यहीं मिलन होता है,इस कारण इसे युक्तत्रिवेणी भी कहते हैं। यथा- इडा भागीरथी
गंगा पिङ्गला यमुना नदी । तयोर्मध्यगता नाडी सुषुम्णाख्या सरस्वती ।।
त्रिवेणीसंगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते । तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्वपापैः प्रमुच्यते
।। (ज्ञानसंकलिनी तन्त्र) इसका ही एक नाम शिवनेत्र भी
है, या कहें तीसरा नेत्र। आधुनिक विज्ञान इस पर काफी काम कर रहा है। कई आधुनिक
प्रयोग भी इस पर किये गये हैं। यह एक अति प्रधान प्रवेशद्वार भी है। इसके बारे में
और अधिक जानकारी के लिए गुरुमहाराज की पुस्तिकाओं का ही सहयोग लेना,मुझसे और अधिक
सवाल मत करना। और इससे भी ऊपर जो महाचक्र है,जिसे सहस्रार के नाम से जाना जाता
है,उसके बारे में तो अभी कुछ कहना और भी बेकार है। वस इतना ही समझो कि पचास की
संख्या में कहे गये सभी वर्णों की बीस आवृत्ति हुयी है- हजार दलों वालें महापद्म
पर,जिसे साधना ही महासाधना है। वही सत्यलोक है। अमरत्व,मुक्ति,निर्वाण सब कुछ वहीं
पहुचने पर है। सारी तैयारी उसी की साधना की है। हां,कुछ और भी छोटे-मोटे नाड़ी-गुच्छ
हैं,जिनका समय पर साधनाक्रम में स्वतः ही परिचय मिल जायेगा।’’
इतना कह कर बाबा बिलकुल चुप्पी साध लिए,मानों किसी गहन चिंतन
में डूब गये हों। थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद गायत्री ने टोका- ‘ लगता है, भैया
अब आज की सभा का विसर्जन करना चाहते हैं। ’
‘‘ हां,चाहता तो यही हूँ,क्यों कि समय काफी गुजर चुका है।
मुझे अभी और कई काम निपटाने हैं यहां दिल्ली में। तुमलोग भी अपने-अपने काम में
लगो। इस बीच समय निकाल कर एक बार और उस चित्रावली को देख लेना तुम दोनों, कहीं कुछ
सैद्धान्तिक शंका होगी तो स्पष्ट कर दूंगा । शंका न भी हो, तो भी देख लेना जरुरी
है। मेरे कहे शब्दों को वहां चित्रों में देख लोगे,तो बातें बिलकुल बैठ जायेंगी
दिमाग में। वैसे भी अभ्यास क्रम से बारबार कितावें पलटना कोई अच्छी बात नहीं है।
ये ठीक वैसे ही है जैसे हस्तरेखाविज्ञान की कितावों को पढ़ कर नवसिखुये,किसी के
हाथ की रेखा का मिलान करते हैं। मैं तो ये कहूंगा कि जितना पढ़ना-गुनना हो,अभी पढ़
डालो,फिर उसे एक किनारे रख दो,मानों तुम्हारे पास हो ही नहीं। तारामन्दिर में जो
मन्त्र दर्शित हुआ था,उसका निरन्तर अभ्यास करते रहना,सारी शंकायें स्वतः निर्मूल
होती जायेंगी। क्लीं और क्रीं के भ्रम में भी मत रहना। ’’- इतना कहते हुए बाबा उठ खड़े हुए। बाहर निकलते हुए,पुनः याद
दिलाये- ‘‘ पंचमी के
दिन, सायं काल समय पर मैं उपस्थित हो जाऊँगा। प्रयास करना कि उस दिन तुम कार्यालय
से छुट्टी ले लो,और पूरे चौबीस घंटों के लिए अपने आप को कार्यमुक्त कर लेना। किसी
वाहरी व्यक्ति का प्रवेश भी न हो।
दिन
में यथासम्भव
सात्विक,अल्पाहार लेना ही उचित होगा। रात में तो वो भी नहीं, सिर्फ दूध और गुड़ का
प्रबन्ध रखना- अपने लिए और मेरे लिए भी।
गुरुमहाराज की पुस्तिका में निर्देशित विधि से आसन और नाड़ीशोधन की
क्रियाओं को उस दिन विशेष रुप से कर लेना तुम दोनों। ’’– फिर गायत्री की ओर देखते हुए बोले-
‘‘ तुम्हें ध्यान है न स्त्रियों के लिए सिद्धयोनिआसन का निर्देश है,जब कि पुरुषों
के लिए सिद्धासन कहा गया है। इन दोनों के भेद में चूक न हो जाये- इसका ध्यान
रखना।’’
गायत्री ने विहस कर कहा- ‘हां
भैया,खूब याद है। और इसमें किसी प्रकार का भ्रम भी नहीं है। वहां से आने के बाद से
ही मैं लागातार सिद्धयोनिआसन का अभ्यास कर रही हूँ,और ये भी सिद्धासन का अभ्यास कर
रहे हैं। हालाकि इनको एक बात की शंका है- इन्होंने कहीं पढ़ रखा है कि गृहस्थों को
इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। अन्यथा दाम्पत्य जीवन प्रभावित होता है।’
गायत्री की
यह बात सुन कर बाबा झल्ला से गये- ‘‘
क्या बकबक करती हो, यही तो कहता हूँ कि बाजारु किताबों को पढ़कर अपना सिद्धान्त मत
गढ़ लिया करो। तुम्हें जिस पथ पर ले जाना चाहता हूँ,वो क्या सामान्य गृहस्थों का
पथ दीख रहा है तुम्हें या कि गृहस्थ सन्यासी का? इन बचकानी
बातों में दिमाग न उलझाओ। सीधी सी बात समझो- सिद्धासन के कठिन अभ्यास से शुक्र का
स्तम्भन होता है,कामविह्वलता पर भी नियन्त्रण होता है,उर्ध्वगमन होता है। और मैं
हमेशा मर्यादित काम की बात किया हूँ,भगोड़ू कामयोद्धा की नहीं,जो जीवन ही वरबाद कर
देता है काम से लड़ने में। तुम गृहस्थ हो,गृहस्थ रहोगे। अभी तो तुम्हारी गृहस्थी
से मुझे बहुत बड़ा काम लेना है...अपने स्वार्थ का काम...और स्व-अर्थ का भी काम।’’
पहेली
बुझाते हुए बाबा बाहर निकल गये । मुंहलगी गायत्री टोकती हुयी पीछा की दरवाजे से
बाहर तक जाकर,पर अनसुना करते हुए गर्दन झुकाये परिसर से बाहर निकल गये बाबा।
गायत्री भी
अजीब है,क्या जरुरत थी बाबा से इस बात की चर्चा करने की – मन ही मन बुदबुदाया,किन्तु कहा कुछ नहीं।
पंचमी को संध्या से पूर्व ही बाबा उपस्थित हो गये,वो भी बड़े ही प्रसन्न
मुद्रा में। उनके निर्देशानुसार पूर्व की सारी तैयारियां हमदोनों कर चुके थे।
गायत्री के मन में उस पहेली की कुलबुलाहट अभी तक चल ही रही थी। बाबा की मुख-मुद्रा
अति प्रसन्न देख कर मेरा भी कुछ साहस बढ़ गया।
उनके बैठते ही गायत्री ने सवाल कर दिया- ‘ पहली बात तो ये बताओ भैया कि आज इतना प्रफुल्लित क्यों
हो,और दूसरी बात क्या जाननी है मुझे- ये
तो तुम खुद ही बताओ,क्यों कि उस दिन की पहेली तुम्हारी,और आज की मेरी...।’
बाबा ने हँसते हुए कहा– ‘‘
तुम भी बहुत शोख हो गयी हो गायत्री। ’’
‘शोख तो मैं
हूं ही,आज कोई नयी बात थोड़े है,हां, तुम्हारे जैसा मुंहलगा भाई सामने हो तो शोखी
जरा और बढ़ जाती है।’–
गायत्री ने उसी अन्दाज में कहा।
उसकी बात का जवाब देते हुए बाबा ने कहा - ‘‘ प्रसन्नता इस बात की है कि सावित्री के ऋण
का एक बहुत बड़ा भाग आज चुकता हो गया। समझो कि मूलधन पूरा हो गया,अब व्याज की कसर है
सिर्फ। मातेश्वरी और गुरुमहाराज की कृपा से आगामी अमावश्या तक वो भी पूरा हो
जायेगा। फिर मैं पूर्णतः भारमुक्त होकर,विचरण कर सकूंगा,और स्व-कार्य-साधन में
निर्विघ्नता पूर्वक आगे का मार्ग भी प्रशस्त हो जायेगा। ’’
ये बड़ी खुशी की बात है- हमदोनों ने एक ही साथ प्रतिक्रिया
व्यक्त की। प्रसंग आगे बढ़ाते हुए बाबा ने आगे कहा– ‘‘ तुम्हारी जिज्ञासा क्या है,ये मैं अच्छी तरह समझता हूँ; और इसी सम्बन्ध में कुछ विशेष बात कहना भी चाहता हूँ । इसी
में तुम्हारी बात का उत्तर भी है,और कुछ निर्देश-संकेत भी। अब देखना ये है कि
तुमदोनों कितने बुद्धिमान हो- सही अर्थ निकालते हो या अनर्थ करते हो। ’’
इतना कह कर बाबा पल भर को बिलमे,फिर कहने लगे– ‘‘ शास्त्रों ने हर चीज की मर्यादा निश्चित की है। हर काम के
लिए नियम बनाये हैं। धर्मशास्त्र से लेकर आयुशास्त्र,तथा कामशास्त्र तक ने काम की
मर्यादा सुनिश्चित की है। कृष्ण ने तो मर्यादित काम को अपना स्वरुप ही कह दिया है।
ऋतुस्नान के पश्चात् अपनी विवाहिता पत्नी के साथ शास्त्र-मर्यादित सम्भोग करने को
भी गृहस्थ-धर्म कहा गया है। पारस्करगृह्यसूत्रम्,तथा धर्मसिन्धु आदि ग्रन्थों में
इसका विस्तार से वर्णन है। इन्हीं बातों का सार- मुहूर्तचिन्तामणि नामक ज्योतिष
ग्रन्थ में सु सम्भोगकाल का निर्देश कुछ इस प्रकार किया गया है- गण्डान्तं
त्रिविधं त्यजेन्निधनजन्मर्क्षे च मूलान्तकं दास्त्रं पौष्णमघोपरागदिवसान् पातं
तथा वैधृतिम् । पित्रोः श्राद्धदिनं दिवा च परिघाद्यर्धं स्वपत्नीगमे
भान्युतपातहतानि मृत्युभवनं जन्मर्क्षतः पापभम् ।। भद्राषष्ठीपर्वरिक्ताश्च
सन्ध्याभौमार्कार्कीनाद्यरात्रीश्चतस्रः । गर्भाधानं त्र्युत्तरेन्द्वर्क मैत्रब्राह्मस्वातीविष्णुवस्वम्बुपे
सत् ।। केन्द्रत्रिकोणेषु शुभैश्च पापैस्त्रायारिगैः पुंग्रहदृष्टलग्ने । ओजांशगेऽब्जेऽपि
च युग्मरात्रौ चित्रादितीज्याश्विषु मध्यमं स्यात् ।। अर्थात् तीनों
प्रकार के गण्डान्त,दम्पति का वधतारा,दम्पति का
जन्मनक्षत्र,मूल,भरणी,अश्विनी,रेवती,मघा आदि चन्द्रनक्षत्र,सूर्य-चन्द्र के ग्रहण-
काल, व्यतिपात, वैधृति योग,माता-पिता के निधन दिवस,श्राद्धदिवस,किसी भी दिन का
दिवाकाल, संध्या,गोधूलि,उषादि काल में,जन्म राशि से अष्टम लग्न,और पापयुक्त
लग्न-नक्षत्रों में समागम न करे। भद्रा,षष्ठी,अमावश्या, पूर्णिमा, एकादशी, पंचमी,चतुर्दशी
आदि तिथियां,पर्व के दिन,रिक्तातिथि,रवि,मंगल,गुरु,शनिवार तथा रजोदर्शन की चार
रात्रियों में गर्भाधान त्याज्य है। तथा तीनों उत्तरा, मृगशिरा,हस्ता,अनुराधा,रोहिणी,स्वाती,श्रवण,धनिष्ठा,शतभिष
नक्षत्र गर्भाधान के लिए उत्तम हैं। गर्भाधान के समय शुभग्रह केन्द्रत्रिकोण में
हों तो अति उत्तम है। चित्रा,पुनर्वसु,पुष्य,और अश्विनी नक्षत्र गर्भाधान के लिए
मध्यम कहे गये हैं। इस प्रकार अन्य भी बहुत से नियम कहे गये हैं,जिनका यथा सम्भव
पालन करना चाहिए। ध्यान देने की बात है कि ऊपर कहे गये नियमों में सम्भोग के लिए
अनुकूल समय,और गर्भाधान के लिए अनुकूल समय दोनों बातों पर इशारा है। सिर्फ सन्तान
कामना से ही सम्भोग करना सर्वश्रेष्ठ नियम है,किन्तु विडम्बना ये है कि सिर्फ
सन्तान के लिए सम्भोग करते कितने लोग हैं !
लोग तो सम्भोग के लिए सम्भोग करते हैं। सिर्फ और सिर्फ कामोन्माद में उन्मत्त
होकर,सम्भोग का अवसर तलाशते हैं- देश,काल,पात्र सारी मर्यादायों को तिलांजलि देकर।
स्त्री सिर्फ भोग्या बन कर रह गयी है, पत्नी और अर्धांगिनी बड़े सौभाग्य से ही हो पाती
है। किन्तु उन भोगियों को भी काल-मर्यादा का किंचित ज्ञान रखना चाहिए। और जो लोग विशेष
कर मनोनुकूल सन्तानेच्छु हैं,उन्हें तो और भी नियमों का ध्यान रखना चाहिए।
‘‘ श्रीवासुदेव
ने कहा है- सहयज्ञाः प्रजा सृष्टा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्वध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्
।। यज्ञ के साथ प्रजा की सृष्टि करके प्रजापति ने पहले कहा कि इसी से तुमलोग
बढ़ो,यह तुमलोगों के लिए कामधेनु हो...। उस यज्ञरुपी कामधेनु के अनादर और त्याग के
कारण ही संसार विपत्तियों घिरा हुआ है आज। जिस सन्तान के लिए पूर्व पुरुषों ने
बड़ी-बड़ी तपस्यायें की हैं,उन्हीं सन्तान-वृद्धि से आज का संसार उब रहा है,उनके
आचरण से त्रस्त है,और कृत्रिम विधियों का पालन कर गर्भनिरोध पर बल दे रहा है। इसे
ही अपना परम कर्तव्य समझ रहा है। गर्भनिरोध के लिए अनेक उपायों का सहारा ले रहा
है। यह बड़े दुःख की बात है। भले ही सरकारें राजनीति प्रेरित होकर या पश्चिम के
नियमों का पिट्ठु बनकर गर्भनिरोध को राष्ट्रधर्म का दर्जा दे दे,किन्तु आये दिन
इसका दुश्परिणाम मानव समाज को भुगतना पड़ रहा है,विशेष कर महिलायें इसका शिकार
अधिक हो रही है। व्यभिचार भी बढ़ रहा है। स्त्रियों में प्रदर,रजोरोध,
युटेरिनकैंसर,स्तनकैंसर,हिस्टिरीया,कामोन्माद वा कामशैथिल्य जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं। सच पूछा जाय तो
कृत्रिम साधनों से गर्भ का अवरुद्ध करना गर्भपातन के दुष्कर्म से जरा भी कम नहीं
है। आश्वलायन कहते हैं- व्यर्थीकारेण शुक्रस्य ब्रह्महत्यामवाप्नुयात् ...। श्रीकृष्ण
कहते हैं- यज्ञार्थात् कर्मोण्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः...। अर्थात् यज्ञ के
लिए ही कर्म होना चाहिए। गर्भाधान भी एक कर्म ही है,एक महान यज्ञ ही है।
छान्दोग्यश्रुति कहती है- पुरुषो वाव गौतमाग्निस्तस्य वागेन समित्प्राणो धूमो
जिह्वार्चिश्चक्षुरङ्गाराः श्रोत्रं विस्फुलिंगाः । तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा
अन्नं जुह्वति तस्वा आहुते रेतः सम्भवति । योषा वाव गौतमाग्निस्तस्या उपस्थ
एव समिद्यदुपमन्त्रयते स धूमो योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेऽङ्गाराः अभिनन्दा
विस्फुलिङ्गाः । तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ
देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुतेर्गर्भः सम्भवति ।। (हे गौतम ! पुरुष अग्नि है,उसकी वाणी समित् है, प्राण धूम है,जिह्वा
ज्वाला है,आँख अंगारे हैं,कान चिनगारियां हैं,उसी अग्नि में देवता अन्न का होम
करते हैं। उसी आहुति से वीर्य बनता है। पुनः कहते हैं- हे गौतम ! स्त्री अग्नि है। उसका उपस्थ समित् है। उस समय जो बातें करता
है वही धूम है। स्त्री की योनि ही ज्वाला है।
सम्भोग अंगारा है। मुख चिनगारियां हैं।
उसी अग्नि में देवता लोग वीर्य का होम करते हैं। उसी आहुति से गर्भ बनता
है।)
‘‘ अब जरा सोचो- कितना पवित्र कर्म है यह सम्भोग,यदि यह
मर्यादित हो। किन्तु बिडम्बना ये है कि अपने उत्पन्न सन्तान के सुख-दुःख के लिए
माता-पिता सदैव चिन्तित रहते हैं,और ज्योतिषियों के पास दौड़ लगाते रहते हैं,उनकी
ग्रहदशा जानने को,परन्तु इन सभी के मूल में जो बात है उस पर जरा भी ध्यान नहीं
जाता। यह परम्परा ही लुप्त हो गयी है। यूं तो शास्त्रों में चालीस संस्कार कहे गये
हैं,जिनमें वाल्य संस्कार आठ हैं,और उनमें प्रथम और प्रधान है गर्भाधान संस्कार।
उसके बाद क्रमशः पुंसवन,सीमन्त,जातकर्म,नामकरण, अन्नप्राशन, चौल, और उपनयन की बारी
आती है। ये सब संस्कार माता-पिता द्वारा किये जाने वाले संस्कार हैं। अब भला इनमें
बीजारोपण ही गलत तरीके से,गलत समय में हो जायेगा तो भविष्य की बातों पर कितना
नियन्त्रण रखा जा सकेगा !
गर्भाधान के कालदोष का ही कमाल है कि कश्यप जैसे पिता से हिरण्याक्ष और
हिरण्यकशिपु सरीखे राक्षस पैदा हुए। इस काल का ही बल हावी हुआ और उच्चकुल पुलस्त्य
के पुत्र विसश्रवा के घर रावण पैदा हुआ। इस काल ने ही विभीषण भी बनाया। ध्रुव और
प्रह्लाद भी इसी गर्भाधान काल के अप्रतिम उदाहरण कहे जा सकते हैं। गर्भाधान काल
में माता-पिता की मनःस्थिति और परिवेश के साथ-साथ काल भी प्रबल होता है- इसे न
भूलो।
‘‘
गर्भाधान-काल के इस महत्त्व और चमत्कार के कुछ और पक्ष पर जरा गौर करो- मनुस्मृति का कथन है कि रजस्वला होने के सोलह
दिन तक का काल ऋतुकाल है। इनमें पहली चाररात्रि,और बाद में ग्यारहवीं और तेरहवीं
रात्रि गर्भधारण के अयोग्य हैं,शेष रात्रियों में समागम प्रशस्त है।(३-४५,४७,५०) इस
सम्बन्ध में ज्योतिषशास्त्र बड़ा ही सरल तरीका सुझाता है। चतुर लोग इसी की वर्जना
करके गर्भनिरोध को भी अपना सकते हैं,और वांछित गर्भाधान भी कर सकते हैं,जो कि
निरापद और स्वास्थ्यकर होगा। ज्योतिर्विद वराहमिहिर कहते हैं- गर्भाधान काल में
लग्न,पंचम,नवम में पुंग्रह यानी सूर्य,मंगल,गुरु होंगे तो सुपुत्र की प्राप्ति
होगी,और तत्स्थानों में चन्द्रमा वा शुक्र (स्त्रीग्रह) होंगे तो कन्या सन्तान
होगी। इसी भांति लग्न,सूर्य और चन्द्रमा विषम राशिस्थ वा नवांश में होंगे तो पुत्र
और सम में पुत्री के सूचक होते हैं। लग्न एवं चन्द्रमा पर जिस तरह के ग्रह की
दृष्टि होगी तदनुरुप ही सन्तान भी होने की सम्भावना होती है। गर्भाधान सम्बन्धी एक
और नियम(तथ्य)ध्यान रखने योग्य है कि स्त्री की कुण्डली में लग्न, सूर्य, चन्द्रमा
के जो-जो नक्षत्र होंगे,उससे सातवें चौदहवें और इक्कीसवें नक्षत्र पर गोचर के
चन्द्रमा के आने पर ही स्त्री गर्भधारण कर सकती है,अन्यथा नहीं। हां,कभी-कभी उससे
ठीक एक नक्षत्र आगे और पीछे भी स्थिति बन जाती है। इस प्रकार सूक्ष्म गणना करके
देखने पर किसी भी स्त्री के लिए किसी भी महीने में केवल तीन दिन(रात्रि)ही
गर्भाधान के योग्य हो सकते हैं।’’
बड़ी देर से चुप्पी साधे गायत्री ने टोका- ‘ तब तो भैया ! बड़ा ही सुगम
और निरापद है- इन तीन दिनों का परहेज व्यर्थ की गर्भनिरोधक दवाइयों,और
उसके साइड एफेक्ट से रक्षा कर सकता है। ’
बाबा ने इस बात पर सिर्फ सिर हिलाकर हामी भरी। गायत्री के
चुप्पी तोड़ने पर मुझे भी कुछ बोलने का साहस हुआ- महाराजजी ! मैंने तो सुन रखा है कि पुरुष वीर्य(शुक्र)में कुछ क्रोमोजोम
होते हैं जो जिम्मेवार हैं नर वा मादा सन्तति के लिए। स्त्री का डिम्ब तो न्यूट्रल
होता है। X+
X,X+Y क्रोमोजोमों का ही कमाल है यह केवल,पर आप कहते हैं कि अलग-अलग
ग्रह-स्थितियां और रात्रियां इसके लिए जिम्मेवार है- यह सैद्धान्तिक भेद क्यों हो
रहा है?
बाबा मुस्कुराये,और फिर बोले- ‘‘ सिद्धान्त का भेद नहीं समझ
का भेद है, नाक को सीधे छूओ या कि उल्टे। नर-मादा सन्तान के लिए एक और सिद्धान्त
बतला रहा हूँ,इस पर भी गौर करो। पवनविजयस्वरोदय स्वरसिद्धान्त से गर्भाधान की
प्रक्रिया का निर्देश करता है। पुरुष-स्त्री दोनों के दक्षिण स्वर जारी हों (या
जारी कराये जायें) सम्भोग काल में तो पुत्र की प्राप्ति होगी,और इसके विपरीत यानी
वामस्वर जारी हों तो कन्या की प्राप्ति होगी। परन्तु इसके लिए स्वर परीक्षण और
मनोवांछित परिवर्तन का ज्ञान करके अभ्यास करना होगा,और भोगकाल में भी सांस पर
नियन्त्रण रखना होगा। दीर्घायु और सर्वगुणसम्पन्न सन्तान-प्राप्ति हेतु माता-पिता
को खान-पान,रहन-सहन आदि अन्य बातों का भी ध्यान रखना चाहिए। पुरुष को चाहिए कि
सात्विक(वा सामान्य राजसिक)आहार ले, साथ ही आवश्यकतानुसार
असगन्ध,शतावरी,श्वेत-श्याम मुसली, मुलहठी, तुलसी बीज, रेवन्दचीनी,पोस्तादाना आदि का
सेवन गोदुग्ध के साथ किया करें, ताकि ओजस्वी सन्तान प्राप्त हो। तथा स्त्री को
गर्भधारण की योजना बनाते समय तीन वा छः माह तक गर्भाशय एवं शोणित-शोधन हेतु कशीस,मुसब्बर,
हींग,सुहागा,अरिष्ठा,ऐंठा,चित्रक,इन्द्रवारुणी,लक्ष्मणा,मालकांगनी आदि द्रव्यों का
सेवन करना चाहिए। विशेष परिस्थिति में महाभैषज्य- फलघृत का भी सेवन करना चाहिए। यहां
मनोवांछित सन्तान-प्राप्ति हेतु एक सारणी भी समझा रहा हूँ- इस पर अवश्य ध्यान
देना।
‘ ध्यान देने
योग्य बात ये है कि मासिक शुरु होने के तीन दिनों तक तो स्त्री अपवित्र ही कही गयी
है,उसके साथ भोग कदापि नहीं करना चाहिए। चौथी रात्रि में स्त्री सम्भोग्य तो हो
जाती है,फिर भी स्वस्थ सन्तान की कामना वाले व्यक्ति को इससे परहेज ही करना चाहिए।
पहले इस सारणी को देखो-समझो,और विचार हो तो इसे नोट भी कर लो–
क्रम
|
रात्रि
|
फल
|
१.
|
चौथी
रात्रि
|
अल्पायु / दरिद्रपुत्र
|
२.
|
पांचवीं
रात्रि
|
पुत्रवती,योग्य
पुत्री
|
३.
|
छठी
रात्रि
|
सामान्य
आयु वाला पुत्र
|
४.
|
सातवीं
रात्रि
|
वंध्या पुत्री
|
५.
|
आठवीं
रात्रि
|
ऐश्वर्यवान
पुत्र
|
६.
|
नौवीं
रात्रि
|
ऐश्वर्यवान
पुत्री
|
७.
|
दसवीं
रात्रि
|
बुद्धिमान
पुत्र
|
८.
|
ग्यारहवीं
रात्रि
|
दुश्चरित्रा
पुत्री
|
९.
|
बारहवीं
रात्रि
|
उत्तम
पुत्र
|
१०.
|
तेरहवीं
रात्रि
|
कुलघातिनी
पुत्री
|
११.
|
चौदहवीं
रात्रि
|
अति उत्तम
पुत्र
|
१२.
|
पन्द्रहवीं
रात्रि
|
सौभाग्यवती,सुचरित्रा
पुत्री
|
१३.
|
सोलहवीं
रात्रि
|
सर्वगुणसम्पन्न
पुत्र
|
गायत्री सारणी नोट कर रही थी अपनी डायरी में । उसे पूरा होने
के बाद उसने सवाल किये- ‘ भैया!
यहां
आपने सिर्फ सोलहवीं रात्रि तक की ही बात कही,क्या इसके आगे गर्भ स्थापन नहीं हो
सकता? और दूसरी बात ये पूछती हूँ कि अभी,आज के दिन को तो किसी विशेष उद्देश्य
के लिए आपने नियत किया था,फिर इस प्रसंग की चर्चा ? ’
जिसके जवाब
में बाबा ने कहा- ‘‘ तुम्हारे पहले प्रश्न का उत्तर ये है कि इसके बाद यदि
गर्भस्थापन करने का प्रयास किया जाय तो मरुभूमि में बीज बोने के समान है। या तो
अंकुरण ही नहीं होगा,या होगा तो विकृतिपूर्ण ही। और दूसरी बात ये कि शायद तुमलोगों
को लग रहा होगा कि आज इस अलग विषय पर क्यों चर्चा छेड़ दिया,किन्तु मैंने पहले ही
कहा था कि इस चर्चा में ही तुम्हारी और मेरी पहेली का जवाब है। इतने दिनों के
सम्पर्क के वावजूद तुमने अपनी व्यक्तिगत लालसा व्यक्त नहीं की। सुव्यवस्थित नौकरी
पाकर तो सन्तुष्ट हो गये, पर उससे भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण– पितृऋण-मुक्ति पर कभी चर्चा नहीं की, और न स्पष्ट जानकारी ही
दिये। ’’
जरा
शर्मिन्दगी पूर्वक मैंने कहा- जी महाराज ! आप
सही कह रहे हैं। ऐसा नहीं कि ये मेरे मन में कभी उठा ही नहीं,कई बार उठा.परन्तु
कुछ सोचकर टाल दिया, कभी आगे के लिए। अब अर्थव्यवस्था आपकी कृपा से सुव्यवस्थित हो
गयी है,तो ध्यान जाता है। अपने स्तर से हर सम्भव प्रयास- डॉक्टरी जांच वगैरह कराकर
थक-हार चुका हूँ। तन्त्र–मन्त्र पर बहुत भरोसा नहीं है,या कहें भरोसा है केवल
सैद्धान्तिक। व्यावहारिक जगत में तो केवल ठगी ही दीखता है। अतः ऊपर वाले की कृपा
पर ही छोड़ दिया हूँ। अब आप मिल ही गये हैं,तो वो भी हो जायेगा। हालाकि उम्र के
लिहाज से गायत्री के पास अब समय बहुत ही कम रह गया है- डॉक्टर कहते हैं कि जो कम
उम्र में रजस्वला हो जाती है,उसकी रजोनिवृत्ति भी जल्दी ही हो जाती है।
बाबा ने इस
पर कुछ प्रतिक्रिया नहीं दी,बल्कि समय देखने लगे,ऊपर नजरें उठाकर,और बोले– ‘‘ खैर,कोई बात नहीं। अभी तो जिस काम के लिए हम विन्ध्याचल
से यहां आये हैं,उसे पूरा करें ।’’
इतना कह कर
बाबा ने आसन लगाने का निर्देश दिया। गायत्री छोटे कमरे की ओर गयी,जिसे हमदोनों ने
साधना-कक्ष बना रखा था,और वहां की व्यवस्था का निरीक्षण कर पुनः वापस आगयी।
हमतीनों
वहां कक्ष से जाकर आसन ग्रहण किए। ठीक सामने बैठ कर बाबा ने एक साथ हमदोनों के सिर
पर अपना दायां-बायां हाथ रख दिया,और आँखें बन्द कर तीब्र श्वांस-प्रश्वांस का
निर्देश दिये। थोड़ी देर में ही मैंने अनुभव किया- ऊपर से लेकर नीचे तक मेरुदण्ड
एक स्वर्णदण्ड भी भांति आलोकित हो रहा है,साथ ही क्षणभर के लिए सभी पद्म भी
उद्भासित हो गये,जैसा कि गुरुमहाराज की पुस्तिका में देखा था। इतना ही नहीं,कुछ
देर के लिए ऐसा लगा मानों शरीर का सारा प्राणवायु खिंच कर तीब्र सनसनाहट के साथ
मेरुरज्जु को पार करते हुए ऊपर की ओर चढ़ रहा है।
बाबा ने
अपने हाथ हटा लिए,पर हमारी स्थिति वैसी ही बनी रही काफी देर तक । करीब दो घड़ी बाद
बाबा के आदेश से हमलोगों ने आंखें खोली।
उन्होंने कहा – ‘‘ इस अनुभूति को आत्मसात करने का नित्य अभ्यास करो । पहले
भी बहुत तरह की अनुभूतियां हुयी हैं,उन्हें भी स्मरण में लाओ,और नित्य कम से कम
तीन घंटे का अभ्यास अवश्य किया करो। हो सके तो ये अभ्यास दोनों संध्याओं में करो,और खास तिथियों में तो निशीथ
बेला में भी। तुमदोनों के लिए अगले कुछ
महीनों का यही अभ्यास क्रम रहेगा। उसके बाद की क्रिया गुरुमहाराज की पुस्तिका के
संकेतों के सहारे आगे बढ़ेगी। प्रत्येक
बैठक की शुरुआत उसी भांति होगा,जैसा कि पहले भी कह आया हूँ। महर्षि याज्ञवल्क्य तो
कहते हैं कि छः महीने के सतत अभ्यास से नाड़ियां पूर्ण शुद्ध हो जाती हैं,यानि कि
फिर सामान्य झाड़न-पोछन से काम चल जाता है। सर्वांगीण नाड़ीशुद्धि के पश्चात् कुछ
दिनों के लिए क्रमशः इडादि तीनों प्रधान नाडियों की शुद्धि का अभ्यास करना चाहिए।
क्यों कि यही वो मार्ग है,जहां से होकर कुण्डलिनी शक्ति को गुजरना है। यदि ये
मार्ग शोधित(जागृत) न हुए,और चक्र पर काम करना शुरु कर दिये,तो इसका परिमाम गलत
होगा। अतः, प्रत्येक वैठक में एक से तीन चक्र नाड़ीशोधन आवश्यतानुसार कर लेना
चाहिए। यह ठीक वैसे ही है,जैसे बन-बनाये घर में नित्य झाड़ू-पोछा तो लगाना ही
पड़ता है न। अन्यथा गर्दगुब्बार,मकड़ियों के जाले अपना स्थान बना लेंगे। फिर तत्वों
की शुद्धि पर आ जाओ,ध्यान रहे प्रत्येक पद्मों पर एक-एक तत्त्व हैं- उन बीजों से
स्वांस प्रहार करो। सर्वाधिक समय दो प्रथम पर, और फिर इसी भांति आगे बढ़ते जाओ-
पंचम तक। और इसके बाद, उनके स्थानों को,जैसा कि चित्र-संकेत मिला है- अभ्यास नित्य
जारी रखो। शनैः-शनैः एक-एक पद्मों पर काम करते हुए आगे बढ़ो।
तत्त्व,बीज,वाहन,आकृति, वर्ण, मात्रिका आदि सबका चिन्तन होना चाहिए। तुम पाओगे कि
धीरे-धीरे सारे वर्ण स्पष्ट हो रहे हैं, और
फिर वहां की अन्य चीजें भी। क्रिया में जल्दबाजी और उत्सुकता जरा भी न हो। बस एक
द्रष्टा की भूमिका में रहना है,भोक्ता और कर्ता बनने का प्रयास करोगे तो परेशानी
में पड़ोगे। न आनन्द में मस्त होने की बात है, और न भय से भीत होने की। ये मत भूलो
कि ये कोई बैगन-टमाटर का पौधा नहीं है, जिसमें तीसरे महीने फल लग ही जायेंगे। फल
कब लगेंगे,कैसे लगेंगे- इस विषय पर सोचना ही व्यर्थ है,बेमानी है। तुम्हारा काम है
सिर्फ और सिर्फ अभ्यास करना। रसरी आवत जात ते सिल पर परत निशान... सुना है
न?’’
इतना कह कर
बाबा जाने के लिए उठ खड़े हुए। आदतन, गायत्री ने भोजन का आग्रह किया, क्यों कि समय हो रहा था रात्रि भोजन का,किन्तु सिर्फ दूध के
लिए उन्होंने स्वीकृति दी,और ग्रहण भी किया। हां,इतना जरुर कहा कि हमलोग चाहें तो
अब सात्त्विक अन्नाहार भी ले सकते हैं।
पुनः कब
मिलना हो सकेगा- गायत्री के पूछने पर मुस्कुराते हुए बोले- ‘‘ क्या बच्चों जैसी मिलने-मिलने की बात करती
हो ! अब महामिलन
की तैयारी में लगो, इस सांसारिक मिलन में क्या रखा है ! और हां, जिन औषधियों की चर्चा किया हूँ, उनकी व्यवस्था कर
लो,और तुमदोनों सेवन भी शुरु कर दो। स्वयं से औषधियों का निर्माण करने में कठिनाई
हो सकती है,अतः किसी विश्वस्त औषधि निर्माता की दवा ले सकते हो,पर खरीदने के बाद
उनका संस्कार करना न भूलना। शिवपंचाक्षर और देवी नवार्ण से विधिवत संस्कार करना अति
आवश्यक है- इस विशेष विधि को तो आज के वैद्य भी बिलकुल विसार चुके हैं ,और सही
परिणाम न मिलने पर पद्धति(शास्त्र)को दोष देते हैं। जगदम्बा की कृपा से, इन
विधियों के पालन से सन्तान की मनोकामना
अतिशीध्र ही पूरी होगी तुम्हारी। और हां, गर्भधारण हो जाने के बाद नित्य
सन्तानगोपालस्तोत्र और नारायण कवच का पाठ अवश्य करना,साथ ही उक्त विधि से
संस्कारित करके गर्भपाल रसायन का भी सेवन शुरु कर देना, ताकि किसी प्रकार की
दिक्कत न हो। प्रसव काल आने पर किसी अस्पताल के शरण में भी जाने की जरुरत नहीं है।
मातेश्वरी की कृपा से चिकित्सिका स्वयं चल कर तुम्हारे पास समय पर पहुँच जायेगी। ’’
हमने आगे
बढ़ कर बाबा का चरण-स्पर्श किया। गायत्री भी झुकी,किन्तु उसे बाबा ने बीच में ही
थाम लिया,और पीठ ठोंकते हुए परिसर से बाहर निकल गये।
बाबा चले
गये- फिर कब मिलना होगा...की पहेली अबूझ रह गयी। उनके जाने के बाद,हमलोग यथाविधि
अपना अभ्यास जारी रखे। बीच-बीच में कोई अड़चन लगती तो गुरुमहाराज की पुस्तिका और
पुलिन्दे की चित्रावली से सहयोग लेता। धीरे-धीरे मन काफी रमने लगा साधना-क्रिया
में और आगे का रास्ता भी स्वतः सूझने लगा। क्यों न सूझे- बाबा जैसा पथप्रदर्शक
हो,गुरुमहाराज का वरदहस्त हो,उसके लिए तो कठिन पहाड़ भी सरपट मैदान बन जाना
स्वाभाविक है।
तीन महीने
गुजर गये। शाम का समय था। ऑफिस से अभी-अभी आकर, कपड़े उतार,इत्मिनान से बैठकर,चाय
की चुस्की ले रहा था। गायत्री भी पास ही बैठी सामान्य घरेलू बातें कर रही थी, तभी
अचानक बाबा का आगमन हुआ। उनका चेहरा पहले से भी अधिक दर्पित लग रहा था। इन तीन
महीनों में लगता था- बाबा तीस साल पीछे खिसक आये हों- बिलकुल हमारे जैसे।
आगे बढ़कर
उनका स्वागत किया,किन्तु कहने पर भी वे विराजे नहीं, बल्कि हमदोनों को भी यथाशीघ्र
तैयार होने को बोले। कहां चलना है- ये भी स्पष्ट नहीं,बस तैयार हो जाओ...इतना ही
आदेश मिला।
तैयार क्या
होना था,चाय खतम किया,कपड़े डाले, और निकल पड़ा
गायत्री के साथ। बाहर आकर पूछा- अनुमति हो तो गाड़ी ले लूं या कि...?
‘‘ हां हां,ले लो,कोई बात नहीं,किन्तु कुछ आगे चल कर कहीं छोड़ देना
होगा,क्यों कि जहां तक जाना है,वहां तक गाड़ी ले जाना उचित नहीं।’’
चल पड़े हम
सब। ड्राइवर की उपस्थिति के कारण कोई चर्चा उचित नहीं लगी। मार्ग-निर्देश भी बाबा
ही करते रहे। यमुना की ओर जाने वाली सड़क के समीप पहुँच कर बाबा ने कहा- ‘‘ उचित होगा कि
अब
यहीं कहीं गाड़ी लगा दी जाय। कोई दो घंटे बाद पुनः लौटना होगा। चाहो तो गाड़ी वापस
भेज दो,या यहीं रोके रखो। ’’
रोके क्या
रखना है इतनी देर। लौटते वक्त न होगा तो टैक्सी ले लूंगा – कहते हुए गाड़ी साइड
कर,हमसव उतर पड़े,और बाबा का अनुगमन करने लगे। कोई बीस मिनट पैदल चलने के बाद
हमलोग उसी स्थान पर पहुँच गये जहां कभी बाबा का प्रथम दर्शन लाभ हुआ था। थोड़ी
दूरी पर बहुत ही मोटा सा एक दरख़्त था- बिलकुल बीरान में,यमुना तट से जरा हट कर।
रौशनी पर्याप्त न होने के कारण पता नहीं चल रहा था कि वृक्ष किस चीज का है,किन्तु
बिना पूछे ही बाबा ने कहा- ‘‘ ये
त्रिसंकटवृक्ष ही हमलोगों का आश्रय बनेगा अभी। जानते हो कि नहीं- वट,पीपल,प्लक्ष का एकत्र रोपण त्रिसंकट
कहलाता है। इसकी स्थापना बड़ा ही पुण्यदायी है,और बड़े सौभाग्यवान के हाथों ही लग
पाता है यह पौधा । अलग-अलग तो बहुत लग जायेंगे,पर एकत्र तीनों को स्थापित होना जरा
मुश्किल काम है। कोई न कोई सूख ही जायेगा। वट यानी शिव,पीपल यानी विष्णु, और पाकड़
यानी ब्रह्मा का प्रतीक है इस धरातल पर। त्रिदेवों का एकत्र वास त्रिगुणात्मिका
शक्ति का पावन साधना-स्थली होता है,और त्रिगुण से त्राण पाने का माध्यम भी। त्रिसंकट
की छाया अपने आप में किसी महान तीर्थ से कम नहीं, वो भी कालिन्दी के तीर पर हो फिर
क्या कहना। विगत लम्बे समय से यही मेरी साधना-स्थली रही है। यहीं पास में ही
सावित्री की चिता भी जली थी, इस कारण मेरे लिए और भी महत्त्वपूर्ण हो गया है यह
स्थान। सावित्री तो मुक्त हो गयी पिछले महीने ही,और इस प्रकार,मैं उसके ऋण से भी
मुक्त हो गया,किन्तु अब अपनी मुक्ति का प्रयास करना है; और इसके लिए तुमदोनों का सहयोग अपेक्षित है। ’’
वहां, वृक्ष के समीप पहुँचकर बाबा के चरण थम
गये। हमलोग भी रुक
गये। वृक्ष के पास ही वांस और कुछ लत्तरों के सहारे,एक छोटी
सी झोपड़ी बनी हुयी थी। सम्भवतः यही आश्रय या आश्रम था- बाबा का। वहीं से बाबा ने एक आसन निकाला- फटा-चिटा कम्बल,और
गायत्री की ओर बढ़ाये, बिछाने के लिए।
उनके इशारे
पर हम दोनों उस आसन पर बैठ गये। बाबा भी उसीपर पद्मासनासीन हो गये। गायत्री के
साथ-साथ मैं भी चौंक गया था बाबा के अन्तिम वाक्यांश पर,अतः बैठते के साथ ही
गायत्री ने पूछ दिया - ‘ क्या कहा अभी
तुमने भैया ! अपनी
मुक्ति के लिए हमदोनों का सहयोग !’
‘‘हां,बिलकुल सही सुना तुमलोगों ने- अपनी मुक्ति हेतु तुमदोनों का सहयोग
अपरिहार्य है। मैं अनुभव कर रहा हूँ कि मेरा काम अभी बहुत बाकी रह गया है,और इस शरीर
को इतने समय तक रोक रखने की क्षमता भी नहीं है मुझमें। चुंकि इस शरीर से यात्रा
पूरी नहीं हो सकती,अतः कोई नया शरीर तो लेना ही पड़ेगा न ! इस कार्य के लिए ही मुझे तुमदोनों का सहयोग चाहिए। दोगे न ?’’
हम और भी
विस्मित हुए। ‘ कैसा सहयोग ? हम समझे नहीं।’- एक साथ हमदोनों बोल पड़े।
‘‘ अनुकूल
ऊर्वर भूमि,और सुपुष्ट बीज का सहयोग ।’’- जरा घुटकते हुए बाबा ने कहा- ‘‘
मेरी आकांक्षा है ,आशा है,और पूर्ण
विश्वास भी कि तुम दोनों के अतिरिक्त ऐसी अनुकूलता और कहीं नहीं मिल सकती,अतः
मातेश्वरी से प्रार्थना की है मैंने कि वे मेरे कार्य में सहायिका बनें। उन्होंने
स्वीकृति दे दी है,अब तुम्हारी स्वीकृति और सहयोग की अपेक्षा है।’’
मैं कुछ कहता-पूछता,जानना-समझना चाहता कि इसके पूर्व ही बाबा कहने लगे- ‘‘
आज ही,अभी...मैं ये शरीर छोड़ने जा रहा हूँ। तीन महीने बाद अनुकूल समय देखकर
तुम्हारे गर्भ में मैं आना चाहता हूँ गायत्री ! तुम अपने मातृत्व का सौभाग्य देकर मुझे धन्य करो...। ’’– बाबा ने गदगद कंठ से,गायत्री की ओर देखते हुये करवद्ध निवेदन किया; फिर उनकी दृष्टि मेरी ओर पलटी- ‘‘ और तुम ! मेरे पिता बनोगे।’’
हम अवाक थे,थोड़े क्षुब्ध भी,दुःखी भी। सद्यः कारण आसन्न था। क्या
कहूं, क्या पूछूं, क्या उत्तर दूं– न मेरे पास कोई शब्द थे,और गायत्री के पास ही। बाबा का कथन जारी रहा– ‘‘ किसी
तरह की कोई आशंका या भ्रम में न रहो। मेरे होने न होने की चिन्ता भी व्यर्थ है।
भविष्य की सारी योजना और विधि भी तुमलोगों को समझा चुका हूँ। बीज और भूमि के शोधन
में लग जाओ। आत्म कल्याण और उत्थान का कार्य भी साथ-साथ चलता रहेगा। उसमें किसी
प्रकार की बाधा आने वाली नहीं है,और यत्किंचित वाधायें आयें भी तो उनका
कर्ता-भोक्ता मत बनना। समय पर मैं आ जाऊँगा
नये शरीर में। पांच वर्ष तक तुम मेरा लालन-पालन करना। तत्पश्चात् उपवीति
बनाकर,वहीं लेजाकर छोड़ देना जहां, कालीखोह जाने के मार्ग में मूलप्रकृति राधा की
दिव्य मूर्ति का दर्शन किया था तुमलोगों ने। तुम जब जाओगे,तो मार्ग खुला
मिलेगा,किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी। उस विन्ध्याचल यात्रा के पूर्व ही
तुमलोगों को अपना संसार भी समेट लेना होगा,फिर दिल्ली आकर नौकरी-चाकरी के जंजाल
में पड़ने की आवश्यकता नहीं है । आगे क्या,कैसे,कहां रहना-करना है- समय पर सब
संकेत मिलता जायेगा, और सहयोगी भी। हां, वादा करो कि मेरा एक और काम तुम अवश्य
करोगे –– मेरे सम्पर्क क्रम में आए इन सारे संवादों को
पुस्तकीय रुप देकर आगे बढ़ाने का प्रयास करना,ताकि तन्त्र-योग की यत्किंचित
भ्रान्तियां दूर होकर, किसी जिज्ञासु और अभ्यासी को मार्ग-दर्शन मिल सके। हां,यह
भी ध्यान रखना कि शब्दातीत,अकथ्य अनुभूतियों को कथ्य बनाने का दुष्प्रयास भी मत
करना। इससे न तुम्हें कोई लाभ है,न संसार को। ’’
इतना कह कह बाबा मौन हो गये। मैं नतमस्तक हो गया। बाबा काफी देर तक आँखें
बन्द किये, ध्यानस्थ रहे। फिर अचानक उठकर दरख़्त के पास गये। उसके मोटे तने को
प्रणाम कर किसी खास स्थान पर,किसी विशेष क्रम से हाथ फेरने लगे,जैसे कोई मां अपने
नवजात शिशु के शरीर पर हाथ फेर रही हो, कोई गुरु अपने शिष्य पर हाथ फेर रहा हो,या
गोद में पड़ा बच्चा मां के स्तन सहला रहा हो। हमने देखा- तने के मध्य भाग में छोटे
से कपाट की भांति एक स्थान खुल गया, भीतर इतना स्थान रिक्त दिखा,जिसमें सहजता से
एक आदमी प्रवेश कर, आसन लगा सके। बाबा उसमें समा गये। थोड़ी देर बाद वह कपाटनुमा
भाग स्वतः यथावत हो गया। हमदोनों की आँखें नम हो आयी बाबा को भावभीनी विदाई देकर।
भारीमन,बोझिल कदमों से वापस लौट आये। बाबा के निर्देशानुसार सारी
तैयारियां चलने लगीं- औषध और साधना भी।
ठीक तीसरे महीने गायत्री ने गर्भधारण किया,और उसके नौ महीने बाद, समय पर
एक दिव्य शिशु को जन्म दिया- एक योगिनी के संरक्षण-सहयोग से। हर्षातिरेक से बालक
का मुंख चूमती हुयी गायत्री ने कहा- ‘ ये देखिये...बाबा अवतरित हो गये...दोनों हाथ
और पैरों में अतिरिक्त अंगूठा...धन्य हो महात्रिपुरीश्वरी ! ’
(अचलासप्तमी,विक्रमाब्द२०७२) (१४ फरवरी २०१६)
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