गतांश से आगे...
दशवें अध्याय का शेषांश...
(4)
कान—
नाड्योपचार
प्रतिबिम्ब-केन्द्र-समूह की परिचय-श्रृंखला में वरीयता क्रम से चौथे स्थान पर है
कान। दोनों कान की बनावट एक समान है। वैसे,समान बनावट तो दोनों हथेलियों और तलवों
की भी है,किन्तु आन्तरिक दृष्टि से विचार करने पर एक्युप्रेशर विन्दुओं का काफी
फर्क है दोनों ओर। जब कि ऐसी बात दोनों कानों के साथ नहीं है। यानी कि दोनों कानों
में सभी केन्द्र समान रुप से पाये जाते हैं। इस प्रकार शारीरिक उपखण्ड(जोन)नियम का
अपवाद है कान। फलतः कान से सम्बन्धित एक का ही चित्र दिया गया है। चित्रांक 27-क
में एक कान के सभी प्रतिबिम्ब केन्द्रों को क्रमांकों में दर्शाया गया है,तो
चित्रांक 27 ख में उन्हीं बातों को अंगाकृति के रुप में प्रदर्शित किया गया
है,ताकि समझने में सुविधा हो। अंकों एवं अंगों के वर्णन का ढंग पूर्व वर्णित
तलवे-तलहथी आदि की तरह ही है। निदान या चिकित्सा-काल में उसी भांति इन केन्द्रों
का प्रयोग किया जाता है। हां,ध्यान देने योग्य है कि कुछ क्रमांक अंगों के नाम से
हैं,तो कुछ क्रमांक व्याधि विशिष्ट के नाम से। यथा चित्रांक 27 क का क्रमांक 4 उच्च
रक्तचाप को दर्शाता है, अर्थात उच्चरक्तदाब की स्थिति में इसका प्रयोग पूर्व कथित
विधि से किया जाना चाहिए,जिससे व्याधि में संतुलन-नियंत्रण की स्थिति पैदा होगी।
यही कारण है कि विशेषज्ञों ने इसे व्याधि-विशिष्ट संज्ञा प्रदान की है। इसी तरह
केन्द्रांक 23 भी है।
एक अन्य चीज चित्रांक 27 क में देखने
को मिल रही है- वह है- मध्य भाग पर थोड़ी
मोटी लकीर,जो अर्द्धवृत्ताकार है,और अंग्रेजी के पांच संयुक्ताक्षरों से युक्त है।
वस्तुतः मेरुदण्ड के प्रभाव और उपयोगिता से कान भी अछूता न रह सका। जैसा कि पूर्व
वर्णित है—तलवे और तलहथियों में मेरुदण्ड के प्रतिबिम्ब केन्द्रों को प्रभावशाली
स्थान प्राप्त है। उसी भांति यहां कान में भी है। मेरुदण्ड के सभी कशेरुओं से
सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्र अपने पूर्व क्रम से ही (जैसा कि मेरुदण्ड प्रतिबिम्ब
केन्द्र तालिका से स्पष्ट है) यहां कान में भी हैं,किन्तु स्थान बहुत ही कम है,अतः
सभी 33 विन्दुओं का अलग-अलग विनिश्चय कितना जटिल और सूक्ष्म होगा, इसे प्रयोग-कर्ता
सहज ही समझ सकते हैं। अतः इन समस्त विन्दुओं का स्वतन्त्र विवेचन किये
बिना, उपखंडीय विभाजन क्रम से सामूहिक ढंग से उपयोग करना ही उचित,आसान और तर्कसंगत
होगा। मेरुदण्ड के पांचो उपखंडों का प्रथमाक्षर संकेत यहां दिया हुआ है। यथा- C-Cervical, T- Thoresic, L-Lumber, S-Sacral,
C-Coccyx—इनका उपयोग अनुमानिक विनिश्चय के आधार पर यथाविधि किया जाना चाहिए।
तुलनात्मक दृष्टि से
देखने पर हम पाते हैं कि अन्य प्रतिबिम्ब केन्द्र समूह(स्विचवोर्ड)से कान-समूह का
आकार बहुत ही छोटा है,और अपेक्षाकृत विन्दु ज्यादा हैं। अतः स्वाभाविक है कि
प्रत्येक विन्दु को कम घेरदार स्थान मिलेगा। प्रत्येक केन्द्र को प्रायः छोटे सरसो
के बराबर ही स्थान मिल पाया है। छोटे से स्थान में बहुत अधिक विन्दु सजे हुये
हैं,फलतः उनके विनिश्चय में भी काफी सूक्ष्मता वरतनी पड़ती है। वरीयता क्रम से
उत्तरोत्तर सक्रियता होते हुए भी,सरलता के विचार से कर्ण-समूह को चौथा स्थान देने
का यही कारण भी है। क्यों कि हम पूर्व में भी कहते रहे हैं कि
नाड्योपचार(एक्यूप्रेशर) एक अति सरल चिकित्सा पद्धति है। अतः सक्रियता को वरीयता न
देकर,सरलता को महत्त्व दिया गया,ताकि सामान्य जनसुलभ कहा जा सके।
विगत दस-पन्द्रह वर्षों में चीन में
कान से सम्बन्धित एक्यूप्रेशर(एक्यूपंचर)पर काफी अध्ययन हुआ है,जिसके परिणाम
स्वरुप इस अति लधु केन्द्र समूह में लगभग 200 से भी अधिक प्रतिबिम्ब केन्द्रों की
खोज की गयी है। किन्तु एक ओर स्थान छोटा होने से विन्दु-निश्चय की जटिलता बढ़ती
है,तो दूसरी ओर सबके सब विन्दु विशेष महत्त्व के हैं भी नहीं- उपचार की दृष्टि से।
अतः उनमें से कुछ खास केन्द्रों के बारे में ही यहां चित्रांक 27 में बतलाया गया
है। इसकी तालिका यहां स्पष्ट की जा रही है—
केन्द्रांक
|
अवयवादि सम्बन्ध
|
अंग्रेजी नाम
|
1.
|
तुण्डीकेरी
|
Tonsillitis
|
2.
|
आन्त्रपुच्छ
|
Appendix
|
3.
|
एड़ी
|
Heal
|
4.
|
उच्च
रक्त चाप
|
Hypertension(HBP)
|
5.
|
नितम्ब
|
Buttock,
Hip
|
6.
|
घुटना
|
Knee
|
7.
|
मणिबन्ध
|
Wrist
|
8.
|
श्वांस
व्याधि
|
Chronic
Asthma
|
9.
|
जांघ
|
Thigh
|
10.
|
विशिष्ट
वातनाडी
|
Sciatica
Nerve
|
11.
|
मूत्रनलिका
|
Ureter
|
12.
|
मूत्राशय
|
Urine
bladder
|
13.
|
कूल्हा
|
Hip
|
14.
|
बड़ीआंच
|
Large
Intestine
|
15.
|
वृक्क(गुर्दे)
|
Kidney
|
16.
|
छोटीआंत
|
Small
Intestine
|
17.
|
मलाशय
|
Rectum
|
18.
|
आमाशय
|
Stomach
|
19.
|
श्वांसप्रणाली
|
Respiratory
System
|
20.
|
फेफड़ा
|
Lungs
|
21.
|
मस्तिष्क
|
Brain
|
22.
|
श्वांस
नलिका
|
Trachea
|
23.
|
उच्च
रक्त चाप
|
Hypertension(HBP)
|
24.
|
नाक
के भीतरी भाग
|
Inner
part of Nose
|
25.
|
नाक
के बाहरी भाग
|
Outer
part of Nose
|
26.
|
आँख
|
Eyes
|
27.
|
आँख
|
Eyes
|
28.
|
फेफड़ा
|
Lungs
|
29.
|
अण्डकोश
|
Testes
|
30.
|
कान
|
Ear
|
31.
|
कान
|
Ear
|
32.
|
नीचे
का जबड़ा
|
Jaw
lower side
|
33.
|
ऊपर
का जबड़ा
|
Jaw
upper side
|
34.
|
गर्दन
|
Neck
|
35.
|
कंधा
|
Shoulder
|
36.
|
कुहनी
|
Elbow
|
37.
|
उदर(पेट)
|
Stomach
|
38.
|
कुहनी
|
Elbow
|
39.
|
घुटना
|
Knee
|
40.
|
अग्न्याशय
|
Pancreas
|
41.
|
प्लीहा
|
Spleen
|
42.
|
यकृत
|
Liver
|
43.
|
दांत
|
Teeth
|
44.
|
ललाट
|
Four
head
|
45.
|
जीभ
|
Tung
|
46.
|
मानसिक
व्याधियां
|
Mantel
Disease
|
47.
|
गर्भाशय
एवं अंडाशय
|
Uterus
& Ovaries
|
48.
|
मोटापा
|
Fatness
|
49.
|
हृदय
|
Heart
|
50.C
|
ग्रीवा
कशेरु
|
Cervical
Vertebra
|
51.T
|
पृष्ठ
कशेरु
|
Thoracic
Vertebra
|
52.L
|
कटि
कशेरु
|
Lumber
Vertebra
|
53.S
|
त्रिकास्थि
कशेरु
|
Sacral Vertebra
|
54.C
|
गुदास्थि
कशेरु
|
Coccyx
Vertebra
|
नोटः-
1) केन्द्रांक 46,47,48 का स्थान वही है,जो चित्रांक 27 में दर्शाया गया है।
किन्तु प्रयोग में देखा गया है कि ये तीनों केन्द्र कान के पिछले भाग में सक्रिय
हैं। अतः उपचार पीछे की ओर से ही करना चाहिए।
2)केन्द्रांक
1 को इस तालिका में टॉन्सिल के लिए बतलाया गया है,किन्तु मणिभाई जी का कथन है कि
इस केन्द्र को वंशानुगत दमे के रोगियों में अवश्य प्रयोग करे। आशातीत लाभ होगा।
कान के सम्बन्ध में कुछ और भी महत्त्वपूर्ण बातें हैं,जिनका
वर्णन यहां कदापि अप्रासंगिक न होगा। जैसा कि पूर्व में कहा गया है—मेरुदण्ड अपने
आप में पूर्ण स्वतन्त्र है एवं सर्वांग उपयोगी एक्यूप्रेशर प्रतिबिम्ब केन्द्र
समूह है। लोकप्रियता की दृष्टि से तलवे और तलहथी का स्थान उससे भी बढ़ कर है।
स्वतन्त्र उपयोगिता भी इनकी काफी है।जिसके परिणाम स्वरुप इसे स्वतन्त्र चिकित्सा
विधा (रिफ्लेक्सोलॉजी)का नाम दे दिया गया। कुछ इसी तर्ज पर विगत कुछ वर्षों से फ्रांस
के डॉ.रेनी वार्डियल का ध्यान एक्यूप्रेशर की ओर आकृष्ट हुआ,और गहन अध्ययन-मनन के
बाद उन्होंने निश्चय किया कि ‘कर्ण एक्युपंक्चर’
की
तुलना में ‘कर्ण एक्यूप्रेशर’
अधिक प्रभावशाली,सरल,एवं दुष्प्रभाव रहित है। अतः इसका(इन विन्दुओं का) प्रयोग
दाब-प्रक्रिया के रुप ही किया जाना चाहिए,न कि छिद्र-प्रक्रिया के रुप में। इसी
क्रम में सन् 1950 में फ्रांस के ही न्यूरोसर्जन डॉ.पॉलनॉजियर ने कर्ण एक्यूप्रेशर—Auricular
Therapy के नये नामकरण से विभूषित करते हुए अपने आप में पूर्ण और
स्वतन्त्र चिकित्सा पद्धति के रुप में घोषित-प्रतिष्ठित किया। फ्रान्सीसी
चिकित्साविदों के इस प्रकार के दावे और घोषणाओं से कान के एक्यूप्रेशरीय उपयोग की
महत्ता और भी बढ़ जाती है।
कान के सम्बन्ध में कुछ और चर्चा करने से पूर्व तत्सम्बन्धित
कुछ चित्रों का अवलोकन कर लें,जिनकी चर्चा ऊपर की गयी है,तथा क्रमांकों की तालिका
भी प्रस्तुत की गयी है। यथा—चित्रांक 27
क-ख-
कान की महत्ता का एक और उदाहरण ध्यान
देने योग्य है—बच्चे कुछ गलती करते हैं,तो हम चट उसका कान उमेठ देते हैं। यहां भी
परम्परा का वही प्रश्न उठता है—आंखिर कान ही क्यों ? दुनिया के किसी कोने में नाक उमेठने की परम्परा नहीं है,और न कोई अन्य अंग
उमेठ कर बड़े (अभिभावक) अपना आक्रोश बच्चों पर व्यक्त करते हैं। सच पूछा जाय तो
यहां भी नाड्योपचार का गुप्त सिद्धान्त ही छिपा हुआ है लोकपरम्पराओं में। भले ही
उसकी व्यावहारिकता दिनोंदिन बदलाव पूर्वक विकृत होती गयी,और मूल उद्देश्य गुम होता
गया। कान उमेठना क्रोध प्रकट करने की व्यावहारिक मुद्रा बन गयी।
बात दरअसल ये है कि बच्चे में गलती या विस्मृति के सुधार के
लिए कान के स्पर्श की परम्परा थी,जो आगे चल कर (विकृत होकर) उमेठने और ताड़ित करने
की परम्परा बन गयी। कान के स्पर्श की एक खास मुद्रा है,जो नाड्योपचार से सम्बन्धित
है। कान को स्पर्श (उमेठने) करने का तरीका ये है कि उमेठने वाले का अंगूठा कान पर
इस प्रकार पड़े कि केन्द्रांक 21 (चित्रांक 27 क) पर दबाव पड़ सके। इस मुद्रा में
प्रयोगकर्ता की शेष अंगुलियां कान के पिछले भाग में केन्द्रांक 46(चित्रांक 27 क) पर भी साथ-साथ दबाव डालेगी। दोनों क्रमांकों-21
और 46 का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से है। अब यदि इस बात को ध्यान में रखते हुए सही
तरीके से कान को उमेठा जाय,यानी जोर से असरदार दबाव डाला जाय तो स्वाभाविक है कि
बच्चे का मानसिक विकास होगा,स्मरण शक्ति बढ़ेगी,तथा चुंकि इसका प्रभाव पीयूष एवं
चेतना ग्रन्थि (Pituitary & Pineal Glands) पर पड़ता है,इस कारण बच्चे में उदण्डता और उच्छृंखलता का विकार कम होने
लगता है। वस्तुतः कान उमेठना एक गहन और रहस्यमय यौगिक प्रक्रिया है, जिसका सही
तरीके से पालन होना चाहिए,न कि विकृत रुप से,अन्यथा लाभ का सिद्धान्त (परम्परा)
हानि के परिणाम में बदल जायेगा। ज्ञातव्य है कि परिवर्तित रुप से यह परम्परा जापान
में आज भी है। वहां लोगों की धारणा है (भारत में भी ये मान्य है) कि बड़े और लम्बे
कान वाले लोग दीर्घजीवी और यशस्वी होते हैं। अतः आदतन प्रायः माता-पिता दुलार से
अपने बच्चों का कान खींचते और उमेठते हैं,ताकि कान लम्बा होजाय।
कान की महत्ता का और भी कारण है। शरीर को चलते-फिरते समय
संतुलित रखने में कान का काफी सहयोग मिलता है—इस बात से प्रायः लोग अवगत
हैं,किन्तु आकार की दृष्टि से कान की जो विशेषता और महत्ता है,उस पर बहुत कम ही
लोगों का ध्यान गया होगा। वस्तुतः कान(बाहरी आकृति)मानवी गर्भ की लघु प्रतिकृति ही
तो है। इसका आकार ठीक वैसा ही है,जैसी स्थिति गर्भगत बालक की होती है। इसे चित्रांक
27 ग द्वारा स्पष्ट किया गया है।
गर्भ में बालक उल्टा स्थित होता है-सिर नीचे की ओर रहता है और
हाथ-पांव मुड़-चिमुड़ कर ऊपर सिमटा हुआ रहता है। कान की बाहरी बनावट पर गौर
करेंगें तो स्थिति ठीक वैसी ही मिलेगी—कान का लोव (ललरी) सिर का प्रतिनिधित्व करता
है,बाहरी किनारा शरीर के बाहरी भाग का,जिसके भीतर परतदार भाग
मुड़े-तुड़े,सिमटे-सिकुड़े अन्यान्य अंगों का प्रतिनिधित्व करता प्रतीत होता है।
इस प्रकार पूरा कान पूरे शरीर का प्रतिनिधित्व करता है।
वस्तुतः कान हमारे शरीर का प्रतिनिधि
ही है—यौगिक दृष्टि से,साथ ही एक्युप्रेशरीय दृष्टि से भी। शरीर के समस्त
स्नायुतन्त्र (लगभग सभी अंगों से सम्बन्धित) के एक न एक छोर कान में अवश्य पहुंचता
है,और वह कान के जिस भाग पर आकर मिलता है,वहाँ एक सूक्ष्म केन्द्र का निर्माण करता
है,यानी वह स्थल ही एक्यूप्रेशर प्रतिबिम्ब केन्द्र बनता है। कान के इसी महत्त्व
और गुण के कारण फ्रान्सीसी विशेषज्ञों का कर्ण-एक्युप्रेशर-सिद्धान्त(Auricular
Therapy ) इतना
विकसित और प्रचलित हुआ। इन विशेषज्ञों द्वारा कुछ विशिष्ट प्रतिबिम्ब केन्द्रों की
खोज की गयी है। विशिष्टता का दो कारण है—एक तो इन केन्द्रों की संवेदनशीलता विशेष
रुप से है,और दूसरा यह कि चीनी विशेषज्ञों द्वारा अन्वेषित केन्द्रों की भीड़ से
काफी हट कर,अति संक्षिप्त रुप से पूरे कान को कुछ खास भागों में बांट दिया गया है।
इन विभाजित खंडों का सम्बन्ध अवयव विशिष्ट से है,जिन पर पूर्व निर्दिष्ट विधि से
ही दाब उपचार किया जाता है। इसे नीचे की तालिका में स्पष्ट किया जा रहा है—
S.N.
|
Division
|
Organ
|
1
|
Lobe
|
Face
|
2
|
Antitragi’s
|
Head
|
3
|
Helix
limb
|
Digestive
system
|
4
|
Anti
Helix
|
Up
to Neck(whole body)
|
5
|
Upper
Anti Helix
|
Leg
|
6
|
Lower
Anti Helix
|
Hip
|
7
|
Triangular
fassa
|
Penice,Vegina,Anus
|
8
|
Acapha
|
Hand
|
9
|
Tragus
|
Neck
|
10
|
Upper
corner of Tragus
|
Mouth
|
11
|
Inter
tragic notch
|
Endocrine
glands
|
12
|
Cimba
concha
|
Lower
part of Abdomen
|
13
|
Kewam
concha
|
Chest
|
14
|
Anti
Helix toward Concha
|
Spine
|
15
|
Helix
|
Liver
|
16
|
Back
of ear
|
Backside
of body
|
हालांकि
उपर्युक्त तालिका में निर्दिष्ट प्रतिबिम्ब केन्द्र व्यावहारिक रुप से सक्रिय अवयव
हैं, किन्तु विभाजन और विनिश्चय की प्रक्रिया अपूर्ण सी है। फिर भी व्यवहार-योग्य
है। उक्त तालिका के क्रमांकों को चित्रांक 27 ग के क्रमांकों द्वारा स्पष्ट किया
गया है। कान से सम्बन्धित पूर्व तालिका (चित्रांक 27 क) के साथ इसका भी समन्वय कर
देने से कर्ण एक्यूप्रेशर की पर्याप्त जानकारी हो जाती है।
उक्त क्रम से कान के प्रतिबिम्ब
केन्द्रों में यथासम्भव मुख्य-मुख्य केन्द्रों का अलग-अलग दो तालिका में वर्णन
किया गया। व्यवहार काल में विशेज्ञ रुप से इन सभी पर सावधानी वरतनी चाहिए,क्यों कि
लगभग सभी केन्द्र काफी संवेदनशील हैं। विशेषकर अति भाउक और संवेदनशील व्यक्तियों
के उपचार काल में अधिक सावधान रहने की जरुरत है। हालांकि पहले भी कहा जा चुका है
कि एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का कोई विशेष प्रतिप्रभाव (side
effect)नहीं है,फिर भी एहतियात के तौर पर ध्यान रखा जाना चाहिए।
क्रमश....
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