नाड्योपचारतन्त्रम् The Origin of Accupressure

नाड्योपचारतन्त्रम् The Origin of Accupressure का पांचवां भाग


गतांश से आगे.....


(चतुर्थ अध्याय का प्रथम भाग)

                                                            

                                                                 चतुर्थ अध्याय

                                                               
                                                     सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि
          नाड्योपचारतन्त्रम्(शिरादाब)(Accupressure) चिकित्सा पद्धति में मानव को कायात्मक और भावात्मक ( Physical & Emotional ) रुप से अभिन्न मानकर रोगों का उपचार संगठित इकाई के रुप में किया जाता है। इस सम्बन्ध में एक और बात ध्यान देने योग्य है कि मानव शरीर पंचभूतात्मक है। समस्त स्थावर-जांगम द्रव्य भी पंचभूतात्मक ही हैं, क्यों कि सृष्टिमात्र ही पंचभूतात्मक है। यही कारण है पंचतत्त्वात्मक द्रव्यों से निर्मित औषधि सेवन से पंचतत्त्वात्मक शरीर के रोगों का निवारण हो पाता है।
            कायगत पंचतत्त्वों- आकाश,वायु,अग्नि,जल और पृथ्वी का नियमन (संचालन) एक विशिष्ट ऊर्जा द्वारा होता है,जिसे जैव-ऊर्जा(विद्युत) (Bio-Electricity) कहते हैं। आयुर्वेद चिकित्साशास्त्र प्राण को संचालक शक्ति मानता है। यह प्राण वायुतत्त्व का एक भाग है,जो शरीर में पांच स्थानों में अपना केन्द्र बनाकर,पांच नामों (रुपों) में स्थित है- प्राण, अपान, उदान,व्यान और समान। चुंकि प्राण वायु इन पांचों में प्रधान है, अतः सबका नियंत्रक (मुखिया) इसे ही माना गया है। विद्वानों ने इसका स्थान हृदयदेश को माना है। वरीयता क्रम में दूसरा है अपानवायु,जिसका स्थान गुदामार्ग को माना गया है। उदानवायु का स्थान कण्ठदेश को माना गया है,और व्यानवायु का स्थान उपस्थमूल से ऊपर है, तथा समानवायु शरीर के मध्य भाग में नाभि से ऊपर हृदय पर्यन्त कार्य करता है। सामान्य अर्थ में समान वायु को शरीर में सर्व व्याप्त भी कह दिया जाता है। इन प्राणादि पंचवायु की स्थिति-स्थापन के सम्बन्ध में प्रसिद्ध ग्रन्थ गोरक्षसंहिता में कहा गया है- हृदिप्राणोवसेन्नित्यमपाने गुह्यमण्डले। समानो नाभिदेशेतु उदानः कण्ठमध्यगः। व्यानो व्यापी शरीरे तु प्रधाना पञ्चवायवः।।
इस प्राणऊर्जा के सम्बन्ध में योगशास्त्रों में बहुत कुछ कहा गया है। वेद और उपनिषद तो प्राण की महत्ता का नित्य गायन ही करते हैं। इस प्राण के वजह से ही हम सब प्राणी (प्राणधारी) कहलाते हैं। तैत्तरीयोपनिषद ब्रह्मवल्ली के अनुच्छेद ३ में प्राण की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है- प्राणं देवा अनुप्राणन्ति । मनुष्याः पशवश्च ये । प्राणोहि भूतानामायुः। तस्मात्सर्वायुषमुच्यते।।
उक्त प्राण में सर्वाधिक (प्रधान) बतलाते हुए उपनिषदों ने इसे मातरिश्वा और सूत्रात्मा कहा है। समस्त इन्द्रियों का कार्य इस प्राणशक्ति से ही चल रहा है। यही कारण है कि उपनिषदों में इन्द्रियों के पर्याय के रुप में भी कहीं-कहीं प्राण शब्द का प्रयोग किया गया है।
चीनीलोग इस प्राणऊर्जा को ‘ची ’ ‘Chi’ कहते हैं।
प्रश्नोपनिषद १-४ में बड़े सुन्दर ढंग से रुपक शैली में इसे चित्रित करते हुए कहा गया है-      स मैथुनमुत्पादयते - रयिं च प्राणं च । अर्थात्  प्रजापति (हिरण्यगर्भ) ने एक जोड़ा उत्पन्न किया- रयि और प्राण ; यहीं से सृष्टि की शुरुआत हुयी। यह रयि ही सृष्टि का समस्त मूर्त-अमूर्त पदार्थ है,एवं प्राण ही वह जीवनी शक्ति है,जो सबका संचालन करती है। इस शक्ति को विद्युत भी कहा गया है- जैव-ऊर्जा(विद्युत)(Bio-Electricity)अर्थात् जीवों के अन्दर रहने वाला विद्युत। सुविधानुसार(स्थिति और कार्यानुसार) इसे दो भागों में बांटा गया- ऋण और धन(Negative & positive) प्राण धन विद्युत खंड है,और रयि ऋण विद्युत खंड। चीनियों की भाषा में इसे ही यिन और यांग (Yin & Yang) कहते हैं। वस्तुतः एक ही विद्युतशक्ति – प्राण- के दो रुप (प्रवाह) हैं ये। एक ही हिरण्यगर्भ के दो रुप हैं। दो गतियां है,दो स्थितियां हैं। दर्शन की भाषा में कहें तो जैसे शक्ति और शक्तिमान,जीव और ब्रह्म, पुरुष और नारी,प्रकृति और पुरुष,उपासक और उपास्य आदि युग्मों में कोई तात्विक भेद नहीं है। वस्तुतः यह भेदाभास ही तो भ्रम है,इसे ही तो हम सृष्टि कहते हैं। इस भ्रम का निवारण (निर्मूल होना) ही तो मोक्ष है।
नाड्योपचारतन्त्रम् (शिरादाब- Accupressure) चिकित्सा पद्धति में इन्हीं दोनों बलों यिन-यांग,धन-ऋण को लेकर चलना है। समझना है। इनके संतुलन-असंतुलन का ध्यान रखना है। ये ही दोनों मुख्य आधार हैं इस पद्धति के। ध्यायव्य है कि ये दोनों प्रकार के विद्युत प्रवाह हमारे शरीर में निरन्तर  निर्विघ्न रुप से प्रवाहित होते रहते हैं।
शरीर को नियंत्रित करने के लिए स्नायुतन्त्र (Nervous System) का मकड़जाल पूरे शरीर में फैला हुआ है। इस व्यवस्था को यहां चित्रांक १ में दिखलाया गया है। इसके साथ ही प्राणऊर्जा का निर्विघ्न वहन पूरे शरीर में (रक्त के कण कण में)रक्तवाहिकाओं(रक्तवहसंस्थान के अंग) (Circulatory System) (चित्रसंख्या दो) के द्वारा होते रहता है। इन दोनों प्रकार (स्नायुमण्डलीय और रक्तवाहिकीय) के शक्ति-मार्गों से होकर प्रवाहित होने वाली ऊर्जा में किंचित वाह्य कारणों(आहार-विहार-विपर्यय) से ज्यूं ही जरा भी व्यवधान आ जाता है,त्यों ही शरीर में किसी न किसी रोग की उत्पत्ति हो जाती है। कहने का तात्पर्य ये है कि रयि और प्राण (ऋण और धन) शक्ति (ऊर्जा) का निर्विघ्नता पूर्वक प्रवाह जारी रहना चाहिए- पूर्ण स्वस्थ की यही स्थिति है,यही लक्षण भी,और यही कारण भी। इसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि शक्ति (ऊर्जा) का व्यवधान ही रोगोत्पत्ति का कारण है।
इस प्रवाह का एक और नाम है- चेतना । यानी शक्ति-प्रवाह,विद्युत-प्रवाह,चेतना-प्रवाह- कुछ भी कहना,एक ही अर्थ को ईंगित करता है।
उक्त प्रवाह(चेतना) को सुविधा के लिए पुनः पांच भागों में बांटा गया (यहां यह ध्यान रहे कि धन और ऋण नाम से दो भागों में पहले ही बांट चुके हैं)। अब पांच नये विभाजन का आधार पूर्व कथित पांचतत्त्व (आकाश,वायु,अग्नि,जल,पृथ्वी)हैं। और इतना ही नहीं पुनः इन पांचों भागों को बायें और दायें क्रम से दो भागों में बांटा गया। इस प्रकार इनकी वास्तविक स्थिति  हो गयी- ५ + ५ = १०, यानी चेतना की पांच धारायें बांयी ओर से और पांच धारायें दांयी ओर से निरन्तर गमन करती हैं,जो कि मूलतः एक चेतना-धारा की पांच+पांच=दस उपधारायें हैं। और इन दसों धाराओं में ऋणात्मक और धनात्मक गुण विद्यमान है। ये दस मुख्य प्रवाह-पथ हैं जैव-विद्युत के।
योगशास्त्रियों ने हाथ और पैर की पांच-पांच उंगलियों को क्रमशः पांचों तत्त्वों का नियामक, संग्राहक,पालक,रक्षक,क्षरक आदि कह कर पुकारा है। पांच अंगुलियों का पंचत्त्व-सम्बन्ध यहां एक तालिका में स्पष्ट किया जा रहा है-
क्रम
अंगुली
तत्त्व
.
अंगुष्ठ
आकाश
.
तर्जनी
वायु
.
मध्यमा
अग्नि
.
अनामिका
जल
.
कनिष्ठा
पृथ्वी
ध्यातव्य है कि सभी अंगुलियां शरीर के चारो उपखण्डों के द्योतक हैं।
जैवविद्युत(चेतना)का प्रवाह-पथ रेखीय रुप से शरीर को दस भागों (Zone) में बांटता है। यही कारण है कि कुछ एक्यूप्रेशर विशेषज्ञ इसे खण्ड उपचार पद्धति (Zone Therapy) के नये नाम से भी सम्बोधित करते हैं। इस विभाजन को चित्रांक तीन द्वारा दर्शाया गया है।
शरीर को जोनों(Zone)में बांटने वाले रेखीय प्रवाह-पथ का एक छोर क्रमशः पैर की अंगुली से प्रारम्भ होकर,ऊपर की ओर बढ़ते हुये सिर तक चला जाता है,और पुनः हाथ की अंगुलियों तक आकर समाप्त होजाता है,जैसा कि चित्रांक ३ में स्पष्ट किया गया है। कहने का अर्थ ये है कि दाहिने पैर के आकाश तत्त्व (अंगुष्ठ) से प्रारम्भ होकर एक पथ (रेखा) ऊपर सिर तक जाता है,और कंधे के पास ही उसका सम्बन्ध दाहिने हाथ के आकाशतत्त्व नियामक(अंगुष्ठ) रेखीय पथ से हो जाता है। इसी प्रकार दाहिने पैर की तर्जनी का सम्बन्ध दाहिने हाथ की तर्जनी से जुड़ता है। तदनुसार ही अन्यान्य अंगुलियों का सम्बन्ध भी समझना चाहिए।
           खण्ड-उपचार-नियम (Zone System) के सम्यक् ज्ञान से आगे चल कर रोग-विनिश्चय में बड़ी सुविधा होगी।
            अब,चेतना-प्रवाह के दूसरे महत्त्वपूर्ण नियमों पर गौर करें-
           चीनी एक्यूपंक्चर विशेषज्ञ डॉ.चु लिएन की मान्यता है कि ची चेतना के दोनों बलों- यिन और यांग(ऋण और धन) (Negative & Positive) का आपसी संतुलन ही स्वस्थ रहने का मुख्य कारण है। हम स्वस्थ हैं,इसका अर्थ ही है कि हमारे शरीर में  दोनों बल (रयि और प्राण) संतुलन की अवस्था में हैं।
           
अब अगले नियम पर ध्यान दें,किन्तु इसके पहले पूर्व कथित चित्रों पर (एक से पांच तक)  जरा एक नजर डाल लें,ताकि इन बातों को समझने में सुविधा हो—
चेतना का ऋण बल शरीर में नीचे से ऊपर की ओर गमन करता है,और धन बल ऊपर से  नीचे की ओर। इसे चित्रांक ४-५ में स्पष्ट किया गया है। ध्यातव्य है इन दोनों बलों का प्रवाह शरीर के भीतर अति सूक्ष्म मार्गों द्वारा होता है। योगशास्त्रियों ने इसे प्राणवह-स्रोत(नाडी) कहा है। यहां यह बिलकुल ध्यान देने की बात है कि प्राणवह-स्रोत तन्त्रिकातन्त्र(Nervous System) की वातनाड़ियां नहीं हैं। ये उनसे भी सूक्ष्म(अतिसूक्ष्म)नाडियां हैं,जिसका ज्ञान और अनुभव आधुनिक शरीर-शास्त्रियों को अब तक नहीं हो पाया है। और हो भी नहीं सकता,क्यों कि यह शरीरशास्त्र(Anatomy) से परे की चीज है। प्राचीन योगवेत्ता ध्यान की गहन अवस्था में उतर कर इन सूक्ष्मातिसूक्ष्म नाडियों का गहन ज्ञानानुभव प्राप्त किये,जिनका वर्णन योग-ग्रन्थों में विशद रुप से प्राप्त होता है। योगियों ने इन सूक्ष्म नाडियों की संख्या ७२०००(बहत्तर हजार) बतलायी है,जिनकी अति न्यून संख्या पर ही आज का एक्यूप्रेशर और एक्यूपंक्चर चिकित्सा पद्धति टिका हुआ है,और वह संख्या है मात्र १४ (चौदह)। हालाकि योगशास्त्रों में भी उक्त ७२०००(बहत्तर हजार)में इन चौदह को ही प्रधान माना गया है।

प्रबुद्ध डॉ.एफ.एम.होस्टन इन चौदह नाड़ियों को मेरेडियन्स (MERIDIANS) कहते हैं। चीनी विशेषज्ञ डॉ.चु लिएन इसे जिंग (ZING) कहते हैं। इन चौदह प्रधान चेतनाप्रवाह पथ (Line of Meridians) को तीन भागों में बांटा गया है। विभाजन का आधार है इनकी गति,स्थिति और कार्य। ये हैं- 
1) ऋणात्मक प्रवाह पथ (Negative Meridians) यिन जिंग        
 2) धनात्मक प्रवाह पथ (Positive Meridians) यांग जिंग
 3) संतुलनात्मक प्रवाह पथ(Balancing Meridians)(इसका चीनियों ने कोई नाम नहीं दिया है)
            उपर्युक्त विभाजन के पहले और दूसरे भाग में नाड़ियों की संख्या छः-छः है,यानी छः प्रवाह पथ ऋणात्मक गुण वाले,तथा छः प्रवाह पथ धनात्मक गुण वाले कहे गये हैं। तीसरे प्रकार यानी संतुलनात्मक प्रवाह पथ की श्रेणी में मात्र दो ही नाड़ियां हैं। इस प्रकार कुल चौदह नाड़ियां हुयी।
ऋणात्मक एवं धनात्मक शक्ति संचार पथ को पुनः सुविधा और स्थिति के अनुसार दायें और बायें क्रम से दो उप भागों में विभाजित किया गया है ; यानी यिन जिंग और यांग जिंग (Negative Meridians) & (Positive Meridians) जो कि पूर्व संख्या छः-छः के रुप में ही शरीर के दायें और बायें भागों से होकर गुजरते हैं। कथन का अभिप्राय ये है कि छहो यिन एवं यांग जिंग शरीर के दायें भाग में भी हैं, और बायें भाग में भी। इस प्रकार इनकी वास्तविक संख्या वाह्यरुप से देखने पर छः-छः जोड़ियों (६x=१२) के रुप में है। इन बारह (जोड़ियों) में एक और विशेषता है जो इनकी स्थिति को ईंगित करती है-
            ऋणात्मक संचार पथ (यिनजिंग) (Negative Meridians) पैरों की अंगुलियों अथवा शरीर के मध्यभाग से प्रारम्भ होते हैं,और ऊपर की ओर जाते हुए,सिर या हांथ की अंगुलियों तक पहुंच कर समाप्त होते हैं। तथा धनात्मक संचार पथ (यांगजिंग) (Positive Meridians) ठीक इसके विपरीत रुप से प्रारम्भ होकर गमन करते हैं। यानी यांगजिंग (रयि बल) सिर, मुंह या हाथ की अंगुलियों से प्रारम्भ होकर,नीचे उतरते हुये पैर की अंगुलियों या किसी अन्य मध्य खण्ड में समाप्त हो जाते हैं। इन्हें ठीक से समझने के लिए पूर्व में दिये गये चित्रांक ४-५ पर गौर करना चाहिए,जहां ऊर्ध्वगामी और अधोगामी तीरों से संकेत दिया गया  है।
            उपर्युक्त शक्ति संचार पथ (Line of Meridians) शरीर के मुख्य अवयवों या तन्त्रों एवं उनकी कार्य-प्रणाली से सम्बन्ध रखते हैं,यही कारण है कि आधुनिक विद्वान उनका नामकरण भी उसी क्रम में कर दिये हैं। जब कि योगशास्त्रों में इस प्रकार स्वतन्त्र अवयव प्रधान नामकरण नहीं है।  किन्तु हां, वहां भी स्थिति वर्णन अवश्य है। एक प्रसिद्ध ग्रन्थ जाबालदर्शनोपनिषद में इन प्रधान वात नाड़यों को इस प्रकार स्पष्ट किया गया है-
क्रमांक
नाडियों के नाम
स्थान (गमन मार्ग)
१.
सुषुम्णा
मेरुमूल से मस्तिष्क पर्यन्त
२.
इडा
सुषुम्णा के बाम भाग में (मूल से भ्रूमध्य पर्यन्त)
३.
पिंगला
सुषुम्णा के दक्षिण भाग में (मूल से भ्रूमध्य पर्यन्त)
४.
गांधारी
वाम नेत्र से वाम पादांगुष्ठ पर्यन्त
५.
हस्तिजिह्वा
दक्षिण नेत्र से दक्षिण पादांगुष्ठ पर्यन्त
६.
पूषा
मेरुमूल से दक्षिण कर्ण पर्यन्त
७.
यशस्विनी
मेरुमूल से वाम कर्ण पर्यन्त
८.
शूरा
मेरुमूल से नासिका पर्यन्त
९.
कुहू
सुषुम्णा के पूर्वभाग में नासिका (मुख)पर्यन्त
१०.
सरस्वती
मेरुमूल से जिह्वा पर्यन्त
११.
वारुणी
यशस्विनी एवं कुहू - मध्य
१२.
अलम्बुषा
नाभिमूल से गुदा पर्यन्त
१३.
विश्वोदरी
कुहू एवं हस्तिजिह्वा मध्य
१४.
शंखिनी
गान्धारी एवं सरस्वती मध्य
योगदर्शन प्रणेता महर्षि पतञ्जलि प्रणीत ग्रन्थ ‘ पाताञ्जलयोगदर्शन ’  के भाष्कार— स्वामी ओंमानन्दतीर्थ जी ने इन वात नाडियों के विषय में विशद रुप से वर्णन किया है। चौदह प्रधान वातनाडियों का नाम करण तो पूर्ववत ही है,किन्तु गमन एवं उद्गम मार्ग में किंचित भिन्नता है।
            इसे आगे की तालिका से स्पष्ट किया जा रहा है-
1.पूषा नाडी का गमन मार्ग तो जाबालदर्शनोपनिषद तुल्य ही है,किन्तु दक्षिण कर्ण के वजाय  दक्षिण नेत्र पर्यन्त कहा गया है।
2.शंखिनी नाडी को वाम कर्ण पर्यन्त कहा गया है।
3.विश्वोदरा का स्थान नाभिकन्द माना गया है।
4.शूरा के स्थान पर पयश्विनी नाडी की चर्चा है।
अब आगे अवयव प्रधान क्रम से किये गये नामकरण की तालिका स्पष्ट की जा रही है-
(क)ऊपर जाने वाले छः ऋणात्मक संचार पथ(यिनजिंग)(Negative Meridians)-
1.हृदय संचार पथ- Heart Meridian
2.हृदयावरण संचार पथ – Pericardium Meridian
3.फुफ्फुस  संचार पथ – Lungs Meridian
4.यकृत संचार पथ – Liver Meridian
5.प्लीहा संचार पथ – Spleen Meridian
6. वृक्क संचार पथ – Kidney Meridian
(ख) नीचे आने वाले धनात्मक संचार पथ(यांगजिंग)(Positive Meridians)-
      1.वृहदान्त्र संचार पथ- Large Intestine Meridian
      2.लघुआन्त्र संचार पथ- Small Intestine Meridian
      3.आमाशय संचार पथ- Stomach  Meridian
      4.मूत्राशय संचार पथ- Urine Bladder Meridian
      5.पित्ताशय संचार पथ- Gall Bladder Meridian
      6.उष्मा संचार पथ -  Warmer Meridian

मानव शरीर में इन सभी संचार पथों की स्थिति को आगे क्रमशः चित्रांक ६ से १७ तक दर्शाया गया है। ध्यातव्य है कि ये सभी वाम और दक्षिण दोनों भागों में विद्यमान हैं,और समान रुप से गमन करते हैं। इस प्रकार प्रत्येक पथ का एक जोड़ा तैयार हो जाता है। अतः दिये गये चित्रों में एक ही तरफ के लकीरों से भ्रमित न हों।
क्रमशः....



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