नाड्योपचारतन्त्रम्(The Origin of Accupressure)

गतांश से आगे...
नाड्योपचारतन्त्रम्- का पन्द्रहवां भाग

                                              दशम अध्याय
                                      प्रतिबिम्ब-केन्द्र-परिचय
            नाड्योपचार तन्त्र(एक्यूप्रेशर) में प्रतिबिम्ब-केन्द्रों को निश्चित रुप से पहचानने की विधि पूर्व अध्याय में वर्णित है। अब,इन केन्द्रों का मानव-शरीर  में यथास्थिति जानकारी दी जा रही है। शरीरगत सभी केन्द्रों का पूर्ण परिचय प्राप्त करने के पश्चात ही सही ढंग से उपचार किया जा सकता है। ये प्रतिबिम्ब केन्द्र (Reflex centre) ही चिकित्सा के आधार-स्तम्भ हैं, जिन्हें चीनियों द्वारा सुबो नाम से पुकारा गया है।
            जैसा कि पूर्व वर्णन-क्रम में भी कहा जा चुका है,एक्युप्रेशर-विशेषज्ञों ने अब तक पूरे मानव-शरीर में हजारों की संख्या में केन्द्र-विन्दु खोज निकाले हैं,जिनके सहारे मानव को पूर्ण रुप से स्वास्थ्य लाभ कराया जा सकता है। वैसे कुछ विशेषज्ञ यह दावा करते हैं कि पूरे मानव-शरीर में कुल सत्तर हजार प्रतिबिम्ब केन्द्र मौजूद हैं। योगशास्त्र के अनुसार विचार किया जाय तो यह बड़ी संख्या उचित ही प्रतीत होती है। वस्तुतः सत्तरहजार ही नहीं,प्रत्युत बहत्तरहजार केन्द्र होने चाहिए,जो मूलतः सूक्ष्म नाडियों के प्रतीक हैं। प्रत्येक प्राणवह स्रोत (नाडी) का सम्बन्ध एक शक्ति-केन्द्र से है,जहां और जिसके द्वारा उसका सह-संचालन कार्य सम्पन्न होता है। सह-संचालन इसलिए कहना पड़ रहा है,क्यों कि मुख्य संचालन-कार्य तो महानाडी (सुषुम्णा) द्वारा ही सम्पन्न हुआ करता है। ध्यातव्य है कि इन सभी नाडियों के अपने-अपने स्वतन्त्र लधु संचालन-केन्द्र (मुहाना) हैं। इसे ही एक्यूप्रेशर-प्रतिबिम्ब-केन्द्र कहा जाता है- आधुनिक विद्वानों द्वारा। इस नियम के अनुसार यदि नाडियों की संख्या बहत्तरहजार है,फिर उनके केन्द्रों की संख्या मात्र सत्तरहजार कैसे हो सकती है,यानी वह भी बहत्तरहजार ही है,और होनी भी चाहिए। यही न्यायोतित और तर्कसंगत प्रतीत होरहा है। किन्तु इन सभी नाडियों और उनके केन्द्रों का सम्यक् ज्ञान सिर्फ गहन ध्यानावस्था में विशिष्ट योगाभ्यासियों को ही हो सकता है,यह भी पूर्णतया निश्चित तथ्य है। आने वाले लम्बे समय में नित विकासोन्मुख भौतिक विज्ञान की पहुँच यदि इतनी सूक्ष्म (गहन) हो सकी, तो शायद सामान्य जन के लिए भी इसे देख-समझ पाना सम्भव हो सकेगा। अतः अब तक अद्यतन उपलब्ध ज्ञान (अनुभव,जानकारी) तक ही सीमित रहना पड़ रहा है। वैसे, विभिन्न आधुनिक एक्यूप्रेशर विशेषज्ञों द्वारा नित नये केन्द्रों का खोज भी जारी है,फिर भी योगशास्त्र-वर्णित केन्द्र-संख्या अभी बहुत दूर है।
            किन्तु इसके लिए कोई बौद्धिक बौनेपन की बात नहीं है,क्यों कि जितने केन्द्रों का सम्यक् ज्ञान अब तक विशेषज्ञों को हो चुका है,सामान्य जन के स्वास्थ्य-लाभ के लिए उतना ही कुछ कम नहीं है।
            अवतक पूर्ण विनिश्चित विन्दुओं में चीनी,जापानी एवं अमरीकि विशेषज्ञों को मात्र छःसौ सन्तावन(657)प्रतिबिम्ब-केन्द्रों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त हो सका है। इनमें भी कुछ खास-खास केन्द्रों पर ही उपचार करने का विशेष प्रचलन है। अमरीकन रिफ्लेसोलॉजी सिद्धान्त को मानने वाले विशेषज्ञों ने तो इस संख्या को और भी सीमित कर दिया है। इनके अनुसार तलवे-तलहथी के 38-38 विन्दुओं को ही सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है।
            एक्यूप्रेशर-प्रतिबिम्ब-केन्द्रों से विशिष्ट परिचय के सिलसिले में सरलता-सिद्धान्त के अनुसार वरीयता और विशिष्टता क्रम में यहाँ यथासम्भव वर्णन किया जा रहा है। प्रथमतः वरीयता क्रम से विभाजित केन्द्र-समूहों का वर्णन समीचीन प्रतीत होरहा है,तत्पश्चात सरलता एवं गुणवत्ता के उसी क्रम में अन्य केन्द्रों का यथासम्भव परिचय।
            पूरे शरीर में विशिष्ट प्रतिबिम्ब-केन्द्रों को सुविधा के लिए ग्यारह समूहों में बांटा गया है। इन समूहों को कुछ विशेषज्ञ स्विच-वोर्ड भी कहते हैं। ये सभी स्विच-वोर्ड हैं—          दोनों तलवे,दोनों हथेली,दोनों कान,चेहरा और सिर,पीठ,पेट,हाथ,पैर- कुल ग्यारह समूह। यहां इन सभी समूहों को अलग-अलग चित्रों के माध्यम से अधिकाधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। सभी चित्रों में क्रमवार अंग भी दिये गये हैं,और उन अंकों से सम्बन्धित सूची (तालिका) में स्पष्ट किया गया है कि किस अंक (विन्दु) का किस रोग से सम्बन्ध है। किसी-किसी चित्र में (खासकर चेहरे और कान) की अंक-तालिका में अंग विशेष का नाम न देकर रोग विशेष की ही चर्चा है,जिसका अर्थ है कि उस खास व्याधि में प्रभावित अंग विशेष का निश्चय करने का उलझन जरुरी नहीं है,बल्कि उस केन्द्रविन्दु पर दबाव उपचार करके रोग-मुक्त हुआ जा सकता है। वैसे, अंग-परिचय का उद्देश्य(महत्त्व) ये है कि रोग का निदान (निश्चय) चिकित्सक अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर करके,तत्सम्बन्धित प्रभावित अंग (विन्दु) का निश्चय आसानी से कर सके। तात्पर्य यह है कि केन्द्र-विन्दु पर दबाव देकर परीक्षण करके, रोग का निदान एवं चिकित्सा अथवा पूर्वानुमान द्वारा रोग-निदान हुआ रहने पर , तत्सम्बन्धी अंग पर सीधे उपचार की व्यवस्था- अपनी इच्छा एवं आवश्यकतानुसार चिकित्सक कुछ भी करने में उक्त केन्द्र का उपयोग कर सकता है। जैसा कि आम प्रचलन है- निदान सम्बन्धी सारी बात तो रोगी स्वयं ही कर जाता है, चिकित्सक महोदय तो सिर्फ अपने  ज्ञान तथा उपकरणों (यन्त्रों) की मदद से रोगी द्वारा किये गये निदान की पुष्टि भर करते हैं। अतः दोनों ही स्थितियों में (निदान एवं चिकित्सा) चिकित्सक को सहयोग मिलेगा। उदाहरणतया- रोगी कहे कि पेशाब खुल कर नहीं आता है। यहां चिकित्सक इतनी बात तो अवश्य समझ जायेगा कि पेशाब की यह गड़बड़ी किस अंग विशेष की विकृति से सम्बन्ध रखती है। फलतः वह रोग-निश्चय न करके,सीधे उपचार ही शुरु कर सकता है,अथवा पुष्टि हेतु संभावित अंग- गुर्दे,मूत्राशय,मूत्र-नलिका आदि से सम्बन्धित विन्दुओं का परीक्षण भी कर सकता है। किन्तु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि रोगी द्वारा रोग की जानकारी मिल जाने पर भी प्रभावित अवयव की जानकारी करने में चिकित्सक को कठिनाई होने लगती है। वैसी स्थिति में अनुमानित आधार पर प्रत्यक्ष और प्ररोक्ष रुप से प्रभाव-क्षेत्र में आनेवाले सभी केन्द्रों की जांच आवश्यक हो जाती है। उदाहरण स्वरुप- कोई दम्पति सन्तानहीन है। यहां सन्ताहीनता-दोष तो कथन मात्र से ही स्पष्ट हो गया,किन्तु उसका कारण ढूढ़ना चिकित्सक का कर्तव्य है। अतः यहां बारी-बारी से पति-पत्नी दोनों के शरीर पर,जननांगों से सम्बन्धित विभिन्न केन्द्रों (यथासम्भव सभी केन्द्र) का परीक्षण करना चाहिए। इस क्रम में पहले प्रत्यक्ष-प्रभाव-क्षेत्री विन्दु का परीक्षण ही उचित है। बहुत हद तक सम्भव है,यहीं उसका निदान स्पष्ट हो जाय। ऐसा न हो पाने की स्थिति में अप्रत्यक्ष प्रभाव क्षेत्र में पड़ने वाले केन्द्रों की सम्यक् जांच भी जरुर हो जाता है।
            प्रतिबिम्ब-केन्द्र-परिचय से सम्बन्धित एक और भी बात महत्त्वपूर्ण है कि एक ही अंग से सम्बन्धित विन्दु प्रायः सभी स्विच-वोर्डों पर मौजूद हैं,किन्तु यह कतई जरुरी नहीं है कि सभी केन्द्रों को उपचारित किया ही जाय। श्रीमणिभाईजी का मूल सूत्र—जहां दुःखे,वहीं दबावो- इसी बात का संकेत देता है। किस रोग में,किस विन्दु पर,किस रोगी को दाब-उपचार करना है—यह बात 95 फीसदी मूल सूत्र पर ही निर्भर करता है। शेष पांच फीसदी निर्भर है चिकित्सक के अनुभव,विवेक और रोगी की स्थिति पर। किन्तु ध्यान रहे,कभी-कभी इस अनुपात की ठीक विपरीत स्थिति से भी सामना हो सकता है। जैसे—रोगी वेहोश हो,या बच्चा हो, मूक-वधिर हो,वैसी स्थिति में एक्यूप्रेशर-विंदु-विनिश्चय के विभिन्न निर्दिष्ट नियमों के आधार पर काम करना उचित होगा।

            अब यहां क्रमशः सभी प्रतिबिम्ब केन्द्र-समूहों का सचित्र परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है— 
(1) दोनों तलवे—(दोनों तलवे के लिए चित्रांक 22 द्रष्टव्य है,जिसमें 1से10तक के चित्र हैं,यानी 22-1.22-2 इत्यादि) 

(अन्य चित्रों को क्रमशः अगले पोस्ट में देखें)

Comments