नाड्योपचारतन्त्रम्ःThe Origin Of Accupressure)

गतांश से आगे...

                सप्तम अध्याय
                रोग-निवारण-सिद्धान्त
        शरीरगत शक्ति संचार पथ (meridians) में किसी प्रकार का व्यवधान या प्राकृतिक बलों (यिंन-यांग) का असंतुलन ही रोगोत्पत्ति का मुख्य कारण है- यह पूर्व अध्याय में स्पष्ट किया जा चुका है। अतः अब उत्पन्न व्याधियों के निवारण के विषय में विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है।
     प्रासंगिक विषय – नाड्योपचार(एक्यूप्रेशर) पद्धति में एक ओर रोगों का निदान अति सरल है, तो दूसरी ओर उनकी चिकित्सा यानी उपचार भी उतना ही सरल है। ऐसा इसलिए क्यों कि रोगत्पत्ति का कारण यहां बिलकुल स्पष्ट है, और निवारण का अर्थ ही होता है कारण को समाप्त कर देना। ऋणात्मक और धनात्मक शक्तिसंचार में बाधा उत्पन्न हो गयी, रोग उत्पन्न हो गया। इस संचारपथ की बाधा दूर कर दी जाये,रोग भी दूर हो जायेगा यह निश्चित है। यानी कारण का मारण ही रोग का निवारण है। अतः कारण का मारण यानी रोग-निवारण कैसे करें- यहां इस अध्याय में यही विचारणीय है।
      इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध एक्यूप्रेशर विशेषज्ञ डॉ.एफ.एम.होस्टन कहते हैं कि शरीर के विभिन्न भागों में स्थित कुछ खास-खास विन्दु हैं,जो प्रतिबिम्ब केन्द्र(Reflex Center) कहे जाते हैं। एक्यूप्रेशर- रोग-निवारण-सिद्धान्त(तरीका,विधि) यही है  कि इन केन्द्रों पर खास विधि से उपचार किया जाय।
  हालाकि कुछ विद्वान इस उपचार-विधि(Reflexology) को एक स्वतन्त्र चिकित्सा-पद्धति का दर्जा दिये हुए हैं। किन्तु बात ऐसी है नहीं। संचार-पथों के व्यवधान को दूर करने के प्राचीन यौगिक सिद्धान्त (विधि) पर ही आधुनिक युग में अमरीका के डॉ.जॉनफिट्झजेराल्ड ने व्यापक अध्ययन कर, आधुनिक रुप प्रदान किया। अतः इसे कदापि भिन्न नहीं कहा जा सकता। वैचारिक संकीर्णता सिर्फ इस बात की है कि हाथ-पैर के हथेली और तलवे पर ही डॉ.जॉन की विशिष्टता प्रकाशित हुयी,किन्तु चिकित्सा का यह विधान पूरे शरीर पर इसी भांति लागू होता है।
        ध्यान देने योग्य बात यह है कि ज्यों ही शक्ति संचार में बाधा उत्पन्न होती है, त्यों ही उस पथ (Zone or meridian) स्थित विभिन्न केन्द्रों  (जो प्राकृतिक रुप से पूर्व निर्धारित हैं) पर सांकेतिक सूचना मिलने (पहुंचने) लगती है,क्यों कि पथ पर उत्पन्न व्यवधान के साथ-साथ एक ओर उनका नियत विन्दु(केन्द्र)प्रभावित होने लगता है,तो दूसरी ओर तत्सम्बन्धित अवयव (अंग) भी प्रभावित होने लगता है,और अपनी रुग्णता का संकेत देने लगता है,भले ही उसे हम शीघ्र (तत्काल) पहचान लें अथवा विलम्ब से बूझें। वह अपना संकेत तो तत्क्षण ही देने लगता है।
         शरीर का अमुक भाग रुग्ण हो रहा है,या हो गया है- आमतौर पर लगभग हर व्यक्ति कमोवेश
अनुभव कर लेता है। किन्तु तत्सम्बन्धी प्रतिबिम्ब केन्द्र (Reflex Center) भी इसकी पुष्टि कर रहा है,और पहले से करता आ रहा है- इस बात की जानकारी या अनुभव हर कोई को नहीं हो पाता। यह ज्ञान वही कर/करा सकता है,जिसे इन अद्भुत विन्दुओं से परिचय हो।
            रोगोत्पत्ति की स्थिति में वस्तुतः होता ये है कि शक्ति-प्रवाह के व्यवधान से प्रभावित कायगत केन्द्र अपेक्षाकृत (पहले की तुलना में) अधिक संवेदनशील हो जाता है,और यदि उस खास केन्द्र पर दबाव देकर जांच-परख की जाय तो हम पायेंगे कि सामान्य दबाव की अनुभूति से काफी भिन्न प्रकार का दर्द होता प्रतीत होता है। यह बिलकुल बुनियादी संकेत है। ऐसा होता इस कारण है कि वह केन्द्र अपेक्षाकृत दुर्बल हो जाता है।
  इस सम्बन्ध में एक्यूप्रेशर विशेषज्ञ डॉ.एफ.एम.होस्टन कहते हैं कि उस पीड़ादायी स्थान की विजली लिक कर रही है,अर्थात अपने प्रवाह-पथ से विचलित हो गयी है। यह स्थिति ठीक वैसी ही है जैसी नहर या नाली की होती है- मुहाने पर कोई अवरोध उपस्थित हो जाने पर जल-प्रवाह वाधित हो कर तितर-वितर होने लगता है,और आसपास के क्षेत्र को प्रभावित करने लगता है। उसी प्रकार शरीर स्थित जैवविद्युत  भी स्थान-भ्रष्ट होकर दुःखदायी होने लगता है। इस स्थिति को दूसरे रुप में भी कहा-समझा जा सकता है कि प्रभावित केन्द्र दर्द का संकेत देकर उपचार हेतु गुहार लगा रहा है,और इस प्रकार हमारा कर्तव्य हो जाता है उस संकेत को समझकर बिजली के विचलन (LICKES)  को दूर करना,जिसका तरीका है- खास ढंग से खास समय तक दबाव देना। दबाव उस खास स्थान पर ही देना है क्यों कि उत्पन्न अवरोध (उत्पन्न व्याधि) का संकेत-केन्द्र (प्रतिबिम्बकेन्द्र- Reflex Center) है वह दर्द भरा विन्दु। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध भारतीय एक्यूप्रेशर विशेषज्ञ मेरे गुरुदेव संत श्री मणिभाईजी के शब्दों में कहें तो शायद अधिक स्पष्ट हो- जहां दुःखे वहीं दबाओ,तुरतातुरत आराम पाओ एक्यूप्रेशर का मूल मन्त्र घर घर पहुंचाओ...। मणिभाईजी का यह संदेश लाक्षणिक गरिमापूर्ण है। जहां दुःखे वहीं दबाओ का यह अर्थ नहीं कि आँख में पीड़ा हो तो आँख को ही दबाओ,या हट्टी टूटी हो तो वहीं दबाओ या शरीर के किसी भाग में जख्म हो गया है,पीड़ा हो रही है,तो वहीं दबायें,बल्कि उस अवयव से सम्बन्धित संचार पथ या खंड (Zone or meridian) पर स्थित विन्दु (प्रतिबिम्ब केन्द्र) को टटोल कर, अनुभव कर, पहचाने, और फिर उन पर दबाव वाली विधि से उपचार करे।
            दबाब का उद्देश्य- यह स्पष्ट है पूर्व वर्णनों से कि दबाव का एकमात्र उद्देश्य है, प्रतिबिम्बकेन्द्र पर हो रहे दर्द को समाप्त करना,किन्तु इस सम्बन्ध में दो प्रश्न उठ सकते हैं—
1.उस विन्दु पर दबाव देने से क्या होगा या क्या होता है?
2. यह क्रिया होती कैसे है?
            इन प्रश्नों का परोक्ष उत्तर पूर्व में ही दिया जा चुका है,उसे ही अब प्रत्यक्ष कर लें।
नाड्योपचारपद्धति(एक्यूप्रेशर)आन्तरिक चिकित्सा पद्धति का ही दूसरा नाम है।  सृष्टिकर्ता ने सिर्फ  शरीर ही नहीं बनाया,बल्कि उसका रक्षक भी साथ-साथ ही बना दिया है,जिसे हम बाह्य चिकित्सा की चकाचौंध में भुलाये बैठे हैं। या कहें उस रक्षक से काम लेना बन्द कर दिये हैं, या काम लेने की कला विसार दिये हैं। हालांकि हम उस रक्षक से पूर्णतः काम लें अथवा न लें, वह अपना काम पूरी ईमानदारी से करता ही रहता है। अपना कर्तव्य भूलता नहीं कभी। विद्वान हिपोक्रेटीस ने कहा है- बाहरी चिकित्सा व्यवस्था मात्र अन्तःचिकित्सा व्यवस्था का सहयोगी है। वस्तुतः बाहरी चिकित्सा व्यवस्था (चाहे कोई भी पद्धति की हो) तभी कारगर (सफल) होती है जब आन्तरिक शक्ति उसे स्वीकार करती है। संयोगवश यदि वह आन्तरिक व्यवस्था वाह्य व्यवस्था को ग्रहण करने से इनकार कर दे,तो फिर बाह्य व्यवस्था किसी काम की नहीं रह जायेगी- इस सिद्धान्त को आधुनिक चिकित्साशास्त्री भी सहर्ष स्वीकार करने लगे हैं। भले ही इस स्वीकृति को कुछ भी नाम दे लें।
      एक्यूप्रेशर उपचार विधि में प्रभावित प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर दबाव देने का एकमात्र उद्देश्य है उस आन्तरिक चिकित्सक को जागृत (सूचित) करना,जो हमारे आहार-विहार-विपर्यय से सुप्तावस्था में चला गया है।
         यहां प्रसंगवश उस आन्तरिक चिकित्सक के बारे में कुछ और भी जानकारी कर ली जाय। रोग प्रतिरोधी-क्षमता को बनाये रखना उस आन्तरिक चिकित्सक का प्रथम कर्तव्य है, साथ ही किसी उत्पन्न संकट का निवारण करना भी । वह चिकित्सक पूरे शरीर में (एक शरीर में) एक ही है,किन्तु उसका चिकित्सालय अनेक है- हर अवयव में प्रायः अलग-अलग है। इस बात को दार्शनिकों के अंदाज में कहें तो कह सकते हैं कि एक ही ब्रह्मसत्ता अनेक जीवों में प्रकट होता है। वह एक भी है और अनेक भी। इसी प्रकार वह प्राकृतिक चिकित्सक एक है, सिर्फ एक, और दूसरी ओर रक्त के कण-कण में व्याप्त हो रहा है,अपने अनेक रुपों में। शरीर के प्रत्येक अंग में बैठा है अपनी विशिष्टता युक्त अंदाज में।
            एकत्व रुप में है उभय संतुलनात्मक शक्ति संचार पथ (Governing Vessel Meridian & Conception Vessel Meridian) के रुप में रोग-प्रतिरोधी क्षमता ( Immunity power) का उत्पादन और आपूर्ति निरन्तर करता रहता है, एवं अनेक रुप में जब जिस खास अंग में विकार उत्पन्न होता है,तब उस अवयव से सम्बन्धित अपने केन्द्र में बहुरुप होकर,अपना कर्तव्य पूरा करता है। सच पूछा जाय तो वह स्वयं सूचित है,स्व-संज्ञानी, है, सक्रिय है। किसी प्रकार की सूचना की उसे आवश्यकता नहीं है, फिर भी दबाव-प्रक्रिया द्वारा उसे सूचित कर दिया जाता है, तब अधिक सक्रिय (चैतन्य) होकर कार्य करता है। शरीर पर स्थित विभिन्न विन्दु (प्रतिबिम्बकेन्द्र) उसके सूचना-स्थल हैं। अलग-अलग स्थानों पर शक्ति-संचार-पथों (Meridian) पर अलग-अलग बीमारियों के लिए विभिन्न सूचना केन्द्र बने हुये हैं। इन प्रतिबिम्ब केन्द्रों को शारीरिक विद्युत प्रणाली का वटन कहना गलत न होगा। यानी  Reflect  Switch for Bioelectricity System और उनके समूह को Switch Board कहना अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। ये सभी वटन करीब-करीब वैसे ही कार्य करते हैं, जैसे घर में लगा बिजली का वटन। स्विचवोर्ड पर लगे वटन को सही तरीके से दबाने पर तत्सम्बन्धी विद्युत उपकरण- पंखा, बल्ब, फ्रीज, कूलर आदि अपना कार्य प्रारम्भ कर देता है, उसी भांति प्रतिबिम्ब केन्द्रों को दबाने से कायगत अवयव सुचारु रुप से अपना कार्य करने लगते हैं। इस बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कह सकते हैं कि आन्तरिक चिकित्सक के द्वार पर लगे कॉलिंगबेल का स्विच है यह प्रतिबिम्ब केन्द्र। जिस विशेषज्ञ के द्वार पर लगे घंटी के वटन को दबाते हैं, वह चैतन्य होकर उपस्थित होता है,और अपने कर्तव्य में लग जाता है। इसी भांति प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर दबाव देने से भी होता है। इस बात को एक और रीति से समझा जा सकता है- एक्यूप्रेशर प्रतिबिम्ब केन्द्र एक नियामक और नियंत्रक (operator & controller ) का कार्य करता है। टेलीफोन के तारों से जिस प्रकार संवाद परिवहित होता है, और उसका नियंत्रण दूर कहीं बैठे नियंत्रण-कक्ष के ऑपरेटर द्वारा होता रहता है,उसी भांति शरीर के विभिन्न शक्ति संचार पथ रुपी तारों में प्रवाहित हो रही प्राणऊर्जा के यिन और यांग (रयि और प्राण) बलों का नियंत्रण (नियमन) तत्सम्बन्धी केन्द्र करता रहता है।
           
  यह हुआ प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर दबाव देने का परिणाम, किन्तु वस्तुतः यह हुआ क्यों- हमारा दूसरा प्रश्न अभी अनुत्तरित है,जिस पर आगे विचार करते हैं—
            इस सम्बन्ध में डॉ.किम वॉन्गहान का रिपोर्ट द्रष्टव्य है,जिसे उन्होंने 30 नवम्बर 1963 एवं 15 अप्रैल 1965 को प्योंगयांग नगर (कोरिया) में आयोजित सायन्टिफिक सिम्पोजियम में प्रस्तुत किया था।
            कोरियन लोगों की प्राचीन मान्यता है कि शरीर में जीवनी शक्ति का वाहक एक स्वतन्त्र कार्यप्रणाली वाला तन्त्र है,जिसका नाम है- क्युंगरॉक, और इस तन्त्र का सम्बन्ध है त्वचा के नीचे स्थित विशिष्ट कोशिकाओं से। ये खास कोशिकायें ही वास्तव में एक्यूप्रेशर / एक्युपंक्चर प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं।
         इन कोशिकाओं के सम्बन्ध में खोज बराबर जारी है। पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति के नजरों से ओझल  इन विशिष्ट कोशिकाओं के बारे में अद्यतन विधि से अन्वेषण करने का कार्य प्रोफेसर डॉ.किम वॉन्गहान ने ही किया,फलतः उन्हीं के नाम पर आज इन्हें लोग वॉन्गहानकोश ही कहते हैं। ये कोश कायगत अति सूक्ष्म नलिकाओं से जुड़े होते हैं। गहन जांच-परख के बाद ये ज्ञात हुआ कि इन नलिकाओं का आकार-प्रकार बहुत कुछ शक्तिसंचारपथों (meridians) जैसा ही है। इन सूक्ष्म नलिकाओं का सम्बन्ध विभिन्न अवयवों से जुड़ा होता है। संवेदित केन्द्रविन्दु पर जब दबाव डाला जाता है,तब उसके ठीक नीचे स्थित वॉन्गहानकोश प्रभावित होजाते हैं,और फिर उन कोश से जुड़ी नलिकायें (जिन्हें बाद में मेरीडियन मान लिया गया) भी प्रभावित हो जाती है,और इस प्रकार प्रभाव-गमन का एक चक्र पूरा हो जाता है। जैसा कि पूर्व उदाहरण में कहा गया है- विद्युत वटन (वॉन्गहानकोश) से विद्युत उपकरण  ( वॉन्गहान अवयव) तक वॉन्गहाननलिकाओं (मेरीडियन) रुपी तारों द्वारा विद्युतधारा पहुंचकर एक चक्र पूरा कर लेती है,फलतः समुचित आवश्यक कार्य जारी हो जाता है। इसे  यहां स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है— चित्रांक 21-क —


इस प्रकार यिन और यांग (ऋणात्मक और धनात्मक) शक्ति-संचार का संतुलन हो जाने पर शरीर की कार्य-प्रणाली ठीक हो जाती है। योग की भाषा में इसे कहें तो शायद अधिक स्पष्ट हो- जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है- भारतीय परम्परा योग की रही है। योगशास्त्र प्राणऊर्जा को प्रधान मानता है,फलतः प्राण के संयम पर अधिक जोर दिया है योगियों ने। प्राणी संज्ञा भी इस प्राण के औचित्य और महत्त्व को ही ईंगित करता है। इस प्राण के संयमन से प्राणी सबकुछ पा सकता है- भोग भी और मोक्ष भी। फिर निरोग रहना-होना कौन सी बड़ी बात है। प्राण के नियंत्रण और संयमन की कला को ही प्राणायाम कहा गया है। प्राचीन योगीजन प्राण के नियमन,संयमन,संप्रेषण आदि द्वारा ही नैरुज्यता (आरोग्य) और दीर्घायु प्राप्त करते थे। दोष-दूष्य सिद्धान्त पर आधारित आयुर्वेदशास्त्र भी प्राण (वायु) को ही प्रधान मानता है,जैसा कि इस श्र्लोक से स्पष्ट है-
कफः पंगु पितः पंगु पगवो मल धातवः। वायुना यत्र नीयन्ते तत्र वर्षन्ति मेघवत ।।   
अर्थात कफ और पित्त नामक दोनों दोष तो पंगु अर्थात् जड़ हैं। चेतना है मात्र वायु  में, जो स्वयं क्रियाशील रहते हुये अन्य दो (कफ-पित्त) को भी अपनी ही तरह क्रियाशील बना लेता है। अतः मुख्य रुप से इस वायु का ही नियमन होना चाहिए, तभी शरीर स्वस्थ हो सकेगा। आयुर्वेदशास्त्र के इस   वायु को ही योगशास्त्र ने प्राण कहा है, और इसे ही जीवन का मुख्य आधार बतलाया गया। प्राण ही शक्ति है, शक्ति ही प्राण है। यही पूरे शरीर के बहत्तरहजार नाड़ियों में निरन्तर प्रवाहित हो रहा है, निर्वाध रुप से। इसका निर्विघ्न प्रवाह ही स्वस्थ का सूचक है,और विघ्न (अवरोध) ही व्याधि का संकेत। अतः जैसे भी हो वाधा को दूर करना आवश्यक है।
          इस सम्बन्ध में ईंगलैंड के डॉ.फॉलिक्समॉन के विचार भी ध्यान देने योग्य हैं। डॉ.मॉन एक्यूप्रेशर के प्रभाव को प्रतिक्षिप्त क्रिया मानते हैं। इनका कहना है कि रोग-ग्रस्त होने पर तत्काल ही उसका प्रतिक्षिप्त प्रभाव (Reflex effect) कुछ खास स्थानों पर होने लगता है। उन विशिष्ट स्थानों (reflex centre) पर दर्द का अनुभव होता है। दर्द-युक्त उस विन्दु पर दबाव देने या सूई चुभोने से विशेष प्रकार की विद्युत तरंगें (electric wave) उत्पन्न होकर रोग-ग्रस्त अवयव तक पहुँच कर शरीर में रोग-प्रतिरोधी क्षमता पैदा करती है। इस प्रकार के प्रभावोत्पादकता के लिए स्वायत्त ज्ञानतन्त्र (Autonomous nervous system) ही जिम्मेवार है।
       प्रतिक्षिप्त क्रिया की प्रभावोत्पादकता-परीक्षण करने हेतु पेइचिंग मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर डॉ.हान-चि-शेन्ग ने कुछ खरगोशों पर प्रयोग किया। दस खरगोशों की आँखों पर पट्टियां बांध कर,उनके नथुनों पर इन्फ्रारेड किरणें डाली गयी। ऐसा करने पर गर्मी से बचने के लिए सभी खरगोश अपना सिर दूसरी ओर घुमा लिए। डॉ.हान-चि-शेन्ग ने प्रतिक्रिया का यह समय अंकित(नोट) कर लिया। पुनः दश खरगोशों की दूसरी टुकड़ी पर यही प्रयोग दुहराया गया। किन्तु इन्फ्रारेड किरणें डालने से पहले उनके शरीर के विशेष विन्दु सु-सेन-ली पर सूई चुभोया गया,यानी उस केन्द्र को एक्युपंक्चर विधि से उत्तेजित (जागृत) (चैतन्य) किया गया। उनके सिर घुमाने की प्रतिक्रिया का यह दूसरा समय भी अंकित किया गया। पुनः एक अन्य समूह पर यही प्रयोग किया गया। किन्तु उनके शरीर के क्वेन-लुन नामक विन्दु को दाब विधि(एक्यूप्रेशर)से उपचारित करके,तब किरणें प्रक्षेपित की गयी। प्रतिक्रिया का यह समय भी अंकित किया गया। इस तरह के प्रयोगों के पश्चात डॉ.हान-चि-शेन्ग इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पहले समूह के खरगोश सर्वाधिक शीघ्रता से अपना सिर हटा लेते थे। प्रथम की तुलना में द्वितीय समूह की प्रतिक्रिया में कुछ विलम्ब हुआ,यानी सहनशीलता बढ़ी। एवं तृतीय समूह द्वितीय से भी अधिक सहनशील साबित हुआ- प्रतिक्रिया में सर्वाधिक विलम्ब हुआ। इस प्रकार स्पष्ट हुआ कि अनुपचारित खरगोश-समूह सबसे कम गर्मी सहन कर पाया। एक्युपंक्चर विधि से उपचारित समूह द्वितीय श्रेणी में रहा,और एक्यूप्रेशर विधि से उपचारित समूह प्रथम श्रेणी में गया,क्यों कि उसमें सहनशीलता सबसे अधिक पायी गयी। डॉ.हान-चि-शेन्ग के इस प्रयोग ने यह भी सिद्ध कर दिया कि दाबविधि तुलनात्मक दृष्टि से उत्कृष्ट रही। खरगोशों के शरीर में सहनशीलता (संघर्ष-शक्ति)की वृद्धि हुयी,तो ऐसा ही अन्य प्राणियों में भी हो सकता है।
         उक्त प्रयोग के पश्चात डॉ.हान-चि-शेन्ग स्पष्ट करते हैं कि एक्यूप्रेशर वा एक्युपंक्चर विधि के प्रयोग से मस्तिष्क के न्यूरोट्रान्समीटर में प्रभाव पड़ता है। फलतः तकलीफ में कमी या तकलीफ की पूर्ण समाप्ति होती है। यह न्यूरोट्रान्समीटर ‘ सीरोटोनीन या नॉरएड्रीनलीन ’ हो सकता है। उनके इस कथन की पुष्टी वाट्समेन इन्सटीट्यूट फॉर न्यूरोकेमेस्ट्री के प्रोफेसर वर्कमेयर ने भी किया है।
            एक्यूप्रेशर उपचार के आन्तरिक प्रभाव के सम्बन्ध में कुछ विशेषज्ञों का मत है कि दाब उपचार से शरीर में एनडॉर्फिन्स या एन्सीफॉलिन्स नामक रासायनिक पदार्थों का स्राव होता है। जिसके परिणामस्वरुप तकलीफ में कमी आती है। कुछ विद्वान मानते हैं कि रोगोत्पादक जीवाणुओं के संक्रमण से त्राण पाने के लिए शरीर एन्टीबॉडीज या फॉगोसाइट्स  बनाता है,जो कि शरीर का स्वाभाविक कार्य है,किन्तु मानसिक तनाव वा अन्य कारणों से उक्त प्रतिरोधी क्षमताओं का अभाव हो जाता है,जिसके परिणामस्वरुप जीवाणुओं को सफलता मिल जाती है। एक्यूप्रेशर उपचार और कुछ नहीं करता,बल्कि मानसिक तनाव को कम कर देता है,जिसके कारण प्रतिरोधी क्षमता स्वयमेव सक्रिय होजाती है,जिसके परिणाम स्वरुप शरीर निरोग(रोगमुक्त)होजाता है। ठीक इसी बात को जापानी विशेषज्ञ कुछ अन्य रुप में कहते हैं- मानसिक तनाव का मुख्य कारण है लैक्टिक एसीड का जमाव। एक्यूप्रेशर उपचार उस तनाव या थकान पैदा करने वाले यानी फेटीगएसीड को एक विपरीत धर्मी तत्त्व- ग्लाइकोजन में रुपान्तरित कर देता है,जिसके परिणामस्वरुप तनाव वा थकान से मुक्ति मिल जाती है।
           नाड्योपचार(एक्यूप्रेशर)के गुण और प्रभाव पर उंगली उठाने वाले कुछ लोगों का कहना है कि  इसमें कोई विशेषता नहीं है,बल्कि यह एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक संमोहन मात्र है,जैसा कि देहाती अनपढ़-गंवार लोगों पर जादू-टोने-टोटके का हुआ करता है। खंडनकर्ताओं का दूसरा तर्क ये भी है कि प्रभाव होता भी है तो अति अल्पकाल के लिए,यानी स्थायी तौर पर किसी रोग का निर्मूलीकरण न होता है,और होने जैसी कोई बात ही है।
          नाड्योपचार(एक्यूप्रेशर)के गुण और प्रभाव के खण्डनात्मक तर्क के सम्बन्ध में मूल रुप से सिर्फ इतना ही कहना है कि प्रत्यक्षस्य प्रमाणं किं? यह एक विज्ञान है, और विज्ञान हमेशा खोज और प्रयोग की अपेक्षा रखता है। जब सत्य प्रमाणित हो जाता है,तब उसे स्वीकारने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए किसी को,क्यों कि जो प्रत्यक्ष है,जो सत्य है,जो प्रमाणित है उस पर किसी प्रकार की आशंका या लांछन क्यों?

इस सम्बन्ध में निम्नांकित बातों पर ध्यान दिया जा सकता है—
1.    रोगी पर निद्राकर औषधियों का  प्रयोग कराकर या कृत्रिम बेहोशी उत्पन्न करने के बाद एक्यूप्रेशर विन्दुओं को उत्तेजित किया जाय,तो भी उसका उपचार कारगर होता है,यानी प्रभाव पूर्ववत ही होता है।
2.    रोग से असम्बद्ध केन्द्र पर उपचार करने पर कोई लाभ(प्रभाव) नहीं होता। उदाहरणतया किसी के सिर में दर्द है,और हम उसके कान के विन्दुओं को उपचारित करें तो उसका कोई असर नहीं मालूम पड़ेगा।
3.    रोगी के रोग सम्बन्धी सही विन्दु पर उपचार करने पर,उपचार प्रारम्भ करने के कुछ क्षण बाद स्वयं ही एक प्रकार का आन्तरिक संकेत रुग्ण स्थान पर मिलने लगता है- जो कि विन्दु-विनिश्चय की सबसे अच्छी पहचान है।
4.    प्रभाव-खण्डन के खण्डन का सबसे बड़ा तर्क तो यह है कि मनुस्येत्तर प्राणियों पर भी इसका प्रयोग किया गया (जिसके पास मनुस्य जैसी विचारणा शक्ति नहीं है) फलतः जादू- टोने,तन्त्र-मन्त्र जैसी मनोवैज्ञानिक प्रभाव-जाल में आने की बात नहीं हो सकती,जैसा कि डॉ.हॉन-ची-शेन्ग द्वारा विभिन्न खरगोशों पर किये गये प्रयोग से स्पष्ट होता है।

नाड्योपचार(एक्यूप्रेशर) का प्रभाव  एक्यूप्रेशर उपचार द्वारा शरीर पर निम्नांकित प्रभाव पड़ते हैं-
1)    शामक प्रभाव(anesthetic effect) एक्यूप्रेशर उपचार द्वारा वात-व्याधियों (असीतिर्वातजा रोगाः)(सभी प्रकार के दर्द-पीड़ा) में तत्काल प्रभाव दृष्टि- गोचर होता है। यानी वेदना-शामक प्रभाव उत्पन्न होता है।
2)    तन्द्राकर प्रभाव (sedative effect) – नाड्योपचार(एक्यूप्रेशर)उपचार क्रम में (E.E.G.-electro encephalon gram) परीक्षण करके देखने पर पाया जाता है कि मस्तिष्क में उठने वाली डेल्टा और थीटा तरंगें कम हो जाती है, जिसका तात्पर्य है कि प्रत्यक्ष मानसिक शान्ति लाभ हो रहा है।
3)    मानसिक प्रभाव(psychological effect) खास स्थल पर दाब उपचार करने से ( नियमित रुप से) अत्यधिक मानसिक शान्ति लाभ होकर,स्वास्थ्य में सुधार होता है। यह  मानसिक प्रभाव उक्त तन्द्राकर प्रभाव से किंचित भिन्न है। इस प्रकार के विशेष प्रभाव का मुख्य कारण है - मस्तिष्क के खास भाग (mid brain) पर reticular formation का होना।
4)    स्नायविक प्रभाव (nervous,  muscular & skeletal system)- नाड्योपचार (एक्यूप्रेशर) उपचार का सर्वाधिक महत्त्व है स्नायविक दुर्बलता को दूर करने में। यही कारण है कि अन्य चिकित्सा पद्धति जिन स्नायविक व्याधियों में असफल सिद्ध होती है,वहां यह पद्धति पूर्ण सफलता प्राप्त करती है।
5)    जीवनी शक्ति का विकास(Homeostasis development)- चुंकि दाब-उपचार प्रक्रिया स्वास्थ्य-रक्षण की एक विशुद्ध प्राकृतिक विधि है ,फलतः जीवनी शक्ति का विकास वड़े कारगर ढंग से होता है,जिसे इस पद्धति का अद्भुत प्रभाव कह सकते हैं।
6)    प्रतिकारक प्रभाव(immune effect)- नाड्योपचार(एक्यूप्रेशर)पद्धति एक ओर तो रोगों को निर्मूल करता है अपने अन्य प्रभावों के फलस्वरुप,तो दूसरी ओर शरीर में रोग प्रतिरोधी क्षमता का विकास भी करता है। परिणातः स्वस्थ दीर्घ जीवन प्रदान करता है। यही कारण है कि अन्य औषधीय चिकित्सा पद्धतियों की तरह इसे चिकित्सा-पद्धति मानने के वजाय स्वास्थ्य-रक्षण-पद्धति कहना अधिक उचित प्रतीत होता है। उदाहरण स्वरुप रक्त में लाल कण(RBC), श्वेत कण(WBC),कॉलेस्ट्रोल, ट्रॉयग्लिसराइड्स,गामाग्लोब्युलिन आदि की मात्रा को व्यवस्थित करता है। फलतः बहुत सी घातक बीमारियों को उत्पन्न ही नहीं होने देता ,यदि स्वस्थ मनुष्य भी नियमित उपचार लेता रहे ।
7)    संयमनात्मक प्रभाव- नाड्योपचारतन्त्र प्राणी की मूल शक्ति यानी प्राण को ही संयमित करता है,फलतः मानव शरीर की अधिकांश समस्याओं का स्वमेव हल हो जाता है इसके प्रभाव-प्रयोग से। शरीर की व्याधि से भी अधिक जटिल होता है मन की व्याधि(आधि)। मन पर सीधे प्रभाव डालने वाली शक्ति है – प्राण। और प्राण का नियमन करता है- नाड्योपचार। अतः इस संयमन को सर्वोत्तम प्रभाव कहा जा सकता है।
8)    प्रतिप्रभाव का नितान्त अभाव- अन्य किसी भी चिकित्सा पद्धति में औषधि(द्रव्य) का प्रयोग किया जाता है,जिसका कमोवेश प्रतिप्रभाव(side effect) होता ही है,जब कि नाड्योपचार में किसी बाहरी द्रव्य का प्रयोग नहीं किया जाता,फलतः प्रतिप्रभाव का प्रश्न ही नहीं है। अतः  निर्भय होकर,निःसंकोच प्रयोग किया जा सकता है इसका।
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क्रमशः जारी... 

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