बाबाउपद्रवीनाथ का चिट्ठाःतन्त्रयोगसाधना

गतांश से आगे...पन्द्रहवां भाग

हमदोनों उठकर,गुफा के मुहाने की ओर मुड़े,जिधर से आये थे। किन्तु तभी, बाबा ने टोका- ‘ कोई जरुरत नहीं है बाहर निकलने की,सीधे यहाँ से भी हमलोग वहाँ पहुँच सकते है।’- कहते हुये बाबा खोह के पीछे वाली चट्टान पर हाथ रखते हुए,फिर उसी तरह कुछ मन्त्रोच्चारण करने लगे,जैसा कि अबसे पहले नीचे के दृश्य को दिखाते वक्त किया था। ऐसा करते ही, हमने देखा कि एक साथ दो कार्य सम्पन्न हो गये- एक छोटी सी शिला सरक कर इस मुहाने के मुँह पर आ लगी, जिससे वह अब वैसा भी न रहा कि कोई प्रयास करके प्रवेश कर जाये अन्दर मूर्तियों तक,और दूसरी ओर एक रास्ता भी बन गया,जिससे होकर आसानी से यहां से बाहर निकला जा सकता था। हमने झाँक कर देखा,सूर्य का धीमा प्रकाश कुछ छिद्रों से आरहा था। नीचे की ओर उतरने के लिए सीढियाँ तो नहीं बनी थी,किन्तु छोटी चट्टानें इस कदर थी कि सहज ही उन पर पाँव धर कर नीचे जाया जा सकता था।
बाबा आगे बढ़कर खोह में उतर गये। उनके पीछे गायत्री,और उसके पीछे मैं । चार-पाँच पायदान नीचे उतरने पर पतला-लम्बा सा सुरंग दीखा,जो सीधे दाहिनी ओर कुछ दूर तक गया हुआ था। सुरंग की ऊँचाई अधिक न थी, और न चौड़ाई ही। एक साथ दो मोटे आदमियों को चलना मुश्किल होता। हमलोग एक दूसरे के पीछे-पीछे चलने लगे। करीब पचास कदम चलने के बाद बाबा रुक गये, और हाथ के इशारे से बतलाये-      ‘ अब देखो,यहां आकर ये तिमुहानी बन रही है,यहां से दायें जाने पर कोई दो घड़ी लागातर पैदल चलोगे,तो असली नन्दजा के प्रांगण में पहुंचोगे। और बायीं ओर जाने पर सौ कदम के बाद ही कालीखोह आ जायेगा। ’
गायत्री ने कहा- ‘ भैया ! तुमने तो अभी कहा था कि नन्दजा, जो असली यशोदा-नन्दिनी हैं, वहाँ तक जाने का रास्ता बड़ा बीहड़ है और खतरनाक भी। फिर वहाँ तक कैसे चल कर दर्शन किया जाय ?’
‘ बस,इसी कारण तो तुमलोगों को इस गुप्त साधक-मार्ग से ले आया हूँ। इधर से वहाँ पहुँचना बिलकुल निरापद है। इस रास्ते से चल कर हमलोग सीधे यशोदानन्दिनी के गर्भगृह में पहुँचेंगे,और दर्शन करके पुनः इसी रास्ते वापस इस तिमुहानी तक आयेंगे। वैसे भी वह जगह बिलकुल सुनसान सा रहता है। ज्यादातर लोग उस स्थान को जानते ही नहीं,फिर भीड़-भाड़ होने का सवाल कहाँ है।’ कहते हुए बाबा हमलोगों के साथ  ही उसी ओर बढ़ चले। तिमुहानी से आगे बढ़ने के बाद रास्ता और भी संकीर्ण हो गया था। किन्तु अजीब बनावट था,सुरंग में भी अन्धकार का नामोनिशान न था। रौशनी किधर से आ रही थी,यह तो पता नहीं चल पा रहा था, किन्तु सूर्योदय से कुछ पूर्व जैसा उजाला सुरंग में सर्वत्र था। ताजी हवा भी मिल रही थी,बिलकुल ठंढ़ी-ठंढी,जबकि घड़ी के मुताबिक वक्त दोपहर का हो चला था।
कोई पौन घंटे लगातार चलने के बाद हमलोग रुके। सुरंग में ही अपेक्षाकृत थोड़ी चौड़ी जगह थी,जहाँ दायें-बायें दोनों ओर एक-एक चुँआड़ बना हुआ था। बाबा ने कहा- ‘ यदि प्यास लगी हो तो,उस दाहिने वाले चुँएं से जल निकाल कर पी सकते हो। बिलकुल ही स्वच्छ और शीतल है। वायीं ओर के चुँए में ठीक विपरीत गरम पानी मिलेगा। प्रकृति की अद्भुत लीला है- चार कदम के अन्तराल पर दो चुंए- एक शीतल एक उष्ण। किसी भी मौसम में यहां आओगे,जल इसी भांति भरा मिलेगा।’
बाबा के कहने पर हमदोनों ने जल पीया। मैंने देखा- बाबा अपने दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली से शीतल चुंए के जल का स्पर्श किया,और होठों से स्पर्श कर आगे बढ़ गये,यह कहते हुए कि चलो अब चला जाय। अब हमलोग बिलकुल करीब आ चुके हैं।
बाबा का हर काम रहस्यमय ही हुआ करता है। उनका यह जल-पान भी प्रश्न खड़ा कर दिया,किन्तु हर बात में टोक-टाक करना भी अच्छा नहीं लगता। अतः संकोचवश चुप ही रहा।
कोई दस मिनट बाद,हमलोग एक कक्षनुमा स्थान पर पहुँच गये। सामने की चट्टान पर बाबा ने हाथ फेरकर,मन्त्रोच्चारण करते हुए,उसी भाँति एक छोटे टुकड़े को खिसका दिया,जहाँ से होकर सीधे गर्भगृह में हमलोग पहुँच गये। घुटने भर की ऊँचाई वाले छोटे से चबूतरे पर कोई हाथ भर की मूर्ति बिराज रही थी- बिलकुल मोहक अन्दाज में- ऐसा लग रहा था मानों भयभीत बालिका आ दुबकी हो इस चट्टान की ओट में,और गर्दन टेड़ी करके,टोह ले रही हो अपने शत्रु का।स्थान बिलकुल ही संकीर्ण था,किन्तु नीरव, शान्तिपूर्ण। हमतीनों बैठ गये आसन मारकर। बाबा ने बताया- ‘ कृष्ण की साधना के लिए इससे बढ़िया और कोई स्थान क्या होगा? ये तो साक्षात् कृष्ण प्रेरित महामाया हैं। चलो एक काम करो तुमदोनों – करमाला की जानकारी है कि नहीं?’
गायत्री ने कहा- ‘ जानकारी तो है भैया,किन्तु अभ्यास नहीं रहने के कारण प्रायः भूल जाती हूँ कि पुरुष और स्त्री मन्त्रों के लिए भेद कैसे करुं । ’
गायत्री की बात से मैं जरा चौंका- पुरुष और स्त्री मन्त्र या कि पुरुष और स्त्री के लिए माला की भिन्नता- क्या कहना चाहती हो?
गायत्री मुस्कुरायी- ‘ लो भैया,अब इन्हें समझाओ जरा। इनको लग रहा है कि मैं कहना कुछ चाह रही हूँ, और कह कुछ और रही हूँ। ठीक कहते हो तुम- ये अखबार वाले बाल की खाल खींचते रहते हैं। इनको ये भी नहीं पता कि करमाला में किंचित स्थान भेद होता है- देवताओं के लिए और देवियों के लिए मन्त्र-जप करने हेतु।’
‘ गायत्री ठीक कह रही है- ये भी सही है कि मन्त्रों का भी लिंग होता है; किन्तु यहाँ उसकी बात नहीं हो रही है। वो तो और भी गहन विषय है। यहाँ बात हो रही है,सिर्फ देव-देवी मन्त्रों के जप की। मनकों वाली माला में जिस तरह सुमेरु की मर्यादा है,जिसका उलंघन सर्वथा वर्जित है; उसी भाँति यहाँ करमाला में भी तो सुमेरु का विचार होगा ही न। माला है तो सुमेरु भी होना ही है । गणना का प्रारम्भ तो देव या देवी किसी भी मन्त्र में दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली के मध्य पोरुए से ही करेंगे- यही १ हुआ,अनामिका का ही निचला पोर २,तथा अब कनिष्ठा के निचले को ३,मध्य को ४,अग्र को ५ गिनेंगे। पुनः अनामिका के अग्र पर आ जायेंगे ६ गिनकर,और अब मध्यमा के अग्र पर ७,मध्य ८,निम्न ९,और तर्जनी का निम्न १० के रुप में गणित होगा। इस प्रकार देखते हो कि तर्जनी का मध्य और अग्र अनछुआ ही रहा गया। इसका स्पर्श कदापि नहीं होना चाहिए जप के बीच। दस तक की गणना के बाद अंगूठे को अंगुलियों के जड़ों से सटाये हुए सरकाकर पुनः अनामिका के मध्य यानि निर्दिष्ट संख्या १ पर लायेंगे,और फिर उसी भांति २,३,४ गिनते हुए १० तक पहुँचेंगे। यहाँ इस बात का भी ध्यान रखना है कि अंगुलियों के पोरुओं का उलंघन कदापि नहीं होना चाहिए वापसी क्रम में। इस प्रकार १० की १० आवृत्ति हो जाने के बाद,शेष आठ के लिए दोनों ओर से एक-एक स्थान छोड़कर ही ८ की गणना करेंगे। इस प्रकार १०८ की करमाला पूरी हो गयी। इस करमाला का प्रयोग समस्त शक्ति (देवी) मन्त्रों के लिए किया जा सकता है। देवमन्त्रों के लिए प्रयुक्त करमाला में किंचित भेद है- गणना प्रारम्भ तो वहीं से करेंगे, फर्क सिर्फ सुमेरु का है। क्रमांक ७(मध्यमा का अग्र पोर)के बाद तर्जनी के अग्र पोरुये पर चले जायेंगे- ये ८ हुआ,९ के लिए तर्जनी का मध्य, और क्रमांक १० पूर्ववत ही रहेगा- तर्जनी का अन्तिम पोरुआ। इस प्रकार देवमन्त्रों की कर माला में मध्यमा का मध्य और अन्तिम पोरुआ सुमेरु होता है।’
मैंने प्रसन्न होते हुए कहा- ये तो बड़ी ही महत्त्वपूर्ण जानकारी दी आपने।
‘ महत्त्वपूर्ण तो है ही,अभी इसका कुछ और भी रहस्य जानो।’- बाबा ने कहा- ‘ वाम-दक्षिण दोनों साधना विधियों में इसका बहुत ही महत्त्व है। आमतौर पर अलग-अलग मन्त्रों के लिए अलग-अलग मालाओं की बात कही जाती है,जैसे- लक्ष्मी के लिए कमलगट्टा का माला,चन्द्रमा के लिए मोती,बगला के लिए हल्दी, दुर्गा-काली के लिए रक्त चन्दन,विष्णु के लिए तुलसी या मलयगिरि चन्दन। क्रूरकर्मों के लिए घोड़े के दांतों की माला का प्रयोग होता है,सौम्य कर्मों के लिए मोती या शंख की माला का प्रयोग बतलाया गया है। और ये सब कह करके भी, रुद्राक्ष को सर्वग्राहिता का स्थान भी दे दिया गया है। किन्तु करमाला का महत्त्व तो अवर्णननीय है- दक्षिण-वाम दोनों के लिए अत्यन्त जागृत माला है- यह तो सीधे नरास्थिमाला है न ! इसके महत्त्व और रहस्य का कितना हूँ बखान किया जाय कम ही है। अन्यान्य मालाओं पर हजार जपकरो,और करमाला को सिद्ध करके,एक माला जप करो,दोनों का फल समान है। ठीक उधर,जैसे कि वाचिक,उपांशु, और मानसिक जप का उत्तरोत्तर महत्त्व है। योग और तन्त्र में एक और भी रहस्यमय माला का प्रयोग होता है- मातृकामाला का। खैर उसकी चर्चा कभी बाद में की जायेगी। अभी तो तुमलोग इस करमाले का ही प्रयोग करो। कृष्ण-भगिनी के दरवार में आये हो, तो ध्यान और न्यासान्तर से नवार्ण के तीसरे बीज- क्लीँकार का स्मरण तो करना ही चाहिए न। इस महामन्त्र की महिमा तो पहले ही काफी कुछ बता चुका हूँ तुमलोगों को।’
‘ हाँ भैया ! कामदेवबीज की तो काफी चर्चा हुई है। तो क्या कृष्ण-न्यास-ध्यान सहित देव करमाला पर इसे कर लूँ? और फिर इसे ही न्यास-ध्यान भेद से देवी करमाला पर भी, ताकि कृष्ण के साथ-साथ माँ भारती या कहें यशोदानन्दिनी का भी स्मरण हो जाये ? ’- गायत्री ने सवाल किया।
बगल में बैठी गायत्री की पीठ ठोंकते हुए बाबा ने मेरी ओर देखते हुए कहा- ‘ देखा,मेरी बहना कितनी बुद्धिमती हो गयी है ? ’
मैंने मजाक में ताड़ते हुए कहा- अब आप पीठ ठोंक कर इसे इतना न बुद्धिमती बना दें कि हमें कुछ गदाने ही नहीं। वैसे भी धर्म-कर्म के मामले में हमें कमअक्ल ही समझती है।
‘ चलो कोई बात नहीं,बुद्धि की पिटारी मेरे पास रही कि तुम्हारे पास, क्या फ़र्क पड़ना है ! फिलहाल तो इस पर बहस बेकार है। अभी तो ध्यान-जप में लग जाओ।’
स्थान का प्रभाव,बाबा का सानिध्य,जगदम्बा की कृपा- कारण चाहे जो भी हो, ध्यान और जप में अद्भुत आनन्द आया। जिस न्यास का संकेत बाबा ने किया था,सच में न्यस्त हो गया मन-प्राणों में। अब से पहले भी कई बार न्यासों का प्रयोग किया था, किन्तु आज का न्यास झंकृत कर गया सम्पूर्ण कायसौष्ठव को। इस प्रकार करीब घंटे भर से अधिक गुजर गये वहीं,नन्दजा के दरबार में ही। गायत्री की इच्छा जरा भी न हो रही थी,यहाँ से चलने को। किन्तु अभी कालीखोह,और अष्टभुजी दर्शन बाकी ही है। अतः मन मसोस कर उठ खड़ा हुआ- तो अब चला ही जाय।
बाबा भी उद्दत हुए चलने को। पूर्व रास्ते से ही वापस चलते हुए उसी तिमुहानी पर पहुँचे,जहाँ से एक रास्ता मूलप्रकृति राधा-स्थान को जाती थी,और दूसरी ओर जाने पर कालीखोह।
यहाँ से कालीखोह बहुत करीब ही था। यहीं पर संकटमोचन स्थान भी है। कालीखोह कहने को तो खोह है,पर इससे अधिक खोहों से तो हमलोग अभी-अभी गुजर कर आये हैं। उसकी तुलना में यह कुछ भी नहीं। मां काली के स्थान में भीड़-भाड़ भी अपेक्षाकृत कम ही थी उस दिन। यहीं पास में ही एक गोस्वामी परिवार रहता था,जो बाबा का पुराना सम्पर्की जान पड़ा। देखते ही आगे बढ़कर बाबा को दण्ड-प्रणाम किया,और आदर सहित भीतर ले गया।
कुछ देर वहां गुजारने के बाद हमलोग कालीमन्दिर में आ गये दर्शन हेतु। माँकाली की दिव्य प्रतिमा बड़ी ही तेजपूर्ण प्रतीत हुयी। बाबा ने कहा- ‘ यहाँ भी थोड़ी देर आसन मार लो,और सप्तशती के प्रथम बीज का कम से कम एक माला जप कर लो। तृतीय बीज तक पहुँचाने में यह प्रथम बीज ही मार्गदर्शक बनता है। इस सम्बन्ध में एक बड़ा ही रोचक प्रसंग है- नारद-ब्रह्मा संवाद में। एक बार नारदजी अपने पिता ब्रह्मा के पास पहुँचे और साधना के गूढ़तम मन्त्र की दीक्षा हेतु निवेदन किये। प्रसन्नचित ब्रह्मा ने नारद की भक्ति से प्रमुदित होकर उन्हें सीधे वह अमोघ कल्याणकारी बीज मन्त्र प्रदान किया,जिससे रासेश्वरी के दिव्यधाम में सीधे प्रवेश मिलता है। प्रफ्फुलित नारद वहां से चल दिये,पिता प्रदत्त मन्त्र का मानस जप करते हुए।
‘देवर्षि नारद तो बहुधन्धी ठहरे। संसार के कल्याण हेतु,देवताओं के अटके काम बनाने हेतु प्रायः उनका ही सहयोग लिया जाता रहा है। ब्रह्माजी से विदा होने के थोड़े ही क्षण बाद नारद देव-कार्यों में व्यस्त हो गये,परिणामतः पिता द्वारा दिया गया बीज मंत्र विस्मृत हो गया। देवों का कार्य सम्पन्न करने के पश्चात् जब उन्हें ध्यान आया अपने उद्देश्य का तो बहुत ही व्याकुल हुए। पुनः पिता के पास निवेदन करने पहुँचे।
‘ इस बार ब्रह्माजी ने सप्तशती का प्रथम बीज उन्हें प्रदान किया,और साथ ही हिदायत किया कि लापरवाही में इसे भी भूल न जाना। पिता को प्रणाम कर नारद प्रसन्न चित्त वहाँ से प्रस्थान किये। पूर्व की भांति ही प्राप्त मन्त्र का मानसिक जप करते हुए। अभी वे ब्रह्मलोक की सीमा में ही थे कि उन्हें ज्ञान हो आया- अरे ! इस बार तो पिताजी ने कोई और ही मन्त्र दे डाला। या तो उन्हें देने में भूल हुई या कि...। ऐसा इसलिए हुआ कि इस बीच ब्रह्माजी द्वारा दिया गया पुराना मन्त्र- क्लीँबीज का स्मरण हो आया था। अतः तुरत पलट पड़े,पिता के श्रीचरणों में निवेदन करने।
’ इतनी जल्दी वापस आने का कारण पूछा ब्रह्मा ने। नारद ने कहा-  पिताजी ! आज जो मन्त्र आपने दिया मुझे, वह तो वह मन्त्र नहीं है,जो पहले दिया था, क्यों कि थोड़ी ही दूर जाने पर मुझे स्मरण हो आया उस पुराने मन्त्र का। क्या आपने भूल से ये नया मन्त्र दे दिया था ?”
नारद की जिज्ञासा पर पितामह ब्रह्मा ने कहा- नहीं मैं भूला नहीं हूँ। मैंने जानबूझ कर ये नया मन्त्र तुम्हें दिया हूँ। भूल तो मुझसे पहली बार हुई थी कि पुत्र-मोह में मैं वह महामन्त्र दे दिया था,जिसके तुम अभी अधिकारी ही नहीं हो। यही कारण है कि वह मन्त्र स्वयं ही भूल गये तुम।
‘ नारद ने नम्रता पूर्वक कहा- आपके दिये इस नये मन्त्र का निरंतर जप
करते हुए मैं मार्ग में चला जा रहा था,तभी अचानक मुझे भान हुआ कि पिछली बार तो आपने कुछ और ही मन्त्र दिया था, और फिर थोड़ा और एकाग्र होने पर उस महामन्त्र का स्वतः स्मरण भी हो आया।
‘ नारद की बात पर मुस्कुराते हुए पितामह ने कहा- यही तो विशेषता है इस ऐंकार बीज की। साधक को अभिज्ञानित कर देता है- अपने कर्तव्य का,और आगे का मार्गदर्शन भी करा देता है।
बाबा की बातों का रहस्य और संकेत मैं समझ गया। उनके कथन का अभिप्राय था कि हठात् क्लींकार की साधना करने से विचलन भी हो सकता है। ध्यान देने की बात है कि सप्तशती क्रम में भी इसके पहले दो और बीज आ चुके हैं। अति उच्चकोटि के साधक ही सिर्फ सीधे इस तीसरे बीज से साधना प्रारम्भ कर सकते हैं।
मैं गायत्री के साथ माँकाली के समीप आसन लगा लिया। बाबा पुनः बाहर निकल गये यह कहते हुए कि जप-ध्यान के बाद वहीं गोस्वामी के निवास पर आ जाना,फिर अष्टभुजी चला जायेगा।
कहने को तो बाबा ने कम से कम एक माला जप का ही आदेश दिया था,जो चन्द मिनटों का काम था,किन्तु जप के बाद ध्यान में तन्मयता ऐसी बनी कि घंटा भर समय गुजर गया,फलतः आशा देखकर,बाबा को ही वापस आना पड़ा।
‘ जागिये प्रभु !पीठ पर बाबा के मृदुल हथेली का स्पर्श पाकर आँखें खुली। बाबा पूछ रहे थे- कैसा रहा जप और ध्यान ? ”
            अवर्णननीय । कोई शब्द नहीं मेरे पास– मैंने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।
‘ बस,अब और कुछ नहीं। सांसारिक जंजालों से थोड़ा समय चुराकर,लग जाना है इसी धुन में। मौका मिला तो और भी कुछ मार्गदर्शन कर दूँगा इसी यात्रा में। साधना प्रारम्भ करने का विन्ध्याचल से अच्छा और कौन स्थान हो सकता है ? सौभाग्य से यहाँ पहुँच गये हो,और मातेश्वरी की कृपा से मैं पहले ही आ गया था यहाँ।’
‘हाँ भैया ! कुछ रास्ता दिखाओ इन्हें। इनका मार्ग अवरुद्ध है,जिसके कारण मेरे विकास में भी बाधा आती है। सीधे तौर पर कुछ करने से रोकते तो नहीं, किन्तु अज्ञानवश अनास्था है,और इस कारण साधना का उपहास करने में चूकते नहीं। इनका उपहास बहुत खल जाता है मुझे। मैं निराश हो जाती हूँ,कभी-कभी हताश हो जाती हूँ। ’- गायत्री ने शिकायत की।
‘ कोई बात नहीं। अब धीरे-धीरे सब दुरुस्त हो जायेगा। पहले अच्छे ‘काम’ की चिन्ता थी- सांसारिक निर्वहण के लिए। वह तो रासेश्वरी की कृपा से पूरी हो गयी। अतः अब ‘ धाम ’ की चिन्ता करो। कछुए की तरह समेटो संसार को,और चल पड़ो मूलधाम की यात्रा में ।’
मैंने बाबा के समक्ष दोनों हाथ जोड़कर निवेदन किया- जी ! आपकी कृपा बनी रहनी चाहिए,रासेश्वरी तक पहुँचाने का मार्ग तो स्वतः ही प्रशस्त हो जायेगा।
बाबा ने आँखें तरेर कर हाथ हिलाते हुए कहा- ‘ चतुराई न दिखाओ। केवल मेरी कृपा से कुछ होना-जाना नहीं है। मैं सिर्फ कदम बढ़ाने को प्रेरित कर सकता हूँ,गलत कदम न पड़ जायें- इसके लिए सावधान कर सकता हूँ; किन्तु जीवन-पथ पर चलना तो तुम्हें ही होगा न ? वो भी दृढ़ संकल्प पूर्वक,अन्यथा कोई दूसरा उपाय नहीं है।’
       
 दिन ढलने लगा था,जब हमलोग कालीखोह से बाहर निकले। थोड़ी चढ़ाई के बाद ज्यादा उतार ही उतार  था उसके आगे। अष्टभुजी पहँचते-पहुँचते अपराह्न के तीन बजने लगे। भीड़-भाड़ कोई विशेष नहीं था,इस कारण यहाँ भी शान्त और एकान्त मिल गया। छोटे से मोके जैसे स्थान में देवी की सुन्दर मूर्ति प्रतिष्ठित थी। वातावरण कालीखोह से भी अधिक सुहावना और आनन्ददायक प्रतीत हुआ। बाबा ने कहा- यहाँ भी थोड़ी बैठकी लगा लो,और सप्तशती के दूसरे बीज का जप कर लो।
        हम तीनों बैठ गये। आधे घंटे बाद ध्यान-जप से निवृत हुए तो, गायत्री ने अपनी अनुभूति की चर्चा छेड दी- ‘ भैया ! यूँ तो सभी स्थान एक से बढ़कर एक हैं, किन्तु न जाने क्यों यहाँ मुझे कुछ खास प्रतीत नहीं हुआ। सबसे आकर्षक और आनन्ददायक लगा था तुम्हारे उस गुप्तखोह वाली रासेश्वरी मूर्ति के पास। लगा कि एकदम रासेश्वरी की गोद में ही बैठी हूँ- दिव्य अनुभूतियों से आप्लावित होकर। उसके बाद कालीखोह का ध्यान-जप भी बहुत ही सुखद अनुभूति वाला रहा,किन्तु यहाँ वस वैसा ही जितना कि आमतौर पर घर में बैठने पर कभी-कभी एकाग्रता स्वतः बन जाती है। परन्तु एक बात मैं कहना चाहूँगी कि जो अनुभूति प्रयाग के भारद्वाज आश्रम में मिली,वो और कहीं नहीं,उसका स्वाद ही कुछ और था। मैं तब से ही आपसे वार्ता के लिए लालायित हूँ। आखिर क्या देखा-अनुभव किया मैंने ?
गायत्री की बातों को मनोयोग पूर्वक सुनते हुए बाबा ने कहा- ‘ क्रिया में तन्मयता का तो महत्त्व है ही,किन्तु स्थान का भी अपना योगदान होता है- प्रभाव होता है। ये सब स्थान अपेक्षाकृत अधिक सार्वजनिक हो गये हैं। यहां का आभामंडल कई तरह से प्रभावित है,किन्तु वो जो दो स्थानों पर मैं ले गया, अपेक्षाकृत बहुत अधिक चैतन्य है। मूलप्रकृति का स्थान तो अतिशय दिव्य है ही। वैसे भी वहाँ आमजन का प्रवेश असम्भव है। साधकों में भी बहुत कम ही हैं,जो वहाँ तक जाते हैं,या कहें जा पाते हैं। वो तो मेरे गुरुमहाराज की कृपा है कि सभी दिव्य स्थानों का भ्रमण करा दिया है उन्होंने। उनके साथ विध्याचल के अन्तः त्रिकोण,जो कि अन्दर झांक कर मैंने तुमलोंगों को दिखलाया,की कई बार यात्रायें पूरी की है, मैंने उनके मार्गदर्शन में। आज भी तुमलोंगो के साथ होने के बजह से बाहर-बाहर चल रहा हूँ ज्यादातर,अन्यथा इधर बाहरी मार्ग से कभी आता भी नहीं हूँ। भीतरी गुप्त मार्ग से पूरे त्रिकोण की यात्रा के योग्य अभी तुमलोगों का शरीर नहीं हुआ है। फिर भी जहां तक सम्भव था,तुमलोगों को दिखा दिया। अकेले उन मार्गों में जाने का कभी प्रयास भी न करना,वरना बहुत परेशानी में पड़ जाओगे,जान भी जा सकती है। ’
थोड़ी देर और,अष्टभुजी के पास रुकने के बाद,चल पड़े त्रिकोण-यात्रा के अन्तिम पड़ाव- पुनः गंगा किनारे वाली विन्ध्यवासिनी मन्दिर की ओर। रास्ते में गायत्री ने पुनः अपनी बात छेड़ी। उसके मन में कई तरह के सवाल चल रहे थे,रात सोते समय भी उन्हीं खयालों में वह डूबी रही थी। जब तक जगी रही मुझसे घुमा-फिरा कर भारद्वाज आश्रम की अनुभूतियों की ही चर्चा करती रही थी। प्रयाग का प्रसंग अभी भी उसका पीछा नहीं छोड़ा था- सारे प्रश्न एक साथ बाबा के समक्ष रख कर उसका उत्तर चाह रही थी। सवाल तो मेरे पास भी थे,जिसमें सर्वाधिक उत्सुकता पैदा किये हुए था- ध्यान में बाबा का दर्शन और घंटे की तीव्र ध्वनि।
अष्टभुजी से बाहर निकलते ही मैंने पूछ दिया बाबा से- ‘ महाराज ! भारद्वाज आश्रम में मैं एक अद्भुत दृश्य देखा,उसके विषय में कुछ सवाल घुमड़ रहे हैं मेरे मस्तिष्क में।’
मुस्कुराते हुए बाबा ने कहा- ‘ तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा,किन्तु साधना जगत के लिए यह बहुत ही सामान्य सी बात है। क्षणिक रुप से कहीं व्यूह रचना कर देना,स्वयं को आभाशित कर देना,कोई बहुत बड़ी बात नहीं। धारणा की गहराई में थोड़ा उतरते ही ये सब होना सम्भव है। अब उस बार जैसे तुम्हारे नये दफ्तर में मैं अचानक पहुँच गया था,और तुम्हें आश्चर्य हुआ था- इस विषय पर तो मैं काफी कुछ समझा गया था तुमलोगों को,बस उसी का थोड़ा विकसित रुप समझो। हाँ,इस तरह से व्यूह-रचना करके अधिक देर तक कहीं रुके रहना,या रोकना साधकों के लिए उचित नहीं है। अन्ततः मैं भी तो अभी साधक ही हूँ न,कोई सिद्ध तो हुआ नहीं। जिस प्रकार दो दिनों से निरंतर तुम्हारी चेतना मुझे याद कर रही थी,और तुम्हें साधना का कुछ भी अभ्यास न होने के बावजूद, तुम्हारा संदेश मुझ तक पहुँच गया,उसी भांति अपनी चेतना को थोड़ा गहरे में ले जाकर,मैंने भी वह दृश्य दिखाया। भारतीय साधना पद्धति में एक से एक अद्भुत चीजें है ऐसी। इस सम्बन्ध में झ़ेनसाधकों के बारे में थोड़ी चर्चा अप्रासंगिक न होगी। जापान में साधकों का एक वर्ग है,जो अद्भुत साधनायें करता है। गुरु अभ्यास कराता है- आँखें बन्द करके हरियाली,रौशनी,अन्धकार आदि का अनुभव करना तो बहुत आसान है, किन्तु सर्दी-गर्मी का भी,भय,आनन्द, हास्य, लज्जा आदि मनोंभावों का भी अभ्यास कराया जाता है। कल्पना करो कि तुम्हें सर्दी लग रही है,कल्पना करो कि तुम्हें गर्मी लग रही है। और यह कल्पना एकदम घनीभूत हो जाती है। एकान्त निर्जन स्थान में भूत-प्रेत हों या नहीं,उसकी याद मात्र ही रूह कंपा देती है,दुर्बल इन्सान की। आनन्द का स्रोत समीप हो या नहीं,कल्पना मात्र से ही हम आनन्दित हो उठते हैं। उसी भांति सर्दी-गर्मी की गहन अनुभूति भी करनी होती है साधकों को। साधक कितनी गहराई में उतरने में सक्षम है- यह उसकी दैहिक स्थिति से कोई अन्य भी भांप सकता है। सर्दी लग रही है,तो शरीर कांपने लगेगा,गर्मी लग रही है तो शरीर पसीने से लथपथ हो जायेगा। तुम्हें सुन कर यकीन नहीं होगा- जापानी झेन साधकों में अन्तिम परीक्षा की घड़ी आती है,तो ऊष्मा की ऐसी गहन अनुभूति करनी होती है कि सिर्फ पसीना ही नहीं निकलता,बल्कि शरीर पर फफोले भी निकल आते हैं। और तब जाकर गुरु का आशीष मिलता है। तब उसे आगे की साधना सिखलायी जाती है। मन्त्र जपते-जपते,ध्यान करते-करते साधक स्वरुपवान होने लगता है- उसे वही कुछ दीखने लगता है- जो वह देखने का प्रयास करता है। प्रारम्भ में तो बहुत सी अवांछित, अपरिचित चीजें भी दिखलायी पड़ती हैं। कभी-कभी साधक भयभीत भी हो उठता है। विचलन भी होने लगता है। इसलिए पग-पग पर योग्य गुरु की आवश्यकता प्रतीत होती है। ठीक है कि कोई परेशानी न हो, किन्तु यदि होगी,तो फिर उसे सम्हालेगा कौन- यदि गुरु का सानिध्य न हुआ। यही कारण है कि विशेष साधना में चाहे वह तन्त्र की हो या कि योग की गुरु दीक्षा,और गुरु सानिध्य आवश्यक है। हाँ,सानिध्य की अपनी सीमा और स्थिति भी है। कोई जरुरी नहीं कि हमेशा गुरु बगल में बैठा ही रहे,किन्तु जरुरत पड़ने पर आसानी से प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्पर्क साधा जा सके- इतना ज्ञान तो होना ही चाहिए। साधना जगत में प्रायः ऐसा भी होता है कि गुरु स्थूल शरीर में हो,ना हो,शिष्य को उसका सानिध्य मिला करता है, वशर्ते कि उसकी शारीरिक,मानसिक क्षमता उस योग्य हो।’
जरा दम लेकर बाबा कहने लगे- ‘ ये बड़े सौभाग्य की बात है कि हमलोग बिहारी हैं । ये बिहार नामकरण तो बौद्धकालीन संस्कृति के प्रभाव से हुआ है। किन्तु मगध, चेदि, कुण्डिनपुर,राजगृह आदि और भी प्राचीन नाम हैं, जो इसी क्षेत्र में हैं। कृष्ण-पुत्र शाम्ब ने शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को अपने राज्य का यही हिस्सा विशेष कर प्रदान किया था। सच पूछो तो समूचा प्रान्त ही साधना स्थली है। साधना से यहां सिर्फ तन्त्र-योग ही मत समझ लेना,महान ज्योतिर्विद आर्यभट्ट का खगोलशाला (वेधशाला) पाटलीपुत्र के समीप खगौल ही रहा है,जो वर्तमान में दानापुर खगौल के नाम से ख्यात है। खासकर इसका मगध क्षेत्र एक से एक साधकों का गढ़ रहा है। मगध के ही वर्तमान औरंगाबाद जिले के एक साधक की घटना तुम्हें सुना रहा हूँ। औरंगाबाद के पास भैरवपुर की पहाड़ियों में भी कई गुफाएँ हैं,जो साधकों के लिए बड़े उपयोगी है। वहीं महाभैरव के एक साधक साधना रत थे।’
अचानक गायत्री पूछ बैठी - ‘ भैया ! ये ‘भैरव’ भैरवी साधना वाले या कि कोई और हैं?’
बाबा ने स्पष्ट किया- ‘ शक्ति के कई स्वरुप हैं। शक्ति हैं तो उनके भैरव भी होंगे ही। वहां भैरवी साधना में साधक-साधिकायें स्वयं को उस रुप में स्थापित कर, कामजयी होकर,साधना करते हैं। वह साधना हमेशा भैरवीचक्र में की जाती है, जहाँ साधकों का समूह होता है; किन्तु ये भैरव-साधना की बात कर रहा हूँ,न कि भैरवी साधना की। यहाँ साधक एक साधक के रुप में अकेले,एकान्त में होता है, और भैरवमन्त्र की साधना करता है। ये साधना तीन,सात, नौ, अठारह, इक्कीस,या तैंतीस दिनों की होती है। साधना सम्पन्न हो जाने पर,परीक्षा-काल में महाभैरव अपने रौद्ररुप में,अति भयंकर आकृति में साधक को दर्शन देकर मनोवांछित वर प्रदान करते हैं। ये भैरव भी मुख्यतः आठ प्रकार के होते हैं- कालभैरव, बटुकभैरव, महाभैरव आदि। भैरवपुर नामक स्थान खास कर इस साधना के लिए किसी जमाने में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। इन्हीं की साधना में वे बिहारी द्विज महाशय संलग्न थे। सत्रह दिनों की क्रिया पूरी हो चुकी थी। बस अब अन्तिम चरण का जप पूरा करना था। एकान्त गुफा में सतत साधना-लीन विप्र ने अचानक देखा कि विशाल गुफा के बाहर पीपल का एक दरख्त है। गर्मी की दोपहर ,चारों ओर सुनसान,भांय-भांय करती लू चल रही है। वैसे भी बिहार प्रान्त गर्मी की जानलेवा लहरों के लिए प्रसिद्ध है। पहाड़ियाँ गरम होकर और भी कष्टप्रद हो जाती हैं। वैसी ही भीषण गर्मी से बचने के लिए नटों का एक परिवार वहाँ आकर दोपहरी में टिक गया। पंडित जी की आँखें खुली उनकी आहटों से, तो मन ही मन भुनभुनाये- हूँ, इन चांडालों को भी आज ही आना था,और यही जगह मिली थी खेमा गाड़ने को। किन्तु कर ही क्या सकते थे। साधना से उठ कर उन्हें मना भी तो नहीं किया जा सकता,और क्या जरूरी है कि वे मान ही जाए...।
‘...खैर,पंडितजी को इतना ही संतोष था कि वे एकान्त गुफा में थे,और गुफा भी अन्धेरी थी। बाहर पीपल के पास चहल-पहल करते नटों को इनके बारे में कुछ पता चलना नामुमकिन है। सो वे अपने काम में लगे रहे। किन्तु ध्यान तो किंचित विचलित हो ही चुका था। जप करते हुए ही,उनकी गतिविधियों पर भी ध्यान बना हुआ था। सबसे पहले उनलोगों ने खूंटा गाड़ कर अपने दो-तीन भैंसों को बांधा, उन्हें कुछ चारा डाल दिया,और वे अपने लिए खेमा गाड़ने लगे। फिर बड़ी सी खंती से मिट्टी खोद कर,छोटा गड्ढा बनाया,चूल्हे के लिए। चूल्हा जल गया,हाड़ी चढा दी गयी। बस थोड़ी ही देर में भोजन भी तैयार हो जाना था। इसी बीच उनके साथ का एक आठ-नौ साल का बच्चा अचानक रोने-चीखने लगा। माँ ने रोने का कारण पूछा,तो उस बच्चे ने कहा कि जोरों की भूख लगी है,बहुत दिन हो गये कुछ खाया-पीया नहीं हूँ। खाना पकने में अभी बहुत देर है,पेट में कलछुल फिर रहा है,बहुत जोर का दर्द है...।
‘...माँ ने कहा कि ज्यादा तकलीफ है,तो तब तक भैंस के बच्चे को ही खाले, कुछ राहत मिल जायेगी। माँ के आदेश का पालन करते हुए बच्चे ने चमचमाता हुआ बलुआ (लोहे की गड़ासी) उठाया,और एक ही बार में भैंस के पाड़े का काम तमाम कर दिया। और फिर उसे नमक-मिर्च की भी जरुरत न महसूस हुई,कच्चे ही चबा गया, थोड़ी देर में। पाड़ा खाकर,कुछ देर तो शान्त रहा बच्चा,पर फिर शोर मचाना शुरु किया। इस बार माँ ने कहा कि पाड़े से पेट नहीं भरा तो एक भैंसा ही खाले। बच्चे ने वही किया,जो माँ ने सुझाया,किन्तु इससे न बच्चे की क्षुधा तृप्त हुई,और न माँ का अगला आदेश ही रुका। परिणाम ये हुआ कि घड़ी-दो घड़ी में ही तीनों भैंसे हजम कर गया,और अब बारी थी बाप(नट)की,क्योंकि माँ ने उसे ही खाने का आदेश दे दिया था। थोड़ी ही देर में बाप भी उसकी जठराग्नि की आहुति चढ़ गया, पर छटपटाहट जारी ही रही। माँ ने झल्ला कर कहा- अब क्या मुझे खायेगा? बच्चे ने कहा- नहीं माँ तुझे कैसे खा सकता हूँ,तुम तो मेरी माँ हो,परन्तु मुझे आश्चर्य होता है कि इतना कुछ खिला दी तुम,और वो गुफा में दुबका बैठा पंडित तुम्हें नजर नहीं आया? उसे पहले ही खा लिया होता तो मेरी ये दुर्दशा न होती। पाड़ा,भैंस,भैंसा,बाप सब बच गये होते। बच्चे की बात पर माँ बहुत खुश हुई, और बोली- अरे हाँ,मुझे ध्यान ही नहीं आया कि वहाँ एक पंडित बैठा है। वह तो तुम्हारा सबसे प्रिय भोजन हो सकता है। - माँ का आदेश मिलना था कि बच्चा दौड़ पड़ा बलुआ चमकाते गुफा की ओर। पंडितजी के तो होशोहवाश उड़ गये। कहाँ माला,कहाँ आसन...फेंक-फाँक कर दौड़ पड़े बाहर,और फिर दौड़ते ही रहे काफी देर तक,जब तक कि एक ग्रामीण ने जबरन उन्हें दबोच न लिया। दरअसल पिछले कई दिनों से घर-परिवार उनकी खोज में वेचैन था।’
‘तो क्या पंडितजी सच में डर गये उस नट से?’-गायत्री ने पूछा।
‘क्यों नहीं डरते। डरना स्वाभाविक था,किसी के पीछे कोई बलुआ लेकर दौड़ेगा तो भय तो होना ही है न, और वो भी ऐसा व्यक्ति जो तीन भैंस और अपने बाप को भी खा चुका हो।’- गायत्री के संशय को दूर करते हुए मैंने कहा। किन्तु बाबा मुस्कुराये मेरी बातों पर,और बोले- ‘ क्या समझते हो सच में ऐसा कुछ था, या हो रहा था? नहीं, ऐसा प्रत्यक्ष कुछ भी नहीं था। ये सब साधना की परीक्षा थी। महानट तो भोलेनाथ हैं- महाभैरव,और महाभैरवी हैं उनकी सहधर्मिणी भगवती। सारा प्रपंच उन्हीं का है। ये जो वटुकभैरव हैं उन्हीं की विभूति हैं। साधक की परीक्षा हो रही थी,जिसमें वह अनुतीर्ण रहा। भैरव की साधना करने वाले को मृत्यु का भय सता ही दिया तो फिर सिद्धि की कल्पना ही क्यों? सिद्धि तो मिली नहीं, ऊपर से मिला आजीवन पागलपन। लम्बे समय तक वह साधक विक्षिप्त सा जीवन गुजार कर इहलीला समाप्त किये।’
भैरवसाधक की करुण कथा सुन कर,बड़ा अजीब लगा। इस घटना से यह भी ज़ाहिर होता है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से,स्थूल न भी हो,तो सूक्ष्म रुप से गुरु अनिवार्य है। गुरुपरम्परा नामक प्राचीन ग्रन्थ में गुरुओं की महिमा और परम्परा का विशद वर्णन मिलता है। संयोग से एक बार इस पुस्तक को गायत्री के मैके में,यानी कि अपने ससुराल में पढ़ने का अवसर मिला था,जिसमें बहुत सी रहस्यमय बातें थी साधना सम्बन्धी,किन्तु किसी योग्य व्याख्याता के अभाव में अधिक कुछ जान समझ न सका।
बाबा ने गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डालते हुए आगे कहा- ‘ योग्य गुरु का सच में अभाव सा हो गया है,और दूसरी ओर ये भी कह सकते हो कि योग्य शिष्य का भी उतना ही अभाव है,या कहो, और अधिक। आजकल तो ये गुरुपरम्परा विशुद्ध बाजारवादी हो गया है। मठों,आश्रमों का बाजार है,जहाँ भावनाओं से खिड़वाड़ हो रहा है। आप जितने भावुक हैं,ठगे जाने की उतनी ही गुंजाइश है। आस्था और धर्म के नाम पर ठगी का धंधा चल रहा है। ये न समझना कि सिर्फ शिक्षा के स्तर में ही गिरावट आयी है,साधना का स्तर उससे भी अधिक नीचे गिरा है। साधना की प्रथम भूमि का भी जो अधिकारी नहीं है,उसे भी तीसरी क्या सीधे पांचवीं भूमि में घोषित कर दिया जा रहा है। पहले ज्ञान की श्रुति परम्परा थी, साधना भी इसी परम्परा से चलती थी। आजकल पुस्तकें हो गयी हैं,और उससे भी खतरनाक हो गया है इन्टरनेट। ज्ञान बरसाती मेढक सा उछल रहा है चारो ओर; किन्तु समझ रखो कि ये ज्ञान नहीं है, ये सिर्फ फिजूल की जानकारियाँ हैं- जानकारियों का गट्ठर...। टॉनिक की किताब पढ़ कर कोई तन्दुरुस्त नहीं हो सकता। उसके लिए अच्छी कम्पनी की बनी दवा का सेवन करना होगा...।’
          बाबा की बात पर बीच में ही टोकते हुए मैंने कहा- पिछले कई मर्तबा मन में उबाल आया,गायत्री भी हमेशा प्रेरित करती रही- कहीं चल कर दीक्षा लेने के लिए, किन्तु सन्तोष जनक कोई मिला नहीं। बारीकी से छानबीन करने पर सबके सब ढाक के तीन पात ही नजर आये। अब भला सैकड़ों दुर्गुणों का पिटारा, गुरु के प्रति आजीवन श्रद्धा कैसे बनी रह सकती है !
बाबा ने कहा- ‘ ठीक कह रहे हो। अच्छा किये कि कहीं फंसे नहीं। साधना-क्षेत्र का नियम है कि शिष्य बनाने से पूर्व छःमाह परीक्षा करनी चाहिए, और गुरु बनाने के लिए कम से कम एक साल तो परीक्षा करनी ही चाहिए। परन्तु आज इसके लिए न गुरु के पास वक्त है,और न चेले के पास। और सबसे बड़ी बात है कि परख की दृष्टि का सर्वथा अभाव है। और जब परख की कला ही नहीं तो, परखेगा क्या खाक ! आजकल तो एक और नया ट्रेन्ड चल पड़ा है- संयम-परहेज के नाम पर कुछ नहीं। गुरुजी चेलों की भीड़ बटोरने के चक्कर में सीधे कह देते हैं- ये लो मन्त्र और शुरु हो जाओ....धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा। क्या खाते हो,क्या करते हो...इससे कोई खास मतलब नहीं। क्यों कि गुरुजी को पता है कि नियम-संयम चेलों से सधना नहीं है,और न उसे साधना की सच्ची प्यास ही है। दरअसल गुरुजी को चेला चाहिए,और चेला को एक नया चोला..। सम्प्रदायों की रेवटियां गड़ी हैं। असंख्य सम्प्रदाय पैदा हो गये हैं। एक ही विषय को तोड़-मरोड़ कर नये सम्प्रदाय की स्थापना कर ली गयी है,नया साइनवोर्ड- तिलक,दंड,विभूति आदि अपना लिए गये हैं। अब भला इन दुकानदारों को कौन समझाये कि अध्यात्म को इन साइनवोर्डों से कोई मतलब नहीं है। हम कौन सा तिलक लगा रहे हैं,किस माला पर जप कर रहे हैं,आसन क्या है- इससे असली अध्यात्म को कुछ भी लेना-देना नहीं है। ईश्वर एक है,रास्ते अनेक ,राही भी अनेक। कालान्तर में ये अनेक पगडंडियां ही थोड़ी चौड़ी हो गयी हैं,और स्वतन्त्र पथ (पंथ)की घोषणा कर बैठी है- अपनी-अपनी मर्जी से।’
बातें करते हमलोग गंगाकिनारे वाले विन्ध्यवासिनी मन्दिर पहुंच गये। इस समय संयोग से भीड बहुत कम थी, अतः लम्बी लाइन में लगना न पड़ा। बगल में एक खिड़की बनी है। वहीं से आसानी से दर्शन हो गया।उस समय इसके बारे में जानकारी ही नहीं थी,और न बाबा ने ही बतलाया।
          दर्शन करने के बाद गायत्री ने पूछा - ‘ अब तो त्रिकोण का नियम पूरा हो गया न भैया? अब आगे क्या करना है? ’
         बाबा ने कहा- ‘ करना क्या है,सूर्यदेव भी अस्ताचल को उत्सुक हैं। अतः हमलोग भी वापस चलें अपने स्थान पर।’
   
           तारा मन्दिर पहुँचते-पहुंचते अन्धेरा हो गया था। हमलोग को अपने कमरे में विश्राम के लिए कहकर,बाबा सीधे चले गये वृद्धबाबा की कुटिया की ओर,यह कहते हुए कि घंटे भर बाद भोजन-कक्ष में तो मिलना होगा ही।
            मुंह-हाथ धोकर अभी बैठा ही था कि बाल्टी में ताजा पानी,और दो दोने में प्रसाद लेकर वाजू आया।
            ‘ आपलोग आज सारा दिन घूमते रहे। थकान हो गयी होगी,और भूख भी लगी होगी। तबतक प्रसाद पायें। भोजन भी जल्दी ही तैयार हो जायेगा।’
            प्रसाद की मात्रा कल से भी अधिक ही थी। कहने को तो सारा दिन घूमना हुआ, किन्तु थकान लेशमात्र भी न थी, और न भूख की ही खास तलब थी।
            गायत्री रासेश्वरीस्थान की चर्चा छेड़ दी- ‘ आज के भ्रमण में रासेश्वरीस्थान और नन्दजा की अनुभूति अद्भुत रही। ऐसा अनुभव तो भारद्वाज आश्रम में भी नहीं हुआ था। भैया ने जो नीचे का सुरंग दिखलाया,उधर जाने को मन ललच कर रह गया। वहाँ से कालीखोह जाने में जो सुरंग मिला,कुछ इसी तरह का सुरंग कैमूर जिले के गुप्ताधाम में भी है। लम्बाई बहुत अधिक तो नहीं है वहाँ की, किन्तु बनावट हू-ब-हू वैसी ही लगी मुझे। बहुत पहले एक बार पिताजी के साथ गयी थी वहाँ। अब तो सुनते हैं, भक्तों ने काफी कुछ इन्तजाम कर दिया है। फाल्गुन शिवरात्रि मेले के समय जेनरेटर से बिजली भी दी जाती है,बाकी समय तो भुच्च अन्धेरा रहता है। पहाड़ की चढ़ाई भी बहुत ही बीहड़ है। जरा भी चूक हुई कि
सैकड़ों फीट नीचे खाई में गिर कर जान गँवानी पड़ेगी।’
ये वही स्थान है न जहाँ भस्मासुर को वरदान देने के बाद,उसके डर से भोलेनाथ भागने लगे थे?
‘ हाँ,वही स्थान है। दुनिया के लोगों पर विपत्ति आती है तब आशुतोष शिव उसका त्राण करते हैं,किन्तु उनका पीछा, उनका ही वरदान विपत्ति का दैत्य बनकर करने लगा, तो उससे रक्षा करने हेतु मोहिनीरुपधारी विष्णु को आना पड़ा। बड़ा ही निराला खेल है- इन लोगों का- शिव और विष्णु की एकरुपता और बहुरुपता अच्छे-अच्छों को उलझन में डाल देती है। तुलसी बाबा ने तो यहाँ तक कह दिया है- शिव द्रोही मम दास कहावा,सो नर मोहि सपनेहुं नहीं भावा - शिव से द्रोह करे,और राम से प्रीति-ये कदापि सम्भव नहीं। न शिव खुश होगें और न विष्णु। सच पूछो तो इन दोनों में जरा भी भेद कहाँ है ! आमजन यूं ही पचरे में पडे रहते हैं,और भ्रमित होते हैं।’-गायत्री ने गुप्तेश्वरशिव की महिमा का बखान करते हुए कहा- ‘ तुम तो कभी उधर गये भी नहीं हो,किन्तु बहुत पहले मेरा एक बार जाना हुआ है। सासाराम के दक्षिण-पश्चिम कोण पर स्थित चेनारी के पास की पनारी पहाड़ी से लगभग आठ मील की पूरी चढ़ाई है। बीच में सुगिया पहाड़ी तो और भी खतरनाक है। वहाँ से भी डेढ मील करीब और जाना होता है,जहाँ विष्णु के मोहिनी माया के वशीभूत भस्मासुर अपने ही सिर पर हाथ रख कर भस्म हो गया था, और इस प्रकार भोलेनाथ का वरदान फलित हुआ था। ’
मैंने गायत्री को बीच में ही टोका- ‘ कह ही रही हो तो विस्तार से कहो, क्या है पूरा प्रसंग। भस्मासुर का नाम तो सुना हूँ। गुप्तेश्वर महादेव की भी चर्चा अकसर यहाँ सुनता हूँ। खास कर फाल्गुन महीने की महाशिवरात्रि को बड़ा मेला लगता है वहाँ, किन्तु कभी जाने, देखने का सौभाग्य नहीं हुआ है। सुनते हैं आजकल उस पूरे क्षेत्र पर अपराधियों का कब्जा है। और अपराधी भी उच्च तबके के,जिनपर दोनों राज्य- बिहार और उत्तरप्रदेश की सरकार को भी घुटने टेकना पड़ता है। आमजन के लिए जरा भी निरापद नहीं रह गया है।’
‘ तुम भी यही बात बोलते हो? सरकारें घुटने नहीं टेकती,वो तो अपराधियों को कंधे पर  बिठाकर घुमाती हैं। उन्हीं के बूते तो इनकी गद्दी आबाद रहती है। खैर, फिलहाल छोड़ो इस राजनैतिक पचरे को। पता नहीं आजकल क्या स्थिति है वहाँ की, किन्तु मैं जिस समय गयी थी, ऐसा कुछ नहीं था। बहुत ही अमन-चैन था। रास्ते में ही कुसुमा नामक एक गाँव है- पहाड़ी पर ही। वहीं किसी परिचित के यहाँ पिताजी ठहरे थे। रात भर विश्राम करने के बाद अगले दिन वहाँ गये थे हमलोग। पिताजी ही भस्मासुर की कहानी सुनाये थे- पौराणिक प्रसंग है कि एक असुर ने शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया। दर्शन -लाभ कराकर शिव ने वर मांगने को कहा, जिसके उत्तर में उसने कहा कि जिसके सिर पर हाथ रखूँ, वह तत्काल ही भस्म हो जाय। आशुतोष भोलेनाथ तो भोलाभाला हैं ही। बिना कुछ मीन-मेष के तथास्थु कह डाले।भस्मासुर तो आसुरि प्रवृति का था ही, छल-कपट,प्रपंच की प्रतिमूर्ति। शिव की बात पर उसे सहज ही भरोसा क्यों कर होता ? इस कारण वह शिव के माथे पर ही हाथ रखने के लिए आगे बढ़ा,ताकि वरदान की सार्थकता प्रमाणित हो सके। उसकी इस हरकत से शिव घबरा उठे,और पीछे सरककर भागने लगे। उस मूर्ख को शिव की इस स्थिति पर भी भरोसा नहीं हुआ,कि बात सच है,इसलिए शिव भाग रहे हैं। उसे लगा कि वरदान गलत प्रमाणित होगा,इस कारण शिव भाग रहे हैं। अतः वह भी दौड़ने लगा उनके पीछे-पीछे।
‘ इधर शिव की परेशानी देख सारा देवलोक घबरा उठा। प्राणीमात्र का कल्याण करने वाले शिव का कल्याण कौन करे ! आखिरकार, भगवान विष्णु के शरण में जाकर सभी देवता निवेदन किये। विष्णु ने तत्काल प्रस्थान किया, जहाँ भस्मासुर शिव का पीछा कर रहा था। उन्होंने अचानक अतिसुन्दर नारी का मोहिनी रुप धारण किया,और भस्मासुर से पूछा- क्या बात है,कहाँ भागे जा रहे हो? बड़े चिन्तित लग रहे हो? ” उसने अपनी चिन्ता का कारण बताया,क्यों कि उसे शिव के आश्वासन पर भरोसा नहीं था।’
गायत्री की बात पर मैंने हंसते हुए कहा -‘ मुझे तो लगता है कि उसे किसी लोकतान्त्रिक नेता ने धोखा दिया होगा,वोट लेने के लिए कुछ का कुछ वादा किया होगा, और फिर उधर झाँकने भी न आया होगा। तभी से उसे किसी पर भी भरोसा नहीं हो रहा होगा। आखिर इतना खून-पसीना जलाकर,तपस्या किया,और वरदान भी न जाँचे- यह तो उसका संवैधानिक अधिकार बनता है।’
गायत्री ने जरा तुनक कर कहा- ‘ उपेन्दर भैया ठीक कहते हैं कि तुम अखवारी लोग बाल की खाल खींचते रहते हो। क्या तुम्हें इतना भी आइडिया नहीं है कि जिस काल में भस्मासुर हुआ था,उस काल में लोकतन्त्र था ही नहीं। कहने को तो राजतन्त्र था,किन्तु लोकतन्त्र हजारगुना गुणकारी होकर भी उसका मुकाबला नहीं कर सकता। खैर,अभी हमलोग राजनैतिक चर्चा के लिए नहीं बैठे हैं। बात चल रही है- वरदान और उसकी परीक्षा की।
‘...हाँ तो मैं कह रही थी कि मोहिनीरुपधारी विष्णु ने भस्मासुर को अपने रुप-लावण्य से मोहित कर लिया। तुम मर्दों की तो वैसे भी आदत होती है,जहाँ कोई सुन्दर औरत दिखी कि बस लोट-पोट होने लगे। भस्मासुर की भी यही दशा हुई। मोहिनी की बातों में आगयी। मोहिनी ने बड़ा ही आसान उपाय सुझाया था-   वरदान की परीक्षा के लिए व्यर्थ ही शिव का पीछा कर रहे हो,अरे सिर तो तुम्हारे पास भी है,उसी पर अपना हाथ रखकर परीक्षा क्यों नहीं कर लेते। काम के वशीभूत पुरुष सम्मोहित हो जाता है। अच्छे-बुरे का ज्ञान तिरोहित हो जाता है। मोहिनी के रुप-लावण्य पर मोहित असुर ने वही किया,जो मोहिनी ने कहा; और तत्क्षण भस्म हो गया। गुप्ताधाम गुफा के बाहर ही,ठीक प्रवेश-द्वार पर उसका स्थान बना हुआ है। उधर शिव अपने अमोघ त्रिशूल से पहाड़ को काटते हुए आगे बढ़े जा रहे थे। विष्णु की पुकार जब तक पहुँची,तबतक करीब आधे मील की गुफा बन चुकी थी। यहीं विष्णु और शिव का मिलन हुआ। यही गुप्तेश्वर दिव्य धाम कहलाता है। ’
गायत्री ने जरा रुक कर कहा- ‘ बहुत ज्ञान-अनुभव तो नहीं था उन दिनों, किन्तु पता नहीं क्यों वह दिव्य मिलन-धाम मुझे बहुत ही आकर्षित किया। वहाँ से वापस आने की जरा भी इच्छा न हो रही थी। लौटते वक्त पिताजी ने गुफा के बीच दौर में ही दायें-बायें जाती कई सुरंगों के  बारे में बतलाया था कि इनमें अन्दर जाकर, कहीं का कहीं जाया जा सकता है। यहाँ से विन्ध्याचल, प्रयाग, यहाँ तक की, हिमाचल तक की गुप्त यात्रा की जा सकती है। एक रास्ता सीधे कामरुप कामाख्या तक भी गया हुआ है। सुनते हैं कि दरभंगा नरेश के प्राचीन किले में एक रानी सरोवर है,वहां भी सुरंग का एक मुहाना खुलता है। उस राजकुल में भी एक से एक दिग्गज तान्त्रिक हुए हैं। आज भी श्री कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के विशाल पुस्तकागार में तन्त्र की बहुत सी दुर्लभ कृतियाँ संग्रहित हैं। स्वयं राजा साहब इसके बहुत प्रेमी और अद्भुत जानकार व्यक्ति थे। अपने जीवन काल में कई विद्वानों को अन्वेषण-कार्य हेतु नियुक्त किये थे।’
मैंने उत्सुकता जतायी- तो क्या इन गुप्त रास्तों से कोई भी आ-जा सकता है?
‘ नहीं, कदापि नहीं। ’- गायत्री नकारात्मक सिर हिलाती हुई बोली-    यदि ऐसा होता तब तो तमाशा बन जाता। ये सब रास्ते आमजनों के लिए बिलकुल बन्द हैं; और बन्द भी ऐसा कि कोई गुमान भी नहीं कर सकता कि बन्द है, या कि कोई रास्ता भी है। कोई दुस्साहस करके किंचित दीख रहे रास्तों में आगे बढ़े भी तो भयंकर कष्ट झेले,या फिर आगे जाकर बुरी तरह फँस जाये। कई लोगों ने जान भी गँवाये हैं। यही कारण है कि कुछ रास्तों को शुरु में ही बन्द कर दिया गया। तुमने तिलिस्म की बहुत सी कहानियां सुनी होगी। आज के आधुनिक विचारों वाली पीढ़ी इन सबको कपोल कल्पना माने बैठी है; किन्तु तिलिस्म कल्पना बिल्कुल नहीं है। हाँ, ये भले कह सकते हो कि इन्हें औपन्यासिक जामा पहना दिया गया है। ताकि आम आदमी व्यर्थ परेशान न हो,और जान जोखिम में न डाले। ये सारे के सारे इलाके ऐसे ही रहस्यमय हैं। सासाराम जिला मुख्यालय है,जिले का नाम रोहतास है,जो सतयुग के महाराज हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहित के नाम पर रोहतासगढ़ के कारण प्रसिद्ध है। कलियुग में विक्रमादित्य के बाद भी बहुत लम्बें समय तक यहां ब्राह्मण राजा राज्य करते रहे हैं। बीच में मुगलकाल में यहाँ काफी उथल-पुथल हुआ। फिर अंग्रेजों ने अपने अन्दाज में कहर ढाये। तिलस्मी खजाने के लिए कई बार प्रयास किये,राजा,मन्त्री,पुरोहित आदि को डराये, धमकाये,  सताये। एक बहुत ही गोपनीय बात की चर्चा अकसरहां मेरे मैके में होती थी कि रोहतासगढ़ के खजाने की चाभी चन्द्रगढ़(नवीनगर प्रखंड) के राजपुरोहित के पास है। राजा ने सुरक्षा के ख्याल से उन्हें गुप्त भेदों को समझाते हुए सुपुर्द कर दिया था। पिताजी के एक चचेरे भाई थे,जो इन सबके अच्छे जानकार थे। वे एक उच्च कोटि के साधक भी थे, और तिलिस्मी मामलों के अच्छे जानकार भी। उनके साथ एक बार जाने का मौका मिला था मुझे भी। दादाजी,और पिताजी को भी ले गये थे रोहतासगढ़ का सैर कराने। मैं देखकर दंग रह गयी- बिलकुल खुला दरवाजा,परन्तु समीप जाकर,अन्दर घुसने के लिए कदम बढ़ाते ही दरवाजे के बगल से दोनों ओर से तलवारें निकल कर, यूँ चलने लगी,मानों हाथ में लिए दो सिपाही उसे भांज रहे हों। चाचा जी कहते थे कि एक गोरा साहब उसकी ताकत की परीक्षा के लिए लोहे की मोटी सलाका बीच में डाला,और खट से दो टुकड़े हो गये। अब भला किसी आदमी की क्या गत होगी- सोच सकते हो। पता नहीं अब चाचा जी कहाँ हैं, किस स्थिति में, क्यों कि एक बार गाँव की टोली गयी थी गुप्ताधाम,और उनके देखते-देखते ही चाचा जी समा गये थे एक सुरंग में, यह कहते हुए कि अब कोई मेरा पीछा न करे। अब मुझे वापस गाँव नहीं जाना है। यहीं गुहा-वास करते, हुए शेष साधना पूरी करनी है।’
            चन्द्रगढ़ की बात पर मुझे याद आयी एक रहस्यमय घटना,जो इसी सदी के सातवें दशक की है। वहीं के पुरोहित परिवार की बेटी रोहतास के पास रामडिहरा गांव में व्याही गयी थी। एक दिन अचानक वह बकझक करने लगी। देहाती माहौल ठहरा। लोगों ने भूत-प्रेत के भ्रम में ओझा-गुनी के द्वार खटखटाने शुरु किए; किन्तु कोई लाभ न हुआ। लड़की ने स्पष्ट कहा कि किसी ओझा-गुनी से कुछ होना-जाना नहीं है। मेरे पिता ने जो अपराध किया है,उसका दण्ड मुझे भुगतना पड़ रहा है। पूछने पर उसने एक रोचक,और रहस्यमयी कहानी सुनायी।  
उसने बतलाया मेरे जन्म से कुछ पहले की बात है-  परिवार में ही रोहतासगढ़ खजाने की गुप्त ताली थी। पुरोहित का आवास चन्द्रगढ़ राजमहल का ही एक हिस्सा था। प्रत्येक वर्ष विजयादशमी के अवसर पर राजा स्वयं एक गुप्त रास्ते से, जो महल के भीतर ही कुलदेवी के स्थान से होकर जाता था, रोहतासगढ किले के अन्दर जाकर साफ-सफाई का काम करता था। कुलदेवी के कक्ष में ही एक गहरा रहस्यमय कुआँ था,जो बड़े से कड़ाह से ढका रहता था,और उसके ऊपर एक तलवार और ढाल रखा रहता था। सामान्य तौर पर उसे ही देवी का प्रतीक मानकर पूजा-अर्चना की जाती थी। महानिशा में बकरे की बलि भी दी जाती थी,उसी तलवार से,उसी स्थान पर। बलि के पश्चात् ही कोई उस कड़ाह को हटाकर, अन्दर प्रवेश कर सकता था। पुरोहित ने सुन रखा था कि बकरे के स्थान पर किसी विप्र बालक की बलि दी जाये यदि तो चन्द्रगढ़ की कुलदेवी उस साधक पर प्रसन्न होकर रोहतासगढ़ खजाने की अकूत सम्पदा का स्वामी बना दें उसे।
“ …मेरे पिता को धन का लोभ सता रहा था। वे ताक में लगे रहे किसी ब्राह्मण बालक की। संयोग से उनके पड़ोस में ही चचेरी बहन का शिशु दिख गया, जो हाल में ही मैंके आयी थी,बालक का ‘सुदिन’ सधाने। लोभ, मनुष्य को कहाँ तक खड्ड में घसीट ले जाता है,इसके जीते-जागते उदाहरण हैं मेरे पिता। दौलत की लालच में भागिनेय की बलि देकर,आश्वस्त हो पिताजी लाश खपाने के लिए आधी रात को पास की नदी की ओर जा रहे थे,स्वयं को निरापद समझते हुए। संयोग से रात की गाड़ी पकड़ने के लिए नवीनगर रेलवे स्टेशन की ओर जाता,छुट्टी पर घर आया एक सैनिक मिल गया,किन्तु गाड़ी पकड़ने की जल्दवाजी में राम-सलाम के बाद अपनी रफ्तार में आगे बढ़ गया,बिना किसी मीन-मेष के। कश्मीर घाटी में अपनी ड्यूटी ज्वॉयन करने के दूसरे ही दिन वह गम्भीर रुप से बीमार हुआ। मिलिटरी हॉस्पीटल में दाखिले के बाद वह अनाप-सनाप बकने लगा। फौजी भला भूत-प्रेत पर विश्वास क्या करते,किन्तु वह सैनिक बारम्बार बके जा रहा था- ‘ मुझे मार कर दफनाने जा रहे पंडित को तुमने पकड़ा क्यों नहीं...।’ सैनिक अस्पताल के डॉक्टरों के पूछताछ करने पर उसने पूरी कहानी सुना दी- एक चश्मदीद गवाह की तरह; और अन्त में उनलोगों ने भी तय किया कि क्यों न घटना की तहकीकात की जाय। सप्ताह भर बाद पूरी टीम पहुँच गयी गाँव में। इधर गायब बालक की खोज जारी थी गांव में। छानबीन के बाद पिताजी पकड़े गये। समय पर उन्हें समुचित सजा हुयी। घटना के एक साल के बाद,यानी कानूनी कारवाई के बीच में ही उनके घर एक बच्ची ने जन्म लिया,वही मैं हूँ। मैं अपने पिता से बदला लिये बिना नहीं मानूंगी,क्यों कि मैं कोई और नहीं,बल्कि वही बालक हूँ,जिसका उन्होंने बध किया था।  
प्रसंग चल ही रहा था कि गिरधारी आ पहुंचा - ‘ अब चला जाय,भोजन के लिए।’
भूख मुझे बहुत जोरों की लग रही थी,अतः गिरधारी के कहते ही चल दिया गायत्री के साथ।

गत रात्रि की तरह ही आज भी वैसी ही व्यवस्था थी। भोजन उसी तरीके से हम सबने लिये। भोजन के बाद अपने कमरे की ओर जाने लगा तो,वृद्धबाबा ने रोक कर कहा-  विन्ध्याचल आये हो तो एक और रहस्यमय स्थान का दर्शन अवश्य कर लेना। यहां से कोई तीन मील पश्चिम रेलवे लाइन के किनारे ही विरोही नामक गांव में एक स्थान है- कंकालकाली का। प्रायः लोग उसे जानते भी नहीं हैं। अतः आमलोगों की ओर से बिलकुल उपेक्षित है।
वृद्धबाबा के कहने पर बाबा ने कहा- स्थान तो बहुत ही जागृत और दर्शनीय है; किन्तु वहां का असली रहस्य देखना-जानना है,तो आधी रात के समय ही जाना अनुकूल होगा।
बाबा की बात पर गायत्री बच्चों सी मचलती हुयी बोली- तो दिक्कत क्या है, मेरे उपेन्दर भैया साथ हैं,फिर क्या रात क्या दिन !
  यानी कि तुम मुझे भी घसीटना ही चाहती हो वहां तक ? ” - बाबा ने हँसते हुए कहा- तो ठीक है,भोजन हो ही गया। थोडा विश्राम कर लो। फिर चला जायेगा। अभी तो समय भी बहुत है। रात ग्यारह के करीब निकलेंगे यहां से। विरोही रेलवे स्टेशन तक ऑटोरिक्सा मिल जाता है। वहां से बिलकुल समीप ही है भगवती का स्थान।
आराम-विश्राम तो रोज दिन करना ही होता है। ऐसा सौभाग्य हर दिन
थोड़े जो मिलता है- एक साथ दो-दो बाबाओं का सानिध्य मिला है। इस सुअवसर का अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहिए  मैंने कहा तो बाबा फिर हँस पड़े।
वृद्धबाबा मुस्कुराते हुए बोले- यानी कि तुम दोनों को आराम करने का विचार नहीं है अभी। कुछ सत्संग करना चाहते हो।
गायत्री ने सिर हिलाया- जी महाराज ! विचार तो ऐसा ही है,यदि आपलोगों को कोई कष्ट न हो।
तो फिर आओ बैठा जाय,वटवृक्ष तले। ‘शिवचैत्य’ से अधिक उत्तम स्थान और क्या हो सकता है सत्संग के लिए ? ”  - कहा वृद्धबाबा ने,और आगे बढ गये वटवृक्ष की ओर। हम तीनों भी साथ हो लिए।
मेरे मन में भारद्वाज आश्रम की घटना घूम रही थी। मौके की तलाश में था कि कब बाबा से पूछा-जाना जाय। अभी संयोग से दोनों मिल गये हैं। जिज्ञासा-पूर्ति का समय अनुकूल है। अतः शिला पर बैठते के साथ ही पूछ बैठा – भारद्वाज आश्रम के बारे में कुछ बताएँ महाराज। जब से दर्शन किया हूँ,कई सवाल उठ रहे हैं। वहाँ की वास्तु-कला भी बहुत ही आकर्षक लगी, और स्थान की चैतन्यता तो अकथनीय है। मेरे जैसा साधारण सा आदमी, जब इतनी शान्ति क्षण भर में ही लब्ध कर ले सकता है,फिर साधकों का क्या कहना। अब से पहले भी कई बार प्रयास किया था ध्यान लगाने का, किन्तु लम्बें समय के प्रयास के बाद भी कुछ हो नहीं पाता,सिर्फ व्यर्थ के विचार ही घुमड़ते रह जाते हैं घंटों बैठने पर भी। जब कि उस दिन, वहाँ क्षणभर में घटित हो गया। अजीब शान्ति मिली,आनन्द भी।
            वृद्धबाबा ने सिर हिलाते हुए कहा- सच पूछो तो अष्टांगयोग के विषय में बहुत सी बातें जानने-समझने जैसी हैं,किन्तु आमजन इसकी क्रिया-वैविध्य पर किंचित विचार भी नहीं करते। उनके पास कोई खास जिज्ञासा भी नहीं होती,फिर विचार और प्रश्न का सवाल ही कहां रह जाता है। प्रसंगवश सबसे पहले तो मैं ये स्पष्ट कर दूँ कि तुम जिसे ध्यान कहते हो,वह वस्तुतः धारणा है। किसी विशिष्ट केन्द्र पर चित्त को एकाग्र करने का प्रयास ही आमजन में ध्यान कहा जाता है। एकाग्रता को ही लोग ध्यान समझ लेते हैं; जबकि ध्यान प्रयास और अभ्यास  का चीज नहीं है। वह तो स्वतः हो जाने वाली स्थिति है। अंग्रेजी में भी Consentretion and Meditation दो बिलकुल भिन्न शब्द हैं। अष्टांगयोग में यम से लेकर प्रत्याहार तक का पञ्च-पादान साधन पथ के वाह्य क्रिया-कलाप हैं, धारणा अन्तः-वाह्य का चौखट-तुल्य है,और उसके बाद के दो पादान(ध्यान और समाधि) अन्तःक्रियायें हैं। सत्संग और स्वाध्याय से इन वाह्य क्रियाओं का निरन्तर विकास करते हुए साधक चौखट तक आता है,और फिर अन्तःक्रियाओं में छलांग लगा जाता है।
क्रमशः... 

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