नाड्योपचारतन्त्रम्(The Origin Of Accupressure)

गतांश से आगे.....

                    अष्टम अध्याय   
     नाड्योपचारःनिदान भी,चिकित्सा भी

    जहाँ दुःखे वहीं दबायें- एक्यूप्रेशर यानी नाड्योपचार का मूल मन्त्र कहा गया है। तात्पर्य ये है कि जिस प्रतिबिम्ब केन्द्र पर दर्द अनुभव हो रहा हो,उसी केन्द्र पर दाब विधि से उपचार करनी चाहिए। मान लिया कि यकृत केन्द्र पर दर्द अनुभव हो रहा है,यहां यह प्रश्न उठता है कि यकृत के प्रतिबिम्ब केन्द्र पर दबाव देकर जांच करने से हमें ज्ञात हुआ कि उक्त स्थल पर स्वाभाविक दबाव की अपेक्षा किंचित भिन्न प्रकार के दर्द की अनुभूति होरही है- यह उक्त अवयव (व्याधि) से सम्बन्धित निदान (diagnosis) हुआ या उस रोग की चिकित्सा (treatment) हुयी?
        सच कहें तो यही विशेषता है इस पद्धति की- जो निदान है,वही चिकित्सा भी। यानी जिस विधि से निदान किया गया,उसकी ही पुनरावृत्ति, उस व्याधि की चिकित्सा भी होती है। नाड्योपचार (एक्यूप्रेशर) पद्धति का यह चमत्कारिक गुण किसी भी अन्य पद्धति में नहीं है। उदाहरण के लिए , यकृतविद्रधि (Liver Cirrhosis)  के लिए चिकित्सा-विज्ञान (विकृति-विज्ञान) व्याधि-विनिश्चय के तह तक पहुंचने हेतु एक्सरे,रक्त-परीक्षण,मूत्र-परीक्षण आदि वीसियों प्रकार के परीक्षणों की शिफारिश करेगा,और तब जाकर रोग-विनिश्चय हो पायेगा। फिर औषधी-सेवन की बात होगी,और तब लम्बे इन्तजार के बाद (समय,श्रम,और धन) गंवा कर रोग से मुक्ति मिलती है। ऐसा भी नहीं होता कि बारबार उपर्युक्त परीक्षण ही करते रहते हैं। हां,पुनः कितना लाभ हुआ – जानने के लिए परीक्षण की क्रिया दुहरायी जा सकती है। इन बातों से यह स्पष्ट होता है कि रोग-निदान बिलकुल अलग बात है,और रोग की चिकित्सा बिलकुल अलग। ये एक ही चिकित्सा पद्धति के दो सहायक अंग (उपविधि) कहे जा सकते हैं, या यूं कहें कि विविध परीक्षण करके,रोग का निश्चय किया जाय,फिर चिकित्सा चाहे आयुर्वेद की करें,होमियोपैथी की करें,या कि एलोपैथ की। फिर भी निदान और चिकित्सा अलग-अलग बातें तो है ही। निदान की पद्धति सिर्फ सहयोगी है चिकित्सा की पद्धति के लिए। दूसरे शब्दों में इसे कह सकते हैं कि निदान निदान है,और चिकित्सा चिकित्सा।
         किन्तु नाड्योपचार(एक्यूप्रेशर) पद्धति इससे बिलकुल अलग है,जो निदान है वही चिकित्सा भी है। यथा- यकृत प्रतिबिम्ब-केन्द्र पर दबाव देकर ज्ञात करते है यकृत की बीमारी के सम्बन्ध में,और पुनः निदान वाली क्रिया की ही आवृत्ति करके रोगमुक्त भी होते हैं। ऐसा क्यों होता है,इसे पूर्व अध्यायों में स्पष्ट किया जा चुका है।
            शरीर का कोई भी भाग(अंग)जब रोगग्रस्त होता है,तब उससे सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्र पर शीघ्र ही सूचना पहुँच जाती है- अवयव विकृति की,और इस प्रतिक्रिया स्वरुप विशेष प्रकार के दर्द की अनुभूति होने लगती है। इस प्रकार व्याधि का निदान बड़ी सरलता से सम्पन्न होजाता है,जब कि अन्य पद्धतियों में श्रवण,दर्शन,स्पर्शन,विकृति परीक्षण आदि कई विधियों (निदान पंचक) से गुजरने के बाद रोग-निश्चय हो पाता है। फिर औषध विनिश्चय,औषध सेवन, और तब रोग-निवारण।
            यहां एक और बात ध्यान देने योग्य है कि विकृति परीक्षण(Pathological test) आदि द्वारा रोग-निर्णय(विनिश्चय)उस अवस्था में प्रायः हो पाता है,जब व्याधि अपने युवावस्था में पहुंच चुकी होती है,कभी कभी तो बिलकुल जरावस्था(जीर्ण,जटिल अवस्था) में जानकारी मिल पाती है। कैंसर जैसे घातक बीमारी की जानकारी प्रायः दूसरे और तीसरे या कि चौथे स्टेज में मिलने के कारण ही मौतों की संख्या अधिक होती है- यह कटु सत्य है। जब कि नाड्योपचार विधि में बात की बात में सब कुछ हो जाता है। अनुभवी चिकित्सक विन्दुओं को छूकर ही रोग की स्थिति का अंदाजा लगा लेता है। चिकित्सा जगत में प्रायः देखा जाता है कि बहुत सी बीमारियों में रोग-निदान अत्यन्त जटिल(उलझन पूर्ण) हो जाता है। फलतः सही निदान के अभाव में सही चिकित्सा व्यवस्था नहीं हो पाती,और रोग भीतर ही भीतर बढ़ते जाता है। प्रायः विपरीत या अन्दाज से की गयी चिकित्सा- अन्धेरे में चलायी गयी तीर की तरह होती है,जो लक्ष्य भेदन कर भी सकता और नहीं भी। ज्यादातर तो ऐसा होता है कि अनुमानित रोग की चिकित्सा घातक सिद्ध होती है। एक रोग जाय या न जाय,कई अन्य रोग पैदा हो जा सकते हैं। बड़े से बड़े अनुभवी चिकित्सक भी निदान करने में प्रायः चूक जाते हैं। ऐसा इसलिये भी होता है कि उनकी सारी पद्धति ही मशीनी हो गयी है,जो काफी व्ययकारी और उबाऊ भी है,साथ ही जटिल और समय-साध्य भी। ऐसे बहुत से रोगी देखने में आते हैं, जो वर्षों से जटिल हृदयरोग की चिकित्सा करा रहे हैं। विशेषज्ञों के सुझाव पर दवा खाते जा रहे हैं,क्यों कि उनकी यान्त्रिक जांच विधि में रक्तचाप (B.P.) और E.C.G. का रिपोर्ट विपरीत आया है। किन्तु सूक्ष्म परख के बाद पता चलता है कि उन्हें कुछ नहीं,मात्र आमाशय सम्बन्धी सामान्य विकृति (गैस वगैरह) है। निदान की यह त्रुटि मुख्य रुप से इस कारण है,क्यों कि यहां निदान और चिकित्सा दो अलग-अलग क्रियायें हैं।
            नाड्योपचार पद्धति में चुंकि दोनों—  निदान-चिकित्सा एक ही (एक सी) क्रिया है, इस कारण गलत निदान और गलत चिकित्सा की बात ही नहीं हो सकती ; क्यों कि रोग से प्रभावित अवयव से सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्र पर दबाव देने पर खास तरह के दर्द की अनुभूति होगी ही,और फिर उसी केन्द्र पर बारम्बार के दाब उपचार से रोग का निवारण भी हो जायेगा। इस सम्बन्ध में एक और बात ध्यान देने योग्य है कि एक ही रोग से सम्बन्धित अनेक प्रतिबिम्ब केन्द्र शरीर के विभिन्न भागों में मौजूद हैं,किन्तु यह आवश्यक नहीं कि उन सभी प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर दाब उपचार किया ही जाय। इस सम्बन्ध में डॉ.गाला स्पष्ट कहते हैं—इस बात को खासतौर पर नोट कर लिया जाय कि जिस प्रतिबिम्ब केन्द्र को दबाने से दर्द की अनुभूति नहीं होती,उस केन्द्र पर दाब उपचार करना व्यर्थ है, अर्थात एक रोग के लिए अनेक स्विचों में जिस स्विच पर विकृति संकेत मिले,सिर्फ वहीं उपचार करना उचित है।  डॉ.गाला के इस ध्यानाकर्षण नोट को कुछ उदाहरण द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है- मानलिया घुटने में दर्द हो रहा है प्रत्यक्ष रुप से, किन्तु दर्द का कोई कारण (चोट, मोच,सूजन आदि) स्पष्ट नहीं है,साथ ही एक्यूप्रेशर-विन्दु-परीक्षण में घुटने के प्रतिबिम्ब-केन्द्रों पर किसी तरह का विकृति-संकेत नहीं मिल रहा है। ऐसी स्थिति में सामान्य चिकित्सक को उलझन हो सकता है। चुँकि घुटने में दर्द हो रहा है,इसलिए दवा,स्थानिक मालिस आदि दर्द निवारक उपाय तो किये ही जायेंगे, किन्तु लाख उपचार के बावजूद पीड़ा का निवारण नहीं हो पायेगा,और न किसी अन्य चिकित्सक के पास इसका सही जवाब ही है; परन्तु नाड्योपचार(एक्यूप्रेशर)पद्धति में इस समस्या का अति सरल समाधान है। वस्तुतः घुटने के समीप से यकृत,तिल्ली,मूत्राशय आदि के शक्ति-संचार-पथ (meridians) गुजरते हैं। यदि उन किसी अंगों की विकृति होगी, तो उसका संकेत घुटने पर मिलेगा ही। अब इन कई शक्ति-संचार-पथों (meridians) में किस खास अवयव से सम्बन्धित उपचार (चिकित्सा) की आवश्यकता है,इसका निश्चय उन-उन अंगों के लिए शरीर में निर्दिष्ट अन्य प्रतिबिम्ब केन्द्रों के सूक्ष्म परख से सापेक्षिक-निदान द्वारा किया जायेगा। इसी भांति हृदय सम्बन्धी विभिन्न व्याधियों में प्रायः रोगी यह कहता है कि उसके बायें कंधे या बांह में दर्द है- ऐसा क्यों? यहां अन्य डॉक्टर सिर्फ यह कह कर रोगी को सन्तोष दिला देता है कि अमुक दवा खा लो,आराम मिल जायेगा। या कहें- उसके मुख्य व्याधि की चिकित्सा चलती रहती है,इस क्रम में बाहों या कंधे का दर्द स्वाभाविक रुप से कम हो जाता है,फलतः रोगी और डॉक्टर दोनों ही निश्चिंत हो जाते हैं। किन्तु असली कारण तो पता चला नहीं।
         नाड्योपचारपद्धति (एक्यूप्रेशर) में इसका स्पष्ट जवाब है— हृदय शक्ति-संचार-पथ (Heartmeridian) के पास से ही हृदयावरण शक्ति-संचार पथ (Pericardium meridian) भी गुजरता है, अतः हृदय सम्बन्धी किसी प्रकार की विकृति में दोनों हाथों में (विशेषकर वायें हाथ में)कहीं भी दर्द होगा ही,यह स्वाभाविक है। और ध्यान देने की बात है कि इस प्रकार के दर्द का निवारण कंधे,वांह आदि के प्रतिबिम्ब केन्द्र पर दबाने से कदापि नहीं होगा। दर्द है कंधे और वांह में,किन्तु दूर होगा हृदय और हृदयावरण केन्द्र पर उपचार करने से। इस तरह के वाहों का दर्द अन्य व्याधियों का संकेत भी हो सकता है- इसका निश्चय भी होना चाहिए। क्यों अन्य कई शक्ति-संचार-पथ (meridians)भी आसपास से ही गुजर रहे हैं। जैसा कि हम पहले प्रसंगों में भी कह आये हैं कि मुख्य मेरेडियनों के अतिरिक्त सब मेरेडियन भी हैं,जो वहीं कहीं आसपास से गुजरते हैं,या कहीं थोड़े दूर से भी। आगे इस अध्याय के अन्त में दो चित्रों के माध्यम से इस स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

  इस प्रकार हम पाते हैं कि नाड्योपचार वड़ी सूक्ष्म परख की क्षमता रखता है,और पूर्ण निरापद भी है। इस पद्धति में रोग-निदान अति सरल है,और चिकित्सा भी वही है,जो निदान है,इस कारण अन्य चिकित्सा पद्धतियों की तुलना में रोगी और चिकित्सक दोनों को सुविधा होती है। नाड्योपचार अपने आप में निदान का बेमिशाल तरीका है,और साथ ही चिकित्सा का अद्भुत उपाय भी।अस्तु।
क्रमशः....


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