नाड्योपचारतन्त्रम्-The Origin of Accupressure

गतांश से आगे..दूसरा भाग

                              प्रथम अध्याय
           
         विषय प्रवेश 

अपनी विकास-यात्रा के क्रम में इक्कीसवीं सदी का प्रवेश-द्वार लांघता मानव,एक बार पीछे मुड़कर जिज्ञासा भरी दृष्टि दौड़ाता है, यह जानने हेतु कि विकासोन्मुख लम्बी दौड़ में उसने अबतक क्या कुछ पाया,क्या कुछ खोया...और अचानक उसे वोध होता है कि पाषाण युग से कम्प्यूटर युग तक दौड़ लगाने के क्रम में उसने अपने कई बहुमूल्य वस्तुओं को खो दिया है, भुला दिया है,विसरा दिया है। और तो और,आरामतलवी और समृद्धि की अन्धाधुन्ध दौड़ में, सुख ढूढ़ने के प्रयास में शान्ति को भी गवां दिया है।
पहला सुख निरोगी काया,दूजा सुख घर होवे माया,तीजा सुख सुशीला नारी,चौथा सुख सुत आज्ञाकारी वाली पुरानी कहावत में पहला सुख भी पूर्णतः प्राप्त नहीं हो सका। प्रतिद्वन्द्विता की होड़ में,दूसरों को परास्त करने की हबश में नित नूतन आणविक और रासायनिक शस्त्रास्त्रों की खोज ने स्वयं को ही परास्त कर दिया एक हथियार के इज़ाद ने अनेक बीमारियाँ पैदा कर दी,और विशाल व्याधि-वृक्ष के प्रशस्त प्रशाखाओं तले खड़ा, शून्य ताकता,वौना विज्ञानी-मानव सिर खुजाने को मज़बूर हो गया। आद्य सुख निरोगी रहने का सुख कपूर के धुएं सा,भरपूर कालिमा विखेर कर लुप्त हो गया। असाध्य हृदय रोग मानों सर्दी-ज़ुकाम हो गया। कैंसर और एड्स जैसी जानलेवा बीमारियों से जूझने को विवश हो गया मनुष्य। विकास-यात्रा में सहयात्री को परास्त करने में मानवी शत्रु को परास्त करने में,रोग शत्रु हावी हो गया। कथन का अभिप्राय ये है कि मनुष्य की रोग-प्रतिरोधी क्षमता दिनानुदिन घटती जा रही है। और यह ग्राफ बहुत तेजी से शून्य की ओर सरक रहा है। शत-प्रतिशत मनुष्य ही नहीं,अन्य प्राणी भी पशु,पक्षी,पेड़-पौधे,लता-गुल्म,नदी-पहाड़, धूप,हवा...सब कुछ तो रोग-ग्रस्त ही हो चले हैं। सुदूर निस्सीम अन्तरिक्ष को भी हमने रोग-मुक्त कहां रहने दिया है ! मानव ही नहीं,मानवता भी बीमार पड़ी है।
महर्षि सुश्रुत ने अपनी संहिता के सूत्रस्थान १-२-४४ में कहा है
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः । प्रसन्नात्मेन्द्रिय मनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते।। अर्थात् कफ,पित्त,वायु नामक त्रिदोष,अग्नियां,रस,रक्त,मांस,मेद्य,अस्थि,मज्जा और शुक्र नामक सप्तधातु, सभी धातुओं के मल- मूत्र,पुरीष,कर्ण-नासा,त्वचादि के मल मात्र की साम्यावस्था मात्र ही स्वस्थ का लक्षण नहीं है,प्रत्युत इन्द्रियां,इनका अधिष्ठाता मन के साथ-साथ आत्मा का प्रसन्न रहना भी जरुरी है,तभी पूर्ण स्वस्थ की संज्ञा दी जा सकती है। कुछ इसी आशय की एक परिभाषा विश्व-स्वास्थ्य-संगठन को भी मान्य है- Health is a complete physical, mental and social well being, not  merely absence of disease or infirmity. और इस मापदण्ड से देखा जाय तो क्या आज का एक भी मनुष्य स्वस्थ कहलाने योग्य है? उत्तर निश्चित ही न में होगा।
ऐसा क्यों ?– प्रश्न विचारणीय है।
ऐसा शायद इसलिए कि हमने अपने आरोग्य की कुञ्जी अनन्यभाव से पाश्चात्य औषधि विज्ञान(चिकित्साविज्ञान नहीं) के हाथों सौंप दी है। सामान्य सा सिर दर्द हुआ कि चट एनालजीन की गोली गटक लिए खुद से ही। थोड़े प्रबुद्ध हुए तो डॉक्टर के पास दौड़ लगाये,और उनकी कृपा से कोई एनालजेसिक इन्जेक्शन ठुक गया मसल में। परिणाम समझे-भुगते शरीर,क्यों कि यह सोच-विचार करने का समय कहां है,किसीके पास कि दर्द का मूल कारण क्या है। सौभाग्य से यदि किया भी जाता है,तो बहुत देर बाद,या कहें प्रारम्भिक प्रयोगों के विफल होने के बाद, आंखें थोड़ी खुलती हैं।
ध्यातव्य है कि औषधि विज्ञान की परिमिति और परिणति शनैःशनैः प्रकाश में आती जा रही है। जो दवा कल तक महान कीटाणु/जीवाणु नाशक मानी जाती रही थी,आज उनकी क्षमता का ह्रास वा नाश प्रायः दृष्टिगत है। हम इस बात को दूसरे रुप में यानी दूसरे पहलु से भी देखते हैं- कहते हैं कि जीवाणु/कीटाणु ही प्रबुद्ध होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं दवाओं के दुष्परिणाम भी साफ झलक रहे हैं, भले ही स्वीकारें या नकारें। दवाओं की प्रभाव-न्यूनता(ह्रास) की निरन्तर बढ़ रही खाई को पाटने का विफल-सफल प्रयास भी हम किये जा रहे हैं- तीव्र से तीव्रतर और तीव्रतम औषधि की खोज में लगे हैं,निरंतर। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि जो दवा जितनी असरदार होती है,प्रायः देखा जाता है कि उसका प्रतिप्रभाव (side effect ) भी उतना ही तीव्र और घातक होता है। इस सम्बन्ध में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ.फ्रेन्ड कहते हैं कि हानिरहित दवा जैसी कोई चीज हो ही नहीं सकती।
औषधि-विज्ञान की एक और बड़ी त्रुटि ये है कि प्रत्येक लक्षण के लिए प्रायः अलग-अलग दवा होती है। इसका मूल कारण है कि पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान मानव शरीर को अविभाज्य इकाई मान कर विचार नहीं करता,जब कि प्राच्य चिकित्सा-शास्त्र में ठीक इसके विपरीत मान्यता है- शरीर एक अविभाज्य इकाई है। इसके किसी एक अंग के प्रभावित होने पर,उसका प्रतिफल अन्यान्य अंगों पर पड़ेगा ही,यह तय है। यही कारण है कि आयुर्वेद का दोष-दूष्य चिकित्सा-सिद्धान्त आज भी उतना ही समीचीन है,और सुदीर्घ भविष्य में भी निश्चित रुप से अद्यतन ही बना रहेगा।
मानव शरीर स्रष्टा की कृति का,कलात्मकता का,विकास का सम्भवतः महत्तम् उदाहरण है। डारविन के विकासवाद सिद्धान्त के अनुसार कहें तो यही स्पष्ट होता है कि एक कोषीय प्राणी अमीबा का ही विकसित रुप है मनुष्य। फिर यह विचारणीय हो जाता है कि इतने विवेकशील कलाकार की कृति इतनी मृयमाण क्यों हो गयी ! क्या मृयमाणता(नश्वरता) अनश्वरता का वोध कराने के लिए आवश्यक है? विधाता की सुन्दरतम,अनन्यतम संरचना मनुष्य इतना रुग्ण हो गया ? उसकी आयु दिनों दिन इतनी क्षीण क्यों होती जा रही है? उसकी शारीरिक और मानसिक शक्ति का ह्रास क्यों होता जा रहा है...अनेकानेक प्रश्न मानसपटल पर उदित होते हैं। किन्तु सच पूछा जाय तो मानव इन सबके लिए स्वयमेव जिम्मेवार है। महान स्रजक की स्रजनशीलता में रंचमात्र भी त्रुटि नहीं। कृतिकार ने मानव के समक्ष समस्त साधन प्रस्तुत कर दिया है। सभी खजाने की पूरी कुञ्जिका मनुष्य के हाथ में थमा रखी है।
पञ्चमहाभूतों के नियंता ने पंचभूतात्मक मानव शरीर की रचना की है,या यूं कहें कि महत् से उत्पन्न सारी सृष्टि- चर-अचर पंचभूतात्मक ही है। ऐसा शायद इसलिए कि किंचित विपर्ययों से यदि कायगत भूतों का संतुलन विगड़ जाय तो वाह्य भूतों की आपूर्ति से उन्हें ठीक (संतुलित)किया जा सके। कृतिकार ने पञ्चज्ञानेन्द्रिय और पञ्चकर्मेन्द्रियों  से ही सन्तोष नहीं पाया, प्रत्युत इन दश से ऊपर नियन्त्रक के रुप में ग्यारहवां इन्द्रिय- मन को रखा। मन ही वह वागडोर है,जिसके सहारे समस्त इन्द्रियों पर काबू पाया जा सकता है। परन्तु इससे भी स्रजक सन्तुष्ट नहीं हुआ,अतः मन के बागडोर को सम्भालने हेतु बुद्धि को सृजित किया,और इससे भी ऊपर विवेक को महानियंत्रक के रुप में प्रतिष्ठित किया,जिसे प्रज्ञा नामक महाशक्ति प्रदान की। कथन का अभिप्राय ये है महत्तम् कृति को सम्यक्-सर्वांगीण अलंकृत किया गया। कहीं कोई त्रुटि रहने ही न दी गयी।

किन्तु अफसोस, ‘ आहार,निद्रा,भय मैथुनं च ’ का आश्रयी होकर मानव वस इसी का होकर रह गया। सागर की अतल गहराई से अन्तरिक्ष की असीम ऊँचाई पर्यन्त जिज्ञासा भरी दृष्टि डालने का खूब प्रयास किया मानव ने,करता भी जा रहा है- प्रत्येक पीढ़ी,उत्तरोत्तर रुप से, किन्तु बाहर बाहर जितना अधिक झांक-ताक करने का प्रयास(श्रम) किया,भीतर का अन्धकार उतना ही घनीभूत होता चला गया,क्यों कि उस ओर पैनी निगाह डालने की कोशिश ही नहीं की गयी। धरा की खनिज सम्पदाओं का लेखा-जोखा खूब किया,किन्तु कायगत छिपे पड़े अनमोल रत्नों पर जरा भी ध्यान न दिया गया। फलतः षटचक्र और कुण्डलिनी की क्रिया आज भी पहेली ही बनी हुयी है,जिसके अन्तर्गत स्वस्थ दीर्घजीवन की ताली ही नहीं अपितु सृष्टि का सर्वस्व छिपा हुआ है। हालाकि चक्र-भेदन(सही अर्थों में कहें तो चक्र-जागरण) आम आदमी के वस की बात नहीं है,किन्तु स्वस्थ रहने की लालसा और कामना तो सबकी है- जीवेम शरदः शतम्...। और इसकी भी कुंजी हमारे शरीर के भीतर ही कहीं रखी हुयी है। वाह्य औषधि-व्यवस्था(विज्ञान) तो बहुत बाद की बात है,कुछ विकास के बाद; किन्तु अन्तःचिकित्सा व्यवस्था तो शरीर के साथ ही उत्पन्न हुयी है। उसे कहीं बाहर से खोजना नहीं पड़ा है, सिर्फ जानना भर काफी है। यदि सम्यक् विधि से अन्तः औषध (रोग-निवारण-क्षमता) का ज्ञान और उपयोग हो जाय,फिर वाह्य औषध-व्यवस्था की आवश्यकता ही कहां रह जायेगी? यह अन्तः चिकित्सा व्यवस्था ही नाड्योपचार है,जिसे आजकल एक्यूप्रेशर (Accupressure) नाम से अलंकृत किया गया है। अस्तु।

क्रमशः..... 

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