ग्रहदोषपरिहार

ग्रह-दोष-परिहार
जन्मकुण्डली में नवग्रहों की यथास्थिति प्रायः फल-विचारकों को चिन्तित कर देती है। चिन्तित होना स्वाभाविक भी है,क्यों कि हमारा जीवन-चक्र इन्हीं ग्रहों के अधीन है। हालाकि ग्रह तो केवल निमित्त हैं- परमसत्ता के आदेशपाल मात्र । तथाकथित सुपथ-कुपथ चलने वाले जीवन-यान को वैधिक रुप प्रदान करना तो मनुष्य के स्वकर्मों के अधीन है- कर्म प्रधान विश्व करि राखा...
यहां  कोई ये तर्क  भी दे सकता है कि सब कुछ ईश्वराधीन है। उनकी मर्जी के बिना तो पत्ता भी नहीं डोलता- सबहीं नचावत राम गुसाईं... ; किन्तु यह आंशिक सत्य है। यह सही है कि सब कुछ भगवान करते-कराते हैं,किन्तु ये भी उतना ही सत्य है कि वे कुछ नहीं करते- वे एक द्रष्टा मात्र हैं,स्रष्टा हैं,नियोक्ता हैं। क्योंकि पूरी व्यवस्था के साथ- पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय,के साथ महेन्द्रिय- मन,और फिर उससे परे बुद्धि,और सर्वोपरि- विवेक से सुसज्जित करके हमें कर्मक्षेत्र में उतार दिया गया है,और सुदूर महदाकाश में विराजते हुये निर्विकार भाव से सिर्फ और सिर्फ द्रष्टा की भूमिका निभा रहे हैं। इससे आगे जो कुछ भी होता है, जो कुछ भी हो रहा है- हमारे कर्मों का परिणाम है। इससे भिन्न कुछ नहीं।
हम चोरी करते हैं,पकड़े जाते हैं। सजा होती है। इसका ये अर्थ नहीं कि सिपाही हमारा शत्रु है,या दण्डाधिकारी दुष्ट  है। वे सब तो अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं- चोर को पकड़ने और सजा देने की ड्यूटी। सूर्यादि नवग्रह भी यही कर रहे हैं- हमारे कर्मों का क्षण-क्षण का लेखाजोखा रखा जाता है,और उसके अनुसार ही आगे की जीवन-यात्रा तय होती है- आयु कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च,पञ्चैतानि सृजयन्ति विधाता गर्भमेव हि ।। जन्मकालिक ग्रह इसी बात का संकेत देते हैं कि जीवन में कब क्या कैसा व्यतीत होगा। पुनः हम अपने कर्मों से धक्के देकर आगत यानी प्रारब्ध कर्म को थोड़ा इधर-उधर सरका भर देते हैं,किन्तु समूल नष्ट नहीं कर सकते,क्यों कि अवश्यमेव भोक्तव्यं कृते कर्म शुभाशुभम्। जो भी शुभ या अशुभ कर्म  किये गये हैं- उन्हें तो भोगना ही पड़ेगा- आज भोगें या दो दिन बाद। किन्तु हां,एक अति विशिष्ट स्थिति भी आती है,और उसी का आधार लेकर लोग मान लेते हैं कि सबकुछ भगवान ही कराते हैं। परन्तु यह जान लें कि यह स्पेशल केस है,विशेष स्थिति है- हमारा स्तर,हमारा चिन्तन,हमारा कर्म जब पूर्णरुप से भगवदर्पण या भगवदर्थ हो जाता है,तब की वो स्थिति है। उसके पूर्व ऐसा कदापि नहीं होता। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणि- एक अति विशिष्ट स्थिति है।
खैर, ये हुयी कर्म-रहस्य की बातें। यहां कहना मैं ये चाहता हूँ कि कुण्डली के द्वादश भावों  में बैठे ग्रहों को देख कर चिन्तित न हों। बहुत बार ऐसा भी होता है कि वे निष्क्रिय या निष्फल तुल्य होते हैं। कौन से ग्रह कहां किस भाव में बैठे हैं,किसके साथ बैठे हैं- ये बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। ज्योतिषशास्त्र का एक बहुस्रुत श्र्लोक है- राहुदोषंबुधोहन्यादुभयोस्तु शनैश्चरः। त्रयाणां भूमिजो हन्ति चतुर्ण्णां दानवार्चितः ।। पञ्चानां देवमन्त्री च षण्णांदोषन्तु चन्द्रमा । सप्तदोषं रविर्हन्याद्विशेषादुत्तरायणे।। यानी राहु के साथ यदि बुध बैठे हों तो राहु का दोष नहीं लगता,राहु और बुध दोनों के दोषों को शनि का साथ होने पर नाश हो जाता है। राहु,बुध और शनि इन तीनों के दोषों का नाश मंगल के साथ होने से हो जाता है। राहु,बुध, शनि और मंगल इन चारों के दोषों का नाश दैत्यगुरु शुक्राचार्य कर देते हैं यदि साथ में हों। राहु,बुध,शनि,मंगल और शुक्र इन पांचों के दोष का नाश देवगुरु वृहस्पति करते हैं। राहु,बुध,शनि,मंगल,शुक्र और वृहस्पति इन छः ग्रहों के दोष को बलवान चन्द्रमा नष्ट कर देते हैं, और अन्त में कहते हैं कि सूर्य तो उक्त सभी ग्रहों के दोषों का नाश कर देते हैं- साथ में यदि विराज रहे हों,विशेषकर उत्तरायण यानि मकर,कुम्भ,मीन,मेष,वृष और मिथुन राशि पर कहीं भी हों तो और भी शक्तिशाली हो जाते हैं। अतः ग्रहों का दोष-बल विचार करते समय इन बातों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। ध्यातव्य है कि यहां केतु की चर्चा नहीं हुयी है। क्यों कि केतु को राहु में ही मानलिया गया है।
एक अन्य प्रसंग में कहा गया है- सभानुरिन्दुः शशिजश्चतुर्थे गुरुः सुते भूमिसुतः कुटुम्बे । भृगुःसपत्ने रविजः कलत्रे विलग्नतस्ते विफला भवन्ति ।। अर्थात्  सूर्य के साथ बैठे होने पर चन्द्रमा निस्तेज होजाते हैं,यानी उनका दोष नहीं लगता। चन्द्रमा के पुत्र यानी बुध चौथे घर में बैठे होने पर निस्तेज होते हैं। वृहस्पति पांचवें घर में और भूमि-पुत्र मंगल दूसरे घर में, भार्गव शुक्राचार्य छठे घर में निष्फल होते हैं,तथा रविनन्दन शनि कलत्र यानी सातवें घर में निष्फल होते हैं। किन्तु शनि की निष्फलता पर विशेष ध्यान ये देना है कि यदि वे अपनी राशि मकर और कुम्भ में होकर,या उच्चराशि  तुला के होकर, सातवें स्थान में बैठे हों,तो विपरीत गुणधर्मी होजाते हैं,यानी निष्फल होने के वजाय और भी प्रबल हो जाते हैं। अतः किसी भी प्रकार के फलकथन में इनका विचार अवश्य करना चाहिए।  अस्तु।

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