अभ्यासी की पीड़ा

अभ्यासी की पीड़ा
साधक और अभ्यासी में बहुत बड़ा अन्तर होता है,भले ही प्रायः अभ्यासी स्वयं को साधक समझने की नादानी कर बैठता है। ये कुछ वैसा ही है जैसे LKG का बच्चा स्वयं को कॉलेज स्टूडेंट समझने लगे। हमारे यहां पहले विधिवत खल्ली छुआने की प्रथा थी। खल्ली छुआना यानि कि अक्षरारम्भ का श्रीगणेश—काठ का स्लेट,और खड़िया,जिसे विधिवत पूजा करके,अक्षरारम्भ- अ आ इ ई की शुरुआत होती थी। बहुत बाद में कॉपी-पेन्सिल,और फिर कलम पकड़ने का सौभाग्य होता था। किन्तु अब तो सब कुछ बदल गया है। शुरुआत ही होती है शानदार कॉपियों और बहुत तरह के तामझाम से।

  साधना जगत में भी कुछ ऐसी ही बात है। धर्म की बड़ी-बड़ी दुकानें सजी हैं। जैसी क्षमता है आपकी शुल्क अदायगी की,वैसा आश्रम मिल जायेगा। संस्कारों की पुरानी खूंटियां उखड़ने-उखाड़ने की बात ही बेमानी है। नयी खूँटी गाड़ दी जाती है—गुरुजी का लॉकेट गले में मंगलसूत्र की तरह लटका दिया जाता है,और एक तसवीर भी थमा दी जाती है—वस इन्हें पूजते रहो,सब कुछ मिलता जायेगा...। वैसे मिलना क्या है,दुनिया से बाहर की कोई चीज चाहिये भी किसको ! किसी को धन चाहिए,किसी को सन्तान,किसी को सरकारी नौकरी,किसी को ऊँची वाली कुर्सी और वंगला। किन्तु इन सबसे अलग हट कर,असली चीज की चाह ही कितनों के पास होती है ! और जब चाह ही नहीं है,फिर खोज क्योंकर होगी। वास्तविकता ये है कि नकली और नकलची की दुनिया में असली कहीं गुम हो गया है। किन्तु सच्चाई ये है कि वह अभी तक कहीं दूर नहीं गया है। दूर जा भी नहीं सकता है,क्यों कि हमें तो नहीं,परन्तु उसे बखूबी पता है कि दूर जाया ही नहीं जा सकता। काया से छाया की दूरी कैसे हो सकती है ! वो तो एक सुनिश्चित दूरी बनाये रहेगा,और बिलकुल पास ही होगा,अपने ही अन्तर्तम में,कहीं द्वादश-दल-पद्मों में...और हम हैं कि कस्तूरी मृग की भांति मारे-मारे फिर रहे हैं—बाहर-बाहर—ईंट-पत्थर के मन्दिरों में...तीर्थो में... यहां...वहां...वहां जहां वह कभी नहीं रहा है। अस्तु।

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