नाड्योपचारतन्त्रम्ःThe Origin Of Accupressure) का आठवां भाग
गतांश से आगे ....पांचवां अध्याय
पञ्चम अध्याय
सिद्धान्त समन्वय
आधुनिक
चिकित्सा एक्यूप्रेशर पद्धति के विभिन्न सिद्धान्तों का मुख्य आधार भारतीय प्राचीन
योगशास्त्र का वातनाड़ी सिद्धान्त ही है,जिसके कारण इसके मूल नाम
नाड्योपचारतन्त्रम् की सार्थकता
सिद्ध होती है। इसमें एक तो महर्षि पतञ्जलि प्रणीत योगदर्शन का नाड़ी सिद्धान्त
है, और दूसरा है औपनिषदिक मत। इस सम्बन्ध में आगे चल कर विभिन्न योगियों में आपसी
किंचित मतान्तर भी पाया जाता है। इस मतान्तर का मुख्य कारण है कि प्रत्यक्ष शरीर
में स्थूल रुप से प्राणवह सूक्ष्मातिसूक्ष्म नाड़ियां तो हैं नहीं,जिन्हें गहन से
गहन सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से देख-परख कर सही सही एकरुपता पूर्वक चित्रित किया जा
सके। वस्तुतः गहन ध्यानावस्था में
तत्त्वदर्शी योगियों को इन प्राणमय स्रोतों का दर्शन हुआ है,और अपने अनुभवात्मक
ज्ञान के आधार पर उस ज्ञान को सामान्यजन कल्याणार्थ ग्रन्थ रच कर प्रकाशित किया
गया। अलग अलग कालों में विभिन्न योग-साधकों के अनमोल अनुभव विभिन्न प्राचीन
ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। अतः
सैद्धान्तिक भिन्नता के पीछे देश-काल-पात्र की भिन्नता ही सर्वोपरि कारण माना जाना
चाहिए। हालांकि मूल में कहीं किसी प्रकार का मतान्तर नहीं है। चाहे वेद हो या
उपनिषद,पुराण हो या तन्त्रशास्त्र,वैद्यक हो या कि योगशास्त्र सभी जगह ९६अंगुल के
मानव शरीर में ७२००० नाड़ियों का होना ही बतलाया गया है। और इनके प्रधानतम
नियंत्रक – ‘सुषुम्णा’ के
नाम पर भी प्रचीन अथवा आधुनिक विद्वानों में जरा भी मतान्तर नहीं है। सुषुम्णा के
इर्द-गिर्द- दायें-बायें पिंगला एवं इडा
नाड़ियों का होना भी सभी योग-साधक एक मत से स्वीकारते हैं। अब रही बात इन
प्रधानत्रयी नाडियों के बाद,वरीयता क्रम की एवं प्रधान नाड़ियों की संख्या की,तो
यहां भी बहुत अधिक मातान्तर नहीं है- बात है सिर्फ चौदह और पन्द्रह की। महर्षि
पतञ्जलि चौदह के बाद एक और नाम जोड़ते हैं- चित्रा नाडी का, जिसकी चर्चा उपनिषद
में नहीं मिलती। किन्तु हां,मुख्यतम नाडी- सुषुम्णा के भीतर भी कई नाड़ियां हैं
जिनमें एक है चित्रणी। सम्भवतः महर्षि पतञ्जलि का संकेत इसी ओर हो। इस प्रकार
प्रधानता चौदह नाडियों की ही रह जाती है।
मतान्तर का दूसरा प्रसंग है- नामभेद।
उदाहरणतया- अष्टमनाडी (सूची क्रम में) शूरा के स्थान पर कहीं कहीं पयश्विनी नाम
मिलता है,जबकि इससे पूर्व सप्तम क्रम में यशस्विनी नाम आ चुका है। यह भी कोई विशेष
आपत्ति वा चिन्ताजनक बात नहीं कही जा सकती। क्यों कि नामकरण किसी लक्षण या गुण के
आधार पर,या फिर परम्परा के वशीभूत होकर किया जाता है प्रायः। और जिस साधक को जो
लक्षण प्रथमतः अनुभूत हुआ तद्नुसार नामकरण भी कर दिया।
मतान्तर का तीसरा प्रसंग कुछ विशेष
महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। वह है नाडियों के गमन मार्ग का भेद। यहां मुख्य दो
प्रकार के ग्रन्थों का आधार लिया गया है,जिसमें एक है पातञ्लयोगप्रदीप (योगदर्शन
का स्वामी ओमानन्दतीर्थ भाष्य)। यह अपने आप में योग का एक प्रमाणिक ग्रन्थ
है, जिसमें कई महत्त्वपूर्ण भाष्यों – व्यास भाष्य, रामानुज भाष्य, विज्ञानभिक्षु
भाष्य का एक ही साथ बड़ी सहजता-सरलता से दिग्दर्शन कराया गया है। और दूसरा है औपनिषदिक प्रसंग,जिसमें प्रधानता
पूर्वक जाबालदर्शनोपनिषद को लिया गया है। अन्य उपनिषदों में, केनेपनिषद, प्रश्नोपनिषद, बृहदारण्यकोपनिषद,अमृत-नादोपनिषद,
कौषीतकी ब्राह्मणोपनिषद आदि हैं। इनके अतिरिक्त योगवाशिष्ठ, घेरण्डसंहिता, हठयोग
प्रदीपिका आदि योग विषयक ग्रन्थ हैं,जहां नाडियों के बारे में विशद वर्णन मिलता
है, जो आगे चल कर नाड्योपचार पद्धति का मुख्य आधार बना।
नाडियों के उद्गम और समापन स्थल के
बारे में जो भिन्नता भाषित हो रही है,वह भी मूलतः नाम-भेद के कारण ही प्रतीत हो
रही है। जैसे किसी योगसाधक ने पादाङ्गुष्ठ से कर्ण पर्यन्त गमन करने वाली नाडी को
गान्धारी कहा तो किसी ने गान्धारा कह दिया,या इसे ही कोई अन्य साधक ने कुछ और नाम
दे दिया। अतः इससे हमारे मूल सिद्धान्त को कुछ आंच नहीं आता। चाहे हम किसी भी नाम
से किसी नाडी को क्यों न पुकारें,मुख्य उद्देश्य उससे होने वाले कार्य और परिणाम
से है- यह सब गहन शोध का विषय हो सकता है।
अतः इस अन्वेषणात्मक कठिनाई से परे हट
कर अवयववाद पर आधारित शक्ति-संचार-पथ सूची को ही सुविधा,सरलता और सहज बोध गम्यता
के अनुरुप प्राथमिकता देना उचित प्रतीत होता है। और तब इस रुप में नाड्योपचार (एक्यूप्रेशर)
चिकित्सा पद्धति के सामने मुख्य दो ही सिद्धान्त रह जाता है,भले ही अलग-अलग देशों
में एक्यूप्रेशर विशेषज्ञ जितने प्रकार का नाम देते रहें हों।
उक्त दो में एक है सर्वाधिक प्रसिद्ध
चीनियों का ‘चीजिंग’ सिद्धान्त,जो आगे चल कर चौदह मेरेडियन वाले सिद्धान्त को
विकसित करता है,और इससे हमारे मूल भारतीय सिद्धान्त को जरा भी आपत्ति नहीं होनी
चाहिए,क्यों कि यह हू-ब-हू योग सिद्धान्त ही है- उसका परिवर्तित नामकरण मात्र। और
दूसरा है दस जोनों में बांट कर शरीर का अध्ययन करने वाला Zone
Therapy नामक सिद्धान्त। जिस पर गहराई से विचार करें तो कोई नयी चीज
ही नहीं है,क्यों कि मेरेडियन सिद्धान्त को मानने वालों ने योग की प्राणवह नाडियों
का आधार लिया एवं जोन सिद्धान्त वालों ने पंचतत्त्वों का आधार लिया। ये पांच
तत्त्व ही वाम-दक्षिण भेद से दस जोन (खंड) बनते हैं,जैसा कि इस पुस्तक के पूर्व
अध्यायों में स्पष्ट किया गया है। हां,इसमें अन्तर मात्र इतना ही है कि मेरीडियन
सिद्धान्त में किसी न किसी कायगत अवयव से सम्बन्ध जोड़कर तदनुसार नामकरण कर दिया
गया है,एवं जोन सिद्धान्त में मात्र हाथ के पांच तरंगों को पैर के पांच तरंगों से
सम्बन्ध जोड़ते हुए दस भागों में शरीर को विभाजित कर दिया गया है। विभाजन की इस
रुपरेखा पर यदि गौर करें तो बात बिलकुल स्पष्ट हो जायेगी- शरीर के दस विभाग (जोन)
करने के बाद विचार ये करना है कि कौन सा अवयव किस खंड-रेखा में पड़ा है। जैसे
चित्रांक तीन में खंड-रेखा पांच का गमन मार्ग पैर की छोटी अंगुली (पृथ्वीतत्त्व)
से हाथ की छोटीअंगुली पर्यन्त है,साथ ही सिर तक भी गयी हुयी है। इस पथ पर हृदय,बायां
फेफड़ा, प्लीहा,आंतों का आधा बायां भाग,बायां गुर्दा,बायीं आँख आदि मुख्य अंग हैं।
इसी प्रकार दायें भाग में जोनखंड पांच के रास्ते में फेफड़ों का दायां
भाग,यकृत,पित्तशय,अग्न्याशय,आतों का दायां भाग,दायीं आँख,आन्त्रपुच्छ,दायां गुर्दा
आदि मुख्य अंग आये हैं। चिकित्सा काल में यह ध्यान रखना होगा कि विभाजन करने वाली
कौन सी रेखा है,या किस अंग की बीमारी है,और किस जोन (खंड) के अधीन है। चिकित्सा के
लिए उपयुक्त केन्द्रविन्दु निश्चित ही उसी जोन रेखा पर कहीं न कहीं प्राप्त हो
जायेगा। हालाकि किस व्याधि का चिकित्सा-केन्द्र-विन्दु कहां होगा- यह बिलकुल अलग
विषय है,जिसे विन्दु- विनिश्चय नामक अध्याय में स्पष्ट करने का प्रयास किया
जायेगा।इस प्रसंग को स्पष्ट करने के लिए पूर्व में दिये गये चित्रांक 3 को जरा
विभाजित रुप में एक बार फिर यहां देख लें—
इस
प्रकार पंचतत्त्वों पर आधारित जोन थेरापी (Zone Therapy)
सिद्धान्त भी सहज ग्राह्य मूल सिद्धान्त पर ही आधारित है। प्राण-प्रवाह ‘ची’ दस जोनों में बहे या पन्द्रह नाड़ियों में या कि चौदह
मेरीडियनों में मूल सिद्धान्त में कोई अन्तर नहीं पड़ता। सभी चौदह मेरीडियन (वातनाडियां)
दस जोनों यानी पांच तत्त्वों में ही समाहित हैं,इसे स्पष्ट करने के लिए पूर्व
अध्याय में वर्णित शक्ति संचार पथ सूची पर गौर करें तो स्पष्ट होता है कि चौदह
संचार पथों को मुख्य तीन भागों में बांटा गया है- छः+छः+दो यानी चौदह। ‘ग’ श्रेणी
में आये दो पथ हैं- नियंत्रक एवं संचालक,जो वस्तुतः एक सा कार्य करते हैं। इनकी
स्थिति भी शरीर के खास एक भाग पर ही आगे-पीछे है,एवं शक्ति संचार भी अन्य पथों की
भांति नहीं होता। अतः सुविधा के लिए इन्हें अलग मान लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी
चाहिए। वैसे भी ये दो Master Meridian हैं।
अब शेष छः ऋणात्मक (यिन) और छः
धनात्मक (यांग) पर विचार करें। यिन मेरेडियनों में एक है हृदयसंचारपथ (Heart
Meridian) और दूसरा है हृदयावरणसंचारपथ (Pericardium
Meridian)> वस्तुतः ये दोनों शरीर के एक ही अवयव – हृदय (Heart) से सम्बन्ध रखते हैं,तथा एक ही खंडरेखा सीमा (Zone n. 5 of left
side) में स्थित हैं, अतः हृदयावरण नाडी को हृदयनाडी का सहयोगी मान
लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
ठीक ऐसी ही स्थिति धनात्मक खंड (यांगजिंग)
में भी है- उष्मासंचारपथ(Warmer meridian) और पित्ताशय संचार पथ (Gallbladder
meridian) दो यांग मेरीडियनों के नाम गिनाये गये हैं। वस्तुतः उष्मा
कोई अवयव तो है नहीं,प्रत्युत किसी अवयव का गुणविशेष है, और यह गुण है पित्ताशय
का। तत्त्व की दृष्टि से विचार करें तो उष्मा ‘ अग्नितत्त्व ’ होगा एवं पित्त भी
अग्नितत्त्व ही है, जो पित्ताशय का आश्रयी है। इस प्रकार इन दोनों संचार पथों का
समन्वय कतई आपत्तिजनक प्रतीत नहीं होता।
और इस प्रकार यिन और यांग- ऋणात्मक और
धनात्मक उप खंडों में से एक एक संचार पथ को उसके सहधर्मी संचार पथ के साथ समन्वय
कर देने पर,कुल प्रवाही पथ बारह में से शेष दस ही बच गये। ध्यातव्य है कि
संतुलनात्मक संचार पथ(Balancing meridian) के दो पथ पहले ही अलग किये
जा चुके हैं,अतः मूलतः शेष रह गये मात्र दस संचार पथ, जिनका सम्बन्ध दस जोनों से
है,और ये दस जोन भी मूलतः पांच तत्त्वों के ही वाम-दक्षिण रुप हैं, यानी मूल रुप
से हुये सिर्फ पांच ही जिनमें पांच प्रकार- प्राण,अपान,उदान,व्यान और समान की
जीवनी शक्ति (Bio Electricity) ‘ची’ प्रवाहित होती है।
उपर्युक्त सभी सिद्धान्तों के आपसी
समायोजन के पश्चात शेष रह जाता है कुछ नियम (सिद्धान्त)- डॉ.पोलनोजियर का कर्ण
सिद्धान्त (Auricular
Therapy) जो कि वास्तव में अलग है ही नहीं। फ्रान्सीसी डॉ.नोजियर का
सिर्फ यही कहना है कि पूरे शरीर में व्याप्त असंख्य एक्यूप्रेशर केन्द्रों का
चुनाव न करके सिर्फ कान पर स्थित अति संवेदनशील विन्दुओं पर उपचार करने मात्र से
ही रोगों का निवारण हो सकता है- यह ठीक वैसी ही बात है जैसे कुछ विद्वान मेरुदण्ड
को महत्त्व देते हुए कहते हैं कि सभी रोगों का उपचार सिर्फ यहीं से सम्भव
है,किन्तु इस प्रकार Spinal cord Therapy नाम से तो कोई अलग
विभाग नहीं बना है।
इस प्रकार स्थिति पूर्ण स्पष्ट है । अतः पद्धति के आन्तरिक
उलझनों में न पड़ कर सिद्धान्त-समन्वय के मेरे इस प्रयास को समझें,और स्वीकार
करें। इसी में मानवता का कल्याण है। अस्तु।
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क्रमशः जारी.....
पूज्यवर आप की पुस्तक कैसे प्राप्त होगी
ReplyDeleteसम्पर्क हेतु धन्यवाद।
ReplyDeleteName - KAMLESH PUNYARK
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समय के लिए बाहर जा रहा हूँ 3 मार्च को।
साशीष शुभकामना।