गयाश्राद्धःसंक्षिप्त विवेचन

                                     गयाश्राद्धःसंक्षिप्त विवेचन       


 श्राद्ध कहते किसे हैं?
श्रद्धा शब्द से श्राद्ध शब्द की निष्पत्ति होती है।यथा- ‘श्रद्धार्थमिदं श्राद्धम्’, ‘श्रद्धया कृतं सम्पादितमिदम्’, ‘श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छ्राद्धम्’, ‘श्रद्धया इदं श्राद्धम्’। इस प्रकार मृत पितृगण (पितरों) (मृत बन्धु-बान्धओं) के उद्देश्य से,सविधि,श्रद्धापूर्वक किये गये कर्मविशेष को ही श्राद्ध कहते हैं-श्रद्धया पितृन् उद्दिश्य विधिना क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम्। इसका एक नाम पितृयज्ञ भी है। इस सम्बन्ध में मनुस्मृति आदि विविध धर्मशास्त्र,वायु,कूर्म, पद्मादि विविधपुराण, वीरमित्रोदय, श्राद्धकल्पलता,श्राद्धतत्त्व,पितृदयिता आदि ग्रन्थों में इसका विशद वर्णन है। महर्षि पराशर कहते हैं- देश,काल,पात्र में हविष्यादि विधि द्वारा जो कर्म दर्भ(कुश),तिल,यवादि तथा मन्त्रों से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाय,वही श्राद्ध है। यथा- देशे काले च पात्रे च विधिना हविषा च यत्। तिलैर्दर्भैश्च मन्त्रैश्च श्राद्धं स्याच्छ्रद्धया युतम्।। महर्षि बृहस्पति,एवं पुलस्त्य के अनुसार- संस्कृतं व्यञ्जनाद्यं च पयोमधुघृतान्वितम्। श्रद्धया दीयते यस्माच्छ्राद्धं तेन निगद्यते।। इसी भांति ब्रह्मपुराण में कहा गया है- देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत्। पितृनुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम्।। पितरों के उद्देश्य से जो ब्राह्मणों को दिया जाय वही श्राद्ध है। यानी द्रव्य,भोजन,वस्त्र,शैय्यादि उपस्कर जो कुछ भी प्रदान किये जायें।
इस परिभाषा की जानकारी के बाद कई प्रश्न उठते हैं- 1) इसे वे(दिवंगत प्राणी)प्राप्त कैसे करेंगे,और 2) श्राद्ध करने वाले को क्या लाभ। कुछ और भी प्रश्न उठ सकते हैं।

पितरों को श्राद्धीय वस्तु की प्राप्ति कैसे-किस रुप में-
ध्यातव्य है कि श्राद्धकर्म पूर्वजन्म /पुनर्जन्म के सिद्धान्तों पर आधारित है। यदि पूर्वजन्म में आस्था नहीं है,तो श्राद्ध का कोई मतलब नहीं। हम पहले भी कुछ थे,पुनः भी कुछ होंगे- यह सिद्धान्त ही हमें श्राद्धकर्म की प्रेरणा देता है। सर्वाधिक प्रमाणिक, लोकास्था का ग्रन्थ- श्रीमद्भगवत्गीता के वचन हैं- जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽथे न त्वं शोचितुमर्हसि।।(२-२७) जो जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है,और जो मरा है उसका जन्म भी निश्चित है। यह एक शास्वत नियम है। विशेष क्रिया-साधना द्वारा जब तक प्राणी की मुक्ति नहीं हो जाती,तब तक जीवन-मृत्यु का यह चक्र चलता ही रहता है। अपने शुभाशुभ कर्मानुसार प्राणी स्वर्ग, नरक, देव,मानव,पशु,कीटादि विभिन्न चौरासीलाख योनियों में भटकता है। इन्हीं योनियों में पितरयोनि और प्रेतयोनि भी है। इन सबका भरण-पोषण विश्वम्भर प्रभु का कार्य है। जो जहां है,जिस स्थिति में है,जैसी उसकी आवश्यकता है,जितना उसके लिए विहित है- उसके कर्मानुसार,तदनुरुप ही उसे सारी व्यवस्था मिलती है- इस महाव्यवस्थापक प्रभु के द्वारा, इसमें कोई दो राय नहीं है। श्राद्धकर्म में नाम,गोत्र, सम्बन्ध,स्थान, वस्तु आदि का खास महत्त्व है। इसमें त्रुटि कदापि नहीं होनी चाहिए,अन्यथा कार्य और उद्देश्य व्यर्थ हो जायेगा। किसने, किसके लिए, कब, कहां, क्या,कैसे प्रदान किया इन बातों के सहारे उसके अधिष्ठाता(विश्वेदवा,अग्निष्वातादि)उस प्राणी तक पहुँचाने का कार्य करते हैं- ठीक वैसे ही जैसे डाकिया किसी स्थान विशेष से किसी वस्तु विशेष को किसी व्यक्ति विशेष तक पहुंचाने का कार्य करता है।यह महान डाकिया(वाहक) सामान्य डाकिया से कहीं अधिक सक्षम और कार्यकुशल है। यहां खास बात ये भी है कि वस्तु को समुचित वस्तु में परिवर्तित करके उपलब्ध कराया जाता है। जैसे हमने जौ के आटे का पिंड प्रदान किया। जूता,छाता,तोषक,कम्बल प्रदान किया।और प्राप्त करने वाला यदि अभी पशुयोनि में है, तो उसे उसके अनुरुप वस्तु- तृणादि के रुप में ही प्राप्त होगा। देवयोनि में है,तो अमृतरुप में प्राप्त होगा,यक्षयोनि में है तो पान रुप में, प्रेतयोनि में है तो सु-वायु रुप में प्राप्त होगा, इत्यादि। इस सम्बन्ध में मार्कण्डेयपुराण, वायुपुराण,श्राद्धकल्पलता आदि ग्रन्थों में कहा गया है- नाममन्त्रास्तथा देशा भवान्तरगतानपि। प्राणिनः प्रीणयन्त्येते तदाहारत्वमागतान्। देवो यदि पिता जातः शुभकर्मानुयोगतः। तस्यान्नममृतं भूत्वा देवत्वेऽप्यनुगच्छति।। मर्त्यत्वे ह्यन्नरुपेण पशुत्वे च तृणं भवेत्। श्राद्धान्नं वायुरुपेण नागत्वेऽप्युपतिष्ठति।। पानं भवति यक्षत्वे नानाभोगकरं तथा।। इसी क्रम में पुराणकार कहते हैं कि जैसे भूला हुआ बछड़ा अपनी मां को किसी न किसी प्रकार ढूढ़ ही लेता है, उसी भांति मन्त्र और क्रिया द्वारा शोधित वस्तु समुचित प्राणी तक पहुँच ही जाता है, चाहे वह कहीं भी हो--यथा गोष्ठे प्रणष्टां वै वत्सो विन्देत मातरम्। तथा तं नयते मन्त्रो जन्तुर्यत्रावतिष्ठते। नाम गोत्रं च मन्त्रश्च दत्तमन्नं नयन्ति तम्। अपि योनिशतं प्राप्तांस्तृप्तिस्ताननुगच्छति।।(वा.पु.उ.८३-११९,१२०) नामगोत्रं पितृणां तु प्रापकं हव्यकव्ययोः। श्राद्धस्य मन्त्रतस्तत्त्वमुपलभ्येत भक्तितः।।  अग्निष्वात्तादयस्तेषामाधिपत्ये व्यवस्थिताः। नामगोत्रास्तथा देशा भवन्त्युद् भवतामपि।।  प्राणिनः प्रीणयन्त्येतदर्हणं समुपागतम्।।(पद्मपुराण,सृष्टिखंड,१०-३८,३९) यहां ध्यान देने योग्य बात है कि इस अन्तराल में कितने ही योनि क्यों न व्यतीत(परिवर्तित) हो गये हों,प्रदत्त वस्तु की प्राप्ति अवश्य होती है।प्रायः नास्तिक लोग ये संशय करते हुए आपोप लगाते हैं कि प्रत्यक्षतः दिया गया वस्तु तो दानादि ग्रहण करने वाले ब्राह्मण ले जाते हैं,और ये भी ठिकाना नहीं है कि दान जिसके लिए दिया गया वह प्राणी अभी कहां किस अवस्था में है। शास्त्र के उक्त वचनों से यह प्रमाणित हो जाता है कि वस्तु का रुपांतरण सहित स्थानान्तरण होता है। जैसे हम किसी बैंक या डाकघर में रकम या वस्तु जमा करते हैं,और अन्यत्र बैठे व्यक्ति को प्राप्त हो जाता है,वशर्ते कि पता सही हो,उसी भांति यहां भी श्राद्धीय सामग्री का स्थानान्तरण होता है,और इस विशेषता के साथ कि यहां आवश्यक रुपान्तरण भी सम्भव है। आज के वैज्ञानिक युग में बहुत सी बातों को प्रमाणित करना सरल हो गया है,पहले की अपेक्षा। कुछ और भी बातें(सिद्धान्त)आने वाले समय में विज्ञान-सम्मत प्रमाणित हो जायेंगे, निश्चित ही। विज्ञान स्वीकारता है कि पदार्थ और ऊर्जा दो ही चीजें हैं। अध्यात्म इसे ही द्वैत कहता है। यह भी विज्ञान सिद्ध है कि पदार्थ का ऊर्जा में और ऊर्जा का पदार्थ में निरंतर परिवर्तन हो रहा है- प्राकृतिक रुप से,और सायास,सविधि भी परिवर्तन करना सम्भव है,अतः इन शास्त्रीय सिद्धान्तों को स्वीकारने में कोई आपत्ति और संशय नहीं होना चाहिए। श्राद्धकर्म निहायत व्यावहारिक प्रयोग है,क्रियात्मक प्रयोग है।अतः इसमें किसी प्रकार की जरा भी त्रुटि नहीं होनी चाहिए। प्रयोगशाला में जल का निर्माण करने के लिए सुनिश्चित मात्रा में सुनिश्चित विधि से हाईड्रोजन और ऑक्सीजन की मात्रा मिलानी होती है,तभी कार्य (प्रयोग) सफल होता है।  वैसे ‘अस्ति और नास्ति’ का सम्यक् ज्ञान तो ज्ञानचक्षु के खुलने से ही हो सकता है,उसके पूर्व तो आर्षप्रमाणों पर ही भरोसा करना होगा।अस्तु।

श्राद्ध करने से श्राद्धकर्ता को क्या लाभ ?
आज की दुनियां अर्थ-प्रधान होगयी है। हम सभी वैश्य हो गये हैं,ब्राह्मण-क्षत्रिय वाली सोच रह ही नहीं गयी है। किसी कार्य में ‘वणिक-प्रणाली’ का प्रयोग करते हैं। यानी कि हानि-लाभ के प्रश्न के साथ,उसी मापदण्ड से किसी कार्य को देखा-परखा जाता है। जप,तप,पूजा,पाठ,तीर्थ,व्रत भी यही सोच कर करते हैं। तभी तो थोड़े ही दिनों में हानि-लाभ का ‘बैलेन्ससीट’ बनाने लगते हैं- इतने दिनों से कर रहे हैं,कुछ तो लाभ नहीं दीखता...। श्राद्ध को भी हम इसी नजर से देखते हैं। श्राद्ध करना परम हमारा कर्तव्य है- इसे नहीं समझते। अतः जरा इसे समझने का प्रयास करें—
‘पुन्नामनरकात् त्रायते इति पुत्रः’- पुन्नामक नरक से जो त्राण(रक्षा)करे,वही पुत्र कहलाता है- इस वाक्य का सामान्य अर्थ यही है कि सिर्फ पुत्र ही उक्त नरक से उद्धार करा सकता है,किन्तु इसी वाक्य में यह अर्थ भी छिपा हुआ है,कि वे सभी जो इसके अधिकारी हैं,श्राद्धकर्म करने के,और कल्याण कर सकते हैं,उद्धार कर सकते हैं- अपने पितरों का,वे सभी पुत्र कहे जाने योग्य हैं। जैसा कि पूर्व प्रसंग में श्राद्ध के अधिकारियों की चर्चा की गयी-वे सभी इस संज्ञा के योग्य हैं। उक्त पुत्रों के लिए तीन मुख्य कर्म कहे गये हैं- जीवितो वाक्यकरणात् क्षयाहे भूरिभोजनात् । गयायां पिण्डदानाच्च त्रिभिः पुत्रस्य पुत्रता।। (श्रीमद्देवीभागवत ६-४-१५)- अर्थात् जीवित अवस्था में माता-पिता की आज्ञा का पालन करे,मृत्यु के पश्चात् श्रद्धापूर्वक,सामर्थ्यानुसार श्राद्धकर्म करे,तथा ब्राह्मण-भोजन करावे,एवं समयानुसार पितरों के निमित्त गयाश्राद्ध भी करे। इसके वगैर वह पूर्णरुप से पितृऋण से मुक्त नहीं हो सकता। यमस्मृति,गरुड़पुराण,श्राद्धप्रकाश आदि ग्रन्थों में श्राद्धकर्ता का लाभ दर्शाया गया है- आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम् । पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।। कूर्मपुराण के वचन हैं- योऽनेन विधिना श्राद्धंकुर्याद् वै शान्तमानसः। व्यपेतकल्मषो नित्यं याति नावर्तते पुनः।। इस सम्बन्ध में महर्षि सुमन्तु के वचन हैं- श्राद्धात् परतरं नान्यच्छ्रेयस्करमुदाहृतम् । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्राद्धं कुर्याद्विचक्षणः।। मार्कण्डेय पुराण के वचन हैं- आयुः प्रजां धनं विद्या स्वर्गं मोक्षं सुखानि च । प्रयच्छन्ति तथा राज्यं पितरः श्राद्धतर्पिताः।। इस प्रकार संकेत मिलता है कि इस जगत में श्राद्ध से श्रेष्ठ कोई अन्य कल्याणकारी उपाय नहीं है। श्राद्ध करने से आयु,आरोग्य,पुत्र,यश,धन,स्वर्ग,कीर्ति,पुष्टि,बल,विद्या,पशु, सौख्य, धान्य आदि की प्राप्ति होती है। श्राद्ध से सन्तुष्ट(तृप्त)होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को आशीष देकर उक्त वस्तुयें प्रदान करते हैं। देवगुरु बृहस्पति ने तो यहां तक कह दिया है कि- उपदेष्टानुमन्ता च लोके तुल्यफलौ स्मतौ। यानी जो श्राद्ध करता है,विधि-विधान को जानता है,श्राद्ध करने हेतु किसी को प्रेरित करता है,अनुमोदन करता है,उसे भी श्राद्ध का फल मिलता है। अत्रिसंहिता, श्राद्धानुष्ठान आदि ग्रन्थों में भी श्राद्ध के लाभ को बतलाया गया है।

श्राद्ध न करने से हानि क्या ?-
अब इसके हानि-पक्ष को भी देख लें।लाभ का ठीक उल्टा हानि होता है।सीधा सा उत्तर है,न करने वाले उक्त लाभों से वंचित रह जायेंगे।अपने कर्म सौभाग्य से यदि पितरगण स्वर्गादि उच्च लोकों को चले गये हैं,तब तो कोई बात नहीं,अन्यथा हानि ही हानि है। और स्वर्ग जाने की तुलना में अन्यान्य लोकों में जाने की(फंसे रहने की),अपेक्षाकृत  अधिक आशंका है।ब्रह्मपुराण के वचन हैं कि पितरों का श्राद्ध न करने वाले मोहवश, उनके रक्तादि का पान करते हैं,और क्षुब्ध पितर गण निरन्तर उन्हें शापित करते हैं – श्राद्धं न कुरुते मौहात् तस्य रक्तं पिबेन्ति ते....पितरस्तस्य शापं दत्त्वा प्रयान्ति च।। तैतरीयउपनिषद कहता है- देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्..। अर्थात् देव-पितृकार्यों में प्रमाद-आलस्य न करें।क्यों कि इससे प्रत्यवाय- विपरीत फल होता है- न तत्र वीरा जायन्ते नारोग्यं न शतायुषः। न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम्। तथा च श्राद्धमेतन्न कुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते। (हारीत एवं विष्णुस्मृति)
पितरों के शाप से अभिशप्त परिवार विभिन्न प्रकार के ज्ञात-अज्ञात,अकारण कष्ट पाते रहता है। पितरों के क्षुब्ध होने से उसके यहां या तो सन्तान पैदा ही नहीं होती,या पैदा होकर मर-मर जाती है,या रोगी होती है। इतना ही नहीं उसके जीवन में सभी कर्म निष्फल से हो जाते हैं। व्यवहारिक जगत में हम प्रायः देखते हैं कि काफी श्रम करने पर भी समुचित यश,धन,सुख प्राप्त नहीं कर पाते। शारीरिक,आर्थिक,सामाजिक,पारिवारिक, व्यावसायिक विभिन्न तरह की वाधाओं,और कष्टों का सामना करते रहते हैं। इसके पीछे अन्य,अनेक  कारण होते हैं,किन्तु पितृदोष(शाप)जनित कारण भी प्रधान होता है।बहुत बार ऐसा होता है कि पितृकार्य विधिवत सम्पन्न कर देने पर सुख-शान्ति मिलने लगती है।विविध बाधायें आश्चर्यजनक रुप से दूर होने लगती हैं।
जातक की जन्म कुण्डली में भी इसका संकेत प्रायः मिल जाता है। जिसके कुल में पितर क्षुब्ध,त्रसित होते हैं,उसके यहां जन्म लेने वाली सन्तानों की कुण्डली से इसे जांचा-परखा जा सकता है। जन्म कुण्डली में दसवां भाव पिता का होता है,इसे कर्मभाव भी कहते हैं,और नवें भाव को धर्म भाव कहा जाता है,तथा पांचवे को सन्तान भाव।इन भावों में कहीं भी सूर्य के साथ राहु,शनि,केतु का संयोग दीखे तो इससे पितृदोष का संकेत मिलता है। इन्हीं भावों में बृहस्पति या बुध हों और साथ में उक्त तीनों- राहु,शनि,केतु का संयोग दीखे तो भी पितृदोष कहा जाता है। इनमें भी दशमभाव की स्थिति सर्वाधिक प्रत्यक्ष संकेत है। कारण है पिता के घर में, पिता के साथ पापग्रहों का सानिध्य होना। ज्ञातव्य है कि सूर्य,बृहस्पति और बुध को दशमभाव का कारक माना गया है। ये तो हुआ स्थिरकारक के अनुसार विचार करने का तरीका। इन्हीं बातों को चरकारक के अनुसार भी विचार करना चाहिए।ज्ञातव्य है कि चरकारक नियम के अनुसार, जन्म कालिक ग्रह स्पष्टी में अंशादि क्रम में पांचवें स्थान पर होने वाला ग्रह पुत्र और पिता का कारक होता है। जिस प्रकार ग्रह और गोचर दोनों का विचार किया जाता है,उसी भांति चर और स्थिर दोनों प्रकार से पुत्र और पितृ कारक ग्रहों का विचार करना चाहिए। किंचित ज्योतिर्विदों के मत से तो जन्मकुण्डली में कहीं भी,किसी भी भाव में उक्त तीनों- राहु,शनि,केतु का संयोग सूर्य,बुध,गुरु से होगा तो आंशिक रुप से उक्त भाव का फल बाधित होना ही है। यदि कुण्डली में ये दोष है,तो लाख उपाय किये जायें,सुख-शान्ति नहीं मिल सकती। उसका एकमात्र उपाय होता है- पितरों को तुष्ट करना।पितरों को प्रसन्न करने के कई उपाय है,जिनमें गयाश्राद्ध सर्वोत्तम है।
प्रेतवाधा,सन्तान वाधा आदि के लिए वोधगया, धर्मारण्य स्थित रहटकूप वेदी पर श्राद्ध किया जाता है।यहां दो तरह का श्राद्ध होता है- एक तो सामान्य गयाश्राद्ध के क्रम में,और दूसरा त्रिपिण्डी श्राद्ध। कभी-कभी घोर संकटनिवारण के लिए ये दोनों कार्य अलग-अलग सम्पन्न करने होते हैं।
इन सभी बातों पर ध्यान देने पर, गयाश्राद्ध के लाभ-हानि-पक्ष पर किसी तरह की शंका नहीं रह जाती।

गयाश्राद्ध का महत्त्व और उपादेयता
कांक्षंति पितरः पुत्रान् नरकाद्भयभीरवः। गयां यास्यति यः पुत्रः स नस्त्राता भविष्यति।। गया प्राप्तं सुतं दृष्ट्वा पितृणामुत्सवो भवेत्। पद्भ्यामपि जलं स्पृष्ट्वा सोऽस्मभ्यं किन्नदास्यति।। एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोऽपि गयां व्रजेत्। यजेद्वा चाश्वमेधेन नीलं वृषभमुत्सृजेत्।। गयां गत्वान्नदाता यः पितरस्तेन पुत्रिणः। पक्षत्रयनिवासी च पुनात्यासप्तमं कुलम्।। नेतेत्पंचदशाहं वा सप्तरात्रं त्रिरात्रकम्। महाकल्पकृतं पापं गयां प्राप्य विनश्यति।।
वायुपुराण, श्रीश्वेतवाराहकल्प में गयामहात्म्य विषयक आठ अध्याय हैं,जिनमें प्रथम अध्याय के इन कुछ श्लोकों से ही गयाश्राद्ध की महत्ता सिद्ध हो जाती है। यूं तो पद्म,अग्नि,नारद, कूर्म, गरुड़, ब्रह्माण्डादि विविध पुराण गयाश्राद्ध की महिमा को विवेचित किये हैं; किन्तु वायुपुराण इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रहा है। वायुपुराण के अन्य अध्यायों में भी श्राद्धविषयक पर्याप्त प्रसंग हैं। उक्त पुराणों में कहा गया है कि मृत्यु के पश्चात् प्राणी पितरलोक में वास करते हैं- विधूर्ध्वभागे पितरो वसन्ति...। अपने कर्मानुसार स्वर्ग,नरक,मृत्युलोकादि में कहीं  वास करते हुए भी आंशिक रुप से पितरलोक में भी वास होता ही है। इस सिद्धान्त से जिनकी सद्गति होगयी है,उनके लिए भी और सद्गति नहीं भी हुयी है,उनके लिए भी गयाश्राद्ध अनिवार्य है। गया में अपने पुत्रादि को आया देखकर पितरलोग उत्सव मनाते हैं।गयाधाम में श्रद्धापूर्वक रखा गया एक-एक कदम भी अश्वमेधयज्ञ के तुल्य होता है।
मुख्य रुप से गयाश्राद्ध त्रिपक्षीय(पूर्व-परयुक्त)यानी गत मास की पूर्णिमा,इस मास की प्रतिपदा से अमावश्या तथा पुनः शुक्लपक्ष की प्रतिपदा- कुल सत्रह दिनों की क्रिया है,जिसके अन्तर्गत अनेक वेदियों पर घूम-घूम कर एक ही तरह की क्रिया करने का विधान है। इसमें पार्वण विधि से श्राद्ध किया जाता है,जिसमें प्रत्येक वेदी पर ढाई से तीन घंटे का कर्मकाण्ड होता है। संक्षिप्त रीति से, तीर्थविधि से भी करने का विधान है,जिसमें प्रत्येक वेदी पर सवा घंटे का समय अनिवार्य रुप से लगता ही है।
प्राचीन समय में चन्द्रमा की वार्षिक ३६० कलाओं को आधार बनाकर, ३६० वेदियों पर पिण्डदान करने का नियम था,जो कालान्तर में सिमट कर सीधे १५६ हो गया। ध्यातव्य है कि चन्द्रमा की कला तो वही की वही रही,हमने कर्मकाण्ड को समेट दिया। पञ्चक्रोसं गया प्रोक्तं- शास्त्रीय रुप से गया का विस्तार पांच कोस यानी पन्द्रह किलोमीटर में माना गया है, जिसके विभिन्न भागों में ये ३६० वेदियां अवस्थित थी। वर्तमान में इनकी संख्या सिमट कर मात्र ४५ रह गयी है,उनमें भी अधिकांश की स्थिति अति दयनीय है,और सही रुप से उनका परिचय और स्थान निर्धारण भी कठिन प्राय है। भले ही गयापाल लोग अपने-अपने ढंग से स्थान की प्रमाणिकता सिद्ध करते हैं। बहुत सी वेदियों को विष्णुपद प्रांगण और आसपास में ही मान लिया गया है।
पौराणिक प्रसंग के अनुसार गयासुर नामधारी राक्षस के विशाल शरीर को देवताओं द्वारा गिराकर,दबाया गया। जिस-जिस अंग पर जो-जो देवता दबाव डालकर बैठे,वह-वह वेदी (स्थान) उनके नाम से जाना गया। कथा काफी विस्तार में है। इस पर फिर कभी चर्चा हो सकती है।
समय के अनुसार एक ओर संसाधनों का विकास हुआ है,तो दूसरी ओर श्रद्धा-भक्ति और समय का अभाव भी होता गया। भविष्य-द्रष्टा ऋषियों ने इस दुर्गति को समझते हुए ऐसी व्यवस्था भी दे दी कि संक्षिप्त रुप से (पूरा ना के जगह थोड़ा हाँ वाले सिद्धान्त से) गयाश्राद्ध की क्रिया सात,पांच, या तीन दिनों में भी सम्पन्न किया जा सकता है। वो भी सम्भव न हो तो एक दिवसीय कर्म करें। कथन क्रम में यहां तक कह दिया गया कि आंवले या शमी के पत्ते यानी बहुत छोटे से अंश में भी यदि गया-विष्णुपद में पिंडदान दे दिया जाय तो पितर तृप्त हो जाते हैं।

श्राद्ध करने में सावधानी-
श्राद्ध के सम्बन्ध में एक बडा ही महत्त्वपूर्ण सूत्र है- पितरःवाक्यमिच्छन्ति, भावमिच्छन्ति देवता। श्रद्धा शब्द से श्राद्ध शब्द की संगति बैठा दी जाती है। किन्तु ध्यान देने की बात है कि सिर्फ श्रद्धा और भक्ति से श्राद्ध कदापि पूरा नहीं हो सकता। संत तुलसी के कथन — भाय-कुभाय अनख आलस हूँ,नाम जपत मंगल दिसि दस हुँ— भगवान की भक्ति के लिये भले ही शतप्रतिशत सही हो सकता है,किन्तु पितृ-कार्य के लिए इतने भर से काम नहीं चलने को है। पितृ-कार्य देव-कार्य से भी अधिक सावधानी वाला कार्य है। यहां भाव शुद्धि,क्रियाशुद्धि,द्रव्यशुद्धि,वाक्यशुद्धि सब कुछ समान रुप से अनिवार्य है। इन घटकों में एक का भी अभाव होगा तो आपका प्रयोग व्यर्थ हो जायेगा। जिस प्रकार किसी व्यक्ति से सम्पर्क करने के लिए उसका सही आईडी आवश्यक है, एक अक्षर या मात्रा की भी भूल होगी,तो सम्पर्क नहीं हो पायेगा,उसी भांति नाम,गोत्रादि के साथ सभी वैदिक मन्त्रों का सही ध्वनि-तरंग बनना चाहिए, तभी कार्य सिद्ध होगा, अन्यथा नहीं। अस्तु।

गयाश्राद्ध से उद्धार किनका ? -
शास्त्रवचन हैं कि गयाश्राद्ध करने से सात कुल के एकसौ एक वंश(पीढ़ी) का उद्धार होजाता है।ज्ञातव्य है कि ये सात कुल और एकसौ एक वंश क्या हैं। वायुपुराण, श्रीश्वेतवाराहकल्प,गयामहात्म्य,प्रथम अध्याय में कहा गया है-उद्धरेत्सप्तगोत्राणि कुलमेकोत्तरं शतम्। पिता माता च भार्या च भगिनी दुहितुः पतिः।। पितृष्वसा मातृष्वसा सप्तगोत्राणि तारयेत्। चतुर्विंशश्च विंशश्च षोडशद्वादशैव च।। रुद्रा दश वसुश्चैव कुलमेकोत्तरं शतम्। एकतः सर्ववस्तूनि सर्वतिक्तमधूनि हि।। (वायुपुराण,श्रीश्वेतवाराहकल्प,गयामहात्म्य,प्रथमअध्याय- ३५,३६,३७) तथा धर्मसिन्धु में भी उक्त आशय किंचित भिन्न शब्दों में व्यक्त किये गये हैं- पिता माता च भार्या च भगिनी दुहिता तथा। पितृमातृश्वसा चैव सप्तगोत्राणि वै विदुः।। उक्त सात गोत्रों के एकसौएक कुलों को निर्णयसिन्धु ने इस प्रकार परिगणित किया है- तत्त्वानि विंशति नृपा द्वादशैकादशा दश। अष्टाविति च गोत्राणां कुलमेकोत्तरं शतम्।।अर्थात् पिता का कुल,माता का कुल,पत्नी का कुल,पिता की बहन यानी फूआ का कुल,माता की बहन यानी मौसी का कुल,अपनी बहन का कुल,बेटी का कुल- ये सात कुल(गोत्र)कहे गये हैं।अब इन सातों में क्रमशः पूर्व-वंशोद्धार की बात कह रहे हैं-पिता की चौबीस पीढ़ी,माता की बीस पीढ़ी,पत्नी की सोलह पीढ़ी,अपनी बहन की बारह पीढ़ी,बेटी की ग्यारह पीढ़ी,बुआ की दस पीढ़ी,और मौसी की आठ पीढ़ी- कुल मिलाकर एकसौएक पीढ़ियों का तरण होता है गयाश्राद्ध से।
प्रसंगवश पुनः गणना करते हैं कि गयाश्राद्ध-काल में किन बन्धु-बान्धवों को तृप्ति दिलायेंगे- ताताम्बात्रितयं सपत्नजननी मातामहादित्रयं सस्त्रि स्त्रीतनयादि तातजननीस्वभ्रातरः तत्स्त्रियः। ताताम्बाऽऽत्मभगिन्यपत्यधवयुग् जायापिता सद् गुरुः शिष्याप्ताः पितरो महालयविधौ तीर्थे तथा तर्पणे।।--पिता,पितामह(दादा),प्रपितामह(परदादा),माता,पितामही(दादी),प्रपितामही (परदादी), विमाता (सौतेलीमाँ),मातामह(नाना),प्रमातामह (परनाना), वृद्धप्रमातामह(छरनाना),मातामही(नानी),प्रमाता- मही (परनानी), वृद्धप्रमातामही(छरनानी),स्त्री,पुत्र-पुत्री,चाचा-चाची, चचेरा भाई, मामा-मामी, ममेरा भाई, अपना भाई-भाभी, भतीजा, फूफा-फूआ, फूफेरा भाई,मौसा-मौसी,मौसेरा भाई,बहन-बहनोई,भगिना,सास-श्वसुर,गुरु-गुरुपत्नी,शिष्य, संरक्षक और सेवक- इन सभी को पिंड-प्रदान करना चाहिए। इन प्रधान बन्धुओं के अतिरिक्त अन्याय लोगों(जिनसे यत्किंचित बान्धत्व है)को भी पिण्ड देना चाहिए।

गयाश्राद्ध सा उचित समय-
यूं तो गयाश्राद्ध कभी भी किया जा सकता है - गयायां सर्वकालेषु पिण्डं दद्यात् विचक्षणः। (वायुपुराण १०५-१८),पुनः कहते हैं- अधिमासे जन्मदिने चास्तेऽपि गुरुशुक्रयोः। न त्यक्तव्यं गयाश्राद्धं सिंहस्थेऽपि वृहस्पतौ। चन्द्रसूर्यग्रहे चैव मृतानां पिण्डकर्मसु।।(वायुपुराण १०५-१८-१९) यानी किसी तरह की वर्जना नहीं है,फिर भी तुलनात्मक दृष्टिभेद है। ज्ञातव्य है कि साल के बारहों महीने का कृष्णपक्ष पितृपक्ष होता ही है। इस पक्ष में पितरों के निमित्त कहीं भी कुछ भी कार्य करना प्रसस्त है,गयाधाम की बात ही क्या कहना।किन्तु फिर भी कुछ खास अवसर सुझाये गये हैं गयाश्राद्ध के लिए,जो अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण हैं- मीने मेषे स्थिते सूर्ये कन्यायां कार्मुके घटे। दुर्लभं त्रिषु लोकेषु गयायां पिंडपातन्म्।। मकरे वर्तमाने च ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः। दुर्लभं त्रिषु लोकेषु गयायां पिंडपातन्म्।। (तथा, गयायां दुर्लभं लोके वदन्ति ऋषयः सदा। एवं,  दुर्लभं त्रिषुलोकेषु गयाश्राद्धं सुदुर्लभं। वाक्यभेद से भी वचन हैं-वायुपुराण १०५-४७) इस प्रकार सूर्यराशियों के विचार से गयाश्राद्ध के लिए अनुकूल चन्द्रमास होता है- चैत्र,वैशाख,आश्विन,पौष और फाल्गुन। साथ ही मकर संक्रान्ति,तथा सूर्य और चन्द्रमा के ग्रहणकाल में भी गया में पिंडदान का विशेष महत्त्व है।यहाँ संक्रान्ति शब्द में सूर्य की अन्य संक्रान्तियां भी समाहित समझना चाहिए-गयाश्राद्धं प्रकुर्वीत संक्रान्त्यादौ विशेषतः। गयाश्राद्ध की महिमा का वखान करते हुए सनत्कुमार जी, नारदजी से कहते हैं- गयायां पिंडदानेन यत्फलं लभते नरः। न तच्छक्यं मया वक्तुं कल्पकोटिशतैरपि।। सौ करोड़ कल्पों तक लागातार वर्णन करते रहने पर भी गयाश्राद्ध का महात्म्य पूरा नहीं हो सकता। अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्ति के अनुसार जीवन में एक बार गयाश्राद्ध तो कर ही लेना चाहिए।

गयाश्राद्ध सम्बन्धी भ्रान्तियाँ-
प्रायः लोग यह समझ लेते हैं कि गयाश्राद्ध जीवन में सिर्फ एक बार ही करने वाला कर्म है,और इतना ही नहीं एक बार कर लेने से हमेशा-हमेशा के लिए कार्य सम्पन्न हो जाता है,और आगे अब पितरों के निमित्त कभी भी कुछ भी नहीं करना है—यह बहुत बड़ी भ्रान्ति है।लोग कहते हैं- मैंने पितरों को गया में बैठा दिया- ये बिलकुल बेतुकी बात है। पितरों को बैठाने-उठाने का कोई तुक नहीं है। गयाश्राद्ध जीवन में एकबार अवश्य करना चाहिए- इस वाक्य का ये अर्थ कदापि नहीं है। ये वचन श्राद्ध की महत्ता के संदर्भ में कहे गये हैं,न कि भावी निषेध अर्थ में। तात्पर्य यह है कि एकबार गयाश्राद्ध तो अवश्य कर ले,आगे जिससे जितना हो सके, करते रहे। पिंडदान न भी कर सके तो आगे कम से कम जलादि दान तो करे ही- यानी पितृतर्पण कर्म अवश्य करे।

गयाश्राद्ध में मुंडनकर्म का निषेध-
किसी भी पितृकार्य में मुंडन अत्यावश्यक है। काशी,प्रयाग, हरिद्वारादि अन्य तीर्थो में जाने पर भी उस स्थान पर मुंडन की शास्त्र-सम्मत परम्परा है;किन्तु गयाधाम में मुंडन वर्जित है। वायुपुराण के उक्त प्रसंग(१/२३) में ही कहा गया है- मुण्डनं चोपवासश्च सर्वतीर्थेष्वयं विधिः। वर्जयित्वा कुरुक्षेत्रं विशालां विरजां गयाम्।।  अर्थात् सभी तीर्थों में मुंडन कराना आवश्यक है,किन्तु कुरुक्षेत्रतीर्थ,विरजातीर्थ, वद्रीधाम तीर्थ, और गयाधाम तीर्थ में मुंडन न करावे।–इस आदेश(संकेत)का भी अधूरा अर्थ लगा लिया जाता है। ध्यातव्य है कि कहीं भी श्राद्धकर्म का पहला कर्म (अंग) है- मुंडन। यहीं से मानसिक संकल्प बनाता है श्राद्धक्रिया का। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि फिर उक्त शास्त्र-वचन का क्या औचित्य है ? कथन का अभिप्राय समझना जरुरी है। ध्यान देने योग्य बात ये है कि सांगोपांग गयाश्राद्ध सत्रहदिवसीय कर्म है,जो अपने मूलनिवास से प्रारम्भ करके, पुनः मूलनिवास पर ही जाकर समाप्त करना है। गयाश्राद्ध निमित्त पहला पार्वण-पिण्ड अपने कुलदेवता के पास बैठ कर ही किया जाना चाहिए। यहाँ भाव ये है कि हम अपने कुलदेवता से आदेश और आशीष प्राप्त करते हैं- गयाश्राद्ध हेतु। तत्पश्चात् ग्रामदेवी को परिक्रमा पूर्वक प्रणाम करके उनसे भी आशीष और आदेश लेते हैं। तब गयाधाम की यात्रा करते हैं। अगला यानी दूसरा पिण्ड वस्तुतः गया में प्रवेश का ‘पारपत्र’ है। इसके लिए सुविधानुसार समीप में जहां भी पुनपुननदी मिले(गया में प्रवेश से पूर्व) उसे पार करने से पहले ही पिंड देना होता है। प्रसंगवश यहां स्पष्ट कर दूं कि पश्चिम दिशा से गया नगर में प्रवेश करने वालों को गया से ६७कि.मी.पश्चिम में अनुग्रहनारायण रेलवे स्टेशन के समीप पुनपुननदी मिलती है,और उत्तर की ओर से आने वालों को पटना के पास पुनपुन का दर्शन होता है। वहां उतर कर एक पार्वणश्राद्ध करने के बाद ही आगे गया की ओर बढ़ने का विधान है। और तब गया शहर में प्रवेश करके, गयाधाम के अपने तीर्थपुरोहित(गयापाल) का आदेश लेना होता है- श्राद्धकर्म हेतु। तत्पश्चात् गया स्थित फल्गुस्नान और जल-तर्पण करके श्राद्धीय मुख्यकार्य प्रारम्भ होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि गयातीर्थ में प्रवेश से पूर्व ही,गया से बाहर ही,अपने मूलस्थान पर ही मुंडन कार्य सम्पन्न कर लिया गया है। अब यहाँ एक और शंका हो सकती है- कि जो लोग गया शहर के ही मूल वासी या प्रवासी हैं,वे क्या करें? ध्यातव्य है कि उन्हें भी तो एक पिण्ड पुनपुननदी तट पर जाकर देना ही है- आदि गंगा पुनःपुनाः के सिद्धान्तानुसार- क्यों कि पुनपुन ही आदिगंगा है। भले ही गयावासी इसे आलस्य वश अव्यावहारिक कहकर छोड़ देते हैं,या कि पुनपुन निमित्त पिंड भी फल्गु में ही दे देते हैं।

श्राद्ध का अधिकारी कौन-
याज्ञवल्क्यस्मृति के वचन हैं- पुत्रः पौत्रश्च तत्पुत्रः पुत्रिका-पुत्र एव च,पत्नीभ्राता च तज्जश्च पितामाता स्नुषा तथा। भगिनी भागिनेयश्च सपिण्डः सोदरस्तथा,असन्निधाने पूर्वेषामुत्तरे पिण्डदाः स्मृताः।। यानी पुत्र,पौत्र,प्रपौत्र, दौहित्र(नाती-बेटी का पुत्र),श्यालक (पत्नी का भाई),साला का पुत्र,पिता,माता, पुत्रवधु, बहन, भगिना, सहोदर, अन्य गोत्रज- ये सभी क्रमशः पिंड के अधिकारी कहे गये हैं। कुछ ऐसे ही वचन वृद्धहारीस्मृति के भी हैं- पुत्रः पौत्रश्च तत्पुत्रः पुत्रिकापुत्र ह्येव च। पत्नी च भ्रातरश्चैव पिण्डं दातुं यथाक्रमम्।। अर्थात् पुत्र,पौत्र,प्रपौत्र,दौहित्र,पत्नी, भ्राता इत्यादि क्रमशः पिण्ड के अधिकारी हैं। उक्त दोनों वचनों में किंचित भेद है। याज्ञवल्क्य ने पत्नी को ग्रहण नहीं किया है,और श्यालक(साला)को कर लिया है। जबकि वृद्धहारीत ने पत्नी को समुचित स्थान दिया है,और अन्य की चर्चा नहीं किये हैं। एक अज्ञानता पूर्ण लोकरीति है कि पुत्री (बेटी)को पिण्डदान का अधिकार नहीं है। वस्तुतः यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था की कुरीति का संकेत है। परासरस्मृति के वचन हैं- पितुः पुत्रेण कर्तव्या पिण्डदानोदकक्रिया। पुत्राभावे हि पुत्री च तदभावे च सहोदरः।। इसका समर्थन हेमाद्रि ने भी किया है- पुत्रो वाप्यथवा पुत्री गयाकृत्यं समाचरेत्। अर्थात् पुत्र को पिता का पिंडदान करना चाहिए।पुत्र के अभाव में(यहां अभाव का दोनों अर्थ हो सकता है- पुत्र हो ही नहीं,या कि पुत्र किसी कारणवश समर्थ न हो श्राद्ध हेतु)पुत्री को अधिकार है कि वह श्राद्ध करे। पुत्री भी न हो वैसी स्थिति में सहोदर को अधिकार मिलता है। इन वचनों से स्पष्ट है कि लोक में ये कुरीति बाद में आयी। स्मृतियों की मान्यता के सम्बन्ध में कहा गया है कि कलियुग में परासरस्मृति के अनुसार ही चलना चाहिए,न कि अन्य स्मृति। चारो युग के लिए चार प्रधान स्मृतियां हैं- सतयुग के लिए मनुस्मृति,त्रेता के लिए याज्ञवल्क्य स्मृति, द्वापर के लिए शंख-लिखितस्मृति(ज्ञातव्य है कि शंख और लिखित नामक दो भाई थे,अतः शंख द्वारा लिखित--ऐसा अर्थ न लगाया जाय) और कलियुग के लिए परासरस्मृति-...कलौपारासरस्मृतौ। अधिकार के क्रम में कुछ और बातों पर भी ध्यान देना जरुरी है। शास्त्रों ने यहाँ तक कह दिया है कि कोई किसी के लिए पिण्डदान कर सकता है। अतः लोकरीति का ध्यान रखते हुए,सुविधानुसार कार्य करना चाहिए।

गयाश्राद्ध की वर्तमान विडम्बना-
विडंम्बना ये है कि लोगों ने इस डायभरसन को ही मुख्य रास्ता समझ लिया गया है। आज की दुर्गति ये है कि कादये से एक भी पिण्ड सही नहीं हो रहा है। प्रत्येक वर्ष कई लाख लोग गया आकर पिण्डदान करते हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उनमें शुद्ध श्राद्ध की संख्या अति न्यून है- हजार में एक भी मिलना मुश्किल। सोचने वाली बात है कि एक वेदी पर एक व्यक्ति को विधिवत पार्वणश्राद्ध करने में तीन घंटे लगने चाहिये,जब कि यह काम मुश्किल से पांच-दस मिनट में सम्पन्न करा देते हैं पंडा-पंडित लोग। वो भी,एकल नहीं, बल्कि समूह में बैठा कर—कहीं-कहीं तो लाउडस्पीकर लगाकर।  वैदिक या पौराणिक मन्त्रों की तो बात ही छोड़िये,सही मन्त्रोच्चारण करने वाले सर्चलाइट लेकर ढूढ़ने पर भी शायद ही मिलेंगे। यहां तो सीधे क्षेत्रीय भाषा में चिल्ला-चिल्लाकर पंडित-पंडा बोलते जायेंगे भेड़-बकरियों की तरह समूह में बैठा कर, और आप आंटे की गोलियां डालते जाइये पत्तलों पर—यही है गयाश्राद्ध की वर्तमान स्थिति।
सामान्य लोग तो अज्ञानी हैं,उन्हें क्या पता,पंडित जो करा देंगे, करके चले जायेंगे। किन्तु पेशेवर पंडित को सिर्फ अपना दक्षिणा सूझ रहा है। धर्म और क्रिया से उसे कोई वास्ता नहीं ! इसका ये अर्थ भी नहीं है कि मगध-क्षेत्र में,या खास गयानगर में विद्वान कर्मकाण्डी नहीं हैं। किन्तु जो असली विद्वान हैं,वो इस पेशे से प्रायः दूर रहना चाहते हैं,क्यों कि यहां मूर्खो और ठगों की जमात में उनकी कोई कदर नहीं है।
अतः मैं तो कहता हूँ कि इससे बेहतर है कि आप गयाश्राद्ध ही ना करें। इतनी श्रद्धा से,इतना खर्च करके,समय देकर गयाजी आते हैं श्राद्ध करने, और श्राद्ध के नाम पर ठगे जाते हैं। प्रेम से किसी भूखे को भोजन करा दें,किसी नंगे को वस्त्रदान कर दें,जिस दिन आपके पितरों की तिथि हो। यदि सही मृत्यु-तिथि भी ज्ञात न हो तो अमावश्या को। मूढ़ लोग मेरे इस कटु सत्य से कुपित अवश्य होंगे,किन्तु सत्य तो सत्य होता है— अन्यान्य धार्मिक कृत्यों की तरह गयाश्राद्ध भी आडम्बर,व्यवसाय और ठगी का धंधा बन कर रह गया है। यह कह कर,जता कर मैं किसी को आहत नहीं कर रहा हूँ। ये मेरे दिल का दर्द है,जो पिछले पचीस बर्षों से गयाधाम में रहकर झेल रहा हूँ। आज से बारह वर्ष पहले जब मैं स्वयं गयाश्राद्ध करने को इच्छुक हुआ, तो अच्छे जानकार को ढूढ़ने लगा इस शहर में,और उन्हें अपने मापडण्ड से परखने लगा,किन्तु दुर्भाग्य कि एक दो जो सही थे, वो मेरे औकाद से बाहर निकले, और बाकी तो भेडों की भीड थी। अन्ततः तीन महीने का कठिन परिश्रम करके मैंने स्वयं ही अध्ययन किया श्राद्धविषय का, और तीर्थ-पुरोहित को सिर्फ साक्षी रख कर स्वयं ही, सारी क्रिया सम्पन्न किया,मन्त्र-वाचन से लेकर पिंड-दान-क्रिया तक।

गयाश्राद्ध का अनुभव-पक्ष
ऊपर के विविध प्रसंगों में गयाश्राद्ध के विविध पक्षों पर थोड़ी चर्चा की गयी। श्राद्धीय अधिकार और कर्तव्य पर विचार किया गया। इन सबमें एक बात तो निर्विवाद रुप से कहा जा सकता है कि इस कार्य के लिए श्रद्धा और आस्था अत्यावश्यक है। संसार में बहुत सी वस्तुयें अज्ञात और अदृष्य हैं, किन्तु उन्हें हम स्वीकारने को विवश हैं। सूक्ष्म जगत को जानने,समझने,परखने के लिए सबसे पहले सूक्ष्म जगत के प्रति आस्था होना आवश्यक है। आस्था ही पहला कदम है इस जगत के ज्ञान और अनुभव के लिए।फिर श्रद्धा की बात आती है,और तब शुरु होता है क्रियात्मक पक्ष- लगन और तत्परता सहित। ये सभी घटक जब प्रचुर मात्रा में,शुद्ध रुप से संघीभूत होते हैं,तब अनुभूति-जगत का द्वार स्वतः,शनैः-शनैः खुलने लगता है। यह निहायत व्यावहारिक खेल है। सिद्धान्तों से सिर्फ समीप पहुंचाया जा सकता है- अनुभूति के चौखट तक। अनुभूति प्रकोष्ट में जाना तो स्वयं ही होगा,और बिलकुल स्वार्थीभाव से,अकेले-अकेले। आस्था और श्रद्धा रुपी दो पैरों से,लगन और तत्परता के हाथों से क्रिया में संलग्न हो जायें। अनुभूति का द्वार खुलना शुरु हो जायेगा। इसमें जरा भी विलम्ब नहीं होगा- ऐसा मेरा विश्वास है,और अनुभव भी। और अनुभव की प्रायः बातें गुह्यतम होती हैं। गुह्य होने के पीछे एक बड़ा सा कारण ये भी होता है कि अनुभूति को अभिव्यक्ति देना लगभग असम्भव है। गूंगा गुड़ के बारे में क्या कहेगा? अन्यथा वेद नेति-नेति पर ही ठहर न जाते,कुछ आगे की भी बातें होती। अस्तु।

गयाधाम यात्रा की सावधानियां-
सावधान रहें,किसी दलाल के चंगुल में न फंसें। प्रशासन की ओर से लाख व्यवस्था रहने पर भी लोग ठगी के शिकार हो ही जाते हैं। कुछ असामाजिक तत्व ऐसे होते हैं जो तीर्थ की छवि को विकृत और वदनाम करके,अपना उल्लू सीधा करते हैं। आप कभी भी किसी सामान्य व्यक्ति से सहायता लेने के वजाय प्रशासन से सहयोग लेने का प्रयास करें।
सबसे पहले अपने क्षेत्र के तीर्थपुरोहित यानी पंडाजी का नाम पता ज्ञात कर लें,और प्रशासनिक सहयोगी से वहां तक जाने का मार्ग पूछें। क्यों कि सामान्य से जहां पूछे कि फंसे। स्टेशन पर घूमता कोई भी टीकाधारी खुद को उसी पंडे का आदमी बता देगा,और कमीशन के लिए आपको कही का कहीं पहुंचा देगा।
देश के हर क्षेत्र को गयापालों(तीर्थपुरोहित) ने आपसी सुविधा के लिए बांट लिया है,ये इनकी परम्परागत बातें हैं। आप किस राज्य के किस क्षेत्र के हैं,और आपका गयाशहर में तीर्थपुरोहित कौन है- उसकी जानकारी अति आवश्यक है। यह कार्य गया आने से पहले ही कर लें तो अधिक अच्छा है,या फिर गया पहुँच कर तो अवश्य ही कर लें,अन्यथा ठगी का शिकार होने का ज्यादा खतरा है।
अच्छा होगा कि आप कर्मकाण्ड कराने के लिए पुरोहित अपने साथ लायें,क्यों कि यहां बिलकुल व्यवसायी लोग बैठे हैं,जिन्हें कर्मकाण्ड से कोई मतलब नहीं,सिर्फ अपनी दक्षिणा से मतलब है। गया आकर यहां के तीर्थपुरोहित(गयापाल) से आदेश लें,कार्य की समाप्ति पर उन्हें उनका यथोचित सम्मान और दक्षिणा देकर सुफल आशीष प्राप्त करें। जो असली पंडा यानि गयापाल पुरोहित हैं, वे बड़े ही सज्जन हैं। किसी से मुंह खोल कर या जोर-जबरदस्ती करके कुछ मांगते नहीं। जो मिल जाय- दान-दक्षिणा खुशी से स्वीकार करते हैं। समस्या तब होती है,जब बीच में कोई दलाल पड़ जाता है। अतः सावधान रहें,सुखी रहें। मेरी यही कामना है।

गयाश्राद्ध सम्बन्धी जानकारी के लिए सर्वोत्तम पुस्तक-
ऐसे तो बाजार में अनेक पुस्तकें भरी पड़ी हैं। किन्तु गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित- गयाश्राद्धपद्धति मेरे विचार से सरल और सर्वोत्तम पुस्तक है। इसकी कीमत वर्तमान में मात्र बीस- 20 रुपये है। इसके साथ ही वेदियों आदि की जानकारी के लिए गया-महात्म्य नामक पुस्तिका भी ले सकते हैं। अस्तु।
विशेष जानकारी हेतु आप हमसे सम्पर्क कर सकते हैं- 
email- guruji.vastu@gmail.comया कॉल करें- 08986286163 पर।


                      गयाश्राद्ध-सामग्री

घर का सामान-
आटा गूथने के लिए पीतल का भगौना(टोपिया),पीतल की बाल्टी, पीतल की थाली-2 पीतल का लोटा,पीतल का पंचपात्र और आचमनी,पीतल का अखंड दीप या रक्षादीप-2, फूल की कटोरी-पंचामृत बनाने के लिए,चम्मच-2, कैंची, चाकू। सफेद कम्बल का आसनी(पति-पत्नी के लिए),

नदी में स्नान ऐसा कपड़ा पहन कर करें जिसे वहीं छोड़ दिया जाए।

प्रथम तर्पण के पश्चात् श्राद्धकर्म करने के लिए पति-पत्नी के लिए वस्त्र नया होना चाहिये। साथ ही ग्रन्थिबन्धन के लिए चादर भी जरुरी है।

बाजार का सामान-
अरवा चावल-500ग्राम,
कालातिल-250ग्राम.
जौ-100ग्रा.
कुश- एक मुट्ठा
घी-250ग्राम.
गाय का घी-50ग्रा.
तिल का तेल-100ग्रा.
अष्टगन्ध चन्दन-25ग्रा
रोली-25ग्रा
सिन्दुर-25ग्रा
अबीर-.25ग्रा
चावल का आटा250ग्रा
जौ का आटा- 2किलो
लौंग-इलाइची-25ग्रा
कपूर-25ग्रा
माचिस-2
रुईवत्ती गोल वाला 50पीस
कच्चा धागा-एक लच्छी
जनेऊ-दो बंडल(50पीस)
शहद-छोटी शीशी
गुड़-500ग्राम
जलदार नारियल 1 गोला(बिना छिलका वाला)
सूखा नारियल गोला 2 पीस
छुहारा-250ग्रा.
किसमिस-250ग्रा.
काजू-250ग्राम(कहीं-कहीं काजू का निषेध भी मिलता है)
चिरौंजी-250ग्राम
सुपारी-100ग्राम
पीला सरसो-100ग्राम
गायत्रीपूजा धूप-2पैकेट
मिट्टी का दीया-50पीस
पत्तल-एक बंडल
फल- केला छोड़ कर कोई भी मौसमी फल 40पीस (सेव,अमरुद इत्यादि,क्यों कि केला श्राद्धकर्म में निषिद्ध माना गया है।)
पेड़ा – एक किलो(50पीस)
खुदरा पैसा-सिक्का-100
नगद दक्षिणा-यथाशक्ति(2+2+2+2)कुल आठ जगह देना है।
दूध-एक पाव,
दही-50ग्रा.
पान पत्ता-50
तुलसी पता
दूर्वा-1 मुट्ठा
सादा फूल-20रु.
माला-2 या 5 पीस

नोटः- ये सामग्री विधिवत पार्वण हेतु एक दिन के लिए है। एक दिन में प्रायः दो -तीन वेदियों पर क्रिया करनी होती है। किसी किसी दिन वेदियों की संख्या अधिक भी हो जाती है। इसकी पूरी जानकारी वेदिनामा से प्राप्त होगी।

श्राद्धान्त दान के लिए सामग्रीः-धोती,चादर, गमछा, कुर्ता का कपड़ा,साड़ी,साया,व्लाउज,रुमाल, विछावन के कम्बल या तोषक,विछावन का चादर, तकिया,मच्छरदानी,छाता,जूता,चप्पल,माला, पीतल का टोपिया,कलछुल,कड़ाही,थाली,लोटा, गिलास,बाल्टी,कम्डल,चौकी,खटिया इत्यादि श्रद्धा के अनुसार।

भोजनसामग्री-चावल,आटा,घी,गुड़,चीनी,हल्दी, गरम मसाला, नमक,दाल,सब्जी,फल इत्यादि।
भोजन दक्षिणा- यथाशक्ति
सुफल दक्षिणा-तीर्थपुरोहित हेतु यथाशक्ति (सोना-चांदी हो तो अधिक अच्छा)
आचार्य दक्षिणा- यथाशक्ति(सोना-चांदी हो तो अधिक अच्छा)
                     ----)(----

इस आलेख से यदि यत्किंचित भी किसी को दिशा- 

निर्देश मिला,तो मैं स्वयं को धन्य समझूंगा।


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