रुद्राभिषेक-महामृत्युञ्जयःकिंचित ध्यातव्य

   रुद्राभिषेक-महामृत्युञ्जयःकिंचित ध्यातव्य        

शिवाराधन में रुद्राभिषेक और  महामृत्युञ्जय बहु प्रचलित कर्मकाण्ड है। प्रायः ग्रहादि जनित या अन्य किसी प्रकार की समस्या(विघ्न)निवारण हेतु ये अनुष्ठान किए जाते हैं। आजकल इनका चलन भी खूब है। चाहे कुण्डली के ग्रह कुछ भी कह रहे हों,अन्य कुछ उपाय करने के वजाय रुद्राभिषेक और / या महामृत्युञ्जय करना / कराना अच्छा समझा जाता है। अतः इस सम्बन्ध में कुछ विचार व्यक्त करना चाहता हूँ, कुछ जानकारियां भी देना चाहता हूं(उन्हें जो नहीं जानते)। वैसे जानकारों की कमी भी नहीं है, और मैं कोई नयी बात भी नहीं कर रहा हूँ। वही कह रहा हूँ जो शास्त्र-सम्मत है।
1.मान लिया हम बीमार हैं। तो क्या करुं राज्य के स्वास्थ्य मंत्री के पास जाऊँ या कि सीधे प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति से सम्पर्क करुँ?
2.हमें किसी ने परेशान कर रखा है। तो क्या करुं सीधे उसी को समझाऊँ-बुझाऊँ या मुखिया जी से मिलूं,दारोगा साहव के पास जाऊँ या सबसे अच्छा होगा- सीधे सुप्रीमकोर्ट में मुकदमा दायर कर दूँ?
कुछ ऐसी ही बात है- हर समस्या का एक उपाय—रुद्राभिषेक - महामृत्युञ्जय ।
ध्यातव्य है कि ये अमोघ उपचार हैं, ब्रह्मास्त्र जैसा। हालाकि झोलाछाप डॉक्टर जीवन-रक्षक औषधि कोरामीन-डेकाड्रोन से ही इलाज शुरु करते हैं। ऑक्सीजन और स्लाइन हो सकता है जुकाम में भी लगा दें,क्यों कि उससे बिल भी ज्यादा बनता है।
 अन्तिम (अमोघ) अस्त्र का प्रयोग बहुत सोच-समझ कर प्रयोग करना चाहिए, न कि अश्वत्थामा की तरह – दुर्योधन ने कहा,और चला दिये। उस अस्त्र को जिसे लौटाना भी नहीं आता,या जिसका कोई काट भी नहीं है उसके पास।

उचित है कि सर्व प्रथम मूल कारण का गहन विचार किया जाय — प्रत्येक आशंकाओं और सम्भावनाओं का विश्लेषण किया जाय। दैहिक, दैविक,भौतिक—किस प्रकार की वाधा है, तदनुसार निवारण(समाधान) का चयन होना चाहिए। ग्रह-जनित प्रत्यक्ष कारण कुण्डली में दीख रहा हो यदि, तो सीधे उन ग्रहों की शान्ति आवश्यक है। स्थिति अधिक चिन्ताजनक हो तो भी सीधे महामृत्युञ्जय का अनुष्ठान करने से पूर्व मारक / विघ्नकारक ग्रह को शान्त करना चाहिए। इसके बाद ही अन्य बड़े प्रयोग होने चाहिए। ग्रह-विचार के बाद का दूसरा कदम होना चाहिए-- ग्रहाधिपति-प्रत्यधिपति का विचार। कभी-कभी सीधे अधिदेवता-प्रत्यधिदेवता की ही क्रिया कर दी जाती है। जैसे राहु-केतु जनित वाधा है, जिसे आजकल कालसर्पदोष के नाम से जाना जा रहा है,और पुराने पुस्तकों में इस नाम के न मिलने से शंका भी जतायी जा रही है कि इस तरह का कोई योग होता ही नहीं। जब कि सच्चाई ये है कि राहु-केतु के अधिदेवता के नाम-संयोग (काल और सर्प) से इस योग(दोष)का नामकरण हुआ है। यहां भी ध्यान देने की बात है कि सिर्फ कालसर्पपूजा से कुछ खास होने जाने को नहीं है। उसके पहले स्वतन्त्र रुप से राहु-केतु का विचार करके,उपचार करना चाहिए,फिर कालसर्पशान्ति होगी तो अद्भुत लाभ मिलेगा, अन्यथा हवा में तीर चलाते रहेंगे,और शास्त्र बदनाम होता रहेगा। उपाय करने वाले ब्राह्मण को पैसे तो अवश्य मिल जायेंगे,किन्तु नाम-यश नहीं मिल पायेगा।

अतः किसी भी तन्त्र,मन्त्र,जप,अनुष्ठान, क्रिया आदि से पूर्व ठोंक-पीट कर निर्णय लिया जाना चाहिए। महामृत्युञ्जय और रुद्राभिषेक तभी करें / करायें जब अति आवश्यक प्रतीत हो,और उसके पूर्व अन्यान्य ग्रहादि उपचार कर लिए गये हों। हां,निष्काम भाव से या कि शिवभक्ति, शिवप्रसन्नता, शिवकृपा हेतु करना हो तब तो कोई बात ही नहीं। उसके लिए सिर्फ मुहुर्त का विचार करके काम शुरु किया जा सकता है।(मुहूर्त की चर्चा कुछ दिन पहले के पोस्ट में कर चुका हूँ)
दूसरी बात ध्यान देने योग्य है कि रुद्राभिषेक में रुद्राष्टाध्यायी का पाठ होता है,जो शुक्ल ययुर्वेद का अंश है— विशुद्ध वैदिक। और वैदिक का अर्थ विरहागाना और जैसे-तैसे हाथ हिलाना नहीं है।(अनुस्वारं देतं संस्कृतं होतं,हाथ हिलातं वैदिकं कहतं...)
वैदिक अनुष्ठान बहुत महत्त्वपूर्ण है। बहुत शक्तिशाली है। बहुत गहन है, बहुत कठिन भी। इसके लिए सतत अभ्यास की आवश्यकता है। स्वरों का सम्यक् ज्ञान बहुत ही जरुरी है। संगीत-शास्त्र से भी कहीं अधिक स्वर-ज्ञान होना चाहिए। इसका अपना तन्त्र(विधि)है,जिसे कदापि नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। किन्तु दुर्भाग्य ये है कि लोग हस्त-स्वर-रहित रुद्री की पुस्तक ढूढ़ रहे हैं,और प्रकाशक छाप भी दिये हैं—वेद का गला घोंटकर।
ग्रहादि क्षेमोपाय व्यवस्था में सूर्य के लिए हरिवंश-पाठ-श्रवण,चन्द्रमा के लिए शिवार्चन,मंगल के लिए रुद्राभिषेक, बुध के लिए कन्यादान,गुरु के लिए अमाङ्ग,शुक्र के लिए गोसेवा-पूजन-दानादि,शनि के लिए महामृत्युञ्जय जप,राहु के लिए भुजगदा प्रयोग,केतु के लिए ध्वजगदा प्रयोग सुझाया गया है। इसी भांति सन्तान-प्राप्ति,लक्ष्मी-प्राप्ति,मोक्ष-प्राप्ति आदि हेतु स्वतन्त्र रुप से रुद्राभिषेक प्रयोग भी कहा गया है। रुद्राभिषेक महात्म्य वर्णन में शिवजी कहते हैं कि – सर्वकर्माणि सन्त्यज्य सुशान्त मनसो यदा। रुद्राभिषेकं कुर्वन्ति दुःखनाशो भवेद् ध्रुवम्।। जलेन वृष्टिमाप्नोति व्याधिशान्त्यै कुशोदकैः। दध्ना च पशुकामाय श्रियै इक्षुरसेन च ।। मध्वाज्येन धनार्थी स्यान्मुमुक्षुस्तीर्थवारिणा । पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति पयसां चाभिषेचनात्।। वन्ध्या वा काकवन्ध्या वा मृतवत्सा च याङ्गना । सद्यः पुत्रमवाप्नोति पयसां चाभिषेचनात्।। श्री रुद्रस्य प्रसादेन बद्धो मुच्येत बन्धनात्। भीतो भयात् प्रमुच्येत वन्ध्या पुत्रमवाप्नुयात्।।  मूर्खो वाचामधीशः स्याद् दरिद्रो धनिनां वरः। मूको वक्ता भवेत् पङ्गुर्गिरिं लङ्घयते द्रुतम्।। इत्यादि। कथन का अभिप्राय ये है कि रोग-निवारण हेतु कुशोदक से रुद्राभिषेक करे,दधि से पशु-प्राप्ति हेतु, लक्ष्मी प्राप्ति हेतु ईक्षुरस से,अथवा मधु और घी से अभिषेक करे। पुत्र-प्राप्ति हेतु दूध से एवं मोक्ष प्राप्ति हेतु तीर्थोदक से रुद्राभिषेक का विधान है। कारागार से मुक्ति,अविद्या का नाश,वन्ध्यत्वदोषादि निवारण भी प्रीतिपूर्वक रुद्राभिषेक करने से होता है।

रुद्राभिषेक का उचित समय— इसके लिए सबसे पहले शिववास का विचार करना चाहिए। प्रत्येक महीने के दोनों पक्षों की द्वितीया,पंचमी,षष्ठी,नवमी,द्वादशी,त्रयोदशी एवं अमावश्या तिथियां ग्राह्य हैं, तथा प्रतिपदा, तृतीया, चतुर्थी, सप्तमी,अष्टमी,दशमी,एकादशी,चतुर्दशी और पूर्णिमा तिथियां त्याज्य हैं। ग्रहण और त्याग के निर्णय का सूत्र है- तिथिं च द्विगुणीकृत्य वाणैः संयोजयेत्ततः। सप्तभिश्च हरेद्शेषे शिववासं समुद्दिशेत्।। ठीक इसी आशय का दूसरा श्लोक है- तिथिं च द्विगुणी कृत्वा, पुनः पञ्च समन्वितम्। मुनिभिस्तु हरेदभागं शेषं च शिववासनम् ।। अर्थात जिस तिथि को कार्य करने का विचार है, उस तिथि को दो से गुणा करके,पांच जोड़ें और सात से भाजित करे। प्राप्त शेषानुसार स्थान की जानकारी होती है। परिणाम वास-स्थान पर ही निर्भर है। यानी अनुकूल हो तो कार्य करें, अन्यथा नहीं। शिववास कहां है इसके लिए कहा गया है एकेन वासः कैलाशे द्वितीये गौरी सन्निधौ । तृतीये वृषभारुढ़ः सभायां च चतुष्टये  । पंचमे भोजने चैव क्रीड़ायां च रसात्मके । श्मशाने सप्तशेषे च शिववासः उदीरितः ।। पूर्व श्लोक में कही गयी विधि से गणित करने पर यदि एक शेष बचे तो शिववास कैलाश पर जाने,दो शेष बचने पर गौरी सानिध्य में,तीन शेष में वृषभारुढ,चार में सभामध्य,पांच में भोजन करते हुए,छः शेष में क्रीड़ारत और सात यानी शून्य शेष रहने पर शिव को श्मशान वासी जाने । अव अगले श्लोक में वास का परिणाम कहते हैं कैलाशे लभते सौख्यं गौर्या च सुख सम्पदः । वृषभेऽभीष्ट सिद्धिः स्यात् सभायां संतापकारिणी । भोजने च भवेत् पीड़ा क्रीडायां कष्टमेव च । श्मशाने मरणं ज्ञेयं फलमेवं विचारयेत्।। अर्थात् कैलाश वासी शिव का अनुष्ठान करने से सुख प्राप्ति होती है। गौरी-सानिध्य में रहने पर सुख-सम्पदा की प्राप्ति होती है। वृषारुढ़ शिव की विशेष उपासना से अभीष्ट की सिद्धि होती है। सभासद शिव पूजन से संताप होता है। भोजन करते हुए शिव की आराधना पीड़ादायी  है। क्रीड़ारत शिवाराधन भी कष्टकारी है,तथा श्मशानवासी शिवाराधन मरण या मरण तुल्य कष्ट देता है। ध्यातव्य है कि उक्त शिववास नियम-विचार के साथ-साथ सामान्य पंचांग-शुद्धि(भद्रादि दोष वर्जना)भी अवश्य देखना चाहिए।

रुद्राभिषेक का विविध रुप— रुद्राष्टाध्यायी –जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है,इसमें  मुख्य रुप से आठ अध्याय हैं,साथ ही नौवां अध्याय शान्त्याध्याय का है,और दसवां अध्याय स्वति-प्रार्थना का है। इसके पाठ की कई प्रचलित और मान्य विधियां हैं। सामान्यतया उक्त आठ+दो अध्यायों का पाठ करते हुए वांछित वस्तु से अभिषेक किया जाता है। इस अति संक्षिप्त रीति से किये जाने वाले अभिषेक में भी विधिवत पूजाविधान सहित अभिषेक सम्पन्न करने  में कम से कम चार-पांच घंटे तो अवश्य लगेंगे ही। इसके बाद की क्रियायें(विधियां)और भी जटिल हैं। दुर्गासप्तशती के सादा और सम्पुट पाठ की तरह इसमें भी कई प्रकार हैं। यथा—एकादशीनीरूद्र, लघुरुद्र,महारुद्र,अतिरुद्र,शतरुद्र,सहस्ररुद्र इत्यादि। सामान्य पाठ से अभिषेक के बाद,दूसरे नम्बर पर प्रचलन में है- एकादशीनीरुद्र, जिसमें पूजाविधान तो सामान्य की तरह ही है। प्रथम अध्याय से अष्टम अध्याय के खास स्थान तक क्रमशः पाठ और अभिषेक होते जाता है,किन्तु उसके बाद की क्रिया बदल जाती है—पुनः पंचम अध्याय में बार-बार लौट कर आना पड़ता  है,जिसका क्रम है-,,,,,,,,,,२-- इस प्रकार पंचम अध्याय का पुनः-पुनः ११आवृत्ति पाठ होता है। इसे नमक-चमक विधि कहते है। इस एकादशीनीरूद्र की आवृत्ति-संख्या अलग-अलग कार्यों (मनोकामनाओं) हेतु भिन्न-भिन्न है। यथा- तीन, पांच,सात,नौ, ग्यारह,इक्कीश इत्यादि। आगे की अन्य विधियां और भी जटिल हैं, तदनुसार समय-साध्य, श्रम-साध्य, अर्थ-साध्य भी। अस्तु।
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