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वांछित-अवांछित झंझावातों से आलोड़ित जीवन; वृन्त-विहीन,पतझड़-प्रभावित पीताभ पत्र की तरह ही तो प्रायः
होता है,जिसका ठौर सदा अज्ञात होता है। गति और प्रयास भी उसका- स्वयं का कदापि नहीं होता,फिर भी माने बैठा होता है कि वह
स्वयं उड़ रहा है, गत्यमान ही नहीं,प्रगतिशील भी है। काश !
उसे पता होता कि वह अपने उद्भव-स्थान से स-कारण छिटक गया है और पुनः वहां पहुंचना कठिन
ही नहीं,असम्भव भी है। भले ही यह बात पत्ते के साथ है,मनुष्य के साथ घटित नहीं; क्यों कि मनुष्य ‘स-कारण’ छिटका है,तो ‘सायास’ उसकी वापसी भी हो जा सकती है। किन्तु फिर भी काल का वह
टुकड़ा,जो सरक गया है सामने से- भले ही उसका स्वरुप मृदु-रुक्ष जो भी हो,किन्तु क्या
सायास भी उसे फिर से हस्तगत किया जा सकता है?
नहीं न? फिर क्यों
हम विकास और प्रगति का दम्भ पाले हुए होते हैं?
खोने के सिवा,पाया ही क्या है ?
वैसे इस
खोने-पाने की लम्बी दास्त़ान है,जिसे इस(यहां के)विषय से कोई वास्ता नहीं।
स्वाभाविक है कि नाड्योपचारतन्त्रम् के पाठक का भी इससे कोई भला नहीं होने जा रहा
है। अतः इसे यहीं विराम देकर,आगे की बात करते हैं।
....उपर्युक्त कुछ वैसे ही विचारों का दौर था वह, और ऐसे ही
रुक्ष,श्रीहीन हो रहे वातावरण का परवाह किये वगैर,परिवेश और परिवार से निर्मोही-सा
होकर तपन की क्रूरता को धत्ता बताता,भरी दोपहरी में निकल पड़ा था,किसी अज्ञात
मंजिल की ओर,बिना किसी सुदृढ़ सहारे-भरोसे-आसरे के। पांच मील की दुःसह पद यात्रा
के बाद ही किसी सवारी का सहारा मिल पाया था- थके-मादे,भूखे-प्यासे,थरथराती कृशकाय
युवक को। जेब में विशेष कुछ था नहीं,जिसे ढीला करने का दुःसाहस भी किया जाता,और
इतना दबंग भी नहीं कि बिना जेब ढीला किये लम्बी ‘वस’- यात्रा कर सके। किन्तु किसी तरह कह-सुन कर रेलवे स्टेशन तक
तो पहुंचना ही था,सो पहुंचा,और फिर बिन दिशा-विचार किये, दिशा-हीन यात्रा शुरु हो
गयी। शाम होते-होते आंखें सूज गयी थी,कुछ कीच भी आ घेरे थे कोरों को,जिसे बारबार
रुमाल से पोंछते हुए,ठेलमठेल हो रहे सूपरफास्ट ट्रेन के स्लीपर बोगी में एक ओर
दुबका सा खड़ा था- न जाने कब टीटी की नज़र लग जाये,और डब्लू.टी. के आरोप में
प्रताड़ित-दण्डित होना पड़े। किन्तु कभी-कभी ऐसा नहीं भी होता है,और ये न होना
ही,हम जैसों का मनोबल बढ़ा जाता है। क्यों कि टिकट तो ‘प्रायः’ इसलिए लिये जाते हैं ताकि टीटी पकड़ न ले। यदि वह न पकड़े या
न हो,तो रेल-सफर और भी निरापद हो जाए...रेल सरकारी है न,और सरकार अपनी यानी
प्रजा-सुख-दायक।
...सोच रहा था,परन्तु किये भी वही जा रहा था,जिसे न करने की
मनाही भीतर से
हो
रही थी। दरअसल भीतर की सुनता कौन है !
सुनने की लत डाले,तो शायद दुनिया की बहुत सी समस्याओं का हल ख़ुद-ब़-ख़ुद निकल
आये...।
अचानक विचारों को
झटका लगा- भौतिक झटका। चुभती-किरकिराती अधखुली आंखों को जरा विस्तार देकर देखने का
प्रयास किया,तो सामने की वर्थ पर गोरीचिट्टी,थोड़ी चपटी नाक और नदारथ भौं वाली एक
परिवेशिनी नज़र आयी,जो हाथ बढ़ाकर, सुस्पष्ट हिन्दी में आहूत कर रही थी- ‘ लगता है
तुम्हारी आंखों में दर्द है गर्मी का असर हो गया है आओ मेरे पास आओ तुरता तुरत इसे
छूमन्तर किये देती हूँ।’ बिना कॉमा-फुलिस्टॉप के इतना बोल गयी वह, और हाथ
पकड़,अपनी ओर खींचती हुयी वर्थ पर बैठने का संकेत की। क्षणिक किन्तु स्वाभाविक
हिचकिचाहट के साथ सिकुड़कर बैठ गया- वर्थ
पर वैसे ही ठेलमठेल मुद्रा में, जैसा कि आमतौर पर स्लीपर में भी लोग ठंसे होते हैं
। वह मेरे दोनों हथेलियों को सहलाने लगी। फिर किसी खास स्थान पर अपने सुकोमल
अंगुलियों से दबाने भी लगी। और फिर यही काम उसने मेरे तलवों में भी किया- बे झिझक
मेरे तलवों को अपनी सुपुष्ट जांघों पर टिकाकर। मुझे कुछ अजीब लग रहा था। संकोच भी
हो रहा था,परन्तु तकलीफ में राहत भी मिल रही थी- ऐसा मैंने अनुभव किया। कोई दो
मिनट बाद उसने कहा- ‘ वो ऊपर वाले वर्थ पर मेरा ही लगेज़ पड़ा है,उसे एक ओर सरका
कर लेट जाओ जाकर। कोई घंटे भर बाद वाले बड़े जंक्शन पर मुझे ये ट्रेन छोड़नी है।
तुम्हें कहां तक जाना है ? ’
मुझे कहां तक जाना है- इस सवाल का जवाब तो मुझे ख़ुद ही अभी
तक पता नहीं था। मेरी चुप्पी पर वह ख़ुद ही जवाब दे डाली- ‘ कोई बात नहीं,बातें
घंटे भर बाद भी कर लेंगे। अभी तुम चुप सो जाओ,आराम से।’
मैं उचक कर ऊपरी वर्थ पर जा लेटा। बिन मांगी मुऱाद मिल गयी।
आराम तो सच में मिल रहा था,पर नींद से दूर-दराज़ का भी रिश्ता नज़र न आया। सोचने
लगा- दुनिया में अभी भी बहुत भले लोग हैं...अहैतुकी कृपा के लिए ईश्वर भी नाना
रुपों में अवतरित हो जाता है...।
शान्त शरीर वर्थ पर लेटा था,पर अशान्त मन घायल हिरण सा कुलांचे
मार रहा था,और इस अशान्ति में ही समय का बहुत बड़ा हिस्सा सरक गया- ये मुझे तब पता
चला जब अचानक उसकी आवाज कानों से टकरायी- ‘प्लीज़ मेरा लगेज़ देना,मैं अब उतरने
वाली हूं। मुगलसराय जंक्शन आ रहा है,यहीं से वाराणसी के लिए टैक्सी लूंगी। तुमने
तो बताया भी नहीं कि कहां जाना है!’
मैं क्या कहता,कोई निश्चित ठौर होता तब न। उसका बड़ा सा बैग और
साथ में
अपना
सोशलिस्टिक झोला,जिसमें महज़ एक सेट कपड़ा,और गमछा भर था,एक साथ लिए नीचे ऊतर
पड़ा- अरे हां,मुझे भी तो वनारस ही जाना है।
मेरा जवाब सुन वह मुस्कुरा पड़ी-
‘ चलो अच्छा है,थोड़ा और साथ मिल जायेगा।’
मैं सोचने लगा- इस बड़ी दुनिया में कौन किसका कितना कहां तक
साथ दे पाता है! फिर भी
साथी की बात पर मन पुलकित हो जाता है,जबकि यात्रायें सबकी अकेली-अकेली हैं...।
स्टेशन से बाहर आकर,उसने एक टैक्सी ली। आओ बैठो,कहते हुये
बड़े सहज अन्दाज़ में मेरा हाथ पकड़, बैठने को बोली,मानों कितना पुराना परिचय हो।
‘बनारस में
कहां जाओगे ’ - उसके इस
सवाल पर मैं एकदम फंस गया। लगता है,अब कुछ कहना ही पड़ेगा,और जब कहना ही पड़ेगा तो
झूठ का सहारा कितनी देर कारगर होगा? पता नहीं लोग क्यों
सहारा लेते हैं झूठ का !
आपकी जिज्ञासा के लिए मैं ये साफ बता दूं कि मैं कुछ कामधाम
की तलाश में घर से निराश होकर निकला हूं- पत्नी और एक बच्चे को छोड़कर। कहां
जाऊँ,क्या करुं- कुछ पता नहीं।
मेरी बात पर वह जरा चौंकी- ‘अरे!
तुम बीबी-बच्चे वाले हो? तुम्हारी
उम्र तो बहुत कम है। खैर,कोई चिन्ता न करो। अब जब हम मिल ही गये हैं,और तुम्हें
काम की तलाश है ही,फिर कोई न कोई जुगाड़ लग ही जायेगा। तुम पढ़े-लिखे कितने हो? ’
इसी साल ग्रैजुयेशन किया है मैंने। शादी बहुत कम उम्र में हो
गयी थी। बच्चा भी साढ़े तीन साल का हो गया है। पत्नी फिर गर्भवती है। मैके में
रखकर आया हूँ। छोटे-मोटे काम बहुत देखा,किया,पर सौ-दौसौ की नौकरी से क्या
होना-जाना है। अच्छी नौकरी के लिए डिग्री के अलावा भी बहुत कुछ चाहिए होता है न !
वह फिर मुस्कुरायी- ‘अगर हजार रुपये का काम मिले तो,करोगे? काम भी इज्ज़त वाला है। मेरा एक एन.जी.ओ. है। पूरे विश्व में
हजारों ब्रान्च हैं। कहीं भी तुम्हें एडज़स्ट करा दूंगी- तुम्हारे ही इलाके में।
यहां वाराणसी में रहना पसन्द करोगे?’
जी में आया लपक कर उसके पांव छू लूं। किन्तु जातिगत ‘हेठी’
ऐसा करने न दी। सिर्फ सिर हिलाकर रह गया। धन्यवाद ज्ञापन भी न कर सका। किन्तु
आंखें जाति और धर्म शायद नहीं देखतीं। स्नेह और प्रेम देखती है सिर्फ। आंखों के
किनारे गीले हो आये,और बरसने को विवश, जिसे वो भांप गयी,और चट अपना रुमाल आगे कर,
मेरा चेहरा पोंछ डाली- ‘तुम बहुत इमोशनल हो। ’
और उसी दिन, मैं उसकी संस्था का शाखा-प्रबन्धक बन गया। ऑफिस
में ही रहने-खाने की पूरी व्यवस्था हो गयी। और सबसे वड़ी व्यवस्था ये कि बेहिचक
उसने मुझे आदेश दिया कि थोड़े पैसे आज ही अपनी पत्नी को भेज दो,ताकि उसे तसल्ली हो
कि वह अब किसी बेरोजगार की पत्नी नहीं है, और अपने जरुरत भर भी कुछ रख लो; हिसाब मेनटेन कर देना- पीटीकैशबुक में।
विविध कार्यभार सौंप-समझा कर वह अगले ही दिन पांडिचेरी जाने
वाली थी; किन्तु
अचानक टेलीग्राम मिला कि जिनसे मिलने जा रही है,वो इसी क्षेत्र के दौरे पर हैं,और
जल्दी ही वाराणसी आरहे हैं,फलतः रुक जाना पड़ा,और मुझे उससे विछड़ने के दुःख से
तात्कालिक राहत मिली।
आने वाले सज्जन एक ऊच्चकोटि के साधक थे,जिसे वो अपना गुरु
मानती थी। दो दिनों बाद वे पधारे,और फिर उनकी ‘गुरुता’ से मैं भी असम्बद्ध न रह सका। उनका तेज और आकर्षण मुझे बरबस
ही उनके चरणों में निढाल कर दिया। अहंकार की भित्ती अचानक ढह गयी।
पन्द्रह दिनों के प्रवास में योग पर गहन चर्चा हुयी। इसी क्रम
में यह भी स्पष्ट हुआ कि वे विशेष पढ़े-लिखे व्यक्ति नहीं हैं,किन्तु प्रबुद्ध
साधक अवश्य हैं। उनका ही आदेश हुआ कि मैं इस ‘आत्मपरिचय
खोती विद्या’ पर कुछ काम
करुं,और सामान्य जनोपयोगी बनाऊँ। साथ ही उनका यह भी आग्रह था कि उनके बारे में
विशेष कुछ खुलासा न किया जाय। उनके श्रीचरणों में रह कर,जो कुछ भी मैंने सीखा-जाना
उसकी ही एक क्षुद्र बानगी है- नाड्योपचारतन्त्रम्। रचना कैसी है,क्या है – इस विषय
में मैं स्वयं क्या कहूं। इसका निर्णय तो आप सुधीजन ही ले सकते हैं।
नाड्योपचारतन्त्रम् के इस कलेवर को सृजित करने में मुख्य
योगदान तो गुरुदेव का ही कहा जाना चाहिए,जिन्होंने अपने अनुभव और ज्ञान को मुझमें
समाहित किया। सैद्धान्तिक-व्यावहारिक ज्ञान के साथ-साथ बहुत से रेखाचित्र भी मुझे
सौंपा उन्होंने,जिन्हें फोटोशॉप की मदद से मैंने साफ-सुथरा भर किया। चेतना-प्रवाह(मेरिडियन),तथा
अन्य विन्दुओं को स्पष्ट करने के लिए अपने दौहित्र चि.पार्थसारथी को मॉडेल बनाया।
पुत्री स्वस्तिका के कम्प्यूटरीय ज्ञान का लाभ भी लिया। विविध मूल ग्रन्थों-
पातञ्जलयोगदर्शन, घेरण्डसंहिता, योगवाशिष्ठ,योगदर्पण,कुण्डलिनीसाधना,जाबालदर्शनोपनिषद,चरक-सुश्रुतादि
आयुर्वेद ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य आधुनिक एक्युप्रेशर पुस्तकों का भी सहयोग
लिया,जिनका हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहता हूँ। और सबसे अन्त में, सोशलमीडिया के
संचालकों को आभार व्यक्त करना चाहूंगा,क्यों कि यदि ये सुविधा न होती तो मेरा सारा
किया-कराया यूँ ही धरा रह जाता,जो कि आज वैश्विक महाजाल(इन्टरनेट) पर छाया हुआ
है,कागज के पन्नों में पड़ा सिसकता रहता,और कालान्तर में दीमक का ग्रास बनता। अस्तु।
निवेदक- कमलेश पुण्यार्क
श्रीयोगेश्वर आश्रम,मैनपुरा,चन्दा,कलेर,अरवल,बिहार,भारत
सम्पर्क – मो.+918986286163,guruji.vastu@gmail /
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